मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 08 अगस्त सन् 1979
प्रवचन-आठवां
*
बुद्धत्व की धन्यता
*
मनुष्य है: मृण्मय में चिन्मय
*
संन्यास का फूल
*
रूपांतरण की प्यास
प्रश्न-सार
*आपको देखा तो लगा कि मेरा जीवन व्यर्थ ही चला गया है। अब मैं क्या करूं,
क्या न करूं?
*मनुष्य देह मात्र ही है या कुछ और भी?
*मैं संन्यास लेने के लिए आतुर हूं, लेकिन फिर भी
वर्ष भर से झिझक रहा हूं। यह भी शंका मन में है कि संन्यास लेने से भी क्या होगा?
*मैं भी रूपांतरित होना चाहती हूं। स्वप्नों में बहुत जीवन गंवाया। लेकिन
अब मुझे बचाओ। मेरे लिए क्या आदेश है?
*पहला प्रश्न: भगवान! आपको देखा तो लगा कि मेरा जीवन व्यर्थ ही चला गया है।
अब मैं क्या करूं, क्या न करूं?
हरीश! जीवन तो साधारणतः व्यर्थ ही जाता है। लाखों में
एकाध व्यक्ति का जीवन सार्थक होता है; जब कि सभी का सार्थक हो सकता था;
जब कि सभी सार्थक होने की संभावना लेकर जन्मे थे।
प्रत्येक
व्यक्ति बीज है परमात्मा का। लेकिन बीज फूल नहीं है; फूल हो सकता है। बीज
संभावना है--सत्य नहीं। और संभावनाओं को सत्य में परिणत करने का नाम ही साधना है।
बीज
को जमीन देनी होगी,
खाद देनी होगी, जल देना होगा; सूरज की रोशनी उस तक पहुंच सके, इसका आयोजन करना
होगा। सूरज और उसके बीच की बाधाएं हटानी होंगी। और फिर प्रार्थनापूर्ण हृदय से
प्रतीक्षा करनी होगी। जब आएगी ठीक-ठीक ऋतु बीज के टूटने की, तो
अंकुरण होगा। फिर अंकुर की रक्षा करनी होगी। अंकुर नाजुक होता है--महत जीवन से भरा,
पर बहुत कोमल। एक पत्थर गिर जाए उस पर, और सब
नष्ट हो जाए। फिर बागुड़ लगानी होगी। पौधा जब तक इस योग्य न हो जाए कि अपने ही
पैरों पर खड़ा हो सके; जड़ें जब तक इतनी मजबूत न हो जाएं कि
आकाश में उड़ती हुई आंधियों और अंधड़ों को वृक्ष सह सके--आनंद से, उल्लास से, उमंग से; नाच सके
अंधड़ में, तूफानों में; बादल गरजें और
बिजलियां कड़कें, और वृक्ष पुलकित हो, रस-विभोर
हो; उस घड़ी के आने तक सतत साधना है।
तुम
मुझसे पूछते हो: "मैं क्या करूं और क्या न करूं?'
पहले
तो अपने को सम्यक भूमि दो,
भूमिका दो। मैं उस भूमिका को ही संन्यास कहता हूं। संन्यास है सम्यक
भूमि की तलाश। शायद अकेले तुम अंकुरित न हो सको। क्योंकि अंकुरित होने के लिए एक
गहन आशा चाहिए। वह आशा कैसे जगेगी? और जहां आशा नहीं है,
बीज के प्राण अंकुरित नहीं होते। आशा जगेगी और बीजों को अंकुरित
होते देख कर। इसलिए समस्त बुद्धों ने संघों का निर्माण किया।
संघ
एक ऊर्जा-क्षेत्र है,
जहां और-और बीज, जो तुमसे थोड़ा आगे चल पड़े हैं,
अंकुरित हो गए हैं। कुछ और थोड़े बीज, जो और
आगे चले थे, पल्लवित हो गए हैं। कुछ और थोड़े बीज, जो और आगे चले थे, पुष्पित हो गए हैं। कुछ और बीज,
जो और थोड़े आगे चले थे, फलों के भार से लद गए
हैं। पृथ्वी पर झुक आई हैं उनकी शाखाएं।
जहां
तुमसे आगे, तुमसे पीछे, बहुत अंकुरित होने वाले बीजों का जमाव
हो--ऐसी कोई परिस्थिति खोज लो। ऐसा कोई संघ खोजो। जो तुमसे पीछे हैं, उनको सहारा दे सको तुम। और जो तुमसे आगे हैं, उनसे
सहारा ले सको तुम। और कम से कम आश्वासन तो जगे कि मेरे भीतर भी कुछ हो सकता है,
कि मैं कंकड़ नहीं हूं, बीज हूं। यह भरोसा तो
होना ही चाहिए। और यह भरोसे की बात है। इसके लिए कोई प्रमाण नहीं हो सकता। कोई
तार्किक आधार नहीं हो सकता।
बीज
के पास क्या तार्किक आधार है कि वह बीज है? बीज को तो बीज होने का पता ही तब
चलेगा, जब वह अंकुरित हो जाए। अंकुरित हो जाए, तो पता चलेगा कि मैं बीज था। यह तो पीछे लौट कर देखेगा, तब पता चलेगा कि मैं बीज था। आगे तो कुछ दिखाई पड़ता नहीं। आगे तो गहन
अंधकार है। आशा की कोई किरण नहीं। सिर्फ एक ही संभावना है: मेरे जैसे बीज, मेरे जैसे मनुष्य अगर सत्य को उपलब्ध हुए हैं, मेरे
जैसे दीये अगर ज्योतिर्मय हो उठे हैं--तो तुम्हारे भीतर भी उत्साह उठेगा। एक गहन
आकांक्षा, अभीप्सा जगेगी, कि जो औरों
को हो गया है, वह मुझे भी हो सकता है। इस अभीप्सा, इस आकांक्षा, इस भरोसे का नाम ही श्रद्धा है।
श्रद्धा कोई सिद्धांतों में विश्वास नहीं है, और न शास्त्रों
में विश्वास है--वरन जीवन-ऊर्जाओं में।
बुद्ध
को देख कर अनेक लोगों को भरोसा हुआ कि यह हमारे भीतर भी हो सकता है। बुद्ध ने न
मालूम कितने प्राणों में जन्मों-जन्मों से पड़ी हुई वीणा के तार छेड़ दिए; संगीत
मुखरित हो उठा।
हरीश, शुभ है,
मंगलदायी है, कि तुम्हें ऐसा लगा कि आपको देख
कर लगा कि मेरा जीवन व्यर्थ ही चला गया। अगर ऐसा लगा है, तो
सार्थक होने की घड़ी आ गई। फिर जीवन व्यर्थ नहीं गया, तुम्हें
यहां तक ले आया। और क्या सार्थकता हो सकती थी! तुम्हें मेरे पास ले आया। तुम
मरुस्थल में भटक नहीं गए। तुम सागर के करीब आ गए हो। अब थोड़ी हिम्मत और, एक छलांग और। तटों का मोह छोड़ो; उतर जाओ सागर में।
मिटने की तैयारी और।
पूछते
हो: "क्या करूं,
क्या न करूं?'
मिटो!
क्योंकि बीज मिटे नहीं,
तो वृक्ष नहीं होगा। तुम मिटो नहीं, तो
बुद्धत्व तुम्हारे भीतर जगेगा नहीं। और जागना तुम्हारी संभावना है।
मैं
ठीक तुम जैसा हूं। वही हड्डी-मांस-मज्जा। लेकिन फिर भी कुछ घटा है जो आकाश का है, पृथ्वी का
नहीं है। मेरी आंखों में झांक कर तुम्हारे भीतर भी प्यास जग आए--जग आई है--तो दबा
मत देना उस प्यास को, क्योंकि वही प्यास तुम्हारा भविष्य है।
वही प्यास तुम्हें परमात्मा तक ले जाने का पथ है।
लगता
तो सभी को है जीवन के अंत में कि जीवन व्यर्थ गया। मृत्यु जब द्वार पर दस्तक देती
है, तो किसको नहीं लगता कि जीवन व्यर्थ गया! लेकिन धन्यभागी हैं वे, कि मृत्यु के पूर्व किसी सदगुरु की दस्तक जिन्हें सुनाई पड़ जाती है।
पुराने
शास्त्र तो कहते हैं कि सदगुरु मृत्यु है। एक अर्थ में ठीक कहते हैं। आचार्यो
मृत्युः। ठीक कहते हैं कि गुरु मृत्यु है। क्योंकि जैसे मृत्यु आकर झकझोर देती है, जैसे
मृत्यु आकर तुम्हें चौंका देती है--कि सारा जीवन व्यर्थ गया; क्या कर रहे हो! वैसे ही सदगुरु भी झकझोर देता है।
लेकिन
मृत्यु का झकझोरना व्यर्थ है, क्योंकि समय बचता नहीं। अब कुछ करोगे भी तो
क्या करोगे! मृत्यु एक क्षण का भी अवकाश नहीं देती। आई--कि आई। मृत्यु आई--कि तुम
गए। साधना के लिए समय नहीं मिल पाता। सदगुरु ऐसी मृत्यु है, जो
तुम्हें झकझोरता है, लेकिन अभी जीवन शेष है। अच्छा हुआ कि
तुम आ गए। और अच्छा हुआ कि तुम्हें व्यर्थता का बोध हुआ। यह शुभ लक्षण है।
सूखकर
दलदल बना अपार
ओंठ
पर चिपके सुख के गीत
पपड़ियां
बन कर अति दयनीय
गए
सपनों के पल भी बीत
नहीं कुछ
भी बाकी कमनीय
श्वास-चक्र
चलते हैं, मन का रथ पर ठहर गया
भार के साथी! सच मानो
मेरे
यौवन के युग में यह जीवन बिखर गया
प्यार के
साथी! सच मानो
रोज
की घटना है यह बात
वही
होता है जो अनपेक्ष
किंतु
जो चाहा है दिन-रात
नहीं
होने पाता वह एक
समय
की गति पर मेरा जोर
नहीं
है, यह था मुझको ज्ञान
समय
की गति भी मुझको ज्ञात
नहीं है, अब पाया हूं
जान
लहर-लहर
का ढंग देख कर मैं भी लहर गया
धार के साथी! सच मानो
मेरे
यौवन के युग में यह जीवन बिखर गया
प्यार के
साथी! सच मानो
क्रांति
के युग में पाकर होश
क्रांति
की गति से होकर दूर
नहीं
है संभव कोई जोश
इसी
से हूं मैं भी मजबूर
किंतु
मजबूरी का यह शोर
बराबर
होता जाता व्यर्थ
एक
दुनिया मिटती इस ओर
दूसरी बनने
में असमर्थ
अगति
और असफलता का यह अनुभव मिला नया
हार के साथी! सच मानो
मेरे
यौवन के युग में यह जीवन बिखर गया
प्यार के
साथी! सच मानो
लेकिन
मौत के क्षण में यह याद भी आए तो बहुत देर हो गई--बहुत देर हो गई। चिड़िया चुग गई
खेत, अब पछताए होत का। लेकिन मृत्यु के पहले--जीवन मेरा व्यर्थ जा रहा है--ऐसी
प्रतीति, ऐसा साक्षात्कार, सत्य की
यात्रा का प्रारंभ बनता है।
खोजो
भूमि! और अगर यहां तुम्हें लगा है कि संभावना सत्य बन सकती है, तो ऐसे
बाहर ही बाहर से मत लौट जाना। डूबो! निमंत्रण स्वीकार करो! नेह निमंत्रण स्वीकार
करो!
संन्यास
मेरा निमंत्रण है--जिनमें साहस है, उनके लिए; जिनमें
अपनी छोटी सी नौका को तूफान से भरे सागर में छोड़ देने का भरोसा है, श्रद्धा है; जो जानते हैं कि तूफान भी अपना है,
पराया नहीं; कि तूफान भी शत्रु नहीं है,
मित्र है; कि तूफान ही ले जाएगा उस पार;
कि तूफान ही बन जाएगा तारक। ऐसी श्रद्धा जहां है, वहां संन्यास संभव हो पाता है।
लेकिन
कुछ मित्र आ जाते हैं--उत्सुकता से, कुतूहलवश, जैसे
कोई खाज को खुजलाता है, ऐसे आ जाते हैं। आते हैं, जाते हैं; न कुछ ले जा सकते हैं यहां से; न कुछ कचरा छोड़ सकते हैं, न कुछ हीरे जोड़ सकते हैं।
एक
मित्र ने पूछा है कि भगवान,
मुझे न तो भगवान में उत्सुकता है, न धर्म में,
न अध्यात्म में। मुझे तो राजनीति में उत्सुकता है। आप राजनीति पर
कुछ कहें!
मेरे
मित्र! मुझे राजनीति में उत्सुकता नहीं है। तुम्हीं कुछ भगवान, धर्म और
अध्यात्म के संबंध में सुनना चाहो सुनो। नहीं तो हमारा कोई तालमेल न हो सकेगा। मैं
करता आकाश की बात, तुम पूछते पाताल की बात! संवाद कैसे हो?
राजनीति
में उत्सुकता है,
तो राजनीतिज्ञों के पास जाओ। राजनीति में उत्सुकता है, तो यह तुम्हारे लिए ठीक जगह नहीं है; खतरनाक जगह है।
यहां कहीं ऐसा न हो जाने-अनजाने उलझ जाओ। भागो यहां से! जितने जल्दी भाग सको,
उतना अच्छा। दिल्ली को गंतव्य बनाओ। वहां मिलेंगे तुम्हें गुरु!
यहां तुम कहां आ गए? कैसे भूले-चूके आ गए?
यह
तो जगह उनके लिए है,
जो परम प्यास से भरे हैं। यह तो जगह उनके लिए है, जिन्होंने तय कर लिया है कि जीवन व्यर्थ है। यह जगह तो हरीश जैसे
व्यक्तियों के लिए है।
पूछते
हो हरीश: "क्या करूं,
क्या न करूं?'
चुक
गया जब नेह, बाती जर गई
मत
करो चीत्कार
पगले!
शैल
की चट्टान-सा हो
है
डटा यह अंधकार अपार
इसको
भेद पाएगा नहीं यह कंठ-स्वर
पहुंच
पाएगी नहीं उस पार यह तेरी पुकार
व्यर्थ
है ललकार
अनुनय
व्यर्थ है!
पर
न हिम्मत हार;
प्रज्वलित
है प्राण में अब भी व्यथा का दीप
ढाल
उसमें शक्ति अपनी
लौ
उठा!
लौह-छेनी
की तरह आलोक की किरणें
काट
डालेंगी तिमिर को
ज्योति
की भाषा नहीं बंधती कभी व्यवधान से!
मुक्ति
का बस है यही पथ एक!
न
तो हाथ जोड़ो आकाश के समक्ष,
क्योंकि आकाश हाथ जोड़ने को नहीं समझता। न मंदिर-मस्जिदों में
प्रार्थनाएं करो। वे प्रार्थनाएं शून्य में खो जाती हैं।
व्यर्थ
है ललकार
अनुनय
व्यर्थ है!
पहुंच
पाएगी नहीं उस पार यह तेरी पुकार
इसको
भेद पाएगा नहीं यह कंठ-स्वर
है
डटा यह अंधकार अपार
चुक
गया जब नेह, बाती जर गई
मत
करो चीत्कार
पगले!
फिर
क्या करें?
पर
न हिम्मत हार;
प्रज्वलित
है प्राण में अब भी व्यथा का दीप
व्यर्थता
दिखाई पड़ रही न;
यह काफी शुभ लक्षण है। व्यथा का दीप अभी भी जला है।
पर
न हिम्मत हार;
प्रज्वलित
है प्राण में अब भी व्यथा का दीप
ढाल
उसमें शक्ति अपनी
लौ
उठा!
लौह-छेनी
की तरह आलोक की किरणें
काट
डालेंगी तिमिर को
ज्योति
की भाषा नहीं बंधती कभी व्यवधान से!
मुक्ति
का बस है यही पथ एक!
ज्योति
जलाओ। भीतर के दीये की ज्योति को उकसाओ। बुझ नहीं गई है। क्योंकि तुम्हें बोध हो
रहा है कि जीवन व्यर्थ गया। किसे यह बोध हो रहा है? उस बोध का नाम ही ज्योति
है। यह कौन तिलमिला गया है? यह कौन नींद से जाग उठा है?
यह कौन--जिसका स्वप्न टूट गया है? इसी को
पकड़ो। इसी को सम्हालो। इसी धीमी सी उठती हुई आवाज को अपना सारा जीवन दो। इसी धीमी
सी जगमगाती लौ को अपनी पूरी ऊर्जा दो। और तुम्हारे भीतर जलेगी प्रज्वलित अग्नि,
जो न केवल प्रकाश देगी, वरन शीतल भी करेगी।
जलेगी प्रज्वलित अग्नि, जो तुम्हारे अहंकार को गलाएगी,
जो तुम्हारे अंधकार को काटेगी, और जो तुम्हारे
लिए परम प्रकाश का पथ बन जाएगी।
मैं
इस दीये के जलाने की प्रक्रिया को ध्यान कहता हूं। भूमिका है संन्यास। संन्यास है
तैयारी ध्यान की--आयोजन,
व्यवस्था। और ध्यान है संन्यास के मध्य में टूट गया बीज--अंकुरण।
संन्यास है मिट्टी का दीया। और ध्यान है उसमें जगती चिन्मय ज्योति। संन्यास है
मृण्मय; ध्यान है चिन्मय। और इन दोनों का जोड़ हो जाए हरीश,
तो जो मुझे हुआ, वही तुम्हें होगा। वही होना
है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कितनी
ही देर करो, मगर वही होना है। और जितना जल्दी कर लो, उतना शुभ। क्योंकि जितना समय नहीं होगा, उतना समय
दुख-स्वप्नों में बीतेगा। उतना समय व्यर्थ कूड़ा-करकट बटोरने में बीतेगा। उतना समय
व्यर्थ ही गया।
अभी
भी देर नहीं हो गई। कहते हैं: सुबह का भूला सांझ घर आ जाए, तो भूला
नहीं कहलाता।
हरीश, सांझ हो
रही है। सुबह के भूले हो, अभी भी घर आ जाओ, तो भूले नहीं कहलाओगे।
ब
ब
*दूसरा प्रश्न: भगवान! क्या मनुष्य देह मात्र ही है या कुछ और भी?
रंजन!
मनुष्य देह भी है--और देह नहीं भी। मनुष्य देह में अदेह है; शरीर में
छिपा अशरीरी है; पदार्थ में प्रच्छन्न परमात्मा है।
दुनिया
में दो तरह की विचारधाराएं प्रभावी रही हैं। दोनों अधूरी हैं। एक है भौतिकवादी की
परंपरा--चार्वाक,
दिदरो, माक्र्स, फ्रायड,
एपिकुरस और इस तरह के लोग; जिन्होंने कहा कि
मनुष्य केवल देह मात्र है, और रत्तीमात्र भी ज्यादा नहीं,
भिन्न नहीं, अन्य नहीं। बस देह है; सिर्फ मिट्टी का दीया है, इसमें कोई और ज्योति नहीं।
यंत्र मात्र है। जब तक चल रहा है, चल रहा है; जब गिर गया, गिर गया। जैसे तुम्हारी घड़ी बंद हो जाए,
तो फिर तुम यह थोड़े ही पूछते हो घड़ीसाज से कि इसकी आत्मा कहां गई?
मुल्ला
नसरुद्दीन घड़ी खरीद कर लाया था। सस्ती मिल गई थी मेले में। अब मेले की घड़ी, और खूब
सस्ती मिल गई थी, तो बहुत प्रसन्न घर तक आया था। लेकिन घर तक
आते-आते घड़ी बंद हो गई! तो मुल्ला ने घड़ी खोली।
पत्नी
ने बहुत कहा कि तुम्हें पता नहीं घड़ी सुधारना। क्या खोल कर बैठे हो? किसी
घड़ीसाज के पास जाओ।
मुल्ला
ने कहा, इतनी सस्ती घड़ी! अब घड़ीसाज लूटेगा! जरा मैं ही खोल कर देखूं कि मामला क्या
है? घड़ी खोली, तो उसमें एक मरा हुआ
मच्छर निकला।
मुल्ला
ने कहा, तब तो मैं कहूं; जब ड्राइवर ही मर गया, तो घड़ी कैसे चलेगी।
चार्वाक
से लेकर माक्र्स तक,
तुम्हारे भीतर कोई ड्राइवर है--मच्छर जितना भी--इतना भी वे नहीं
मानते! तुम बस यंत्र मात्र हो। घड़ी बंद हो गई, तो तुम यह
नहीं पूछ सकते कि घड़ी में जो चलता था, वह कहां गया! पूछोगे,
तो लोग पागल कहेंगे। घड़ी में कोई नहीं था जो चलता था। घड़ी तो एक
संयोजन थी। कोई घड़ी की आत्मा नहीं थी जो उड़ गई--पंख पसार कर। चली गई अपने लोक! छोड़
गई देह को यहां।
यह
भौतिकवादी की परंपरा। इस परंपरा में आधा सत्य है। और ध्यान रखना, आधे सत्य
पूरे असत्यों से भी बदतर होते हैं। वह जो उनमें आधा सत्य होता है, वही उनका खतरा है, क्योंकि वे सत्य जैसे मालूम होते
हैं--और सत्य होते नहीं। आवरण सत्य का होता है; भीतर असत्य
होता है।
इस
आधे सत्य या आधे असत्य के विपरीत दूसरी परंपरा है--अध्यात्मवादियों की। उसके पीछे
बड़ी भीड़ है। भौतिकवादियों के पीछे बहुत बड़ी भीड़ नहीं थी। लेकिन अब उनके पीछे भी
भीड़ है, क्योंकि रूस और चीन, दो बड़े देश भौतिकवादी हो गए
हैं। भौतिकवाद पहली दफा धर्म बना है। इसके पहले धर्म नहीं था। इक्के-दुक्के लोग,
तर्कनिष्ठ लोग, बुद्धि से ही जीने वाले लोग,
बुद्धिजीवी, कभी-कभार उस तरह की बातें कर देते
थे। समाज उनका ज्यादा ध्यान भी नहीं रखता था। उनसे कुछ बनता-बिगड़ता भी न था।
नक्कारखाने में तूती की आवाज थी। कौन चिंता लेता था!
लेकिन
अब भौतिकवाद भी एक धर्म है;
उसके भी पंडित-पुरोहित हैं; उसकी भी त्रिमूर्ति
है! कार्ल माक्र्स, फ्रेड्रिक एंजिल्स और लेनिन--ये तीन की
त्रिमूर्ति है। जोसेफ स्टैलिन ने बहुत कोशिश की कि इसको चार बना दें, चतुर्भुज बना दें; अपने को बहुत लगाने की कोशिश की;
जब तक जिंदा रहा, तब तक उसने तीन को चार में
बदल दिया था। मरते ही हटा लिया गया। उसी तीन को चार बनाने की कोशिश माओत्से तुंग
की थी। लेकिन वह त्रिमूर्ति थिर हो गई है। जैसे ईसाइयों में ट्रिनिटी का सिद्धांत
है, वैसा कम्युनिस्टों में त्रिमूर्ति का।
और
जैसे हिंदुओं की काशी है,
और मुसलमानों का काबा, और जैनों का गिरनार,
और यहूदियों का जेरुसलम, वैसे ही कम्युनिस्टों
का क्रेमलिन। काशी, काबा, क्रेमलिन! ये
सब एक ही ढंग की चीजें हैं; इनमें कुछ भेद नहीं। जैसे
अधिकारी पंडित-पुरोहित हैं, पोप हैं, पादरी
हैं, शंकराचार्य हैं, वैसे ही अधिकृत
कम्युनिस्ट पार्टी है, कम्युनिस्ट पार्टी का पोलिट ब्यूरो है,
कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकृत विद्वान हैं, स्वीकृत
विद्वान हैं। उसके भी अधिकारी हैं! उनसे अन्यथा जो जाए, वह
पापी है। उनसे अन्यथा जो जाए, उसे यहीं नरक भेज दिया जाता
है। क्योंकि कम्युनिस्ट भविष्य में तो भरोसा नहीं करते! मृत्यु के बाद तो उनका कोई
नरक है नहीं। इसलिए उनको साइबेरिया यहीं भेज देना पड़ता है, जीते
जी, या कारागृहों में डाल देना पड़ता है।
दूसरी
परंपरा है अध्यात्मवादियों की। वे कहते हैं, आदमी देह नहीं है, आत्मा है। देह तो मात्र सपना है, माया है।
यह
भी आधा सत्य है। देह सपना नहीं है, और देह माया नहीं।
शंकराचार्य
स्नान करके काशी के घाट पर सुबह-सुबह ब्रह्ममुहूर्त में सीढ़ियां चढ़ रहे हैं और एक
शूद्र ने उन्हें छू लिया। बहुत नाराज हुए और कहा कि हे मूढ़ शूद्र! तुझे इतनी भी
समझ नहीं कि ब्राह्मण स्नान करके पवित्र होकर पूजा की तैयारी में जा रहा हो, उसे छुआ
जाता है!
लेकिन
वह शूद्र भी अदभुत था। कोई साधारण शूद्र न रहा होगा। उसने कहा, एक बात का
जवाब दे दें। जान कर ही मैंने छुआ है। इसी जवाब को जानने के लिए छुआ है। कल रात
आपका प्रवचन सुना, आपके तर्क सुने। आप सिद्ध करते हैं संसार
माया है। देह स्वप्न मात्र है। तो मेरे स्वप्न ने आपके स्वप्न को छुआ। एक स्वप्न
दूसरे स्वप्न को छू ले, तो इसमें अपवित्र क्या हो जाएगा! न
मैं हूं, न आप हैं। देह की तरह तो मैं भी असत्य, आप भी असत्य। असत्य में भी पवित्र असत्य और अपवित्र असत्य होते हैं?
असत्य में भी ब्राह्मण असत्य और शूद्र असत्य होते हैं? मैं तो समझता हूं असत्य सिर्फ असत्य होता है। यदि मेरी देह ने आपको छुआ और
आपकी देह अपवित्र हो गई, तो फिर देह है। फिर रात के तर्कों
का क्या हुआ?
शंकराचार्य
को इस तरह किसी ने न झकझोरा था। तार्किक वे बड़े थे। तर्क में उनसे कोई जीता न था।
सारे देश में उन्होंने दुंदुभी पीट दी थी। शास्त्रार्थ कर-कर के लोगों को हराते
चले गए थे। लेकिन इस शूद्र के सामने नत हो जाना पड़ा। और उस शूद्र ने कहा, यह भी हो
सकता है आप कहें कि नहीं, देह तो माया है, लेकिन तुम्हारी आत्मा ने मेरी आत्मा को अपवित्र कर दिया। तो मैं यह कहना
चाहता हूं कि रात आपने यह भी कहा था कि आत्मा अपवित्र होती ही नहीं। आत्मा तो
पवित्र ही है। आत्मा के अपवित्र होने का कोई उपाय नहीं। देह असत्य है। आत्मा
अपवित्र होती नहीं, क्योंकि आत्मा ब्रह्म-स्वभावी है। और
ब्रह्म और अपवित्र हो जाए! तो मेरे ब्रह्म ने आपके ब्रह्म को अपवित्र कर दिया?
और गंगा में स्नान ब्रह्म को करवाया था या शरीर को? गंगा का जल ब्रह्म को भी धोता है? बाहर का जल भीतर
के अंतस्तल को धोने लगा?
यह
पहला मौका था कि शंकराचार्य को किसी ने बेजुबान कर दिया। जैसे जीभ काट ली हो। झुक
गए थे उस शूद्र के चरणों में। क्षमा मांगी थी, और कहा था, मुझे
माफ कर दो। जो मैं कहता था, वह अब तक सिद्धांत था, दर्शनशास्त्र था। अब से उसे जीवन बनाऊंगा।
फिर
दिन में बहुत खोज की उस शूद्र की, लेकिन वह शूद्र पाया नहीं जा सका। वह शूद्र
निश्चित ही कोई अदभुत रहस्यवादी संत रहा होगा। रहा होगा किसी बुद्ध, किसी कबीर, किसी क्राइस्ट की हैसियत का आदमी,
जो शंकराचार्य को भी झकझोर दिया!
यह
आधी परंपरा है--जो देह को माया कहती है।
रंजन, मैं दोनों
परंपराओं में से किसी को भी स्वीकार नहीं करता हूं। दोनों को एक साथ स्वीकार करता
हूं। मनुष्य देह है। देह सत्य है। और मनुष्य सिर्फ देह ही नहीं है, देह के भीतर आत्मा है। और आत्मा परम सत्य है। मनुष्य दोनों का जोड़ है।
मनुष्य एक अदभुत संयोग है, जहां आकाश और पृथ्वी मिलते हैं।
मनुष्य एक क्षितिज है।
हम
नहीं हैं द्वीप जीवन की नदी के
वरन
जीवन से भरे निर्मल सरोवर!
भले
मिट्टी से हुआ निर्माण,
किंतु
मिट्टी है परिधि ही
नहीं
हैं मिट्टी हमारे प्राण!
सूर्य
की दीपित किरण से
नीर
के भावुक मिलन की हम विमल संतान!
सुनो
फिर से!
हम
नहीं हैं द्वीप जीवन की नदी के
वरन
जीवन से भरे निर्मल सरोवर!
भले
मिट्टी से हुआ निर्माण,
किंतु
मिट्टी है परिधि ही
नहीं
हैं मिट्टी हमारे प्राण!
सूर्य
की दीपित किरण से
नीर
के भावुक मिलन की हम विमल संतान!
ठीक
है, हम आज चारों ओर सीमा से घिरे हैं
किंतु
हममें जी रही गति की असीमित धार
हममें
जी रहा है
सिंधु
की गहराइयों का
मेघ
की ऊंचाइयों का प्यार!
हम
प्रखर आलोक, गतिमय भावना के पुत्र हैं
हम
नहीं हैं रेत के रूखे,
अशुभ अंबार!
पर
हमें बेचैन करता यह व्यथा का भाव:
कट
चुके हम धार से,
गति
से हमारा हो चुका अलगाव!
हम
सरोवर हैं
नहीं
हैं धार!
यह
नहीं है शाप अथवा नियति अपनी,
किंतु
यह तो बस समय की बात
क्षणभंगुर
परिस्थिति!
हम
नदी के पुत्र हैं,
पाषाण-कारा से घिरे!
दूर
उसके क्रोड़ से,
हम दूर उस स्रोतस्विनी से,
तदपि
उसके अंश, हम वंशज उसी के!
हो
गए हों हम भले म्रियमाण
पर
समवाय के अभियान में मिल
एक
होने के लिए आकुल हमारे प्राण!
तुम
अगर हो द्वीप
रूखी
रेत के बेडौल टीले!
धार
की ही गोद में बैठे विषम व्यवधान,
तो
भले ही तुम रहो ऊंचे,
महान
पर
कृपा कर यह न सोचो:
धार
की हर लहर जो आती तुम्हारे पास
ठोंकती
है वह तुम्हारी पीठ
या
तुम्हारी कीर्ति में वह छेड़ती है तान!
वह
तो है विकल, बेचैन तुमको लांघ जाने के लिए
सहज
गति अनिरुद्ध पाने के लिए
धारा
बढ़ाने के लिए!
और
हम यद्यपि नहीं हैं धार
यद्यपि
हैं सरोवर मात्र
किंतु
यह केवल समय की बात!
लौट
कर टुक ग्रीष्म आने दो,
किरण
का हमको तनिक वरदान पाने दो,
उफन
जाने दो!
हम
अहम् को भूल
मेट
कर अपनी बनावट
तोड़
सीमाएं सभी
एक
दिन फिर से मिलेंगे धार में
समवेत
जीवन के अपरिमित ज्वार में!
हम
उस अनंत आकाश के हिस्से हैं। और अगर आज पृथ्वी पर सीमाबद्ध हैं, तो यह
केवल परिस्थिति है। यह हमारा सत्य नहीं। जैसे कि नदी की धार नदी से कट कर सरोवर बन
जाए, चट्टानों में घिर जाए; है तो धार
का ही अंश, लेकिन आज चट्टानों में घिरा है। आने दो ग्रीष्म
की ऋतु। उतरने दो किरण आकाश से। ले जाएगी उड़ा कर सरोवर को पुनः मेघों में। फिर
बरसेगी जलधार हिमालय पर। फिर धारा बनेगी। फिर सागर से मिलन होगा।
ऐसे
ही जब कोई शिष्य किसी गुरु की किरण के पास आ जाता है, तो उड़ान
शुरू हो जाती है। रहता पृथ्वी पर है, लेकिन पैर फिर उसके
पृथ्वी पर नहीं पड़ते। रहता देह में है, और फिर भी देह से
मुक्त हो जाता है। होता देह में है, फिर भी देह ही नहीं
होता।
मैं
चाहता हूं कि तुम इस सत्य को ठीक-ठीक अपने अंतस्तल की गहराई में उतार लो। देह का
सम्मान करो, अपमान न करना। देह को गर्हित न कहना; निंदा न करना।
देह तुम्हारा मंदिर है। मंदिर के भीतर देवता भी विराजमान है। मगर मंदिर के बिना
देवता भी अधूरा होगा। देवता के बिना मंदिर भी सूना होगा। दोनों साथ हैं; दोनों समवेत, एक स्वर में आबद्ध, एक लय में लीन। यह अपूर्व आनंद का अवसर है। इस अवसर को तुम खंड सत्यों में
मत तोड़ो।
रंजन, तू पूछती
है: "क्या मनुष्य देह मात्र ही है या कुछ और भी?'
देह
भी है--और कुछ और भी। देह के पार भी है। पदार्थ भी है--और परमात्मा भी। और अंतिम
विश्लेषण में पदार्थ परमात्मा का ही सघन रूप है, व्यक्त रूप है, प्रकट रूप है। और परमात्मा पदार्थ का ही अप्रकट, अदृश्य
रूप है। अगर पदार्थ फूल है, तो परमात्मा सुगंध है। सुगंध ही
घनी होकर फूल बनती है; और फूल ही विरल होकर, अदृश्य होकर सुगंध बनता है।
मैं
तुम्हें न तो भौतिकवादी बनाना चाहता हूं, न अध्यात्मवादी। मैं तुम्हें
सत्यवादी बनाना चाहता हूं। और सत्य दोनों है--एक साथ। वीणा भी सत्य है और वीणा से
उठा संगीत भी सत्य है। हालांकि वीणा को हाथ में ले सकते हो, संगीत
पर मुट्ठी न बांध सकोगे। लेकिन संगीत कम सत्य नहीं है वीणा से। संगीत असत्य होगा,
तो वीणा में क्या खाक सत्य रह जाएगा! वीणा में बचेगा क्या? और अगर वीणा असत्य होगी, तो संगीत जन्मेगा कैसे?
यह
अस्तित्व परमात्मा का अनिवार्य अंग है। और परमात्मा इस अस्तित्व का अनिवार्य प्राण
है। दोनों एक साथ मुझे स्वीकार है। मैं भौतिकवादी हूं--और अध्यात्मवादी हूं। मुझे
चार्वाक उतना ही प्रिय है,
जितने गौतम बुद्ध। मुझे शंकराचार्य उतने ही प्रिय हैं, जितना एपिकुरस। और यहां मैं तुम्हारे संन्यास के माध्यम से एक अपूर्व
समन्वय निर्मित कर रहा हूं, एक सेतु निर्मित कर रहा हूं,
एक इंद्रधनुष बना रहा हूं--जो जोड़ दे इन दोनों परंपराओं को। क्योंकि
इनके दोनों के जोड़ से पूरे मनुष्य का जन्म होगा। अब तक मनुष्य अधूरा-अधूरा रहा है।
जो नास्तिक हुआ, वह देह में आबद्ध हो गया। जो आस्तिक हुआ,
वह देह का दुश्मन हो गया। मैं चाहता हूं, क्यों
न दोनों तुम्हारे हों! यह किनारा भी तुम्हारा, वह किनारा भी
तुम्हारा।
उपनिषद
कहते हैं, नेति-नेति। न यह, न वह। मैं कहता हूं, इति-इति। यह भी, वह भी। मैं तुम्हें सब देना चाहता
हूं जो है। इसमें से कुछ भी छोड़ने योग्य नहीं है। क्योंकि कुछ भी तुम छोड़ोगे,
तो कुछ न कुछ अधूरे रह जाओगे। तुम्हारी पूर्णता में थोड़ी कमी रह
जाएगी। तुम्हारा गीत खंडित होगा; उसमें कुछ कड़ियां खोई
होंगी। तुम्हारी वीणा के कुछ तार टूटे होंगे। तुम लंगड़े; तुम
अपंग। और पूर्णता में आनंद है। पूर्ण होना सच्चिदानंद होना है।
इसलिए
आस्तिक भी मेरा विरोध करेगा, नास्तिक भी मेरा विरोध करेगा। नास्तिक विरोध
करेगा, क्योंकि मैं आत्मा की बात करता हूं। और आस्तिक विरोध
करेगा, क्योंकि मैं तुम्हारी देह को सम्मान देता हूं,
समादर देता हूं। लेकिन ये आस्तिक और नास्तिक दोनों मूढ़ हैं। अगर
आस्तिक मूढ़ न हो और नास्तिक मूढ़ न हो, तो दोनों, जो मैं कह रहा हूं, उसका सत्कार करेंगे। दोनों
आनंदमग्न होकर नाचेंगे, कि पृथ्वी पर पहली बार हम मनुष्य की
समग्रता को स्वीकार करने के योग्य हो सके; हमारी इतनी
पात्रता हुई कि हम पूरे मनुष्य को स्वीकार कर लें। एक अंग को अस्वीकार न करना
पड़े--दूसरे को स्वीकार करने के लिए।
आंशिक
मनुष्य का समय जा चुका। अखंड मनुष्य का समय आ गया है। यह पृथ्वी भी हमारी है, और आकाश
से भरा हुआ अनंत विस्तार, तारों से भरा हुआ अनंत आकाश,
वह भी हमारा है। हम पृथ्वी के फूलों को भी नहीं छोड़ेंगे, और आकाश के तारों को भी नहीं। हम दोनों को ही जोड़ कर अपना घर बनाएंगे।
मेरे संन्यास में पृथ्वी के फूल और आकाश के तारों को जोड़ना है। दोनों का सेतु
बनाना है। मेरा संन्यासी पुराने ढब का संन्यासी नहीं है, न
पुराने ढब का संसारी है। मेरा संन्यासी एक अनूठा प्रयोग है, अति
नूतन प्रयोग है, एक क्रांतिकारी प्रयोग है। क्योंकि जो भी
श्रेष्ठ है--चाहे वह नास्तिक में हो, चाहे आस्तिक में--उस
श्रेष्ठ को हम स्वीकार कर रहे हैं। और जो निकृष्ट है, उसको
भी हम सीढ़ी बनाएंगे; उसे भी हम अस्वीकार नहीं करेंगे।
अस्वीकार करना मेरी दृष्टि नहीं है। समग्र स्वीकार मेरा दर्शन है।
ब
ब
*तीसरा प्रश्न: भगवान! मैं संन्यास लेने के लिए आतुर हूं, लेकिन फिर भी वर्ष भर से झिझक रहा हूं। यह भी शंका मन में है कि संन्यास
लेने से भी क्या होगा?
कृष्णराज!
यह शंका स्वाभाविक है। यह शंका बुद्धिमानी का लक्षण है--कि संन्यास लेने से क्या
होगा?
लेकिन
बिना लिए कैसे जानोगे?
बीज टूटेगा तो क्या होगा, यह बीज बिना टूटे
कैसे जाने? ओस की बूंद सागर में ढलकेगी तो क्या होगा,
यह ओस की बूंद सागर में ढलके बिना कैसे जाने?
विचार
तो ठीक है--कि क्या होगा संन्यास लेने से? मगर बिना संन्यस्त हुए कैसे जानोगे?
किसी ने जाना है कभी कुछ बिना अनुभव के? प्रेम
करके प्रेम जाना जाता है। कंठ प्यासा हो--जल पीओगे तो तृप्ति जानोगे। और भूख लगी
हो--भोजन करोगे तो ही स्वाद का अनुभव होगा; और परितोष का,
जो भूख के बाद भोजन के मिलने पर ही संभव है।
अगर
बैठ कर सोचते ही रहे कि प्यास तो लगी है, लेकिन पानी पीने से क्या होगा?
कहां प्यास और कहां पानी! दोनों में कुछ तालमेल भी तो नहीं दिखाई
पड़ता। पानी कोई प्यास तो नहीं है! प्यास कोई पानी तो नहीं है! ऐसा गणित अगर बिठालते
रहे, तो गणित बिठालते-बिठालते ही मर जाओगे। और जलधार बहती थी;
जरा अंजुलि भरने की बात थी। जरा झुकने की बात थी।
छोटा
बच्चा जब पैदा होता है,
उसे भूख लगती है, तो वह यह नहीं सोचता कि मां
का स्तन मुंह में लेने से क्या होगा। कृष्णराज, तुमने भी
नहीं सोचा होगा कि मां का स्तन मुंह में लेने से क्या होगा। मुझे लगी भूख, स्तन लेने से क्या फायदा!
नहीं, एक
अनिवार्य अंतर्बोध बच्चे को बिना किसी पूर्व-अनुभव के मां का स्तन मुंह में लेने
को मजबूर कर देता है। उसके हाथ टटोल लेते हैं मां के स्तन को। कभी पहले स्तन मुंह
में नहीं लिया, और अचानक स्तन से दूध पीना शुरू कर देता है!
जैसे जानता ही है।
ऐसे
ही तो तुम पानी पीते हो। ऐसे ही तुम भोजन करते हो। ऐसा ही संन्यास है। यह आत्मा का
भोजन है। बिना अनुभव के न जानोगे। तुम्हारे प्राण तो कह रहे हैं कि ले लो; लो छलांग;
करो साहस। तुम्हारी बुद्धि झिझक रही है। बुद्धि के झिझकने के पीछे
एक महत कारण है। बुद्धि संन्यास से डरती है, क्योंकि संन्यास
दीवानापन है। संन्यास तो ऐसा है, जैसे शमा की ओर दौड़ता हुआ
परवाना। संन्यास तो ऐसा है, जैसे प्रेम। एक पागलपन है
संन्यास! एक मदहोशी है। जैसे कोई शराब पी ले। संन्यास एक शराब है।
उमर
खय्याम ने जिस शराब की बात की है, वह संन्यास ही है। उमर खय्याम कोई शराबी नहीं
है। उमर खय्याम एक सूफी फकीर है। उमर खय्याम के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। फिटजराल्ड
ने अंग्रेजी में उमर खय्याम का अनुवाद करके बड़ी कृपा भी की दुनिया पर, और बड़ी हानि भी की।
कृपा
की, क्योंकि बिना फिटजराल्ड के अनुवाद के उमर खय्याम को शायद कोई कभी जानता ही
न। उसकी रुबाइयात अपरिचित ही रह जाती। फिटजराल्ड ने उसकी रुबाइयात को
विश्व-साहित्य बना दिया। उसके द्वारा ही उमर खय्याम का नाम दूर-दूर तक फैला,
दिग-दिगंत तक फैला। उमर खय्याम की गणना कालीदास, भवभूति, शेक्सपियर, बायरन,
शैली, रवींद्रनाथ--उस कोटि में हो गई। और कुछ
है उमर खय्याम में, जो इनमें से किसी में भी नहीं। कुछ रस है,
कुछ जीवंतता है।
लेकिन
एक नुकसान भी हुआ। फिटजराल्ड ने...चूंकि फिटजराल्ड कोई सूफी नहीं है, कोई
रहस्यवादी संत नहीं है। कोई संन्यासी नहीं है, कोई ध्यानी
नहीं है, कोई भक्त नहीं है। न कभी पूजा की, न प्रार्थना, न अर्चना। पैरों में घुंघरू बांध कर
किसी मंदिर में नाचा नहीं। किसी मस्जिद में जाकर प्रभु को पुकारा नहीं। उसने तो
शाब्दिक अर्थ लिया--शराब यानी शराब। उसने उमर खय्याम को एक बड़ा गलत अर्थ दे दिया।
लोग समझने लगे उमर खय्याम शराबी है।
तुम
जान कर हैरान होओगे,
उमर खय्याम ने जीवन में कभी शराब छुई भी नहीं। फिर किस शराब की बात
कर रहा है उमर खय्याम? उसी शराब की, जिसे
मैं संन्यास कहता हूं। दे रहा है पुकार--कि पी लो! कि दिन बीते जाते हैं--पी लो!
कि सुबह हो गई और सांझ होने में देर न लगेगी। यह देखो, सूरज
ने जाल फेंक दिया सुबह का। अब बस सांझ होने में देर न लगेगी। जन्म हो गया, तो मृत्यु होने में देर कितनी लगेगी!
कृष्णराज, मरते वक्त
सोचोगे कि मरने से क्या होगा? मरते वक्त कोई पूछेगा ही नहीं
तुमसे कि मरने से कुछ होगा या नहीं। मौत आ जाती है जबरदस्ती।
संन्यास
स्वेच्छा से वरण की गई मौत है। और जो स्वेच्छा से मृत्यु को वरण कर लेता है, उसकी
मृत्यु फिर कभी नहीं आती। जो खुद ही मर गया, अब उसे मारेगी
कौन मौत! संन्यासी को छोड़ कर सभी मरते हैं।
जरा
समझ लेना मेरी बात को! ऐसे तो संन्यासी भी मरता है। एक दिन देह तो गिर जाती है। एक
दिन अरथी तो उठती है। लेकिन बस देह ही मरती है; भीतर तो संन्यासी जागता ही रहता
है। मृत्यु में भी जागता रहता है। मृत्यु में भी देखता रहता है--कि देह जा रही। और
मैं? मैं शाश्वत हूं। मैं सदा हूं। उस नित्यता का बोध बना ही
रहता है। उस अमृत की प्रतीति होती ही रहती है।
तुम
पूछते हो: "संन्यास लेने से क्या होगा?'
मृत्यु
होगी। ऐसी मृत्यु,
जो तुम्हें सारी मृत्युओं से छुटकारा दिला देगी। लेकिन यह होगा लेने
से ही।
और
मौत आती होगी कृष्णराज! चल ही पड़ी है उसी दिन, जिस दिन तुम पैदा हुए। तुम्हारा
वारंट लेकर चल ही रही है। और वारंट भी ऐसा है, जिसकी जमानत
नहीं होती। मौत आई--कि आई। एक क्षण ठहरती भी नहीं कि तुम कहो कि जरा मैं अपना
बोरिया-बिस्तरा बांध लूं! कि पथ के लिए कुछ पाथेय सजा लूं! कि थोड़ा कलेवा रख लूं!
कि जरा ठहर कि दो क्षण अपनों से मिल लूं! विदा ले लूं! कम से कम अलविदा कह दूं!
अलविदा कहने का भी क्षण नहीं आता।
गमन
के क्षण
अब
रुको मत ओ अप्रस्तुत मन!
चल
दो
राह
में लगी है आग
चलना
है खेल नहीं
पर
क्या सकोगे भाग
कर्म
से बचोगे कहीं?
बच्चों
की भांति यों मचलो मत भीरु मन!
चल
दो
कि
आ पहुंचा है चलने का क्षण!
चल
दो--
क्षुद्र
इस जी की यह कमजोरी कुचल दो!
दौड़ती
इस धड़कन से पैरों में बल दो!
रुको
मत, चल दो!
प्रात
उठ देखा था:
हवा
के झकझोरे से
पेड़
के पत्ते टूट
बिखर
गए आंगन में
शाम
तक पीले भी पड़ गए!
तुम
भी अब चल पड़ो
झाड़
कर सुख के क्षण
हवा
रुकती नहीं, रुकोगे भला क्यों तुम?
तुम
से ही खिलेंगे दूर एक दिन नये कुसुम
द्रुम
से यह मोह क्यों अबूझ मन!
चल
दो--
चल
दो कि आ पहुंचा है चलने का क्षण!
मौत
आएगी, चलना पड़ेगा। न सोच सकोगे, न विचार कर सकोगे, न निर्णय ले सकोगे।
और
तुम कह रहे हो कि "मैं संन्यास लेने के लिए आतुर हूं।'
कैसी
यह आतुरता?
"लेकिन फिर भी वर्ष भर से झिझक रहा हूं।'
आतुरता
और झिझक? आतुरता में कुछ कमी होगी। आतुरता हार्दिक न होगी, बौद्धिक
होगी। बुद्धि झिझकती है, हृदय झिझकना जानता ही नहीं। हृदय तो
चल देता है--अनजानी, अपरिचित राहों पर। नक्शा भी साथ नहीं,
मार्गदर्शक भी साथ नहीं--तो भी हृदय चल देता है।
और
फिर एक दिन तो मौत में जाना ही पड़ेगा। वहां मैं भी साथ नहीं। वहां संन्यासी भी साथ
नहीं। वहां बिलकुल अकेले होओगे। उसके पहले थोड़ी देर साथ-साथ चलने का मजा ले लो।
उसके पहले थोड़ी देर मरने की प्रक्रिया सीख लो, मरने की कीमिया सीख लो।
झिझको
मत। झिझकना कमजोरी है,
कायरता है।
और
पूछते हो: "संन्यास लेने से क्या होगा?'
अभी
तक कुछ भी तो नहीं हुआ तुम्हारे जीवन में, फिर भी जीए! यही जीवन दोहराते
रहोगे आगे भी? अब तक जिस जीवन से कुछ भी नहीं हुआ, इसी को आगे भी दोहराए जाना है? तो क्या तुम सोचते हो
कुछ होगा? यह कोल्हू के बैल जैसा जीवन!
अब
तक तुमने जो कुछ किया है,
उससे अन्यथा कुछ करो। संन्यास वही है। संसार करके देख लिया है;
अब जरा अन्यथा भी करके देखो। होशपूर्वक, चालाकी
से, सोच-विचार से, बुद्धि से, तर्क से भी चल कर देख लिया है; अब जरा प्रेम से भी
चल कर देखो, भक्ति से भी चल कर देखो। डगमगा कर भी देखो,
कि पैर रखो यहां और पड़ें वहां। आंखों में अब जरा खुमार लेकर भी
देखो। पीकर भी देखो।
यह
तो मधुशाला है। सामने जाम भरा रखा है। मैं सुराही लिए बैठा हूं--कि और उंडेलूं।
तुम पीओ तो और उंडेलूं। और तुम बैठे-बैठे सोच रहे हो कि पीने से क्या होगा? और प्यास
से तड़पे भी जा रहे हो, और पूछते हो पीने से क्या होगा?
शांत
हो जा मन! कि जीना है अभी--
अभी
जीवन में अनागत हैं न जाने और कितने ज्वार
जाने
और कितने अभावित,
अति अकल्पित संघर्ष
कितनी
व्यथा, कितना हर्ष!
छूट
जाएं साथ के संगी पुराने--
अरे!
धुंधली भले ही पड़ जाए
तेरे
इन रुआंसे लोचनों में
यह
कंटीली राह,
और
इतना ही नहीं,
अचरज
नहीं जो कुछ क्षणों को
हृदय
का अति यत्न से संचित,
सधा उत्साह
भी
सो जाए
हो
जाए विवश, बेकार
किंतु
मन मेरे! न भूल
अभी
पथ का नहीं आया कूल
अभी
यात्रा का नहीं है अंत
इस
विषम संघर्ष में तू अभी भी हारा नहीं है!
व्यर्थ
शंकाएं न कर
व्यर्थ
की दुष्कल्पनाओं से न हो कातर
शांत
हो जा,
अभी
जीवन में बहुत कुछ है अनागत
बहुत
बाकी है!
तुम
पूछते हो: "संन्यास लेने से क्या होगा?'
अभी
जीवन में बहुत कुछ है अनागत
बहुत
बाकी है!
अभी
पथ का नहीं आया कूल
अभी
यात्रा का नहीं है अंत
इस
विषम संघर्ष में तू अभी भी हारा नहीं है!
अभी
जी रहे हो। अभी श्वास चल रही है। हृदय में धड़कन है। अभी लहू दौड़ रहा है। कितने ही
दिन चले गए हों व्यर्थ,
अभी बहुत कुछ बाकी है। अभी अनागत है; अभी
भविष्य शेष है। इस भविष्य को नये ढंग से जी लो कृष्णराज! पुरानी लीक ही पीटते
रहोगे?
जैसे
सोचते हो--संन्यास लेने से क्या होगा? ऐसे अब यह सोचो कि संन्यास न लेने
से क्या होगा? अब तक संन्यासी नहीं रहे थे। अब तक क्या हो
गया है? एक बात तो पक्की है कि कम से कम संन्यास एक नया
प्रयोग होगा। कुछ हो या न हो। नई राह तोड़ी जाएगी। कौन जाने, पुरानी
राह से जो नहीं हुआ, नई राह से हो जाए! इतनी जिज्ञासा से भी
चलो। कौन जाने, पुराना पथ तो परिचित है; उसी-उसी पर चक्कर काटते रहोगे? और सोचते नहीं एक भी
बार कि इतने चक्कर काट कर कुछ न हुआ, तो अब क्या होगा!
धन
इकट्ठा किया। करते रहोगे धन ही इकट्ठा? प्रतिष्ठा, पद--दौड़ते
रहोगे उन्हीं के पीछे? हजार बार सिद्ध हो गया है कि सब
मृग-मरीचिका है। लेकिन फिर नई मृग-मरीचिकाएं बना लोगे? नये
सपने संजो लोगे? फिर चल पड़ोगे वही चाल, वही बेढंगी चाल?
संन्यास
कम से कम नया तो है,
अभिनव तो है। कौन जाने कुछ हो ही जाए!
एक
बात खयाल रखो,
जब भी पुराने और नये में चुनना हो, तो नये को
चुनना, क्योंकि पुराने से तो परिचित हो ही। अगर नये से कुछ
भी न होगा, तो भी इतना तो होगा कि चलो, इस राह पर भी मिलता नहीं। अब कोई तीसरी राह खोजें। यह भी क्या कम है! सत्य
के थोड़े करीब आए। दो राहों से देख लिया, नहीं पाया; अब तीसरी राह खोजें। तीन राह से खोज लिया, नहीं पाया;
अब चौथी राह खोजें। ऐसे धीरे-धीरे राहें कटती जाएंगी। एक न एक राह
पर तो होगा। क्योंकि भीतर अपेक्षा है, आकांक्षा है, अभीप्सा है--तो कहीं न कहीं जरूर होगा।
भोजन
के पहले भूख नहीं बनाई जाती; भूख के पहले भोजन बना दिया जाता है। जल के पहले
प्यास नहीं; प्यास के पहले जल निर्मित हो जाता है। बच्चा
पैदा होता है, उसके पहले मां के स्तन दूध से भर जाते हैं। यह
जीवन अराजकता नहीं है। यहां एक सुसंबद्ध सूत्र चल रहा है। जीवन एक परम व्यवस्था
है।
बुद्ध
ने संन्यास से जाना,
महावीर ने जाना, कृष्ण ने जाना, जनक ने जाना। इन सब के संन्यासों के अपने-अपने ढंग थे। लेकिन सब ने
संन्यास से जाना। संन्यास का अर्थ क्या है? संन्यास का इतना
ही अर्थ है: बाहर से अपने जीवन को ऐसा बना लेना कि भीतर ध्यान घटित हो सके। बाहर
जीवन में ऐसी परिस्थिति खड़ी कर लेनी, ताकि भीतर मनःस्थिति
बदल सके। संन्यास ध्यान का बाहरी रूप है; ध्यान संन्यास का
अंतरंग। संन्यास देह है; ध्यान आत्मा।
ब
ब
*चौथा प्रश्न: भगवान! मैं भी रूपांतरित होना चाहती हूं। स्वप्नों में बहुत
जीवन गंवाया। लेकिन अब मुझे बचाओ। मेरे लिए क्या आदेश है?
लीला!
पहली बात, मैं आदेश नहीं देता। क्योंकि मैं तुम्हारा मालिक नहीं हूं, तुम मेरे गुलाम नहीं हो। आदेश शब्द तो भद्दा है। आदेश तो सैनिकों को दिए
जाते हैं, संन्यासियों को नहीं।
आदेश
और उपदेश का भेद समझ लो। आदेश का अर्थ होता है: ऐसा करना ही होगा।
मैं
उपदेश देता हूं। उपदेश का अर्थ होता है: सुन लो, समझ लो; फिर करना या न करना, वह तुम्हारे निर्णय की बात है।
करोगे, तो भी मैं खुश हूं। नहीं करोगे, तो भी मैं खुश हूं।
आदेश
का अर्थ होता है: करोगे,
तो मैं खुश; नहीं करोगे, तो मैं नाराज। आदेश का अर्थ होता है: मान कर चलोगे, तो
स्वर्ग; नहीं मान कर चलोगे, तो नर्क।
आदेश में पुरस्कार और दंड छिपे होते हैं।
उपदेश
में न कोई पुरस्कार है,
न कोई दंड। उपदेश में न कोई स्वर्ग है, न कोई
नर्क। उपदेश का अर्थ होता है: मैंने कुछ जाना है, मैं
तुम्हें उस जानने में साझीदार बनाता हूं; आज्ञा नहीं देता।
आज्ञा तो दी ही नहीं जा सकती। क्योंकि मैं मैं हूं, तुम तुम
हो। जो मुझे सही था, ठीक वैसा ही तुम्हें सही नहीं होगा।
मेरे कपड़े तुम्हें नहीं आएंगे; तुम्हारे कपड़े मुझे नहीं
आएंगे।
यूनान
में एक पुरानी कहानी है। एक सम्राट था; झक्की था। उसने एक सोने का पलंग
बनवाया था। हीरे-जवाहरात जड़वाए थे। वह खासकर मेहमानों के लिए बनवाया था। लेकिन
उसके घर मेहमान वर्षों तक नहीं आते थे। डरते थे। क्योंकि खबर फैल गई थी कि उस पलंग
पर सोना पड़ेगा। आखिर उस पलंग पर सोने में ऐसी क्या अड़चन थी? लेकिन
कभी कोई भूला-चूका मेहमान फंस जाता, जिसको पलंग का पता नहीं
था। फंसा कि मुश्किल में पड़ा। उस पलंग पर सोना पड़ता।
पलंग
तो बड़ा सुंदर था। पलंग तो बड़ा ही सुविधापूर्ण था। ऐसा सुंदर पलंग पृथ्वी पर दूसरा
नहीं था। मगर खतरा एक था--सम्राट के साथ, पलंग के साथ नहीं। अगर मेहमान लंबा
होता, तो वह उसके पैर कटवा देता; पलंग
के बराबर करवा देता! अगर मेहमान छोटा होता, तो उसने दो बड़े
पहलवान रख छोड़े थे, जो उसको दोनों तरफ से खींचते और उसको
पलंग के बराबर करते। और ऐसा तो बहुत मुश्किल ही था कि कोई आदमी ठीक-ठीक पलंग की
साइज का मिल जाए! हालांकि उसने पलंग औसत बनवाया था। लेकिन औसत के साथ एक खतरा है।
औसत आदमी कहीं होते ही नहीं। औसत का सिद्धांत गणित में ठीक है, जिंदगी में बिलकुल गलत है।
जैसे
समझो, हम यहां बैठे हुए हैं, पांच सौ लोग बैठे हुए हैं।
इनकी औसत ऊंचाई क्या है? इन सबकी ऊंचाई नाप लो। इसमें कोई दो
फीट का बच्चा है। कोई पांच फीट का जवान है। कोई छह फीट लंबा है। कोई डच साढ़े छह
फीट होगा। सात फीट का भी आदमी मिल जाएगा। इन सबकी ऊंचाई जोड़ लो, फिर उसमें पांच सौ का भाग दे दो। फिर जो ऊंचाई आएगी वह औसत! हो सकता है
तीन फीट साढ़े तीन इंच!
ऐसे
उसने अपनी राजधानी की ऊंचाई, औसत ऊंचाई निकलवा ली थी और उस आधार पर पलंग
बनवाया था।
अब
औसत ऊंचाई का आदमी मिलना मुश्किल है। यहां पांच सौ आदमियों में शायद ही कोई हो जो
तीन फीट साढ़े तीन इंच हो! शायद, संयोगवशात! औसत आदमी कहीं नहीं होता।
पश्चिम
का बहुत बड़ा गणितज्ञ हुआ। उस गणितज्ञ ने ही सबसे पहले औसत ऊंचाई का सिद्धांत
निकाला था। हैरेडोटस उसका नाम था। और जब कोई किसी सिद्धांत को खोजता है, तो उसके
आनंद का पारावार नहीं होता। जैसे छोटे बच्चे जब पहली दफा कोई शब्द बोलते हैं,
तो दिन भर उसी-उसी को दोहराते हैं। अगर उनको मम्मी शब्द कहना आ गया
तो वे दिन भर मम्मी-मम्मी कारण-अकारण मम्मी लगाए रखते हैं। उनको इतना मजा आता है
कहने में! इस बात की संभावना कि मैं भी बोल सकता हूं! ऐसे ही जब किसी वैज्ञानिक को
कोई पहला सिद्धांत मिल जाता है, तो दीवाना हो जाता है। वह
पहला मनुष्य है जिसने खोजा!
हैरेडोटस
अपने बच्चों को लेकर रविवार के दिन पिकनिक को गया है। एक छोटी सी नदी को पार करना
पड़ता है। पांच-छह बच्चे हैं, पत्नी है। पत्नी पीछे है, बच्चे बीच में हैं, हैरेडोटस आगे है। पत्नी ने बहुत
कहा कि बच्चों को सम्हाल लो, नदी की धार तेज है! हैरेडोटस ने
कहा, तू घबड़ा मत। मैंने नदी की औसत गहराई और बच्चों की औसत
ऊंचाई नाप ली है। अपने बच्चों की औसत ऊंचाई नदी की औसत गहराई से बड़ी है। बेफिक्र
रह। कोई डूब नहीं सकता। मेरा सिद्धांत अखंड है।
लेकिन
बच्चे डुबकी खाने लगे। क्योंकि औसत ऊंचाई एक बात है। नदी कहीं एक फीट गहरी थी और
कहीं तीन फीट गहरी थी। कहीं छह इंच गहरी थी और कहीं पांच फीट गहरी थी। और कहीं
बिलकुल छिछली थी। कोई बच्चा बड़ा था, कोई छोटा था। औसत ऊंचाई तो औसत
गहराई से ज्यादा थी, मगर औसत सत्य नहीं होता! बच्चे डुबकी
खाने लगे। पत्नी चिल्लाई कि बच्चे डुबकी खा रहे हैं!
लेकिन
तुम्हें पता है,
वैज्ञानिक ने क्या किया? वैज्ञानिक ने बच्चों
की फिक्र नहीं की। भागा नदी के उस तट पर, जहां उसने रेत में
हिसाब लगाया था औसत का। कहा कि देखूं, कोई गलती सिद्धांत में
हो गई क्या? या मेरे हिसाब में कोई भूल हो गई? बच्चे डुबकी खा रहे हैं; वह अपना सिद्धांत और हिसाब
बिठा रहा है!
ऐसे
ही सम्राट ने औसत ऊंचाई नाप कर लोगों की, पलंग की औसत लंबाई तय की थी। बड़ी
मुश्किल में पड़ जाता था जो मेहमान आ जाता। मर ही जाता। न मालूम कितने मेहमान मर
गए। मगर उसको समझ न आई, सो न आई। वह अपनी जिद्द पर अड़ा रहा।
अब
पलंगों के साथ अगर मेहमानों की ऊंचाई बढ़ानी पड़ेगी, तो मेहमान मरेंगे।
आदेश
का वही अर्थ होता है कि जो मैं कहता हूं, वह करना। हो सकता है, जो मैं कहता हूं वह मेरे लिए सत्य रहा हो। लेकिन मेरे जैसा दूसरा आदमी
नहीं है कहीं--ठीक मेरे जैसा। इसलिए जो मेरे लिए सत्य है, वह
ठीक तुम्हारे लिए सत्य नहीं होगा--बिलकुल वैसा का वैसा सत्य नहीं होगा। और आदमी की
यही दुर्घटना हुई आदमी के साथ, दुर्भाग्य हुआ।
सदियों-सदियों
से तुम्हें आदेश दिए गए। और जिन्होंने आदेश दिए, उन्होंने सोचा, जब हमारे जीवन में इस सिद्धांत से इतना आनंद हुआ है, तो औरों के जीवन में भी खूब आनंद होगा।
हुआ
नहीं। उलटी ही हालत हुई। सारी पृथ्वी दुख से भर गई है। यह तुम्हारे साधु-संतों के
आदेशों के कारण। यह तुम्हारे तथाकथित ज्ञानियों के आदेशों के कारण। इनके लिए
सिद्धांत मूल्यवान हैं,
तुम मूल्यवान नहीं हो। ये सिद्धांत के हिसाब से तुम्हारी काट-छांट
कर देते हैं। ये सिद्धांत की काट-छांट नहीं करते। ये सिद्धांत में बदल नहीं लाते।
ये किताब को नहीं बदलते। ये तुम्हें बदलते हैं।
मेरी
पकड़ और है। मेरी दृष्टि और है। कोई सिद्धांत किसी मनुष्य से ज्यादा मूल्यवान नहीं
है। कोई शास्त्र मनुष्य से ज्यादा कीमत का नहीं है। शास्त्रों के लिए मनुष्य नहीं
बने हैं, मनुष्यों के लिए शास्त्र बने हैं। इसलिए मैं आदेश नहीं देता; उपदेश जरूर देता हूं।
उपदेश
का अर्थ है: जो मैंने जाना,
निवेदन करता हूं। इसमें तुम छांटना, खोजना;
जो तुम्हें रुच जाए, जो तुम्हें प्रीतिकर लगे,
वह चुन लेना। जो तुम्हें उल्लास दे, उमंग दे,
उत्साह दे, वह चुन लेना। वह तुम्हीं चुन सकते
हो। उसका आदेश मैं नहीं दे सकता।
महात्मा
गांधी के आश्रम में और न मालूम कितने तरह की व्यर्थ बातें चलती थीं, उनमें एक
व्यर्थ बात थी नीम की चटनी! सैद्धांतिक बात है वैसे। अगर तुम आयुर्वेद के ज्ञाताओं
से पूछो, तो वे कहेंगे, नीम से ज्यादा
औषधि! नीम से ज्यादा सुंदर रसायन! सब दोषों से मुक्त--नीम है।
तुमने
कहानी सुनी ही है कि तीन पंडित काशी से घर की तरफ चले सारी शिक्षाएं लेकर। रास्ते
में रुके। भूख लगी। भोजन बनाना था। तो कौन क्या काम ले! उनमें एक था जो
वनस्पति-शास्त्री था। लोगों ने कहा, वनस्पति-शास्त्री पास हो, तो इसी को भेजो सब्जी लेने। क्योंकि इससे ज्यादा ठीक सब्जी और कौन लाएगा!
वनस्पति-शास्त्री
सब्जी लेने गया। उसने सारे शास्त्र खयाल में लाए कि श्रेष्ठतम वनस्पति क्या है? अंततः
उसने यही निर्णय लिया--नीम की पत्ती! क्योंकि नीम की पत्तियों से हानि होती ही
नहीं। लाभ ही लाभ है। खून की शुद्धि होती है। बीमारियों का रेचन होता है। नीम में
कोई दोष है ही नहीं। अड़चन है तो एक कि नीम कड़वी है। मगर कड़वी होने से क्या होता
है! जहां इतने सुंदर लक्षण और गुण हों, वहां थोड़ी सी कड़वाहट
के पीछे...! अगर अमृत कड़वा भी हो, तो छोड़ दोगे क्या? और जहर अगर मीठा भी हो, तो पी लोगे क्या?
वह
बाजार गया ही नहीं। उसने जंगल में ही नीम के झाड़ पर चढ़ कर नीम की पत्तियां तोड़ीं
और बड़ा प्रसन्न लौटा कि अपना वनस्पति-शास्त्र का ज्ञान आज काम आया।
दूसरा
उनमें था व्याकरणाचार्य,
ध्वनि-शास्त्र का ज्ञाता। उसने ध्वनि पर बड़ा अध्ययन किया था। तो कहा
कि यह क्या करेगा? इसके लिए क्या काम दें? उन्होंने कहा, इसे काम दें कि जब तक सब्जी आए,
घी आए--आटा तो उनके पास था, चावल उनके पास
था--तब तक यह चूल्हा जलाए। क्योंकि लकड़ियां आवाज करेंगी--चरमरर चूमरर; फिर जलेंगी, तो चिटकने की आवाज आएगी। और यह
ध्वनि-शास्त्र का ज्ञाता है, तो यह इस तरह चूल्हा जलाएगा,
जैसा चूल्हा कभी नहीं जलाया गया। और उसमें से मधुर संगीत पैदा होगा!
और मधुर संगीत जिस चूल्हे में पैदा होता हो, उसमें सब्जी पके,
कहना क्या! वनस्पति-शास्त्री, काशी का सबसे
बड़ा वनस्पति-शास्त्री सब्जी लाए; और काशी का सबसे बड़ा
ध्वनि-शास्त्री चूल्हा जलाए--इससे और सुंदर संयोग क्या हो सकता है!
और
तीसरा था दार्शनिक। उससे कहा कि तुम बाजार जाओ। क्योंकि तुम्हारी किताबों में
हमेशा यह आता है...तर्क की किताबों में, पुरानी किताबों में यह सिद्धांत
आता है कि जब हम घी को पात्र में रखते हैं, तो पात्र घी को
सम्हालता कि घी पात्र को सम्हालता? तो तुम घी खरीद लाओ।
क्योंकि तुम्हें तो अब तक पक्का हो ही गया होगा कि कौन किसको सम्हालता है! तुम
महापंडित हो, महा-महा उपाध्याय! तुम जाओ!
वह
चला। उसने घी खरीदा। शास्त्र में तो बहुत बार पढ़ा था, लेकिन घी
कभी खरीदने गया नहीं था। शास्त्र में तो पढ़ा था, किताब में
तो लिखा था कि पात्र ही घी को सम्हालता है। लेकिन उसने कहा कि प्रयोग तो करके
देखना चाहिए--यह सच भी है या झूठ? इसके लिए कोई प्रायोगिक
आधार भी है या नहीं?
पात्र
में घी लेकर चला। रास्ते में उसको बहुत जिज्ञासा जगी। दार्शनिक तो था ही। उसने
पात्र उलट कर देखा। सारा घी गिर गया। उसने कहा कि शास्त्र ठीक कहते हैं। शास्त्र
हमेशा ठीक कहते हैं। अब यह सिद्ध हो गया कि पात्र ही घी को सम्हालता है; घी पात्र
को नहीं सम्हालता।
वह
बड़ा प्रसन्न लौटा;
हालांकि घी वगैरह कुछ लाया नहीं। और पास के पैसे थे, वे भी गए! खाली पात्र लिए चला आया! लोगों ने पूछा, इतने
प्रसन्न क्यों हो? पात्र खाली! उसने कहा, तुम्हें पता नहीं कि सिद्धांत सही सिद्ध हुआ। यह इतनी बड़ी उपलब्धि है!
शायद किसी दार्शनिक ने कभी प्रयोग करके देखा ही न हो; किताब
में ही लिखा हो। मैं शायद पहला आदमी हूं जिसने प्रयोग किया। पात्र ही सम्हालता
है--मैं तुमसे कहता हूं--घी नहीं सम्हालता पात्र को।
उन
दोनों ने सिर ठोंक लिया। मगर उनकी भी हालत ठीक नहीं थी।
दार्शनिक
ने पूछा, और सब्जी कहां है? नीम की पत्तियों का ढेर लगा था।
दार्शनिक ने कहा, यह सब्जी! वनस्पति-शास्त्री ने कहा,
हमारे शास्त्र में नीम से ज्यादा और सुंदर कोई औषधि नहीं है। और सभी
सब्जियों में रोग होता है। किसी सब्जी से बादी बढ़ती है। किसी सब्जी से पित्त खराब
होता है। किसी सब्जी से ऐसा, किसी सब्जी से वैसा। लेकिन नीम
कीटाणु-नाशक है। नीम के लेने से लाभ ही लाभ है।
लेकिन
चूल्हा भी जला नहीं था। सब्जी आई नहीं। घी आया नहीं। चूल्हा जला नहीं। उलटे, जो हंडी
पास में थी, वह फूटी पड़ी थी! आग बुझी थी। और ध्वनि-शास्त्री
बड़ा आनंदमग्न बैठा था। उससे पूछा कि हुआ क्या?
उसने
कहा, हुआ यह कि शास्त्र में कहा है कि कभी भी अपशब्द को पैदा न होने दें।
अपशब्द का विरोध है। और जब मैंने यह पानी चढ़ाया और आग जलाई, तो
हंडी खुदुर-बुदुर, खुदुर-बुदुर करने लगी। खुदुर-बुदुर ध्वनि
है ही नहीं। किसी शास्त्र में इस ध्वनि का उल्लेख नहीं--खुदुर-बुदुर। इसका मतलब
क्या? अर्थहीन! अपशब्द! मुझसे न रहा गया। मैंने उठाया लट्ठ।
क्योंकि किसी भी चीज को मिटाना हो तो जड़ से ही मिटा देना चाहिए। मारा लट्ठ;
खुदुर-बुदुर खतम कर दिया। खतम करके मस्त बैठा हूं। आज जीवन में एक
सुकृत्य हुआ--अपशब्द न फैलने दिया दुनिया में। क्योंकि ध्वनि में बड़ी शक्ति होती
है। खुदुर-बुदुर फैलता जाए, फैलता जाए, फैलता जाए--सारा आकाश खुदुर-बुदुर हो जाए। इस तरह की तरंगें मनुष्य के लिए
घातक हैं। इससे महायुद्ध तक हो सकता है! महायुद्ध और क्या है सिवाय खुदुर-बुदुर!
मैंने इसको नष्ट कर दिया।
ऐसे
वे तीन पंडित! महात्मा गांधी उनसे कुछ पीछे नहीं। उनके आश्रम में नीम की चटनी बनती
थी। आश्रमवासियों को तो लेनी ही पड़ती थी, आदेश था।
लुई
फिशर, अमरीका का एक पत्रकार महात्मा गांधी को मिलने आया--बड़ा लेखक, विचारक। महात्मा गांधी ने उसे अपने साथ ही भोजन पर बिठाया। और आई चटनी!
छोटी-मोटी नहीं आती थी। जैसा कि तुमने देखा हो कि भंग खाने वाले भंग का गोला चढ़ाते
हैं, ऐसे भंग के गोले की तरह चटनी आती थी। हरी चटनी! और
गांधी ने इतनी प्रशंसा की लुई फिशर से कि इस चटनी के लाभ ही लाभ हैं। इसके गुणों
का खूब गुणगान किया। उसने सोचा, पहले इसी को चखूं। चखी,
मुंह में जहर ही जहर फैल गया! उसने कहा, मारे
गए! अगर यह चटनी खानी है--और सात दिन मुझे रहना है इस आश्रम में! चौदह बार अगर यह
चटनी खानी पड़ी, तो मेरी पत्नी का सौभाग्य अब परमात्मा के हाथ
में है। और सारे आश्रमवासियों को देखा, वे तो मजे से खा रहे
हैं चटनी! वे तो अभ्यासी हो गए थे। उसने सोचा कि एक ही रास्ता ठीक है कि पहले इस
गोले को पूरा गटक जाऊं पानी के साथ। कम से कम पूरा भोजन तो खराब होने से बचेगा।
नहीं तो रोटी बार-बार इसमें लगाओ। सब्जी में मिलाओ। तो सभी खराब हो जाएगा। तो वह
पूरा गोला गटक गया। महात्मा गांधी ने कहा कि देखो मैंने कहा था न कि लुई फिशर
समझदार आदमी है, सबसे पहले उसने चटनी ली। और लाओ चटनी! यह
आदमी समझदार है और यह जानता है राज कि नीम के क्या गुण हैं!
लुई
फिशर ने तो अपने माथे से हाथ मार लिया। उसने तो किसी तरह गटका था गोला, कि इससे
झंझट मिटे। एक दफा गले से नीचे उतर गया, फिर जो होगा होगा।
दूसरा गोला आ गया। सात दिन उसकी जो सबसे ज्यादा मुसीबत थी, वह
चटनी थी। मगर गांधी का आदेश तो मानना पड़े!
चाय
नहीं पी सकते थे लोग--गांधी का आदेश! जितने वक्त गांधी कहें सोओ, उतने वक्त
सोना पड़े--नींद चाहे आए, चाहे न आए। जितने वक्त कहें उठो,
उतने वक्त उठना पड़े।
अब
हर आदमी की नींद अलग-अलग होती है। कुछ रात के पक्षी होते हैं, उनको दिन
भर उतनी ताजगी नहीं होती। उनकी ताजगी आती ही सूरज के डूबने के बाद है! इसी तरह के
लोग होटलों में, क्लबघरों में दिखाई पड़ेंगे। दिन भर तुम उनको
उदास पाओगे, मगर सांझ एकदम उनमें रौनक आ जाती है। इसमें उनका
कसूर नहीं है। उनके शरीर की वैज्ञानिक प्रक्रिया, सूरज के
ढलने के बाद ही उनके भीतर उत्साह को जन्माती है। अगर ये जल्दी सो जाएं तो सिर्फ
करवट बदलेंगे, सो नहीं सकते। और अगर जल्दी सो जाएं तो करवट
बदलने में इतनी नींद खराब कर लेंगे कि फिर बारह और एक भी बज जाए, तो भी नहीं सो सकते। ये तो बारह-एक बजे सोएं, तभी
इनको सुखद निद्रा आएगी। और इनको तुम सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठा दो--ब्रह्ममुहूर्त
यानी तीन बजे रात--तीन बजे रात इनको उठा दो, ये दिन भर सुस्त
रहेंगे। इनकी दिन भर हालत खराब रहेगी।
बर्नार्ड
शॉ ने लिखा है कि मैं सिर्फ एक बार ब्रह्ममुहूर्त में उठा जीवन में और उस दिन के
बाद फिर कभी नहीं उठा। क्योंकि उस दिन जितनी मुझसे भूलें हुईं, जीवन में
कभी हुई नहीं थीं। ब्रह्ममुहूर्त में उठ गया, तो सुबह से ही
एकदम उदासी। आंखें झपकी खाएं। जम्हाई आए। किसी काम में मन न लगे। चौके में पहुंच
गया, अभी चाय तैयार ही नहीं है। अब बैठा हूं; राह देख रहा हूं! पहली बार बस स्टैंड पर पहुंच कर जाकर खड़ा रहा आधा घंटे,
क्योंकि बस जब आए तब दफ्तर जाऊं। दफ्तर पहुंच गया, चपरासी ही नहीं आया था, तो दफ्तर के बाहर ही खड़ा
रहा। दफ्तर के भीतर पहुंच गया। दफ्तर को झाड़ने-बुहारने वाला आदमी पीछे आया। सारी
धूल खानी पड़ी। दिन भर किसी तरह गुजारा।
महात्मा
गांधी के आश्रम में तीन बजे प्रत्येक को उठ जाना पड़ेगा!
वैज्ञानिक
कहते हैं कि हर आदमी की नींद के क्षण अलग हैं। प्रत्येक व्यक्ति को रात में दो
घंटे गहन निद्रा आती है। वे दो घंटे अगर तुम नहीं सो पाए, तो
तुम्हारे चौबीस घंटे खराब हो जाएंगे, निस्तेज हो जाएंगे।
किसी को दो से और चार के बीच में आती है। किसी को तीन और पांच के बीच में। किसी को
चार और छह के बीच में। किसी को पांच और सात के बीच में। और ऐसे भी लोग हैं जिनको
छह और आठ के बीच में। और ऐसे भी लोग हैं जिनको सात और नौ के बीच में। अलग-अलग लोग
हैं। बहुविध लोग हैं।
मैं
आदेश नहीं देता। इसलिए मेरे आश्रम में जिसको जब सोना हो, तब सोए।
ज़ब जागना हो, तब जागे। अपने ही अंतर-अनुशासन से चले। अपने को
समझे और अपना जीवन निर्धारित करे। हां, जो मैंने जाना है,
जो मैंने जीया है, उसे खोल कर तुम्हारे सामने
रख देता हूं। उसमें से जो भी रुच जाए, जो भी पच जाए, जिसके साथ भी तुम्हारा तालमेल हो जाए, वह तुम्हारा।
वह मेरा नहीं फिर। क्योंकि तालमेल हो गया, तो तुम्हारा। तुम
मुझे दोष न दे सकोगे। क्योंकि मैंने तुम्हें कभी कोई आदेश नहीं दिए।
लीला, इसलिए
पहली बात कि मैं आदेश नहीं देता। तू कहती है: "मैं रूपांतरित होना चाहती हूं।
स्वप्नों में बहुत जीवन गंवाया। लेकिन अब मुझे बचाओ।'
पहली
बात, इस बात को खूब गहराई से उतर जाने दो कि स्वप्नों में मैंने जीवन गंवाया।
कहीं ऐसा न हो कि प्रश्न पूछने के लिए ही तुमने पूछ लिया हो। कहीं ऐसा न हो कि
जीवन को स्वप्न कहना अध्यात्मवादियों की पुरानी आदत है, और
लीक है, इसलिए तुमने भी कह दिया हो। जीवन सच में ही स्वप्न
हो गया है--इस बात की परिपूर्ण स्वीकृति रूपांतरण का पहला कदम है। सोचना! खोजना!
सच में ही जीवन स्वप्न सिद्ध हुआ है? या अभी और भी कुछ सपने
बाकी हैं जो पूरे करने हैं?
भूल
मेरी थी
इसी
से कर रहा हूं,
लो, सहज स्वीकार
इसमें
लाज काहे की
पर
हंसो मत यों भरे विद्रूप!
इस
क्षणिक जय में न भूलो शक्ति मेरी
जो
अभी तक साथ है,
शक्ति
है तो पैर सीधे भी पड़ेंगे एक दिन
और
उस दिन कहीं पछताना न पड़ जाए तुम्हें
सोचो
जरा!
भूल
का स्वीकार मुझको है सहज
क्योंकि
अब भी अडिग हूं
क्योंकि
अब भी आत्मबल हारा नहीं हूं
दृष्टि
मेरी सधी है अब भी भविष्योन्मुख!
स्वप्न
मेरे थे असंभव: भूल थी यह--मानता हूं
किंतु
मत भूलो कि यद्यपि स्वप्न मेरे थे
मैं
नहीं था स्वप्न का!
तो
पहली तो बात स्वीकार करो सहज भाव से, सचाई से--औपचारिकता से नहीं--कि
मेरा जीवन एक स्वप्न था। और तब दूसरी बात समझो कि जीवन स्वप्न था, लेकिन तुम स्वप्न नहीं हो; स्वप्न देखने वाला स्वप्न
नहीं है।
स्वप्न
मेरे थे असंभव: भूल थी यह--मानता हूं
किंतु
मत भूलो कि यद्यपि स्वप्न मेरे थे
मैं
नहीं था स्वप्न का!
तो
पहले तो यह जानो कि सारा जीवन स्वप्नों में उलझा रहा। दूसरी बात यह जानो कि मेरे
भीतर एक द्रष्टा था,
जो सारे जीवन-स्वप्नों को देखता रहा, लेकिन
कभी स्वप्न नहीं बना। द्रष्टा कभी स्वप्न नहीं बनता।
पहली
बात तुम्हारे जीवन में एक अदभुत वैराग्य को जन्म देगी। और दूसरी बात तुम्हारे जीवन
में उससे भी अदभुत ध्यान को जन्म देगी, साक्षी-भाव को जन्म देगी।
और
अच्छा है लीला,
कि जल्दी यह बात समझ में आ गई। यह बात तो लोगों को मरते-मरते
मरणशय्या पर समझ में आती है! शायद तब भी समझ में नहीं आती। लोग बेहोशी में मर जाते
हैं। लोगों के समाधि-लेख पर लिख दी जाती है यह समझ की बात। उनको तो कभी समझ में
नहीं आई!
रस
तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया
जी
में वसंत था,
एक फूल ही दिया
मिटने
के दिन आज मुझको यह सोच है:
कैसे
बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया!
कितना
विस्तीर्ण आकाश! कैसा विराट वसंत!
रस तो
अनंत था, अंजुरी भर
ही पिया
पीने
में भी लोग कंजूसी कर जाते हैं!
रस
तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया
जी में
वसंत था, एक फूल
ही दिया
और
दे सकते थे तुम वसंत। तुम्हारे चारों तरफ वसंत बरस सकता था। मधुमास ला सकते थे तुम
जगत में।
जी
में वसंत था,
एक फूल ही दिया
रस
तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया
मिटने
के दिन आज मुझको यह सोच है:
कैसे
बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया!
अधिकतर
लोग इस विराट अस्तित्व में बड़ा क्षुद्र जीवन जीते हैं। सिक्के इकट्ठे करते रहते
हैं झूठे। ऐसे पागल भी हैं,
जो डाक की टिकटें इकट्ठी करते रहते हैं! अजीब-अजीब लोग हैं!
मैं
एक घर में गया। उन सज्जन ने मुझे कहा कि मेरा संग्रह देखिएगा? मैंने कहा,
जरूर। उनका संग्रह बड़ा अदभुत था। उसमें बीड़ी के बंडलों पर जो लेबल
लगाए जाते हैं, वे उन्होंने संग्रह किए थे। बीड़ी के बंडलों
के लेबल! मैंने उनसे कहा, तुम्हारा जीवन बंडल हुआ! तुम गए
काम से! तुम बीड़ी के बंडल हो? उन्होंने कहा, मैं बीड़ी कभी नहीं पीता। मैंने कहा, बीड़ी नहीं पीते,
यह कोई बड़ा गुण नहीं है। बीड़ी पी लेते, चलता।
मगर यह जिंदगी भर क्या करते रहे! पूरा घर तरहत्तरह के लेबलों से भरा हुआ है! और वे
इसको अपनी बड़ी संपदा मानते हैं, बड़े गौरव से दिखलाते हैं।
एक
और घर में मैं मेहमान था। उनका घर पूरा का पूरा पुस्तकों से भरा है। मैंने पूछा, इन
पुस्तकों में क्या है? उन्होंने कहा, आइए,
दिखाऊं। हर पुस्तक में उन्होंने राम-राम, राम-राम,
राम-राम लिख छोड़ा है! बही-खाते भर दिए हैं--राम-राम, राम-राम, राम-राम! वे कहते हैं, मैंने इतने करोड़ बार राम नाम लिख छोड़ा है। सुबह से शाम तक वे एक ही काम
करते हैं।
मैंने
कहा, अगर कभी राम से तुम्हारा मिलना हुआ, तो तुम्हारी खूब
गति होगी!
उन्होंने
कहा, क्यों?
मैंने
कहा कि इतनी किताबें बच्चों के काम आतीं। इतनी कापियां न मालूम कितने बच्चों के
काम आतीं! तुमने खराब कर दीं। और करोड़ बार राम-राम लिखते हो, तुमको
अक्ल नहीं है कि संस्कृत में बहुवचन होता है--रामः। एक दफे लिख दिया, खतम! बहुवचन में कह दिया। क्या राम-राम लगा रखा है!
लीला, तुझे याद
आ गया कि जीवन स्वप्न में चला गया, तो फिर जीवन स्वप्न में
नहीं गया। इसी याद के साथ जीवन सत्य बनने लगा। किसको याद आया? यह कौन जागा? यह किसको बोध बैठा? तेरे भीतर कुछ पकने लगा; कुछ द्रष्टा जन्मने लगा।
नाचने
लगे हैं मोर
गहराने
लगी है आसमान की सजीली कोर
अब
वर्षा आएगी
स्वाति
की एक बूंद मोती बन जाएगी
छोटी-सी
सीपी यह हमको सिखाएगी:
रस
का सही ग्रहण कितनी बड़ी बात है!
मोरों
का रोर यह, मेढ़कों का यह शोर
केवल
उत्पात है!
एक
बूंद सीपी में पड़ जाती है और मोती बन जाती है।
अब
वर्षा आएगी
स्वाति
की एक बूंद मोती बन जाएगी
यह
जो द्रष्टा का थोड़ा सा भाव पैदा हुआ है, भान पैदा हुआ है, यही बूंद है स्वाति की। यही मोती बनेगी।
छोटी-सी
सीपी यह हमको सिखाएगी:
रस
का सही ग्रहण कितनी बड़ी बात है!
जीवन
स्वप्न है--ऐसा जान लेना रूपांतरण है। फिर आंख भीतर की तरफ मुड़ने लगती है। फिर रस
का सही ग्रहण होता है।
और
तब क्या चिंता कि वर्षा में मेढ़कों का शोर हो रहा है। होता रहे!
मोरों
का रोर यह, मेढ़कों का यह शोर
केवल
उत्पात है!
फिर
सारे जीवन के स्वप्न,
आपाधापी, भाग-दौड़, सिर्फ
उत्पात है। आंख भीतर मुड़े। अपने रस से जुड़े। फिर तुम सीपी बने। फिर तुम्हारे भीतर
मोती पकेगा। शुभ घड़ी आ गई।
लेकिन
स्वप्न की यह बात सिर्फ औपचारिकता न हो; यह तुम्हारा निज अनुभव हो। मेरे
कहने से नहीं। शंकराचार्य के कहने से नहीं। बुद्ध के कहने से नहीं। कबीर और नानक
के कहने से नहीं। तुम्हारा अपना बोध हो। क्योंकि दूसरी सीपियों में पड़ी हुई बूंदें
तुम्हारे मोती नहीं हैं। तुम्हारी सीपी में पड़ी हुई बूंद ही तुम्हारा मोती है।
तोड़ो
मौन की चट्टान
फोड़ो
अहम् का व्यवधान
आकुल
प्राण के रस गान,
भीतर
ही न जाएं मर!
बोलो, जोर से
बोलो
व्यथा
की ग्रंथियां खोलो
संजो
लो मन, कि फूटें
कंठ
से फिर गीत के निर्झर!
तोड़ो
मौन की चट्टान
फोड़ो
अहम् का व्यवधान
आकुल
प्राण के रस गान,
भीतर ही
न जाएं मर!
बस
अब एक काम करो: जीवन स्वप्न दिखा; अब अहंकार भी स्वप्न है, यह
मैं-भाव भी स्वप्न है--यह और देख लो। बस दो ही कदम में तो यात्रा पूरी हो जाती है।
संसार
की भाग-दौड़ व्यर्थ;
और अहंकार की, नाम की, यश
की, पद की, प्रतिष्ठा की आकांक्षा
व्यर्थ। बस ये दो व्यर्थताएं दिखाई पड़ जाएं कि तुम्हारे भीतर सार का बीज टूटता है।
आ गया वसंत। फूल ही फूल भर जाएंगे। तुम्हारे जाम में शराब ही शराब भर जाएगी। शराब
में आनंद के फूल ही फूल तैर जाएंगे। गीत जन्मेगा तुमसे। रस बहेगा तुमसे। तुम्हारा
दीया जलेगा। और तुम्हारा ही नहीं, तुम्हारे दीये से और बुझे
दीये भी जल सकते हैं।
आज
इतना ही।
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