पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 01 जून सन् 1980,
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-पहला
प्रश्न-सार
01-नयी प्रवचनमाला का शीर्षक है: पिय को खोजन मैं चली।
हमें इसका आशय समझाने की अनुकंपा करें!
02-मैं जिंदा हूं या नहीं, कुछ समझ में नहीं आता है!
पहला प्रश्न: भगवान!
नयी प्रवचनमाला का शीर्षक है: पिय को खोजन मैं
चली। हमें इसका आशय समझाने की अनुकंपा करें!
आनंद प्रतिभा!
पलटू का प्रसिद्ध वचन है:
पलटू दिवाल कहकहा, मत कोई झांकन जाय।
पिय को खोजन मैं चली, आपुई गई हिराय।।
यह कहानी तुमने सुनी होगी कि चीन की दीवाल के एक खास स्थल पर एक
चमत्कारपूर्ण घटना घटती है। कहानी ही है, लेकिन अर्थपूर्ण है।
दीवाल के उस खास स्थल पर जो भी चढ़ कर दूसरी तरफ झांकता है, जोर
से हंसता है और कूद पड़ता है, फिर लौटता नहीं। बहुत लोग उस
दीवाल पर यह कस्त करके झांकने गए कि न तो हम हंसेंगे, न हम
कूदेंगे।
मगर कोई भी अपवाद सिद्ध नहीं हुआ। जो भी गया, हंसा
भी, कूदा भी, खो भी गया। कोई भी लौट कर
बता नहीं पाता--क्या देखा, क्यों हंसे, क्यों कूदे, कहां खो गए!
यह तो कहानी ही है, लेकिन यह कहानी बड़ी प्रतीकात्मक
है। परमात्मा की खोज में जो जाते हैं, उनकी भी दशा ऐसी ही
है। झांक कर जिन्होंने देखा वे हंसे, खिलखिला कर हंसे। बेबूझ
उनकी हंसी है। रहस्यपूर्ण उनकी हंसी है। उलटबांसी जैसी उनकी हंसी है। अनिर्वचनीय
उनकी हंसी है। न हो सकती है उसकी व्याख्या, न कभी हुई है,
न कभी होगी। मगर उनके जीवन में एक अदभुत आनंद, एक अदभुत हास्य, एक मुस्कुराहट जरूर लोगों ने देखी
है। जब कि जीवन इतने दुख से भरा है, तब भी बुद्ध की आंखों में
एक आनंद है! जब कि जीवन इतनी पीड़ा से भरा है, तब भी महावीर
के चारों तरफ एक मस्ती है! जब कि जीवन में सिवाय कांटों ही कांटों के और कुछ दिखाई
नहीं पड़ता, तब भी कृष्ण के जीवन में बांसुरी बज रही है!
इसी हंसी की ओर इंगित है--इसी मस्ती की ओर, इसी मदहोशी की ओर। जैसे जो दुनिया में हो रहा है, सब
स्वप्नवत है। जैसे यह कुछ ध्यान देने योग्य नहीं। ये सारे दुख, ये सारी पीड़ाएं जैसे बस कल्पित हैं, लोगों के मन के
ही जाल हैं।
जिसने परमात्मा को देखा है, वह दुनिया पर हंसने
लगा है। इसलिए हंसने लगा है कि यह दुनिया सिवाय एक नाटक के मंच के और कुछ भी नहीं
है। न यहां परेशान होने जैसा कुछ है, न पीड़ित होने जैसा कुछ
है। पीड़ित हो तो तुम अपनी मूर्च्छा के कारण और परेशान हो तो तुम अपनी नासमझी के
कारण। जागो तो सब अभिनय है, सब खेल है। जागोगे तो हंसोगे।
जागोगे तो हंसोगे अपने पर कि मैं भी कैसा पागल था, कितना
व्यथित था! जागोगे अपने सारे अतीत पर, वह लंबा-लंबा इतिहास
व्यथा का, कितना रोया, कितना गिड़गिड़ाया,
कितने आंसू गिराए, खिलौनों के लिए रो रहा था,
मृग-मरीचिकाओं के पीछे दौड़ रहा था! और जानता भी था कि कुछ न मिलता
है, न कभी मिला है, न मिल सकता है। ऐसा
भी न था कि भीतर इसके गहरे में कोई प्रतीति न रही हो, लेकिन
छायाएं बड़ी आकर्षक लगी थीं, क्योंकि छायाएं बड़ी सत्य मालूम
हुई थीं।
जागोगे तो हंसोगे अपने अतीत पर। और जागोगे तो हंसोगे सारे जगत पर कि
लोग अब भी उसी नाटक को सत्य समझ रहे हैं जिसको तुम सत्य समझे थे।
यह दीवाल इस जगत का प्रतीक है। इस दीवाल के पार झांकना परमात्मा में
झांकने का प्रतीक है। और जो भी झांका, वह हंसा। और जो भी
झांका, फिर लौटा नहीं।
इसलिए एक दफा जो व्यक्ति प्रबुद्धता को उपलब्ध हो जाता है वह फिर
संसार में लौट कर नहीं आता। आने का कारण ही नहीं रह जाता।
आते हैं हम अपनी वासनाओं के कारण। आते हैं उन वासनाओं के कारण जो अभी
अपूर्ण रह गईं, जो पूरी नहीं हो पाईं। उन्हीं वासनाओं में बंधे हम
फिर चले आते हैं। वे वासनाएं रज्जुओं की भांति, रस्सियों की
भांति हमें फिर खींच लेती हैं। हम वासनाओं के जब तक गुलाम हैं, तब तक लौट-लौट कर आना होगा।
लेकिन जिसने परमात्मा को देख लिया, उसकी वासनाएं तत्क्षण
मिट जाती हैं। जैसे प्रकाश में अंधकार समाप्त हो जाता है, ऐसे
ही परमात्मा के अनुभव में, प्रार्थना के अनुभव में वासना
तिरोहित हो जाती है। फिर कोई लौटना नहीं है। फिर तो कूद जाना है अनंत में, अज्ञात में, अज्ञेय में।
और जो दिखाई पड़ता है व्यक्ति को उस शाश्वत में, उस सनातन में, उसे कहने का भी कोई उपाय नहीं। आदमी
के शब्द बड़े छोटे हैं, बड़े ओछे हैं। नहीं कि कहने की चेष्टा
नहीं की गई है, लेकिन सब चेष्टाएं असफल हो गई हैं। वेद हैं,
बाइबिल है, कुरान है, गीता
है, धम्मपद है, जिन-सूत्र है--पर कोई
भी कह नहीं पाया। जिन्होंने भी जाना है, उन सबने कहने की
चेष्टा की है, कहना चाहा है, मगर यह भी
कहा है कि हम लाख कहें तो भी कह न पाएंगे।
लाओत्सु ने तो जीवन भर प्रार्थनाएं ठुकराईं। क्योंकि लोग कहते थे:
लिखो कुछ, कहो कुछ। लाओत्सु हंसता, बात
टाल जाता, इधर-उधर की बातें करता। जब बूढ़ा हो गया...बहुत
बूढ़ा हो गया होगा। क्योंकि लाओत्सु के संबंध में जो अदभुत कथा है वह यह है कि जब
वह पैदा हुआ तभी अस्सी वर्ष का पैदा हुआ, बूढ़ा ही पैदा हुआ,
इस बात की सूचना देने के लिए कि लाओत्सु पैदा होते से ही होश से भरा
था, जाग्रत था। जैसे पिछले जन्म में निन्यानबे प्रतिशत घटना
घट चुकी थी, बस एक प्रतिशत कहीं कुछ थोड़ा सा अटकाव रह गया था,
बस थोड़ी सी ही बात रह गई थी बाल के बराबर, वह
भी घट गई। तो लाओत्सु पैदा ही प्रबुद्ध की तरह हुआ।
तो अस्सी वर्ष का तो पैदा ही हुआ था। और जब अस्सी वर्ष का पैदा हुआ तो
बूढ़ा जब हुआ तो होगा करीब एक सौ अस्सी वर्ष का--अगर सौ वर्ष और रहा होगा। उस
वृद्धावस्था में वह चल पड़ा हिमालय की तरफ। उसके शिष्यों ने पूछा, कहां जाते हो? उसने कहा, जाता
हूं दूर पर्वतों में! अंतिम विश्राम के लिए कोई ऐसी जगह खोजनी है कि जहां न किसी
को पता चले कि मैं कहां मरा, कहां मेरी समाधि बनी। जहां
मिट्टी मिट्टी में मिल जाए, पानी पानी में मिल जाए, हवा हवा में खो जाए। जहां आत्मा परमात्मा में लीन हो जाए। कोई निशान न
छूटे। क्योंकि निशान छूट जाते हैं तो लोग उन्हीं पद-चिह्नों की नकल करते रहते हैं।
लोग नकलची हैं। इसलिए अपने को बिलकुल तिरोहित करने जा रहा हूं।
बहुत समझाया, नहीं माना, तिरोहित करने चल
पड़ा। लेकिन सम्राट ने सारे राज्य की सीमाओं पर जो पहरेदार थे, चौकियां थीं, वहां खबर कर दी कि लाओत्सु कहीं से भी
निकले, निकलने मत देना। उसे रोक रखना। और उससे कहना कि पहले
अपना अनुभव लिख दो, फिर जाओ।
पकड़ लिया गया लाओत्सु एक चौकी पर। जाना-माना आदमी था। और चौकीदार ने
कहा, जाने न दूंगा। हम असमर्थ हैं, सम्राट
की आज्ञा है। आप रुक जाएं यहां, मेरे झोपड़े पर ठहर जाएं,
लेकिन सार-सूत्र में, जो जीवन का अनुभव है,
लिख दें। लाओत्सु ने कहा, अगर लिख सकता होता
तो कभी का लिख दिया होता। मगर पहरेदार तो पहरेदार, नियम तो
नियम। उसने कहा, मैं फिर निकलने न दूंगा। जाना हो तो लिखें।
मैं कोई बहुत बुद्धिमान आदमी नहीं हूं। मुझे समझाने की चेष्टा न करें। मुझे तो
लिखा हुआ चाहिए ताकि मैं सम्राट के सामने पेश कर सकूं।
मजबूरी में लाओत्सु को लिखना पड़ा। ऐसे लाओत्सु की अदभुत सूत्रों की
पुस्तक ताओ तेह किंग का जन्म हुआ। इस तरह कोई किताब दुनिया में जन्मी नहीं है।
लेकिन पहला सूत्र मालूम है लाओत्सु ने क्या लिखा? यही कि सत्य को कहा
नहीं जा सकता। सत्य को कहा कि कहते ही असत्य हो जाता है। पढ़ना मेरे सूत्र, मगर इस बात को भूल मत जाना।
सत्य को कहा नहीं जा सकता, कहा कि सत्य कहते ही
असत्य हो जाता है। क्यों? इसलिए सत्य असत्य हो जाता है कि
सत्य का अनुभव तो होता है शून्य में और अभिव्यक्ति होती है शब्दों में। सत्य को
जाना तो जाता है मौन में और जब बोलते हो, तब तुम मौन में
नहीं बोल सकते। सत्य को जाना तो जाता है मनातीत अवस्था में, जहां
मन नहीं होता और जब बोलना होता है तो मन का उपयोग करना होता है, माध्यम बदल जाते हैं।
यूं समझो कि जैसे कोई अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में कुछ कहना चाहे।
क्या कहे? या अंधे को तुम प्रकाश के संबंध में समझाना चाहो।
क्या समझाओ?
कबीर कहते हैं: गूंगे केरी सरकरा! जैसे गूंगा चख भी ले, मीठे से मीठा स्वाद ले ले, फिर भी कहे तो कैसे कहे?
कहे तो क्या कहे?
इसलिए कहने की चेष्टा तो हुई है--चेष्टा हुई यह शुभ हुआ, यह जिन्होंने जाना उनकी करुणा के कारण हुआ--लेकिन अब तक बात कही नहीं जा
सकी है।
यह कहानी प्रीतिकर है। पलटू कहते हैं: "पलटू दिवाल कहकहा।'
यह परमात्मा वही कहकहा वाली दीवाल है, जिस पर खड़े होकर लोग
हंसे तो हैं, नाचे तो हैं, गुनगुनाए तो
हैं, मस्त तो हुए हैं, जैसे पी गए हों
शराब, डोले हैं, खूब डोले हैं, जैसे पैरों में घूंघर बांधे हों और बांसुरी हाथ पड़ गई हो या वीणा छेड़ी हो,
लेकिन कुछ कह नहीं पाए।
"पलटू दिवाल कहकहा, मत कोई
झांकन जाय।'
पलटू कहते हैं: तुम मेरी मानो तो खोजने जाना मत। क्यों? क्योंकि यह केवल दुस्साहसियों का काम है, दुकानदारों
का नहीं। पलटू कहते हैं: अगर तुम खोजने जाना चाहो तो जरा सोच-विचार कर लेना। अपने
हृदय को परख लेना। इतना साहस है? छलांग लगा सकोगे अज्ञात में?
डुबकी मार सकोगे अथाह में? फिर लौटना नहीं है,
याद रहे। गल जाओगे, मिट जाओगे।
परमात्मा को पाता ही वही है जो मिटने को राजी है। इसलिए तो थोड़े से ही
लोग परमात्मा को पा सके, यद्यपि परमात्मा की बात अनेक-अनेक लोग करते हैं। बस
बात ही करते हैं। बात करने में क्या हर्ज है! बात बड़ी प्रीतिकर है। बात बड़ी सुंदर
है। बात करने में अहंकार को तृप्ति भी मिलती है। ऐसा लगता है बड़ी दार्शनिक,
बड़ी गहन चर्चा हो रही है। जगह-जगह लोग ब्रह्मचर्चा में छिड़े हुए
हैं। ब्रह्मचर्चा चलती है। लेकिन उस ब्रह्मचर्चा से कोई लेना-देना नहीं है। ये
जानने वाले लोग नहीं हैं। ये सिर्फ दूसरों को भ्रांति दे रहे हैं और खुद को
भ्रांति दे रहे हैं।
जानने वाला तो यही कहेगा: मत कोई खोजन जाय। कि भई सोच लो, यह खतरे का रास्ता है। यह मार्ग खतरनाक है। यह खड्ग की धार पर चलना है।
जरा चूके कि बुरे गिरोगे। और चढ़े तो उतरना नहीं हो सकता। चढ़ने के पहले ही समझ लेना
बात।
इसलिए मैं संन्यासियों से निरंतर कहता हूं, रोज-रोज कहता हूं कि यह मार्ग साहस का है। साहस का ही नहीं--दुस्साहस का।
इससे बड़ा कोई दुस्साहस नहीं है जगत में। गौरीशंकर पर चढ़ जाना कोई बहुत बड़ा
दुस्साहस नहीं है। कोई भी चढ़ सकता है।
मैंने तो सुना है कि जब एडमंड हिलेरी से किसी ने पूछा कि तुम भलीभांति
जानते हो कि पिछले पचास वर्षों में न मालूम कितने लोग गौरीशंकर पर चढ़ने की असफल
चेष्टा कर चुके हैं, अपना जीवन, अपने प्राण भी गंवा
चुके हैं, फिर भी तुम क्यों गौरीशंकर पर चढ़ने गए?
और तुम्हें पता है एडमंड हिलेरी ने क्या कहा? हिलेरी ने कहा, मालूम होता है तुम विवाहित नहीं हो।
अरे पत्नी से भागने के लिए आदमी कहीं भी चढ़ सकता है।
पत्नी से भागने के लिए लोग चांद पर पहुंच गए, तारों पर जाने की कोशिश कर रहे हैं। पत्नी से भागने के लिए लोग कब से,
सदियों से हिमालय जाते रहे हैं। गुफाओं में जीते रहे हैं। जंगली
जानवरों से नहीं डरते। जंगली जानवरों से घबड़ा कर बाजार में नहीं आ जाते कि हमने
जंगल का त्याग कर दिया। जंगल का किसी ने आज तक त्याग किया ही नहीं। लेकिन घर-द्वार
का लोग त्याग कर देते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन शिकार को गया था। पत्नी भी नहीं मानी। और पत्नी न माने
तो क्या करो। पत्नी ने कहा, मैं भी आती हूं। जरा देखूं भी तो कि तुम कैसे शिकारी
हो! मुल्ला ने अपने मित्र चंदूलाल को कहा कि अब शिकार करना मुश्किल है। इसे देख कर
ही मेरे हाथ-पैर कंपते हैं। लगाऊंगा निशाना कहीं, लग जाएगा
कहीं।
लेकिन जब मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी जा रही थी तो चंदूलाल की पत्नी भी
पीछे नहीं रह सकती थी। चंदूलाल की पत्नी भी साथ हो ली। एक से एक घटनाएं घटीं उस
शिकार की यात्रा पर।
पहली घटना तो यह घटी कि मुल्ला नसरुद्दीन ने गोली मारी, उड़ रहे पक्षियों को तो नहीं लगी, चंदूलाल की बैठी
पत्नी को लगी। चंदूलाल ने कहा, हद कर दी भाई! यह क्या किया?
मेरी पत्नी मार डाली! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अरे इसमें क्या नाराज होने की बात है! यह तुम बंदूक लो और मेरी पत्नी को
मार लो। बराबर हो गया। मगर चंदूलाल भी एक पहुंचा हुआ पुरुष है। उसने कहा कि इतना
सुख मैं तुम्हें नहीं दे सकता। दोस्त तो वही जो दुख में काम आए। दुख में काम आ
सकता हूं, सुख तुम्हें दे सकता नहीं। अब जो हुआ सो हुआ।
मगर दूसरे दिन दूसरी घटना घटी। चंदूलाल एकदम भागा हुआ आया और
नसरुद्दीन से कहा, क्या कर रहे हो? नसरुद्दीन अपनी
बंदूक में गोलियां भर रहा था। कहा कि तुम तो गोलियां भर रहे हो मचान पर बैठे हुए
और हमने जो तंबू लगाया है, तुम्हारी पत्नी वहां अकेली है,
और एक चीता अंदर घुस गया है। मुल्ला फिर भी अपनी गोलियां भरता रहा।
चंदूलाल ने कहा, तुम समझे कि नहीं? उसने
कहा, सब समझ गया। लेकिन इसमें मेरा क्या कसूर? अब चीता घुसा है, खुद भूल की है, खुद भोगे। हमने भूल की, हमने भोगा। और चीतों से मुझे
ऐसे भी कोई बड़ा लगाव नहीं है। जाए भाड़ में।
यूं दोनों पत्नियों से छुटकारा हुआ। पहले पत्नियों के डर के कारण
निशाना नहीं लग रहा था, तीसरे दिन खुशी के कारण निशाना चूक गया। उड़ रहे थे
हंस, पंक्ति उड़ रही थी हंसों की, होगी
कोई पच्चीसत्तीस हंसों की कतार। और मुल्ला नसरुद्दीन ने चलाई गोली। कोई सिक्खड़ भी
मारता पच्चीसत्तीस हंसों में तो एकाध को चोट लग जाती। गोली चल गई, कोई हंस गिरा नहीं। मुल्ला एक क्षण चुप रहा और फिर चंदूलाल से बोला,
चंदूलाल, समझे कुछ? चंदूलाल
ने कहा, क्या खाक समझें? अरे--मुल्ला
ने कहा--समझो, चमत्कार देख रहे हो! हंस मर गए और उड़ रहे हैं।
इसको कहते चमत्कार!
हिमालय की गुफाओं में, चांदत्तारों पर भी
आदमी पहुंच जाए तो भी कोई बड़ा खतरा नहीं है। यहां जिंदगी इतनी कष्टपूर्ण है कि
आदमी कहीं भी भाग जाना चाहता है। सदियों से आदमी भागता रहा है। लेकिन परमात्मा की
खोज बहुत थोड़े से लोगों ने की है। क्योंकि संसार से भागता है अपने को बचाने के लिए,
लेकिन परमात्मा की खोज करने के लिए साहस चाहिए अपने को खोने का। वह
बचाने की बात नहीं है, खोने की बात है। वह धंधा बड़ा उलटा है।
"पलटू दिवाल कहकहा, मत कोई
झांकन जाय।'
कहते हैं: पहले ही चेता देता हूं भाई। मत कोई खोजने जाए, झांकने जाना मत। मेरी मानो तो इस झंझट में पड़ना मत। यह केवल कुछ हिम्मतवर
लोगों की बात है। यह थोड़े से चुनिंदा लोगों की बात है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि कितने लोगों को आप संन्यासी बनाएंगे? मैंने कहा, मेरा सवाल बनाने का नहीं है। सवाल यह है
कि कितने लोग बन सकते हैं? थोड़े से ही लोग बन सकते हैं। मैं
तो किसी को रोकूंगा नहीं। लेकिन सावधान तो करना ही पड़ेगा, क्योंकि
रास्ता खतरनाक है। एक कदम आगे बढ़ा दिया तो लौटना मुश्किल होता चला जाता है,
रोज-रोज मुश्किल होता चला जाता है। और सावधान पहले कर देना जरूरी
है। सावचेत कर देना जरूरी है। कोई पीछे फिर यह न कहे कि हमें पहले बताया नहीं।
इसलिए पलटू कहते हैं: "मत कोई झांकन जाय।'
कि मेरी मानो तो घर लौट जाओ। कि मेरी मानो तो अपनी दुकानदारी करो। कि
मेरी मानो तो धन कमाओ, चुनाव लड़ो, पद पर पहुंचो। मेरी
मानो तो कुछ सस्ता काम करो। मेरी मानो तो चार दिन की जिंदगी है, क्यों गंवाने को आतुर हो रहे हो, कुछ कमा लो।
पलटू बड़ा व्यंग्य कर रहे हैं। संतों की वाणी में बड़ी चोट होती है, बड़े गहरे व्यंग्य होते हैं।
वे यह कह रहे हैं कि अगर कायर हो तो अच्छा है पहले से झंझट में न पड़ो।
पूजो--मंदिर में मूर्तियां हैं। ईश्वर की खोज वगैरह में मत पड़ो, वे मूर्तियां भली हैं। वे कुछ गड़बड़ नहीं कर सकती हैं। वे तुम्हारी क्या
गड़बड़ करेंगी? तुम्हारा क्या बिगाड़ लेंगी? उन मूर्तियों पर चूहे चढ़ जाते हैं, जीवन जल छिड़क
जाते हैं, और मूर्तियां कुछ नहीं कर सकतीं। हनुमान जी झाड़ के
नीचे बैठे हैं और कुत्ता टांग उठाए खड़ा हुआ है, और हनुमान जी
कुछ नहीं कर रहे। इन्हीं से निपटो। यही सस्ता काम है। ईश्वर को खोजने वगैरह की
झंझट में न पड़ो। शास्त्र उपलब्ध हैं, अब सत्य को तुम्हें खोज
कर क्या करना है! मोहम्मद कर गए, महावीर कर गए, मूसा कर गए, अब तुम्हें क्या करना है खोज कर और! कोई
हरेक व्यक्ति को खोजना जरूरी है? अरे अब तो तुम रट लो,
कंठस्थ कर लो। तोते कर लेते हैं कंठस्थ, तुम्हें
क्या अड़चन! तुम तो आदमी हो, तोतों से तो ज्यादा ही तुम में
समझ है। याद कर लो। जरा सी स्मृति चाहिए। घोखते रहोगे गीता तो याद हो ही जाएगी।
घोखते-घोखते याद हो ही जाएगी। और गीता याद हो गई तो अब कृष्ण में और तुम में भेद
क्या रहा? अरे यही तो कृष्ण बोलते थे, वही
तुम बोलने लगे। और अर्जुनों की कोई कमी नहीं है, बुद्धुओं की
कोई कमी नहीं है, कहीं भी कोई मिल जाएगा।
मैं एक गांव में ठहरा। एक सज्जन को मेरे पास लाया गया और कहा गया कि
आप बड़े महात्मा हैं, जगतगुरु हैं। मैंने कहा, भई,
मैं भी जगत में रहता हूं, मैंने कभी सुना भी
नहीं इनके बाबत। ये जगतगुरु कैसे? जगतगुरु भी थोड़े हैरान
हुए। यहां तो गांव-गांव जगतगुरु हैं, मुहल्ले-मुहल्ले।
जगतगुरु होना तो बिलकुल ही आसान मामला है। मैंने कहा, कितने
आपके शिष्य हैं? जो उनको लाए थे, वे
कहने लगे, अब आप क्या पूछते हैं शिष्यों की, मैं ही अकेला इनका एकमात्र शिष्य हूं। तो मैंने कहा, इतने चिंतित न होओ, एक काम करो। जगतगुरु को मैंने
कहा कि आप ऐसा काम करो, इस शिष्य का नाम जगत रख लो, झंझट खत्म हो गई। तुम जगतगुरु, यह जगत--तुम जगत के
गुरु। फिर तुम पर कोई एतराज नहीं उठा सकता। कानूनन कोई एतराज नहीं उठा सकता।
तर्कपूर्ण बात हो जाएगी। तर्कशुद्ध हो जाएगी बात।
मंदिर हैं, मस्जिद हैं, गिरजे हैं, गुरुद्वारे हैं, ग्रंथ हैं, जगतगुरु
हैं, शंकराचार्य जगह-जगह हैं--तुम्हें करना क्या है खोज कर!
किसी की भी शरण गह लो। खोज खतरनाक मामला है।
पलटू यही कह रहे हैं कि हिम्मत हो तो इधर आना। मिटने का साहस हो तो
इधर आना। अहंकार को गलाने की क्षमता हो तो इधर आना।
"पलटू दिवाल कहकहा, मत कोई
झांकन जाय।
पिय को खोजन मैं चली, आपुई गई हिराय।।'
पलटू कहते हैं, मेरे अनुभव से कुछ सीखो। मैं भी उस प्यारे को खोजने
निकली थी। और वह प्यारा मिला, जरूर मिला, मगर कब मिला? तब मिला जब मैं खो गई।
इसमें दो बातें ख्याल करना। ये तुम्हें बहुत बार मौके आएंगे कि संत
अचानक स्त्रैण भाषा में बोलने लगते हैं। कब अचानक स्त्रैण भाषा में बोलने लगेंगे, इसे तय करना मुश्किल है। लेकिन जब भी वे सत्य के करीब पहुंचते हैं,
जब भी वे सत्य की कोई बात कहना चाहते हैं, तो
तत्क्षण स्त्रैण भाषा में बोलते हैं। उसका कारण है। क्योंकि यह स्त्री की ही
क्षमता है कि गल जाए, कि पिघल जाए। यह स्त्री की ही क्षमता
है कि प्रेम में लीन हो जाए। पुरुष की अकड़ आखिरी दम तक जाती नहीं। पुरुष अहंकार को
बचाता है, सम्हालता है। पुरुष जैसे अहंकार का प्रतीक है। जल
भी जाए तो भी...जैसे रस्सी जल भी जाए तो भी उसकी अकड़ नहीं जाती। मरते-मरते तक
पुरुष की अकड़ नहीं जाती।
परमात्मा को पाने के लिए स्त्रैण होना जरूरी है। स्त्रैण होने का मतलब
यह नहीं है कि तुम्हें वस्तुतः स्त्री होना पड़ेगा। स्त्रैण होने का अर्थ है: एक
स्त्रैण मनोविज्ञान की जरूरत है। स्त्रैण होने का अर्थ है: ग्राहक होने की जरूरत
है, आक्रामक होने की नहीं।
पुरुष आक्रामक है। वह हमलावर है। उसे आसानी पड़ती है अगर धन पाना हो, क्योंकि धन में आक्रामक होना पड़ेगा। यूं तुम बैठ रहो अपने घर में तो धन आ
नहीं जाएगा। चाहे तुम लाख कहो कि जब उसे देना होता है तो छप्पर फाड़ कर देता है।
मैंने तो नहीं देखा कभी कि उसने किसी को दिया हो और छप्पर फाड़ कर दिया हो। तुम्हीं
को किसी का छप्पर फाड़ कर घुसना पड़ता है। फिर अपने को बचाने के लिए भला तुम कहने
लगो कि जब उसको देना होता है, छप्पर फाड़ कर देता है। कि हम
क्या करें, हम तो अपने घर में बैठे थे, वह एकदम आया और छप्पर फाड़ कर गिरा दिया।
ये तुम्हारी बचाने की तरकीबें हैं अपने को। लेकिन तुम्हीं को छप्पर
फाड़ना पड़ता है। कोई ऐसा नहीं होता कि आए एकदम परमात्मा और तुम्हें मनाए कि भैया, राष्ट्रपति हो जाओ। तुम्हीं को घर-घर, द्वार-द्वार
भीख मांगते फिरना पड़ता है। एक-एक वोट के लिए, एक-एक मत के
लिए गिड़गिड़ाओ, दांत निपोरो, उलटी-सीधी
बातें करो, मक्खन लगाओ, हर आदमी के
सामने झुको, जो भी बन सकता हो खुशामद में लोगों की करो,
क्योंकि सत्ता पानी है।
लेकिन कुछ चीजें हैं जो खोजने से नहीं मिलतीं, खोजने से और दूर हो जाती हैं; जिन्हें आक्रामक होकर
पाया ही नहीं जा सकता। क्योंकि उनको पाने की पहली शर्त है कि तुम्हारे भीतर से
आक्रामकपन, तुम्हारे भीतर से हिंसात्मकता, तुम्हारे भीतर से यह विजय का जो भाव है यह विदा हो जाए; तुम्हारे भीतर से अहंकार जड़ से कट जाए--यह उनके पाने की पहली शर्त है। और
परमात्मा उनको ही मिलता है जो शून्य हो जाते हैं, जो न हो
जाते हैं, मिट जाते हैं।
इसलिए अचानक अनेक बार संतों की वाणी में तुम्हें यह मिलेगा कि पुरुष
की भाषा बोलते वक्त वे कभी भी स्त्री भाषा में बोलने लगते हैं। तुम चौंकते भी
नहीं। तुम धीरे-धीरे इसके आदी हो गए हो कि यह संतों की आदत है। यह आदत की बात नहीं
है, इसके पीछे राज है--गहरा राज है।
"पिय को खोजन मैं चली, आपुई
गई हिराय।'
जैसे ही उस परमात्मा का नाम आता है, परमात्मा के आते ही
संत एकदम स्त्रैण हो जाता है। कबीर कहते हैं: मैं राम की दुल्हनिया। फिर वह दूल्हा
नहीं रह जाता, दुल्हनिया हो जाता है। फिर राम आ गया तो अब
राम दूल्हा, अब वह राम की दुल्हनिया।
स्त्री की कुछ खूबियां हैं। वह प्रतीक्षा करती है, आक्रामक नहीं होती। प्रेम भी हो उसे तो अपनी तरफ से निवेदन नहीं करती,
राह देखती है। पुरुष को ही निवेदन करना पड़ता है। अगर कोई स्त्री
किसी पुरुष के पीछे पड़ जाए तो पुरुष घबड़ा जाएगा, पहले ही से
भाग जाएगा, पहले ही से डर जाएगा। स्त्री कभी किसी के पीछे
नहीं पड़ती। भीतर कितना ही उसके लिए आग्रह उठ रहा हो, प्रेम जग
रहा हो, मगर वह प्रतीक्षा करेगी।
वह उसका गुणधर्म है। वह उसका प्रसाद है। वह राह देखेगी। और तुम जब
उससे प्रार्थना करोगे प्रेम की, तब भी वह एकदम से हां नहीं भर
देगी। हां भी भरेगी, लेकिन कहेगी "नहीं'। इस ढंग से कहेगी नहीं, इस प्यारे ढंग से कहेगी कि
तुम समझ जाओगे कि नहीं का अर्थ हां है। यूं रस-भरे ढंग से, यूं
प्रीतिकर ढंग से नहीं का उच्चार करेगी, इतने मदमाते ढंग से,
इतनी मस्ती से, इतने आह्लाद से कि उसमें कहीं
भी नकार नहीं होगा, लेकिन कहेगी "नहीं'।
"नहीं' कह-कह कर वह सिर्फ
घोषणा कर रही है कि इतना भी आक्रामक भाव नहीं है उसमें कि एकदम से हां भर दे। तुम
निवेदन करो और स्त्री एकदम से हां भर दे, तो भी तुम थोड़े
चौंक जाओगे। क्योंकि उसका मतलब यह हुआ कि वह राह ही देख रही थी कि कब तुम कहो और
कब वह हां भरे। वह "नहीं' करती रहेगी। वह शर्माती
रहेगी। वह लजाती रहेगी। घूंघट पुरुषों ने नहीं खोजा; घूंघट
स्त्रियों की अपनी खोज है। वह घूंघट डाल लेगी। वह यूं छिप-छिप कर देखेगी। वह अपने
को छिपाएगी। वह यूं छाया में खड़ी हो जाएगी और अंधेरे में। उसके प्राण आतुर होंगे
और प्रार्थनापूर्ण होंगे। वह तत्पर होगी। मगर तत्परता की कोई घोषणा नहीं की जाएगी,
क्योंकि घोषणा में भी आक्रमण आ जाता है। वह राजी भी होगी तो यूं कि
जैसे तुम्हीं पीछे पड़ गए तो वह करे भी तो क्या करे। राजी भी होगी तो यूं जैसे कि
तुमने उसे राजी कर लिया। तुमने इतना आग्रह किया, इतना आग्रह
किया कि अब और इनकार करना अशोभन मालूम पड़ने लगा।
परमात्मा के साथ व्यक्ति को इतना ही अनाक्रामक होना होता है।
महात्मा गांधी एक शब्द का उपयोग करते थे--सत्याग्रह। वह शब्द बिलकुल
गलत है। वैसा शब्द बनाना नहीं चाहिए। वैसा शब्द मौलिक रूप से भ्रांतिपूर्ण है।
सत्य का कोई आग्रह नहीं होता। और जैसे ही सत्य का आग्रह होता है, सत्य असत्य हो जाता है। सब आग्रह असत्य के होते हैं। आग्रह में ही असत्य
है। आग्रह का अर्थ है: ऐसा होना चाहिए। सत्य तो अनाग्रही होता है। चुपचाप, मौन, प्रतीक्षातुर, प्रार्थना
से भरा हुआ, गहन आकांक्षा से, अभीप्सा
से भरा हुआ, प्यास से आतुर, मगर
आग्रह-शून्य।
इसलिए संत तत्क्षण, जब भी परमात्मा की बात करेंगे,
स्त्रियों जैसी भाषा बोलने लगेंगे। तब वे एकदम मजनू नहीं रह जाएंगे,
एकदम लैला हो जाएंगे।
"पिय को खोजन मैं चली, आपुई
गई हिराय।'
मैं चली थी प्यारे को खोजने, पलटू कहते हैं,
लेकिन तुम्हें सच-सच कह दूं कि पीछे तुम मुझे दोष न देना, कि तुम पीछे मुझे उत्तरदायी न ठहराना--गई थी खोजने, खो
गई लेकिन। और जब अपने को खोया, तभी उसे पाया। उसे पाने की
शर्त ही अपने को खोना है।
दूसरी बात ध्यान में रखने जैसी जरूरी है कि सत्य की खोज कोई रूखी-सूखी
तर्क की खोज नहीं है। एक तो तार्किक खोज होती है जो बिलकुल रूखी-सूखी और गणित की
होती है। दो और दो चार जैसी। जिसमें कोई रसधार नहीं बहती। अब दो और दो पांच हों कि
दो और दो चार हों कि दो और दो तीन हों--किसको क्या लेना-देना है? किसी के हृदय पर छुरी न चल जाएगी अगर दो और दो पांच होते हों। होते हों तो
होते हों; इससे किसी के प्राणों में कोई आघात नहीं लग जाएगा।
तर्क की खोज रूखी-सूखी है, मरुस्थलीय है। वहां न कोई हरियाली
है, न कोई पौधे लगते, न कोई झरने बहते,
न झरनों का कलकल नाद है, न फूल खिलते, न फूलों की गंध उड़ती; दूर-दूर तक रेगिस्तान, दूर-दूर तक जहां तक आंखें जाएं, सब सूखा-सूखा है।
इसलिए तार्किक निपट सूखा होता है। और तार्किक आस्तिक नहीं हो सकता।
इसीलिए नहीं हो सकता क्योंकि आस्तिकता रसभरी घटना है। रसो वै सः! परमात्मा की
परिभाषा अगर कोई भी कभी करीब से करीब पहुंची है तो वह यह है कि वह रस-रूप है।
इसलिए मैं कहता हूं: काव्य उसके ज्यादा निकट है दर्शनशास्त्र की बजाय।
संगीत उसके ज्यादा निकट है गणित की बजाय। नृत्य उसके ज्यादा निकट है विज्ञान की
बजाय। स्त्रियां उसके ज्यादा निकट हैं पुरुषों की बजाय। हृदय उसके ज्यादा निकट है
मस्तिष्क की बजाय।
इसलिए दूसरी बात: संत जब भी उसकी बात करेंगे तो उसकी बात यूं करेंगे
जैसे प्यारे की बात की जाती है, प्रीतम की बात की जाती है।
अब प्रेम में तर्क नहीं होता। प्रेम अतक्र्य है। इसलिए तो हम प्रेम को
अंधा कहते हैं। प्रेम को अंधा कौन कहता है? तर्क से भरे हुए लोग
प्रेम को अंधा कहते हैं। जिन्होंने यह मान रखा है कि तर्क आंख है, वे लोग प्रेम को अंधा कहते हैं।
लेकिन जिन्होंने प्रेम को जाना है, वे इस पर हंसेंगे;
क्योंकि उनका जानना बिलकुल भिन्न है। उनका जानना तो यह है कि प्रेम
में ही आंख है। प्रेम ही एकमात्र आंख है। क्योंकि प्रेम से ही हृदय खुलता है। और
हृदय के द्वार खुले तो दृष्टि निखरती है, साफ होती है;
तो ही वस्तुतः दर्शन उपलब्ध होता है, साक्षात्कार
होता है। यह हृदय की सेज पर ही मिलन होता है। भक्त की और भगवान की सुहागरात हृदय
की सेज पर होती है। यह मिलन खोपड़ी में कभी नहीं हुआ--अब तक नहीं हुआ और आगे भी हो
नहीं सकता।
लेकिन जो लोग सिर्फ खोपड़ी में जीते हैं, जिनका सारा प्राण
सिकुड़ कर खोपड़ी में समा गया है, जो भूल ही गए हैं कि हृदय
जैसी कोई चीज भी होती है, जिनके लिए हृदय सिर्फ फेफड़े का नाम
है, फुफ्फस का नाम है, जिनके लिए हृदय
का अर्थ होता है खून को शुद्ध करने का यंत्र और कुछ भी नहीं--उनका परमात्मा से कोई
संबंध नहीं बन सकता।
तर्क व्यक्ति को नास्तिक बना सकता है, आस्तिक नहीं। और मजे
की बात तो यह है कि तर्क भी व्यक्ति को नास्तिक तभी बना सकता है जब व्यक्ति एक
सीमा पर जाकर रुक जाए। अगर वह तर्क भी करता ही चला जाए तो एक सीमा पर जाकर तर्क
आत्मघात कर लेता है, अपने को ही काट लेता है। पहले औरों को
काटता है...जैसे तुम सांझ को दीया जलाओ तो पहले दीया तेल का जलाता है, फिर बाती को जला डालता है; जब तेल भी जल गया और बाती
भी जल गई तो फिर दीया थोड़े ही जलता है, फिर दीया बुझ जाता
है। वही दशा तर्क की है। पहले तर्क तेल को जलाएगा, जब तेल
चुक जाएगा तो बाती को जलाएगा, और जब बाती भी चुक जाएगी तो
तर्क आत्मघात कर लेगा, खुद भी मर जाएगा। इसलिए जो वस्तुतः
तार्किक हैं, अगर वे तर्क करते ही चले जाएं, रुकें न...।
जिनको तुम आमतौर से कहते हो निष्कर्ष, वे निष्कर्ष नहीं
होते, वे सिर्फ तुम्हारे आलस्य के सबूत होते हैं। निष्कर्ष
जिनको तुम कहते हो, वे निष्पत्तियां नहीं होते, वे सिर्फ इस बात की खबर होते हैं कि तुम थक गए अब। अब तुम कहते हो कि अब
बस ठीक है, यहीं तक ठीक है, अब जो जान
लिया यहीं तक मान लेते हैं। अब कब तक चलते रहें! अब कब तक सोचते रहें! अगर तार्किक
भी तर्क करता ही चला जाए, करता ही चला जाए, करता ही चला जाए, तो वह सीमा आ जाती है जहां तर्क
अपना आत्मघात कर लेता है। और तब आस्तिकता का जन्म हो सकता है। मगर तर्क के जाने पर
ही होता है। तर्क रूखी-सूखी बात है। उसमें प्रेम की कोई गुंजाइश नहीं है।
इसलिए जब भी संत परमात्मा की बात करें, सत्य की बात करें,
तो तत्क्षण प्रेम की बात करते हैं!
"पिय को खोजन मैं चली!'
अब तुम जरा दोनों का भेद समझो। जब तुम कहते हो मुझे सत्य खोजना है, तब तुम्हारी जिज्ञासा बौद्धिक है। जब तुम कहते हो मुझे प्यारे को खोजना है,
तब तुम्हारी जिज्ञासा हार्दिक हो जाती है। छोटा सा भेद, मगर बड़ा भेद है, जमीन-आसमान का फर्क है।
मैं भी तुमसे कहूंगा: सत्य को खोजने की बात बौद्धिक ऊहापोह है। उससे
कभी कुछ हाथ नहीं लगा। हजारों लोग सोचते रहे हैं, सदियां बीत गई हैं और
दर्शन-शास्त्र किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा है। दर्शन-शास्त्र एकमात्र शास्त्र है
जिसमें निष्कर्ष हैं ही नहीं, बस जिसमें सोच-विचार, सोच-विचार, सोच-विचार। हां, जो
लोग थक जाते हैं सोच-विचार में, जहां थक गए उसी को निष्कर्ष
मान लेते हैं। वह उनकी थकान की खबर देता है।
मैं दर्शन-शास्त्र का विद्यार्थी रहा हूं। मैंने जितने अध्यापक
दर्शन-शास्त्र के पाए, सब थके हुए लोग थे। क्योंकि उन सबने निष्कर्ष ले लिए
थे। और मेरा उनसे कहना यही था कि आपके निष्कर्ष या तो आप कहें कि हृदय से आए हैं,
तब मुझे कुछ विवाद नहीं है। क्योंकि हृदय से क्या विवाद! विवाद के
बाहर बात हो गई। फिर मैं आपकी बात चुपचाप सुनने को राजी हूं। क्योंकि हृदय तो गीत
गाता है। गीत में कोई तर्क थोड़े ही होते हैं।
तुम किसी गायक से विवाद थोड़े ही करते हो कि तुम्हारा गीत गलत कि सही।
गीत सुंदर होता है, असुंदर होता है; लेकिन गलत और
सही नहीं होता। गीत में क्या गलत और क्या सही! गीत में राग हो सकता है, रागिनी हो सकती है, संगीत हो सकता है या न हो,
मगर गलत और सही गीत में कुछ नहीं होता। गलत और सही गीत की कसौटी
नहीं है। वह तो वैसा ही पागलपन होगा जैसे कोई सोने को कसने का जो पत्थर होता है
सुनार के पास, उस पर फूलों को कसे, और
जो फूल उस पर सही न उतरें उनको फेंकता जाए और कहे कि ये गलत। कोई फूल सही नहीं
उतरेगा, क्योंकि सोने को कसने का पत्थर फूलों को कैसे कस
सकता है! वह फूलों के लिए मापदंड नहीं है, कसौटी नहीं है। वह
सोने के लिए ठीक है।
तो मैं उनसे कहता था कि अगर आप कह दें मुझसे यह कि आपका नतीजा हार्दिक
है, मैं विवाद छोड़ देता हूं। मगर दर्शन-शास्त्र के प्रोफेसर स्वभावतः ऐसी
कमजोरी की बात नहीं कह सकते। इसको वे कमजोरी की बात समझते हैं--हृदय की बात। नहीं,
वे कहेंगे कि हमने तर्क से यह नतीजा लिया है। तो फिर मैं कहता कि
फिर बात छिड़ेगी। क्योंकि मेरी दृष्टि यह है कि तर्क कोई नतीजा ले ही नहीं सकता।
एक अध्यापक से मैं आठ महीने तक उलझता रहा। धीरे-धीरे हालत यह आ गई कि
विद्यार्थी और भी थे, उन्होंने आना ही बंद कर दिया; क्योंकि
कोई सार ही नहीं। पढ़ाई-लिखाई तो वहां हो ही नहीं सकती थी। मैं पहुंचता और अध्यापक
पहुंचते। आखिर वे भी घबड?ा गए, क्योंकि
परीक्षा करीब आ गई, विद्यार्थियों का क्या होगा! और उनकी
नौकरी का क्या होगा! वे मुझसे कहने लगे कि अब परीक्षा करीब आ गई, तुम इंच भर आगे बढ़ने देते नहीं।
मैंने कहा, एक छोटी सी बात तुम कह दो और मैं चुप हो जाऊंगा। तुम
यह कहो कि तुम्हारे नतीजे हार्दिक हैं, फिर मुझे कोई एतराज
नहीं है। क्योंकि प्रेम से क्या एतराज हो सकता है! अब किसी व्यक्ति को गुलाब के
फूल प्यारे लगते हैं, इससे हम विवाद नहीं करते। हम कहते हैं
यह उसकी पसंद। और किसी को जूही के फूल अच्छे लगते हैं तो इसमें कुछ झगड़ा थोड़े ही
है। कोई जूही के फूल और गुलाब के फूलों को मानने वाले लोग तलवारें तो नहीं खींच
लेते।
इसलिए मैं कहता हूं कि जो धार्मिक लोग एक-दूसरे से विवाद करते हैं, वे बड़े मूढ़तापूर्ण कृत्य में लगे हुए हैं। क्योंकि धर्म का संबंध हृदय से
है। किसी को महावीर प्यारे लगते हैं, बिलकुल ठीक। और किसी को
बुद्ध प्यारे लगते हैं, बिलकुल ठीक। चलो इतना ही क्या कम है
कि कोई प्यारा तो लगता है। किसी के बहाने प्रेम तो उमगेगा। किसी के बहाने प्रेम
में अंकुर तो आएंगे। किसी के बहाने प्रेम हिलोरें तो लेगा। फिर किसके बहाने लेता
है, इससे क्या लेना-देना है! तुम्हें आम गिनने हैं कि आम
खाने हैं? तुम्हें आम खाने हैं कि गुठलियां गिननी हैं?
फिर किस वृक्ष के आम किसको प्रीतिकर लगते हैं, इसमें कोई विवाद नहीं है।
मैंने उनसे कहा, आप साफ-साफ कह दें कि आपके
हार्दिक निष्कर्ष हैं, कि आप ईश्वर को हृदय से मानते हैं
श्रद्धापूर्वक, फिर मुझे कोई झंझट नहीं है। लेकिन अगर आप यह
कहें कि मेरा तार्किक निष्कर्ष है, तो फिर यह बात समाप्त
होने वाली नहीं है।
और आखिर मामला यहां तक पहुंचा कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने
लिख कर दे दिया कि या तो मैं पढ़ाऊंगा या यह विद्यार्थी पढ़ेगा, हम दोनों एक साथ नहीं चल सकते।
मुझे बुलाया प्राचार्य ने और उन्होंने कहा कि मामला क्या है? हमारे पुराने अध्यापक हैं, अनुभवी हैं। अब तक ऐसा
उन्होंने कभी कहा नहीं किसी विद्यार्थी के संबंध में। आदृत हैं।
मैंने कहा कि वे होंगे आदृत। इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि अभी
तक उनका किसी विद्यार्थी से मुकाबला नहीं हुआ था। अब उनका मुकाबला हो गया है। उनको
भी सामने बुला लें, ताकि बात आपके आमने-सामने हो जाए। बात सीधी-साफ है।
इशारे में हल हो जाएगी। वे इतना कह दें कि उनके नतीजे हार्दिक हैं, मुझे फिर कोई विवाद नहीं, मैं चुप हो जाऊंगा। मगर
अगर वे यह जिद करते हों कि उनके नतीजे बौद्धिक हैं, तो फिर
मैं छोड़ने वाला नहीं हूं। परीक्षा हो, न हो। यह साल बीते,
दो साल बीतें। मेरी जिंदगी जाए, उनकी जिंदगी
जाए।
उन्होंने कहा कि वे तो कालेज ही आने को तैयार नहीं हैं। वे तो नौकरी
ही छोड़ने को बैठे हुए हैं। वे तीन दिन से आए भी नहीं हैं।
मैंने कहा, वे न आएं, यह उनकी मर्जी।
प्राचार्य ने कहा, मुझे तुम्हारी बात समझ में आती
है। तुम्हारी बात सही है। लेकिन हमारी मजबूरी भी समझो। इस कालेज को नुकसान होगा।
अच्छा हो तुम स्वयं हट जाओ।
मैंने कहा, वह भी मैं कर सकता हूं कि मैं हट जाऊं। लेकिन मैं यूं
ही नहीं हट जाऊंगा। आपको मुझे कालेज से निष्कासित करना होगा।
कहा, पागल हो! हम किसी को निष्कासित करते हैं तो वह कहता
है कि आप निष्कासित न करें, मैं स्वयं हट जाता हूं। तुमको हम
कह रहे हैं कि तुम चुपचाप हट जाओ, दूसरे कालेज में भर्ती हो
जाओ। मैं इंतजाम कर देता हूं दूसरे कालेज में तुम्हारे भर्ती होने का। लेकिन तुम
कहते हो निष्कासित करो!
मैंने कहा, बिना निष्कासित किए मैं नहीं जाऊंगा। निष्कासित,
मेरे लिए प्रमाणपत्र होगा-- एक कालेज मुझसे हारा, अब दूसरे से निपटेंगे। और आपकी सिफारिश से मैं किसी कालेज में नहीं जाऊंगा,
क्योंकि आपको क्यों झंझट में डालूं, क्योंकि
कहानी यह वहां भी दुहरने वाली है। आप कहां मेरा साथ दोगे? अपने
कालेज में साथ नहीं दे पा रहे तो दूसरे कालेज में आप क्या साथ दोगे! अपने बलबूते
पर जाऊंगा। और यूं मुझे कुछ रस नहीं है आपकी उपाधियों में, मिलती
हैं कि नहीं। मैं तो उपाधियों को व्याधियां मानता हूं। सर्टिफिकेट लेकर मुझे सिर्फ
फाड़ने हैं, और कुछ करना नहीं है। और वही मैंने किया।
सर्टिफिकेट लेकर फाड़े ही। करता भी क्या, उनको रख कर भी क्या
करता! पर मैंने कहा, मेरी मौज है कि जरा देख लूं, टटोल लूं चारों तरफ कि जिनको बुद्धिमान कहा जा रहा है, उनमें कितनी बुद्धिमत्ता है।
तर्क से कोई निष्कर्ष नहीं लिया जा सकता। इसलिए संत सदा प्रेम की बात
करते हैं, तर्क की बात नहीं करते। संतों से जो विवाद करे वह
नासमझ है। वे विवाद की बात ही नहीं कर रहे हैं। उन्होंने तो पहले ही कह दिया कि
विवाद का सवाल नहीं है।
"पिय को खोजन मैं चली!'
मैं प्यारे को खोजने चली थी। और हुआ यूं कि--
"आपुई गई हिराय!'
पलटू कहते हैं: मैं खुद खो गई। फिर चुप हैं। फिर यह भी नहीं कहा कि
फिर क्या हुआ। तुम जानना चाहोगे कि फिर क्या हुआ। लेकिन पलटू चुप हैं; अब बोले तो कौन बोले! जब खो ही गए तो अब बोले तो कौन बोले। अब समझ लो। अब
बात समझने की है, कहने की नहीं। खो लेने से ही वह मिलता है।
जैसे नदी सागर में खो जाती है तो सागर हो जाती है, ऐसे ही जब
भक्त भगवान में खो जाता है तो भगवान हो जाता है।
आनंद प्रतिभा, प्रेम पर चर्चा के लिए यह शृंखला होगी। निश्चित ही
प्रेम पर चर्चा का अर्थ होगा कि तर्क पर भी चर्चा करनी होगी। तर्क की पृष्ठभूमि
में ही प्रेम समझ में आ सकेगा। क्योंकि जब तक हम विपरीत को सामने खड़ा न करें तब तक
बात साफ नहीं होती। जैसे अंधेरे में रात तारे चमक आते हैं, ऐसे
ही तर्क के अंधेरे में प्रेम के तारे चमक आते हैं।
तर्क में मुझे आनंद है, रस है। तर्क से मेरी
कोई दुश्मनी नहीं। तर्क मेरे लिए खेल है, खिलवाड़ है। बस खेल
ही लेकिन। जो उसी को जिंदगी समझ लेते हैं, वे अंधे हैं,
वे नासमझ हैं। जो खिलौनों में ही अटक गए, वे
पागल हैं। बचपन में ठीक, लेकिन जैसे-जैसे तुम प्रौढ़ होते हो
वैसे-वैसे एक बात स्पष्ट होती जानी चाहिए कि जीवन तर्क से ज्यादा है। जीवन
तर्कातीत भी है। और मरने के पहले उस तर्कातीत को जान लेना है, पहचान लेना है। उसको जानते ही अमृत का अनुभव हो जाता है।
तर्क की भी चर्चा और प्रेम की भी चर्चा। तर्क की चर्चा इस तरह जैसे
ब्लैकबोर्ड और प्रेम की चर्चा ऐसे जैसे सफेद खड़िया से हम ब्लैकबोर्ड पर लिखें।
चाहता तो हूं कि तुम सबको प्रेम की तरफ ले चलूं, मगर तुम सब कहीं न
कहीं तर्क में अटके हो--कहो या न कहो, जानते होओ, न जानते होओ। आखिर तुम्हारा हिंदू होना, मुसलमान
होना, ईसाई होना, जैन होना क्या है?
सिवाय तर्क के और क्या है? यह तुम्हारा प्रेम
तो नहीं।
अब जो आदमी जैन है, उसने महावीर को कब प्रेम किया?
संयोगवशात जैन घर में पैदा हो गया है। एक जैन बच्चे को उठा कर
मुसलमान घर में रख दो, फिर बड़ा होकर वह महावीर को प्रेम करे
तो समझ में आएगा कि महावीर के प्रति प्रेम कोई स्वाभाविक घटना थी। नहीं, वह मोहम्मद को प्रेम करेगा। ईसाई घर में रख दो, वह
जीसस को प्रेम करेगा। ईसाई कभी सोचता भी नहीं कि महावीर में कुछ प्रेम करने जैसा
है। ईसाई तो बहुत दूर है, हिंदू नहीं सोचता!
तुम जिस घर में पैदा होते हो, जो संस्कार तुम्हें
दिए जाते हैं, उन्हीं संस्कारों को तुम जीवन भर दोहराते रहते
हो। यह सिर्फ बौद्धिक बात है, क्योंकि संस्कार बुद्धि में
अटक जाते हैं। हृदय तक कोई संस्कार नहीं जाता। यही हृदय की अदभुत कीमिया है,
खूबी है कि हृदय को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। बुद्धि की यही खराबी
है। बुद्धि के साथ व्यभिचार हो सकता है। और व्यभिचार किया जा रहा है।
हर बच्चे की बुद्धि के साथ तुम व्यभिचार करते हो। बच्चे तो बड़े
प्रतिभाशाली पैदा होते हैं। न कोई बच्चा हिंदू की तरह पैदा होता, न मुसलमान की तरह, न ईसाई की तरह, न जैन की तरह। लेकिन तुम जल्दी से उनकी गर्दनें पकड़ लेते हो। बच्चे तो बड़े
ताजे होते हैं, मगर तुम मार डालते हो उनको। तुम उनकी हत्या
कर देते हो। तुम उन्हें जहर पिलाना शुरू कर देते हो। तुम उन्हें वैमनस्य पिलाना
शुरू कर देते हो। तुम उन्हेंर् ईष्या, शत्रुता, द्वेष, क्या-क्या नहीं पिलाते हो! दूध के साथ ही जहर
मिलाया हुआ है!
तुम्हारे इस जहर से बहुत कम सौभाग्यशाली लोग छूट पाते हैं। मेरी सारी
चेष्टा यहां यही है कि तुम्हें इस जहर से छुड़ा लूं। तुम जोर से पकड़े हो, क्योंकि तुम उसे जहर समझते नहीं। लेकिन बस तुम्हारे मस्तिष्क तक ही वह जहर
जाता है, उससे गहरे नहीं जाता। इसी में तुम्हारे लिए आशा है,
भविष्य है तुम्हारा, कि हृदय को कोई भी
तुम्हारा नष्ट नहीं कर पाता। हृदय के साथ व्यभिचार असंभव है। बस बुद्धि के साथ
व्यभिचार हो सकता है।
और बुद्धि के साथ काफी व्यभिचार तुम्हारे किया गया है। तुम्हारी
बुद्धि को मैं चाहता हूं कि उस सीमा तक खींच कर ले चलूं, जहां वह खुद ही तुम्हारा साथ छो॰? दे। उस सीमा तक
खींच कर ले चलूं--पलटू दिवाल कहकहा--उस दीवाल तक खींच कर ले चलूं तुम्हारी बुद्धि
को जहां तुम खुद ही उस पार देख सको।
इसलिए मैं सीधी-सीधी श्रद्धा की शिक्षा नहीं देता। मेरी शिक्षा एक
अर्थ में अनूठी है, मौलिक है। अगर तुम साधारण धार्मिक लोगों के पास जाओगे
तो वे कहते हैं, भाई श्रद्धा रखो, आस्था
रखो। मैं नहीं कहता। मैं तो कहता हूं, पहले जी भर कर तर्क कर
लो। ताकि झंझट ही मिटे, कुछ बचे ही न तर्क करने को। पहले
उससे सुलझ ही लो, निपट ही लो। बुद्धि जो-जो खेल दिखा सकती हो,
उन्हें देख ही लो। वह तमाशा जी भर कर देख लो। उससे ऊब जाओ। उसको
उसकी अतिशयोक्ति तक खींच कर ले चलो।
इसलिए तुम मेरे वचनों में एक तरफ तर्क की धार देखोगे। आस्तिक आ जाते
हैं तो वे मेरी तर्क की धार से घबड़ा जाते हैं। वे दुखी होकर जाते हैं कि अरे, यह किस तरह का धर्म है! यह किस तरह की धार्मिकता है! क्योंकि वे तो बेचारे
लचर-पचर आस्तिकता में मानते हैं।
मैं लचर-पचर, नपुंसक आस्तिकता में नहीं मानता। मैं मानता हूं ऐसी
आस्तिकता में जो नास्तिकता के पार गई है। नास्तिकता को बाद नहीं दिया जिसने,
नास्तिकता से बच कर नहीं गुजरी जो, नास्तिकता
की आग से गुजरी है जो।
तुम्हें उस सीमा तक ले चलना चाहता हूं जहां दीवाल पर तुम खुद चढ़ जाओ।
तुम्हें सचेत भी कर देना चाहता हूं कि आ गई दीवाल। मत कोई झांकन जाय। अब सम्हल
जाना। अब झांकना मत। अभी भी लौटना हो तो अभी लौटने का उपाय है।
लेकिन जब तक दीवाल न आ जाए तब तक क्या कहना! तब तक तो ले चलता हूं
दीवाल तक। तब तक तो पलटू भी ले गए। दीवाल पर चल कर तुमसे कह दूंगा कि अब तुम सोच
लो एकबारगी। यह आ गई दीवाल। अब अगर झांका तो गए काम से। अब इस पार या उस पार का
निर्णय है। अगर इधर रहना हो तो रह ही जाओ। फिर लौट कर पीछे मत देखना।
मगर मैंने देखा यह है, मेरा अनुभव यह है: जो
लोग मेरे तर्क के साथ दीवाल तक चल सकते हैं, वे बिना झांके
नहीं लौटते। उस दीवाल से कोई झांके बिना कैसे लौट सकता है? लाख
पलटू कहें, लाख मैं कहूं कि मत झांकन कोई जाय। क्या होता है?
उस दीवाल का आकर्षण ऐसा है। और जब तुम दीवाल से लोगों को झांकते और
कूदते देखते हो और उनके कहकहे सुनते हो, तो तुम्हारे प्राण
भी आतुर हो उठते हैं। तुम भी सोचते हो--एक बार बाजी लगा लें। एक बार दांव लगा लें।
जिंदगी फिर मिले न मिले। यह दीवाल फिर मिले न मिले। फिर यहां तक आना हो या न हो।
कौन जाने!
मगर मैं तुम्हें सचेत जरूर कर देना चाहता हूं, क्योंकि पीछे तुम यह न कहो कि आपने बताया नहीं और हम भूले से दीवाल पर चढ़
गए। भूले से किसी को दीवाल पर मैं चढ़ाना नहीं चाहता। तुम्हारे अज्ञान में तुम्हें
दीवाल पर चढ़ाना नहीं चाहता। तुम पूरे बोधपूर्वक दीवाल पर चढ़ो तो ही दीवाल पर चढ़ोगे;
तो ही उस पार झांक सकोगे।
और जिसने झांका है, वह मस्त हुआ है। वह मधुशाला में
प्रविष्ट हो गया। इसलिए तो मैं इस अपने तीर्थ को मधुशाला कहता हूं। इसे मंदिर नहीं
कहता, मयकदा कहता हूं। मंदिर तो मर गए मयकदे हैं। वहां कभी
शराब बिकती थी। वहां कभी पियक्कड़ भी बैठे थे। कभी रिंदों की वहां महफिल थी। जब
बुद्ध रहे होंगे तो वहां मयकदा था। पिलाने वाला ही न रहा, साकी
ही न रहा, पंडित-पुरोहित रह गए, खाली
बोतलें रह गईं, खाली बोतलों की पूजा चल रही है, या खाली बोतलों में गंगाजल पीया जा रहा है! अब गंगाजल से कहीं नशा आने
वाला है? उसके लिए खालिस अंगूर की शराब चाहिए। उसके लिए
सुर्ख शराब चाहिए। उसके लिए कोई जादूगर चाहिए जो छू दे जल को भी तो शराब हो जाए।
जीसस के जीवन में यह कहानी है कि उन्होंने सागर को देखा और उनके देखते
ही सागर शराब हो गया। ईसाई सोचते हैं यह चमत्कार है। यह चमत्कार नहीं है। यह तो
सभी बुद्धों के जीवन की घटना है। बुद्ध जहां देखेंगे वहां शराब बरस जाएगी। सागर को
देखेंगे तो सागर शराब हो जाएगा। तुम्हारी आंखों में आंखें डाल देंगे तो तुम्हारे
भीतर शराब ही शराब दौड़ जाएगी, तुम्हारा रोआं-रोआं पुलकित हो
जाएगा। तुम्हारा हाथ हाथ में ले लेंगे कि बस पलटू दिवाल कहकहा। चढ़ गए दीवाल। फिर
छूट कर भागना मुश्किल है। यह अकेला प्रेम-विवाह है जिसमें तलाक नहीं हो सकता।
मगर सावधान जरूर गुरु कर देते हैं। सावधान कर देना बिलकुल ही योग्य है, उचित है। क्योंकि यह बड़े खतरे का सौदा है। सब कुछ दांव पर लगा देना है।
"पिय को खोजन मैं चली, आपुई
गई हिराय।'
उन सबको निमंत्रण है जो अपने को खोने को राजी हों। इसलिए तर्क की बात
करूंगा दीवाल तक ले चलने के लिए। तर्क की खूबी है कि दीवाल तक ले चल सकता है। फिर
प्रेम की बात करूंगा, क्योंकि प्रेम की खूबी है कि वह दीवाल के पार ले चल
सकता है।
मैं जीवन में सब स्वीकार करता हूं--तर्क भी और प्रेम भी; विज्ञान भी और धर्म भी। और मैं उसी व्यक्ति को समझदार मानता हूं जो जीवन
की हर चीज का उपयोग कर ले। जो जहर का भी उपयोग करके औषधि बना ले। जो हर चीज को
सीढ़ी बना ले। जीवन में कुछ भी त्याज्य नहीं है। हां, प्रत्येक
चीज का रूपांतरण जरूर करना है।
योग प्रीतम ने एक गीत मुझे लिख कर भेजा है--
एक किरन काफी है सूरज तक जाने को
एक डगर काफी है मंजिल तक आने को
जीवन तो उत्सव है, नृत्य और गीत भरा
इसको हम स्वीकारें, जीकर तो देखें हम
माना हैं कांटे, पर फूल भी नहीं हैं कम
थोड़ा तो हर्ष के झरोखे से लेखें हम
एक गंध काफी है बगिया तक जाने को
एक ऋचा काफी है ब्रह्म में समाने को
एक किरन काफी है सूरज तक जाने को
एक डगर काफी है मंजिल तक आने को
माना है आंधीत्तूफानों का शोर, मगर
जीवन का सागर संगीत भी सुनाता है
लहरों की क्रीड़ा में शिशु सा किल्लोलित है
बड़वानल रखता, पर कमल भी खिलाता है
एक प्यास काफी है सागर तक जाने को
एक महर काफी है प्रभु-दर्शन पाने को
एक किरन काफी है सूरज तक जाने को
एक डगर काफी है मंजिल तक आने को
जीवन तो अवसर है, जीने पर निर्भर सब
शब्दों को गाली में बदलें या गीत कहें
शाप नहीं जीवन, वरदान है विधाता का
इसके रस में डूबें, इसमें सप्रीत रहें
एक अगन काफी है क्रांतियां उठाने को
एक लगन काफी है मुक्ति मधुर पाने को
एक किरन काफी है सूरज तक जाने को
एक डगर काफी
है मंजिल तक
आने को
बस तुम्हारे भीतर प्यास हो--जरा सी प्यास हो--तो मैं खींच कर ले चलूं
तुम्हें दीवाल कहकहे तक। और ऐसा कौन आदमी होगा जिसके भीतर बिलकुल ही प्यास न हो!
ऐसा आदमी ही कैसे होगा जिसके भीतर परमात्मा को अनुभव करने की किन्हीं क्षणों में
अभीप्सा न उठती हो! दबा देता हो, नकार देता हो, वह बात और, मगर ऐसा कौन आदमी होगा जिसके हृदय में
कभी न कभी इस साधारण जीवन की व्यर्थता न दिखाई पड़ती हो और जिसके जीवन में यह
प्रश्न न उठता हो कि क्या बस इतना ही है या और भी कुछ है!
एक भी आदमी ऐसा नहीं है जिसके जीवन में एकाध किरण न हो। अगर साहस हो
तो उस एक किरण के सहारे ही सूरज तक पहुंचा जा सकता है।
एक किरन काफी है सूरज तक जाने को
एक डगर काफी
है मंजिल तक
आने को
और तुम जो यहां तक आ गए हो, मेरे पास तक आ गए हो,
नहीं चाहूंगा खाली लौट जाओ। तुम्हारी झोली भर देना चाहता हूं--ऐसे
आनंद से कि तुम कितना ही बांटो तो चुके नहीं; ऐसे गीतों से
कि तुम कितने ही गाओ तो मिटें नहीं, और-और जन्में, और-और बढ़ें; ऐसे प्रेम से कि तुम जितना उलीचो उतना
ही गहन होता चला जाए।
एक गंध काफी है बगिया तक जाने को
एक ऋचा काफी
है ब्रह्म में
समाने को
और मैं देखता हूं: तुम्हारे भीतर इतना है। एक ऋचा तो प्रत्येक के भीतर
है। जरा उसे जगाना है। जरा उसे सुगबुगाना है। जरा उस पर राख जम गई है, उसे झाड़ देना है।
सदगुरु सत्य नहीं दे सकता, लेकिन सदगुरु
तुम्हारे भीतर सत्य पर जम गई राख को जरूर झाड़ दे सकता है; हवा
दे सकता है; तुम्हारा अंगार फिर दमका दे सकता है।
एक प्यास काफी है सागर तक जाने को
एक महर काफी है प्रभु-दर्शन पाने को
एक अगन काफी है क्रांतियां उठाने को
एक लगन काफी
है मुक्ति मधुर
पाने को
तुम यहां आए हो तो सबूत देते हो--एक किरण है, एक डगर भी तुमने भरी। अब चलो मेरे साथ दीवाल कहकहे तक। वहां तक जो गया है,
बिना चढ़े लौटा नहीं।
और इसीलिए तो पलटू मजे से कह देते हैं कि भई, लौट सको तो लौट जाओ। जानते हैं कोई लौटा ही नहीं कभी। इसीलिए तो इतनी
सरलता से कह देते हैं कि मत कोई खोजन जाय, मत कोई झांकन जाय।
बच जाओ अभी भी बच सको तो। इतनी मौज से जो कह रहे हैं वह इसी कारण कि जब दीवाल तक आ
गए तो अब दीवाल से बचना मुश्किल है। और उस तरफ की खबर दे रहे हैं कि वहां जो घटेगा
वह भी बता देना चाहता हूं। तुम मिटोगे। परमात्मा तुम्हें नहीं मिलने वाला है। तुम
जब तक हो तब तक परमात्मा नहीं, तुम मिटे कि परमात्मा है।
लोग चाहते हैं, परमात्मा का प्रमाण मिल जाए और हम भी बने रहें! यह
असंभव है। यह जीवन के नियम के विपरीत है। ऐसा जीवन का धर्म नहीं है। बूंद चाहे कि
मैं सागर को भी जान लूं और सागर से दूर भी रह जाऊं; बूंद
चाहे कि मैं सागर का स्वाद भी ले लूं, सागर होने का अनुभव भी
कर लूं और सागर से दूर बची भी रह जाऊं--यह कैसे हो? यह नहीं
हो सकता है। बूंद को तो खोना ही पड़ेगा। मगर बूंद क्या कुछ नुकसान में पड़ती है?
कुछ गंवाती है? यूं दिखता है ऊपर से कि बूंद
खो गई, यह एक तरफ से देखना है। दूसरी तरफ से देखो तो बूंद
सागर हो गई है। खोया कुछ भी नहीं है, पाया ही पाया है।
दूसरा प्रश्न: भगवान!
मैं जिंदा हूं या नहीं, कुछ समझ में नहीं आता है!
नरेश!
ऐसी ही अवस्था है प्रत्येक की। तुम कम से कम सौभाग्यशाली हो, इतना तो समझ में आया, इतना तो प्रश्न उठा तुम्हारे
भीतर, इतनी तो जिज्ञासा जगी कि मैं जिंदा हूं या नहीं! लोग
तो माने ही बैठे हुए हैं कि जिंदा हैं। कब्रों में हैं और माने बैठे हैं कि जिंदा
हैं!
जीवन जैसा कुछ भी नहीं है। हां, सांस लेते हैं,
भोजन करते हैं। सो वृक्ष भी सांस लेते हैं और भोजन करते हैं। सो पशु
भी सांस लेते हैं और भोजन करते हैं। इतना भर जीवन अगर है तो फिर तुममें और गोभी के
फूल में कुछ बहुत फर्क नहीं। गोभी के फूल ही हुए।
इतना ही जीवन नहीं है। जीवन और है। जीवन बहुत है। जीवन अपरंपार है।
जीवन असीम है। जन्म के भी पहले है, मृत्यु के भी बाद है।
मगर उस जीवन की तलाश तभी शुरू होती है, जब यह प्रश्नवाचक
चिह्न तुम्हारे भीतर तीर की तरह खटकने लगता है। ऐसे तीर की तरह जो पार भी नहीं
होता--पार भी हो जाए तो खटकन बंद हो जाए--जो चुभा रह जाता है, जो आधा चुभा रह जाता है।
अच्छा है नरेश, तुम पूछते हो: "मैं जिंदा हूं या नहीं?'
यह बहुत बुद्धिमानी का प्रश्न है। जिसके जीवन में यह प्रश्न उठ आया, वह ज्यादा देर तक मुर्दा नहीं रह सकता। दुनिया में दो तरह के मुर्दे
हैं--एक तो जो कब्रों में सो गए हैं और एक अभी जो कब्रों में चल रहे हैं। कब्रों
में जो सो गए हैं, हो सकता है उनको भी भ्रांति हो कि वे
जिंदा हैं। वे सपना देख रहे हों जिंदा होने का। रात तुम जब सो जाते हो तब तुम सपना
देखते हो। क्या-क्या सपना नहीं देखते! कब्रों में पड़ा आदमी क्या-क्या सपने नहीं
देख रहा हो, क्या पता!
एक बात पक्की है कि जो जिंदगी भर कूड़ा-करकट में जीया और उसको ही
जिंदगी समझता रहा, कब्र में उसको राहत ही मिलेगी। शायद वह यही सोचेगा:
अब मिली मंजिल। अब आ गए अपने घर। अब विश्राम ही विश्राम है।
मगर तुम्हारे भीतर बेचैनी की पहली चोट पड़ी, यह अच्छी खबर है। यह शुभ लक्षण है। यहीं से धर्म की शुरुआत होती है। यहीं
से यात्रा का पहला कदम उठता है--वह पहली डगर जो बिलकुल जरूरी है; वह पहली किरण जिसके बिना कोई सूरज तक नहीं पहुंच सकता; जो बिलकुल अनिवार्य है।
महावीर के जीवन में ऐसा उल्लेख है कि महावीर वैशाली में ठहरे हुए थे।
वैशाली में एक महाचोर था। जैसे महावीर की ख्याति थी ऐसे ही उस चोर की भी ख्याति
थी। वह कभी पकड़ा नहीं गया था जीवन में, यद्यपि प्रत्येक
जानता था कि वह बड़े से बड़ा चोर है। ऐसा कोई सम्राट नहीं था उन दिनों जिसके खजाने
पर उसने हमला न बोला हो। और खजाने पर हमला भी कर जाता था और अपना चिह्न भी छोड़
जाता था, खबर भी दे जाता था कि किसने चोरी की। मगर फिर भी
पकड़ा नहीं जा सका था। कभी रंगे हाथों नहीं पकड़ा जा सका था।
जब महावीर गांव में वैशाली के आए तो उस चोर ने अपने बेटे से कहा कि
सुन, इस आदमी से बचना। यह अपने धर्म का दुश्मन। यह अपने
व्यवसाय का दुश्मन। इसकी बातें सुनने मत जाना। सम्राट हमें नहीं पकड़ सकते, मगर यह आदमी पकड़ लेगा। पुलिस हमें नहीं पकड़ सकती, मगर
इससे बचना मुश्किल है। मैं जीवन भर के अनुभव से कहता हूं कि इस तरह के लोग खतरनाक
हैं; अपने धंधे को इन्होंने बरबाद ही कर दिया। तुझे अगर लाज
रखनी हो अपने वंश-परंपरा की तो इसकी बात सुनने मत जाना। कई लोग तुझसे कहेंगे कि आओ,
चलो सुनो, क्या गजब की बात है, मगर तू बिलकुल बहरा हो जाना। उस तरफ ही मत जाना जिस तरफ महावीर गांव में
ठहरे हों। और कभी भूल-चूक से अगर रास्ते पर यह आदमी दिख भी जाए तो किसी भी
गली-कूचे से निकल भागना। इसको देखना भी मत। ऐसे आदमी को देखना भी खतरनाक है,
क्योंकि ऐसे आदमी को देख कर भी रोग लग जाता है। ऐसे लोग संक्रामक
होते हैं। अगर उस रास्ते से तू गुजरता हो और यह आदमी बोल रहा हो, तो इसके शब्द कान में नहीं पड़ना, अंगुलियां लगा लेना
अपने कान में और भाग खड़े होना।
जब बाप ने इतना समझाया तो बेटे की उत्सुकता भी जगी। मगर बाप कह रहा था
तो बाप अनुभवी था और बेटा भी चाहता था कि बाप की कला को वह भी सीखे--सीख रहा
था--और निष्णात होना चाहता था। वह भी चाहता था कि अपने बाप को भी मात कर दे, इसलिए एकदम धंधा छोड़ना भी नहीं चाहता था। सो महावीर से बचने की भी कोशिश
करता था, मगर कहीं भीतर गहरे में, अचेतन
में एक आकांक्षा भी थी कि देख तो ले एक दफे, यह आदमी कैसा है,
जिससे मेरा बाप भी डरता है! जो किसी से नहीं डरता, जिसने डर जाना नहीं, इस नंगे आदमी से, जिसके पास कुछ भी नहीं है, इससे क्यों भय खाता है?
और इसकी बात में ऐसा क्या होगा कि सुनने से ही बिगड़ जाए आदमी! कि
देखने से ही बिगड़ जाए आदमी!
एक दिन गुजर रहा था और महावीर बोल रहे थे। उनकी आवाज रास्ते तक गूंज
रही थी। कान में अंगुलियां तो डालीं उसने, बाप ने कहा था सो।
मगर जरा देर से डालीं, जरा, कि एकाध
वाक्य तो कान में पड़ जाए कि यह आदमी कह क्या रहा है!
महावीर समझा रहे थे कि जब व्यक्ति मरता है, अगर उसने पुण्य किए हों तो स्वर्ग में प्रवेश पाता है, अगर पाप किए हों तो नर्क में। किसी ने पूछा, लेकिन
मर गया इसका सबूत क्या है? तो महावीर ने कहा, इसका सबूत है कि जो भी लोग वहां मौजूद होंगे, उनके
पैर उलटे होंगे। वे देवता हों या भूत-प्रेत हों, नर्क हो या
स्वर्ग, मगर उनके पैर उलटे होंगे।
इतनी बात उसने सुन ली, फिर उसने जल्दी से
कान में अंगुलियां डालीं और भाग खड़ा हुआ। उसने भी सोचा, इसमें
ऐसी कौन सी बात थी जिसमें घबड़ाने की बात थी। क्यों मेरा बाप इतना डरा हुआ है!
मगर संयोग की बात, सम्राट जाल फैला रहा था अपना।
किसी तरह पकड़ना चाहता था। बाप को तो पकड़ना मुश्किल था, अभी
बेटा सिक्खड़ था। मगर बेटा भी अभ्यास कर रहा था चोरी का। तो उसने सोचा कि पहले बेटे
को पकड़ा जाए। एक पूरी की पूरी साजिश की गई। रंगे हाथ तो चोरी में पकड़ना उसे भी
मुश्किल था, लेकिन उसे जबरदस्ती पकड़ कर शराब पिला दी। इतनी
पिला दी कि वह बिलकुल बेहोश हो गया। यह साजिश थी। यह पूरा का पूरा षडयंत्र था। और
फिर उसे राजमहल के सबसे सुंदर कक्ष में, सुंदरतम सुंदरियों
के बीच, जो पंखा झल रही थीं और जिन्होंने पंखे के साथ-साथ
अपने हाथों के साथ पंख भी लगाए हुए थे, ऐसा लगे कि अप्सराएं
हैं। मेनका, उर्वशी इत्यादि उसको पंखा झल रही हैं और सुंदर
सोने से सजा हुआ कक्ष है, रत्नों से मंडित।
जब वह आदमी थोड़ा-थोड़ा होश में आया तो उसे शक हुआ कि लगता है मैं मर
गया। यह मैं कहां हूं! यह मेरा घर तो नहीं है। जेलखाना भी नहीं। जेलखाने ऐसे नहीं
होते। ऐसी सुंदर जगह उसने देखी नहीं थीं। इतनी सुंदर स्त्रियां उसने नहीं देखी
थीं। और इनके पंख भी हैं! जरूर ये अप्सराएं हैं। और क्या सुगंध उड़ रही थी! फूलों
की सेज पर लेटा हुआ था। आधा होश, आधा बेहोश, उसने समझा कि मैं स्वर्ग आ गया। मैं मर गया।
तभी एक अप्सरा ने कहा कि अभी तुम स्वर्ग में नहीं पहुंचे हो, स्वर्ग के बाहर प्रतीक्षालय में हो। पहले यहां व्यक्ति को अपने सब
पाप-पुण्यों का लेखा-जोखा देना पड़ता है। जो सब सच-सच बता देता है, उसे स्वर्ग में जगह मिल जाती है। जो जरा भी झूठ बोलता है--परमात्मा से
क्या छिपा है--जो जरा भी झूठ बोला, वह नरक भेज दिया जाता है।
तो तुम्हें अगर स्वर्ग जाना हो, सब सच-सच बोल दो! तब वह जरा
चौंका--सब सच-सच बोल दो! चोर था, तत्क्षण उसे महावीर का वचन
याद आया। उसने कहा इनके पैर तो देख लो कि ये अप्सराएं हैं भी या नहीं?
पैर देखे तो जैसे आदमियों के पैर होते हैं वैसे पैर थे। समझ गया कि
कोई साजिश है। फिर तो उसने अपने पुण्यों की क्या चर्चा की, और अपने पिता के पुण्यों की, और पिता के पिता के
पुण्यों की, और अपनी पीढ़ियों के पुण्यों की चर्चा की।
सारी साजिश बेकार हो गई। छोड़ देना पड़ा उसे। आशा यह थी कि स्वर्ग जाने
के लोभ में वह सब पाप बता देगा--अपने भी, अपने बाप के भी। और
तब मामला फंस जाएगा।
वह घर पहुंचा, बाप के चरण छुए और कहा कि अब मैं जा रहा हूं महावीर
के पास। एक वचन सुना तो मेरा जीवन बचा। अब आपकी बात नहीं सुन सकता। जिसका एक वचन,
जो बिलकुल व्यर्थ मालूम पड़ता था, सुनते वक्त
जिसमें कोई सार्थकता नहीं दिखाई पड़ी थी, उसने ही मुझे आज
बचाया है। तुम्हारी सब कलाएं मेरे काम नहीं आतीं आज। आज मारा गया था। मैं ही नहीं,
तुम भी मारे गए होते। सारी कथा सुनाई कि ऐसी-ऐसी घटना घटी। यह राजा
की जालसाजी थी। मगर मैं चला उस आदमी के पास। जिसके एक वचन ने बचा लिया है, अब यह जीवन उसका है। अब जीवन उसके साथ है। और अब मैं जानता हूं कि अब तक
जो मैं जी रहा था, वह झूठ ही है। आज नहीं कल वह झूठ पकड़ में
आएगा। आदमियों से बचा लेंगे तो क्या होगा, परलोक में पकड़ में
आएगा। कहीं न कहीं पकड़ में आएगा। झूठ कब तक चल सकता है? झूठ
को कितना चलाओगे? मैं चला।
न केवल वह खुद गया, उसके बाप ने भी सोचा कि बात तो
सच है, बाप भी गया। महावीर ने उसे दीक्षा दी और कहा कि देख,
एक वचन ने, जो मैंने तेरे लिए ही बोला था।
आमतौर से मैं स्वर्ग-नरकों की चर्चा नहीं करता। प्रयोजन नहीं है। मगर तू राह से
गुजर रहा था, तेरे लिए ही बोला था। क्योंकि मुझे साजिश का
पता था, यह साजिश चल रही है, तू
फंसेगा। तेरे लिए ही वचन बोला था। एक वचन ने तेरे जीवन में क्रांति ला दी। अब तेरा
असली जीवन शुरू होता है।
तुम पूछ रहे हो, नरेश: "मैं जिंदा हूं या
नहीं?'
मैं तुमसे कहना चाहूंगा, तुम यह पूछ सके,
यह भी सुंदर है, शुभ है। इससे तुम्हारा असली
जीवन शुरू होता है। अब तक तुम जिंदा नहीं थे, मुर्दा ही थे।
अब तुमने पहली बार सांस ली है। पहली बार विचार का जन्म हुआ है। पहली बार विवेक
जन्मा है।
एक अत्यंत मोटा आदमी अपने मकान की चौथी मंजिल से टपक पड़ा। जब अस्पताल
में उसे होश आया तो पहला सवाल उसने पूछा, डाक्टर साहब, मैं पृथ्वी पर हूं या स्वर्ग में? मुझे समझ नहीं आता
कि मैं जिंदा हूं या मर चुका हूं? डाक्टर ने कहा, महाशय जी, आप तो भलीभांति जिंदा हैं, और पृथ्वी पर ही हैं, पूना के ससून हास्पिटल में,
मगर जिनके ऊपर आप गिरे थे वे चारों के चारों बेचारे असमय ही
स्वर्गीय हो गए हैं।
तुम अब तक मुर्दा थे नरेश, और न मालूम कितनों पर
गिरे होओगे, और न मालूम कितनों को स्वर्गीय कर चुके होओगे।
अब गिरना बंद करो। जो खुद गिरता है वह अकेले थोड़े ही गिरता है; यहां हम सब एक-दूसरे से जुड़े खड़े हैं, शृंखलाओं में
बंधे खड़े हैं। एक गिरता है तो चार को गिरा देता है। तुम जो करते हो उसका परिणाम,
दुष्परिणाम, सब दूर-दूर तक फैल जाता है। उसकी
प्रतिध्वनियां दूर-दूर तक सुनी जाती हैं।
अच्छा हुआ तुम्हें होश आना शुरू हो रहा है। चलो अब मेरे साथ दीवाल
कहकहे तक। ठीक जगह आ गए। यहां तुम्हारा पुनर्जन्म हो सकता है। यहां तुम द्विज हो
सकते हो। यहां मैं तुम्हें ब्राह्मण बना सकता हूं।
कोई ब्राह्मण पैदा नहीं होता, याद रखना, ब्राह्मण तो बनना होता है। सब शूद्र पैदा होते हैं। दुनिया में दो ही वर्ण
हैं--शूद्र और ब्राह्मण। सब पैदा होते हैं शूद्र की तरह; फिर
कुछ लोग, जो ब्रह्म को जान लेते हैं, वे
ब्राह्मण हो जाते हैं। और ब्रह्म को जान लेना जीवन को जान लेना है। द्विज हो जाओगे
तुम अगर जीवन को जान लो।
मगर बहुत सी बातों से छुटकारा पाना होगा। जिन बातों ने तुम्हें मार
रखा है, उनसे छुटकारा पाना होगा। तुम्हारा सारा ज्ञान जो
तुम्हारे सिर पर हावी है, वही तुम्हारी मृत्यु का कारण है;
वह चट्टान की तरह तुम्हारी चेतना को दबाए हुए है। तुम्हारे सारे
शास्त्र तुम्हारी चेतना की हत्या कर रहे हैं। तुम्हें उनसे मुक्त होना होगा।
और ध्यान रहे कि शास्त्रों में जो सत्य है, उसकी खोज के लिए ही तुम्हें शास्त्रों से मुक्त होना पड़ेगा। अगर तुम
शास्त्रों से मुक्त न हुए, तुम सत्य से वंचित रह जाओगे। अभी
तो शास्त्रों का तुम वही अर्थ लगाओगे जो तुम लगा सकते हो। अभी तुम्हारी मूर्च्छा
में तुम क्या गीता समझोगे! क्या कुरान समझोगे! क्या बाइबिल समझोगे!
मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे मिलने आने वाला था। कह गया इस समय आ जाऊंगा और
दो घंटे बाद आया। मैंने पूछा, नसरुद्दीन, इतनी देर कैसे लगाई? नसरुद्दीन ने कहा, क्या करता, रास्ते पर एक जगह बोर्ड लगा हुआ था जिस
पर लिखा था--धीरे चलिए!
सो वे धीरे चल-चल कर आ रहे थे। धीरे चलना होगा, रास्ते पर लिखा बोर्ड तो बहाना बन गया, खूंटी बन
गया।
नसरुद्दीन शराब पी रहा था। मैंने पूछा, नसरुद्दीन, तुम तो कुरान के बड़े पाठी हो, और तुम तो कहते मैं
कुरान में बड़ी श्रद्धा करता हूं, और कुरान में तो साफ कहा
हुआ है कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा! नसरुद्दीन ने कहा, मुझे मालूम है। अरे रोज ही पढ़ता हूं। फिर मैंने कहा, कैसे तुम शराब पीए चले जाते हो? उसने कहा, अभी पूरा वचन मानने की मेरी सामर्थ्य नहीं है। पहले तो इतना ही आता है
न--जो शराब पीएगा। अभी उतना ही मान सकता हूं। क्षमता-क्षमता की बात है, पात्रता-पात्रता की बात है। अभी मेरी योग्यता इतनी ज्यादा नहीं कि पूरा ही
वचन मान सकूं। जितना बनता है, उतना करता हूं। जितनी औकात,
उससे ज्यादा नहीं जा सकता।
व्याख्या कौन करेगा?
दो विद्यार्थी देर से स्कूल पहुंचे। अध्यापक ने पूछा, मोहन, इतनी देर कैसे हुई? मोहन
ने कहा, जी, मेरी अठन्नी खो गई थी।
अध्यापक ने कहा, और तुम क्यों देर से पहुंचे, गोपाल? गोपाल बोला, जी,
मैं उस अठन्नी पर पैर रख कर खड़ा था। जब तक यह न हटे, मैं न हटूं; जब यह हटा तब मैं हटा। और इस दुष्ट ने
इतनी देर लगाई, ढूंढता ही रहा, ढूंढता
ही रहा; मैं भी खड़ा ही रहा, खड़ा ही
रहा। संकल्प की होड़ लग गई थी।
मुल्ला नसरुद्दीन एक महिला को प्रेम करता है। उस महिला ने कहा कि ऐसा
करो, मेरे पति को पता न चले, मैं
दूसरी मंजिल पर रहती हूं, रस्सी लटका दूंगी और ऊपर से अठन्नी
गिरा दूंगी। खन्न से आवाज होगी नीचे, तुम समझ जाना इशारा कि
बस अब रस्सी पर चढ़ आना है। अर्थात पतिदेव सो गए हैं और घुर्राटे ले रहे हैं।
मुल्ला ने कहा, ठीक।
पूर्णिमा की रात, खड़ा हो गया खिड़की के नीचे। आधी
रात रस्सी लटकी, अठन्नी गिरी, खन्न से
आवाज हुई। महिला राह देखते-देखते थक गई। जब एक घंटा हो गया, उसने
नीचे झांक कर कहा कि नसरुद्दीन, अठन्नी की आवाज सुनाई नहीं
पड़ी?
नसरुद्दीन ने कहा, सुनाई पड़ी, उसी को तो खोज रहा हूं। मिल जाए तो ऊपर आऊं। उसे छोड़ कर आऊं तो मेरा चित्त
ऊपर लगेगा ही नहीं, मेरा चित्त अठन्नी में लगा रहेगा।
तुम्हारा चित्त, तुम्हारी मूर्च्छा, तुम्हारा आत्म-अज्ञान--तुम जो भी पढ़ोगे, जो भी
सुनोगे, उस सबको विकृत करता रहा है, करता
रहेगा। इसलिए नरेश, अगर जीना है, अगर
जीवित होना है, तो पहला काम करो--ज्ञान से मुक्त हो जाओ,
पांडित्य से मुक्त हो जाओ, शास्त्रीयता से
मुक्त हो जाओ। फिर से एक छोटे बच्चे की तरह जगत को देखो।
छोटे बच्चों में जीवन होता है। छोटे बच्चों में सामर्थ्य होती है
आश्चर्य की। और वह बड़ी से बड़ी सामर्थ्य है। वही जीवन का लक्षण है। अवाक होने
की...छोटी से छोटी बात उन्हें मुग्ध कर लेती है। एक कंकड़, एक पत्थर, एक तितली, एक फूल,
आकाश में डोलती हुई एक बदली, पानी की
बूंदाबांदी--और वे विस्मय-विमुग्ध हो जाते हैं। आकाश में खिला इंद्रधनुष और उनके
प्राण आतुर हो उठते हैं, पंख होते तो उड़ जाते!
जब तक तुम पुनः छोटे बच्चों की भांति न हो जाओ--सारे ज्ञान से मुक्त, सारे थोथे पांडित्य से मुक्त, सारे व्यर्थ के
तर्कजाल से मुक्त--तब तक तुम जीवित न हो सकोगे।
जीसस ने कहा है: जब तक तुम छोटे बच्चों की भांति न हो जाओ, तब तक तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न कर सकोगे।
मैं जीसस की बात से सौ प्रतिशत राजी हूं।
दुबले-पतले चंदूलाल तर्कशास्त्र के अध्यापक थे। फिर चुनाव लड़े। और
भाग्य की बात कि जीत भी गए। कुछ पत्रकार इंटरव्यू लेने आए हुए थे। बैठकखाने में
गपशप चल रही थी कि तभी श्रीमती चंदूलाल ने वहां प्रवेश किया। एक प्रश्नकर्ता ने
पूछा कि क्या यही आपकी अर्धांगिनी हैं? चंदूलाल बोले,
नहीं-नहीं, ये मेरी अर्धांगिनी नहीं हैं। फिर
दूसरी बातें चल पड़ीं। कुछ देर बाद एक पत्रकार बोला, कितना
अच्छा होता यदि हमें आपकी श्रीमती जी का इंटरव्यू भी लेने का सौभाग्य मिल जाता।
चंदूलाल बोले, अवश्य-अवश्य, ये बैठी
हैं हमारी धर्मपत्नी, पूछिए आप उनसे जो भी पूछना हो।
पत्रकारों ने आश्चर्य से कहा, अभी-अभी तो आपने इनकारा था कि
ये आपकी अर्धांगिनी नहीं हैं और अब आप बता रहे हैं कि यही आपकी धर्मपत्नी हैं! यह
कैसा विरोधाभास?
चंदूलाल ने जवाब दिया, विरोधाभास कहां है
भाई! आप लोगों को क्या मेरी पत्नी का भीमकाय शरीर दिखाई नहीं देता जो ऐसे प्रश्न
पूछते हैं? हे सज्जनो, वे मेरी
अर्धांगिनी नहीं हैं, मैं ही उनका अर्धांग हूं। और सच पूछो
तो अर्धांग भी नहीं, मात्र अष्टांग हूं। और इसीलिए तो भाई,
महर्षि पतंजलि ने अपने योग को अष्टांग योग कहा है अर्थात वह पुरुषों
के करने के लिए है, स्त्रियों के करने के लिए नहीं है।
अब यह तर्कशास्त्र का पंडित अष्टांग का अर्थ कहां खींच ले
गया--अष्टांग योग तक! इसने पतंजलि तक को घसीट लिया।
तुम्हें सारे तर्क छोड़ने पड़ेंगे जो तुमने अब तक सीख लिए हैं, जो उधार हैं और बासे हैं। तुम्हें अपनी प्रतिभा पर निर्भर रहना पड़ेगा। और
तुम्हारी प्रतिभा ही तुम्हें मुक्ति दे सकती है। किसी और का सत्य तुम्हें मुक्त
नहीं कर सकता। तुम्हारी प्रतिभा ही तुम्हें जीवन दे सकती है। और इस भीड़ में जो
चारों तरफ लोग हैं, ये सब मुर्दा हैं। यह मुर्दों की भीड़ है।
इनको देख कर तुम यह मत समझ लेना कि आखिर इतने लोग हैं, ये भी
तो जिंदा हैं मेरे ही जैसे, तो मैं भी जिंदा हूं। वह तर्क ही
होगा सिर्फ, कोरा तर्क होगा, उसका कोई
मूल्य नहीं है।
जीसस के जीवन में उल्लेख है कि एक सुबह-सुबह उन्होंने झील पर आकर एक
मछुए के कंधे पर हाथ रखा। उसने अपना जाल फेंका ही था। लौट कर देखा, सुबह का ऊगता हुआ सूरज और ऊगते हुए सूरज में चमकती हुई जीसस की प्यारी
आंखें--झील से भी ज्यादा गहरी और झील से भी ज्यादा नीली। मछुआ सीधा-सादा आदमी,
अवाक रह गया। जीसस ने कहा, कब तक मछलियां ही
मारता रहेगा? जिंदगी छोटी है, यूं हाथ
से समय बहा जा रहा है। मेरे पीछे आ! मैं तुझे परमात्मा के ऊपर जाल फेंकने का राज
बताऊं। क्या मछलियां पकड़ रहा है! परमात्मा नहीं पकड़ना?
वह मछुआ अगर तर्क-शास्त्री होता तो तर्क में लग जाता। शास्त्र का
ज्ञानी होता तो विवाद करता। मछुआ था, सीधा-सादा आदमी था।
उसने जाल फेंक दिया। वह जीसस के पीछे हो लिया। उसने दोबारा यह भी न कहा कि तुम
कहां जा रहे हो? कहां मुझे ले चले?
गांव के बाहर निकलता था तब एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा, पागल, तू कहां जा रहा है? तेरे
पिता जो बहुत दिन से बीमार थे उनकी मृत्यु हो गई, अभी-अभी
मृत्यु हो गई, घर चल। उनका अंतिम संस्कार करना है। उस मछुए
ने जीसस से कहा, क्षमा करें। मुझे तीन दिन की छुट्टी दे दें,
मैं जाकर पिता का अंतिम संस्कार कर आऊं।
और तुम्हें पता है जीसस ने उस मछुए से क्या कहा? जीसस ने कहा, पागल है तू? गांव
में बहुत मुर्दे हैं, वे उस मुर्दे को दफना देंगे, तू मेरे पीछे आ।
और वह मछुआ जीसस के पीछे ही चलता रहा।
बात जो जीसस ने कही, खयाल में आई? गांव में बहुत मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना देंगे।
तुझे जाने की क्या पड़ी है? तू आ। तू जीवन को तलाश।
नरेश, चलो मेरे साथ। जिंदगी को पकड़ने का राज बता सकता हूं।
लेकिन कूड़ा-कर्कट बहुत कुछ तुम्हारे सिर में होगा, वह छोड़ना
पड़ेगा। तुम्हारे सारे सिद्धांत, शास्त्र जला कर आओ, तब यात्रा बड़ी सुगम और सरल हो जाती है। अपनी प्रतिभा से पहुंचना बड़ी ही
आसान बात है। उधार प्रतिभाएं प्रतिभाएं नहीं होतीं। उधार जीवन जीवन नहीं होते।
और हम सब उधार जी रहे हैं। कोई कृष्ण को जी रहा है, कोई राम को जी रहा है, कोई बुद्ध को जी रहा है,
कोई किसी और को जी रहा है--कोई स्वयं में नहीं जी रहा है। अप्प दीपो
भव! अपने दीये खुद बनो। सब और दीये बुझा दो! बेहतर है अपना अंधेरा दूसरे की रोशनी
की बजाय, ताकि हम अपनी रोशनी खोज सकें। तब जीवन की शुरुआत
है।
जीवन तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मगर श्रम करना होगा, साधना करनी होगी। जरूर पा सकोगे। स्वयं को खोना होगा तब पा सकोगे। ज्ञान
को खोने से शुरू करो, वह अहंकार को खोने की तरफ पहला कदम है।
और पहला कदम आधी मंजिल है।
आज इतना ही।
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