नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-चौहदवां
दिनांक 07 जून सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
कबीर की उलटबांसी
जहां भी तुम्हें पैराडाक्स, उलटबांसी दिखाई पड़े, वहां रुक जाना, वहां से जल्दी मत करना जाने की, वहीं किसी सत्य की
किरण तुम्हें मिल सकती है।
प्रश्न:
भगवान श्री, कबीर शब्दों को
असमर्थ जानकर उनको उलटबांसियों में ढालते हैं। जैसे--
अंबर बरसै धरती भीजै यह जानै सब कोई।
धरती बरसै अंबर भीजै बूझै बिरला कोई।।
क्या है इसका मतलब?
संतों की वाणी उलटबांसी ही है। उलटबांसी का अर्थ पहले समझ लें। यह बड़ा
प्यारा शब्द है, बड़ा रहस्यपूर्ण भी। जब कोई बांसुरी बजाता है, तो बजाने वाला होता है, बांसुरी बजती है। उलटबांसी
का अर्थ है, बांसुरी बजा रही है और बजाने वाला बज रहा है,
उलटा हो रहा है। वह जो बजाने वाला है, वह बज
रहा है; वह जो बजने वाली बांसुरी है, वह
बजा रही है। उलटी प्रक्रिया है।
ऐसी घड़ी आती है। अगर बांसुरी बजाना आप जानते हैं, तो यह समझना कठिन न होगा। ऐसी घड़ी आती है, जब बजाने
वाला इतना लीन हो जाता है कि ऐसी प्रतीति नहीं होती कि मैं बजा रहा हूं। लीनता
इतनी सघन हो जाती है, बजाने वाला इतना डूब जाता है कि ऐसा
प्रतीत होने लगता है कि बांसुरी अपने से बज रही है। कर्ता खो जाता है। और जब लीनता
परम ऊंचाई पर पहुंचती है या गहराई पर, जब लीनता इतनी हो जाती
है कि उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं, तो न केवल इतना लगता
है कि मैं नहीं बजा रहा, बांसुरी बज रही है, बल्कि ऐसा भी लगता है कि बांसुरी मुझे बजा रही है। साधन साध्य हो जाते
हैं। जो प्रथम है, वह अंतिम हो जाता है; जो कार्य है, वह कारण हो जाता है; जो कारण है, वह कार्य हो जाता है। सब उलटा हो जाता
है।
बांसुरी में ही ऐसा नहीं घटता, जीवन के किसी भी आयाम
में जहां तल्लीनता के बढ़ने का उपाय है, ऐसी घटना घटती है।
नर्तक एक दिन जानता है कि मैं नहीं नाच रहा, नृत्य अपने से
हो रहा है। और एक घड़ी फिर ऐसी भी आती है कि नर्तक जानता है कि नृत्य ही मुझे नचा
रहा है।
कर्तृत्व का खयाल कि मैं कर रहा हूं, मैं कर्ता हूं,
भ्रांति है। इसलिए संतों का तो पूरा जीवन ही उलटी बांसुरी का अनुभव
है।
और कबीर के वचन अनूठे हैं। कबीर जैसा संत खोजना मुश्किल है पूरे पृथ्वी
के इतिहास में। क्योंकि कबीर हैं बिलकुल बेपढ़े-लिखे। जो भी वे कहते हैं, वह शास्त्रों से आने का उपाय नहीं है। शास्त्र से वे अपरिचित हैं। शब्द पर
उनकी कोई संपदा नहीं है। जो शब्द वे उपयोग करते हैं, वे
सामान्य जीवन के हैं, रोजमर्रा के उपयोग के हैं। पर उन रोजमर्रा
के शब्दों में उन्होंने वह सब डाल दिया है, जो उपनिषदों के
ऋषियों को भी शुद्धतम शब्दों में डालना कठिन हुआ है। और यह उनका अनुभव है कि
समाधिस्थ अवस्था में, जैसा हमने संसार जाना था, उससे ठीक उलटा हो जाता है।
ऐसा समझो कि जैसे तुम एक सागर के, सरोवर के किनारे खड़े
हो और पानी में झांककर अपनी प्रतिछवि देख रहे हो। और अगर तुमने सिर्फ अपनी
प्रतिछवि ही देखी है, तो तुम्हें अनुभव होगा कि तुम्हारा सिर
नीचे है, पैर ऊपर हैं। अगर तुम्हारे जानने के सब द्वार बंद
कर दिए गए हैं और इस प्रतिछवि को ही देखने का उपाय है, तो
तुम्हें यह प्रतीत होगा कि सिर नीचे, पैर ऊपर हैं। फिर एक
दिन अचानक तुम जागो, प्रतिछवि से तुम्हारी आंखें मुक्त हो
जाएं और तुम अपने को देखो, तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे,
तुम्हें लगेगा, यह तो सब उलटा हो गया। यहां
मेरा सिर ऊपर और पैर नीचे हैं।
कार्ल गुस्ताव जुंग की सेक्रेटरी महिला ने कुछ संस्मरण लिखे हैं। उसने
लिखा है कि जुंग कभी-कभी किन्हीं बातों पर बहुत नाराज हो जाते थे। कभी बहुत छोटी
बातों पर नाराजगी अति हो जाती थी। एक दिन ऐसा ही हुआ। सेक्रेटरी से कुछ भूल हो गई, तो जुंग बहुत नाराज हुए। उस दिन सेक्रेटरी के मन को भी बड़ी चोट लगी,
क्योंकि बात छोटी थी। बात इतनी छोटी थी कि नाराज होने जैसी थी ही
नहीं। बात इतनी व्यर्थ थी कि उस संबंध में इतना गर्मा-गर्मी का कोई कारण नहीं था।
तो वह दुखी और उदास और उसके मन में खयाल है कि यह काम छोड़ देना चाहिए। सांझ को जब
वह विदा होने लगी, तो जुंग ने उसे कहा कि मेरे साथ बगीचे में
आ।
जुंग वहां बगीचे में जाकर सिर के बल शीर्षासन करके खड़ा हो गया और उससे
कहा कि तू भी शीर्षासन तो जानती है, सिर के बल खड़ी हो।
उसकी कुछ समझ में न आया कि यह क्या बेतुकापन है, और इसका
क्या अर्थ? लेकिन जुंग जैसा महत्वपूर्ण व्यक्ति कहता है तो
कुछ अर्थ होगा, तो वह सिर के बल खड़ी हो गई। और सिर के बल खड़े
होकर उसे हंसी आने लगी, क्योंकि दुनिया ठीक उलटी दिखाई पड़ने
लगी। जुंग हंसा और उसे विदा कर दिया।
बाद में उसे खयाल आया कि वह जो बात मुझे छोटी दिखाई पड़ती थी, जुंग को छोटी नहीं दिखाई पड़ती। और सिर के बल खड़े होकर चीजें जैसे उलटी हो
जाती हैं, ऐसे ही जुंग की दृष्टि से चीज बड़ी होगी, मेरी दृष्टि से छोटी थी।
संत शीर्षासन करता हुआ व्यक्ति है। तुम जैसे खड़े हो, वह उससे उलटा खड़ा हो गया है। तुम्हारी सब धारणाएं, तुम्हारी
सारी मान्यताएं उसने उलटी कर ली हैं। तुम्हारे लिए पदार्थ का मूल्य है, उसके लिए पदार्थ में कोई मूल्य नहीं। तुम्हारे लिए देह सब कुछ है, उसके लिए देह कुछ भी नहीं। तुम्हारे लिए धन में सर्वस्व छिपा है, उसके लिए धन मिट्टी है। तुम बाहर देखते हो, वह भीतर
देखता है। तुम जीवन के सार और रस को दूसरों में खोजते हो, वह
अपने में खोजता है। वह शीर्षासन कर रहा है, वह उलटा खड़ा हो
गया है।
इसलिए तुम्हारा जगत उसे उलटा दिखाई पड़ेगा, तुम्हें उसका जगत उलटा दिखाई पड़ेगा। उलटबांसी हो गई। और इस उलटे खड़े होकर
जगत को जब देखा है किसी ने, तो उसे जो दिखाई पड़ा है, वह तुम्हारे लिए बड़ा विरोधाभासी, पैराडाक्सिकल मालूम
पड़ेगा।
कबीर की यह उलटबांसी कि आकाश से तो बरसते हुए अमृत को सबने देखा है, लेकिन किसने देखा पृथ्वी से बरसते अमृत को? हमें
दिखाई पड़ता है कि आकाश से बरस रहा है अमृत, ऊपर से कुछ नीचे
आता दिखाई पड़ता है। पृथ्वी से भी कुछ दान होता है आकाश को, यह
हमें दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन होना तो चाहिए, क्योंकि जीवन
में सभी प्रक्रियाएं लेन-देन की हैं। यहां सिर्फ लिया नहीं जा सकता, देना भी पड़ेगा। क्योंकि अकेले लेने से तो जीवन का विनिमय रुक जाएगा।
श्वास तुम लेते हो तो छोड़नी पड़ती है। तुम लेते ही रहो, यह असंभव है। और अगर तुम श्वास न छोड़ोगे, तो तुम ले
भी न पाओगे। तो लेने का नियम देने में छिपा है; देते हो,
इसलिए लोगे।
और मजा यह है कि काश, तुम्हें यह समझ में आ जाए,
तो जितना तुम दोगे, उतना ही तुम ले पाओगे;
जितना कम दोगे, उतना कम ले पाओगे। तो जो जितनी
गहरी श्वास छोड़ता है, वह उतनी ही गहरी सांस लेने में समर्थ
हो जाता है। एक्झेलेशन जितना गहरा होगा, इन्हेलेशन उतना ही
गहरा हो जाएगा। तो दानी ही भोगता है।
इसलिए उपनिषदों ने कहा है कि त्याग भोग है। तेन त्यक्तेन भुंजीथः।
जिन्होंने त्यागा, उन्होंने भोगा। और जिन्होंने पकड़ा, वे चूक गए। डर से कि कहीं श्वास बाहर गई और फिर भीतर न आई, तुमने भीतर की श्वास भीतर ही पकड़ ली, तो तुम मर गए।
तुम अपने हाथ मरे। भय तो है कि गई श्वास वापस लौटेगी या नहीं! भरोसा क्या है?
और गई श्वास पर तुम्हारी ताकत क्या? इस भय से
तुम श्वास को भीतर ही रोक लो कि कहीं मैं मर न जाऊं, श्वास
बाहर जाए और फिर न लौटे, तो तुम मर ही जाओगे।
जीवन में हम यही कर रहे हैं, पकड़ लेते हैं,
छोड़ते नहीं। न छोड़ने के कारण मृत हो जाते हैं। तो सौभाग्य है कि
श्वास के संबंध में हमने अपनी कृपणता अभी लगाई नहीं, नहीं तो
वहां भी हम मर जाएंगे। पर जीवन में हम मरे हैं, क्योंकि यहां
हमने भोग को, पकड़ने को सब कुछ समझ लिया है।
लेकिन जीवन एक संतुलन है। उसमें तुम लोगे, तो तुम्हें देना होगा। तुम दोगे, तो ही तुम ले
सकोगे। कबीर ने कहा है, दोनों हाथ उलीचिए। जितना उलीच सकोगे,
उतने तुम भर जाओगे। इसलिए जो परम सूत्र है इन उलटबांसियों का,
वह यह है कि जिस दिन तुम होगे शून्य, उस दिन
पूर्ण तुममें उतर आएगा।
तो देना है राज लेने का। त्याग है सूत्र भोग का। मिट जाना है
प्रक्रिया पूर्ण हो जाने की।
पर दोनों में संतुलन है। और हर चीज संतुलित है। आकाश से तो बरसात को
होते हम देखते हैं, जब अमृत बरसता है। पृथ्वी सिर्फ लेती ही नहीं,
देती भी होगी। बिना दिए आकाश जल्दी ही खाली हो जाएगा, वर्षा असंभव हो जाएगी।
असल में आकाश में उठते बादल प्रकृति का दिया हुआ दान है। हर वृक्ष की
पत्ती से वापस लौट रहा है जल। वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन सांझ को जब सूरज
ढंक जाता है, उतर जाता है, तब तुम वृक्ष के
पास बैठकर देखना। हर पत्ती वापस लौटा रही है, हर पत्ती से
भाप उठ रही है। जो पृथ्वी लेती है, वह लौटा देती है। तो
पृथ्वी केवल ग्राहक नहीं है। और अगर आकाश से जब जल बरसता है, पृथ्वी आनंदित होती है, तो इससे उलटा भी होता है,
जब पृथ्वी वापस लौटाती है, तो आकाश भी आनंदित
होता है।
पृथ्वी और आकाश के बीच एक प्रेम, एक गहन आलिंगन का खेल
चल रहा है। इसलिए पुराने शास्त्रों ने पृथ्वी को कहा स्त्री, आकाश को कहा पुरुष, और एक आलिंगन है दोनों के बीच,
एक विराट संभोग चल रहा है। उसमें लेन-देन है, क्योंकि
प्रेम अकेले देने से नहीं हो सकता, अकेले लेने से नहीं हो
सकता। दोनों कदम चाहिए चलने को, दोनों हाथ चाहिए तैरने को।
दोनों पंख चाहिए उड़ने को।
तो हम देखते हैं वर्षा को होते। और जब वर्षा होती है तो प्रकृति बड़ी
प्रफुल्लित होती है। सूखे पत्ते विदा हो जाते हैं, सब तरफ हरापन आ जाता
है। अभी-अभी ऐसा चारों तरफ हो रहा है। वर्षा आने के करीब है। आकाश का दान शुरू हुआ,
वृक्ष हरे हो गए हैं स्वागत में, फूल खिल रहे
हैं, पक्षी मदमस्त हैं, गीत गा रहे हैं,
मोर नाचेंगे, सारी पृथ्वी स्वागत कर रही है।
और प्रतीक्षा थी। सब उत्तप्त था। प्राण सूखे-सूखे थे। पृथ्वी की गर्दन जैसे
घुटी-घुटी थी, जगह-जगह दरारें पड़ गई थीं। सब तरफ से प्यास
थी। और अब आकाश बरसेगा, तो सब तरफ तृप्ति हो जाएगी।
लेकिन यह तो एक बात हुई कि आकाश बरसता है और पृथ्वी प्रसन्न होती है।
उसका दूसरा पहलू भी है, वह चाहे तुम्हें दिखाई न पड़ता हो। जिसकी आंखें खुल
जाती हैं, उसे वह दूसरा पहलू भी दिखाई पड़ता है। और संत का
अर्थ है, खुली आंख का आदमी। वह देखता है कि आकाश भी उदास हो
जाता है। वह देखता है, आकाश भी खाली हो जाती है, जब पृथ्वी नहीं देती। जब पृथ्वी सिकोड़ लेती है अपने को और नहीं देती,
तो आकाश भी वैसे ही पीड़ा और व्यथा का अनुभव करता है, जैसे पृथ्वी करती है।
पृथ्वी भी लौटाती है। गंगा भाग रही है सागर की तरफ, सारी गंगाएं भाग रही हैं सागर की तरफ। सागर क्या करेगा? गंगाओं को उलीच देगा आकाश में, वापस लौटा देगा। फिर
बनेंगे बादल, फिर आकाश में घने होंगे, फिर
पृथ्वी पुकारेगी, फिर वर्षा होगी, फिर
गंगाएं बहेंगी सागर की तरफ। एक वर्तुल है, लेन-देन का एक
वर्तुल है। इस लेन-देन के वर्तुल में कहीं भी क्षणभर को विच्छेद नहीं होता। इस
वर्तुल का नाम ही आनंद है। और जहां भी विच्छेद होता है, वहीं
दुख हो जाता है।
लेकिन कबीर यह क्यों कह रहे हैं? यह कबीर कोई पृथ्वी
और आकाश के संबंध में खोज करके, पृथ्वी और आकाश के संबंध में
कोई सत्य घोषित नहीं कर रहे हैं। यह तुम्हारे संबंध में कुछ कह रहे हैं।
तुम्हारे भीतर भी पृथ्वी है और तुम्हारे भीतर भी आकाश है। तुम्हारी
पृथ्वी तुम्हारा शरीर है, तुम्हारी आत्मा तुम्हारा आकाश है। उसको हमने
अंतर-आकाश कहा है। उन दोनों के बीच भी विराट लेन-देन चल रहा है।
लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि तुम्हारे भीतर की आत्मा तुम्हारे शरीर की
पृथ्वी को तो बहुत कुछ देती है, भीतर का आकाश शरीर को बहुत कुछ
देता है, लेकिन तुम शरीर से उसे पीछे वापस नहीं लौटा पाते हो,
वह कहीं जगत के मरुस्थल में खो जाता है। वह नदी सागर तक नहीं पहुंच
पाती, मरुस्थल में विलीन हो जाती है, सूख
जाती है। तुम्हारे भीतर लेन-देन टूट गया है--जिसको वैज्ञानिक इकोलाजी कहते
हैं--वर्तुल टूट गया है, इसलिए तुम दुखी हो।
अगर तुम्हारा शरीर और तुम्हारी आत्मा भी लेन-देन में समतुल हो जाएं, तो तुम्हारे भीतर भी वह सुर गूंज उठेगा, जिसको हम
समाधि कहते हैं। जिस दिन लेन-देन बराबर होता है, जैसे तराजू
के दोनों पलवे बराबर हो गए और तराजू का इंगित करने वाला कांटा बीच में ठहर गया,
मध्य में आ गया, न वजन इस तरफ ज्यादा रहा,
न उस तरफ ज्यादा रहा, उसी क्षण ब्रह्म का
स्वाद उपलब्ध होना शुरू हो जाता है।
लेकिन तुम इकतरफा झुके हो। शरीर की तरफ बहुत ज्यादा झुके हो, आकाश की तरफ न के बराबर झुके हो। तो आकाश से तुम ले तो बहुत लेते हो,
लेकिन लौटा नहीं पाते। यही तुम्हारा संसार है कि तुम आकाश से लेते
चले जाते हो और लौटाते नहीं। इससे तुम्हारे पास चीजें तो बढ़ जाती हैं, लेकिन आत्मा खो जाती है। तुम अपनी आत्मा को बेच-बेचकर वस्तुएं इकट्ठी कर
लेते हो और सोचते हो शायद इससे आनंद होगा। तो तुम्हारा महल बड़ा हो जाए, राज्य बड़ा हो जाए, धन का अंबार लग जाए, लेकिन यह बड़ी कीमत तुमने चुकाई है, तुम्हें पता
नहीं। तुमने कचरा इकट्ठा कर लिया है स्वयं को बेचकर। भीतर का आकाश खाली होता जाता
है। भीतर के आकाश के बादल बरसते जाते हैं, प्रकृति लौटाती
नहीं। अमृत इकतरफा बह रहा है और लौटता नहीं। और जब लौटता नहीं है, तो वर्तुल टूटता है।
उस वर्तुल के टूटने का नाम दुख है। अगर यह वर्तुल पूरी तरह टूट जाए, इसके कोई संबंध न रह जाएं, तो उस अवस्था को हम नर्क
कहते हैं। अगर यह वर्तुल सधा हुआ चलता रहे, तो उस अवस्था को
हम स्वर्ग कहते हैं। और यह वर्तुल इतना पूर्ण हो जाए कि तराजू का कांटा बिलकुल
मध्य में ठहर जाए, उस अवस्था को हम मोक्ष कहते हैं। नर्क है
वर्तुल का अनेक खंडों में टूट जाना, स्वर्ग है वर्तुल का
संभल जाना, मोक्ष है वर्तुल का पूर्ण, इतनी
पूर्णता को पहुंच जाना कि उससे ज्यादा पूर्णता का और कोई उपाय न रहे।
तो कबीर जो कहते हैं कि आकाश से बरसते अमृत को सबने देखा, लेकिन किसने देखा उस अमृत को जो पृथ्वी आकाश पर बरसाती है!
प्रतिक्षण पृथ्वी भी बरसा रही है। ये हरे हो गए पौधे, खिल गए फूल, ये पक्षियों के गीत--प्रत्युत्तर है,
यह प्रति-संवेदन है, यह जवाब है। यह आकस्मिक
नहीं हो रहा है। यह धन्यवाद है, जो मिला है। जो श्वास भीतर
आई है, वह वापस जा रही है। ऐसा ही स्वर तुम्हारे भीतर भी
निर्मित हो जाए, तुम्हारा शरीर भी लौटाता हो।
भोगी-त्यागी, संसारी-संन्यासी का यही अर्थ है। भोगी लौटाता नहीं,
त्यागी लौटाता है। संसारी सिर्फ इकट्ठा करता है, दान उसके जीवन से खो जाता है। सौदा ही सौदा करता है, देता बिलकुल नहीं, इकट्ठा करता है।
संन्यासी का अर्थ है, जितना लेता है, उतना देता है, हिसाब सदा बराबर है। संसारी का जो
जीवन-ढंग है, वह शोषक का है, चूसने का
है। वह सब तरफ से लेता है और देना बिलकुल नहीं चाहता। शायद सोचता है, इस भांति बहुत कुछ उसके पास हो जाएगा। परिणाम उलटा घटित होता है। कुछ भी
उसके हाथ में नहीं होता। मरते वक्त उसके हाथ खाली होते हैं। संन्यासी का जीवन-ढंग
संतुलन का है। वह जितना लेता है, उतना लौटा देता है। उस पर
ऋण कभी भी नहीं है। वह जब मरता है, उऋण होकर मरता है,
इसलिए उसे वापस नहीं लौटना पड़ता।
अगर तुम्हारा ऋण है, तो तुम्हें बार-बार वापस लौटना
पड़ेगा। जितना बड़ा तुम्हारा संसार है, उतनी ही लंबी तुम्हारे
जीवनों की यात्रा और कष्ट की शृंखला होगी। क्योंकि तुम्हें वापस लौटना पड़ेगा। जब
तक तुम दे न दोगे, जो तुमने लिया है, तब
तक तुम्हें वापस लौटना होगा। तब तक तुम अदालत से मुक्त नहीं किए जा सकते। तब तक
तुम एक बोझ ढो रहे हो जिससे तुम्हें हल्का होना ही पड़ेगा।
संन्यासी मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसने जो लिया
था, वह दे दिया, हिसाब-किताब पूरा हुआ,
उसकी खाते-बही में अब कुछ भी न लेना है, न
देना है। ऐसी चित्त की दशा पैदा हो, उसकी तरफ इंगित है कबीर
का!
उलटबांसी का एक और अर्थ भी होता है। उलटबांसी का अर्थ होता है
अतार्किक, असंगत, रहस्यपूर्ण। एक तो तर्क
का जगत है, जहां सदा दो और दो चार होते हैं। वहां कभी दो और
दो पांच नहीं होते, कभी दो और दो तीन नहीं होते। लेकिन तर्क
का यह जो जगत है, यह केवल मनुष्य के मन में है। जीवन में ऐसा
नहीं है। जीवन बड़ा अतक्र्य है, इल्लाजिकल है। वहां कभी दो और
दो पांच भी हो जाते हैं, कभी दो और दो तीन भी हो जाते हैं।
यही रहस्य है।
रहस्य का अर्थ यह है कि जीवन में भविष्यवाणी करनी असंभव है। रहस्य का
अर्थ यह है कि हम कितना ही जान लें, फिर भी कुछ जानने को
शेष रह जाता है, जानना पूरा नहीं हो पाता। रहस्य का अर्थ यह
भी है कि जानना कितना ही हो जाए, तो भी हम अंश को ही छू पाते
हैं, अंशी को नहीं छू पाते, पूर्ण
हमारी पकड़ के बाहर रह जाता है।
विज्ञान और धर्म में यहीं विरोध है। विज्ञान मानता है, सब दो और दो चार ही होता है और जीवन किसी तर्क की शृंखला से चलता है।
लेकिन अब तो विज्ञान की भी यह धारणा टूट रही है। क्योंकि विज्ञान की भी आंखें इधर
पचास वर्षों में गहरी हुई हैं। और उसके सामने भी ऐसे तथ्यों का उदघाटन हुआ है,
जिनमें दो और दो चार सदा नहीं होते।
तो जो नया भौतिकशास्त्री है, वह बड़ी बेचैनी में
है। आइंस्टीन के बाद नया भौतिकशास्त्र अध्यात्म जैसा हो गया है। क्योंकि बड़ी
कठिनाई खड़ी हो गई है। वह जो पुरानी निश्चयता थी, सर्टेन्टी
थी, वह समाप्त हो गई है। क्योंकि अणु के विभाजन के बाद कुछ
रहस्य हाथ लगे, उनमें एक रहस्य यह था कि जो अणु का विभाजित
अंग है--इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन--उसका व्यवहार बड़ा
तर्कातीत है। वह कभी तो तरंग की तरह व्यवहार करता है और कभी बिंदु की तरह।
यह असंभव है। यह उलटबांसी है। क्योंकि आप अपनी किताब पर एक बिंदु रखें, तो ज्यामिति के हिसाब से बिंदु का अर्थ होता है, जो
रेखा नहीं है। लेकिन जो बिंदु आप अपनी किताब पर बनाएं, वह
कभी रेखा हो जाए, एक बार आप आंख डालें और देखें कि रेखा हो
गई। रेखा का अर्थ है, बहुत से बिंदु एक दिशा में। तो एक
बिंदु अनेक बिंदु हो, तब रेखा हो सकता है। और फिर आप देखें
कि थोड़ी देर बाद वह रेखा बिंदु हो गई। बिंदु का अर्थ है एक बिंदु, रेखा का अर्थ है अनेक बिंदु। तो एक अनेक हो जाए, फिर
अनेक एक हो जाए, तो यह तो उपनिषद और कबीर और इकहार्ट जैसे
पागलों की दुनिया हो गई, आइंस्टीन और मैक्स प्लान्क जैसे
गणितज्ञों की नहीं।
लेकिन वह जो अणु का अंतिम हिस्सा है, उसका व्यवहार बड़ा
संदिग्ध है। उसका व्यवहार संतों जैसा है। वह कभी बिंदु की तरह प्रगट होता है,
कभी लकीर की तरह प्रगट होता है, कभी तरंग बन
जाता है और कभी कण रह जाता है। तो एक नया भौतिकशास्त्र पैदा हुआ है, जो निश्चय को छोड़ दिया है, उसने अनिश्चय को स्वीकार
कर लिया है। इसका मतलब यह हुआ कि गणित हमारा ऊपर-ऊपर काम करता है; जैसे हम गहरे जाते हैं, वैसे ही गणित मुश्किल में पड़
जाता है।
कबीर की उलटबांसियां यही कह रही हैं कि तुमने जो गणित का एक जगत बनाया
है, तुमने जो तर्क का एक विस्तार किया है, वह ऊपर-ऊपर
बिलकुल ठीक है, दुकान-बाजार में चलता है, लेकिन तुम उसी को जीवन की गहराई में मत ले जाना, परमात्मा
पर वह लागू नहीं है।
इसलिए कबीर कहते हैं कि मैं देखकर बड़ा अचंभे से भर गया, कि मैंने देखा, सागर में आग लगी है। अब सागर में
कहीं आग लगती है? और पानी में अगर आग लग जाए, तो फिर इस जगत में कोई विज्ञान जैसी चीज नहीं हो सकती। पानी आग बुझाता है,
पानी में आग कैसे लगेगी?
और कबीर कहते हैं, एक अचंभा मैंने देखा कि एक मछली
निकली सागर से और झाड़ पर चढ़ गई।
मछलियां झाड़ पर नहीं चढ़तीं। पहले तो सागर से निकलना ही मछली का
मुश्किल, फिर झाड़ पर चढ़ने का तो उपाय ही नहीं है। क्योंकि मछली
पानी का जंतु, उसके पास न पैर हैं, न
पकड़ है। न वह उड़ सकती है, न झाड़ पर चढ़ सकती है, वह पानी ही उसका माध्यम है।
ये सारे वक्तव्य गणित को तोड़ने वाले वक्तव्य हैं। ये यह कह रहे हैं कि
तुम्हारा जो हिसाब-किताब है, वह ऊपर-ऊपर ठीक, भीतर बड़े अचंभे भरे हैं।
और कबीर ने ऐसे अचंभे देखे, तब ये उलटबांसियां
लिखीं। कबीर अगर आइंस्टीन की प्रयोगशाला में होते, तो वह
जैसा आधुनिक भौतिकशास्त्र बोलता है, वैसा बोलते। लेकिन वह
गांव के गंवार थे, सीधे-सादे आदमी थे, उन्हें
कोई क्वांटम फिजिक्स का उपाय नहीं था। पर जीवन की सीधी-सीधी बातें उन्हें पता थीं
कि मछली झाड़ पर नहीं चढ़ सकती। और जिस दिन मछली झाड़ पर चढ़ जाए, और जिस दिन पानी में आग लग जाए, और जिस दिन वर्षा
आकाश से पृथ्वी की तरफ न हो, पृथ्वी से आकाश की तरफ हो--उस
दिन समझना कि तो हम पागल हो गए या पूरा अस्तित्व पागल हो गया। और या फिर यह समझना
कि हमने जो नियम-धारणाएं बनाई थीं, वे हमारी नासमझी पर खड़ी
थीं, समझदारी पर नहीं। संत अक्सर पागल मालूम पड़े हैं। उनके
पागल मालूम पड़ने का कारण यही है कि जो अचंभे उन्होंने देखे हैं, वे आपने नहीं देखे। और उनके सामने पुरानी व्यवस्था बिलकुल खो गई है और
अराजकता उत्पन्न हो गई है। और उन्होंने जीवन के ऐसे पहलू देखे हैं, जिन पहलुओं को आप भी देखेंगे, तो आपकी व्यवस्था भी
खो जाएगी।
उलटबांसी का अर्थ है कि जीवन को गणित से हल करने का उपाय नहीं है।
उलटबांसी का अर्थ है कि तुम जो भी व्यवस्था बना रहे हो, उससे विपरीत की भी जगह रखना, क्योंकि विपरीत भी
मौजूद है। और तुमने अगर विपरीत को बिलकुल भुला दिया, तो तुम
मुश्किल में पड़ोगे। और हमेशा ऐसा होता है कि विपरीत को मन भुला देता है। हम हमेशा
एक को पकड़ते हैं। मन बड़ी व्यवस्था का प्रेम करने वाला है। इसलिए जो चीज भी विपरीत
है, उसको हम हटा ही देते हैं। हम अस्वीकार ही कर देते हैं कि
यह भी है। हम एक व्यवस्था बना लेते हैं।
जैसे समझो कि तुम किसी के प्रेम में पड़े। तो तुम्हारा मन कहेगा, बस, प्रेम के अतिरिक्त तुम्हारे मन में इस व्यक्ति
के लिए कुछ भी नहीं, सिर्फ प्रेम। अब यह मन एक व्यवस्था बना
रहा है, जो झूठी है। क्योंकि जहां-जहां प्रेम है, वहां-वहां छिपी घृणा है।
लेकिन मन गणित को मानता है। मन कहता है, अगर प्रेम है,
तो घृणा कैसे होगी? अगर श्रद्धा है, तो अश्रद्धा कैसे होगी? अगर दिन है, तो रात कैसे होगी? और अगर जन्म है, तो मृत्यु कैसे होगी? मन गणित से चलता है, वह विपरीत को इनकार करता है। विपरीत को हटाने का नाम गणित है।
मगर तुम्हारे हटाने से विपरीत नहीं हटता। जहां जन्म है, वहां मृत्यु छिपी खड़ी है, चाहे तुम कितना ही समझाओ।
तो बच्चा घर में पैदा होता है, तो हम बिलकुल याद नहीं करते
कि मरेगा। और अगर कोई कह दे बच्चे के पैदा होते से ही कि यह मरेगा, इतना ढोल-बाजा मत बजाओ, इतना शोरगुल मत मचाओ,
तो हम उससे लड़ने को खड़े हो जाएंगे, कैसी
अपशगुन की बात कही!
अपशगुन की बात वह कह नहीं रहा है, पर हमारा गणित तोड़
रहा है। हमारा गणित मानता है कि जन्म हुआ, मृत्यु कैसी?
जन्म और मृत्यु विपरीत हैं। तो विपरीत को हम छिपाते हैं। मरघट को हम
गांव के बाहर बनाते हैं। कोई लाश निकलती हो, तो मां अपने
बेटे को भीतर बुला लेती है कि भीतर आ जा। मौत दिखाई न पड़े, हमारे
गणित को गड़बड़ करती है। क्योंकि बच्चा पूछेगा कि यह मर गया, इसका
क्या मतलब है? और बच्चे नासमझ हैं। इतने समझदार नहीं,
जितने आप हैं। अभी उन्होंने विपरीत को बिलकुल इनकार नहीं किया है,
वह उनमें मौजूद है।
तो वह बच्चा जरूर पूछेगा कि क्या मैं भी मरूंगा? बच्चे को रोकना मुश्किल है। अगर उसने किसी को मरा हुआ देखा, तो वह पूछेगा कि यह कैसे मरा? क्या सब मरते हैं?
क्या मैं भी मरूंगा? और मां के गणित में यह
बात नहीं बैठती कि उसका बेटा मरेगा। कहीं बेटा मर सकता है? जो
पैदा हुआ, वह कहीं मर सकता है? जीवन का
कोई अंत नहीं। और सब मरेंगे, मेरा बेटा नहीं मरेगा।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि कृषा गौतमी नाम की एक महिला का
एकमात्र बेटा मरा। उस बेटे से उसका बड़ा लगाव था। पति पहले चल बसा था, बेटा ही उसके जीवन का सार था, सब था। फिर वह भी मर
गया। तो वह करीब-करीब विक्षिप्त और पागल हो गई। वह अपने बेटे की लाश को लेकर गांव
में घूमने लगी कि कोई मेरे बेटे को जिला दो। फिर किसी ने सांत्वना देने के लिए कहा
कि हमारी तो सामर्थ्य नहीं, लेकिन बुद्ध आए हैं। तो उचित हो
कि तू बुद्ध के पास चली जा, और वहां तो कोई भी चमत्कार हो
सकता है। वह भगवान हैं।
तो कृषा गौतमी अपने बेटे की लाश को लेकर बुद्ध के चरणों में पहुंची।
लाश उसने उनके चरणों में रखी और कहा इसे जिला दो, मुझे कुछ और नहीं चाहिए।
और जब भगवान गांव में मौजूद हैं, तो मैं क्यों रोऊं? और इतना भी तुम न कर सको तो फिर कैसे भगवान?
बुद्ध के शिष्य बड़ी मुश्किल में पड़े कि अब क्या होगा? बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई, सारा गांव इकट्ठा हो गया।
चमत्कार की प्रतीक्षा होने लगी।
बुद्ध ने कहा, गौतमी, तू एक काम कर! बेटे की
लाश तू यहीं छोड़ जा, इसे मैं जरूर जिला दूंगा। तू गांव में
जा और ऐसे घर की तलाश कर, जिसमें कोई कभी न मरा हो। उस घर से
थोड़े-से मेथी के बीज ले आ।
डूबता क्या न करता, डूबते को तिनका भी सहारा हो जाता
है। कृषा गौतमी को खयाल भी न आया कि ऐसा घर वह कहां खोजेगी, जिसमें
कोई कभी न मरा हो? अंधी हो जाती हैं आंखें मोह में। वह भागी।
वह एक-एक घर पर उसने गांव के दस्तक मारी और कहा कि मुझे थोड़ी-सी मेथी चाहिए,
एक ही शर्त है कि तुम्हारे घर में कोई कभी मरा न हो। पर लोगों ने
कहा, गौतमी, तू पागल हो गई है! ऐसा घर
तू कहां पाएगी, जहां कोई मरा न हो! क्योंकि जहां भी कोई पैदा
होता है, वहां कोई न कोई मरता है। मरना और पैदा होना एक ही
प्रक्रिया के अंग हैं। लेकिन उसको सुनने की फुरसत न थी। वह दूसरे घर गई, वह तीसरे घर गई। सांझ तक वह सारे घरों में हो आई।
सांझ को अंतिम घर से जब विदा हुई, तो उसके आंसू सूख गए
थे। उसके व्यक्तित्व में एक क्रांति आ गई थी। वह बुद्ध के पास गई, अपने बेटे की लाश को उठाकर मरघट पहुंची, बेटे को
समाप्त करके वापस आई, बुद्ध से कहा, मुझे
दीक्षा दें, मैं संन्यस्त होती हूं। बुद्ध ने कहा, तू कुछ पूछती नहीं, क्या हुआ मेथी का, क्या हुआ बेटे का? उसने कहा, वह
बात ही मत उठाएं। वह भ्रांति मेरी थी कि मुझे स्मरण न था कि जन्म के साथ मृत्यु
जुड़ी है। तो मुझे स्मरण आ गया। इसलिए अब बेटे का सवाल नहीं, अब
सवाल इस गौतमी का है। इसके पहले कि मैं मरूं, यह क्या है
सारा जाल, यह रहस्य क्या है, वह मैं
जान लेना चाहती हूं।
मौत निश्चित है, बचने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन
हम मौत को गांव के बाहर रखते हैं। पश्चिम में तो बहुत पागलपन बढ़ा है, क्योंकि मौत का भय वहां हमसे ज्यादा है, पुनर्जन्म
का सिद्धांत न होने के कारण। हमें तो थोड़ा आसरा है कि मरेंगे तो कोई बात नहीं,
आत्मा तो मरेगी नहीं। हालांकि आत्मा का हमें कोई पता नहीं, लेकिन फिर भी आसरा है, कोई चिंता नहीं। हमारे भीतर
कोई है--नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि--उसे कोई शस्त्र छेद नहीं सकते, उसे कोई अग्नि जला नहीं सकती। कम से कम गीता तो हमने पढ़ी है, उससे सांत्वना है। मरेंगे तो शरीर ही मरेगा, हम तो
रहेंगे। और फिर जन्म-जन्म हैं, लंबी यात्रा है, जल्दी कुछ नहीं, समय का बहुत बड़ा विस्तार है। पश्चिम
में घबड़ाहट ज्यादा है, क्योंकि एक ही जन्म का सिद्धांत है
ईसाइयत के पास।
तो पश्चिम में मृत्यु को छिपाने के बहुत उपाय किए जा रहे हैं। आदमी मर
जाता है, स्त्री मर जाती है, तो पश्चिम
में इस मृत्यु के ऊपर भी बड़ा धंधा चलता है। बड़े-बड़े व्यवसाय इस पर चलते हैं। वे
मरे हुए आदमी के चेहरे को रंग-रोगन लगाते हैं, सुंदर बनाते
हैं, अच्छे कपड़े पहनाते हैं। जब उसे ताबूत में रखते हैं तो
वह इतना सुंदर लगता है, जैसा कि वह जिंदा में भी कभी नहीं
लगा था। स्त्रियों के ओंठों पर लिपस्टिक लगाया जाता है, आंखों
में काजल भर दिया जाता है, चेहरे को इतना सुंदर कर दिया जाता
है कि जैसी वह स्त्री जिंदा में भी कभी सुंदर न थी। फूलमालाएं, खूबसूरत कीमती ताबूत और यह यात्रा मरघट तक की--यह ऐसा लगता है कि जैसे कोई
मरा नहीं, बल्कि कोई उत्सव हो रहा है।
यह धोखा है, उसको नहीं जो मर गया, उसको तो
अब धोखा देने का उपाय नहीं; वे जो जिंदा हैं, वे मौत को छिपा रहे हैं। लिपस्टिक की दीवार के पीछे, रंग-रोगन के पीछे वे मौत को ढांक रहे हैं।
मरघट गांव के बीच में होना चाहिए। और जब कोई मरे तो छोटे से छोटे
बच्चे को, जो पहले दिन पैदा हुआ हो, उस
बच्चे को भी लाश का दर्शन करवा देना चाहिए।
पर जीवन का गणित इकतरफा है। जब आप प्रेम करते हैं, तो आप मानते हैं, घृणा कर ही कैसे सकते हैं? और यहीं कठिनाई शुरू हो जाती है। तो आप घृणा को अस्वीकार कर देते हैं। वह
आपके भीतर दबी पड़ी है। दुनिया में जितनी हत्याएं होती हैं, उनमें
अधिक हत्याएं प्रेमी एक-दूसरे की करते हैं।
और ध्यान रहे, जब दो भाई लड़ते हैं, तो उस तरह
की लड़ाई और कहीं नहीं हो सकती, जिस दुश्मनी से वे लड़ते हैं।
और जिसको तुम श्रद्धा करते हो, जब भी तुम उसके विपरीत हो
जाओगे, तो तुमसे बड़ा दुश्मन खोजना, अश्रद्धालु
खोजना कठिन है। जिसके तुम पीछे चलते हो, किसी भी दिन तुम
उसके विपरीत चलोगे।
बचने का एक ही उपाय है कि तुमने विपरीत को अस्वीकार न किया हो। अगर
अस्वीकृत किया, तो कठिनाई खड़ी होगी, क्योंकि
जीवन तुम्हारे तर्क की फिक्र नहीं करता। तुमने जिसको प्रेम किया, अगर तुमने यह भी समझ लिया कि उससे मेरे मन में घृणा भी है, तो शायद यह प्रेम लंबा चले। तो डर नहीं है। तब तुम जीवन को स्वीकार कर रहे
हो। तब तुम्हारा प्रेमी भी जानता है कि घृणा भी होगी। जिससे हमने प्रेम किया है,
उससे चुंबन ही नहीं मिलेंगे, आलिंगन ही नहीं
मिलेगा, उससे उपद्रव भी होगा, कलह भी
होगी, झगड़ा भी होगा। उससे मार-पीट भी होगी। और ये दोनों
बातें एक साथ हैं। अगर प्रेमी इन दोनों को स्वीकार कर ले, तो
जीवन को उसने स्वीकार किया। ऐसा प्रेम शाश्वत भी हो सकता है।
लेकिन प्रेमी गणित से चलते हैं। एक को छोड़ देते हैं, घृणा तो है ही नहीं। तुम्हारी पत्नी सोच भी सकती है कि तुम्हारे प्रति
उसके मन में घृणा है? चौबीस घंटे प्रगट भला करे, मगर मान नहीं सकती कि घृणा है। अगर तुम कहोगे तो इनकार करेगी कि ऐसा हो ही
कैसे सकता है? पति परमात्मा है।
जिस पति को तुमने परमात्मा माना है, उसमें तुम्हें शैतान
भी दिखाई पड़ेगा। लेकिन तुम कितना ही छिपाने की कोशिश करो, वह
शैतान मिटेगा नहीं। हां, अगर तुम उसे स्वीकार कर लो, तो तुम द्वंद्व के पार हो सकते हो।
हमने सारे जीवन में ऐसा ही किया है, विपरीत को अस्वीकार
कर दिया है। जीवन द्वंद्व है, विपरीत से बना है, तुम्हारे अस्वीकार करने से मिटेगा नहीं, तुम्हारे
अस्वीकार करने से तुम ही कठिनाई में पड़ोगे।
ये उलटबांसियां जीवन के द्वंद्व की खबर देती हैं। एक पहलू का तुम्हें
पता है, दूसरे पहलू को ये प्रगट करती हैं। वह दूसरा पहलू यह
है कि जीवन अतक्र्य है। वहां विपरीत सदा छिपा है। जैसा तुम देखते हो, उससे उलटा भी वहां है। और जिस दिन तुम दोनों को देख पाओगे, उसी दिन तुम दोनों के पार जा पाओगे। अगर तुम एक को देखे और एक को नहीं
देखे, अंधे रहे, तो वह दूसरा आज नहीं
कल प्रगट होगा। तब तुम उसको देखोगे और पहले को भूल जाओगे। जो आज मित्र है, वह कल शत्रु हो जाता है। आज प्रेम देखता था, कल घृणा
देखता है। आज घृणा नहीं देखता था, कल प्रेम नहीं देखेगा। एक
पोलेरिटी, एक ध्रुव से तुम दूसरे ध्रुव पर चले गए। लेकिन जो
दोनों को साथ देखता है, वह दोनों का अतिक्रमण कर जाता है।
उलटबांसियां जीवन के रहस्य की खबर देती हैं।
रहस्य का अर्थ है कि हम इसे कितना ही खोलें, हम खोल न पाएंगे। अब यह रहस्य की बात है कि मछली चढ़ जाए वृक्ष पर। लेकिन
ऐसा होता नहीं, दिखाई नहीं पड़ता। किसी सपने में चढ़ सकती है,
किसी कल्पना में चढ़ सकती है, किसी कवि के लिए
सत्य हो सकती है, लेकिन वैज्ञानिक इसको मानेगा नहीं।
लेकिन अगर हम वैज्ञानिक को भी पूछें कि तू थोड़ी गहरी खोज कर, तो बड़ी हैरानी होगी। वैज्ञानिक कहता है कि जीवन पहली बार मछली की तरह ही
पैदा हुआ। तो जो भी वृक्षों पर चढ़ गईं, वे सब कभी मछलियां
थीं। आप भी कभी मछली थे।
हिंदुओं को यह खबर बड़ी पुरानी है। इसलिए उन्होंने अपने अवतार को
मत्स्य अवतार स्वीकार किया। हिंदू अकेली जाति है, उसकी अगर हम अवतारों
की व्यवस्था देखें, तो डार्विन के विकासवाद से बिलकुल तालमेल
खाती है।
डार्विन कहता है कि जीवन शुरू हुआ सागर में, हिंदुओं का भी पहला अवतार सागर में है। जीवन शुरू हुआ मछली से, तो हिंदुओं का अवतार मत्स्य है। फिर डार्विन कहता है कि एक ऐसी घड़ी आई
बढ़ते-बढ़ते कि जानवरों से ही मनुष्य हुआ। और अभी तक वैज्ञानिक खोज में लगे हैं कि
वह बीच की कड़ी, जब आदमी...लाखों वर्ष लगे होंगे जानवर से
मनुष्य होने में, तो बीच में एक कड़ी रही होगी, अर्ध मानव, अर्ध पशु की। हिंदुओं के पास एक अवतार है
नरसिंह, वह बीच की कड़ी मालूम होता है।
अभी तक वैज्ञानिक बीच की कड़ी खोज नहीं पाए। बड़ी खोज चलती है पृथ्वी के
अलग-अलग कोनों में कि एक भी अस्थिपंजर मिल जाए, जो खबर देता हो कि
आधा मनुष्य और आधा पशु, तो सिद्धांत साफ हो जाए। गणित के
हिसाब से तो सिद्धांत साफ है कि अगर मनुष्य पशुओं से मनुष्य हुआ है, तो बीच में एक कड़ी जरूर रही होगी, जब हजारों-लाखों
साल तक एक मध्य की घड़ी रही होगी। हिंदुओं के पास एक अवतार है नरसिंह, जो आधा पुरुष, आधा पशु। और नरसिंह के बाद जो अवतार
हैं, वे फिर पूरे मनुष्य हैं। मछली से लेकर परम पुरुष बुद्ध
तक हिंदुओं के अवतारों का विस्तार है।
अगर इस लंबी प्रक्रिया को हम देख पाएं, जो कि हम देख नहीं पाते,
हमारे पास आंखें छोटी हैं, तो मछलियां वृक्षों
पर चढ़ गईं। मछलियां वृक्षों पर ही नहीं चढ़ गईं, मछलियां
बुद्ध हो गईं। इसका अर्थ यही हुआ कि जो क्षुद्रतम है, उसमें
भी विराटतम छिपा है। इसका अर्थ हुआ कि छोटे को छोटा मत मानना, उसमें बड़ा छिपा है। इसलिए क्षुद्र को भी प्रणाम करना, क्योंकि उसमें भी परमात्मा छिपा है। वह जो पत्थर रास्ते पर पड़ा है,
वह किसी भी दिन प्रतिमा बन सकता है। उस पर से तुम गुजरो भी, पैर भी रखना पड़े, तो भी क्षमाऱ्याचना के भाव से
रखना। क्योंकि किसी भी दिन वह पत्थर प्रतिमा बन जाए, तो
तुम्हें पूजा करनी पड़े।
यहां जिसको हम पापी कहते हैं, वही पुण्यात्मा हो
जाएगा, मछलियां झाड़ों पर चढ़ जाएंगी। यहां जिसको हमने निकृष्ट
कहा है, क्षुद्र कहा है, तुच्छ कहा है,
वही परम विभूति का धारक हो जाएगा। यहां पापी संत हो जाते हैं। यहां
पत्थर पूजा-गृह में परमात्मा बन जाता है। तो क्षुद्र और विराट में, छोटे में और बड़े में, ना-कुछ में और सब कुछ में,
बुनियादी भेद नहीं है। मछलियां वृक्षों पर चढ़ जाती हैं, पानी में आग लग जाती है, यहां उलटा भी होता है। और
जो दोनों को स्वीकार कर लेता है, वह दोनों के पार हो जाता
है।
जिन्होंने भी जाना है, उनके सभी वचन
उलटबांसियां हैं। इसलिए संतों के और दार्शनिकों के वचनों में भेद है। दार्शनिक के
वचन में उलटबांसी कभी नहीं होती, एक शृंखला, एक तर्कबद्ध व्यवस्था होती है। दार्शनिक का अर्थ है, सिस्टेमेटाइजर। वह एक सिस्टम बनाता है। कांट है, हीगल
है, ये एक व्यवस्था बनाते हैं, इनकी
व्यवस्था का एक महल है। ये जंगल के बीच थोड़ी-सी जगह साफ करके एक बगीचा बनाते हैं,
एक उपवन बनाते हैं। जंगल को बिलकुल छोड़ देते हैं दीवाल के बाहर।
जंगल में तो कोई हिसाब नहीं, कोई सिमिट्री नहीं,
कोई अनुपात नहीं, कहीं भी कोई वृक्ष उगा है,
कैसा भी उगा है, इरछा-तिरछा गया है। लेकिन
उसके बीच एक जमीन को साफ करके दार्शनिक एक बगीचा बनाता है। उसमें सिमिट्री है,
अनुपात है, उसमें सब चीजों में व्यवस्था है,
रास्ते ज्यामिति के ढंग से बनाए गए हैं, वृक्ष
बराबर फासलों पर लगाए गए हैं।
जापान में झेन मोनेस्ट्री होती है, बौद्ध-भिक्षुओं का
आश्रम होता है, तो वहां वे सिमिट्री का उपयोग नहीं करते। अगर
रास्ते बनाते हैं, तो वे ऐसे होते हैं, जैसे जंगली हों, ज्यामिति का उपयोग नहीं करते। वृक्ष
लगाते हैं, तो ऐसा लगाते हैं, जैसे वे
जंगली हों, बगीचा न मालूम पड़े।
एक बहुत प्रसिद्ध झेन फकीर हुआ, जो कि बगीचे की कला
में बड़ा कुशल था। तो सम्राट ने अपने बेटे के लिए नियुक्त किया कि वह उसे बागवानी
सिखाए। तो सम्राट का बेटा रोज सीखने जाता था। और जो भी फकीर सिखाता था, सम्राट के पास हजारों माली थे, वह जैसा बेटा कहता था,
वैसा बगीचा लगा देते थे। फकीर ने कहा था कि तीन साल पूरे होने पर एक
दिन तेरे बगीचे को देखने आऊंगा, उसी दिन परीक्षा हो जाएगी।
और कोई परीक्षा है भी नहीं।
तीन वर्ष तक सम्राट का बेटा सुंदर बगीचा निर्मित करता रहा, ऐसा बगीचा जैसा कि जापान में फिर दूसरा नहीं हो सकता था। हजारों माली काम
में लगे रहे। तीन साल में इतनी सुंदर कृति बनकर खड़ी हुई कि सम्राट भी चकित हुआ।
सम्राट ने कहा, इसमें तो कोई उपाय ही नहीं असफल होने का तेरा
अब, ऐसा बगीचा कभी देखा भी नहीं गया है। पर उसके बेटे ने कहा
कि वह फकीर जरा उलटा ही आदमी है, मुझे भरोसा नहीं है,
क्या करेगा।
फकीर आया, सम्राट खुद भी मौजूद था, राज-दरबारी
मौजूद थे, बेटे की परीक्षा का दिन था, बेटा
मौजूद था। बगीचा ऐसा चमक रहा था, जैसे कि स्वर्ग का हो,
लेकिन फकीर का चेहरा गंभीर बना रहा, उस पर
मुस्कुराहट न आई। सम्राट भी भयभीत हुआ। राजकुमार तो बहुत कंपने लगा। पूरा बगीचा
देख डाला, लेकिन उस फकीर के चेहरे पर जरा-सा भी प्रशंसा का
भाव न आया। देखने के बाद उसने कहा कि एक टोकरी ले आओ। एक टोकरी लाई गई। फकीर भागा
हुआ बगीचे के बाहर गया, बगीचे के बाहर से सूखे पत्ते टोकरी
में भरकर लाया, रास्ते पर बगीचे के फेंक दिए, हवा ने पत्तों को बिखेर दिया।
उस फकीर ने कहा कि तुम्हारा यह बगीचा इतना ज्यादा आदमी की खबर देता है
कि सच्चा नहीं हो सकता। इसमें एक सूखा पत्ता नहीं है। यह कृत्रिम है, झूठा है, असत्य है। तीन साल और लगेंगे! क्योंकि जहां
हरा पत्ता है, वहां सूखा पत्ता भी होगा ही। जहां जन्म है,
वहां मृत्यु है। जहां प्रकाश है, वहां अंधेरा
है। नहीं, यह मुझे स्वीकार नहीं, तीन
साल में तुम कोशिश करो कि फिर जंगल हो जाए। इसमें आदमी के चरण-चिह्न नहीं दिखाई
पड़ने चाहिए, क्योंकि आदमी के चरण-चिह्न का मतलब होता है तर्क,
गणित, हिसाब। इसमें परमात्मा की छाप होनी
चाहिए--जहां न तर्क है, न गणित, न
हिसाब। जहां चीजें बेबूझ हैं।
उलटबांसी का अर्थ है, एक बेबूझपन। तो दार्शनिक तो
बनाता है एक बगीचा, जहां से सूखे पत्ते हटा देता है। संत
प्रवेश करता है जंगल में, जहां कोई हिसाब-किताब नहीं है,
जहां भटकने का पूरा उपाय है, जहां कोई नक्शा
भी नहीं, जिसको लेकर हम रास्ता खोज सकें। नक्शारहित, बेबूझ, रहस्य का जो जगत है, उसकी
खबर उलटबांसियों में है। उलटबांसियां, जैसा झेन फकीरों के
कोआन होते हैं, वैसी हैं।
भारत में हमने वैसा उपयोग नहीं किया। काश, हम करते, तो बड़ा कीमती होता! जापान में झेन फकीरों
ने कोआन का उपयोग किया है। कोआन का ठीक वही अर्थ है जो उलटबांसी का है। लेकिन कोआन
का उपयोग उन्होंने किया है ध्यान के लिए, हम नहीं कर पाए।
जब कोई झेन गुरु के पास जाता है सत्य की खोज में, तो वह उसे एक उलटबांसी देता है, जिसको जापान में
कोआन कहते हैं। कोआन का अर्थ है, एक पहेली जो हल हो न सके।
जो हल हो जाए, वह कोआन नहीं। पहेलियां हल हो जाएं, तो पहेलियां हैं। जो पहेली हल न हो सके, जिसके हल
होने का उपाय ही नहीं, उसका नाम कोआन है। जैसे कि झेन फकीर
कहेगा कि देख, अब तू ध्यान कर इस बात पर, ताली दो हाथों से बजती है, अगर कोई एक ही हाथ से
ताली बजाए, तो कैसी होगी उसकी ध्वनि, इस
पर ध्यान कर।
अब एक ही हाथ से न तो ताली बजाई जा सकती है और जो बजाई ही नहीं जा
सकती, उसकी ध्वनि कहां होगी? तो पहले
तो सीधा ही मन आपका कहेगा, तर्क वाला मन, कि यह बात ही व्यर्थ है, इसमें समय क्यों खराब करना,
यह आदमी एक फिजूल का काम पकड़ा रहा है, इसमें
से कुछ निकलने वाला नहीं, यह तो रेत से तेल निकालने जैसा
धंधा है। एक हाथ की ताली!
तो अगर आप बहुत तर्कयुक्त हैं, तो आप वापस ही चले
जाएंगे। और झेन फकीर कहते हैं, जो बहुत तर्कयुक्त है,
वह प्रभु के मंदिर में प्रवेश ही नहीं कर सकता। इसलिए जो कोआन में
ही वापस लौट गया, अच्छा है। और आगे जाने की उसे यात्रा भी न
थी। लेकिन अगर आप इतने तर्कयुक्त नहीं हैं और जीवन के छिद्रों से विपरीत भी आपको
झांका है, दिखाई पड़ा है; और आप बगीचे
में ही नहीं घूमे हैं, जंगलों में भी गए हैं; और आपने आदमी के ही शब्दों को नहीं सुना है, पक्षियों
के गीत भी सुने हैं; और आपने जीवन को देखा है उसकी अराजकता
में, उसके पूरे नियम-शून्य मुक्तता में, तो आप कोआन के लिए राजी हो जाएंगे।
राजी होना आपका पहला चरण है। बैठेंगे ध्यान करने, तो भी आपका मन बार-बार कहेगा कि क्या व्यर्थ के काम में लगे हो, कहीं एक हाथ की ताली बजती है? अगर आप न माने,
जिद्द किए, तो मन आपको नए-नए सुझाव देगा कि
ऐसा करो, एक हाथ दीवाल पर मारो, तो
आवाज होती है। तो लौटकर आप गुरु को आकर कहोगे कि एक हाथ दीवाल पर मारने से जो आवाज
होती है। गुरु कहेगा, दीवाल दूसरा हाथ बन गई। नहीं, दूसरे का तो उपयोग करना ही नहीं है, द्वंद्व को तो
बीच में लाना ही नहीं है, निर्द्वंद्व में ही आवाज हो,
अकेले हाथ से ही आवाज हो।
हिंदू उसी नाद को अनाहत कहते हैं। अगर मेरे दो हाथ टकराएं, तो जो नाद होता है, वह है आहत, चोट से पैदा हुआ; अगर एक ही हाथ शून्य में ध्वनि
पैदा करे, तो वही है अनाहत।
अनाहत नाद! तुम उस नाद को खोजो, दीवाल पर टकराने से
नहीं चलेगा। हवा में जोर से घुमाने से नहीं चलेगा, दूसरे की
मौजूदगी नहीं चाहिए।
यह साधक खोजता रहेगा, ध्यान करता रहेगा, करता रहेगा। अनेक बार मन अनेक सुझाव देगा, उनको लेकर
आएगा, गुरु फौरन इनकार कर देगा। क्योंकि मन का कोई भी सुझाव
काम पड़ने वाला नहीं है। संघर्ष करते, करते, करते, करते, करते, इसका बोध जगेगा। यह मन की सुनना बंद कर देगा। क्योंकि मन से तो जो भी पैदा
होगा, वह आहत होगा। मन का नाम है द्वंद्व, मन तो कांफ्लिक्ट है। उसकी सब स्थितियां दो हाथों से पैदा हुई चोट की आवाज
है, मन तो द्वंद्व का सार है, वही तो
द्वैत है। इसलिए मन की सुनी, तो वह द्वंद्व में डालेगा। और
गुरु जब सब इनकार कर देगा, सब समाधान व्यर्थ हो जाएंगे,
तो साधक मन की सुनना बंद कर देगा। मन फिर भी सुझाएगा कि ऐसा करो।
एक बार ऐसा हुआ कि एक साधक वर्षों तक ध्यान करता रहा, लेकिन मन की मानता ही चला गया। आखिर एक दिन गुरु ने कहा कि तू कब तक इस
उपद्रव में पड़ा रहेगा? अगर हल न होता हो, तो इससे तो बेहतर है मर ही जा। दूसरे दिन साधक आया, मन
ने कहा, यह बात बिलकुल ठीक है, जब हल
होता ही नहीं तो मर ही जाना बेहतर है। तो जैसे ही गुरु के पास पहुंचा, गुरु ने कहा, उत्तर लाया? वह
वहीं गिर पड़ा। आंख बंद कर ली। गुरु ने कहा, बिलकुल ठीक,
उत्तर न मिलता हो, उससे तो मर ही जाना ठीक।
लेकिन मरकर उत्तर मिला या नहीं? तो उसने एक आंख खोली,
उसने कहा, उत्तर तो मुझे नहीं मिला। गुरु ने
कहा, तू उठ, मुर्दे बोलते नहीं। और न
मुर्दे आंख खोलते हैं। तू बाहर निकल, तू मरा भी मन की ही
मानकर। और मन तो सब जगह धोखा देगा, अगर उसकी मानकर मरे,
तो मौत भी झूठी होगी।
मन धोखे का सूत्र है, वहां से सारा प्रपंच निकलता है,
उसकी जो भी माने वह झूठ मनवाएगा। मन माया है। उसका जीवन भी झूठ है,
उसकी मृत्यु भी झूठ है। उसके सब उत्तर व्यर्थ हैं।
लेकिन साधक अगर लगा ही रहा, हारा नहीं, भागा नहीं, टिका ही रहा, तो एक
न एक दिन मन थक जाएगा और गिर जाएगा। और जिस दिन मन गिर जाता है, उस दिन अनाहत सुनाई पड़ता है। क्योंकि वह भीतर बज ही रहा है; हमने उसे ओंकार कहा है।
तो ॐ तुम्हारा कोई मंत्र नहीं है कि तुम बैठे और ॐ, ॐ करते रहो, तो उससे कुछ हो जाने वाला है। वह तो आहत
नाद है, दो ओंठों के टकराने से, कंठ के
संघर्ष से पैदा होता है। उस ॐ को हमने ओंकार नहीं कहा है। तो जो ॐ जपना पड़े,
वह व्यर्थ है। जपकर जिस ॐ की साधना चले, वह मन
की ही साधना है। लेकिन जब मन गिर जाता है, अचानक तुम्हें
ओंकार सुनाई पड़ता है। तुम ॐ कहते नहीं, तुम सुनते हो। तुम
कर्ता नहीं होते, तुम केवल श्रावक होते हो। तुम सुनते हो कि
भीतर ॐ गूंज रहा है।
वह गूंज तुम्हारी नहीं है। वह गूंज तुम पैदा नहीं कर रहे हो। वह गूंज
ही तुम्हें पैदा कर रही है। उलटी बांसुरी हो गई। अब तुम बजा नहीं रहे बांसुरी को।
मंत्र तुमसे पैदा नहीं हो रहा है, तुम मंत्र से पैदा हो रहे हो।
ओंकार तुम्हारा प्रयास नहीं, बल्कि ओंकार के ही तुम सघन रूप
हो। वह जो ॐ की ध्वनि तुम्हारे भीतर पैदा हो रही है, वही
ध्वनि तुम्हें निर्मित कर रही है। तुम उस ध्वनि को पैदा नहीं कर रहे, ॐ तुम्हें पैदा कर रहा है।
तो ॐ कोई मंत्र नहीं है, तुम्हारा जीवन है। ॐ
कोई बात नहीं है, जो तुम कर लो; ॐ
तुम्हारा स्रोत है, अस्तित्व है। ॐ ध्वनि है अस्तित्व की,
अनाहत नाद है। जिस दिन मन गिर जाता है, उसी
दिन अनाहत नाद सुनाई पड़ जाता है।
और उस दिन गुरु को जाकर उत्तर नहीं देना पड़ता। तुम पहुंचे कि गुरु जान
जाता है कि उत्तर आ गया। तुम्हारा चेहरा कहता है, तुम्हारी आंखें कहती
हैं, तुम्हारी चाल कहती है। इतनी बड़ी घटना घटे, उसे तुम छुपाओगे? साधारण सा गर्भ एक स्त्री को हो
जाता है, छिपाना मुश्किल। उसकी चाल बदल जाती है, उसका ढंग बदल जाता है, उसके चेहरे की, उसकी आंखें बदल जाती हैं। और जिस दिन परमात्मा तुम्हारे गर्भ में आता है,
अनाहत नाद होता है, उस दिन तुम कैसे छिपाओगे?
जैसे कोई सूरज को पी गया हो, तो रोशनी सब तरफ
निकलेगी, अग्नि की लपटें उठेंगी, रोआं-रोआं
प्रकाशित हो जाएगा। ऐसे ही जब तुम अनाहत का नाद सुनते हो, तब
गुरु को जाकर कहना नहीं पड़ता। इसलिए जब तक शिष्य उत्तर लाता है, तब तक सभी उत्तर गलत हैं।
इसलिए अगर झेन फकीरों का जीवन पढ़ोगे, तुम बहुत मुश्किल में
पड़ोगे। झेन फकीर कहते हैं, अगर तुमने उत्तर दिया तो गलत,
अगर न दिया तो गलत। उत्तर दिया, तो भी तुम
पिटोगे, फकीर कहता है--वह डंडा रखे रहता है--कहता है,
अगर तुमने उत्तर दिया, तो भी मारूंगा; अगर उत्तर न दिया, तो भी मारूंगा। क्योंकि देने का
मतलब है, तुम उत्तर बनाकर लाए; न देने
का मतलब है, तुम तय करके आए कि नहीं दूंगा। लेकिन एक तीसरी
अवस्था है जब तुम्हें उत्तर का पता ही नहीं होता, देने नहीं
देने का पता नहीं होता, तुम सिर्फ आते हो, न तुम तय करके आते हो कि उत्तर देना है, न तुम तय
करके आते हो कि नहीं देना है, तुम उत्तर होते हो। वह
तुम्हारे होने में ही समाया होता है, उस दिन गुरु का
डंडा...।
नानइन अपने गुरु के पास से जा रहा था एक एकांत साधना के लिए। तो गुरु
ने उसे बुलाया और कहा कि एक बार डंडा मार लेने दे। तो नानहन ने कहा, मतलब क्या? ऐसे ही तुम बहुत डंडे मुझे मारे हो,
जगह-जगह मेरी हड्डी-पसली दुखती है और अभी तो कोई कारण भी नहीं है।
अभी मैंने कुछ कहा भी नहीं है, कुछ गलती होने का सवाल ही
नहीं। उसके गुरु ने कहा, तू समझा नहीं। क्योंकि जब तू लौटेगा,
तो फिर मैं तुझे डंडा नहीं मार सकूंगा। क्योंकि घड़ी बिलकुल करीब आ
रही है, यह आखिरी डंडा है। और इस बार तुझे बिना डंडा मारे
छोड़ दिया, दुबारा कोई उपाय नहीं, तू जब
आएगा फिर नहीं मार पाऊंगा। तो कारण नहीं है...।
एक घड़ी आती भीतर जब अनाहत गूंजता है, बांसुरी उलटी बजने
लगती है। इसके पहले तक तुमने समझा था कि मैं कर्ता हूं; अब
तुम समझते हो कि मैं उपकरण हूं। अब तक तुमने समझा था कि गीत मैंने गाए; अब तुम समझते हो, गीत मुझसे गाए गए। अब तक तुम समझते
थे, मैं हूं; अब तुम समझते हो, मैं नहीं हूं, वही है, तू ही
है, परमात्मा ही है। सब उलटा हो जाता है।
कबीर की उलटबांसियां कोआन की तरह उपयोग हो सकती थीं; हिंदू चूक गए, उनका उपयोग नहीं कर पाए। कबीर जापान
में हुए होते, तो झेन फकीरों की परंपरा में परम सिद्ध होते।
इस मुल्क में पैदा होने का परिणाम यह हुआ कि विश्वविद्यालयों में नासमझ उन पर
पीएच.डी. लिखते हैं बस, और कुछ किसी काम के नहीं! कबीर पर
जितनी डाक्टरेट मिलती हैं लोगों को, उतनी किसी पर नहीं।
क्योंकि कबीर के एक-एक वचन पर डाक्टरेट मिल सकती है। और यह आदमी बिलकुल गैर
पढ़ा-लिखा है।
इसलिए सोच लें कि पढ़े-लिखों की बुद्धि कहां तक जाती है, गैर पढ़े-लिखे पर लिखकर पीएच.डी. मिलती है। तब वे बड़े पंडित हो जाते हैं।
कबीर को नहीं मिल सकती थी। कबीर को तो विश्वविद्यालय में कोई घुसने ही नहीं देता;
कि तुम बाहर, उलटबांसी बाहर रखो। कबीर को कोई
विश्वविद्यालय नहीं घुसने देता भीतर। लेकिन कोई भी नहीं सोचता कि नहीं तो कम से कम
भारत में सैकड़ों डाक्टर हैं, जो कबीर की वजह से डाक्टर हैं।
वे बड़े ज्ञाता हैं।
यह बड़े मजे की बात है, जिससे जीवन बदल सकता
था, उससे उपाधि उपलब्ध होती है। जिससे तुम कबीर हो सकते थे,
उससे तुम सिर्फ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो जाते हो, एक डाक्टर हो जाते हो; एक किताब छप जाती है।
तुम्हारे नाम के साथ थोड़ी चमक लग जाती है। उलटबांसियों पर पीएच.डी. ले लेने वाले
लोगों को भी उलटबांसी का जरा-सा स्वाद नहीं आता।
कबीर इस मुल्क की परम धन्यताओं में एक हैं। और कई अर्थों में अनूठे
हैं। बुद्ध, महावीर सब राजपुत्र हैं, सुसंस्कृत
हैं, उन्हें जो जानने को मिला, वे जो
हो सके, उसके लिए उनके पास बड़ी व्यवस्था भी थी। श्रेष्ठतम
शिक्षक उन्हें मिले, श्रेष्ठतम भोजन मिला, श्रेष्ठतम वातावरण मिला, अनुकूलता मिली। कबीर बिलकुल
गांव के गंवार हैं। राज्य का तो सवाल ही नहीं, मां-बाप का भी
पक्का पता नहीं है। यह भी साफ नहीं कि हिंदू हैं कि मुसलमान हैं। अनाथ हैं,
सड़क के भिखारी! सड़क के किनारे छोटा बच्चा पड़ा हुआ मिला है, वही बाद में कबीर हो गया। कोई जानता नहीं, कौन
मां-बाप हैं, कौन-सा घर-ठिकाना है, निपट
भिखमंगे हैं। कोई सुविधा नहीं है, कोई अनुकूलता नहीं है,
संसार से ऊबने का भी कोई उपाय नहीं है। क्योंकि बुद्ध को तो उपाय
है। जब बहुत कुछ होता है, तो ऊब आ जाती है। सुंदरतम
स्त्रियां होती हैं, तो वैराग्य आ जाता है। इसलिए बुद्ध में
विशेषता नहीं है, कोई भी ऊब जाता।
सच तो यह है कि जिसको भी बुद्ध के जैसी व्यवस्था मिल जाए, वह ऊबेगा नहीं तो करेगा क्या? सारी सुंदर स्त्रियां
बाप ने इकट्ठी कर दीं, तो सुंदर स्त्रियां बेकार हो गईं।
क्योंकि जिसको भी हम भोग लें, जिसका भी साथ-संग मिल जाए,
वह बेकार हो जाए। सुंदर स्त्री का रस तो उस कारण है कि सुंदर स्त्री
अलभ्य है, मिल नहीं पाती। बुद्ध को सब अप्सराएं उपलब्ध हो
गईं, बात व्यर्थ हो गई। सब धन हाथ पर था, धन में कोई सार न रहा। राज्य था, पाने को कुछ और बचा
नहीं।
तो अगर बुद्ध मुड़ पड़े संसार से, तो यह बिलकुल
स्वाभाविक है, तर्कयुक्त है। कबीर के पास तो कुछ भी नहीं।
फिर भी कबीर मुड़ पड़े, यह अतक्र्य है। इसके लिए बड़ी महिमाशाली
प्रतिभा चाहिए। जब कोई उपाय न हो ऊबने का, तब जो ऊब गया,
इसके पास बड़ी गहरी आंखें चाहिए, धन हाथ में न
हो और धन मिट्टी दिख जाए, इसके लिए बड़ी अंतर्दृष्टि चाहिए।
भिखमंगा छोड़ दे संसार को, इसका अर्थ इतना ही होता है कि इसके
पास ऐसी गहरी आंखें हैं कि जो राज्य इसके पास नहीं था, उसको
भी इसने पहचान लिया। जो इसे नहीं मिला था, उसके भी आर-पार
देख लिया। और कबीर आते हैं बिलकुल आखिरी वर्ग से, जहां से
क्रांति उठती नहीं, इसलिए कबीर अद्वितीय हैं।
तो कबीर की तुलना न तो बुद्ध, न महावीर से की जा
सकती है। कबीर की तुलना तो सिर्फ क्राइस्ट से की जा सकती है। और वैसा ही
क्रांतिकारी व्यक्तित्व है।
लेकिन भारत उनको पी गया। क्योंकि भारत के पास पंडितों की इतनी पुरानी
परंपरा है कि यहां सत्य पैदा नहीं हो पाता कि पंडित उस पर कब्जा कर लेते हैं। और
जिस सत्य पर पंडित ने कब्जा किया, वह उसको भ्रष्ट कर देता है। वह
उसमें से कुछ और ही बातें निकाल लेता है, जिनका कि कोई संबंध
ही न था। कबीर फंस गए, पंडितों ने पकड़ लिया, पंडित उनकी उलटबांसियों के अर्थ करने में लग गए। और कबीर के पीछे साधक की
परंपरा नहीं बन पाई, पंडित की परंपरा बन गई।
चूक गई घटना। अन्यथा कबीर से उतनी ही बड़ी क्रांति पैदा हो सकती थी
जितनी क्राइस्ट से। क्योंकि दोनों--कबीर जुलाहा हैं, क्राइस्ट बढ़ई--दोनों
गैर पढ़े-लिखे हैं और दोनों के वचन में उलटबांसियां हैं। क्राइस्ट कहते हैं: धन्य
हैं वे जो हारे हुए हैं, क्योंकि विजय उनकी ही होगी; धन्य हैं गरीब, क्योंकि साम्राज्य उन्हीं का होगा;
धन्य हैं वे, जो पीछे खड़े हैं, क्योंकि वे ही प्रथम खड़े होंगे। ये जीसस के बिएटिटयूड्स हैं, ये उलटबांसियां हैं। कहने का ढंग अलग है, लेकिन जब
भी किसी संत ने कुछ अनुभव किया है, तो उससे जो वचन निकले हैं,
वे हमेशा उलटे हैं।
जहां भी तुम्हें पैराडाक्स, उलटबांसी दिखाई पड़े,
वहां रुक जाना, वहां से जल्दी मत करना जाने की,
वहीं किसी सत्य की किरण तुम्हें मिल सकती है। जहां सब साफ-सुथरा
बगीचा मालूम पड़े, जहां सूखा पत्ता भी नहीं है, वहां से जितने जल्दी भाग सको, भाग खड़े होना। वहां
पंडित रहता है, वहां ज्ञानी नहीं है।
प्रश्न:
भगवान श्री, संस्कृत में एक सूत्र
है: अति परिचयात् अवज्ञो।
इस जगह की सभी चीजों से, व्यक्तियों से और घटनाओं से अति परिचय होने पर मन ऊब जाता है।
लेकिन आपके साथ अति परिचय से अवज्ञा तो होती ही
नहीं, परिचय भी नहीं हो पाता।
उलटे अपरिचय ही बढ़ता चला जाता है।
यह कैसा रहस्य है?
उलटबांसी है! परिचय बढ़े, ऊब पैदा होती है,
यह संसार का नियम है। जितना बढ़ेगा परिचय, उतनी
ही ऊब हो जाएगी। क्योंकि परिचय का अर्थ है, जिज्ञासा खो गई
अब, जान लिया जो जानने को था। परिचय का अर्थ है, अब कुछ खोजने को न बचा, पहचान हो गई। तो मन की जो
दौड़ थी खोजने की, जिज्ञासा की, उत्सुकता
की, वह नष्ट हो गई। ऊब का यही अर्थ होता है कि अब मन को कोई
क्रिया बाकी न रही। संसार का यही नियम है। और जहां भी इससे उलटा हो, उसे समझ लेना कि संसार के बाहर की कोई घटना है।
अगर किसी से परिचय बढ़ते-बढ़ते जिज्ञासा बढ़ती जाए, किसी से जितना परिचय हो उतना ही आकर्षण बढ़ता जाए, और
जितना तुम जानो, उतना ही जानने को और खुलता जाए, ऐसे ही व्यक्ति को हमने बुद्धत्व, निर्वाण, मुक्ति को उपलब्ध व्यक्ति कहा है। उसे तुम कभी चुका न पाओगे; अगर चुका दो, तो वह संसार का हिस्सा था। उसके पास
जाकर तुम कभी इतने पास न पहुंच पाओगे कि और आगे जाने का उपाय न रहे। उसके तुम
जितने पास पहुंचोगे, उतने ही और द्वार खुलते जाएंगे। उन
द्वारों का कोई अंत नहीं है। और जितने तुम निकट जाओगे, उतना
ही तुम पाओगे और भी कुछ बुला रहा है, और भी कोई चीज जानने को
आ गई सामने, यह कभी भी चुकेगी नहीं।
इसलिए बुद्ध तुम्हें अगर अनंतकाल के लिए भी मिल जाएं, तो भी तुम ऊब न सकोगे। बुद्ध के पास ऊबने का उपाय नहीं है। क्योंकि बुद्ध
की कोई सीमा नहीं है, जिसको तुम छू लो। अगर तुम दूर रहो,
तो शायद तुम्हें सीमा दिखाई भी पड़े। जैसे-जैसे तुम पास आओगे,
वैसे-वैसे सीमा तिरोहित होगी और असीम प्रकट होगा। एक घड़ी आएगी,
जिसमें तुम खो तो सकते हो, जिसमें तुम बुद्ध
के असीम के हिस्से हो सकते हो, लेकिन ऊब नहीं सकते।
इसे चाहे प्रेम कहो, चाहे इसे ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, जहां तुम ऊबते नहीं हो और तुम्हारा
कितना ही परिचय अति परिचय नहीं बन पाता, जहां अति होती ही
नहीं।
एक सूत्र है बौद्ध-ग्रंथ में कि ध्यान की कोई अति नहीं है। ऐसा तुम
नहीं कर सकते कि तुमने ज्यादा ध्यान कर लिया, ऐसी कोई स्थिति नहीं
ज्यादा ध्यान की। ध्यान सदा कम है, तुम कितना ही करो,
कम है। अति तो हो ही नहीं सकती।
मेरे पास तुम हो, अगर मैं एक संसार अपने आस-पास
खड़ा कर रहा हूं, तो तुम आज नहीं कल ऊब जाओगे। जो मैं तुम्हें
दे रहा हूं, अगर वह इस जगत का ही है, तो
तुम आज नहीं कल ऊब जाओगे। जो मैं दे रहा हूं, अगर वह पार से
आता है, तो तुम नहीं ऊब पाओगे। चाहे मैं तुमसे रोज ही बोलता
रहूं, जो मैं बोल रहा हूं, अगर वह
शून्य से आ रहा है, तो वह तुम्हारे भीतर भी शून्य को ही पैदा
करेगा। जो मैं बोल रहा हूं, अगर वह असीम से आ रहा है,
तो तुम्हारे भीतर भी असीम को ही जन्माएगा। मेरे पास धीरे-धीरे तुम
मेरे जैसे होते जाओगे।
ऊब का कोई उपाय नहीं है, सत्संग की कोई अति
नहीं है, जितना भी तुम करो वह थोड़ा है। अमृत को कितना ही
पीयो, प्यास का अंत नहीं आएगा, तुम
ऊबोगे नहीं, तुम छकोगे नहीं। और अमृत को कितना ही पीयो,
जरूरत से ज्यादा पी लिया, ऐसी कोई स्थिति नहीं
है; सदा ही कम रहेगा।
इसीलिए हम परमात्मा को अनंत कहते हैं, असीम कहते हैं। उससे
मिलकर भी तुम पाओगे कि मिल न पाए, उसके पास होकर भी तुम
पाओगे कि पूरे पास न हो पाए, एक फासला पार करने को सदा बाकी
रहेगा।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि अध्यात्म का शुरू तो होता है, अंत नहीं होता। इस यात्रा का पहला चरण तो है, अंतिम
चरण नहीं है। मंजिल कभी नहीं आती। यात्रा अनंत है, यात्रा ही
मंजिल है।
आज इतना ही।
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