नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-पंद्रहवां
दिनांक 08 जून सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
मंदिर के द्मद्वार खुले हैं
मैं तुम्हारा द्वार खटखटाता हूं, तुम्हें आश्वासन देता हूं, तुम्हें भरोसा देता हूं
कि डरने का कोई भी कारण नहीं है। जो तुम छोड़ोगे, वह कचरा है।
जो तुम पाओगे, वह महान संपदा है।
प्रश्न:
भगवान, आपने एक पत्र में
लिखा है: असमंजस में न रहो, पीछे मत देखो। मंदिर के द्वार
पूरे खुले हैं। हजारों साल के बाद ऐसा अवसर पृथ्वी पर उतरता है। और जान लो कि ये
द्वार सदा खुले नहीं रहेंगे। आसानी से यह अवसर खो भी सकता है। इसलिए मैं बार-बार
पुकार रहा हूं, आओ और प्रवेश करो! मैं दरवाजे पर खड़ा दस्तक
पर दस्तक दे रहा हूं। और दस्तक इसलिए देता हूं कि किसी अन्य जन्म में और अन्य युग
में मैंने वचन दिया था।
भगवान, अपने ही इस रहस्य भरे
उदघोष को स्पष्ट करने की करुणा करें। और बताएं कि क्यों ऐसा अवसर हजारों साल के
बाद आता है और क्यों तथागत के आने के साथ आता है और उनके जाने के साथ चला जाता है?
और कृपया यह भी बताएं कि क्यों स्वयं राम की यह आवाज हमें सुनाई
नहीं देती? क्यों हम स्वयं राम को देख नहीं पाते? और अंततः क्यों हम अपने ठांव में प्रवेश नहीं कर पाते?
बहुत सी बातें समझनी जरूरी हैं। पहली बात, बुद्धत्व अति दुर्लभ है। जागना करीब-करीब असंभव की उपलब्धि है। पूर्ण जाग
जाना ऐसी घटना है, जो रोज-रोज नहीं घटती और घट नहीं सकती।
क्योंकि निद्रा में बड़ा रस है और निद्रा में बड़ा विश्राम है। निद्रा में न तो कोई
दायित्व है, पीड़ा कितनी ही हो, दुख
कितना ही हो। लेकिन मूर्च्छा के कारण वह पीड़ा और दुख भी मालूम नहीं पड़ते।
सर्जन भलीभांति जानते हैं, अनेस्थेसिया, मार्फिया या कोई भी बेहोश करने वाली दवा शरीर को दे दी जाए, तो फिर आप कितना भी दुख झेलने में समर्थ हो जाते हैं। हड्डी काटी जाए,
पैर तोड़ा जाए, शरीर के भीतर के अंग बाहर
निकाले जाएं, बदले जाएं, कष्ट फिर
अहसास नहीं होता।
दुख को झेलने का एक उपाय, गहरे से गहरा उपाय,
मूर्च्छा है। दुख बहुत हैं और उसे झेलने का हमने एक उपाय खोज रखा है,
वह है मूर्च्छित रहना। जैसे होश बढ़ेगा, दुख की
प्रगाढ़ता बढ़ेगी। जैसे होश बढ़ेगा, वैसे कांटा और चुभता हुआ
मालूम पड़ेगा। कांटा तो चुभा ही है, हजार कांटे चुभे हैं।
बुद्धत्व का अर्थ है: जीवन के दुख को उसकी समग्रता में जानने की
क्षमता; जितनी पीड़ा है, उससे बिना भागे,
उसे झेलने का साहस; उससे बिना मुंह छिपाए,
बिना पीठ फेरे, जो भी जीवन में कितना भी बड़ा
नर्क हो, उसका साक्षात्कार।
नर्क के साक्षात्कार से ही स्वर्ग का द्वार खुलता है। और जो नर्क से
गुजरने को राजी नहीं हैं, वे स्वर्ग से वंचित रह जाएंगे। स्वर्ग तो हम सभी जाना
चाहते हैं, लेकिन स्वर्ग का मार्ग नर्क से गुजरता है,
वह मार्ग हम पूरा नहीं करना चाहते। इसलिए हमने एक तरकीब निकाली है,
वह तरकीब यह है कि हम नर्क में ही रहते हैं, नर्क
के द्वार पर ही रहते हैं, स्वर्ग के सपने देखते रहते हैं। उन
सपनों के कारण नर्क छिपा रहता है। सपना देखना हो, तो नींद
जरूरी है।
तो नींद के दो उपयोग हैं, एक तो नींद दुख को
अनुभव नहीं होने देती उसकी पूरी पीड़ा में; और दूसरा, नींद सपने देखने की सुविधा देती है। इसलिए बुद्धत्व अति दुर्लभ है। नींद
तोड़ना पड़ेगी, नींद के टूटते ही सपने टूटते हैं। सपनों में
हमने बहुत कुछ इनवेस्ट किया है, बहुत कुछ दांव पर लगाया है।
सपने ही हमारे जीवन का माधुर्य हैं। सत्य में तो हमने कोई सुख जाना नहीं, सपने में ही आशा बांधी है, सपने में ही हमारे सारे
सुख की संपदा है।
इसलिए जब कोई सपना तोड़ने की बात करे, तो प्रीतिकर नहीं
लगती। हम तो बुद्धों के पास भी जाते हैं कि कैसे हमारे सपने चरितार्थ हो जाएं। हम
अगर मुक्ति भी चाहते हैं, तो वह भी हमारा अंतिम सपना है,
वह हमारी आखिरी आनंद की आशा है। तो नींद में सपना संभव है; नींद में दुख प्रतीत नहीं होते, इसलिए हम नींद खोजते
हैं।
कभी-कभी हजार वर्षों में कोई व्यक्ति जाग पाता है। और जब एक व्यक्ति
जागता है, तो जो द्वार साधारणतः बंद है वह खुलता है, उनके लिए भी जो सोए हैं। यहां हम इतने लोग हैं, हम
सब सो जाएं, हम सब सोए हों, तो जगाएगा
कौन? हम सबमें से एक व्यक्ति भी जाग जाए, तो सबके जागने का द्वार खुलता है। क्योंकि जागा हुआ सोए हुए को जगा सकता
है, झकझोर सकता है। तुम चाहे न भी जागो; तुम चाहे फिर करवट लेकर सो जाओ, तुम चाहे सुनी-अनसुनी
कर दो, उसकी पुकार तुम्हारे स्वप्न में खो जाए और तुम्हारे
स्वप्न का अंग बन जाए...।
हम इतने कुशल हो गए हैं कि हम बाहर के अस्तित्व को भी स्वप्न में लीन
कर लेते हैं।
तुम रात सोते हो अलार्म भरकर, सुबह उठना बड़ा जरूरी
है। अलार्म बजता है, तुम एक सपना देखते हो कि मंदिर की
घंटियां बज रही हैं, मंदिर में पूजा हो रही है। अलार्म बाहर
से आ रहा है, तुम उसे सपने का अंग बना लेते हो। फिर अलार्म
व्यर्थ हो गया। फिर तुम उठोगे नहीं, उठने की कोई जरूरत न रही,
तुम घड़ी को भी भूल गए, अलार्म को भी भूल गए।
तुमने, बाहर से जो आ रहा था, उसको भीतर
के सपने में जोड़ लिया। मन बड़ा अदभुत है और बड़ा कुशल है। तुम एक सपना निर्मित करोगे,
जिसमें घंटियां बज रही हैं, घंटियां तुम्हारे
भीतर आ गईं, अब जागने का कोई कारण न रहा।
मैंने सुना है कि मिलिटरी का एक कर्नल रिटायर हुआ, तो उसने अपने अर्दली को कहा कि राम--राम उस अर्दली का नाम था--तू मेरे साथ
ही रहेगा। पत्नी-बच्चे नहीं थे, कर्नल अकेला ही था। और तेरी
डयूटी एक ही है कि जैसे अब तक तू सुबह चार बजे मुझे उठाता था, वैसे ही तुझे मुझे चार बजे उठाना है। जैसा तू अब तक आकर रोज मुझे कहता था
कि उठिए महानुभाव, परेड का वक्त हुआ; ऐसा
ही तुझे मुझे रोज चार बजे आकर उठाना है और कहना है कि उठिए महानुभाव, परेड का वक्त हुआ; और मैं तुझसे कहूंगा, ऐसी की तैसी में जाए परेड, और करवट लेकर सो जाऊंगा।
यह जिंदगीभर से मेरी कामना रही है, जो मैं अब तक कर नहीं
पाया। जिंदगीभर से यह सोचता रहा हूं कि मारो लात परेड को, मगर
कर नहीं सकता, अब रिटायर हो रहा हूं।
ऐसा हमारा मन है। सोना चाहता है। और जब जागने का मौका आता है, तब हमें सोने में और मजा आता है, तब अगर हम को सोने
का मौका मिल जाए...। अब यह कर्नल बिलकुल पागल है, लेकिन ठीक
आदमी की तस्वीर है। अब यह मजे से सो सकता है, अर्दली को रखने
की जरूरत नहीं है कि वह चार बजे उठाए। लेकिन जो रस उठाए जाने पर और करवट लेकर सो
जाने में है, वह सतत सोने में नहीं है।
तो जब बुद्धत्व कहीं घटित होता है और कोई बुद्ध तुम्हें झकझोरता है, तब तुम्हें नींद का मजा और भी बढ़ जाता है। तब तुम करवट लेकर सो जाते हो।
तब तुम उस बुद्ध को भी अपने सपने का हिस्सा बना लेते हो। तुम उसके बाबत भी सपना
देखते हो, उसे तुम जागृति की तरफ ले जाने का मार्ग नहीं बनने
देते। तुम उसे भी अपनी नींद की गहराई के लिए सहारा बनाते हो।
पर मौका खुलता है। गुरजिएफ कहता था, जब तक कोई दूसरा
तुम्हें न जगाए, तुम जागोगे कैसे? तुम्हारी
नींद इतनी गहरी है कि जब तक कोई तुम्हें दूसरा न झकझोरे, तुम्हारी
नींद में बाहर का कोई तत्व प्रवेश कैसे करेगा? कुशल तो तुम
इतने हो कि तुम जगाने वाले को भी, हो सकता है, नींद में ही डुबा लो अपनी। मगर फिर भी एक उपाय है। इसलिए गुरजिएफ कहता था
एक कहानी, जो समझने जैसी है।
वह कहता था कि जंगल है घना, दस लोग यात्रा कर रहे
हैं, जंगली जानवरों का खतरा है, दस ही
नहीं सो जाते, एक जागता है। और जब तक एक दूसरे को नहीं जगा
देता, तब तक नहीं सोता। पर एक जागता रहता है, वह नौ की रक्षा करता है। और जब सोने की हालत आती है, तो एक को उठा देता है। इसको गुरजिएफ कहता था, यह
स्कूल-वर्क है।
आश्रम का यही उपयोग है। वहां सौ लोग तय करते हैं कि हम सब जागने की
कोशिश करेंगे। नींद गहरी है। अकेला आदमी शायद भूल ही जाए कि उसने जागने का तय किया
था। और हमारी भूलने की क्षमता बड़ी है।
मैंने सुना है, एक आदमी भूल-भूल जाता था, जो भी
तय करता भूल जाता। तो किसी मनोवैज्ञानिक से उसने सलाह ली। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा
कि कुछ गांठ बांध लिया कर, हाथ पर रस्सी का टुकड़ा बांध लिया,
कान में रस्सी बांध ली, कपड़े में गांठ बांध ली,
तो जब भी गांठ दिखाई पड़े, याद आ जाए।
तो एक दिन कोई बात उसे याद रखनी थी, तो उसने रास्ते में
अपने हाथ पर अंगुली में एक धागा बांध लिया। धागा बांधने का मनोवैज्ञानिक ने कहा था
ताकि याद रहे। इस आदमी ने धागा बांधा और बांधकर वह निश्चिंत हो गया कि अब तो याद
रहेगा ही। इससे और भूलना आसान हो गया।
घर आया, भोजन किया, अखबार रात अपना पढ़ा।
जब अखबार पढ़ रहा था, तब हाथ में बंधा हुआ धागा दिखाई पड़ा।
बड़ा सोचा, लेकिन कुछ खयाल न आए कि किसलिए बांधा था। भूलना ही
है, तो आप कुछ भी भूल सकते हैं। गांठ किसलिए बांधी, वह भूल गया। मगर उसने कहा, चाहे कुछ भी हो जाए याद
करके रहूंगा, चाहे पूरी रात क्यों न जागना पड़े, बैठूंगा, ध्यान करूंगा, लेकिन
याद करके रहूंगा। यह कब तक चलेगा! तो बैठा है अपनी कुर्सी पर, रात दो बजे याद आ गई। याद यह आई कि आज दोपहर में तय किया था कि आज जल्दी
ही सोने चले जाएंगे। उसके लिए धागा बांधा था।
भूलने की क्षमता हमारी अपार है। सत्य को सपने बना लेने की कीमिया
हमारी बड़ी कुशल है।
जब कोई जागता है, तो एक संभावना का द्वार खुलता
है। वह हमें हिला सकता है। जागा हुआ हमारे सपनों को तोड़ सकता है, जागा हुआ हमें करवट लेने से रोक सकता है, जागा हुआ
हमारी तंद्रा में बाधा उपस्थित कर सकता है।
इसलिए गुरजिएफ कहता है कि जागरण एक स्कूल, एक आश्रम, मित्रों के एक समूह की प्रक्रिया है,
अकेले जागना बहुत मुश्किल है। इसलिए बुद्ध ने महासंघ को जन्म दिया,
जहां हजारों भिक्षु इकट्ठे रहें। उनमें से कोई एक भी थोड़ा-सा जाग
जाए, तो वह दूसरे के लिए जागने का द्वार बन जाए। इसलिए
महावीर ने मुनियों, साधु और साध्वियों की एक संगठित परंपरा
पैदा की। इसलिए हिंदुओं ने बड़े व्यवस्थित आश्रम बनाए, ईसाइयों
ने बड़ी कीमती मोनेस्ट्रीज निर्मित कीं। उनमें कभी कोई एक आदमी जाग जाए, तो वह दूसरों को जगाने के काम आ जाएगा। वह एक किरण बहुतों का अंधेरा तोड़ने
की कोशिश करेगी। फिर भी पक्का नहीं है कि अंधेरा टूटे।
इसलिए मैं कहता हूं कि बुद्धत्व कभी-कभी फलित होता है। दरवाजा तब
खुलता है थोड़ी देर के लिए। तब तुम अगर करवट लेने से अपने को बचा सको, तब तुम सत्य को सपना बना लेने की पुरानी आदत से अपने को रोक सको, तब तुम थोड़ी स्मृति रख पाओ, तब तुम, नींद में तुमने जो-जो लाभ सोच रखे हैं, उनको देख पाओ,
समझ पाओ कि वे लाभ नहीं हैं, हानियां हैं,
और मूर्च्छा से दुख मिटता नहीं, केवल भूलता है
और बढ़ता है...जागना ही पड़ेगा। नर्क है जीवन, तो नर्क को भी
देखना ही पड़ेगा। उसी देखने और दर्शन से स्वर्ग की तरफ यात्रा शुरू होगी।
भागकर कोई कहीं नहीं पहुंचा है। आंखें बंद करके कोई सत्य को झुठला
नहीं सका है। शुतुरमुर्ग का तर्क कोई तर्क नहीं है। रेत में सिर गपाकर खड़े हो जाने
से दुश्मन मिटता नहीं है। भगोड़ों ने कभी भी कोई जीवन-सिद्धि नहीं पाई है। जागना
पड़ेगा। संघर्ष है, तो देखना पड़ेगा। दुख है, तो
झेलना पड़ेगा। इस झेलने, जागने और होश की प्रक्रिया से ही तुम
उस जगह आओगे, जहां दुख का अतिक्रमण हो जाता है।
कोई बुद्ध उपलब्ध हो जाए, यह सौभाग्य है। यह
सौभाग्य भी जन्मों-जन्मों की तुम्हारी चेष्टा के फल से उपलब्ध होता है।
जन्मों-जन्मों तक तुमने भला सपना ही देखा हो, लेकिन जागने का
सपना देखा है। जन्मों-जन्मों तक तुमने भी कामना की है मुक्त हो जाने की। नहीं
मुक्त हुए, दूसरी बात है; नहीं छोड़ सके
संसार, वह दूसरी बात है, लेकिन संन्यास
का बीज तुम्हारे भीतर रहा है। व्यर्थ तुम्हें पकड़े हुए है, लेकिन
व्यर्थ की तुम्हें व्यर्थता कभी-कभी दिखाई पड़ी है। कभी जैसे अंधेरी रातों में
बिजली कौंध गई है और एक झलक में तुमने सब देखा है, ऐसा
तुम्हारे जीवन की किन्हीं-किन्हीं यात्रा-पड़ावों पर कभी बिजली कौंधी है और तुमने
देखा है कि सब असार है। सार ने तुम्हें भी पुकारा है। इसीलिए तुम इतना सौभाग्य
अर्जित कर पाए हो कि किसी बुद्ध के पास कभी पहुंच जाओ। वह पास पहुंचना भी सभी के
लिए नहीं हो सकता।
मैंने सुना है, एक बड़ी पुरानी बौद्ध कथा है। बुद्ध जिस गांव में पैदा
हुए, जिस दिन पैदा हुए, उसी दिन एक
युवती भी उस गांव में पैदा हुई, एक छोटी बालिका भी पैदा हुई,
बुद्ध के ही जन्मदिन पर। बुद्ध के साथ ही बड़ी हुई, उतनी ही उम्र, उतना ही जीवन का अनुभव। लेकिन उस
युवती को बुद्ध से बड़ा डर था। तो जिस रास्ते से बुद्ध निकलते, वह उस रास्ते से न निकलती। और कभी बीच रास्ते पर अड़चन आ जाए, बुद्ध आ जाएं अचानक, तो वह बगल की गलियों से भाग
जाती। फिर बुद्ध संन्यस्त हो गए, फिर उन्होंने सब छोड़ दिया।
उसका भय और भी बढ़ गया। यह आदमी वैसे ही डर पैदा करता था, फिर
बुद्ध भिक्षु हुए, तो उस युवती का भय और भी गहन हो गया।
पर एक दिन ऐसा हुआ कि बाजार से वह लौटती थी, और कोई संभावना न थी बुद्ध के आने की उस मार्ग से, कि
अचानक बुद्ध सामने आ गए। कभी उसने ठीक से उनकी तरफ देखा भी नहीं था--भय इतना था,
देखना संभव नहीं है जब भय हो--तो वह ठीक से पहचान भी न पाई। सांझ का
धुंधलका था, चलती ही गई और अचानक बुद्ध के सामने पड़ गई। पहली
दफा उसने बुद्ध को देखा, सारा भय विसर्जित हो गया। वह स्त्री
रूपांतरित हो गई।
झेन फकीर पूछते रहे हैं कि वह स्त्री कौन थी?
वह स्त्री तुम्हारी छाया है। वह बुद्ध के साथ ही पैदा नहीं होती, तुम्हारे साथ भी पैदा होती है। उसे ही हिंदू माया कहते हैं। तुम और
तुम्हारी माया कभी आमने-सामने नहीं होते। न तुम्हारी माया तुम्हें कभी भरपूर देखती
है, न तुम कभी माया को भरपूर देखते हो। एक खेल चलता रहता है।
उस खेल में कभी आमने-सामने तुम पड़ जाओ, तो तुम नहीं मिटोगे,
माया ही मिटेगी। तुम अपनी छाया को सामने देख लो, तो छाया ही मिटेगी, तुम नहीं मिटोगे। इसलिए छाया
डरती है। इसलिए तुम जहां जाते हो, वहां से भाग खड़ी होती है।
अगर तुम्हारा पीछा भी करती है, तो तुम्हारी पीठ की तरफ से
करती है, कभी तुम्हारे सामने नहीं आती।
जिसको अभी हम जीवन कह रहे हैं, वह एक छाया से ज्यादा
नहीं है। उसमें सत्य तो बिलकुल नहीं है। लेकिन बुद्ध, बुद्धत्व
को प्राप्त व्यक्ति के करीब, तुम्हें अपनी छाया के
आमने-सामने पड़ना पड़ेगा। तुम्हें अपनी माया को आंख भरकर देखना पड़ेगा, तुम्हें अपने सपनों का साक्षात्कार करना पड़ेगा। और जिस दिन भी तुम अपने
सपनों को ठीक से देख लोगे, उसी दिन नींद टूट जाएगी।
तुम बचोगे। सौभाग्य से भी तुम बचोगे। हमारी आदतें दुख की इतनी हो गई
हैं कि अहोभाग मिलता भी हो, तो हम उसे झेल नहीं पाते।
बड़ी पुरानी सूफी कहानी है। एक आदमी था एक सम्राट के साम्राज्य में, राजधानी में, वह कुछ भी करता, गलत
हो जाता। कुछ भी करता, हानि हो जाती। दुर्भाग्य उसका पीछा
करता। सम्राट ने एक फकीर को पूछा कि इस आदमी का मैं निरंतर अध्ययन करता रहा हूं,
इसके हाथ में कभी सौभाग्य की घड़ी आती ही नहीं। क्या इसके माथे पर
बिलकुल लिखा है कि यह दुख ही भोगेगा? उस फकीर ने कहा,
पुरानी आदत है इसकी दुख भोगने की, जन्मों-जन्मों
में यही इसने अर्जित किया है। सम्राट ने कहा, मेरा मन मानने
का नहीं होता। मेरा तो मानने का मन यही होता है, ठीक
परिस्थिति नहीं मिली, ठीक संग-साथ नहीं मिला, ठीक शिक्षण नहीं मिला, इसलिए यह आदमी भटक रहा है। उस
फकीर ने कहा, तो प्रयोग करके देख लें।
तो एक दिन रास्ते पर सम्राट ने एक बहुत बड़े बर्तन में, स्वर्ण-पात्र में अशर्फियां, बहुमूल्य हीरे-जवाहरात
भरकर रास्ते के किनारे रख दिए, जहां से वह आदमी रोज सांझ को
निकलता था। वह एक पुल था नदी के ऊपर, उस पुल पर वह पात्र रख
दिया गया। सब तरफ लोग सचेत कर दिए गए, पुलिस का पहरा कर दिया
गया कि कोई दूसरा आदमी इस पात्र को उठा न पाए। लेकिन अगर यह आदमी, जो अभागा है, यह अगर पात्र को उठाए, तो इस पर कोई रुकावट न डाली जाए, इसको पात्र उठा
लेने दिया जाए। यह ले जाए पात्र को, यही इसका मालिक समझा
जाए।
बड़ी अनूठी घटना घटी। फकीर और सम्राट दोनों पुल के दूसरी तरफ खड़े हुए
प्रतीक्षा कर रहे हैं। वह आदमी पुल पर चला, सम्राट का हृदय जोर
से धड़कने लगा, क्योंकि एक सिद्धांत का सवाल है। सम्राट सोचता
है कि मनुष्य के पुरुषार्थ में सब कुछ है। और अब तो पुरुषार्थ के लिए भी करने को
कुछ नहीं है, सिर्फ घड़ा रखा हुआ है भरा हुआ, स्वर्ण-पात्र सामने रखा है, वह उसके ठीक रास्ते में
पड़ेगा, वह उसको उठा ले, कोई रोकने वाला
नहीं है, समृद्धशाली हो जाए, सदा की
गरीबी मिट जाए। लेकिन जैसे-जैसे वह आदमी करीब आया, सम्राट
हैरान हुआ, उस आदमी ने आंखें बंद कर रखी हैं! वह पात्र से
आकर टकराया, अशर्फियां नीचे गिर गईं, आवाज
हुई, लेकिन वह आदमी पात्र से बचकर, आंख
बंद किए पुल पार करने लगा।
जब वह उस पार पहुंचा, तो सम्राट नहीं रोक सका अपने को।
उसने उसको पकड़ा और कहा कि मूढ़, आंख क्यों बंद किए है?
उसने कहा, आज मुझे ऐसा खयाल आया कि क्या मैं
आंख बंद करके भी पुल पार कर सकता हूं कि नहीं? सदा आंख खोलकर
पार करता हूं, आज ऐसा विचार आया। और निश्चित ही मैं पार कर
सकता हूं, सिर्फ एक जगह बीच में कहीं थोड़ा-सा किसी चीज से
टकराया था, बाकी अगर अंधा भी हो जाऊं, तो
भी मुझे अड़चन आने वाली नहीं है। उस फकीर ने कहा कि देखें।
बुद्ध तुम्हारे रास्ते में खड़े हों, तुम टकराकर निकल
जाओगे। उस दिन तुम पक्का तय करोगे कि देखें, आंख बंद करके भी
रास्ते से निकल सकते हैं कि नहीं।
इसलिए मैं कहता हूं कि चूक जाना आसान है। संभावना अति दुर्लभ है और
चूक जाना बिलकुल आसान है। पर ये जो दोनों छोर हैं, विपरीत दिखाई पड़ने
वाले, इन दोनों को अगर तुम ठीक से समझ लो, तो स्थिति बिलकुल उलटी हो जाती है। तब संभावनाओं को चूकना आसान नहीं है,
और तब बुद्धत्व का साक्षात्कार भी इतना कठिन नहीं है। अगर तुम दोनों
बातों को ठीक से समझ लो, तो तुम्हें शायद रोज भी मार्ग पर
बुद्ध मिल सकते हैं। और एक बार भी तुम्हें मिल जाएं, तो तुम
द्वार से प्रवेश कर जाओगे, उसे चूकने का कोई कारण नहीं है।
ध्यान के सारे प्रयोग मैं इसीलिए करवा रहा हूं, ताकि तुम्हारे लिए यह संभव हो जाए कि बुद्ध जब तुम्हें मिलें तो तुम पहचान
लो, कि द्वार जब खुले तब तुम पीठ किए हुए न खड़े रहो, कि द्वार क्षणभर को भी खुले तो तुम उसके भीतर प्रवेश हो जाओ, तुम चूक न सको। ध्यान तुम्हें गुरु को पहचानने में सहाई होगा।
अब यह बड़ा मुश्किल है। क्योंकि आमतौर से हम ध्यान गुरु के पास सीखने
जाते हैं। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि तुम गुरु को ध्यान के बिना पहचान ही न
पाओगे। तुम जाओगे कहां? ध्यान ही तुम्हें गुरु को पहचानने में समर्थ बनाएगा।
तुम विचार से गुरु को पहचानने जाओगे, चूक जाओगे।
मेरे पास बहुत से लोग आते हैं, उनको मैं देखता हूं
कि वे अपने विचारों से इतने भरे हैं कि मेरा उनसे कोई संपर्क नहीं हो सकता,
हजारों मील का फासला है जैसे। उनके विचार इतने ज्यादा हैं! और उनके
विचार से ही वे मुझे तौलते हैं, उनके विचार से ही वे मुझे
समझते हैं, उनका विचार जो कहता है, वही
वे मानते हैं। तुमने कभी सोचा ही नहीं कि तुमने अपने विचारों के प्रति कितना
समर्पण कर रखा है! उन विचारों के प्रति जिनसे सिवाय दुख के तुम्हें कुछ कभी नहीं
मिला। तुम अपने विचार पर कभी संदेह नहीं करते।
लोग आते हैं, जो कहते हैं, हम संदेहवादी हैं,
हम स्केप्टिक हैं, हम बुद्धिवादी हैं, हम श्रद्धा नहीं कर सकते। और मैं देखता हूं कि अपनी खोपड़ी पर उनकी श्रद्धा
परम है, उस पर वे कभी संदेह नहीं करते। जिससे कभी कोई सुख की
एक बूंद नहीं मिली और जहां कभी कांटों के सिवाय फूल नहीं खिले, उस खोपड़ी पर उनका भरोसा बहुत ज्यादा है। और वे कहते हैं, हम अश्रद्धालु हैं, हम संदेह करते हैं, हम सोचते-विचारते हैं, हम बिना सोचे-विचारे कोई
निर्णय न करेंगे।
यह निर्णय तुमने कैसे किया कि तुम्हारा सिर जो कहता है, वह ठीक है? यह निर्णय तुमने निश्चय ही बिना
सोचे-विचारे किया है। क्योंकि जिसने भी सोचा-विचारा है, उसने
सबसे पहले तो अपने सिर पर श्रद्धा छोड़ दी। जीवन, अनंत जीवनों
का अनुभव यह कह रहा है कि इस सिर ने तुम्हें सिर्फ भटकाया है।
तुम अगर बहुत विचारों से भरे हुए हो, मैं द्वार खोले खड़ा
रहूं, तुम चूक जाओगे। क्योंकि तुम्हारा सिर इतने विचारों की
पर्त से भरा है कि खुला हुआ द्वार भी तुम्हें बंद ही दिखाई पड़ेगा। तुम कोई न कोई
तरकीब निकाल लोगे, तुम कोई न कोई तर्क खोज लोगे, तुम समझोगे अपनी ही बुद्धि से, और भ्रांति हो जाएगी।
बुद्धत्व को तुम तभी समझ पाओगे जब तुम सोचो मत। यह न सोचने की अवस्था
ही ध्यान है। ध्यान के क्षण में ही गुरु पहचाना जाएगा। सोच-विचारकर नहीं, तर्क से नहीं, गणित से नहीं, हिसाब
से नहीं, शांत-मौन बैठकर गुरु पहचाना जाएगा।
इसलिए पुरानी परंपरा थी कि जब कोई गुरु के पास आए, तो वह दो-चार वर्ष तक सिर्फ चुप बैठा रहे, पूछे भी न,
मन को जरा भी हलन-चलन न दे, सिर्फ बैठे चुपचाप,
प्रतीक्षा करे। दो-चार साल लगते हैं, तब
जन्मों-जन्मों के मन का ऊहापोह चुप होता है। जब तुम्हारे भीतर का उपद्रव बंद होता
है, जब दौड़ शांत होती है, जब भीतर का
बाजार, जैसे रात हो गई, दुकानें बंद हो
गईं, सब सन्नाटा हो जाता है, ऐसे
दो-चार वर्ष लग जाते हैं। इसको हम सत्संग कहते थे। सत्संग का अर्थ था कि चुपचाप
किसी के पास जाकर बैठ जाना।
और मजे की बात यह है कि वह आदमी गलत हो या सही हो, यह बड़ा सवाल नहीं है--तुम्हारे चुप बैठने से लाभ होगा। अगर वह गलत है,
तो दिखाई पड़ जाएगा कि गलत है, तुम उससे मुक्त
हो जाओगे। अगर वह सही है, तो दिखाई पड़ जाएगा कि सही है और
तुम उसमें प्रवेश कर जाओगे।
ध्यान आंख खोल देता है। इसलिए यह तुम चिंता मत करना कि हम चुपचाप बैठे
हैं, न मालूम किसी गलत आदमी के पास बैठे हों! गलत और सही
निष्प्रयोजन है, तुम्हारा चुप बैठना सही है। इसे समझ लो! अगर
तुम सही आदमी के पास भी विचार कर रहे हो, तो चूक जाओगे,
विचार चुकाता है। अगर तुम गलत आदमी के पास भी चुप बैठे हो, पहुंच जाओगे, क्योंकि निर्विचार आंख खोल देता है।
तुम देख पाओगे कि यह आदमी गलत है।
और ध्यान रहे, जो देख पाता है कि क्या गलत है, वह सही को भी देखने में समर्थ हो गया। इसलिए गलत गुरु के द्वार से भी तुम
खाली नहीं लौटोगे। विचार से भरे रहे, सही गुरु के द्वार से
भी खाली लौट जाओगे। तुम्हारा विचार ही तुम्हारा कारागृह है। और तुम्हारे विचार पर
कितनी ही मैं खटखट करूं, कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। तुम कुछ
मतलब निकालोगे। तुम उसमें से कुछ व्याख्या करोगे।
रवींद्रनाथ ने एक गीत लिखा है। एक मंदिर है बड़ा, उस मंदिर के बड़े पुजारी को स्वप्न आया कि मंदिर का जो देवता है, वह कल आने वाला है। ऐसा कभी न हुआ था। मंदिर सदा से था, बहुत प्राचीन था, स्वर्ण की प्रतिमा थी, यह देवता कभी आया नहीं था। पुजारी को भी भरोसा नहीं आया।
और ध्यान रहे, पुजारी को सबसे कम भरोसा आता है। आमतौर से लोग सोचते
हैं कि पुजारी तो मंदिर में है, इसका भरोसा पक्का होगा। मैं
तुमसे कहता हूं, पुजारी को भरोसा होता ही नहीं। क्योंकि वह
इस पत्थर की मूर्ति को नहलाता है, धुलाता है, गिरा भी देता है कभी और यह कुछ नहीं कर पाती; जो
अपनी रक्षा नहीं कर सकती, वह क्या मेरी रक्षा करेगी? पुजारी भलीभांति धंधे को जानता है। उस पर श्रद्धा पुजारी को नहीं होती,
श्रद्धा बाहर के लोगों को होती है, जिन्हें
भीतर के राज का कोई पता नहीं है।
इसे कुछ भरोसा तो नहीं आया, सोचा सपना ही है,
कहूं दूसरों से, न कहूं! मंदिर बड़ा था,
सौ पुजारी थे। फिर उसे यह भी डर लगा कि कहीं सच ही निकल जाए! यह
दुनिया इतनी अजीब है कि कभी-कभी सपने भी सच निकल जाते हैं। कहीं ऐसा सच ही हो कि
देवता आता हो, तो मैं फसूंगा। तो उसने कहा, बेहतर है, चाहे हंसी-मजाक हो, लेकिन
कह देना उचित है।
पुजारी इकट्ठे करके उसने कहा कि भरोसा मुझे नहीं है, सपना ही मालूम पड़ता है, लेकिन कह देना जरूरी है--रात
देखा कि देवता खड़ा है और कह रहा है कि कल मैं आ रहा हूं मंदिर में। सब हंसने लगे,
उन्होंने कहा कि तुम भी पागल हो गए इस उम्र में, कहीं कोई देवता आता है? सपना है! बड़े पुजारी ने कहा,
अब तुम सोच लो, जिम्मेवारी मेरी न रही,
तुम सभी तय कर लो।
तब उन सबको भी लगा कि नाहक हम जिम्मेवारी अपने सिर क्यों लें? सपने कभी-कभी सच भी हो जाते हैं। जहां सभी सच सपने जैसा है, वहां सपना भी कभी सच हो सकता है, झंझट लेनी ठीक नहीं
है। और हर्ज क्या है, तैयारी थोड़ी कर लो। तो उन्होंने कहा,
बेहतर है, हम तैयारी कर ही लें। जानते तो हैं
कि देवता-वेवता कोई आएगा नहीं, न कभी आता है। लेकिन तैयारी
करने में हर्ज क्या है!
मंदिर धोया गया, साफ किया गया, पूजा के थाल सजाए गए, दीए जलाए गए और सब संदेह से
प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन संदेह की कोई प्रतीक्षा होती है? सब जानते थे कि कोई आना नहीं है, लेकिन फिर भी
उन्होंने सोचा, भोजन बनाओ, मिष्ठान्न
बनाओ, नहीं आएगा भगवान, तो भी भोग हम
तो लगाएंगे ही।
फिर सांझ भी हो गई, सूरज भी ढल गया, अब कौन आएगा? भगवान आता तो दिन में आता, रात में तो आने का कोई कारण नहीं है। फिर रात होने लगी, देर होने लगी, तो उन्होंने कहा, बंद करो, अब बहुत हो गया। द्वार-दरवाजे बंद करके
उन्होंने ठीक से भोजन किया, जो भगवान के लिए बनाया था। दीए
बुझा दिए, मंदिर के पट बंद करके वे सब दिनभर के
थके-मांदे--सफाई, तैयारी, समारोह का
आयोजन और फिर सब व्यर्थ हो जाना--फिर सब हंसते हुए, मजाक
करते हुए कि हम भी कैसे पागल हैं, सपने की बातों में पड़ गए!
सब सो गए।
रात रथ आया, द्वार पर रथ की आवाज सुनाई पड़ी, बड़े पुजारी को नींद में लगा कि आ गया, देवता आ रहा
है। उसने कहा, सुनो, कोई रथ की आवाज
सुनता है? दूसरे पुजारियों ने कहा, अब
बंद भी करो बकवास। दिनभर सताया, अब भी पीछा कर रहे हो?
तुम्हारा मस्तिष्क खराब हो गया, कोई रथ नहीं आ
रहा, बादलों की गड़गड़ाहट है। फिर वे निश्चिंत सो गए।
फिर रथ से कोई उतरा, सीढ़ियां कोई चढ़ा, द्वार पर किसी ने दस्तक दी। फिर किसी एक पुजारी को लगा कि कोई द्वार पर
दस्तक दे रहा है। आशंका तो मन में छिपी थी, डांवाडोल तो मन
था ही कि शायद कौन जाने सपना सही हो! फिर कोई नींद में बड़बड़ाया, उसने कहा कि लगता है, कोई द्वार पर दस्तक देता है।
अब तो बड़े पुजारी ने भी कहा कि हद हो गई, मैं ही सपने में नहीं उलझा हूं, दूसरे भी उलझे हैं!
यह हवा का झोंका है, जो दरवाजे को खटखटाता है। आधी रात कौन
दरवाजे पर धक्का देने आएगा! और परमात्मा कोई चोर है कि आधी रात आए? भरे बाजार, उगे हुए दिन में, सूरज
के नीचे परमात्मा आता है। अब चुपचाप सो जाओ और अब कुछ भी हो, कोई बीच में बाधा न डाले। सोने दोगे या न सोने दोगे?
फिर सुबह पुजारी उठे, द्वार खोला, छाती पीटकर रोने लगे। रथ के पहियों के चिह्न थे, कोई
सीढ़ियों पर चढ़ा था, उसके पदों के चिह्न थे, सीढ़ियों की धूल पर बन गए थे।
लेकिन तब रोने से कुछ भी नहीं हो सकता था, अवसर चूक गया था। रवींद्रनाथ की कविता का शीर्षक है, अवसर चूक गया। देवता आया था, लेकिन पुजारी सोए थे।
जब मैं कहता हूं कि दस्तक देता हूं, अगर तुम विचार से भरे
हो, तो मैं सुनता हूं कि तुम व्याख्या कर रहे हो, बादलों की गड़गड़ाहट है, कि हवा का झोंका है, कि अपनी ही कोई भ्रांति है।
मेरे पास एक युवक आया और उसने कहा कि आपकी बातें अच्छी लगती हैं। इतनी
अच्छी लगती हैं कि--मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी हूं--कि मुझे शक होने लगता है कि
कहीं मैं आपसे हिप्नोटाइज तो नहीं हो गया हूं! कहीं आपने मुझे सम्मोहित तो नहीं कर
लिया है!
इसका मन इसे कह रहा है, भागो यहां से,
यहां सम्मोहित हो जाने का डर है। और निश्चय ही सम्मोहन तो बड़ी बुरी
चीज है। सुनते हो मेरी बातों को, अगर तर्कयुक्त हो, तो मन कहता है कि ठीक है, बातें तर्कपूर्ण हैं,
लेकिन बातें ही हैं। बातों का क्या भोजन करोगे? बातों के क्या कपड़े पहनोगे? वर्षा होगी, तो बातें क्या छाया करेंगी? बातों में मत पड़ जाना,
मन कहता है। जीवन के यथार्थ से मत भटक जाना।
एक युवती संन्यासी दो दिन पहले ही मुझे आकर कही कि मेरे पिता बड़े
चिंतित हैं। वे कहते हैं, कब तक यह ध्यान और संन्यास? अब
वापस लौट आओ, सामान्य हो जाओ। और जैसे सब जीते हैं, वैसे जीओ। सब जैसा जीते हैं, उसे हम सामान्य मानते
हैं। सब चाहे पागल ही हों, लेकिन सब जैसा जीते हैं, वह सामान्य लगता है।
निश्चित ही, जब मैं तुम्हारे ऊपर दस्तक देता हूं, तो मैं तुम्हें पुकार रहा हूं कुछ असामान्य हो जाने को, जैसा कि और लोग नहीं जी रहे हैं। एक ऐसे जीवन के लिए पुकारता हूं, जिसे कि तुम जीओगे, जो बेजोड़ होगा, जो नया होगा, अनजाना होगा। साहस चाहिए।
मन तुम्हें समझा लेता है। इस मन की समझाहट से तुम जब तक न बचोगे, न पार हो पाओगे, तब तक अनंत जन्मों तक यह वर्तुल ऐसे
ही घूमता रहेगा। व्याख्या मत करो, तथ्यों को देखो। आलस्य मत
करो, काफी देर वैसे ही हो गई है, जागो,
सुबह हो चुकी है।
लेकिन जो सोया है, उसे तो रात ही बनी रहती है। जागे
हुए को पता चलता है कि सुबह हो गई। और यहां जो भी मैं तुमसे कह रहा हूं, उसमें कहने पर मेरा जोर नहीं है, सिर्फ तुम्हें
हिलाने पर, तुम्हें झकझोरने पर, तुम्हारी
नींद टूट जाए। तो बहुत बार मुझे वह भी करना पड़ता है, जिसे
मनस्विद शॉक ट्रीटमेंट कहते हैं। जैसे कोई आदमी बिलकुल ही विक्षिप्त हो जाए,
तो फिर बिजली के शॉक देने पड़ते हैं, तब कहीं
वह होश में आता है।
तुम्हें भी बड़े बिजली के शॉक की जरूरत है। इसलिए बहुत बार मैं ऐसी
बातें भी कहता हूं, जो तुम्हारे हृदय को झकझोर देंगी और शॉक देंगी। और
जिसको मैं ध्यान की प्रक्रिया कह रहा हूं, वह ठीक इलेक्ट्रिक
शॉक ट्रीटमेंट है। तुम्हारे भीतर इतने धक्के उससे पैदा होंगे कि तुम एक भूकंप बन
जाओगे। और जब तक भूकंप न आए, तुम्हारी नींद न टूटेगी।
मैंने सुना है कि एक आदमी को सुबह उसकी पत्नी ने कहा कि रात बड़े बादल
गरजे, बिजलियां चमकीं, बहुत बिजलियां
गिरीं, कई लोग मर गए, जमीन कंपी,
भूकंप भी आ गया, बाढ़ आ गई। उस आदमी ने कहा,
मुझे जगाया क्यों नहीं, मैं भी देख लेता। अगर
ऐसा हो रहा था, तो मुझे जगाया क्यों नहीं? मैं भी देख लेता।
कुछ लोग हैं, जो बिजली के धक्कों को भी आत्मसात कर जाते हैं। उनकी
नींद नहीं टूटती, उन्हें और बड़ा वोल्टेज चाहिए।
अगर तुम राजी हो, तो जितने बड़े वोल्टेज की जरूरत
हो, वह मैं तुम्हें दूंगा। लेकिन तुम्हें राजी करने के लिए
भी मुझे धीरे-धीरे छोटे वोल्टेज से शुरू करना पड़ता है, अन्यथा
तुम भाग ही जाओगे।
झेन फकीर, झेन गुरु, जब उसके शिष्य ध्यान
करते होते हैं, तो डंडा लेकर घूमता रहता है। और जरा ही वह
देखता है कि कोई झपकी खा रहा है--क्योंकि छह घंटे, आठ घंटे
ध्यान के लिए बैठना पड़ता है एक ही आसन में, नींद स्वाभाविक
है--जैसे ही कोई लगता है कि झपकी खा रहा है, उसका डंडा उसके
सिर पर पड़ जाता है। कई बार ऐसा हुआ है कि उसके डंडे का पड़ना और साधक की यह झपकी ही
नहीं टूटी, नींद ही टूट गई। अनेक बार ऐसा हुआ है कि उसके
डंडे के पड़ने का क्षण संबोधि का क्षण हो गया।
जब पहली दफा झेन फकीरों की कथाएं पश्चिमी भाषाओं में अनुवादित हुईं, तो उनको भरोसा न आया कि ऐसा कहीं हो सकता है कि कोई सिर पर डंडा मार दे और
ज्ञान उपलब्ध हो जाए! क्या ज्ञान इतना आसान है! और डंडे मारने से ज्ञान का संबंध
क्या? ज्ञान उपलब्ध होता है बाइबिल के पढ़ने से, कुरान के पढ़ने से, गीता के पढ़ने से, सिर पर डंडा पड़ने से ज्ञान कैसे उपलब्ध होगा? और झेन
फकीरों की कथाएं बड़ी अनूठी हैं कि किसी शिष्य को उन्होंने खिड़की के बाहर फेंक दिया
और जब वह नीचे गिरा जमीन पर, ज्ञान को उपलब्ध हो गया। कि
शिष्य भीतर प्रवेश कर रहा था, उसका हाथ दरवाजे के भीतर था और
गुरु ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया और उसका हाथ दो दरवाजों के बीच पिस गया,
लहूलुहान हो गया और वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया।
बोकोजू के संबंध में प्रसिद्ध कथा है कि बोकोजू जब भी बोलता था, तो बोलते वक्त उसकी एक उंगली सदा ऊपर उठी रहती थी, लोगों
को समझाते वक्त। अद्वैत का प्रतीक था वह उसकी एक उंगली। उसके शिष्य इस पर पीठ पीछे
मजाक भी करते थे, चर्चा करते थे तो एक उंगली उठाकर करते थे।
कुछ हर्ज भी न था।
एक छोटा बच्चा, जो बोकोजू की सेवा में रहता था, बोकोजू के लिए चाय ले आना, पानी ले आना, उसका आसन बिछा देना, वह बिलकुल निष्णात हो गया था इस
उंगली में। वह बोकोजू की नकल बिलकुल वैसे ही करता था, जैसे
बोकोजू भी नहीं कर सकता था। कहीं भी एकांत में यहां-वहां किसी को भी वह उंगली से
खड़ा होकर उपदेश करता था।
बोकोजू को सब पता था। क्योंकि बुद्ध पुरुषों की पीठ के पीछे भी जो
होता है, वह भी उनकी आंख के आगे है। उनसे छिपाने का कोई उपाय
नहीं। और अगर आपको लगता है कि आप छिपा रहे हैं, तो उसका कुल
कारण इतना है कि वे आपको पता नहीं चलने दे रहे हैं कि उनको पता है, बस इतना ही।
एक दिन बोकोजू बोल रहा था। वह बच्चा उसके पीछे कुर्सी पर बैठा था। और
उसने उंगली उठाई, बोकोजू ने, उस बच्चे ने भी
कुर्सी के पीछे उंगली उठाई। बोकोजू मुड़ा, उसने चाकू खीसे से
निकाला और उंगली काटकर फेंक दी, उस बच्चे की उंगली काट दी।
एकदम धक्का लग गया, सारे लोग घबड़ा गए, बच्चा
चीख मार उठा। उंगली टूटकर गिर गई, खून नीचे गिरने लगा।
बोकोजू ने बच्चे को पकड़कर सामने लाया और बोकोजू जोर से हंसा। जब बोकोजू जोर से
हंसा, तो बच्चे को भी कुछ समझ में नहीं आया कि वह रोए कि
हंसे, और एक क्षण को वह भूल ही गया कि उंगली कट गई है। और तब
बोकोजू ने उंगली उठाई और उस बच्चे से कहा, तू भी उठा। उस
बच्चे ने भी उंगली उठाई और कहते हैं, वह ज्ञान को उपलब्ध हो
गया। वह बच्चा उसी क्षण ज्ञान को उपलब्ध हो गया।
ये कथाएं बड़ी अनूठी हैं और बेबूझ हैं। और देखने पर बड़ी कठोर मालूम
पड़ेंगी। यह बोकोजू बड़ा दुष्ट मालूम पड़ता है, एक छोटे बच्चे की
उंगली काट दी। लेकिन उंगली काटने का शॉक नींद तोड़ सकता है। और अगर उंगली कटने से
नींद टूटती हो, तो यह कीमत चुकानी बुरी नहीं है।
लेकिन यह बोकोजू ही जानता है कि किस क्षण में यह घटना घट सकती है, जब कि नींद की पर्त बिलकुल पतली हो, जरा-सी धुंध हो,
चोट में टूट जाए। इसलिए झेन गुरु तभी चोट करता है, जब बिलकुल पतली-सी पर्त होती है। अन्यथा आप चोट को भी पी जाएंगे। उंगली
टूट जाएगी, कोई जागेगा नहीं।
ध्यान की सारी प्रक्रियाएं तुम्हें हिलाने और झकझोरने की प्रक्रियाएं
हैं। और मैं उस क्षण की प्रतीक्षा में सदा रहता हूं कि कब तुम्हारी पर्त इतनी धीमी
होगी कि जरा-से इशारे से टूट जाएगी। और एक बार भी तुम आंख खोलकर देख लो, तो बस बात हो गई।
जो मैं बोल रहा हूं, वह तुम्हें सिर्फ परसुएड करना
है। वह सिर्फ तुम्हें राजी करना है, एक यात्रा के लिए,
जिससे तुम अपरिचित हो; एक ऐसी यात्रा के लिए,
जिसका तुम्हें कोई कूल-किनारा पता नहीं है; जहां
हो भी सकता है, तुम खो जाओ, भटक जाओ;
जहां हो भी सकता है, तुम मंजिल पर पहुंच जाओ। मैं
एक ऐसी संपदा की तलाश पर तुम्हें ले जा रहा हूं, जिसका तुमसे
कोई परिचय नहीं है। और जिसे तुम संपदा मानते हो, उसे छोड़कर
जाना होगा। इसलिए तुम्हारा मोह स्वाभाविक है। तुम पीछे लौट-लौटकर देखते हो,
यह बिलकुल स्वाभाविक है। जो व्यर्थ है, उसको
भी तुम साज-सम्हालकर अपने साथ ले जाना चाहते हो, यह
स्वाभाविक है।
तुम्हारी नींद स्वाभाविक है, मेरा झकझोरना
स्वाभाविक है। तुम्हारी नींद टूटनी कठिन, यह मुझे पता है। और
फिर भी मैं जानता हूं कि एक क्षण में टूट सकती है। ठीक क्षण की तलाश है, कब तुम्हारे द्वार को दस्तक देनी है। तुम अगर आते ही गए, तुम अगर जरा जिद्दी साबित हुए, बीच से न भाग गए,
तुम अगर आए ही चले गए, तुम कब तक सोचोगे?
तुम थक जाओगे सोचने से, तुम धीरे-धीरे सोचना
बंद कर दोगे। और जब तुम सोचना बंद करोगे, स्वप्न बंद हो
जाएंगे।
किसी क्षण, जब मैं तुम्हें पाऊंगा कि तुम बस बैठे हो, सोच नहीं रहे हो, तुम्हारे भीतर विचार की तरंगें
नहीं हैं, उस क्षण जरा-सी चोट, जरा-सी
खटखटाहट, हवा का जरा-सा झोंका, एक सूखे
पत्ते का गिर जाना भी काफी है, तुम जाग जाओगे। एक बार तुम
आंख खोलकर देख लो, फिर सारा जगत और हो जाता है। फिर लौटकर
तुम वापस नहीं हो सकते, जो तुम सदा थे।
और यह भी सच है कि मैं यहां सदा नहीं रहूंगा, इसलिए तुम खो भी सकते हो अवसर। तुम्हें बहुत निश्चिंत भी नहीं होना चाहिए।
क्योंकि निश्चिंतता अक्सर नींद को बढ़ाती है। तुम्हें यह पता होना चाहिए कि किसी भी
क्षण यह दरवाजा बंद हो सकता है। इसलिए तुम्हारी त्वरा, तुम्हारी
तेजी में कमी नहीं आनी चाहिए। तुम मुझे खो सकते हो बिना पाए। पा लो, तब तो खोने का कोई उपाय नहीं है, लेकिन तुम बिना पाए
मुझे खो सकते हो। यह द्वार तुम्हें दिखाई ही न पड़े और बंद हो जाए। यह तुम्हें
स्मरण में रहे, ताकि तुम निश्चिंत होकर सो न जाओ। द्वार इस
क्षण खुला है, तुम शांत हो तो देख सकते हो, तुम मौन हो तो प्रवेश कर सकते हो। सारा आयोजन एक बात के लिए है कि तुम
कैसे मिट जाओ।
शास्त्रों ने गुरु को मृत्यु कहा है। गुरु वही है, जो तुम्हारी मृत्यु बन जाए। और उस मृत्यु के पार ही महाजीवन है। जो मिटेगा,
वही उस महाजीवन को पा सकेगा। इसलिए बहुत बार मैं तुम्हें शत्रु जैसा
भी लगूंगा। तुम्हारी धारणाएं तोड़ता हूं, वह भी तुम्हें मारने
की तरकीब है। तुम्हारे विचार तोड़ता हूं, वह भी तुम्हें मारने
की तरकीब है। तुम्हारे ठीक-सही का हिसाब तोड़ता हूं, वह भी
तुम्हें मारने की तरकीब है। तुम्हारे कपड़े ही नहीं बदलता, नाम
ही नहीं बदलता, तुम्हारी पूरी आत्मा बदल देना चाहता हूं,
वह भी तुम्हें मारने की तरकीब है। तुम्हें मिटा देना है।
तुम जैसे मिटे, वहीं तुम्हारे भीतर परमात्मा प्रगट हो जाता है। तुम
बीज हो, तुम भूमि में खो जाओ और मिट जाओ, तो अंकुर निकल आएगा। तुम बीज की खोल को पकड़े हो, तुम
शायद सोचते हो, यह तुम्हारा प्राण है, यह
मिट गया, तो तुम मिट जाओगे। बीज की खोल तुम्हारा प्राण नहीं
है, तुम्हारा प्राण खोल के भीतर छिपा है; बीज की खोल टूटेगी तो अंकुरण होगा। बीज तो मुर्दा है, अंकुर जीवित होगा। और एक बीज को खोने से डरो मत, जिस
दिन तुम वृक्ष हो जाओगे, करोड़ बीज तुममें लग जाएंगे। लेकिन
बीज को कैसे समझाओ, बीज डरता है कि कहीं टूट न जाए।
अभी मैं एक पुस्तक पढ़ रहा था, सीक्रेट लाइफ आफ द
प्लांट्स। एक अनूठी पुस्तक पश्चिम में अभी-अभी लिखी गई। सर जगदीशचंद्र बसु ने जो
काम शुरू किया था, वह अब पश्चिम में पूरा होने के करीब आ रहा
है। पौधे भी उसी तरह सोचते हैं, जैसे तुम।
एक छोटा-सा तुम प्रयोग करो, तो तुम्हें खयाल में
आ जाए। दो गमले रखो या तीन गमले रखो, तीनों गमलों में एक सी
मिट्टी डालो, एक सा खाद डालो और कोई भी मौसमी फूल के बीज,
जो जल्दी ही चार-छह सप्ताह में अंकुरित हो जाते हैं, वे भी तीनों में बराबर मात्रा में डाल दो। एक गमले के ऊपर धन का निशान लगा
दो, एक गमले के ऊपर ऋण का निशान लगा दो, एक गमले के ऊपर शून्य बना दो। धन का मतलब है कि बीजों से तुम रोज कहोगे कम
से कम पंद्रह मिनट, कि घबड़ाओ मत, डरो
मत, टूटो, बिखरो, मिट्टी में मिल जाओ, जल्दी ही अंकुरण होगा और
महाजीवन प्रगट होगा। भय की कोई भी जरूरत नहीं, सूरज तुम्हारी
प्रतीक्षा कर रहा है। भय की कोई भी जरूरत नहीं, खुला आकाश
तुम्हारे स्वागत को तैयार है।
तुम्हें पहले तो पागलपन जैसा लगेगा कि ये क्या बातें कर रहे हो! लेकिन
घबड़ाओ मत, जल्दी ही तुम्हारा पागलपन परिणाम लाएगा। एक गमले
को--दूर रखो तीनों गमलों को कम से कम आठ-आठ फीट के फासले पर, ताकि एक गमले को दिए गए सुझाव दूसरे को सुनाई न पड़ें--एक गमले के पास रोज
सुबह बैठकर यह सुझाव दो धन, पाजिटिव, कि
डरो मत, टूटो, अंकुरित हो जाओ, स्वागत के लिए सब तैयारी है, कोई भय की जरूरत नहीं,
मैं तुम्हारे साथ हूं।
जिस पर तुमने ऋण का निशान लगाया है, उसको भी पानी उतना ही
दो, धूप उतनी ही दो, सब पूरा उतना ही
दो, सिर्फ सुझाव निगेटिव, नकारात्मक।
उससे कहो कि फूटने की कोई जरूरत नहीं, मिटोगे, कोई अंकुरण होने वाला नहीं है। और महीनों से सूरज छिपा है, आकाश में कोई स्वागत की तुम्हारे लिए तैयारी नहीं है, नाहक कष्ट में पड़ोगे, मुसीबत होगी और मरोगे। इसलिए
अपने को सम्हालो और बीज को बचाओ।
और तीसरे गमले को कोई सुझाव मत दो, शून्य छोड़ दो।
चार-छह सप्ताह के भीतर तुम परिणाम देखने शुरू कर दोगे। जिस गमले को
तुमने बुलाया स्वागत से, उसके अंकुर सबसे पहले आएंगे, उस
गमले में सबसे पहले बीज टूटेंगे--दूसरे दो गमलों में इतने जल्दी नहीं--सबसे पहले
अंकुर होंगे, वे जल्दी से अंकुर बढ़ेंगे। उसके बाद उस गमले का
नंबर आएगा, जिसको तुमने कोई सुझाव नहीं दिया। मगर उसके अंकुर
छोटे होंगे, देर से टूटेंगे, उसके
पौधों में उल्लास न होगा। और जिसको तुमने नकारात्मक सुझाव दिए हैं, उसमें तो अंकुर आएंगे ही नहीं। और अगर एकाध अंकुर आया भी, तो मुर्दा आएगा और जल्दी ही मर जाएगा। यह तुम छोटा-सा प्रयोग खुद करके देख
सकते हो।
तुम्हारे ऊपर मैं यही कर रहा हूं। तुम्हारे गमले पर मैंने धन लगा रखा
है और तुमसे कह रहा हूं, डरो मत, टूटो, मिटो, सूरज तैयार है, आकाश
स्वागत करने को राजी है। और फिर मैं यहां बैठा हूं, घबड़ाओ मत,
चलो, उठो, आगे बढ़ो।
छोटा बच्चा भी बाप का हाथ पकड़कर चल लेता है। चलना नहीं जानता, तो भी बाप का हाथ है, तो बस भरोसा है। बस गुरु इससे
ज्यादा नहीं कर सकता, वह तुम्हें हाथ दे सकता है। अगर
तुम्हें भरोसा हो, तुम चल लोगे। फिर जल्दी ही हाथ की जरूरत न
रह जाएगी। बच्चा थोड़ी ही देर में बाप से हाथ छुड़ाना चाहता है, स्वाभाविक है। जब वह चलने ही लगा, तो वह कहता है,
अब छोड़ो! अब मैं खुद चलकर देखना चाहता हूं। और जो बाप सच में प्रेम
करता है बच्चे को, वह जल्दी ही हाथ छोड़ देना चाहता है।
क्योंकि बच्चा चले, इसीलिए हाथ पकड़ा था, हाथ पकड़ने के लिए कोई बच्चा नहीं था, बच्चे के लिए
हाथ पकड़ाना था। जैसे ही तुम्हारे बीज टूटने शुरू हुए, फूटने
शुरू हुए, जैसे ही तुम्हारा अंकुर आना शुरू हुआ और तुम्हें
कोई जरूरत न रही मेरे आश्वासन की, मैं अपना हाथ खींच लूंगा।
गुरु शिष्य को जल्दी ही अपने से मुक्त कर देता है। लेकिन वह मुक्ति
तभी हो सकती है, जब तुम पहले बंधने को राजी हो। नहीं तो मुक्त किसको
करूंगा? तुम कभी बंधे ही नहीं, मुक्त
किसे करूंगा? बेटे ने कभी बाप का हाथ पकड़ा ही नहीं, छोड़ने का कोई सवाल नहीं, बेटा चार हाथ-पैर से जंगली
जानवर की तरह ही चलता रहेगा।
तुम्हारा द्वार खटखटाता हूं, तुम्हें आश्वासन देता
हूं, तुम्हें भरोसा देता हूं कि डरने का कोई भी कारण नहीं
है। जो तुम छोड़ोगे, वह कचरा है। जो तुम पाओगे, वह महान संपदा है।
प्रश्न:
भगवान श्री, कल आपने बताया कि
द्वंद्व मन का स्वभाव है, यहां विपरीत हमेशा मौजूद रहता है।
फिर तो समर्पण असंभव ही मालूम पड़ता है। क्योंकि
समर्पण में भी अश्रद्धा, घृणा या संदेह मौजूद रहेंगे।
और हम तो मन ही हैं। फिर द्वंद्वातीत समर्पण कैसे
घटित हो सकता है?
या फिर समर्पण की अमृत-वर्षा मन के पार कहीं होती है
और वहां से उसकी अमृत-बूंदें झर-झरकर मन को रूपांतरित करती हैं? कृपया समझाएं।
निश्चय ही मन तो द्वंद्व है, मन तो किसी चीज में
पूरा नहीं हो सकता, आधा ही होगा। अगर प्रेम करेंगे तो आधा ही
प्रेम होगा, आधी घृणा होगी। श्रद्धा करेंगे, तो आधी श्रद्धा, आधी अश्रद्धा होगी। भरोसे में भी
आधा संदेह होगा। फिर क्या करें? फिर समर्पण कैसे हो?
अश्रद्धा को भी समर्पित करें। श्रद्धा ही मत दें, अश्रद्धा भी दे दें। ऐसा मत कहें गुरु को कि मेरा भरोसा ही तुम्हें देता
हूं, मेरा गैर-भरोसा भी देता हूं। मेरा संदेह भी तुम्हें
देता हूं। अब तुम ही सम्हालना मेरे संदेह को भी और मेरे समर्पण को भी। संदेह मैं
करूंगा, क्योंकि मन का स्वभाव है। लेकिन संदेह भी तुम्हारे
चरणों में रखता हूं।
एक बहुत प्रसिद्ध ईसाई फकीर हुआ तरतूलियन। वह रोज परमात्मा से
प्रार्थना करता था। उसकी प्रार्थना समझने जैसी है। वह रोज सुबह कहता था, आई बिलीव इन यू, नाऊ यू हेल्प माई डिसबिलीफ। मैं
तुममें भरोसा करता हूं, मेरी आस्था तुममें है, अब मेरी अनास्था की फिक्र तुम करो। वह है। उसको झुठलाएंगे, तो मुश्किल में पड़ेंगे। उसको छिपाएंगे, तो मुश्किल
में पड़ेंगे। ऐसा अपने को समझाएंगे कि नहीं, मैंने पूरी-पूरी
श्रद्धा कर ली, अब मुझमें कोई अश्रद्धा नहीं, और अश्रद्धा है, तो जाल खड़ा होगा।
न, ठीक से अपने को समझें। श्रद्धा भी वहां है, अश्रद्धा भी वहां है। शुभ भी वहां है, अशुभ भी वहां
है। वहां सदवृत्ति भी है, असदवृत्ति भी है। दोनों को गुरु के
चरणों में रख दें, दोनों को कह दें कि अब तुम सम्हालो। और
साफ है कि संदेह भी मुझमें है, लेकिन उसे भी तुम्हें देता
हूं, अब तुम जानो।
अगर तुम अपना संदेह भी दे पाओ, तो तुम्हारे भीतर एक
नई आस्था का जन्म होगा, जो द्वंद्वातीत है। क्योंकि तब तुमने
बुरे को छिपाया नहीं। बुरे को हम छिपाते क्यों हैं? बुरे को
हम इसीलिए छिपाते हैं कि हम नहीं चाहते कि कोई जाने कि बुरा भी हममें है।
लेकिन गुरु से तुम छिपाओगे, तो तुम पूर्ण नग्न न
हुए, तुमने कुरूपता ढांक ली, सौंदर्य
प्रगट किया। जो दिखाने योग्य था, दिखाया। जो न दिखाने योग्य
था, वह नहीं दिखाया। तो तुमने गुरु के साथ भी बाजार का
व्यवहार किया। उसके सामने तुम्हारे फूल ही तुम्हें नहीं रख देने हैं, कांटे भी रख देने हैं। तुम करोगे क्या? कांटे हैं और
गुरु भलीभांति जानता है। जब तुम कहते हो, मेरी श्रद्धा पूरी
है, संदेह बिलकुल नहीं, तब वह जानता है
कि तुम झूठ बोल रहे हो। भला तुम्हें पता न हो कि तुम झूठ बोल रहे हो। यह झूठ है,
क्योंकि यह हो ही नहीं सकता।
जिस दिन तुम कहते हो, यह संदेह भी है, यह श्रद्धा भी है, ये दोनों आपके पास ले आया। ये
मेरे घाव हैं, ये मेरी खुशियां हैं, दोनों
आपके चरणों में रखता हूं, अब मैं अपने भीतर कुछ भी नहीं बचाता,
पूर्ण नग्न। तब गुरु जानता है कि तुम सच्चे हो। यह आथेंटिसिटी है,
यही प्रामाणिकता का अर्थ है। और इस प्रामाणिकता से ही कुछ घटना घट
सकती है।
मन द्वंद्व है। इसलिए जब तुम किसी को प्रेम करो, तब उसे बताना कि घृणा भी तुम्हारे भीतर है। यही सच्चे प्रेमी का लक्षण है
कि वह छिपाएगा नहीं, वह सब खोल देगा, बुरे-भले
का भेद भी नहीं करेगा। वह निपट अपने मन को उघाड़ देगा और कहेगा, यह रहा मन, इससे दुर्गंध भी आती है, कभी सुगंध भी आती है। और मैं भरोसा नहीं दे सकता कि सदा सुगंध ही आएगी,
क्योंकि इससे दुर्गंध कभी आती है। और कभी-कभी मैं संदेह करूंगा,
और कभी-कभी मैं गुरु के खिलाफ लडूंगा, कभी-कभी
मैं गुरु की निंदा करूंगा, यह भी है।
अगर तुम इतनी सरलता से दोनों छोड़ दोगे, तुम दोनों के पार हो
जाओगे। श्रद्धा और अश्रद्धा को विरोध में खड़ा ही मत करो। दोनों तुम्हारे अंग हैं।
दोनों को ही जाकर समर्पित कर दो। अगर तुमने बिलकुल न बचाया, कुछ
भी न बचाया, बिलकुल रिक्त कर दिया अपने को, द्वंद्व पूरा रख दिया, तुम निर्द्वंद्व हो गए,
उसी क्षण तुम पाओगे कि तुम पार हो गए हो। अब न श्रद्धा की जरूरत है,
न अश्रद्धा की।
और ऐसी घड़ी में जो घटना घटती है, वही वस्तुतः समर्पण
है। वहां द्वंद्व नहीं है। वहां दो नहीं हैं, वहां एक ही है।
वहां गुरु और शिष्य नहीं बचता। वहां समर्पण करने वाला और समर्पण लेने वाला नहीं
बचता। वहां सिर्फ समर्पण की ही घटना रह जाती है। गुरु एक छोर होता है, शिष्य एक छोर होता है, दोनों के बीच एक ही विस्तार
रह जाता है। जैसे तुम्हारा बायां और दायां हाथ और दोनों के भीतर एक ही प्राण का
फैलाव है, ऐसा शिष्य और गुरु के बीच एक ही फैलाव हो जाता है।
एक झेन गुरु मर रहा था। उसने अपने बड़े शिष्य को बुलाया और उसने कहा कि
सुन, यह शास्त्र है, यह मेरे गुरु ने
मुझे दिया था, उनके गुरु ने उन्हें दिया था, सात पीढ़ियों से हम इस शास्त्र को सम्हालकर रख रहे हैं। इसमें जो भी
महत्वपूर्ण है, वह सब लिखा है। जो भी सार है, इसमें अंकित है। इसके अतिरिक्त कुछ भी जरूरत नहीं है। यह एक शास्त्र बचे,
तो धर्म बच जाएगा। इसे अपने प्राणों से ज्यादा सम्हालकर रखना। तू
मेरा उत्तराधिकारी है, इसलिए यह शास्त्र तुझे देता हूं।
शिष्य ने शास्त्र की तरफ देखा भी नहीं और उसने कहा कि जो भी मुझे
मिलने योग्य था, वह बिना शास्त्र के मिल गया; और
जो भी जानने योग्य था, वह मैंने इस शास्त्र के बिना जान
लिया। इसलिए शास्त्र तुम ही अपने साथ ले जाओ। इसका मैं क्या करूंगा?
गुरु ने फिर भी जोर दिया कि मेरे मरने की घड़ी है और व्यर्थ विवाद खड़ा
मत कर और मेरा तुझ पर भरोसा है, इसलिए यह शास्त्र सम्हालने को
देता हूं, यह ले। और यह मेरी आखिरी घड़ी है, और उपद्रव खड़ा मत कर।
शिष्य ने इस हाथ से शास्त्र लिया, सर्दी के दिन थे,
सामने ही आग जल रही थी, उस आग में शास्त्र को
फेंक दिया। उसने खोलकर भी नहीं देखा।
गुरु खिलखिलाया, हंसा और उसने कहा, तेरी श्रद्धा पूरी है। उस शास्त्र में कुछ भी नहीं था, वह एक कोरी किताब थी। तू अगर खोलकर भी उसे देख लेता, तो तूने कुछ बचाया था, तो तेरा ज्ञान संदिग्ध था,
तो तेरी संबोधि पूरी न हुई थी।
बड़ी मुश्किल बात है। गुरु दुखी होता, अगर यह शास्त्र को
सम्हाल लेता। गुरु प्रसन्न है, क्योंकि इसने शास्त्र को जला
दिया। गुरु यह अनुभव करना चाह रहा है मरते क्षण में कि यह बिलकुल मुझसे एक हो गया
है या नहीं हो गया है। अगर एक हो गया है, तो मैं जानता हूं
कि शास्त्र कचरा है, यह भी जानेगा। अगर एक हो गया है,
तो मैं जानता हूं, शास्त्र कोरा है, उसमें कुछ भी लिखा नहीं, यह भी जानेगा। अगर यह न जान
पाए, तो अभी बीच में बाधा रह गई है। इस झेन परंपरा में वह
शास्त्र हमेशा गुरु के द्वारा सात पीढ़ियों से दिया जा रहा था, और हमेशा शिष्य उसे जला रहे थे। वह एक कोरी किताब थी, जो हमेशा गुरु अंतिम परीक्षा के लिए उपयोग में ला रहा था।
जब शिष्य और गुरु बिलकुल एक हो जाते हैं, तब समर्पण है। पर एक वे कब होंगे? जब तुम पूर्ण नग्न
हो जाओगे, जब तुम कुछ भी न छिपाओगे। छिपाने का मतलब ही है कि
हमारे सामने जो है, उससे हमारा विरोध है, दुश्मनी है, डर है, भय है,
प्रेम नहीं है। छिपाना क्या है गुरु के सामने? और गुरु की आंखों में तुम्हारे बुरे को देखकर निंदा तो नहीं होगी, क्योंकि तुम्हारे छिपाने से भी उसे दिखाई पड़ रहा है, इसलिए कोई फर्क तो पड़ता ही नहीं। तुम नाहक अपनी कुशलता, अपनी समझदारी दिखा रहे हो।
मन द्वंद्व है, इसलिए पूरे द्वंद्व को ही तुम समर्पित कर देना। मन को
समर्पण करना, उसमें से आधे को नहीं। ध्यान रहे, आधे को बचाया, आधे को समर्पित किया, समर्पण हुआ ही नहीं! यह ऐसे ही, जैसे मेरे पास एक
रुपया है, एक सिक्का है सोने का, उसका
एक पहलू तुम्हें देता हूं और एक पहलू मैं बचाता हूं। वह रुपया मेरे ही खीसे में
रहेगा, क्योंकि दो पहलू अलग-अलग होने वाले नहीं हैं। तो मैं
तुम्हें दिखा सकता हूं एक पहलू कि यह रहा और खीसे में रख लूंगा, क्योंकि दूसरा पहलू मुझे बचाना है। या तो सिक्का पूरा ही देना पड़ेगा,
या सिक्का पूरा ही बचाना पड़ेगा, आधा-आधा कोई
उपाय नहीं है।
समर्पण का अर्थ है, मन का समर्पण। मन द्वंद्व है।
इसलिए द्वंद्व का समर्पण, बिना कुछ बचाए, बिना किसी सुरक्षा के। स्वयं को पूरा का पूरा खोल देना है। उसी क्षण
शिष्य-गुरु मिट जाते हैं। गुरु तो मिटा ही हुआ है, उस क्षण
शिष्य भी मिट जाता है। एक ही बचता है। दो छोर होते हैं, बीच
में एक ही हवा होती है, एक ही हवा का झोंका दो पत्तों को
हिलाता है। वे दो पत्ते अलग होंगे, लेकिन हवा का झोंका एक
है। दो देह अलग होंगी, लेकिन चेतना का झोंका एक है।
आज इतना ही।
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