अपने दीपक स्वयं बनो—(आठवां प्रवचन)
दिनांक १८ मार्च, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भक्ति, ज्ञान और कर्म स्वभाव से या प्रभाव
से होता है? प्रभु, समझाने की कृपा
करें!
2—परमात्मा को पाकर इस अनुभव को प्रकट क्यों नहीं किया जा सकता है?
पहला प्रश्न: भगवान,
भक्ति, ज्ञान और कर्म स्वभाव से या प्रभाव से होता है?
प्रभु, समझाने की कृपा करें।
ओम,
यह
प्रश्न महत्वपूर्ण है। जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है: या तो औरों की सुन कर, या अपनी
सुनकर। या तो जीवन अनुकरण होता है और या जीवन स्वस्फूर्त। या तो भीतर की रोशनी से
कोई चलता है, या उधार। जो उधार जीता है, व्यर्थ जीता है। क्योंकि जो उधार जीता है उसका जीवन थोथा होगा, मिथ्या होगा, ऊपर-ऊपर होगा, लिपा-पुता
होगा। भीतर कुछ और होगा,
बाहर कुछ और होगा। जो व्यक्ति
स्वस्फूर्ति से जीता है उसके जीवन में सत्य की संभावना है और वही कभी परमात्मा के
साक्षात्कार को उपलब्ध हो सकता है।
अनुकरण
धर्म नहीं है,
यद्यपि वही धर्म बन कर मनुष्य की छाती पर बैठ गया है। सारी पृथ्वी
उन लोगों से भरी है, जो दूसरों का अनुकरण कर रहे हैं। उन्हें
पता नहीं: सत्य क्या है? परमात्मा क्या है? है भी या नहीं, यह भी पता नहीं। न कभी पूछा, न कभी जिज्ञासा की। न कभी जिज्ञासा के लिए जो जोखिम उठानी चाहिए वह जोखिम
उठाई। न कभी खोज पर निकले। खोज पर निकलना खतरनाक है--लौट सको, न लौट सको वापस! आगे कुछ पाने को हो या न हो! और फिर कौन जाने इस अज्ञात
सागर में कहां खो जाओ! तूफान हैं, अंधड़ हैं। रास्ता दुर्गम
है। मंजिल की कोई गारंटी नहीं है--हो या न हो!
पहुंच
कर ही जान सकोगे पहले से कोई आश्वस्त नहीं कर सकता। बड़ी श्रद्धा चाहिए अन्वेषण के
लिए। स्वयं पर श्रद्धा चाहिए।
और
धर्म के नाम पर तुम्हें सिखाया जा रहा है: दूसरों पर श्रद्धा करो। दूसरों पर
श्रद्धा अधर्म है;
स्वयं पर श्रद्धा धर्म है। लेकिन स्वयं पर श्रद्धा अग्नि से गुजरने
जैसी है, क्योंकि स्वयं पर श्रद्धा पाने के लिए पहला कदम
नास्तिकता है, आस्तिकता नहीं। पहले तो नहीं कहने की क्षमता
आनी चाहिए। जिसकी नहीं निर्बल है, उसकी हां में कोई बल नहीं
हो सकता। तुम्हारी हां उतनी ही बलवान होती है जितनी तुम्हारी नहीं; उससे ज्यादा नहीं हो सकती। और अगर तुम्हारी नहीं परिपूर्ण है तो तुम्हारी
हां में भी पूर्णता होती है, समग्रता होती है। फिर तुम अपने
जीवन को निछावर कर सकते हो।
दूसरे
का अनुकरण सस्ता है,
सुगम है। न कहीं जाना है, न कुछ खोजना है,
न कुछ दांव पर लगाना है। बस बासी बातों को मान लेना है। भीड़ जो कहे
उसको स्वीकार कर लेना है। इसमें बड़ी सुरक्षा भी है। हिंदू घर में पैदा हुए तो तुम
हिंदू हो गए। तुमने हिंदू होने के लिए कौन सी खोज की, कौन सी
जिज्ञासा की? मुसलमान घर में पैदा होते तो मुसलमान हो जाते
और जैन घर में पैदा होते तो जैन हो जाते। तुम आदमी हो या मिट्टी के हो, कि जिसके हाथ पड़ गए, उसने जो बना दिया वही बन गए! और
तुम अगर रूस में पैदा होते किसी कम्युनिस्ट परिवार में तो तुम्हें ईश्वर इत्यादि
की बकवास कभी पकड़ती ही नहीं; तुम बाइबिल, कुरान और गीता की तरफ ध्यान भी न देते तुम्हारे लिए कृष्ण और क्राइस्ट,
बुद्ध और महावीर अर्थहीन शब्द होते, इनका कोई
मूल्य नहीं होता। इतना ही नहीं, बल्कि तुम जानते कि यही लोग
हैं जिन्होंने मनुष्य-जाति को भ्रष्ट किया। इन्होंने ही मनुष्य-जाति को अफीम खिलाई
और अब तक बेहोश रखा। तब तुम मंदिर और मस्जिद नहीं जाते। तुम भूल कर भी प्रार्थना न
करते। ध्यान शब्द ही तुम्हें निष्प्रयोजन मालूम होता। कैसी खोज? किसकी खोज? न कोई परमात्मा है न कोई आत्मा है। आदमी
तो बस पांच तत्वों का जोड़ है। बिखर जाएंगे तत्व, कहानी हो
जाएगी खतम। मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं है और जन्म के पहले भी कुछ नहीं था।
प्रभाव
से जो जीता है,
वह जीता ही नहीं। और सारी दुनिया करीब-करीब प्रभाव से जीती है। तुम
जिसके प्रभाव में पड़ गए, संयोगवशात, उसके
ही रंग में रंग जाते हो। तुम्हारी अपनी कोई निजता नहीं है। तुम्हारा अपने भीतर कोई
स्वयं का बोध नहीं है, कि तुम सोचो, विचारो,
विमर्श करो, निर्णय लो। तुम तो बस भेड़ों की
तरह हो; भीड़ जहां चली, तुम चले।
तुम्हें अपना स्मरण ही नहीं है। तुम तो दोहराए जाते हो जो तुम्हें कहा गया है।
ग्रामोफोन के रिकार्ड की भांति हो तुम। गीता पकड़ा दी तो गीता दोहराते हो, कुरान पकड़ा दिया तो कुरान दोहराते हो। न तुम्हें कुरान से कुछ लेना है,
न तुम्हें गीता से कुछ लेना है। न तुम्हारे प्राणों में गीता का
अनुवाद उठ रहा है, न कुरान का संगीत। तुम्हारे प्राण बिलकुल
खाली पड़े हैं, सब ऊपर-ऊपर, क्योंकि
प्रभाव कभी भी तुम्हारे स्वभाव तक नहीं पहुंच सकते। प्रभाव तो ऊपर ही रह जाएंगे।
यह
तो ऐसे ही है जैसे स्त्रियां अपना चेहरा रंग लेती हैं; रंग-रोगन
लगा लिया।
एक
बंगाली प्रोफेसर मेरे मित्र थे। एक दिन कह कर मुझे गए कि आज मेरी पत्नी भी आपसे
मिलने को बहुत उत्सुक है,
तो मैं अपनी पत्नी को लेकर आ रहा हूं। आए तो अकेले आए। मैंने कहा,
पत्नी का क्या हुआ? उन्होंने कहा कि यह जो
रास्ते में बूंदाबांदी हो गई, सो वह लौट गई। मैंने कहा,
बूंदाबांदी से उसके लौट जाने का क्या संबंध? उन्होंने
कहा, आप समझे नहीं, उसका रंग-रोगन बह
गया। लकीरें आ गई उसके चेहरे पर। बूंदाबांदी हो गई रास्ते में, अचानक।
फिर
जब उनकी पत्नी कुछ दिनों बाद मुझे मिलने आई तो मुझे उनकी बात का पक्का भरोसा आया।
इतना रंग-रोगन पोता हुआ था उसने कि निश्चित ही बूंदाबांदी हो जाएगी तो लौट ही जाना
पड़ेगा।
हिंदू
हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, जैन
हो--सब रंग-रोगन है। जरा सी बूंदाबांदी में बह जाएगा। बूंदाबांदी में टिकता ही
नहीं। गीता पढ़ रहे हो और किसी ने गाली दे दी, बस हो गई
बूंदाबांदी। गीता ही फेंक कर मार दोगे। फिर यह भी देखोगे कि अब यह गीता है या क्या
है। फिर पीछे उठा कर चाहे सिर से लगा लोगे, दो फूल चढ़ा दोगे,
पांच कन्याओं को भोजन करवा दोगे, वह अलग बात।
मगर उस वक्त जब किसी ने गाली दे दी, सब बह जाएगा। गीता वगैरह
काम नहीं आएगी।
मैंने
सुना है, एक क्रोध आदमी, महा क्रोधी--इतना कि उसने अपनी पत्नी
को धक्का दे दिया, वह कुएं में गिर गई और मर गई। दुख हुआ।
क्रोध के बाद किसको दुख नहीं होता! और इतना बड़ा क्रोध कोई करे तो फिर तो दुख
स्वाभाविक है। पश्चात्ताप हुआ। पश्चात्ताप की अग्नि पकड़ी थी कि उसी समय मंदिर चला
गया। जैन था। जैन मुनि आए हुए थे--दिगंबर मुनि। उनके चरणों में गिर पड़ा और कहा कि
आप ही मुझे बचाओ। यह क्रोध अब बहुत हो गया। मैंने बहुत तरह के उपद्रव किए हैं। एक
बार अपने घर में आग लगा दी थी; मगर वह भी ठीक था कि घर में
कोई प्राण थोड़े ही थे, जल गया जल गया, दूसरा
बना लिया। आज तो अपनी पत्नी को धक्का दे दिया, वह मर गई। अब
यह सीमा के बाहर बात हुई जा रही है। मुझे दीक्षा दो, अब मुझे
संसार में नहीं रहना है।
मुनि
ने कहा, तो दीक्षा का क्रम होता है। जैन मुनि की पांच सीढ़ियां होती हैं। पहले
ब्रह्मचर्य का व्रत ले, फिर छुल्लक बने, फिर एलक बने...ऐसा धीरे-धीरे जाकर...क्योंकि पहले चद्दर ओढ़े, फिर दो लंगोटी रखे, फिर एक लंगोटी रखे। अभ्यास करना
होता है न! एकदम से लंगोटी छोड़ दो, बिलकुल नंगे खड़े हो जाओ
तो खुद ही को जरा बेचैनी मालूम होगी। धीरे-धीरे क्रमशः अभ्यस्त हो जाता है आदमी।
उसने
कहा कि मुझे सीढ़ियां वगैरह नहीं चाहिए। जिंदगी का क्या भरोसा! अरे अभी मेरी पत्नी
जिंदा थी सुबह और अब खतम हो गई। मैं अभी मुनि होता हूं।
मुनि
भी थोड़े डरे कि नहीं भाई,
इतनी जल्दी नहीं। मगर उसने सुना ही नहीं, वह
तो क्रोधी आदमी था। उसने तो पकड़े-लत्ते फेंक दिए। वहीं नंगा खड़ा हो गया। तालियां
पिट गई। मंदिर में जो लोग आए थे, उन्होंने कहा कि इसको कहते
हैं त्याग! अरे कल के लिए क्या छोड़ना! मुनि भी प्रभावित हुए। कहा कि मैंने बहुत
लोगों को दीक्षा दी, मगर तेरे जैसा धार्मिक आदमी, संकल्पवान नहीं देखा कोई और!
संकल्प
वगैरह कुछ भी नहीं था इसमें; यह वही क्रोधी आदमी है। जो पत्नी को धक्का दे
सकता है वह कपड़े भी फेंक सकता है। जिसने पत्नी तक को धक्का देने में संकोच न किया,
एक मिनट न सोचा, वह कपड़े उतारने में भी क्यों
सोचे! सोच-विचार का धंधा ही वह नहीं करता। करके सोचता-विचारता है। फिर बैठ कर नंगा
सोचेगा कि यह मैंने क्या कर लिया--अब यह ठंड पड़ी, अब यह फलां
हुआ! मगर तब तक बहुत देर हो जाएगी। तब तक तालियां बज चुकी होंगी, लौटना मुश्किल हो जाएगा।
लोगों
ने तो जुलूस निकाल दिया। जब उसका जुलूस निकला, तब उसे थोड़ा खयाल आना शुरू हुआ कि
बाजार में नंग-धड़ंग। मगर अब देर हो चुकी थी, अब कहने में कोई
सार भी नहीं था। और भद्द होती। कर तो गया था क्रोध में ही, क्योंकि
पश्चात्ताप भी क्रोध ही है--क्रोध ही है शीर्षासन करता हुआ। पश्चात्ताप और क्या है?
उलटा खड़ा हुआ क्रोध। सिर के बल खड़ा हुआ क्रोध। मगर अब देर हो चुकी
थी। बैंड-बाजे बज रहे थे, फूल फेंके जा रहे थे, गांव भर में वाह-वाह हो रही थी। अब इस सबको छोड़ कर जाए भी कहां, भागे भी कहां! इसीलिए तो शोभायात्रा निकालनी पड़ती है मुनियों की, साधुओं की कि भाग न सकें। बैंड-बाजा बजाओ, स्वागत
करो, इतना सम्मान दो कि अब भागने में उनको खुद ही लगेगा कि
इतने अहंकार की तृप्ति और कहां होगी! और कुछ है भी तो नहीं उनके पास, जिसके कारण कहीं कोई सम्मान मिल सकेगा। यही उनकी कुल पूंजी-संपत्ति है कि
नंगे खड़े हैं, कि कोई उपवासा खड़ा है। उनके जीवन की और कला
क्या है?
अब
इस आदमी के पास कुछ भी न था--सिवाय क्रोध के। मगर वह महामुनि हो गया। और क्रोधी तो
था ही। जब उसको इतना सम्मान मिला सिर्फ कपड़े छोड़ने से, तो उसने
और-और उपाय किए। क्योंकि क्रोध अहंकार का ही हिस्सा है। क्योंकि क्रोध आता ही तब
है जब तुम्हारे अहंकार को बाधा पड़ती है। जहां तुम्हारे अहंकार को बाधा पड़ती है
वहीं क्रोध आता है। क्रोध अहंकार का शरीर-रक्षक है। अगर तुम्हारे अहंकार को कोई
बाधा न आए तो क्रोध आएगा ही नहीं। इसलिए तो मुनियों को क्रोध नहीं आता, क्योंकि अहंकार की कोई बाधा ही नहीं आती। सब जगह सम्मान है, सम्मान ही सम्मान है। क्रोध आने का कारण नहीं है; इसलिए
नहीं कि क्रोध नहीं रहा उनके भीतर। जरा उनको मौका दो, अवसर
दो, तब तुम्हें पता चलेगा कि वे तुमसे भी ज्यादा क्रोधी हैं।
लेकिन उनको अवसर ही नहीं मिलता क्रोध का। अहंकार को रोज पूजा मिलती ही चली जाती
है। नये-नये पूजा के थाल अहंकार पर चढ़ते चले जाते हैं।
इस
आदमी को जब सिर्फ कपड़े छोड़ने से इतना मिला तो उसने भोजन एक दफा कर दिया, फिर भोजन
में से घी छोड़ दिया, फिर नमक छोड़ दिया, छोड़ता ही चला गया। सूख गया। जितना सूखता गया उतना ही सम्मान बढ़ता चला गया।
वह महामुनि हो गया। उसकी ख्याति सारे देश में पहुंच गई।
एक
मित्र दर्शन करने को आए। महामुनि ने देखा मित्र को; बचपन के साथी थे, साथ ही खेले, उठे, लड़े,
झगड़े; भूलने का कोई कारण नहीं था। मुनि पहचान
तो गए, लेकिन पहचानना न चाहा। क्रोधी आदमी था, अहंकारी आदमी था; अब इतने पद पर था, इतनी ऊंचाई पर था--हर किसी ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे को पहचानेगा! कहां वह और
कहां तुम! देखा और अनदेखा कर गया। मित्र भी पहचान तो गए कि पहचान गया है, लेकिन इस तरह देख रहा है जैसे कि पहचाना ही नहीं। मित्र को शक हुआ। मित्र
को शक था ही। बचपन से जानते थे कि इतना क्रोधी और उपद्रवी आदमी है, यह कैसे महामुनि हो गया है! मगर चमत्कार भी होते हैं, क्रांतियां भी होती हैं। कभी-कभी घट जाती हैं घटनाएं इस तरह की भी। आदमी
की जिंदगी में रूपांतरण के क्षण भी आ जाते हैं। तो कौन जाने हो ही गया हो! इसलिए
तो दूर की यात्रा करके इस महानगरी में आया था। लेकिन देखा कि नहीं, कुछ फर्क नहीं हुआ। अकड़ वही है। वह पास सरक आया और उसने कहा कि महाराज,
क्या मैं आपका नाम पूछ सकता हूं? अब तो उनके
क्रोध की सीमा न रही। कहा, अखबार पढ़ते हो कि नहीं? रेडियो सुनते हो कि नहीं? टेलीविजन देखते हो कि नहीं?
कौन मेरा नाम नहीं जानता! उल्लू का पट्ठा नाम पूछता है!
मित्र
ने दिल ही दिल में कहा कि कुछ फर्क नहीं पड़ा, वही का वही आदमी है। अभी मौका मिले
तो अभी यह कुश्ती लड़ने को राजी हो जाए यहीं। मगर मित्र भी परीक्षा ही लेने आए थे,
तो उन्होंने कहा कि अपढ़ आदमी हूं, न रेडियो
सुनता, न टेलीविजन देखता, गांव का
गंवार हूं। आप ठीक ही कहते हैं--उल्लू का पट्ठा! एक दफा बता ही दें। आपके ही
मुखारविंद से सुन लूंगा तो बड़ी तृप्ति होगी।
देखा
तो बड़े क्रोध से क्योंकि पहचान तो रहे हैं कि यह पढ़ा-लिखा है, सब बात है,
भलीभांति जानते हैं इसको। देखा तो बहुत क्रोध से, लेकिन अब और लोग भी बैठे थे, इससे कुछ कहना और
ज्यादा हुज्जत बढ़ानी ठीक भी नहीं थी। कहा कि मेरा नाम शांतिनाथ है। फिर थोड़ी देर
इधर-उधर की अध्यात्म की चर्चा चली। उस मित्र ने और कुछ आध्यात्मिक बातें पूछी,
फिर पूछा कि महाराज, अब जाने को हूं, एक बात और बता दें, आपका नाम भूल गया। अब तो एकदम वे
भूल ही गए कि मुनि हैं। नाम भूल गया है! तेरे जैसा बुद्धू नहीं देखा। अभी मैंने
तेरे को नाम बताया और तू नाम भूल गया! तो खाक तू समझेगा ब्रह्मज्ञान की बातें! बड़ी
ऊंची बातें कर रहा है--आत्मा, परमात्मा, मोक्ष! तुझे क्या खाक याद रहेगा, जब मेरा नाम ही याद
नहीं रहा! एक बार और बताए देता हूं। मेरा नाम है शांतिनाथ!
मित्र
ने कहा, आपकी बड़ी कृपा। फिर थोड़ी देर बैठा रहा और फिर उसने पूछा कि महाराज,
अब जा ही रहा हूं, बस चरण छू लूं--और आपका
नाम! बस महाराज ने उठाया डंडा और दे मारा उसकी खोपड़ी पर और कहा कि मेरा नाम
है--शांतिनाथ!
उसने
कहा कि मैं समझ गया महाराज,
बिलकुल आपके व्यक्तित्व से शांति ही झर रही है। बस यही देखने आया
था। हे महामुनि, अब जाता हूं। आप वही के वही हो, जहां के तहां हो।
ऊपर
से तुम चाहे नग्न हो जाओ,
चाहे पूजा करो, पाठ करो--सब झूठा होगा।
तुम्हारी पूजा में भी तुम्हारे भीतरी विष घुले रहेंगे। तुम्हारी पूजा में भी
तुम्हारे सांप-बिच्छू, जो तुम्हारे भीतर भरे हैं, सिर उठाते रहेंगे। तुम्हारी प्रार्थना भी तुम्हारी वासना का ही थोड़ा
सजाया-संवारा रूप होगी।
चंदूलाल
ने एक दिन देखा कि उनका बेटा बंटू, घर में एक पूजागृह चंदूलाल ने बना
रखा है, उसमें भीतर गया। कभी नहीं जाता था पूजागृह में।
डांटते-डपटते थे तो भी नहीं जाता था। आज अपने आप चला गया है, तो चंदूलाल भी चकित हुए कि मामला क्या है! भीतर छिप कर सिगरेट वगैरह तो
नहीं पीता या और भी खतरनाक काम करता हो, क्या पता! तो
चंदूलाल भी धीरे से गए और खिड़की से झांक कर देखा। बड़े चकित हुए--घुटने टेके,
हाथ जोड़े, बिलकुल भाव-मग्न और कह रहा था कि हे
परमात्मा, बस एक छोटा सा काम, अरे
तुम्हारे लिए क्या मुश्किल है! तुमने तो क्या-क्या चमत्कार नहीं किए! शास्त्र
चमत्कारों से भरे हैं। एक छोटा सा काम मेरे लिए भी! टिम्बकटू को भारत की राजधानी
बना दो।
चंदूलाल
भी चौंके कि यह क्या कह रहा है! फिर भी चुप खड़े रहे कि पूरी बात तो समझ लें कि यह
मामला क्या है। और कहा कि देखो, ऐसे गुमसुम मत बैठे रहो--बोला बंटू--कुछ कहो,
कुछ बोलो! अरे हांऱ्हूं भरो, सिर ही हिला दो।
कोई बड़ी बात नहीं मांग रहा हूं। तुम्हारे लिए क्या है, तुम
तो अंतर्यामी हो, तुम तो सब जानते ही हो! तुम तो सर्वव्यापी
हो! तुम तो सर्वशक्तिमान हो, तुम से क्या नहीं है जो न हो!
तुम तो कुछ भी करके दिखा सकते हो। असंभव को संभव कर दो। तुमने लंगड़ों-लूलों को
पहाड़ चढ़ा दिए, अंधों को आंखें दे दीं। तुमने क्या नहीं किया,
कैसे-कैसे चमत्कार! यह तो छोटी सी बात है। अरे यार कर ही दो!
चंदूलाल
को भी गुस्सा आया कि यह क्या कह रहा है कि अरे यार! एकदम भीतर घुसे और पकड़ी गरदन
लड़के की कि बंटू,
तू क्या कह रहा है परमात्मा से--अरे यार! और यह क्या प्रार्थना है?
कितनी दफा समझाया कि प्रार्थना कैसे करनी! यह कोई प्रार्थना है?
टिम्बकटू को भारत की राजधानी बना दो, क्यों?
बंटू
ने कहा, तुम बीच में न बोलो। मैं परीक्षा-पत्र में गलती से लिख आया हूं टिम्बकटू
को भारत की राजधानी। अब अगर शीघ्र नहीं बनती है भारत की राजधानी टिम्बकटू, तो मैं मारा गया। तुम बीच में न पड़ो।
प्रत्येक
की अपनी आकांक्षाएं हैं,
जो उनकी प्रार्थनाओं से झलकेंगी। और प्रार्थना तभी होती है जब कोई
आकांक्षा न हो। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम टिम्बकटू को भारत की राजधानी बनाना
चाहते हो या मोक्ष-निर्वाण को पाना चाहते हो। कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक कुछ चाह
है तब तक प्रार्थना नहीं। जब तक कुछ मांग है, तब तक मंदिर
में प्रवेश नहीं।
लेकिन
तुम प्रार्थना इसलिए कर रहे हो, क्योंकि जिनसे तुमने प्रार्थना करनी सीखी है वे
भी इसलिए प्रार्थना कर रहे थे। दुख में, दुर्दिन में लोग
परमात्मा को याद करते हैं; सुख में, सुदिन
में भूल जाते हैं। सुख में क्यों याद करें? जरूरत क्या?
दुख में याद करते हैं। पीड़ा में याद करते हैं। असफलता में याद करते
हैं। विफलता में याद करते हैं। और इन्हीं से तुम सीखते हो।
प्रभाव
से, ओम, जो भी भक्ति होगी झूठी होगी। प्रभाव का अर्थ ही
होता है: उधार, बासा। और पता नहीं जिससे तुम ले रहे हो,
उसका भी दूसरे से लिया हो बासा हो। अक्सर तो हजारों हाथों में चला
हुआ होता है प्रभाव। जैसे नोट गंदे हो जाते हैं चलते-चलते। नोट से ज्यादा गंदी चीज
दुनिया में खोजनी कठिन है, क्योंकि इतने हाथों में शायद ही
कोई चीज जाती हो जितना नोट जाता है। जितने कीटाणु नोट में होते होंगे बीमारियों के,
उतने शायद किसी भी चीज में नहीं होते होंगे। क्योंकि टी.बी. वाला है
तो वह भी उसी नोट को पकड़े रखता है। और लोग जोर से पकड़ते हैं, नोट को जब पकड़ते हैं, तो कोई ऐसा थोड़े ही। और टी.बी.
के कीटाणु भी कोई त्यागी-व्रती तो हैं नहीं; वे भी जब नोट
देख लेते हैं तो एकदम जोर से पकड़ते हैं। कैंसर का मरीज है, सर्दी-जुकाम
का मरीज है, हजारों तरह के मरीज हैं! नोट चल रहे हैं। नोट
चलते ही जाते हैं एक हाथ से दूसरे हाथ, दूसरे हाथ से तीसरे
हाथ। इसलिए तो अंग्रेजी में नोटों का नाम करेंसी है। करेंसी का मतलब होता है,
जो चलता ही रहता है। करेंट। इधर से उधर, इधर
से उधर! ठहरता ही नहीं। चलायमान! जिसका चलन होता रहता है। चलन ही जिसका जीवन है।
इसलिए
नोट से गंदी चीज खोजनी कठिन है, और नोट से ज्यादा बीमार चीज भी खोजनी कठिन है।
करीब-करीब
तुम्हारे प्रभाव भी नोट जैसे ही गंदे हैं, नोट से भी ज्यादा गंदे हैं,
क्योंकि नोट तो होंगे पचास साल पुराने, दस साल
पुराने। कोई हजारों साल पुराने नहीं होते, लेकिन प्रभाव,
संस्कार तो हजारों साल पुराने होते हैं। तुम्हारे पिता को उनके पिता
दे गए, उनके पिता को उनके पिता दे गए और पता नहीं...बाबा आदम
के जमाने से लेकर चलते आ रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी लोग एक-दूसरे को सौंपते जाते हैं
कि सम्हालो। इतने बासे, इतने सड़े, इतने
गंदे कि अगर तुममें थोड़ी भी स्वच्छता का बोध हो तो भी तुम कहोगे कि नहीं, उधार नहीं लेंगे। मगर परमात्मा भी उधार! तो इस जीवन में कुछ भी स्वानुभव
करना है या नहीं करना है? और तुम अपनी निजता को कैसे पाओगे?
तुम अपनी स्वयं की सत्ता को कैसे अनुभव करोगे? दूसरे जो कहते हैं, संदेह मत करना। जिनको भी समाज
में अपनी धारणाओं को चलवाए रखना है वे विश्वास सिखाते हैं, संदेह
नहीं।
विश्वास
का अर्थ होता है: नहीं की हत्या कर दो। तुम्हारे भीतर नहीं उठता हो तो उसकी गर्दन
घोंट दो। और ध्यान रखना कि तुम कितनी ही गर्दन घोंटो, नहीं
मरेगा नहीं। तुम्हारे ऊपर-ऊपर विश्वास होगा, भीतर-भीतर इनकार
होगा। इसलिए तुम जरा सोचना। ईश्वर को मानते हो और भीतर कहीं न कहीं तुम संदेह को
सरकता हुआ पाओगे, अंधेरे कोनों में छिपा हुआ पाओगे। जरा उसे
मौका दो, अभी भी वह खुले आंगन में आने को राजी है। अंतरात्मा
में तो संदेह भर जाएगा और ऊपर-ऊपर परिधि पर विश्वास चिपक जाएंगे। सब चिपके विश्वास
जरा सी बूंदाबांदी हो जाए और व्यर्थ हो जाते हैं।
एक
मित्र की पत्नी मर गई,
मैं उनके घर गया। पास-पड़ोस के लोग समझा रहे थे कि भई रोते क्यों हो?
अरे, आत्मा तो अमर है! जो सज्जन यह सबसे
ज्यादा समझा रहे थे, मैंने सोचा कि ये ब्रह्मज्ञानी होने
चाहिए, बड़ी ज्ञान की बातें कर रहे थे! श्लोक पर श्लोक दोहरा
रहे थे। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि...अरे आत्मा को तो शस्त्र छेद ही नहीं सकते। नैनं
दहति पावकः...अग्नि जला नहीं सकती। यह आत्मा तो अमर है, शाश्वत
है। देह का क्या है! और देह तो मिट्टी का घड़ा है, फूटेगा ही।
मिट्टी मिट्टी में मिल गई, ज्योति ज्योति में समा गई। तू
क्यों रो रहा है?
मगर
बेचारा वह रो ही रहा है। संयोग की बात, चार-छह महीने बाद ये ब्रह्मज्ञानी
की पत्नी मर गई। पत्नियों का क्या...! तो मैं खासकर उनके घर गया, हालांकि मेरे उनसे कोई ज्यादा संबंध नहीं थे, कोई
पहचान भी नहीं थी, मगर मैंने कहा देखूं तो, ब्रह्मज्ञान की क्या अवस्था है! वे रो रहे थे। मैंने कहा, अरे! नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि! उसको तो शस्त्र भी नहीं छेद सकते। नैनं
दहति पावकः!
उन्होंने
मुझे जरा गुस्से से देखा।
उसको
आग नहीं जला सकती,
आप रो रहे हैं! आपका ब्रह्मज्ञान क्या हुआ, मैंने
पूछा।
उन्होंने
कहा कि बकवास बंद करो! मेरी पत्नी मर गई, तुम्हें ब्रह्मज्ञान की पड़ी है! और
वैसे तुम कभी मेरे घर आए भी नहीं, आज तुम कैसे आए?
मैंने
कहा, इसीलिए आया हूं कि मैंने सोचा कि देखें ब्रह्मज्ञानी की क्या दशा है! ये
ही अवसर होते हैं जब पता चलता है ज्ञान का।
मैंने
कहा, कुछ श्लोक दोहराओ, कुछ उपनिषद की बातें करो! क्या रो
रहे हो? अरे मिट्टी मिट्टी में मिल गई, आत्मा आत्मा में चली गई।
वे
कहने लगे, तुम इन बातों को नहीं समझोगे। तुमने कभी विवाह ही नहीं किया। तो मैंने कहा,
ब्रह्मज्ञान के लिए क्या विवाह करना जरूरी है? यह तुमने नई बात बताई! मैं तो सुनता था अब तक कि ब्रह्मज्ञान के लिए विवाह
बाधा है।...तो कर लूंगा भैया, विवाह करूंगा--एक क्या दो
करूंगा, तीन करूंगा। अगर ब्रह्मज्ञान इससे मिलता है तो जितना
करो उतना ही लाभ है।
वे
कहने लगे कि यह मजाक का वक्त नहीं है जी! वे तो गुस्से में आने लगे। मैंने कहा कि
आप गुस्से में आते हैं! मैं मजाक नहीं कर रहा; मैं तो सिर्फ यह देखने आया हूं कि
ब्रह्मज्ञान कितना भीतर है। पत्नी क्या मर गई, बैठे रो रहे
हो। अरे उस पर भरोसा रखो, जिसने एक दी थी, दूसरी देगा। कम से कम श्रद्धा तो रखो। अगर शास्त्र भी भूल गए तो भूल जाओ,
श्रद्धा तो रखो।
मैंने
उनसे कहा कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर गई थी तो पत्नी का प्रेमी--पत्नी का एक
प्रेमी था, मुल्ला का दोस्त भी था--वह मुल्ला से भी ज्यादा रो रहा था। वह मुल्ला को
भी झेंपाए दे रहा था। ऐसी छाती पीटे! सारे गांव में लोग खुसर-पुसर करने लगे कि बात
क्या है! पत्नी किसकी थी? यह जरा हाथ मारे ले रहा है!
आखिर
मुल्ला से भी न रहा गया। मुल्ला उसके पास गया और बोला, भैया,
न रो! मैं फिर विवाह करूंगा। इतना दुख न हो। अब जो हो गया सो हो
गया। अभी मैं जिंदा हूं, फिर विवाह करूंगा। तू काहे दुख मना
रहा है।
तो
मैंने कहा, श्रद्धा रखो, फिर देगा। देने वाला...उसके हाथ हजार
हैं।
वहां
और भी लोग बैठे थे वे भी थोड़े हैरान हुए कि बात क्या है। सन्नाटा छा गया। वे सज्जन
मुझसे बोले कि आप अभी जाइए,
मैं खुद ही जाऊंगा चर्चा करने आपके यहां। अभी इस दुख की घड़ी में
मुझे और मत सताओ।
यह
सब बूंदाबांदी में बह जाएगा ज्ञान।
ओम, तुम पूछते
हो: प्रभाव से या स्वभाव से?
प्रभाव
तो दो कौड़ी का है। प्रभावित ही होना गलत बात है। भक्ति होगी तो भक्ति के भीतर कुछ
और छिपा होगा। बस लेबल भक्ति का होगा। और भीतर क्या होगा, कहना
मुश्किल है। ज्ञान होगा तो बस तोतों जैसा ज्ञान होगा। उसका कोई ज्यादा मूल्य नहीं
हो सकता। और कर्म होगा, तो तुम करोगे, लेकिन
इसी आशा में कि अब मिला स्वर्ग। अहा! बस अब ज्यादा देर नहीं। कितनी तो सेवा कर
चुके! राह ही देखते रहोगे कि अब परमात्मा आ ही रहा है। बस उतरेगा स्वर्ग से पुष्पक
विमान, बिठाएगा पुष्पक विमान में और ले जाएगा। सदेह है।
स्वर्ग होने वाला है।
कर्म
करोगे तो वासना-लिप्त होगा। लोग कर रहे हैं कर्म--इसी आशा में। सेवा कर रहे
हैं--इसी आशा में कि मेवा मिलेगा। गरीबों के पैर दाब रहे हैं--इस आशा में कि जरा
थोड़े दिन की बात है,
दाब लें, फिर तो सदा-सदा के लिए देवी देवता
दाबेंगे पैर।
यह
कोई सेवा है?
यह कोई कर्म है? जब तक निष्काम न हो कर्म,
तब तक कर्म नहीं है, तब तक तो बंधन ही है। और
यह तो कामना ही आ गई पीछे से, पीछे के द्वार से।
और
ज्ञान तो हर-एक की जबान पर ही रखा हुआ है। जिससे पूछो इस देश में, वही
ब्रह्मज्ञानी है। यहां आदमी खोजना मुश्किल है जो ज्ञानी न हो। तुम किसी से भी पूछ
लो कि भई, तुम अज्ञानी हो? वह फौरन
कहेगा: तुमने मुझे समझा क्या है? इस भारत पुण्य-भूमि में
अज्ञानी पैदा होते हैं? यहां तो बस ज्ञानी पैदा होते हैं।
यहां से लोग पैदा होते से ही एकदम वेदों का उच्चार करते हुए आते हैं। वे मां के
पेट में ही पूजा-पाठ शुरू कर देते हैं।
इस
देश में तो हर-एक ज्ञानी है। ज्ञान के अंबार लगे हैं। सस्ती बात है। ज्ञानी होने
में रखा क्या है,
दिक्कत क्या है, अड़चन क्या है? चार-छह किताबें पढ़ लीं कि ज्ञानी हो गए। आदमी दस किताबें पढ़ ले और एक
किताब तैयार कर दे--ग्यारहवीं किताब तैयार हो गई। और तुम महापंडित हो जाओगे। और
लोग तुम्हारी चर्चा करने लगेंगे।
मेरे
पास ऐसे लोग आते हैं जिन्होंने ध्यान पर किताबें लिखी हैं और जिन्होंने कभी ध्यान
नहीं किया। मैं उनसे पूछता हूं, ध्यान किया है? वे कहते
हैं, नहीं, किताब लिखी है।
किताब
कैसे लिखी है?
किताब
लिखने में क्या दिक्कत है?
शास्त्रों में सब लिखा ही हुआ है।
तो
तुमने यह भी पता लगाया कि जिन्होंने शास्त्र लिखा था उन्होंने भी ध्यान किया था, कि
उन्होंने भी और शास्त्र पढ़ कर लिख दिया था?
यह
धंधा बड़े धोखे का है। और ऐसी सुंदर किताबें लिखते हैं, ऐसा बारीक
विश्लेषण करते हैं शब्दों का, कि किसी को भी धोखा आ जाए कि
बात जान कर कही जा रही होगी।
आचार्य
तुलसी प्रसिद्ध जैन मुनि हैं, सात सौ उनके जैन साधु हैं। वे मुझे मिले,
बुलाया मुझे, तो मैं गया। कहा, एकांत में मिलना है। मैंने कहा, एकांत की क्या फिक्र?
आपके इतने शिष्य इकट्ठे हुए हैं, इनके सबके
साथ ही सामने ही वार्ता होगी तो इनको भी लाभ हो जाएगा।
उन्होंने
कहा कि नहीं,
बिलकुल अकेले में मिलना है। अकेले में मिले, तब
मैं समझा कि अकेले में क्यों मिलना है! अकेले में इसलिए मिलना है कि वे पूछने लगे
कि ध्यान के संबंध में कुछ बताइए, ध्यान कैसे करूं? मैंने कहा कि आप साधु हुए, मुनि हुए, आचार्य हुए, अब तो सात सौ साधुओं के संघ के गुरु हैं
आप--और आपको ध्यान अभी तक हुआ नहीं? ध्यान आपने अब तक किया
नहीं? अभी पूछ रहे हैं कि ध्यान कैसे करना!
नहीं-नहीं, मैंने कहा,
आप मजाक कर रहे होंगे। छोड़िए कुछ और बात करिए।
उन्होंने
कहा कि नहीं-नहीं,
इसीलिए आपको बुलाया है। मुझे ध्यान के संबंध में समझाइए, मैं ध्यान करना चाहता हूं।
अब
ध्यान तो पहली शर्त होनी चाहिए साधु होने की। लेकिन साधु ही नहीं, ये साधुओं
के आचार्य हैं, ये साधुओं के गुरु हैं। सात सौ साधुओं का बड़ा
संघ है। उनको क्या करवा रहे होंगे ये? इनको खुद ही कुछ पता
नहीं। लेकिन प्रवचन ध्यान पर देते हैं, किताबें ध्यान पर
लिखी जाती हैं। इनके साधु भी प्रवचन ध्यान पर देते हैं। इनके दो साधु उन्होंने
मेरे पास भेजे, कि मैं भेजता हूं दो साधु आपके पास, कि इनको आप ठीक से ध्यान करना सिखा दें, फिर ये मुझे
सिखा देंगे और और साधुओं को भी सिखा देंगे।
वे
दो साधु आए ध्यान के लिए। सीधे-साधे लोग थे। मगर बोले, एक बात भर
की प्रार्थना है...क्योंकि आप कहते हैं ध्यान के पहले आंख पर पट्टी बांधो, फिर हमारी कोई फोटो न उतारे। क्योंकि आचार्य जी ने कह दिया है कि फोटो
वगैरह कोई उतार ले और छप जाए तो बदनामी होगी, कि जैन मुनि और
ध्यान सीखने गए।
मैंने
कहा, फोटो तो उतरेगी। मुझे तो खयाल ही नहीं था, तुमने ही
याद दिला दिया। अब तो ध्यान अगर करना हो तो फोटो उतरेगी। करना हो करो, नहीं करना हो तो नमस्कार।
उन्होंने
कहा, हम इतने दूर से पैदल चल कर आए हैं। सैकड़ों मील की यात्रा करके आए थे। तो
मैंने कहा, फिर फिक्र छोड़ो फोटो की। ध्यान किया उन्होंने
पंद्रह दिन ध्यान करते थे। मजबूरी थी। मैंने कहा कि फोटो तो उतरेगी। और तुम बीच-बीच
में पट्टी उठा कर देखना भी मत कि फोटो उतर रही है कि नहीं। नहीं तो ध्यान सब गड़बड़
हो जाएगा। तुम ध्यान में ही लगो। जिसको फोटो उतारनी है वह अपना काम करेगा।
उनको
भय एक ही सताया रहा। रोज कहें कि फोटो उतरी तो नहीं है अभी तक? उतरी हो
तो आप कृपा करके उसको छिपा लेना, कहीं जाहिर न हो।
मैंने
कहा, मत फिक्र करो, मत चिंता करो। तुम ध्यान में लगो,
नहीं तो इतनी सी बात ही अड़चन हो जाएगी।
ऊपर
का आचरण तो सब सीख लिया--कितने वस्त्र, कैसे उठना, कैसे
बैठना, पिच्छी-कमंडल, वे सब तो सीख
लिए। उनमें कोई अड़चन नहीं है। मगर अंतर तो अंधेरे का अंधेरा रहेगा।
कर्म
तुम्हें बांधेगा,
अगर अनासक्त न हो। और कर्म अनासक्त तभी होता है जब ध्यान से
आविर्भूत होता है।
और
ध्यान अनुकरण नहीं है;
ध्यान स्वभाव में ठहर जाने का नाम है। ध्यान स्वभाव में रम जाने का
नाम है। स्वरूप-रमण है। और तुम्हारा ज्ञान भी तभी तुम्हारा ज्ञान होगा, जब तुम्हारे भीतर से जगेगा; जब तुम देखोगे, जब तुम पहचानोगे, जब तुम गवाह बनोगे कि हां, आत्मा है! शास्त्रों का उद्धरण नहीं--मेरा अनुभव! जब तुम कह सकोगे कि
मैंने जाना, मैंने अनुभव किया, मैंने
पीया--तभी तुम्हारा ज्ञान सच्चा होगा। तब तुम गीता होओगे, तुम
कुरान होओगे, तुम वेद, तुम उपनिषद। तुम
जो कहोगे वही उपनिषद होगा। तुम बोलोगे तो सत्य और तुम चुप रहोगे तो तुम से सत्य
झरेगा। तुम्हारे मौन से भी झरेगा। तुम्हारे शब्द भी सत्य की भनक लिए होंगे। और
तुम्हारे मौन में भी सत्य की ही थिरक होगी। और तब तुम्हारी भक्ति में एक आह्लाद
होगा, एक आनंद होगा, एक महोत्सव होगा,
एक महा रास होगा। तब तुम्हारी भक्ति ऐसी भक्ति नहीं होगी जैसी
तुम्हें दिखाई पड़ती है मंदिरों में, मस्जिदों में चल रही है।
लोग कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं, उन्हें पता नहीं। उनके
बाप-दादे करते रहे, इसलिए वे भी कर रहे हैं। लकीर के फकीर
हैं। डरते हैं कि अगर नहीं की तो कहीं कुछ खतरा न हो जाए, कोई
नुकसान न हो जाए। इसलिए किए चले जाते हैं। क्या हर्जा है, सोचते
हैं, कर ही ली तो। अगर परमात्मा हुआ तो कहने को रह जाएगा कि
भक्ति की थी और नहीं हुआ तो बात ही खतम हो गई; चलो थोड़ा समय
खराब हुआ, तो ऐसे ही ताश खेलने में जाता है, सिनेमा देखने में जाता है। और फिर भक्ति करने से, मंदिर
जाने से, मस्जिद जाने से प्रतिष्ठा मिलती है, समाज में सम्मान मिलता है। यह लोगों की राजनीति का ही हिस्सा हो गया है।
तुम्हें
लोग धार्मिक समझें तो उससे एक लाभ है। वह लाभ यह है कि तुम लोगों को आसानी से लूट
सकते हो, क्योंकि लोग समझते हैं कि तुम धार्मिक हो, तुम कैसे
लूटोगे?
मुल्ला
नसरुद्दीन पर अदालत में मुकदमा था कि उसने गांव के सबसे सीधे-सादे आदमी को धोखा
दिया। उसका सारा पैसा हजम कर गया। वह इतना सीधा आदमी था, जिसको
उसने लूटा कि सारे गांव में उसकी निंदा हुई। न्यायाधीश ने भी कहा कि नसरुद्दीन,
तुम्हें शर्म न आई इस सीधे-सादे आदम को लूटते हुए?
नसरुद्दीन
ने कहा, शर्म क्यों नहीं आई, अरे बहुत शर्म आई! मगर इसके
सिवा किसको लूटें? और तो इस गांव में सब मुझसे भी ज्यादा
बदमाश हैं। यही एक बेचारा है। दया तो मुझको भी इस पर आती है, मगर यही एक बेचारा है जिसको मैं लूट सकता हूं। बाकी तो मुझको लूट रहे हैं।
अब आप ही कहो, मैं किसको लूटूं? शर्म
आती है। शर्म से सिर झुक जा रहा है। मगर यही एक आदमी है, इसको
ही लूट सकता हूं।
सीधा-सादा
आदमी लुटेगा;
चालबाज आदमी लूटने के सब हिसाब कर लेता है। उसमें एक हिसाब यह भी है
कि धार्मिक होने की प्रतिष्ठा हो, तो भक्ति-भाव करता है,
अखंड कीर्तन करवा देता है, रामायण पढ़वा देता
है, शतचंडी यज्ञ करवा देता है, संतोषी
मैया की जय बुलवा देता है। क्या-क्या खोजते हैं लोग--ढांढन सती मैया की झांकी!
अभी
एक सज्जन रोज-रोज प्रश्न लिखते हैं कि आप महावीर का नाम लेते हैं, बुद्ध का
नाम लेते हैं, कृष्ण का नाम लेते हैं; जिम्भेश्वर
महाराज का नाम क्यों नहीं लेते? ये जिम्भेश्वर महाराज कौन
हैं--ढांढन सती के पति? मैंने खुद ही नहीं सुना तो मैं क्या
लूं! अब ये जिम्भेश्वर महाराज के कोई भक्त यहां मौजूद हैं!...लोगों को सत्यनारायण
की कथा करवा देंगे, प्रसाद बंटवा देंगे, कन्याओं को भोजन करवा देंगे। इससे प्रतिष्ठा बनती है, हवा बनती है। गांव के लोग कहते हैं: अहा, कितना
धार्मिक व्यक्ति है! फिर तुम उनकी जेब आसानी से काट सकते हो। फिर वे कटवा लेंगे:
अरे, धार्मिक आदमी है, काट लेने दो।
भले के लिए ही काट रहा होगा, अपने हित के लिए ही काट रहा
होगा। जेब में कुछ खराबी होगी, इसलिए काट रहा है। जेब भारी
होगी, अपने को हलका करने के लिए काट रहा है।
एक
आदमी के बाबत मैंने सुना है, जौहरी था। बड़ा भक्त था। वह खुद तो काम ही नहीं
करता था, वह तो बैठा हुआ माला जपता रहता था। कभी कहे हरि-हरि,
कभी कहे राम-राम। लेकिन वे सब सूचनाएं थीं। उसके जो मुनीम वगैरह काम
करते थे, उनके लिए सूचनाएं थीं। जब वह कहता राम-राम तो उसका
मतलब था कि जाने दो--बेकाम! बेकार मेहनत न करो इसके साथ। वह अपनी माला जपता रहे,
कहे राम-राम, जाने दो! मतलब यह है कि जय राम
जी करो इससे। जब कहे हरि-हरि तो लूटो! हरि का मतलब होता है: लूटो! हरि शब्द का
अर्थ होता है: हरण करो। छोड़ो मत, यह मछली निकल न जाए।
ये
उसके प्रतीक थे। मगर लोग कहते थे वाह, क्या धार्मिक पुरुष है। वह तो कभी
दुकानदारी करता ही नहीं था; वह तो अपना दूर बैठा रहे,
माला जपता रहे, बस देखता रहे। पुराना जीवन भर
का अनुभव। एक-एक को पहचाने वह। तो मुनीम को इशारा बना रखा था उसने कि जब मैं
राम-राम कहूं तो खिसका देना और जब कहूं हरि-हरि तब लाख भागना चाहे, भागने मत देना, हर तरह फांस लेना।
तुम
अगर भक्ति भी करोगे,
तो झूठी होगी, धोखे की होगी।
उधार
पर विश्वास मत करो;
स्वानुभव के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
इसलिए
ओम, मैं तुमसे कहूंगा: प्रभाव से बचो। स्वभाव को तलाशो। मेरी तुम सुन रहे हो,
मेरी सुन कर भी तुम दो में से कुछ भी एक कर सकते हो। या तो मेरी
बातों से प्रभावित हो जाओ तो बस तुम मेरी बातें दोहराने लगो। वह तोतापन हुआ।
यहां
मेरे पास भी तोते हैं! तोतों से तुम बच ही नहीं सकते। सारा देश तोतों से भरा है।
करोगे भी क्या! वे सिर्फ दोहराते हैं। वे यहां भी हैं। लोग उनसे भी पूछने लगते
हैं। अगर मैं नहीं मिल पाऊं तो लोग तोतों के पास चले जाते हैं। वे कहते हैं कि चलो
तोताजी महाराज से पूछ लें! और तोते हैं, तो वे ढंग से बैठ जाएंगे बिलकुल
पद्मासन में, आंखें ऊपर की तरफ चढ़ा लेंगे। पहले कुछ
अंदर-अंदर जाएंगे...तो और प्रभाव पड़ता है कि भई ठीक, फिर कुछ
रहस्य भरी बातें कहेंगे। रहस्य भरी बात का क्या मतलब होता है? कुछ भी उलटी-सीधी बात कहो तो रहस्य भरी। उलटबांसी होनी चाहिए, तो रहस्य भरी। लोगों की समझ में न आए तो रहस्य भरी। समझ में न आए तो लोग
समझते हैं कि बड़ी कीमत की!
तोते
तो कहीं भी उपलब्ध हो सकते हैं। बस उनकी कला इतनी ही है कि वे स्मरण कर लेंगे, शब्द-शब्द
स्मरण कर लेंगे। ठीक वैसा का वैसा दोहरा देंगे। लेकिन उनमें बुद्धिमत्ता नहीं
होती। शायद तोतों में भी थोड़ी ज्यादा बुद्धिमत्ता होती है।
मैंने
सुना है, एक पंडित खरीदने गया तोता। दुकान पर बहुत तोते देखे। पंडित था तिलकधारी,
चुटैयाधारी, तो दुकानदार ने कहा कि आपके लिए
एक विशेष तोता है, पीछे के कमरे में आएं। बड़ा पंडित है,
बड़ा ज्ञानी, धार्मिक! पंडित भी गया, देख कर दंग हुआ, तोता रामनाम की चदरिया ओढ़े बैठा है!
हाथ में माला थी। गायत्री मंत्र बोल रहा है। पंडित ने कहा, यह
तोता है...है ज्ञानी! मगर यह गायत्री मंत्र बोले, इसके लिए
क्या करना होता है? तो उस दुकानदार ने कहा, इसकी सरल तरकीब है। इसके बाएं पैर में एक धागा बंधा है, बिलकुल जरा सा धागा, किसी को दिखाई भी न पड़े। आप जरा
सा धागा खींच देना, बस इसको इशारा मिल गया कि यह गायत्री
मंत्र बोलता है।
उसने
पूछा कि और भी यह कुछ जानता है, उसने कहा कि हां इसके दाएं पैर में भी एक धागा
बंधा हुआ है। अगर वह आप खींच दो तो यह नमोकार मंत्र बोलता है। हमने इसको ऐसा तैयार
किया है कि हिंदू चाहे हिंदू खरीद लें, जैन चाहे जैन खरीद
लें और कोई अल्ला-ईश्वर तेरे नाम वाले आ जाएं, सर्वधर्म
समभाव वाले आ जाएं, तो उनके तो पूरा ही काम का है। गायत्री
बुलवा लो, ओंकार, सतनाम बुलवा लो,
नमोकार बुलवा लो, सब इंतजाम कर दिया है। ये
धागों का खयाल रखें।
और
पंडित ने पूछा कि अगर इसके दोनों धागे एक साथ खींच दिए जाएं, तो तोता
बोला, उल्लू के पट्ठे! मैं नीचे न गिर पडूंगा? तोतों में भी कुछ अकल होती है। पंडितों में इतनी भी अकल नहीं होती--दोनों
तुम खींच दोगे तो बेचारा गिर ही पड़ेगा। वह ठीक ही बोला। उसने कहा, यह कृपा करना, दोनों मत खींच देना। नहीं तो ऐसी
सुनाऊंगा कि छठी का दूध याद आ जाएगा। फिर गायत्री-वायत्री नहीं, फिर शुद्ध गालियां।
ज्ञान
तोता-रटंत होगा। भक्ति थोथी होगी, ऊपरी होगी। कर्म भी अकर्म नहीं हो सकता। लेकिन
स्वभाव की तलाश कैसे करें?
स्वभाव
की तलाश की पहली तो शर्त यह है कि तुमने जो भी सीख लिया है, उसे विदा
करो
रमण
महर्षि के पास एक जर्मन दार्शनिक आया और उसने कहा कि मैं सत्य के संबंध में कुछ
सीखने आपके पास आया हूं दूर देश से। रमण महर्षि ने कहा कि अगर सीखने आए हो तो कहीं
और जाओ। अगर मेरे पास रुकना है तो पहले तो तुम जो जानते हो उसको अनसीखा करना
पड़ेगा। तुम जो जानते हो सब छोड़ो, क्योंकि तुम अभी कुछ नहीं जानते। अभी सिर्फ
भ्रांति है जानने की। यह कूड़ा-करकट हटाओ, खाली करो अपने को,
स्वच्छ करो, निर्मल करो। निर्दोष हो जाओ बच्चे
की भांति। फिर कुछ हो सकता है।
तो
ओम, पहली तो बात यह है: अगर किसी को स्वभाव की तलाश करनी हो तो जो दूसरों ने
सिखाया हो, उस सबको विदा कर दो। उसमें कई बातें बड़ी
हीरे-जवाहरात जैसी लगेंगी, दिल होगा कि बचा लें। मगर जो उधार
है वह हीरा भी हो तो नकली है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने एक हीरे की अंगूठी अपनी प्रेयसी को दी। बड़ा हीरा! प्रेयसी ने
देखा--ऐसी चमक,
सूरज में जैसे इंद्रधनुष फूट रहा हो! लेकिन इतना बड़ा हीरा यह मुल्ला
ले कहां से आया! उसने पूछा कि हीरा असली है न? मुल्ला ने कहा
कि अगर असली न हुआ तो मेरे दो रुपये बेकार गए।
दो
रुपये में खरीद लाए हैं असली हीरा! और इतना बड़ा हीरा और कहा कि अगर असली न हुआ, सिर फोड़
दूंगा उसका जिससे दो रुपये में खरीदा है। बच्चू भाग कर कहां जाएंगे! इसी गांव में
रहते हैं। सब पता-ठिकाना पक्का कर लिया है, तब खरीदा है। अगर
तू जानती हो कुछ हीरे के संबंध में तो बता या किसी और को पता हो तो पूछ कर बता।
हीरा असली होना ही चाहिए--दो रुपये में खरीदा है।
अब
दो रुपये में आजकल कंकड़ भी नहीं मिलता। असली कंकड़ तो नहीं मिल सकता। हां, नकली कोई
कंकड़ मिल जाए, बात अलग। मगर ऐसा हो जाता है। तुम्हें पता न
हो तो सोहन से पूछना, माणिक बाबू से पूछना। वे दोनों मेरे
साथ काश्मीर में थे। और काश्मीर में तो पत्थर होते हैं चमकदार। चार-छह आने की कीमत
भी नहीं होती उनकी। उसमें चमक खूब होती है! चमक ऐसी होती है कि लगे कि हजारों के
होंगे। एक आदमी बेचने आया। उसने कहा कि किसी के पंद्रह रुपये दाम, किसी के बारह रुपये दाम। माणिक बाबू तो बहुत प्रभावित हुए। और माणिक बाबू
को पत्थरों से लेना-देना भी क्या! उनकी पहचान तो गुड़ की है। अब गुड़ का
हीरे-जवाहरात से क्या लेना-देना? उन्होंने कहा, पंद्रह रुपये में असली हीरे मिल रहे हैं, जवाहरात
मिल रहे हैं। माणिक-मोती! नाम ही है उनका माणिक बाबू, हालांकि
माणिक वगैरह से उनका लेना-देना क्या? मगर जब यह पंद्रह कह
रहा है तो कहीं लूट न ले, तो सोच कर कहा कि भई कुछ कम करो।
उसने कहा, अच्छा बारह। जब वह कम करने लगा तो उन्हें कुछ समझ
में आई कि और भी कम कर सकता है। भई कुछ कम करो, यह ज्यादा
दाम मालूम होता है। मगर दिल में वे बहुत प्रसन्न हुए कि हद हो गई! वह दस में देने
को राजी हो गया, तो उनका भी मोह बढ़ा। मैं भी वहीं बैठा हुआ
था। तो उस पत्थर वाले ने कहा कि बाबा जो कह दें...। अब दस रुपये में कोई असली
हीरे-जवाहरात तो मिलते नहीं। तो मैंने भी सोचा और मुझे भी कुछ असली-नकली
हीरे-जवाहरात का पता नहीं। तो मैंने भी सोचा कि मध्य मार्ग ठीक रहेगा। मैंने कहा
कि भई न दस ठीक है, यह थोड़ा ज्यादा मालूम पड़ता है, तू आधा कर ले, पांच। पांच रुपये के हिसाब से।
उसने
कहा, अब आपने आज्ञा दे दी तो बिलकुल ठीक। माणिक बाबू तो बहुत खुश हुए। उन्होंने
खरीद लिए, कोई चालीस-पचास पत्थर खरीद लिए, कि पूना में सब मित्रों को बांट देंगे, परिवार के
प्रियजनों को बांट देंगे, लायंस और रोटेरियंस सबको बांट
देंगे। खुश हो जाएंगे लोग, कि क्या गजब की चीज ले आए हो! और
वह तो बड़ा ही प्रसन्न हुआ, पांच-पांच रुपये में बेच कर वह तो
नदारद हो गया। और दूसरे दिन वही आदमी आठ-आठ आने में बेच रहा था। आखिरी दिन तक तो
चार-चार आने में बिक्री होने लगी। तब बेचारे माणिक बाबू पर जो गुजरी सो गुजरी। वे
कहने लगे कि इसने बड़ा लूटा!
मैंने
कहा, तुम्हें किसी को कहने की जरूरत ही क्या है? पूना में
किसको पता है? तुम तो पूना में यूं ही बांटना कि हजारों के
हैं। अरे जब तुम नहीं पहचान सके तो और भी बाकी क्या पहचानेंगे!
नकली
चीजें सस्ती पड़ जाती हैं। मगर नकली चीजें असली होने का धोखा दे सकती हैं। प्रभाव
से जो भी मिलता है,
सब नकली है। स्वभाव से जो मिलता है वही असली है। तुम्हारे भीतर खदान
है असली हीरे-जवाहरातों की और तुम कंकड़-पत्थरों में उलझे रहोगे! चमकदार पत्थर,
मगर पत्थर पत्थर है।
नहीं
ओम, भक्ति, ज्ञान और कर्म तुम्हारे भीतर से आविर्भूत
होने चाहिए। और उनके आविर्भूत होने का एक ही उपाय है: शांत बनो, मौन बनो, शून्य बनो। ये शून्य के फूल हैं। ये तीनों
फूल एक साथ खिलते हैं। यह बात भी समझ लेने जैसी है, क्योंकि
आमतौर से तुम्हें समझाया गया है कि ये तीनों अलग-अलग चीजें हैं। कोई भक्तिमार्गी
होता है। कोई ज्ञानमार्गी होता है। कोई कर्ममार्गी होता है। यह बात झूठ है। हां,
अगर प्रभाव से तुमने सीखा तो ये तीनों अलग-अलग होते हैं। लेकिन अगर
स्वभाव से इनका अनुभव हो, तो ये तीनों एक साथ आविर्भूत होते
हैं। ये एक ही फूल की तीन पंखुड़ियां हैं।
ऐसा
हो ही नहीं सकता कि जिसके जीवन में भक्ति हो उसके जीवन में ज्ञान हो, नहीं तो
भक्ति का मूल्य ही क्या है? और ऐसा कैसे हो सकता है कि जिसके
जीवन में ज्ञान हो उसके जीवन में प्रार्थना न हो? असंभव! और
ऐसा कैसे हो सकता है कि जिसके जीवन में ज्ञान हो, प्रेम हो,
भाव हो और उसके जीवन में करुणा न हो? उसके
जीवन में कर्म न हो, यह असंभव है।
गीता
की तीन तरह की टीकाएं लिखी हैं लोगों ने। कुछ ने टीकाएं लिखी हैं, वे हैं
ज्ञानमार्गी; जैसे शंकराचार्य। वे गीता में बस ज्ञान को ही
घुसेड़ते जाते हैं। हो या न हो, उसकी उन्हें फिक्र नहीं है।
हर हालत में वे सिद्ध कर देते हैं कि ज्ञान ही है गीता में, बस
ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है। संसार माया है और ब्रह्म सत्य है--वह गीता में भी सिद्ध
कर देते हैं। और कुशलता से सिद्ध कर देते हैं।
और
भक्तिमार्गी हैं--रामानुज--वे उसी में भक्ति सिद्ध कर देते हैं। वही सूत्र, वही गीता।
ज्ञान तिरोहित हो जाता है, भक्ति आ जाती है। और लोकमान्य
तिलक वहीं कर्म सिद्ध कर देते हैं--न भक्ति न ज्ञान, दोनों
को अलग कर देते हैं। सबके ऊपर कर्म। यह संभव हो पाता है इसीलिए, क्योंकि कृष्ण के वचन स्वानुभूत हैं। उनमें तीनों की गंध है। तुम जिस गंध
को चाहो उसको पकड़ लो और तुम जिस गंध को पकड़ लोगे वही गंध तुम्हें सब तरफ दिखाई
पड़ने लगेगी, अनुभव में आने लगेगी। तुम उसी से आपूरित हो
जाओगे।
लेकिन
जो व्यक्ति स्वानुभव से जानेगा वह कहेगा कि ये तीनों बातें एक साथ घटती हैं; यह असली
संगम है। प्रयाग नहीं है असली तीर्थराज। असली तीर्थराज तुम्हारे भीतर है, जहां भक्ति, ज्ञान और कर्म मिलते हैं और जहां तीनों
एक-दूसरे में लीन होते हैं। यह असली त्रिमूर्ति है--ब्रह्मा, विष्णु, महेश नहीं--जहां भक्ति, ज्ञान और कर्म तीनों एक साथ, एक स्वर में नाचते हैं,
एक स्वर में लयबद्ध होते हैं।
लेकिन
यह प्रभाव से नहीं होगा,
यह स्वभाव से ही हो सकता है।
औरों
से बचो, क्योंकि यहां हर व्यक्ति उत्सुक है कि तुम उससे प्रभावित हो जाओ, क्योंकि प्रभाव दूसरों का शोषण करने का एक ढंग है, दूसरों
को गुलाम बनाने का एक ढंग है। प्रभाव दूसरों के मालिक होने की एक प्रक्रिया है। और
यहां हर आदमी दूसरों का मालिक होना चाहता है। तुम्हें अपनी स्वतंत्रता की रक्षा
करनी होगी। तुम्हें होशपूर्वक सजगता से अपनी रक्षा करनी होगी। यहां सब तरफ धोखाधड़ी
चल रही है। और बड़ी से बड़ी धोखाधड़ी तो यह है कि तुम्हारे हित में ही लोग तुम्हारी
छाती पर चढ़ जाते हैं। वे कहते हैं: तुम्हारे हित में ही तुम्हारी छाती पर चढ़े हुए
हैं। तुम्हारे हित में ही तुम्हारी गर्दन काट रहे हैं। तो तुम ना-नुच भी नहीं कर
सकते, तुम इनकार भी नहीं कर सकते। अच्छे-अच्छे संस्कार लोग
डाल रहे हैं तुम पर।
कोई
संस्कार अच्छा नहीं होता,
क्योंकि संस्कार मात्र गुलामी लाता है। संस्कार मात्र जंजीरें हैं।
फिर जंजीरें सोने की भी हों तो क्या फर्क पड़ता है? लोहे की
हों तो क्या फर्क पड़ता है? जंजीरें जंजीरें हैं। और जंजीरों
से मुक्त होना है।
एक
नया-नया आदमी पुलिस की नौकरी में भर्ती हुआ। इंस्पेक्टर ने उससे कहा कि जरा सम्हल
कर, होशियारी रखना। यह गांव चालबाजों का है, बदमाशों का
है। यहां हर आदमी धोखाधड़ी करता है।
उसने
कहा, आप बेफिक्र रहें। जब आपने सूचना दे दी तो मैं बिलकुल सजग रहूंगा।
पहले
ही दिन अपनी डयूटी पर तैनात था तो वह सजग रहा, मगर सजगता उधार ही थी, बासी ही थी। कहा था उसको उसके अधिकारी ने कि जरा होश रखना, कोई धोखाधड़ी न कर जाए। वह तलाश में ही था कि कोई शिकार मिले। स्वभावतः
नई-नई डयूटी लगी थी, ऐसे ही खाली हाथ लौट जाए थाने तो लोग
क्या कहेंगे कि दे गए लोग धोखा! तभी उसने देखा कि एक आदमी बिना बत्ती जलाए साइकिल
पर सवार चला आ रहा है। दिल उसका खुश हो गया। बड़ी उत्सुकता से पुलिसवाले ने नोट-बुक
निकाली, कार्बन पेंसिल को मुंह में गीला करके लिखते हुए पूछा,
तुम्हारा नाम क्या है? उस आदमी ने कहा,
रमेशचंद्र। बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो, पुलिसवाला
बोला। मैं बहुत टेढ़ा आदमी हूं, समझे! जल्दी से अपना सही नाम
बोलो। तो उस आदमी ने कहा, इदी अमीन। पुलिसवाले ने कहा,
यह ठीक मालूम होता है। तुम समझते थे मैं रमेश-वमेश के चक्कर में आने
वाला हूं!
उधार
बात कितनी दूर तक साथ जाए...। अब यहां कहां इदी अमीन! मगर रमेश-वमेश के चक्कर में
वह आने वाला नहीं है। वह तो तय ही बैठा हुआ है कि मुझे कोई धोखा न दे जाए। जरूरत
से ज्यादा होशियारी दिखाने की कोशिश में है। उसी में बुद्धू बन गया।
स्वभाव
से जो भी जागरूक होता है उसमें एक सम्यकत्व होता है, एक समता होती है, अतिशयता नहीं होती। न वह अतिशय इस तरफ झुका होता है न उस तरफ झुका होता
है। उसके जीवन में एक संगीत होता है। और संगीत में सौंदर्य है।
मैं
तो जीवन को संगीतपूर्ण बनाने को ही संन्यास कहता हूं। जीवन संगीत बने, उत्सव बने,
वसंत बने--तो ही जानना कि तुमने धर्म को पहचाना, तुम्हें कुछ स्वाद लगा। लेकिन धार्मिक आदमी बड़े उदास दिखाई पड़ते हैं,
बड़े हताश दिखाई पड़ते हैं, बड़े रूखे-सूखे,
मुर्दा मालूम होते हैं। पतझड़ दिखाई पड़ती है उनके जीवन में, वसंत तो नहीं। और यह सबूत है कि कहीं कुछ भूल हो गई है, कहीं कुछ बुनियादी भूल हो गई है।
ओम, प्रभाव
में जी रहे हैं ये लोग। और प्रभाव में जी रहे हैं तो पतझड़ ही हाथ लगेगा, वसंत हाथ नहीं लग सकता। हां, प्लास्टिक के फूल चाहो
तो तुम लटका ले सकते हो। मगर प्लास्टिक के फूल फूल नहीं होते; न जीवन है उनमें, न प्राण हैं, न गंध है, न सौरभ है। न मधुमक्खियां आएंगी उन पर,
न भौंरे गीत गुनगुनाएंगे, न तितलियां उड़ेंगी।
तुम किसी को भी धोखा न दे पाओगे।
मस्ती
से भर कर जब कि हवा
सौरभ
से बरबस उलझ पड़ी
तब
उलझ पड़ा मेरा सपना
कुछ
नये-नये अरमानों में,
गेंदा
फूला जब बागों में
सरसों
फूली जब खेतों में
तब
फूल उठी सहसा उमंग
मेरे
मुरझाए प्राणों में,
कलिका
के चुंबन की पुलकन
मुखरित
जब अलि के गुंजन में
तब
उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल
मेरे
इन बेसुध गानों में,
ले
नई साध, ले नया रंग
मेरे
आंगन आया वसंत
मैं
अनजाने ही आज बना
हूं
अपने ही अनजानों में,
जो
बीत गया वह विभ्रम था
वह
था कुरूप, वह था कठोर
मत
याद दिलाओ उस कल की
कम
में असफलता रोती है।
जब
एक कुहासे सी मेरी
सांसें
कुछ भारी-भारी थीं
दुख
की वह धुंधली परछांहीं
अब
तक आंखों में सोती है।
है
आज धूप में नई चमक
मन
में है नई उठान आज,
जिससे
मालूम यही दुनिया
कुछ
नई-नई सी होती है।
है
आस नई, अभिलास नई
है
नव विकास की प्यास नई
नव
जीवन की रसधार नई
अंतर
को आज भिगोती है।
तुम
नई स्फूर्ति इस तन को दो
तुम
नई चेतना मन को दो
तुम
नया ज्ञान जीवन को दो
ऋतुराज
तुम्हारा अभिनंदन।
सुख
के प्रति कठिन विराग बनूं
अपने
प्रति अविकल त्याग बनूं
मैं
आग बनूं ऐसी कि जला दूं
अग-जग
का करुना क्रंदन।
संसृति
के प्रति अनुरक्ति बनूं,
जन
के प्रति श्रद्धा भक्ति बनूं
मैं
शक्ति बनूं ऐसी कि रच सकूं
पृथ्वी
पर नंदन कानन।
यह
नव वसंत का नव उत्सव
मन
मंदिर में मंगलमय हो
मानव
बन मैं मानवता का
क्या
आज कर सकूंगा वंदन?
मस्ती
से भर के जब कि हवा
सौरभ
से बरबस उलझ पड़ी
तब
उलझ पड़ा मेरा सपना
कुछ
नये-नये अरमानों में,
गेंदा
फूला जब बागों में
सरसों
फूली जब खेतों में
तब
फूल उठी सहसा उमंग
मेरे
मुरझाए प्राणों में,
कलिका
के चुंबन की पुलकन
मुखरित
जब अलि के गुंजन में
तब
उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल
मेरे
इन बेसुध गानों में
ले
नई साई ले नया रंग
मेरे
आंगन आया वसंत
मैं
अनजाने ही आज बना
हूं
अपने ही अनजानों में।
एक
वसंत की तलाश है। एक वसंत,
जो तुम्हारे प्राणों को फूलों से भर जाए! और आता है यह वसंत,
लेकिन कोई तुम्हें दे न सकेगा। ये बीज तुम्हें खुद ही अपने भीतर
बोने होंगे। यह खेती तुम्हें स्वयं ही अपने भीतर करनी होगी। यह बगिया तुम्हें
स्वयं ही अपने भीतर बनानी होगी। इसलिए बुद्ध ठीक कहते हैं: अप्प दीपो भव!
ओम, अपने दीपक
स्वयं बनो!
सच्चे
गुरु के पास प्रभाव नहीं दिए जाते, संस्कार नहीं दिए जाते, केवल संकेत दिए जाते हैं--अंतर्यात्रा के। सच्चा गुरु, सदगुरु तुम्हें अपने रंग-रूप में नहीं ढालता, बल्कि
तुम्हें तुम्हारी ही खोज में अनुप्राणित करता है, सहयोग देता
है कि तुम तुम हो सको। तुम्हें कुछ और बनाने की कोशिश नहीं करता।
यहां
पुराने ढब के संन्यासी आ जाते हैं। वे मुझसे कहते हैं कि आप अपने संन्यासियों को
आचरण सिखाएं--कब उठना--ब्रह्ममुहूर्त में; क्या खाना, क्या
पीना, कब सो जाना; कब प्रार्थना करनी,
कब पूजा करनी। आप अपने संन्यासियों को आचरण दें।
मैं
उनसे कहता हूं कि मेरा संन्यास आचरण देने का नहीं है। मेरे संन्यासियों को मैं
स्मरण दिला रहा हूं उनके स्वभाव का। फिर सब उन पर छोड़ देता हूं--उनकी स्वतंत्रता
पर। अब मैं उनको कहूं कि तुम ठीक पांच बजे उठ जाओ और पांच बजे किसी को न रुचता हो, क्योंकि
सभी के स्वभाव में जरूरी नहीं कि पांच बजे उठना रुचे।
मनोवैज्ञानिकों
ने बहुत खोज की है निद्रा के ऊपर और उनके नतीजे हैं ये कि सभी लोगों को एक समय पर
न तो सोना जमता है और न उठना जमता है। कुछ लोग हैं जो सुबह पांच बजे उठेंगे तो दिन
भर ताजा रहेंगे। और कुछ लोग हैं तो सुबह पांच बजे उठ आएंगे तो दिन भर बासे और उदास
और थकेऱ्हारे और टूटे-टूटे रहेंगे, उखड़े-उखड़े रहेंगे। तो नियम कोई
नहीं हो सकता।
मनोवैज्ञानिक
खोजों से एक सत्य पता चला है कि दो बजे रात और सात बजे सुबह के बीच दो घंटे के लिए
प्रत्येक व्यक्ति गहन निद्रा में प्रवेश करता है, जब सब स्वप्न खो जाते हैं।
वही दो घंटे असली नींद के घंटे हैं। उन्हीं दो घंटों में पुनरुज्जीवन मिलता है।
शरीर तरोताजा होता है। अंग-प्रत्यंग अपनी थकान मिटाते हैं। रोआं-रोआं फिर से नई
जीवन-धार से प्रवाहित होता है। एक-एक कण फिर से नया होता है।
लेकिन
वे दो घंटे सबके अलग-अलग हैं। किसी को दो बजे से लेकर चार बजे के बीच यह घटना घटती
है। और इसकी वैज्ञानिक जांच हो सकती है, क्योंकि उन दो घंटों में तुम्हारा
तापमान गिर जाता है, दो डिग्री नीचे गिर जाता है। तुम ठंडे
हो जाते हो। तुम्हारे भीतर स्वप्न भी नहीं रह जाते। इसलिए सब उत्ताप खो जाता है।
तुम्हारे भीतर विचार बिलकुल शून्य हो जाते हैं। उस शून्यता में तुम्हारा तापमान
गिर जाता है। तुमने देखा होगा, क्रोध में तुम्हारा तापमान बढ़
जाता है, रक्तचाप भी बढ़ जाता है। उत्तेजना में तुम्हारी
गर्मी बढ़ जाती है। उन दो घंटों में सारी उत्तेजना खो जाती है, तो तुम्हारा रक्तचाप भी कम हो जाता है, तुम्हारा
तापमान भी कम हो जाता है।
इसलिए
जांच की जा सकती है। चौबीस घंटे में से बाईस घंटे तुम्हारा एक तापमान होता है और
दो घंटे दो डिग्री कम हो जाता है। वही दो डिग्री कम तापमान का जो समय है, तुम्हारी
नींद का असली समय है। और यह सबका अलग-अलग है। जो व्यक्ति दो से चार के बीच इस गहरी
निद्रा में जाता है, वह चार बजे उठ आएगा तो तरोताजा होगा।
अगर वह चार बजे नहीं उठेगा तो बासा हो जाएगा। उसके लिए चार बजे उठना एकदम उचित है।
वही उसके लिए सम्यक क्षण है। उसे उठ ही आना चाहिए। अगर वह पड़ा रहा तो नींद का असली
वक्त तो गया, अब तो आलस्य है। और आलस्य में आदमी उदास हो
जाता है, सुस्त हो जाता है। वह करवट बदलेगा, फिजूल के सपनों में खो जाएगा, ऊलजलूल बातें सोचेगा।
सुबह तक उठते-उठते इतने उपद्रव कर लेगा अपने दिमाग के भीतर खड़े, कि वह जो ताजगी आई थी वह गई। उसे तो उठ आना चाहिए चार बजे।
मगर
यह सभी के लिए ठीक नहीं है। कोई चार से और छह के बीच उस गहरी नींद में जाता है और
कोई पांच से और सात के बीच उस गहरी नींद में जाता है। फिर उम्र के साथ भी यह बात
बदलती जाती है। एक व्यक्ति जीवन भर भी एक ही समय में थिर नहीं रहता। मां के पेट
में बच्चा चौबीस घंटे सोता है, पैदा होने के बाद तेईस घंटे सोता है, बाईस घंटे सोता है, बीस घंटे सोता है। धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे जवान आदमी आठ घंटे सोता है। बूढ़ा आदमी फिर पांच घंटे सोता
है, चार घंटे सोता है। और अगर कोई आदमी काफी लंबी उम्र तक
जीए, नब्बे के पार तक जीए, तो बस नींद
दो ही घंटे पर ठहर जाती है। वे असली दो घंटे रह जाते हैं हाथ में फिर, बाकी सब नींद की जरूरत नहीं रह जाती।
इसका
अर्थ यह हुआ कि कोई बंधी हुई धारणा काम नहीं करेगी। प्रत्येक को अपनी तलाश करनी
होगी। प्रत्येक को अपनी खोजबीन करनी होगी। तुम्हीं को देखना होगा--कई तरह से उठकर, महीने दो
महीने प्रयोग करके, कि कौन सा क्षण तुम्हारे लिए ठीक पड़ता
है। अगर मैं तय कर दूं तो वह क्या काम पड़ेगा? किसी के पड़ जाए
संयोगवशात। जैसे विनोबा के आश्रम में विनोबा तीन बजे उठते हैं, तो पूरा आश्रम तीन बजे उठना चाहिए। यह बात हिंसात्मक है। यह दूसरों के साथ
अनाचार है, बलात्कार है। विनोबा को ठीक होगा क्योंकि विनोबा
को नौ बजे नींद आ जाती है, वे नौ बजे सो जाते हैं। नौ बजे जो
आदमी सो जाएगा वह तीन बजे उठ आएगा। विनोबा की उम्र में छह घंटे पर्याप्त हैं,
पर्याप्त से ज्यादा हैं।
लेकिन
जवान बच्चे भी हैं,
कई उम्र के लोग हैं--उन सबको तीन बजे उठा देना! और फिर इनको दिन भर
नींद आएगी और नींद आए तो इनको तुम कहना कि तुम तामसी हो। और इनको भी जंचेगी बात कि
हम तामसी होने ही चाहिए, न मालूम किन जन्मों के पापों का फल
भोग रहे हैं कि ब्रह्ममुहूर्त में उठे हैं और दिन भर नींद आती है। तामसी वृत्ति
है। तामसी वृत्ति को कम कैसे करें? तो इनको बताना कि भोजन
बदलो, तुम तामसी भोजन कर रहे होओगे। दुग्धाहार करो। दूध ही
दूध पीओ, क्योंकि दूध जो है वह सबसे सात्विक आहार है।
अब
यह भी बड़े सोचने की बात है कि किसने तुम्हें कहा कि दूध सात्विक आहार है? कैसे
तुमने जान लिया कि दूध सात्विक आहार है? दूध तो मांसाहार और
शाकाहार के बीच में पड़ता है। यह आधा मांसाहार है, क्योंकि
दूध आता है रक्त और मांस से। यह शाकाहार तो निश्चित ही नहीं है। यह कोई झाड़ों में
नहीं लगता दूध। यह हड्डी-मांस-मज्जा की देह से निकलता है। जैसे अंडा निकलता है
वैसे ही दूध निकलता है। अंडे और दूध में कुछ फर्क नहीं है। और अब तो अंडे ऐसे
निकलते हैं जो शाकाहारी अंडे हैं, मगर अभी तक कोई शाकाहारी
दूध नहीं निकला है। शाकाहारी अंडे खा लेना भी उतना बड़ा पाप नहीं है जितना दूध पीना,
क्योंकि दूध तो एनीमल-फुड है, वह तो पशु से आ
रहा है। और तुम्हारे लिए बना भी नहीं था।
अब
जैसे गाय का दूध तुम पी रहे हो, वह बना था सांड के लिए। सांड के लिए जो चीज बनी
थी, उसको पीकर तुम सात्विक हो जाओगे? सांड
हो जाओगे! सात्विक कैसे हो जाओगे?
लेकिन
बंधी लकीरें लोग पीटे चले जाते हैं कि दूध सात्विक आहार है। तो जो आदमी दूध ही दूध
पीता है, उसको बड़ा सम्मान मिलता है। और जितना ज्यादा तुम दूध पीओगे उतनी कामवासना
होगी तुम्हारे भीतर, क्योंकि दूध कामवासना को जगाता है। दूध
बहुत कामुक भोजन है। और गाय का दूध पी रहे हो तो जितनी कामवासना सांड में होती
है...। तो तुम्हारे संन्यासी पुराने ढब के, अगर सांडों जैसे
हो जाते हैं तो कुछ हैरानी की बात नहीं।
मैं
काशी में ठहरा हुआ था,
तो मैंने, जिनके घर रुका था, उनसे पूछा कि काशी की प्रसिद्धि क्या है? उन्होंने
कहा कि तीन चीजों के लिए प्रसिद्ध है: सांड, रांड और भांड।
मैंने कहा, इसमें संन्यासी तो आए नहीं। उन्होंने कहा,
उनको सांडों में गिन लो। बात तो ठीक है। सात्विक आहार हो रहा है,
तो उसके दुष्परिणाम होंगे।
और
तुम जानते हो,
सिवाय आदमी के और कोई पशु एक उम्र के बाद दूध नहीं पीता। सभी पशु एक
उम्र के बाद दूध पीना बंद कर देते हैं, क्योंकि दूध जरूरत है
बचपन की। जब तक कि बच्चा पका नहीं है तब तक दूध की जरूरत है। जब बच्चा पक गया,
अब उसको दूध की कोई जरूरत नहीं। दूध जो जिंदगी भर पीता रहे, उसका मतलब यह हुआ कि तुम कुछ अप्राकृतिक कृत्य कर रहे हो। और हिंसा तो है
ही उसमें, फिर चाहे तुम बकरी का पीयो और चाहे तुम गाय का
पीयो, चाहे भैंस का पीयो, इससे क्या
फर्क पड़ता है? हिंसा उसमें है, क्योंकि
बकरी के बच्चे का छीन कर पी रहे हो।
जरा
किसी स्त्री का छीन कर पी लो उसके बच्चे का दूध, वह फौरन पुलिस में रिपोर्ट
कर देगी कि इस आदमी ने हमारा दूध पी लिया। अब बच्चा क्या करे? तो गाय-भैंसें बेचारी चुपचाप...और तुम भी खूब होशियार हो--गऊ माता! अरे वह
माता जिनकी है, उनको दूध पीने नहीं दे रहे--और तुम्हारी
माता! और कोई गऊ ने कभी तुमको बेटे की तरह स्वीकार किया नहीं, एक गऊ ने गवाही दी नहीं कि ये हमारे बेटे हैं। तुम्हें देख कर गौएं एकदम
लातें फटकारती हैं।
और
तुम देखते हो कि संन्यासी को देख कर सांड एकदम गुस्से में आ जाता है! लाल झंडी!
लाल झंडी से क्यों सांड इतना नाराज होता है? लाल झंडी उसे संन्यासियों की याद
दिलाती है कि ये चले आ रहे हैं दुग्धाधारी! नहीं तो लाल झंडी में क्या हर्जा था?
मैं बहुत सोचता था कि आखिर सांड लाल झंडी से क्यों एकदम बिचकता है!
फिर मुझे खयाल आया कि हो न हो, लाल झंडी इसको संन्यासी की
याद दिला देती है। इसको एकदम क्रोध चढ़ आता है कि इन्हीं दुष्टों ने...हमारा दूध
छीन-छीन कर पी गए। और गऊ-माता! माता तुमने ही बना लिया, माता
से पूछा ही नहीं, कि कुछ माता की भी गवाही होनी चाहिए।
तो
दिन भर नींद आए...तो तामसिक आहार कर रहे हो, तो दुग्धाहार करो। दुग्धाहार करोगे
तो कामवासना बढ़ेगी। कामवासना बढ़ेगी तो और मुसीबत। अब दमन करो। अब शीर्षासन करो,
उलटे खड़े हो जाओ--जिसमें कि वीर्य जो है वह सिर की तरफ बहे। इस तरह
की बेवकूफियां पैदा होती है, इस तरह की मूढ़ताएं पैदा होती
हैं। और ये सब छोटी-छोटी चीजों से शुरू हो जाती हैं।
प्रत्येक
व्यक्ति के लिए अलग भोजन की आवश्यकता है। हरेक को अपनी खोजनी पड़ेगी तलाश, अपनी
जरूरत। हर एक व्यक्ति को अलग दवा की जरूरत होती है। केमिस्ट की दुकान पर बहुत
दवाएं रखी होती हैं। हर कोई दवा तुम्हारे काम की नहीं है। हर कोई दवा पी लोगे तो
जहर हो जाएगी। तुम्हारे लिए दवा, पहले तुम्हारा विश्लेषण
होगा तब तय की जा सकती है।
शास्त्रों
में सब दवाएं लिखी हैं,
मगर तुम्हारी जरूरत क्या है, कौन तय करे?
हां, सदगुरु के पास तुम निवेदन कर सकते हो
अपनी परिस्थिति का। और सदगुरु तुम्हें संकेत दे सकता है, आदेश
नहीं; उपदेश दे सकता है, आदेश नहीं। वह
यह नहीं कह सकता कि ऐसा करो, क्योंकि यही उचित है। उचित और
अनुचित तो तुम्हें परीक्षण से तय करने होंगे। तुम्हें स्वयं पर प्रयोग करने होंगे।
धर्म
प्रत्येक व्यक्ति को एक प्रयोगशाला में बदल देता है, उसे अपने ही अंतस-आलोक में,
अंतर्जगत में प्रयोग करने होते हैं। और प्रयोग से ही धीरे-धीरे
निर्णीत होता है कि क्या सम्यक है, क्या मेरे लिए उचित है?
और जो तुम्हारे लिए उचित है वह हो सकता है किसी और के लिए उचित न
हो। इसलिए दूसरे पर उसे थोपना मत। प्रभाव से यही खतरा पैदा होता है, हम उसे दूसरे पर थोपना शुरू करते हैं। दूसरे हम पर थोप जाते हैं, बदले में हम दूसरों पर थोपना शुरू कर देते हैं।
धर्म
थोपा नहीं जा सकता। धर्म आरोपण नहीं है। फिर सदगुरु का कृत्य क्या है? सदगुरु का
कृत्य स्पष्ट करना है। सदगुरु का कृत्य सुलझाव देना है, सुझाव
देना है, इंगित करना है, अंगुलियों से
चांद बता देना है। लेकिन अंगुलियां चांद नहीं हैं। तुम अंगुलियों की पूजा मत करने
लगना। चांद की तरफ देखो और चांद तुम्हारे भीतर है। प्रत्येक सदगुरु हमेशा तुम्हें
तुम्हारे भीतर देखने के लिए सब तरह की चेष्टाएं करता है, सब
तरह की विधियां जुटाता है। सारे योग, सारे ध्यान बस एक ही
दिशा में इशारा करते हैं: अंतर्यात्रा पर जाओ। वहां से स्वभाव का फूल खिलेगा। वहां
से कमल खिलेगा, सुगंध उठेगी। और उसी सुगंध को हम केवल
परमात्मा के चरणों में चढ़ा सकते हैं।
दूसरा और आखिरी प्रश्न: भगवान,
परमात्मा को पाकर इस अनुभव को प्रकट क्यों नहीं किया जा सकता है?
कृष्णानंद,
पा
लो, फिर पूछना। पा लोगे तो जान लोगे कि प्रकट नहीं किया जा सकता। क्योंकि बात
इतनी बड़ी है, शब्द बहुत छोटे हैं। बात इतनी रहस्यपूर्ण है और
शब्द बड़े ओछे हैं। बात अनंत है और शब्द कामचलाऊ हैं। शब्दों का उपयोग व्यावहारिक
है। लेकिन शब्द पारमार्थिक नहीं हैं; वह जो परम अर्थ है,
उसे प्रकट करने में असमर्थ हैं।
संगिनी, जी भर गा
न सका मैं।
गायन
एक व्याज इस मन का,
मूल
ध्येय दर्शन जीवन का।
रंगता
रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं।
इन
गीतों में रश्मि अरुण है,
बाल
उर्मि, दिनमान तरुण है।
बंधे
अमित अपरूप रूप,
गीतों में स्वयं समा न सका मैं।
बंधे
सिमट कुछ भाव प्रणय के,
कुछ
भय, कुछ विश्वास हृदय के,
पर
इन से जो परे तत्व,
वर्णों में उसे बिठा न सका मैं।
धूम
चुकी कल्पना गगन में,
विजय
विपिन, नंदन-कानन में
अग-जग
घूम थका, लेकिन, अपने घर अब तक आ न सका मैं।
गाता
गीत विजय-मद-माता,
मैं
अपने तक पहुंच न पाता।
स्मृति-पूजन
में कभी देवता को दो फूल चढ़ा न सका मैं।
परिधि-परिधि
में घूम रहा हूं,
गंध-मात्र
से झूम रहा हूं।
जो
अपीत रस-पात्र अचुंबित,
उस पर अधर लगा न सका मैं।
सम्मुख
एक ज्योति झिलमिल है,
हंसता
एक कुसुम खिलखिल है।
देख-देख
मैं चित्र बनाता,
फिर भी चित्र बना न सका मैं।
पट
पर पट मैं खींच हटाता,
फिर
भी कुछ अदृश्य रह जाता।
यह
मायामय भेद कौन?
मन को अब तक समझा न सका मैं।
पल-पल
दूर देश है कोई,
अंतिम
गान शेष है कोई,
छाया
देख रहा जिसकी,
काया का परिचय पा न सका मैं।
उड़े
जा रहे पंख पसारे,
गीत
व्योम के कूल-किनारे,
उस
अगीत की ओर जिसे प्राणों से कभी लगा न सका मैं।
जिस
दिन वह स्वर में आएगा,
शेष
न फिर कुछ रह जाएगा,
कह
कर उसे कहूंगा वह,
जो अब तक कभी सुना न सका मैं।
कुछ
तो है, जो गीतों में नहीं आता। कुछ तो है जो संगीत में भी नहीं आता। कुछ तो है
जिसे बांधने का कोई उपाय ही नहीं है--किसी सीमा में। उस असीम का नाम ही परमात्मा
है। और तुम उसे पाओगे तो तभी पाओगे जब तुम भी बिलकुल शून्य हो जाओगे; बचोगे ही नहीं; मैं-भाव शेष न रहेगा। न होंगे कोई
शब्द, न होगा कोई मन, न होगा कोई
चिंतन-मनन--तब तुम उसे पाओगे। निःशब्द में उसे पाओगे, तो
शब्द में प्रकट कैसे करोगे?
और
कौन करेगा प्रकट उसे?
तुम तो उसे पाने में ही खो जाओगे; प्रकट करने
वाला अलग बचता ही नहीं। इसलिए परमात्मा को जाना तो है, लेकिन
जना कोई भी नहीं सका। और ऐसा भी नहीं है कि लोगों ने कोशिश नहीं की। प्रत्येक
प्रबुद्ध पुरुष ने कोशिश की है, अथक कोशिश की है, कि कह सके। कुछ तो कह सके, न सही पूरा; अंश तो कह सके, न सही अंशी। मगर बात कुछ ऐसी है कि
कहते-कहते ही उड़ जाती है हवा में, तुम तक पहुंच नहीं पाती।
इसलिए
सदगुरुओं के शब्दों में जो उलझ जाए, वह चूक जाता है। सदगुरुओं की
सन्निधि में डूबो। उनके शब्द तभी तुम समझ पाओगे जब उनका मौन समझने लगोगे। सदगुरुओं
के साथ एक प्रीति में बंधो, एक संगीत में बंधो। तुम्हारे और
तुम्हारे गुरु के हृदय की धड़कन एक हो उठे, लयबद्ध हो जाए,
तो शायद जो नहीं कहा जा सकता उसकी थोड़ी सी झलक, थोड़ी सी पुलक तुम तक पहुंच जाए। थोड़ी सी लहर, सागर
तो नहीं, मगर थोड़ी सी लहर, हवा का एक
झोंका आए--गंध ले आए थोड़ी तुम तक--तुम्हारे नासापुटों तक।
मगर
कृष्णानंद, अभी क्यों चिंता करते हो? अभी पाने की चिंता करो। हम
बड़े अजीब लोग हैं! हम अजीब-अजीब प्रश्न उठा लेते हैं। अभी पाया नहीं है और तुम
फिक्र में पड़ गए कि परमात्मा को पाकर उस अनुभव को प्रकट क्यों नहीं किया जा सकता?
अब यह परिकाल्पनिक प्रश्न होगा। इसका कोई मूल्य नहीं। पहले पा लो,
फिर तुम जान लोगे कि क्यों नहीं जनाया जा सकता! मुस्कुराओगे तुम खुद
ही, हंसोगे तुम खुद ही। यह प्रश्न फिर बनेगा ही नहीं। यह
प्रश्न बनता ही इसलिए है कि अभी तुम्हारी अपने से विराट की कोई अनुभूति नहीं है।
लेकिन अगर तुम जीवन में भी थोड़ी खोजबीन करो तो तुम्हें ऐसे अनुभव मिल जाएंगे जो
नहीं कहे जा सकते।
तुमने
सुबह-सुबह उठ कर सूरज को उगते देखा, उसके सौंदर्य को देखा, उसको कह सकोगे किसी से? हां, चाहो
तो तस्वीर उतार सकते हो। चाहो तो एक चित्र बना सकते हो सूर्योदय का। लेकिन क्या
सूर्योदय का चित्र सूर्योदय है? उसे अंधेरे में रखोगे,
रोशनी होगी? नहीं होगी। सूर्योदय का फोटोग्राफ
भी ले लिया तो भी मुर्दा है। सूर्य तो भागा जा रहा है, उड़ा
जा रहा है--आकाश में उठा जा रहा है। तुम्हारे चित्र का सूर्योदय तो ठहरा का ठहरा
रह गया। हिलेगा नहीं, डुलेगा नहीं।
एक
छोटा सा बच्चा अपनी मां के पास बैठा हुआ घर का पुराना अलबम देख रहा था। उसमें एक
तस्वीर आती है एक जवान आदमी की--सुंदर घुंघराले बाल, बलिष्ठ शरीर। उसने पूछा,
मम्मी-मम्मी, यह कौन है? तो उसकी मां ने कहा, अरे बेटा तू पहचाना नहीं! ये
तेरे पापा! उसने कहा, मेरे पापा! तो वह घर में अपने जो खूसट
बुङ्ढा रहता है, वह कौन है? मैं तो अभी
तक उसी को पापा समझ रहा था।
अब
तस्वीर तो तस्वीर है,
जब बाप जवान रहा होगा तब की है। तस्वीर तो वहीं की वहीं रह गई,
बाप खूसट हो गया। बाप के सिर पर एक बाल नहीं बचा। वे घुंघराले बाल
कहां गए, पता नहीं चला। वह बेटा ठीक पूछ रहा है कि अगर ये
पापा हैं तो यह आदमी जिसको मैं अब तक पापा समझता रहा, यह कौन
घर में घुसा हुआ है? तो इससे छुटकारा क्यों नहीं पाते हम?
यह
बच्चा ठीक सवाल उठा रहा है,
यह महत्वपूर्ण सवाल है। तस्वीर मुर्दा है।
पिकासो
से किसी ने कहा कि मैंने तुम्हारी तस्वीर देखी एक घर में, इतनी
प्यारी लगी--एक सुंदर अभिनेत्री यह उससे कह रही थी--कि मैं रह न सकी और मैंने उसे
छाती से लगा लिया और तुम्हारी तस्वीर को चूम लिया।
पिकासो
ने कहा कि अच्छा,
फिर तस्वीर ने क्या किया? उस स्त्री ने कहा,
तस्वीर क्या करती! उसने कुछ नहीं किया। तो उसने कहा, वह और कुछ रही होगी। मैं नहीं था। क्योंकि मुझे कोई चूमे और मैं जवाब न
दूं!
और
तू भी खूब है--पिकासो ने कहा--कि मुझे कितनी दफे मिली, न कभी
छाती से लगाया, न कभी चुंबन लिया! और मूरख, तस्वीर को छाती से लगाया और मैं जिंदा बैठा हूं!
लेकिन
लोग तस्वीरों के मोह में पड़ जाते हैं। शब्द तस्वीरें हैं। शास्त्र तस्वीरें हैं।
वहां सब चीजें मर जाती हैं।
इसलिए
मैं तुमसे निरंतर कहता हूं: शब्दों में मत उलझना। कहीं कोई अगर व्यक्ति ईश्वर को
जाना हो, जीया हो, तो उसके पास उठना-बैठना। उसके पास
उठते-बैठते शायद जादू हो जाए। यह जादू का मामला है।
आज इतना ही।
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