अध्याय—5 (दिनो की गहराई)
इन दिनों दिन इतने लम्बे और उबाऊ भरे होते थे,शरद ऋतु के मध्यकाल में
ही होता है। फागुन मास शरद ओर गिरीक्षम ऋतु का संधि काल ही समझो। इसमें एक तरफ तो
सूहाना पन होता है ओर दूसरी ओर एक अलसायापन। धूप सूमधुर तो लगती है परंतु कुछ ही
क्षण के बाद वह वदन पर चूबने लग जाती है। धूप की वहनता शरीर अपने पर से गुजरने भर
देना चाहता है। वह एक उथले पानी की तरह मानों आप गुजरोरूको मत। पूरी प्रकृति इस
समय सझ धज कर कैसे रमणीय लगती है। देखना हो तो आप जहां तक देख सकेंगे प्रकृति कैसी
नये कौमलपत्तो से सजीसंवरीदेखाई देगी। प्रकृति कैसे प्रत्येक मौसम को अपने पर
पूर्णता से बीतने देती है। यह तो मुश्किल थी कि कितनासोऊं मैं सौ—सौ कर भी उक्तता
जाता था। जितना सौ सकता था उतना सोने की कोशिश करता था,
परमेरे पास सोने के सिवाय और क्या काम था, इस स्थिति मैं
मुझे अकेला पन बहुत सालता था, फिर प्रत्येक प्राणी को अपने
जैसे संगी—साथी की ज़रूरत महसूस होती हैं। वो मेरी भाषा समझे, मेरे अंग—संग लिपट कर सोये, मेरे साथ लड़े—झगड़े, खेले—कुंदे या हम एक दूसरे से खूब भागे और मेरे साथ खाना खाए। यही प्रकृति के
विकास का तरीका है। परंतु मनुष्य तो अपनी को परिमाजित कर के खूश है वह तो अपने
ह्रदय ओर दूसरी अंतियज्ञान को लगभग भूल गया है। उसे तो अपने मस्तिष्क पर बहुत
गुमान है।
मनुष्य के साथ सूख सुविधा तो खूब थी, पर अपने पन
की कमी बहुत बेचैन करती थी। फिर एक दिन भगवान ने मेरी सून ली, काश मैने आज कुछ और माँगा होता। परन्तु हम माँग ही नहीं सकते अपनी वासना
के सिवा, हम जो भी मांगते हैं वहीं दुख और पीड़ा ही लाता हैं।
जब हम मांगते है तो समझते नहीं, जब मिल जाता हैं तो ज्ञान भी
पीछे—पीछे चला आता हैं।
मैने ये क्या माँग लिया, ये माँगा होता, वो माँगा होता,
सच तृप्ति किसी मैं भी नहीं हैं। पहले बच्चे जितना मुझसे डरते थे,
अब तो डरते ही नहीं। स्कूल से आते ही जितना उन्हे देख कर मैं खुश
होता वो भी उतना ही खुश होते थे। पर मेरी इस पल भर की खुशी के बारे में आप कुछ
नहीं जान सकते। इस पल भर में अपने को किस तरह से तरो ताजा कर लेता हूं। आप ये मत
सोचना की आपका पालतु कुत्ता आपके घर आने पर आपका स्वागत सतकार कर रहा है....ये
एक गौण बात है परंतु इसके पीछे के विज्ञान को न ही जानो ताक अच्छा होगा। वराना आप
बुरा मान जायेगें। सारा दिन की मायूसी और उदासी पल में उड़न छू हो जाती थी। मन
करता इनके चारो तरफ दौड़ू भागू चाटू पर वो इस से पहले ही मुझे उठा कर अपनी गोद में
ले लेते थे। सब बारी—बारी से मुझे गोद मे लेते, सब का में
दुलारा होता था सब चाहते पोनी मुझे चाटते और मेरी गोद में पूछ हिलाई मेरे पास आये।
पर मुझे तो सभी को खुश करना होता था। इस लिए में बारी—बारी से सब के पास चला जाता
था।
वो मुझे भीचते, चूमते और अपने से रगड़ते मैरा दम घुटने को हो जाता। उनके कपड़े
मैं से पसीने की दुर्गन्ध आती मैराजीघबरा ने लगता, मैं कसमसाता
कर रह जाता,ऐसादिल करता नीचे उतर करइनकी पकड़ से कहीं दूर भाग
जाऊँ। कई बार तो मैं गुर्राने लग जाता था, उस समय उनपर सचमुच
गुस्सा भी कर देता था, क्योंकि मैं जानता था अभी वो बच्चे
है। कल तक तो मेरे पास जाते ही डर के मारे दीवान पर चढ़ कर अपनी जान बचाते थे। और
मैं नीचे से उन्हें खूब भौंक—भोंक कर नीचे उतर कर खेलने के लिए कहता था। फिर भी मेरी
गिदड़ भभकी से वो नहीं डरते थे। अब बताओ मैं क्या करू, कई बार
माँ जी जब देख लेती तो उन सब को डटती, तब जाकर मैं कहीं छूट
पाता।
लेकिन कुछ बुरी आदतें जो मेरी जीवन संरचना में ही मुझे
मेरे पूर्वजों से मिली थी। वो अब मुझे सताने लगी थी। एक तो काटने की आदत बहुत पड़
गई। ये दाँत जो मेरे निकल रहे थे। मेरे जी का जंजाल बन गये थे। क्या करू क्या न
करू कुछ समझ में नहीं आ रहा था। दाँत जब निकलते है तो कैसे सुई की तरह पैने होते
है आपने जार किसी को खेल में पकड़ा नहीं की गड़ गया। परंतु इस का भुगतान कई बार
मुझे ही करना पड़ा। एक दाँत तो उस दिन हिमांशु भैया के साथ खेलते हुए टुट भी गया
था। हुआ यह की हम भाग-भाग कर खेल रहे वह मेरे आगे में उसके पीछे तब मेने उसकी
पेंटको जो से पकड कर रोकना चाहा। परंतु वह भी शयद डर गया ओर उसने जोर से झटका मारा
मेरा दाँत उसकी पैंट में गडा था अभी तो वह नाजुक कोमल ही था इतना झटका कहां सहन कर
सकता था वह मैं दूर जा कर गिरा परंतु मेरे मुख में दर्द की लहर दौड गई। ओर में
बार-बार अपने मुहं को जीभ से चाटने लगा। तब भैया समझ गये की कुछ जरूर हुआ है। तब
वह मेरा मुख देखने लगे तो उन्हें समझ में आया की मेरा दांद उसकी पेंटमे ही गडा रह
गया है। परंतु उसके बाद वह मेरे लिए ठंडी आईस्क्रिम लेकर आये। परंतु दर्द के कारण
मैं उसे खाना नहीं चाहता था। परंतु जब में उसे एक बार चाटा तो मेरा मुख सुन्न हो
गया ओर दर्द भी कम हो गया। इसके अलावा
हमारे शरीर इतना तमस से भरा था कि मुझे कोई दर्द ही नहीं हुआ।
बस मुहँ के अंदर कोई खाली पन सा महसूस हो रहा था।
जहां पर जीभ बार—बार जा रही थी। न जाने क्यों यहां पर दांतों का निकलना मेरे को
बहुत बेचैन कर रहा था। क्योंकि शायद मां या भाई बहन के साथ खोलने में मुझे इतनी
दिक्कत नहीं आती क्यों हमारे सब के शरीर पर बाल होते है। इस मनुष्य का शरीर
कितना नाजुक होता है जरा सा आपने पकड़ा नहीं की खून निकल आये गा। और उपर से इसके
पहने हुए कपड़े जिन में दाँत फंस जाते तो निकलते ही नहीं। इसी तरह से तो मेरा वो
दाँत हैमान्शु भैया की पैन्ट में उलझ कर टुट गया था।
लाख अपने
को समझाने की कोशिश करता कि मैं एकपशु हूं, इतनी बुद्धि मेरे भीतरकहां है। सारा दिन कभी किसी
बोतल को मुहँ में ले कर खेलता। कभी हेमान्शु भैया का कोई खिलौना ले कर खेलते—खेलते
मुझे पता ही नहीं चलता था की कब में उसे काटने लग जाता। अपने खिलौने कि ऐसी
दुर्दशा फिर जब भैया आते तो मुझ पर बहुत
गुस्सा होते में भाग कर चारपाई के नीचे छुप जाता। मैं चारपाई के नीचे अपने को बहुत सुरक्षित समझता था। सोचता
की इस के अंदर आना तो इसमनुष्य के लिए बहुत मुस्तकिल है, क्योंकि ये तो
इतने बड़े है। इसके अंदर कैसे आयेगा पर ये मेरा भ्रम ज्यादा दिन नहीं चला जब
मैंने देखा ये झुक कर भी इसके अंदर बड़े मजे से आ सकता है। इतनी देर में या तो मम्मी
जी आ जाती या दीदी और मैं बच्चा जाता।
फिर भाई का गुस्सा हमारी दोस्ती
हो जाती और खेलने लग जाता।
आदमी कैसे बंदर की तरह हरकत करने लगा जाता है देख कर डर
भी लगता थी। वरूण भैया को पापा जी छोडने और लेने जाते थे, क्योंकि उसका स्कूल दूर था। मणि दीदी सबसे बड़ी है इस
लिएवो तो खूद ही बस मैं बैठ कर चली जाती थी। हिमांशु भैया की स्कूल बस आती थी,
उसे दादा जी बहुत खुश होकर बैठाने और ले कर के भी आते थे। दादा जी
की उम्र कोई 80 वर्ष के आस पास होगी। बाल सारे सफ़ेद खीचड़ी, मुहँ
पर झूरियाँ जैसे वक्त ने संघर्ष की रेखाएं उरेर रखी हो। सफेद धोती, कुर्ता और सर पर साफ़ा, हाथ मैं ड़ोगा लेकर इस उम्र
मैं भी सुबह—श्याम तीन—चार मील घूमने चले
जाते थे। दिल्ली पुलिस से रिटायर थे, गुस्सा तो उनकी नाक पर
धरा होता रहता हैं, इतनी कड़क आवाज़ मैं बोलते थे, मुझे इतना डरलगता की मैं भाग कर चारपाई के नीचे छुप जाता था। हिमांशु को
प्यार से 'हैमन' कह कर बुलाते थे,
इतनी उम्र मैं भी हिमांशु भैया को बस्ते सहित पीठ पर बिठा के ले आते
थे।
तीनों
बच्चे अलग—अलग स्कूल मैं जाते थे, आप
सोचते होंगे मुझे कैसे पता की सब अलग—अलग स्कूल मै जाते थे। एक तो तीनों
बच्चे साथ नहीं आते, दूसरा उनके स्कूल के कपड़े अलग—अलग रंग
के होते, ये तो एक साधारण सी बात थी अब मैं इतना बुद्धू नहीं
रहे गया था। वरूण भैया ने अपने स्कूल के पास कहीं कोई आवारा घूमता पिल्ला देखा
होगा, क्या किं मुझे लेकर मणि दीदी और वरूण भैया मै रोजाना खींचा
तानी कि मैं किसका हूँ। अब बच्चे तो बच्चे ही होते हैं, सो
उसने आसान रास्ता चून लिया इस रोज़—रोज़ के झगड़े का की वो एक और पिल्ला ले आयेगा। अब
बच्चो के लिए तो हम जीते—जागते खिलौने हैं, चल सकते, खा सकते उनके साथ, खेल भी सकते।
खिलौनों से बच्चे खेल सकते, परन्तु खिलौना तो उनके साथ नहीं खेल सकता, वो निर्जीव हैबेजान हैं। उस दिन वरूण भैया माँ जी के साथ सलाह करके गया था
की वो पिल्ले को चुपचाप पापा जी को बिना बताये बग़ैर मैं छुपा कर ले आयेगा फिर पापा
जी को बता देंगे। अब वो पिल्ले को ढूँढ़ता हुआ आया तो मेरे चेहरे पर परेशानी की रेखा
ये साफ़ दिखाई दे रहीं थी।
पापा जी ने वरूण भैया के चेहरे के भाव पढ़ लिए और
पूछा—’ क्या बात हैं क्यो परेशान
हैं’। इससे पहले वरूण भैया कुछ बोलते पापा जी कहने लगे —’पिल्ले
को ढूँढ़ रहा हैं क्या करेगा घर पर तो पहले ही पोनी
है। उसे कितना दुःख होगा जब दूसरा उसके सामने ले जाएगा।’ वरूण भैया की तो मछली बहार हो गई, आंखे
फेल कर और बड़ी—बड़ी हो गई। पापा जी को कैसे पता चला ये रहस्य उस बाल मन के लिये तब
तक बना रहा जब तक वो समझदार नहीं हो गया। ’वो पिल्ला हैं सामने
ले आ’, वरूण भैया सोचने
लगा मुझे क्यो नहीं दिखाई दिया। परन्तु उसे खुशी भी थी, अपने पापा जी पर उसे बड़ा गर्व महसूसहो रहा था। उसे लग रहा था मेरे पापा जी
महान हैं, उस बाल मन पर एक छवि बैठी जो पूरी उम्र प्रेम,
आचरण और चरित्र के लिए मील का पत्थर बन गई।
उस पिल्ले को उन्होंने स्कूटर की जाली में बिठा लिया, ओर घर पहुचने के
लिए वह बड़ा उतावला और बेचैन था, उसे लग रहा था आज स्कूटर की
गति कुछ कम हैं। जब हम खुश होते हैं तो कैसे र्निभार हो से हो जाते है,अन्दर तक कैसे भरे—भरे से हो जाते है। उस समय पृथ्वी का गुरुत्व शक्ति भी
कोई काम नहीं कर रहीं आप अब उड़े कि तब उड़े। जाली मैं पिल्ला भी अपने को असुरक्षित
महसूस करडर कर बहार कूदने की कोशिश कर रहा था। बार—बार वरूण भैया उसे प्यार कर रहे
थे ताकि वह बाहर न कूद जाए। स्कूटर के चलने के कारण उसे अजीब लग रहा होगा। शायद
थोड़ा डर भी रहा होगा।
जैसे ही उसे जाली से निकाल कर फर्श पर खड़ा किया तो
उसने चेन की साँस ली। एक अनजान जगह को बड़े ध्यान से चारो तरफ़ मुहँ घुमा कर देख
रहा था, मेरे उपर जाकर थोड़ी देर
उसकी जाकर रूक गई, वह मेरी तरफ़ बढ़ा पूछ हिलाई, मुझे सूंघा और शायद देख कर खुश भी हो गया की मेरी जाती का कोई तो मिला।
परन्तु मैं अपनी अकड़ मैं उसी पोज़ मे खड़ा रहा, मुझे वो फूटी
आँख नहीं सुहाया। एक जलन ईर्ष्या का भाव अचानक अन्दर से निकल कर सामने आ खड़ा हुआ,
जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी बड़े जतन से जिसे हम सम्हालते हुऐ है। हमारे
पूर्वजों से चला आ रहा अचेतन से मानों हमारी धरोहर हो। वो देखने मैं मोटा धांधू,
रंग बादामी भूरा,आंखे काली, गले मैं कुदरती सफ़ेद धारी, माथे पर सफ़ेद टीका अच्छा
लग रहा था।
माँ जी ने उसे गर्म पानी से नहला कर कंघी से सारे कीड़े
निकाले, जो गली के पिल्लों को
अक्सर हो जाते हैं। इतनी देर मैं मैंने सोच यहाँ खाने रहने की तो कोई कमी नहीं फिर
तू क्यो अपना खून फुकता हैं। सौ मेरे मन
में अचानक न जाने एक हवा के झोंके की तरह बदलाव आया। में खुद अचरज कर रहा था। मानो
एक चमत्कार हो गया। शायद जाति प्रेम या अकेले पन ने मेरे मनको खुद ही दिल को समझा—भुजा
कर राज़ी कर लिया, तेरे को एक साथी मिल जायेगा जिसके साथ तू
दिन भर खेल सकेगा। उसके साथ चिपट कर सौ सकेगा कम से कम वो तेरी जाती का हैं,
तेरी भाषा बोल सकता हैं, समझ सकता हैं।
मैं देख रहा था ये केवल दिखावा मात्र है, अन्दर फिर भी कहीं जलन का कीड़ा रेंग हीरहा था। जैसे ही वो
सामने आया सारे विचार न जाने कहाँ हवा हो गये कई दिनो से किसी के साथ धींगा मस्ती
नहीं की थी इस लिये शारीर मैं खुजली उठी और हम दोनो लगे साथ—साथ खेलने कितनी देर
खेले समय का पता ही नहीं चला। जब तक भैया, दीदी ने कपड़े बदल
और खाना खां कर हमारा बटवारा करने के लिये आये और हमे अलग करने के लिये हाथ बढ़ाया
हम बुरी तरह से एक दूसरे से उलझ गये, एक भूखे भेड़िया की तरह,
एक दूसरे को बड़ी मुश्किल से अलग किया।
मेरे दिल को गहरा आघात लगा मनुष्य की इस आदत का।
परन्तु वो क्या करे वह तो इसी तरह प्रेम से इसी तरह परिवार बना कर दुख, सुख, हारी—बिमारी मैं एक दूसरे के
साथ रहता हैं। पर चलो अच्छा ही हुआ जो हुआ शायद इसी मैं मेरी भलाई होगी जिसे मैं
आज नहीं देख पा रहा हुं गा। भविष्य की गहराई मैं झांकने की और प्राणी यों मैं नहीं
हैं,ये शक्ति तो केवल मनुष्य मैं ही है, वहीं उस अंधकार की गर्त मैं दबी छोटी सी किरण को भी देख सकता हैं, अगर वो चाहे तो।
मैंने
अपने को उस आस्तित्व की बहती धारा मैं बहने के लिए छोड़ दिया, अब तक अच्छा ही हुआ है मेरे साथ,
कुदरत जो कर रही उसी में शायद हमारी भलाई होती है। वह भाषा कही ह्रदय में बहुत मंद
गुंज रही थी। उसे हम विचारों के शोर में सुन नहीं सकते है। पर सच में एक पशु होने
पर भी उस ध्वनि को सून सका, और उस पर अमल करने लगा की अभी
भी जो हुआ है अचानक वो सब मेरे बस के बाहर की बात थी। और शायद आगे भी यहीं होगा
जिसे में नहीं समझ सकूंगा पर आज भी अच्छा ही हुआ है तो आगे भी अच्छा ही होगा। एक
गहरी साँस ली, आंखे बन्द की और लेट गया।
भू....भू....आज बस।
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