कुल पेज दृश्य

बुधवार, 17 मई 2017

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03



पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 03 जून सन् 1980,
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-तीसरा

प्रश्न-सार

01-आपकी हत्या करने के प्रयास की आलोचना किसी भी अखबार वाले ने नहीं की, न ही किसी उच्च दर्जे के व्यक्ति ने कुछ वक्तव्य दिया!
बुद्धिजीवी और साधारणजन, सब के सब उपेक्षा से क्यों भरे हैं?
02-मैं एक ज्योतिषी हूं, किंतु आपके विचार सुन कर ऐसा लगता है कि यह गलत और धोखे का धंधा छोड़ दूं। आपका आशीष चाहिए।

पहला प्रश्न: भगवान!
बाईस मई को सुबह प्रवचन में एक युवक ने छुरा फेंक कर आपकी हत्या करने का प्रयास किया, जो निष्फल रहा। आश्चर्य की बात है कि इस घटना की आलोचना किसी भी अखबार वाले ने नहीं की, न ही किसी उच्च दर्जे के व्यक्ति ने इसके बारे में कुछ वक्तव्य दिया! आश्रमवासियों ने उस व्यक्ति के साथ जो प्रेमपूर्ण व्यवहार किया, उसकी प्रशंसा भी किसी अखबार या पत्रिका में नहीं छपी।
बुद्धिजीवी और साधारणजन, सबके सब उपेक्षा से क्यों भरे हैं?
भगवान, ऐसे मुर्दा देश में आपका प्रमुख आश्रम है, जब कि यहां तो शाखा होना भी बेकाम दिखता है।

कैलाश गोस्वामी!

मैं जो कह रहा हूं, मैं जो कर रहा हूं, वह किसी देश में किया जाए, किसी जाति में किया जाए, सभी जगह यही व्यवहार होगा। भारत की इसमें कोई विशिष्टता नहीं है। व्यवहार ऐसा न होता, तो विशिष्टता होती।
सुकरात तो भारत में पैदा नहीं हुआ था, दूर यूनान में पैदा हुआ था, और आज भी नहीं, पच्चीस सौ वर्ष पहले--पर व्यवहार क्या हुआ? यही उपेक्षा। यही विरोध। अलहिल्लाज मंसूर तो भारत में पैदा नहीं हुआ था। जीसस क्राइस्ट तो भारत में पैदा नहीं हुए थे।
लेकिन प्रश्न देशों का नहीं है; प्रश्न है मनुष्य के मन का। और वह एक जैसा है। उसमें जितने भेद हैं, सब ऊपरी-ऊपरी हैं। मनुष्य का मन है पुरातनपंथी। मनुष्य का मन ही होता है अतीत-उन्मुख। मन का अर्थ ही होता है--जो बीत गया उसका संग्रह। मन जीता ही मरे हुए पर है, मुर्दा पर है।
स्वभावतः जो देश जितना प्राचीन होगा, उतना ही मुर्दा उसका मन होगा; उतनी ही लंबी उसकी परंपरा होगी; उसकी उतनी ही बंधी हुई लीकें होंगी; उसकी रूढ़िग्रस्तता भी उतनी ही गहरी होगी। और जब भी सत्य की कोई बात कही जाए, तो वह अनिवार्यरूपेण परंपरा के विपरीत पड़ेगी। क्योंकि सत्य की कोई परंपरा नहीं होती। सत्य की परंपरा नहीं हो सकती है। सत्य सदा वैयक्तिक होता है; क्योंकि सत्य अनुभूति है। जब भी सत्य की उदघोषणा होगी, परंपरा से उसका विरोध होगा।
और परंपरा स्वभावतः बलशाली है। अधिक लोग तो परंपरा से बंध कर जीते हैं। उसमें सुविधा है; उसमें सम्मान है; उसमें सुरक्षा है। सत्य में न सुविधा है, न सम्मान है, न सुरक्षा है। सत्य में तो खतरा ही खतरा है।
सुकरात का कसूर क्या था? इतना ही तो कसूर था कि उसने परंपरा से भिन्न कुछ बातें कहीं। बुद्ध का कसूर क्या था? इतना ही तो कसूर था कि उन्होंने लीक को छोड़ कर चलने का प्रयास किया; उन्होंने भीड़ से हट कर अपनी निजता की घोषणा की। वही भीड़ को अखर जाता है।
भीड़ यह बरदाश्त नहीं कर पाती कि कोई व्यक्ति इतना साहस करे कि हम सबको भेड़ समझे! हम जो कि इतने हैं, हम जो कि इतने पुराने हैं, हम जिनके हाथों में सदियों के शास्त्र हैं, हम जिनके पास प्राचीन धरोहर है--हमें ना-कुछ समझे, ऐसे व्यक्ति को बरदाश्त नहीं किया जा सकता! ऐसे व्यक्ति की उपेक्षा की जाएगी। ऐसे व्यक्ति को लोक-मानस पर छाप न डालने दी जाए, इसकी सब चेष्टा की जाएगी। ऐसे व्यक्ति को लोक-मानस से तोड़ दिया जाए, इसके सब उपाय किए जाएंगे। ऐसे व्यक्ति के प्रति जितने झूठे प्रचार हो सकते हैं, असत्य प्रचार हो सकते हैं, वे किए जाएंगे। क्योंकि सत्य तो उसके पक्ष में है, अब असत्य ही बचता है भीड़ के हाथ में। मगर असत्य काफी धूल उड़ा सकता है, और काफी लोगों की आंखों में धूल झोंक सकता है। फिर लोग असत्य को जब सदियों तक सुनते रहे हैं, तो वे मान लेते हैं कि यही सत्य है।
अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा मेनकैम्फ में लिखा है कि मैं तो इतना ही फर्क मानता हूं सत्य और असत्य में, कि असत्य नया-नया जब बोला जाता है तो असत्य मालूम होता है; और जब वही पुराना हो जाता है तो सत्य हो जाता है, जब वही प्रचारित हो जाता है तो सत्य हो जाता है। और कोई सत्य नहीं है दुनिया में।
अडोल्फ हिटलर की बात में कुछ बात है। अगर असत्य को भी सदियों तक प्रचारित किया जाए, लोगों के मन संस्कारित किए जाएं, तो वह सत्य मालूम होने लगता है।
तुम अपने ही मन को देखो। तुमने कितनी बातों को सत्य मान रखा है! ऐसी बातों को, जिनको तुम एक बार भी सोचोगे तो चकित होओगे। और तुम ही नहीं, जिनको तुम बड़े-बड़े विचारक कहो...अरस्तू को तो बड़ा विचारक कहोगे न? पश्चिम में उसे तर्कशास्त्र का पिता कहा जाता है। लेकिन यूनान में अरस्तू के समय हजारों साल से यह धारणा थी कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। होने ही चाहिए। स्त्रियों की हर चीज पुरुषों से कम होनी चाहिए। उनकी बुद्धि कम, उनकी शक्ति कम, उनकी प्रतिभा कम। यह पुरुष का अहंकार स्त्री को जितना छोटा कर सकता है, करता है; और अपने को जितना फुला सकता है, फुलाता है।
तो अरस्तू ने कभी यह कोशिश ही नहीं की, अब यह तो छोटी सी बात थी, इसमें कोई बहुत बड़े वैज्ञानिक होने की जरूरत न थी। और अरस्तू की दो-दो पत्नियां थीं, एक भी नहीं। दोनों श्रीमतियों को बिठाल लेता और वह दांत गिन लेता। यह पांच मिनट की बात थी। लेकिन यह उसने नहीं किया। अपनी किताबों में उसने बार-बार यही लिखा है कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। जो प्रचलित बात थी, वह मान ली।
गैलीलियो तक सारी दुनिया यही मानती रही कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है। सारी दुनिया में शब्द जो हैं, वे इस बात की घोषणा करते हैं--सूर्योदय, सूर्यास्त। सचाई कुछ और है। न तो सूर्य का कोई उदय होता है, न कोई अस्त होता है। जब गैलीलियो ने पहली दफा यह कहा तो उसको पोप की अदालत में मौजूद किया गया। सत्तर साल का बूढ़ा आदमी, उसको घुटनों के बल खड़ा करके कहा गया: तुम क्षमा मांगो! क्योंकि बाइबिल में लिखा है कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है, पृथ्वी सूर्य का चक्कर नहीं लगाती। और तुमने अपनी किताब में लिखा है कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है। तो तुम बाइबिल से ज्यादा ज्ञानी हो? बाइबिल, जो कि ईश्वरीय ग्रंथ है! जो कि ऊपर से अवतरित हुआ है!
गैलीलियो बड़ा अदभुत आदमी था। वह मुस्कुराया और उसने कहा, आप कहते हैं तो मैं क्षमा मांग लेता हूं। मुझे क्षमा मांगने में कोई अड़चन नहीं है। आप अगर कहें तो मैं अपनी किताब में सुधार भी कर दूं। मैं यह भी लिख सकता हूं कि सूरज ही पृथ्वी के चक्कर लगाता है, पृथ्वी नहीं। लेकिन एक बात आपसे निवेदन करूं--मैं प्रार्थना आपसे कर लूं, माफी मांग लूं, किताब में बदलाहट कर दूं, मगर सचाई यही है कि चक्कर तो पृथ्वी ही सूरज के लगाती है। सचाई नहीं बदलेगी। मेरे माफी मांग लेने से सूरज फिक्र नहीं करेगा, न पृथ्वी फिक्र करेगी। मेरी किताब में बदलाहट कर देने से सिर्फ मेरी किताब गलत हो जाएगी। मगर आपकी मर्जी हो तो यह कर दूं।
सुनने को कोई राजी नहीं है। जब पहली दफा कोपरनिकस ने कुछ नये तारों का आविष्कार किया--आविष्कार किया, थे तो वे पहले से, लेकिन खाली नंगी आंखों से दिखाई नहीं पड़ते। उनको देखने के लिए उसने पहली दफा दूरदर्शक यंत्र खोजा। तो उसने बड़े-बड़े लोगों को आमंत्रित किया कि तुम आकर मेरे दूरदर्शक यंत्र से देखो! अगर तुम्हें न दिखाई पड़ें, तो तुम मुझसे कहना कि नहीं हैं। मगर उन्होंने कहा कि हम तुम्हारे दूरदर्शक यंत्र से देखें ही क्यों? जो चीज है ही नहीं, उसको हम देखने के लिए भी झंझट में क्यों पड़ें? और अगर तुम्हारे दूरदर्शक यंत्र से दिखाई पड़ती है, तो उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि तुम्हारा दूरदर्शक यंत्र कुछ जालसाजी है। है नहीं, लेकिन दिखाई पड़ता है। मतलब दूरदर्शक यंत्र कुछ हरकत कर रहा है हमारी आंखों के साथ, हमें कुछ धोखा दे रहा है। तुम एक तरह का इंद्रजाल पैदा कर रहे हो, एक तरह का जादू।
उसके दूरदर्शक यंत्र से कोई देखने को राजी नहीं था। कोई राजी नहीं हुआ--प्रोफेसर्स, वैज्ञानिक, गणितज्ञ, ज्योतिषी--उन्होंने इनकार कर दिया। और कोपरनिकस को जितनी गालियां पड़ सकती थीं, उतनी पड़ीं। और यह सिद्ध करने की कोशिश की गई कि यह आदमी भूत-प्रेतों को वश में किए हुए है। और उन्हीं भूत-प्रेतों के सहारे यह अपनी तरकीबें बिठा रहा है। और ऐसी चीजें लोगों को दिखा रहा है, जो हैं नहीं। क्योंकि अगर ये तारे होते, तो बाइबिल में वर्णन होना चाहिए। क्योंकि सब लिखा है कि ईश्वर ने छह दिन में क्या-क्या बनाया। उसमें इन तारों का कोई वर्णन तो है नहीं। जब ईश्वर ने बनाए ही नहीं, तो ये हो कैसे सकते हैं?
हम अतीत के अंधे अनुयायी हैं। इसलिए कैलाश गोस्वामी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कहां होता। जहां भी होता, यही होने वाला था। थोड़ा सा फर्क पड़ता है। कहीं और होता तो थोड़ा व्यवस्थित ढंग से होता। जैसे उस आदमी ने छुरा मारा, वह चूकता नहीं अगर जर्मनी में होता। भारत में था, चूक गया। ऐसा लाभ, इतना लाभ भारत में होने का है। एक तो छुरा भी बाबा आदम के जमाने का था, लग भी जाता तो भी मर जाना आसान नहीं था, मरना ही हो तो बात अलग। लेकिन छुरे की जो तस्वीर मैंने अखबारों में देखी, उसे देख कर ऐसा नहीं लगता कि उसके लग जाने से कोई मर जाता। उसे तुम घर में सब्जी काटने के काम में भी शायद ही लाओ। जंग खाया हुआ मालूम पड़ता है। जर्मनी में अगर यह बात होती तो ऐसा नहीं हो सकता था।
मेरे एक मित्र कह रहे थे कि जर्मनी में एक लतीफा प्रचलित है। वे जर्मनी ही रहते हैं और चूंकि भारतीय हैं, किसी ने उनको कहा कि तुम तैयारी रखो, क्योंकि जब तुम मरोगे तो तुमसे नर्क के द्वार पर पूछा जाएगा। पहले भी एक भारतीय इस तरह जर्मनी में रहा, उससे पूछा गया था। नर्क के द्वार पर उस भारतीय से पूछा गया था कि चूंकि तुम जन्म से भारतीय हो और रहे जीवन भर जर्मनी में हो, तो तुम किस नर्क जाना चाहते हो--जर्मनी वाले हिस्से में या भारतीय हिस्से में?
तो वह बहुत चौंका था। उसने कहा कि क्या नर्क भी अलग-अलग देशों के अलग-अलग हैं? तो द्वारपाल ने कहा, निश्चित ही। तो उसने पूछा कि फर्क क्या है दोनों में? यह मुझे जाहिर हो जाए तो चुनाव करने में आसानी हो। तो उसने कहा, फर्क भी कुछ नहीं है। वही कष्ट तुम्हें भारतीय नर्क में झेलने पड़ेंगे, वही कष्ट तुम्हें जर्मन नर्क में झेलने पड़ेंगे। वही कड़ाहियां, वही तेल, वही भट्टियां, वही कोड़े, वही पिटाई--सब वही होगा। फिर वह भारतीय बोला कि फिर पूछते क्या हो चुनाव करने के लिए, अगर सब वही होना है?
द्वारपाल हंसा और उसने कहा कि थोड़ा सा फर्क है। फर्क यह है कि भारतीय नर्क में जो भी होता है भारतीय ढंग से होता है। मतलब कभी चूल्हा जलता है, कभी नहीं भी जलता। कभी लकड़ी गीली, कभी तेल नहीं मिलता। तेल मिल जाए, लकड़ी भी गीली न हो, तो जिस आदमी को चूल्हा जलाना है वह दफ्तर ही नहीं आता, वह छुट्टी पर। छह महीने तो छुट्टी, क्योंकि इतने धार्मिक त्यौहार--कभी गणेश-उत्सव, कभी मुहर्रम, कभी पर्युषण। छुट्टियां ही छुट्टियां हैं। दूसरी बात यह है कि आधुनिक यंत्रों का भी उपयोग भारतीयों ने शुरू किया है, मगर कई दफे दिन में बिजली चली जाती है। कई दफे दिन-दिन भर नहीं आती। गर्मियों के दिनों में कटौती हो जाती है। भारतीय ढंग से होगा वहां व्यवहार। जर्मन नर्क में जर्मन ढंग से होगा। वहां कभी बिजली नहीं चूकती। वहां कभी ऐसा नहीं होता कि व्यक्ति अपने काम पर मौजूद न हो। ठीक समय पर काम शुरू होता है, और कुशलता से काम किया जाता है--जर्मन कुशलता से काम किया जाता है। सब आधुनिक यंत्र हैं वहां। पुराने ढंग के चूल्हे नहीं हैं अब वहां, बिजली की भट्टियां हैं। और जब से अडोल्फ हिटलर आ गया है, वह सारी की सारी आधुनिकतम बिजली की भट्टियों की जानकारी ले आया है। वहां भूल-चूक नहीं है। छुट्टी नहीं है।
तो उस भारतीय ने कहा कि मुझे तो भारतीय नर्क ही भेजो। फिर उसने पूछा द्वारपाल से, वहां रिश्वत वगैरह भी चलती होगी?
उसने कहा, वह तो चलने ही वाली है। वह जर्मन नर्क में नहीं चल सकती।
कैलाश गोस्वामी, इतने फर्क तो पड़ते। जैसे कि जर्मनी में कोई मारता तो कुछ दिन निशाने का अभ्यास करता। अब यह आदमी छुरा मुझे मारता है, यहां पंद्रह सौ लोग मौजूद थे, अगर कोई अंधा भी छुरा फेंके तो किसी को लगना चाहिए। इस आदमी ने भी गजब का अभ्यास किया हुआ था, पंद्रह सौ आदमियों में से किसी को नहीं लगा। मुझे तो लगा ही नहीं, किसी को नहीं लगा। खरोंच भी नहीं आई। छुरा भी गजब का भारतीय था! इतनी भीड़-भाड़ में भी--लोगों के सिरों पर से गुजरा--और गिरा दो व्यक्तियों के बीच में सीमेंट पर। अहिंसात्मक था। गांधीवादी था।
यहां होने के फायदे हैं। इन फायदों को तुम नजरअंदाज न करो।
तुम पूछते हो कि "बुद्धिजीवी और साधारणजन, सबके सब उपेक्षा से क्यों भरे हैं?'
यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। बुद्धिजीवी क्या हैं बेचारे? वही लकीर के फकीर। भारत में बुद्धिजीवी का काम क्या है? गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ होना, वेदपाठी होना।
एक सज्जन मुझे पत्र लिखते थे; त्रिवेदी थे। डाक्टर थे, एक विश्वविद्यालय में अध्यापक थे। मैं भूल से उनको उत्तर लिखा तो द्विवेदी लिख दिया। अब ऐसी कोई बड़ी भूल नहीं हो गई थी, लेकिन उनको सदमा पहुंचा। त्रिवेदी को और द्विवेदी कहो! त्रिवेदी का मतलब तीन वेदों को जानने वाला और द्विवेदी का मतलब दो वेदों को जानने वाला। भारी नुकसान हो गया। हालांकि न वे तीन जानते, न दो जानते, कभी कोई बाप-दादों में पहले जानता रहा होगा। मगर इससे भी क्या फर्क पड़ता है! कुल के गौरव की बात है। उन्होंने तत्क्षण मुझे गुस्से में पत्र लिखा कि और सब ठीक है, कम से कम आप पता तो, नाम तो कम से कम ध्यानपूर्वक लिखा करें। नाम ही मेरा गलत लिख दिया है। मैं द्विवेदी नहीं हूं, त्रिवेदी हूं। तो मैंने उन्हें उत्तर लिखा, उसमें चतुर्वेदी लिख दिया। उनका तो और भी गुस्से से भरा पत्र आया कि आप आदमी कैसे हैं? आपने त्रिवेदी न लिखने की कसम खाई है क्या? पहले द्विवेदी लिख दिया, अब चतुर्वेदी लिख दिया। मैंने कहा कि मैं तो सिर्फ हिसाब पूरा कर रहा हूं कि एक दफा भूल हो गई, त्रिवेदी को द्विवेदी लिख दिया, चतुर्वेदी करके उसको पूरा कर रहा हूं। एक वेद बढ़ा दिया। आगे से त्रिवेदी ही लिखूंगा; मगर पुराना हिसाब भी तो पूरा कर लेना उचित है।
इस देश के बुद्धिजीवियों का क्या मूल्य है? क्या अर्थ है? उनका काम है--करते रहें परंपरा का पोषण। परंपरा का पोषण करते हैं तो लोग उनको पंडित कहते हैं, सम्मान करते हैं, ज्ञानी मानते हैं। वस्तुतः बुद्धिमत्ता शुरू होती है बगावत से। कितने बगावती हैं यहां? और मुझसे तो उनकी नाराजगी और भी ज्यादा है। क्योंकि वे सोचते थे कि मैं भी बुद्धिजीवी हूं, उन्हीं जैसा। क्योंकि मैं भी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था, तो उनकी आशा थी कि उन्हीं जैसा चलूंगा, उसी लीक पर चलूंगा। डीन हो जाऊंगा, उपकुलपति हो जाऊंगा और अगर राजनेताओं को खुश रख सका तो कुलपति हो जाऊंगा। उस सबसे मैं बगावत कर गया। उनके द्वारा दिए गए सारे के सारे सर्टिफिकेट मैंने जाकर आग लगा दिए। मैंने इनकार ही कर दिया, कि तुम्हारे सर्टिफिकेट्स का कोई मूल्य नहीं है, दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है। और मुझे ऐसे पांडित्य में कोई रस नहीं है। तो मुझसे उनकी नाराजगी का कारण भी है। वे कैसे मेरे संबंध में कुछ कहें! मैं तो यही बहुत धन्यवाद मानता हूं कि कम से कम, जिसने हत्या करने का प्रयास किया है, उसकी प्रशंसा में उन्होंने कुछ नहीं कहा। मैं तो इसको ही उनकी बड़ी दया भावना मानता हूं, बड़ी करुणा मानता हूं।
इस तरह देखो कैलाश गोस्वामी। क्यों देखते हो निराशा के पहलू से? आशा के पहलू से देखो। क्यों गिनते हो दो रातें और उनके बीच में एक छोटा सा दिन? क्यों न गिनो दो दिन और उनके बीच में एक छोटी सी रात! क्यों गिनते हो कांटे और कहते हो उनमें खिला एकाध फूल? गिनो कांटे, मगर यूं नहीं। फूलों को गिनो पहले और फिर कहो कि इतने फूल और इसमें अगर थोड़े से कांटे भी हुए तो क्या हर्ज! फिर कांटे फूलों के पहरेदार मालूम होते हैं।
तुमने डायोजनीज के संबंध में सुना होगा--यूनान का एक बहुत बड़ा अदभुत विद्रोही, बगावती विचारक। और विचारक हो और बगावती न हो, यह हो ही नहीं सकता। विचारक हो और विद्रोही न हो, यह हो ही नहीं सकता। ये दोनों बात साथ घटती हैं। बुद्धिजीवी अगर सच में बुद्धिजीवी है, तो बगावती होगा; क्योंकि वह बुद्धि का आत्यंतिक लक्षण है। वह प्रतिभा की घोषणा है।
डायोजनीज बगावती था। वह नंगा रहता था। अब नंगा रहना भारी बगावत है। और भारत में नंगा रहना उतनी बगावत नहीं है, क्योंकि भारत में सदियों से अनेक लोग नंगे रहे हैं। यूं भी लोग अधनंगे हैं। यूं भी आधे से ज्यादा लोग नंगे से भी बदतर हालत में हैं। वैसे ही लंगोटी है। जैनों की परंपरा है नग्न रहने की, हिंदुओं की परंपरा में नग्न साधुओं की लंबी यात्रा है। लेकिन यूनान में तो नग्न साधुओं की कोई परंपरा न थी, साधुओं की ही कोई परंपरा नहीं थी। जब सिकंदर भारत आया तो उसके गुरु अरस्तू ने कहा था कि भारत से जब आओ तो एक संन्यासी को लेते आना, क्योंकि मैंने संन्यासी नहीं देखा है। संन्यासी कैसा होता है? यह संन्यास क्या है?
यह बात ही पता नहीं थी, वहां डायोजनीज का नग्न हो जाना! और जब लोगों का पूछना उससे कि यह तुम क्या कर रहे हो? तो उसका कहना कि जब ईश्वर ने मुझे नग्न बनाया है तो मैं क्यों ढांकूं? जब उसने उघाड़ा बनाया है तो मैं उघाड़ा रहूंगा। हिम्मतवर आदमी रहा होगा। नग्न तो था, लेकिन हाथ में एक लालटेन लिए रहता था दिन-रात--जलती हुई लालटेन--दिन में भी, भरी दोपहरी में भी। और जो आदमी मिलता उसी के चेहरे के ऊपर लालटेन उठा कर देखता। लोग उससे पूछते कि यह क्या कर रहे हैं आप? भरी दोपहरी में लालटेन किसलिए? क्या आपकी आंखें कमजोर हैं? वह कहता, आंखें कमजोर नहीं हैं। लेकिन मैं रोशनी करके देखना चाहता हूं कि कहीं कोई आदमी है या नहीं पृथ्वी पर? लोग तो बहुत हैं, मगर आदमी नहीं हैं।
मैंने सुना कि डायोजनीज जब मरा तो किसी ने पूछा, डायोजनीज, अब तो यह बताओ कि तुम्हें कोई आदमी मिला या नहीं, जिसको तुम जिंदगी भर खोजते थे लालटेन लेकर? करोड़-करोड़ लोगों में तुम्हें एकाध आदमी मिला या नहीं? डायोजनीज ने आंख खोलीं और कहा कि धन्यवाद है परमात्मा का! आदमी तो नहीं मिला, मगर यही क्या कम है कि किसी ने मेरी लालटेन नहीं चुराई।
इसको मैं कहता हूं आशावाद। यही क्या कम है कि किसी ने मेरी लालटेन नहीं चुराई। नहीं तो रात सोता भी हूं लालटेन रख कर, अब कोई रात भर लालटेन तो नहीं पकड़े रहूंगा, कोई लालटेन ही ले भागता। हां, इतना फर्क पड़ता अगर भारत में होता तो कि यह कहने का मौका नहीं आता। कोई न कोई लालटेन ले भागता। आदमी तो नहीं मिलता, लेकिन लालटेन नदारद हो जाती, लालटेन का पता नहीं चलता।
तुम कहते हो: "उपेक्षा से क्यों भरे हैं?'
कहां उपेक्षा? हत्या करने की कोशिश करने वाले की प्रशंसा नहीं की उन्होंने, यही क्या कम है! दिल ही दिल में तो खुश हुए होंगे कि अच्छा हुआ, यही होना चाहिए था। पहले ही होना चाहिए था, इतनी देर क्यों लगाई! भीतर-भीतर तो चिंतित हुए होंगे कि यह आदमी असफल क्यों हो गया, सफल हो जाता तो अच्छा था। यह भी ईश्वर ने क्या किया! इस आदमी को सफल ही कर देना था। उपेक्षा नहीं दिखाई, भीतर खुश हुए होंगे।
और तुम कहते हो कि किसी उच्च दर्जे के व्यक्ति ने इसके बारे में कोई वक्तव्य नहीं दिया।
मेरे संबंध में कोई राजनीतिज्ञ कैसे वक्तव्य दे सकता है? राजनीतिज्ञों का जितना खंडन मैंने किया है, संभवतः किसी दूसरे व्यक्ति ने कभी नहीं किया। जितनी आलोचना मैंने की है, किसी और ने नहीं की। और तुम मुझे सुनते हो फिर भी उनको उच्च दर्जे के व्यक्ति कहते हो, हद हो गई! आश्चर्य मुझे तुम पर होता है। राजनीतिज्ञ और उच्च दर्जे का व्यक्ति! उच्च दर्जे के व्यक्ति राजनीति में उत्सुक होते हैं? तो फिर निम्न दर्जे के व्यक्ति कहां जाएंगे? राजनीति में उत्सुकता ही निम्न दर्जे के व्यक्तियों की होती है। राजनीति का अर्थ क्या होता है? यह हीनता की ग्रंथि से भरे हुए लोगों की दौड़ है। जिनके भीतर कहीं एक हीन-भाव है।
पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक एडलर ने अपना पूरा मनोविज्ञान, अपना पूरा शास्त्र हीनता की ग्रंथि पर खड़ा किया है। उसने कहा है कि जिन लोगों के भीतर जिस चीज की कमी होती है, वे उसके विपरीत अपने को सिद्ध करने में लग जाते हैं। और इस बात में बड़ा मूल्य है। जिनको भीतर लगता है कि धन की कमी है, जो भीतर अपने को निर्धन अनुभव करते हैं, वे धन की दौड़ में लग जाते हैं। वे सारा जीवन धन इकट्ठा करने में लगा देते हैं। धन इकट्ठा कर-कर के मर जाएंगे। भोग नहीं सकते। भोगना तो असंभव है, क्योंकि भोगने में खर्च हो जाएगा।
अमरीका का प्रसिद्ध करोड़पति--करोड़पति नहीं कहना चाहिए, अरबपति--एण्ड्रू कारनेगी जब मरा तो दस अरब रुपये छोड़ कर मरा। मगर जीया ऐसे जैसे कि कोई गरीब क्लर्क भी नहीं जीता। उसके क्लर्क तक उससे बेहतर ढंग से जीते थे।
एण्ड्रू कारनेगी का बेटा लंदन आया हुआ था। उसकी शान देखते बनती थी बेटे की। एण्ड्रू कारनेगी तो बहुत नाराज था बेटे पर, क्योंकि वह शान-शौकत से रहता था--पैसा बर्बाद कर रहा है। वह कहता था, मैंने इतनी मुश्किल से इकट्ठा किया है, और यह लुटा रहा है। लुटाना क्या था? अच्छे कपड़े पहन ले, अच्छे जूते खरीद ले, हवाई जहाज में फर्स्ट क्लास में सफर करे--इसको लुटाना कहता था। अरबपति आदमी इसको लुटाना कहता था! यह भी कोई लुटाना हुआ?
और जब एण्ड्रू कारनेगी लंदन आया और हवाई जहाज के थर्ड क्लास के कंपार्टमेंट में से अपना सामान खुद ही लेकर उतरा, पोर्टर को भी नहीं बुलाया। क्योंकि पश्चिम में पोर्टर मंहगी चीज है। भारत में कुलियों जैसा मामला नहीं है कि सस्ते, दो आने, चार आने में मिल जाएं। पोर्टर जरा मंहगी चीज है। सिर्फ संपन्न लोग ही पोर्टर को बुला सकते हैं।
अपना सामान खुद ही ढोता हुआ उतरा। काउंटर पर क्लर्क ने जब उसके सामान की जांच की, उसको गौर से देखा, तो उसको पहचान गया। वह तो सारा जग जाहिर आदमी था। उसका चेहरा तो प्रसिद्ध था। उसके फोटो तो जगह-जगह छपते थे।
उसने कहा, अगर मैं भूल नहीं करता तो आप एण्ड्रू कारनेगी हैं। मगर आप फटा कोट पहने हुए हैं!
एण्ड्रू कारनेगी ने कहा, फटे कोट से क्या फर्क पड़ता है? मैं चाहे फटा कोट पहनूं और चाहे हीरे-जवाहरात जड़ा कोट पहनूं--एण्ड्रू कारनेगी एण्ड्रू कारनेगी है!
पर उसने कहा कि आपका बेटा आता है तो शानदार कपड़ों में आता है।
एण्ड्रू कारनेगी बोला कि मेरा बेटा मुझे बर्बाद करने पर तुला हुआ है!
जब मरा तो उसकी आत्मकथा लिखने वाले ने एण्ड्रू कारनेगी से पूछा कि आप प्रसन्न मर रहे हैं? दस अरब रुपया छोड़ कर जा रहे हैं!
उसने कहा, प्रसन्न नहीं, अप्रसन्न मर रहा हूं। क्योंकि मेरे इरादे सौ अरब रुपये इकट्ठा करने के थे। मैं एक पराजित आदमी हूं।
यह कैसा आदमी होगा! महाकृपण था। भिखमंगे तक उसके दरवाजे के सामने भीख नहीं मांगते थे। अगर कभी कोई भिखमंगा उसके दरवाजे के सामने भीख मांगता तो मुहल्ले के लोग समझ जाते कि यह भिखमंगा गांव में नया है। इसको पता नहीं कि यह घर किसका है। पुराने भिखमंगे जो गांव से परिचित थे, वे तो उसका घर छोड़ कर निकल जाते थे। क्योंकि वह कुछ देगा तो है नहीं, आधा घंटा उपदेश देगा कि तुम भले-चंगे हो, काम में क्यों नहीं लगते? मुस्टंडे हो, क्यों मुफ्त मांगते हो? आखिर मेरे पास कुछ नहीं था। मैं भी तुम जैसा था। कमाओ! आधा घंटा खराब करेगा, जितने में कि हम दस-पांच घरों में और मांग लेंगे।
नये भिखमंगे जब गांव में आते तो पुराने भिखमंगे उनको कह देते कि भई और सब करना, एण्ड्रू कारनेगी के घर भीख मांगने मत जाना। सिर्फ कहते हैं एक भिखमंगा उससे भीख लेने में समर्थ हो पाया था, पूरी जिंदगी में। और वह भी भिखमंगा था जिसने चार बजे रात जाकर उसके दरवाजे को ठोका। उसने दरवाजा खोला, पूछा, क्या चाहते हो?
उसने कहा कि मैं भिखमंगा हूं और भीख मांगने आया हूं।
उसने कहा, यह कोई वक्त है?
उसने कहा, और किसी वक्त पर तो आप देते नहीं। और अगर नहीं दिया तो रोज चार बजे रात आकर मांगूंगा।
एण्ड्रू कारनेगी ने कहा कि आदमी को शिष्टाचार होना चाहिए!
उसने कहा कि तुम अपना धंधा करते हो, तुम बैंकर हो, मैं तो तुम्हें सलाह नहीं देता कि कैसे बैंकिंग करनी चाहिए। तुम्हें क्या पता भीख मांगने का! तुम क्या खाक मुझे सलाह दे रहे हो! अपनी सलाह अपने पास रखो। इतना तुमसे कहे देता हूं कि मैं उन भिखमंगों में से नहीं हूं जो किसी घर से खाली हाथ गए हैं। अगर मुझे नहीं मिला तो चार बजे कुछ दिन कोशिश करूंगा, फिर तीन बजे, फिर दो बजे--रात भर तुम्हें जगाए रखूंगा। रात में कई दफे आऊंगा। रात असल में मुझे नींद ही नहीं आती। उस भिखमंगे ने कहा कि मैं दिन में सोता हूं और रात अनिद्रा की पीड़ा मुझे सताती है।
एण्ड्रू कारनेगी ने कहा, भैया तू ले, और किसी को मत बताना। तू पहुंचा हुआ आदमी मालूम होता है। तू अकेला भिखमंगा है--तेरा स्मरण रखूंगा--जिसने मुझसे पैसे निकलवा लिए। मुझसे कोई निकलवा नहीं सका है।
एडलर ने अपना पूरा मनोशास्त्र इस आधार पर खड़ा किया है कि जिनको भीतर निर्धनता का अनुभव होता है, वे धन के दीवाने हो जाते हैं। इस बात में अर्थ आता है समझ। इसलिए अगर बुद्ध और महावीर ने राजमहल छोड़ दिए हों, तो एडलर का मनोविज्ञान उस बात को समझने में पहली दफा एक वैज्ञानिक प्रक्रिया देता है। इनको भीतर की धनवत्ता अनुभव हुई। इतनी अनुभव हुई कि अब बाहर के धन का क्या करना! बुद्ध और महावीर को समझने के लिए एडलर के पहले तक हमारे पास ठीक मनोविज्ञान नहीं था कि क्यों बुद्ध और महावीर ने राजमहल छोड़ा। अगर राजमहल की तरफ दौड़ने वाले लोग वे लोग हैं जिनको भीतर भिखमंगापन अनुभव होता है, खालीपन अनुभव होता है, इसलिए धन की तरफ दौड़ते हैं, तो फिर बुद्ध और महावीर को भी समझा जा सकता है। इनको भीतर इतना भरापन अनुभव हुआ, ऐसी समृद्धि, ऐसी अमृत की वर्षा, ऐसी रसधार इनके भीतर बही, ऐसे गीत इनके भीतर उठे, ऐसा संगीत इनके भीतर बजा, ऐसा अनाहत नाद जगा कि अब इनको बाहर की कोई चीज अर्थपूर्ण न रही, ये राजमहल छोड़ कर चले आए।
बुद्ध ने कहा भी है। जब वे राजमहल छोड़ कर गए और उनके सारथी ने कहा, आप पागल तो नहीं हैं! इस सोने जैसे महल को छोड़ कर जा रहे हैं?
बुद्ध ने कहा, मुझे वहां कोई महल नहीं दिखाई पड़ता। मुझे जहां महल दिखाई पड़ता है, मैं उस तरफ जा रहा हूं। मुझे, तुम जहां महल बता रहे हो, वहां सिर्फ आग की लपटें दिखाई पड़ती हैं। सब मौत लील जाएगी। और जिसको मौत लील जाएगी, उसको पाकर भी क्या करूंगा? मैं उसकी तलाश में जाता हूं जो अमृत है। जिसको पाकर फिर कभी खोने का कोई उपाय नहीं। उसे पाया, तो कुछ पाया।
तो फिर राजनीति में कौन दौड़ता है? राजनीति का अर्थ है: पद की दौड़, ऊपर होने की दौड़, प्रमुख होने की दौड़, प्रथम होने की दौड़। वही दौड़ता है, जो अपने भीतर हीनता को अनुभव करता है; जो इनफीरियारिटी कांप्लेक्स से पीड़ित है; जो हीनता की ग्रंथि से मरा जा रहा है; जो सिद्ध करना चाहता है बड़े सिंहासन पर बैठ कर कि मैं कुछ हूं।
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि नेपोलियन की ऊंचाई ज्यादा नहीं थी। और वह उसकी जिंदगी भर की पीड़ा रही। पांच फीट पांच इंच उसकी ऊंचाई थी। भारत में तो पांच फीट पांच इंच कोई बुरी ऊंचाई नहीं है--मध्यम। मगर पश्चिम में पांच फीट पांच इंच का आदमी ठिगना मालूम होता है। जहां सात फीट, साढ़े छह फीट आम ऊंचाई हो जाए, जहां छह फीट बिलकुल साधारण ऊंचाई हो...। नेपोलियन को यह पीड़ा जीवन भर रही कि मेरी ऊंचाई कम है। तो मुझे ऊंचा होना है। मुझे दुनिया को दिखा देना है कि भला मेरा शरीर न हो ऊंचा, लेकिन मेरा पद ऊंचा है। वह इस बात से इतना ज्यादा विक्षुब्ध हो उठता था अगर कोई उसे याद दिला दे!
एक दिन उसकी दीवाल पर लगी घड़ी बंद हो गयी, तो वह उसे ठीक करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन हाथ उसका दीवाल घड़ी तक नहीं पहुंच रहा था। उसके बॉडीगार्ड ने, उसके अंगरक्षक ने जो कि सात फीट ऊंचा जवान था--नेपोलियन का अंगरक्षक हो, तो सात फीट ऊंचा जवान होना ही चाहिए--उसने कहा, आप रुकिए, मैं आपसे ऊंचा हूं, मैं ठीक किए देता हूं। नेपोलियन ने कहा कि जबान काट ली जाएगी, शब्द वापस ले लो। तुम मुझसे ऊंचे नहीं हो, लंबे हो। कहो कि मैं लंबा हूं, ऊंचा नहीं।
अब तुम फर्क समझे लंबे और ऊंचे में? नेपोलियन को जैसे किसी ने घाव छू दिया--मैं तुमसे ऊंचा हूं। वह बेचारा अंगरक्षक तो साधारण बोल रहा था। उसने सोचा भी नहीं था कि यह इतनी बड़ी पीड़ा हो जाएगी। उसने तत्क्षण क्षमा मांगी और कहा कि आप ठीक कहते हैं। ऊंचे आप हैं, लंबा मैं हूं। नेपोलियन ने कहा, तब तुम घड़ी ठीक करो, अन्यथा जबान काट लूंगा।
लेनिन के पैर छोटे थे शरीर के अनुपात में। पैर के ऊपर का शरीर तो बड़ा था और नीचे का हिस्सा, पैर छोटे थे। वह उसकी जिंदगी भर की पीड़ा थी। वह कुर्सियां बड़ी बनवाता था। लेकिन उसके पैर जमीन तक नहीं पहुंचते थे, तो टेबलें ऐसी बनवाता था कि किसी को पैर न दिखाई पड़ें। नहीं तो वह बड़ा भद्दा मालूम पड़ता था। उसके पैर कुर्सियों पर लटके मालूम होते, जैसे कोई छोटा बच्चा बैठा हो। वह अपने पांवों को छिपा कर चलता था। वह पांवों से हमेशा पीड़ित होता था। उसने अपने पत्रों में अपने मित्रों को लिखा है कि मैं सिद्ध करके बता दूंगा कि पांव मेरे कितने ही छोटे हों, लेकिन बड़े से बड़े पद पर मैं पहुंच सकता हूं। मेरे छोटे पैरों से मैं बड़े पद पर पहुंच कर बता दूंगा।
एडलर की बात में कुछ सचाई है। राजनेता कैसे मेरे संबंध में कुछ कहें? मैं उनके संबंध में जो कह रहा हूं, उससे उनके प्राणों पर गुजरती है--बुरी गुजरती है। वे तो खुश हुए होंगे कि जो हम करना चाहते थे, वह किसी आदमी ने तो करने की कोशिश की। दिल ही दिल में धन्यवाद दिया होगा, आभार अनुभव किया होगा।
इसलिए तुम इसकी चिंता न लो, कैलाश गोस्वामी, कि क्यों किसी उच्च दर्जे के व्यक्ति ने कुछ नहीं कहा। उनका न कहना ही बताता है कि कोई उच्च दर्जा वगैरह नहीं है। सब दौड़ है ऊंचे होने की, मगर ऊंचा कोई पद से नहीं होता। आत्मवान व्यक्ति ही केवल ऊंचा होता है। ध्यान ही एकमात्र धन है। और परमात्मा को अनुभव करना ही एकमात्र पद है। इसीलिए तो भक्तों ने उसे परमपद कहा है। बाकी सब पद तो थोथे हैं, बचकाने हैं।
तुमने छोटे बच्चों को देखा नहीं? छोटे बच्चे कुर्सियों पर चढ़ जाते हैं और अपने पिता से कहते हैं कि डैडी, मैं तुमसे ऊंचा हूं। देखो मैं तुमसे ऊंचा हूं।
ये जो पदों की दौड़ में लगे हुए लोग हैं, ये छोटे बच्चे हैं। जो शरीर से भला बड़े हो गए हों, लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप में जिनकी उम्र ज्यादा नहीं है।
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि आदमी की औसत मनोवैज्ञानिक आयु बारह साल है। अस्सी साल के आदमी की भी औसत उम्र बारह साल से ज्यादा नहीं होती--मानसिक। मन तो वहीं अटक जाता है: बारहत्तेरह साल के करीब। फिर खिलौने बदलते रहते हैं। फिर खिलौने बड़े होते चले जाते हैं। लड़कियां गुड्डियों से खेलती हैं, गुड्डियों के विवाह रचाती हैं। फिर बड़े होकर वे बच्चों के विवाह रचाएंगी, मगर खेल वही है। फिर रामलीला होगी, राम-सीता का विवाह रचाया जाएगा। खेल वही है, नाम बदलते हैं, रूप बदलते हैं।
ऐसा हुआ कि मैं पहली दफा रायपुर गया। मुझे कोई पहचाने नहीं, मैं किसी को पहचानूं नहीं कि कौन मुझे बुलाया है। उसी दिन संयोगवशात उसी एयरकंडीशंड डब्बे में बाबा राघवदास को भी आना था। बाथरूम जाते हुए मैंने देखा कि तख्ती बाबा राघवदास की लगी है। वे एक सर्वोदयी संन्यासी थे। महात्मा गांधी और विनोबा के बड़े भक्त थे। तो मैंने पूछा कि वे हैं यहां या नहीं डब्बे में? पता चला कि वे तो नहीं आए हैं। बात आई-गई हो गई।
फिर रायपुर स्टेशन आया तो मुझे जो लेने वाले थे वे तो नहीं पहुंचे थे, लेकिन बाबा राघवदास को लेने वाले डब्बे के सामने ही फूलमालाएं लिए खड़े थे, और मुझे देख कर बोले कि बाबा राघवदास की जय!
मैंने भी सोचा कि भेद भी क्या है, नाम ही रूप का भेद है, चलो बाबा राघवदास सही। मैं कुछ बोला नहीं। उन्होंने फूलमालाएं पहना दीं, तो मैंने भी पहन लीं। उन्होंने सामान उठा लिया, तो मैंने कहा उठा लो। मुझे कोई और लेने आया भी नहीं था तो मैंने कहा आखिर मुझे कहीं तो जाना ही पड़ेगा। फिर बाबा राघवदास आए भी नहीं हैं, इनका भी काम बनेगा, मेरी भी झंझट कटी। आखिर मैं कहां जाऊं! कौन मुझे लेने आए, वे लोग मुझे कोई दिखाई नहीं पड़ते जिनको मुझे लेने आना चाहिए। मैं पहचानता नहीं उनको। आए होते तो वे खुद ही दिखाई पड़ते।
उनकी कार को रास्ते में ट्रैफिक में कुछ अड़चन पड़ गई, पहुंचने में कोई पांच मिनट की देर हो गई। जब हम स्टेशन के बाहर निकल रहे थे, तब वे भी आ गए फूलमालाएं लिए हुए। एकाध ने मेरी तसवीर देखी थी। वह बड़ा चौंका कि कौन लोग इनको ले जा रहे हैं! वह मेरे पास आया, उसने कहा कि आप कौन हैं?
मैंने कहा, मत पूछो। फिलहाल बाबा राघवदास हूं।
जो मुझे ले जा रहे थे, उन्होंने कहा, आपका मतलब, फिलहाल?
मैंने कहा, सब नाम-रूप है! आदमी जन्म-जन्म में क्या-क्या नहीं होता! अलग-अलग जन्मों में अलग-अलग हो जाता है। चौरासी करोड़ योनियों में क्या-क्या नहीं होना पड़ता! इसलिए कह रहा हूं कि फिलहाल।
उन्होंने कहा, तब ठीक है।
मगर जो मुझे लेने आए थे, उन्होंने कहा, हम ऐसे आपको नहीं जाने देंगे। यह क्या मामला है? अरे बाबा राघवदास को तो हम जानते हैं। उनमें से एक बाबा राघवदास को जानता था। उसने कहा, आप बाबा राघवदास नहीं हैं।
मैंने कहा, भाई, इस संबंध में तुम आपस में तय कर लो कि मैं कौन हूं। क्योंकि क्या फर्क पड़ता है! रही बात अगर तुम दोनों को ही अड़चन हो, तो इनका काम आज निपटा देता हूं, कल तुम्हारा निपटा दूंगा। आज बाबा राघवदास रहने दो, कल तुम जो चाहोगे वह हो जाऊंगा।
वे बाबा राघवदास वाले लोग भी चिंतित हो गए कि इस व्यक्ति को कैसे ले जाना! यह आदमी तो भरोसे योग्य भी नहीं है। और कहीं बाबा राघवदास किसी और डब्बे में न बैठे हों। उनको बड़ी चिंता यह पड़ी कि कहीं किसी और डब्बे में बाबा राघवदास बैठे हों और हम इन सज्जन को लिए जा रहे हैं जो कि बिलकुल भरोसे के ही नहीं मालूम होते। और मेरे मित्रों ने तो जल्दी से उनसे सामान भी ले लिया। और उन्होंने कहा, आप चलिए, यह रही गाड़ी।
वे बाबा राघवदास वाले लोग कुछ-कुछ मेरे पीछे खिसकते आए।
मैंने कहा, भाई, तुम्हारा अब क्या प्रयोजन है? अब ये आ गए तो मैं जाता हूं। अब तुम बाबा राघवदास को खोज लो। मैंने कहा, ये तुम अपनी फूलमालाएं ले जाओ, नहीं तो कैसे खोजोगे? क्योंकि तुम भी उनको जानते नहीं, वे भी तुमको जानते नहीं। वैसे मैं तुमको कहता हूं कि वे आए नहीं हैं, क्योंकि उसी डब्बे में उनको आना था जिसमें मैं आया हूं। तख्ती तो उनके नाम की लगी थी, मगर वे आए नहीं हैं। ये मानते नहीं हैं, नहीं तो मैं राजी हूं दोनों को हल कर देने का। आज तुम्हारा काम निपटा देता, कल इनका निपटा देता। मगर ये भी जिद पर अड़े हैं, और तुम्हारी भी हिम्मत नहीं दिखती। मैंने कहा कि आखिर बाबा राघवदास भी तो मानते ही हैं न कि सब भेद नाम-रूप का है!
उन्होंने कहा, यह तो मानते ही हैं, यह तो सभी ब्रह्मज्ञानी मानते हैं।
फिर मैंने कहा, फिर क्या भेद है? नाम ही रूप का भेद है, बाकी सब भीतर तो परमात्मा ही बैठा हुआ है।
उन्होंने कहा, बात तो आप ठीक कहते हैं, मगर पहले हम बाबा राघवदास को देख लें गाड़ी में, अगर वे न मिले तो फिर सोचेंगे।
तुम्हारी मर्जी।
आदमी-आदमी में भेद कहां है? ऊपर के भेद तो कुछ भेद नहीं हैं। तुम चाहे बड़े पद पर होओ, चाहे छोटे पद पर होओ, चाहे किसी पद पर न होओ, धन हो या धन न हो, महल हो कि झोपड़ा हो--ये कुछ भेद नहीं हैं। ये सब नाम-रूप के भेद हैं। इन भेदों को मैं मिटाना भी नहीं चाहता। ये भेद प्यारे हैं। इससे थोड़ा वैविध्य है जगत में। कोई चंपा है, कोई चमेली है, कोई गुलाब है, कोई कमल है--यूं बहुत फूल हैं और बहुत रंग हैं--सुंदर है। लेकिन असली चीज भीतर है। और राजनीतिज्ञ को भीतर से कोई संबंध नहीं, उसकी दौड़ बाहर है। और धर्म का संबंध भीतर से है। राजनीतिज्ञ जीता है नाम-रूप में, और धर्म जीता है उसमें जो नाम-रूप के अतीत है, वह जो आकार के पार है, वह जो निराकार है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि राजनीतिज्ञ और महात्माओं के पास तो जाते हैं, आपके पास क्यों नहीं आते?
और महात्माओं के पास जाना राजनीति में उपयोगी है। वे राजनीतिज्ञ भी जो मेरी किताबें पढ़ते हैं, जो मेरे विचारों में उत्सुक हैं, जो चोरी-छिपे मुझे संदेश भी भेजते हैं, वे भी मुझसे मिलने सीधे आने की हिम्मत नहीं करते। क्योंकि मुझसे मिलने का मतलब राजनीति में खतरनाक हो सकता है, मंहगा पड़ सकता है। राजनीति की चिंता एक है कि भीड़ उसके साथ हो। भीड़ मेरे साथ नहीं है। मेरे साथ तो थोड़े से चुने हुए, चुनिंदे विद्रोही लोग हैं। इन विद्रोहियों के ऊपर कोई राजनीति नहीं चल सकती।
मैंने जिंदगी में कभी कोई वोट दिया नहीं--किसी को भी। क्योंकि किस चोर को वोट दो? इसको दो कि उसको दो, सब चोर-चोर मौसेरे भैया, चचेरे भाई-बहन! किसको दो? उस झंझट में ही कभी पड़ा नहीं। कभी कोई राजनीतिज्ञ मुझसे वोट मांगने आया भी नहीं। वे जाते हैं हरेक के पास। क्योंकि मुझसे मांगने आए तो मैं उसको इस तरह ठीक करूं कि वह चौकड़ी ही भूल जाए, होश-हवास खो दे। और इस आश्रम में तो जो लोग हैं, जो मेरे साथ हैं, उनमें से किसी एक को मतलब नहीं है राजनीति से। किसी को मत से मतलब नहीं है।
अगर मेरे पास कोई राजनेता आए भी, तो उसको मिलेगा क्या? एक मत नहीं मिल सकता। राजनेता जाता है किसी भी दो कौड़ी के पंडित, पुरोहित, महात्मा, साधु, जिनका कोई मूल्य नहीं है, मगर उनके पास जाएगा। और हिंदू के पास भी जाएगा, जैन के पास भी जाएगा, मुसलमान के पास भी जाएगा--सबके पास जाएगा और गिड़गिड़ाएगा, क्योंकि उनके पीछे भीड़ का कोई न कोई हिस्सा है। वह भीड़ मत रखती है। उसके पास वोट है।
मेरे पास जो लोग हैं, पहली तो बात ये विश्व के नागरिक हैं। इन्हें किसी एक देश की राजनीति और एक देश की सीमा से कुछ लेना-देना नहीं है। इन्हें वस्तुतः राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है। अभी इतना बड़ा इलेक्शन का उपद्रव होता रहा, यह शायद एकमात्र जगह होगी पूरे देश में, जहां उसकी कोई चर्चा नहीं, कोई बात ही नहीं, किसी को कुछ लेना-देना नहीं, कुछ प्रयोजन नहीं।
वे मेरे पास नहीं आ सकते हैं। और वे मेरे पक्ष में तो बोल नहीं सकते। वे तो जिसने छुरा मारा है, उसके पक्ष में बोलें तो शायद ज्यादा वोट उनको मिल सकते हैं; मेरे पक्ष में बोलें तो जो मिलते होंगे वोट, वे भी शायद न मिलें। राजनीति को कोई प्रयोजन किसी और बात से नहीं है, सारा प्रयोजन यह है कि कितने वोट! वोट की गिनती है। मेरे पास तो कोई वोट नहीं है। मेरे पास तो सिर्फ साहसियों का काम है।
और अखबार वाले, तुम पूछते हो कैलाश गोस्वामी, कि उन्होंने भी कुछ नहीं कहा।
अखबार वालों के भी मैं बहुत पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि अखबार जो है, वह गलत के प्रचार का माध्यम है; अशोभन के प्रचार का माध्यम है; अश्लील का माध्यम बन गया है। अखबार सत्य पर जीता ही नहीं, असत्य पर जीता है। अखबार सनसनीखेज पर जीता है। उसे और किसी बात से रस नहीं है। हां, अगर मेरे संन्यासियों ने उस छुरा फेंकने वाले को मारा होता, पीटा होता, तो अखबार में खबर छपती। लेकिन न किसी ने मारा, न किसी ने पीटा, उसे प्रेम से उठा कर और पुलिस के हाथों में सौंप दिया। उसे जरा सी खरोंच भी नहीं लगने दी। उसकी पूरी सुरक्षा की। नहीं तो यहां इतनी भीड़ थी, लोग पागल हो सकते थे।
लेकिन यह भीड़ और तरह के लोगों की है। यह पागल होने वालों की भीड़ नहीं है। एक आदमी न हिला, न डुला। लोगों ने मुड़ कर देखा तक नहीं। इससे मैं आनंदित हुआ। बस चार-छः रक्षक उठे, जिनका काम था वे उठे, और उसे चुपचाप ले गए। यूं जैसे कुछ खास बात नहीं हुई। कोई सनसनी नहीं फैली। मैं जैसा बोल रहा था, वैसा ही बोलता रहा; लोग जैसे सुन रहे थे, वैसे ही सुनते रहे। लोग खड़े भी नहीं हो गए, भाग-दौड़ भी नहीं मच गई कि छुरा फेंका गया है, पता नहीं अब कोई गोली चला दे! पता नहीं इसके और साथी हों, कोई तलवार निकाल ले!...और वह आदमी भी तलवार छिपाए हुए था अपने बेल्ट में। वह भी तलवार निकाल ले सकता था। दो-चार की गर्दन काट दे सकता था।
लेकिन फिर भी अखबार वालों को शुभ से कोई प्रयोजन नहीं है। अगर तुम किसी को एक फूल भेंट करो या किसी गिरते को सम्हालो, अखबार को कोई अर्थ नहीं है इसमें। हां, तुम किसी चलते को गिरा दो, तुम किसी के हाथ से फूल छीन लो, तो अखबार वाले को रस है। अखबार जीता है सनसनीखेज पर। अगर सनसनीखेज खबर मिलती हो, तो ठीक। तो जितनी सनसनी थी, उतनी खबर अखबार ने ले ली। छुरा फेंका गया, यह सनसनी की बात थी। मुझे मारने की कोशिश की गई, यह सनसनी की बात थी। बाकी तुमने कोई दर्ुव्यवहार नहीं किया उसके साथ--इसमें तो कोई सनसनी नहीं है। सदव्यवहार से अखबारों को कुछ लेना-देना नहीं है।
इस दुनिया में बुराई को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करने का जो सबसे बड़ा उपद्रव है, वह अखबार है। दुनिया में बुराई सदा थी, मगर जितनी आज प्रचारित होती है, उतनी कभी प्रचारित नहीं होती थी। आज सुबह से आदमी पहला काम यही करता है--अखबार पढ़ने का। और अखबार पढ़ने से एक राहत मिलती है। राहत इस बात की मिलती है--कोई हत्या कर रहा है, कोई चोरी कर रहा है, कोई रिश्वत ले रहा है, कोई पकड़ा गया, किसी को फांसी लगी, किसी को गोली मार दी गई, कहीं राज्य का तख्ता उलट गया--तो आदमी को एक राहत मिलती है कि अरे, लोग मुझसे भी ज्यादा बुरे हैं! मैं ही इनसे अच्छा। माना कि मैं भी थोड़ी-बहुत रिश्वत लेता हूं देता हूं, मगर थोड़ी-बहुत। मेरी रिश्वत की क्या बिसात, जहां इतने पाप चल रहे हैं। परमात्मा के सामने अगर पापियों की कतार लगेगी कयामत के दिन, तो मेरा नंबर आएगा ही नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन पूछ रहा था अपने मौलवी से कि क्या आप कहते हैं कि जो निर्णय का दिन होगा, कयामत का दिन होगा, एक ही दिन में सब निर्णय हो जाएगा?
मौलवी ने कहा, एक ही दिन में सब निर्णय हो जाएगा।
मुल्ला जरा चिंतित हुआ। उसने कहा, एक ही दिन में? जितने आदमी हुए हैं अब तक और आगे भी होंगे, इन सबका?
मौलवी ने कहा, हां, इन सबका।
मुल्ला ने कहा, वहां स्त्रियां भी होंगी कि सिर्फ पुरुष होंगे?
मौलवी ने कहा, तुम बातें किस तरह की पूछते हो, अरे स्त्रियां भी होंगी।
तो मुल्ला ने कहा, मेरा नंबर शायद ही आए। इतना शोरगुल मचेगा वहां, ऐसी किचपिच मचेगी, स्त्रियां एक-दूसरे की साड़ी के पोत देखेंगी, और एक-दूसरे के गहनों की चर्चा करेंगी, और ऐसा धूम-धड़ाका मचेगा वहां, इतने लोग! जहां महापापी इकट्ठे होंगे--चंगीजखां और तैमूरलंग और अडोल्फ हिटलर और मुसोलिनी और स्टैलिन और माओत्से तुंग--वहां मुझ गरीब को कौन पूछेगा! अपने पाप कुछ बड़े नहीं हैं। यूं ही बीड़ी पीते हैं। कभी-कभी दीवालीऱ्होली जुआ खेल लेते हैं। न किसी की हत्या की है, न किसी पर डाका डाला है। हम गरीबों की वहां भी पूछ न होगी!
चित्त, मुल्ला ने कहा, सुन कर उदास होता है कि वहां भी हमको इतने पीछे खड़ा होना होगा जैसे राशन की कतार में यहां खड़ा होना पड़ता है। और यहां तो कम से कम चार-छह घंटे में आखिर हमारा नंबर भी आ जाता है, वहां तो आने वाला नहीं। चौबीस घंटे में--तुम कहते हो एक दिन में सब निपटारा हो जाएगा--हमारा नंबर ही नहीं आने वाला। हमने कुछ ऐसे पाप ही नहीं किए!
जब तुम सुबह अखबार पढ़ते हो तो एक राहत मिलती है, एक बोझ उतर जाता है। सब पश्चात्ताप गल जाता है। सब अपराध गिर जाते हैं। अरे दुनिया में इतना पाप हो रहा है! तुम एकदम सज्जन मालूम होने लगते हो।
इसलिए तो निंदा में इतना रस है। और अखबारों ने निंदा के रस को विज्ञान का रूप दे दिया, उसकी पूरी टेक्नालॉजी बना दी। लोग मिलते हैं तो बात ही क्या करते हैं? निंदा। इसकी निंदा, उसकी निंदा। निंदा का मजा यह है कि जब भी तुम किसी की निंदा करते हो, उसकी तुलना में तुम अच्छे मालूम होने लगते हो।
तुमने अकबर की तो कहानी पढ़ी न? उसने एक दिन खड़िया से लकीर खींच दी आकर दरबार में और कहा, इसे बिना छुए कोई छोटा कर दे। कोई नहीं कर सका, लेकिन बीरबल ने कर दी उसे छोटी--बिना छुए। उसने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। बड़ी लकीर के खिंचते ही वह छोटी हो गई, उसको छुआ भी नहीं।
तुम जब किसी की निंदा करते हो तो तुम अपनी लकीर छोटी करने की कोशिश में लगे हो, तो तुम बड़ी लकीर खींचते हो। इसलिए अगर किसी आदमी से कहो कि फलां आदमी बड़ी प्यारी बांसुरी बजाता है। फौरन वह आदमी कहेगा, अचूक तत्क्षण कहेगा, अरे वह क्या बांसुरी बजाएगा! चोर जमाने भर का, लुच्चा, लफंगा, कालाबाजारी। वह क्या बांसुरी बजाएगा! तस्करी का धंधा करता है, वह बांसुरी बजाएगा? अरे बांसुरी बजाते थे कृष्ण भगवान। यह क्या बांसुरी बजाएगा! बांसुरी बजाने के लिए पवित्रता चाहिए।
अगर तुम किसी से कहो कि फलां आदमी चोर है, बेईमान है--तो कोई एतराज नहीं करेगा। कोई नहीं कहेगा कि नहीं भाई, वह कैसे चोर हो सकता है, इतनी प्यारी बांसुरी बजाता है! और चोरी भी करता होगा तो वैसी ही करता होगा जैसे कृष्ण भगवान माखनचोर! उस चोरी को कोई चोरी थोड़े ही कहते हैं। जो बांसुरी इतनी प्यारी बजाता है, हम मान नहीं सकते कि वह कोई बुरा कृत्य करता होगा--ऐसा कोई भी नहीं कहेगा।
आदमी के इस मन को समझो! आदमी चाहता है दूसरे की बुराई बड़ी करके बताई जाए। जितनी बढ़ा-चढ़ा कर बताई जाए, उतना अच्छा। क्योंकि उससे अपनी बुराई छोटी मालूम होने लगती है, ना-कुछ मालूम होने लगती है। और जब चारों तरफ बुराई के पहाड़ खड़े हो जाएं, तो तुम्हारी तो बुराई कुछ भी नहीं रह जाती। एक टीला भी नहीं रह जाती, पहाड़ की तो बात ही और। खाई-खड्ड मालूम होने लगती है। तुम तुलना में संत-साधु मालूम होने लगते हो। तुम किसी की साधुता की बात करो, तत्क्षण लोग एतराज उठाएंगे। साधुओं को तो लोग बहुत गौर से देखते रहते हैं कि कुछ भूल-चूक मिल जाए। जरा सी भूल-चूक मिल जाए, बस पर्याप्त है। उतना काफी है उनको उनकी साधुता छीन लेने के लिए। जैसे बैठे ही हैं इसलिए।
अखबार वालों ने इस धंधे को बड़ा निखार दिया है। इसलिए कोई भी शुभ घट रहा हो, उसकी चर्चा नहीं की जाएगी। यहां अखबार वाले आते हैं। यहां कोई ध्यान कर रहा है, इससे उन्हें प्रयोजन नहीं; लेकिन अगर किसी स्त्री-पुरुष के जोड़े को हाथ में हाथ लिए देख लेंगे, तत्क्षण उनका कैमरा क्लिक। ध्यान करने वाले से क्या लेना-देना है! बनौअल बैठा है यह आदमी। आंखें बंद किए, पालथी मारे, विपस्सना का ढोंग कर रहा है। अरे आज कलियुग में कहीं कोई ध्यान करता है! तो यह सच ही नहीं है, इसका फोटो क्या लेना! यह हो सकता है कि फोटोग्राफर को देख कर ही आंख बंद करके ध्यान करने बैठा हो। पता लग गया हो कि अखबार वाला आ रहा है, इसलिए इतने लोग एकदम ध्यान करने बैठ गए हैं।
मगर कोई यह नहीं सोचता कि यह फोटोग्राफर को देख कर किसी ने इस स्त्री का हाथ अपने हाथ में ले लिया होगा। नहीं, यह क्यों होगा! स्त्री का हाथ अपने हाथ में ले लिया, काम-दमित समाज में यह बात सनसनीखेज है। इस सनसनीखेज की तसवीर होनी चाहिए, इसकी चर्चा होनी चाहिए। फिर अगर न मिलें कुछ घटनाएं, तो झूठी गढ़ो। अखबार वाले इतनी घटनाएं गढ़ते हैं कि चमत्कार मालूम होता है।
एक बंगाली अखबार पढ़ने को मिला। लगता नहीं कि उसका लेखक यहां कभी आया हो, क्योंकि उसने जो-जो बातें कही हैं, वे सरासर झूठी हैं। उसने लिखा है कि मैं आश्रम निवासिनी मां विनोदिनी से मिला। इस आश्रम में कोई मां विनोदिनी हैं ही नहीं, मैंने यह नाम ही अब तक किसी महिला को नहीं दिया। इस आश्रम में ही नहीं, मेरी कोई संन्यासिनी इस नाम की नहीं है। उसने सोचा होगा कि जब स्वामी विनोद मैं नाम देता हूं कई को, तो जरूर मैंने विनोदिनी नाम भी दिया होगा। बाकी मैं भी अपने हिसाब से चलता हूं, वह नाम मैंने बचा रखा था किसी अखबार वाले के लिए। वह फंस गए बच्चू। विनोदिनी मेरी कोई संन्यासिनी ही नहीं है।
और झूठ की भी हद होती है। उसने लिखा कि दरवाजे पर ही मुझे मां योग लक्ष्मी मिलीं और वे सफेद कपड़े पहने हुए थीं।
लक्ष्मी और सफेद कपड़े पहने मिले, यह वैसा ही झूठ है, जैसे मैं और गैरिक वस्त्र पहने हुए मिल जाऊं। और वह भी दरवाजे पर! मैं इस दरवाजे तक इन छह सालों में सिर्फ तीन बार गया हूं। वह भी निकलना था दरवाजे से इसलिए। मैंने इस दरवाजे को अब तक गौर से देखा नहीं। लोग मुझसे तारीफ करते हैं कि सुंदर है। मैंने कहा कि कभी देखूंगा, कभी अवसर आया, जब पूना छोडूंगा, तो देखता जाऊंगा। अब इसी को देखने के लिए क्या जाना इतनी दूर। हालांकि ज्यादा दूर नहीं है, मेरे कमरे से मुश्किल से दो सौ कदम। मगर मुझे दो कदम भी दूर लगता है। अपने से दो कदम भी दूर जाना, मुझे काफी दूर जाना लगता है।
लक्ष्मी दरवाजे पर मिली, वह भी सफेद वस्त्रों में! और लक्ष्मी से उनकी मुलाकात दरवाजे पर ही हुई, और चर्चा भी वहीं हुई।
इस आदमी को कुछ भी पता नहीं। यह कभी आया नहीं यहां। और इसने लिखा है कि जब मैं संन्यास देता हूं, तो वहां सूफी नृत्य होता है संन्यास देते समय।
इसने कहीं से शब्द सुन लिए हैं। न इसे संन्यास देने का कुछ पता है, न सूफी नृत्य का कोई पता है। और इसने यह भी लिखा कि आश्रम में मालाएं बिकती हैं। कई तरह की मालाएं--कोई पंद्रह रुपये की, कोई बीस रुपये की, कोई पच्चीस रुपये की, कोई पचास रुपये की। जिसकी जितनी हैसियत हो।
अब यह सरासर झूठ है। मालाएं तो सिर्फ संन्यासियों को मेरे प्रेम के प्रतीक की तरह भेंट में मिलती हैं, बिकती नहीं। पंद्रह रुपये में बिकती नहीं, कोई पंद्रह हजार दे तो भी नहीं बिकती; कोई पंद्रह लाख भी दे माला के लिए, तो भी नहीं बिकती।
मगर उसने लिखा है कि आश्रम की दुकान में मालाएं लटकी हुई हैं और उन पर दामों की तख्तियां लगी हुई हैं--पंद्रह रुपया, बीस रुपया, पच्चीस रुपया।
यहां आने की भी जरूरत नहीं है अखबार वालों को, कलकत्ते में बैठ कर यह आदमी गढ़ रहा है। और जब इसको जवाब दिलवाया गया, तो जवाब का भी जवाब देता है वह, कि यह सत्य है जो मैंने लिखा है; इसमें कुछ भी असत्य नहीं है। मैं अपनी आंख से देख कर आया हूं। मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं।
मगर यह कुछ बड़ा असत्य नहीं है, इससे बड़े-बड़े असत्य लिखे जा रहे हैं। जर्मनी के एक अखबार में लिखा गया है कि आश्रम पंद्रह वर्गमील में बसा है।
बात तो मुझे भी जंची। बसना चाहिए; बसेगा। मगर अभी बसा नहीं है। मैं उससे राजी होता हूं। पंद्रह वर्गमील में ही बसेगा। लेकिन अभी नहीं है।
और उसने लिखा है कि सब सभाएं मेरी भूमि के अंतर्गत होती हैं।
तुम याद रखना, तुम भूमि के अंतर्गत बैठे हुए हो। और भी गजब की बातें लिखी हैं, तुम मानो या न मानो। मगर मानना ही पड़ेगा। जब प्रतिष्ठित अखबार वाले लिखते हैं, तो बात माननी ही पड़ेगी। कि मेरे सब सुनने वालों को, सुनने के पहले वस्त्र उतार देने होते हैं, नग्न बैठना होता है।
तुम सब नग्न बैठे हुए हो। यह बात भी मुझे जंची। गर्मी इतनी है। और यूं भी कपड़ों के भीतर सभी नंगे बैठे हुए हैं, यह बात तो सच है ही। अरे कपड़े तो ऊपर ही ऊपर हैं, भीतर तो आदमी नंगा ही है। कपड़े से क्या होता है, बैठे तो सब नंगे ही हैं! कपड़े के भीतर बैठे हों कि तंबू के भीतर बैठे हों कि छप्पर के नीचे बैठे हों, मगर बैठे तो नंगे ही हैं।
तो बात तो उसने बड़ी गजब की खोजी। अंधे को अंधेरे में दूर की सूझी। और यह आदमी लिखता है कि यह आकर गया है आश्रम! और यह पांच बजे सुबह आश्रम आया, दरवाजे पर दस्तक दी, एक नग्न स्त्री ने दरवाजा खोला। ऐसी सुंदर स्त्री जो उसने कभी देखी नहीं।
बातें तो उसने बड़ी प्यारी लिखीं। मन को खूब भायीं। मैं चाहता हूं कि यहां संन्यासी, संन्यासिनियां ऐसे सुंदर हों कि दुनिया में कहीं वैसे लोग इकट्ठे दिखाई पड़ें न। बनती है बात, बनी जा रही है, बनते-बनते बनी जा रही है। इतने सुंदर, इतने प्रसन्न, इतने आनंदित लोग इकट्ठे कहां मिलेंगे?
मगर झूठ की भी कोई सीमा होती है। और फिर उसने कहा कि उस महिला ने, नग्न महिला ने मुझे अंदर आमंत्रित किया, मैं डरता-डरता भीतर प्रविष्ट हुआ। उसने पास ही लगे एक वृक्ष से एक फल तोड़ा--सेब जैसा मालूम पड़ता था--और मुझे दिया और कहा, इसे आप खाएं। इससे आदमी की उम्र लंबी होती है, और उसकी काम-ऊर्जा बढ़ती है।
मैंने लक्ष्मी को पूछा कि यह फल कहां है? अपने ही कितने संन्यासी बेचारे बूढ़े हो गए हैं, ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे खा रहे हैं फल, अपने संन्यासी बूढ़े हुए जा रहे हैं। अब फली भाई को देखते हो, बूढ़े हो गए, अब इनको फल देना चाहिए। सीता मैया को देखते हो, बूढ़ी हो गईं। सीता मैया के राम जी हैं, वे बूढ़े हो गए। कहां-कहां के आदमियों को फल दे रही हो और मुझे बताया ही नहीं अब तक कि यह वृक्ष है कहां! तब से मैं खोजबीन में लगा हूं--वह वृक्ष है कहां? वह वृक्ष अभी तक मिला नहीं।
मगर लोग छपे हुए अक्षर पर भरोसा करते हैं। लोग बड़े अजीब हैं। लोग अपनी आंख से भी ज्यादा छपे हुए अक्षर पर भरोसा करते हैं। कोई बात छप गई, तो सच होनी ही चाहिए।
मेरे संबंध में जो अखबार इस तरह के झूठ छाप रहे हैं, जिन्होंने ठेका ले रखा है झूठ छापने का, जो मेरी बातों को तोड़ते हैं, मरोड़ते हैं, जो मेरे कार्य को सब तरह से विकृत करते हैं--कैलाश गोस्वामी, तुम उनसे आशा करो कि वे आलोचना करेंगे इस हमले की, तो तुम गलत आशा करते हो। गलत आशा करोगे तो निराशा हाथ लगेगी।
मगर अंत में मैं फिर दोहरा दूं कि जो यहां हो रहा है, वह कहीं भी होगा। इसलिए भारत पर नाहक नाराज मत होना। वह सब जगह होगा। वह यहीं नहीं हो रहा है, वह सब जगह होगा।
यह जान कर तुम चकित होओगे कि जिस दिन मुझ पर यहां छुरे से हमला हुआ, ठीक उसी दिन, उसी तारीख को--संयोग की ही बात है, कुछ रहस्य मत खोजने लग जाना--आस्ट्रेलिया में पर्थ में मेरा जो आश्रम चलाते हैं स्वामी इंदीवर, उनके ऊपर भी हमला हुआ छुरे से ही। तो अब क्या करोगे! मुझ पर हमला हो, यह भी समझ में आता है; क्योंकि मैं उपद्रव की जड़ हूं। मगर इंदीवर का क्या कसूर बेचारे का? सीधा-सादा आदमी है, सरल चित्त आदमी है। उस पर भी छुरे से हमला हुआ।
यह तो जगह-जगह होगा। और यहां से तो मुझे कोई अलग नहीं कर सकता कम से कम, लेकिन मैं किसी भी देश में टिकने नहीं दिया जा सकता। जार्ज गुरजिएफ के साथ जीवन भर यह दिक्कत रही। चूंकि वह रूस में पैदा हुआ था और क्रांति हो जाने के बाद उसको रूस छोड़ना ही पड़ा, नहीं तो साइबेरिया में सड़ता। रूस में बुद्ध कोई पैदा हो, तो उसकी आज यही गति होने वाली है कि वह जेलखाने में सड़ेगा। और हालात बिलकुल बदल गए हैं। अब कोई फांसी भी नहीं लगाता। फांसी भी लगा दो तो झंझट मिट जाती है।
मैंने सुना है कि एक दिन गपशप हो रही है, ईसाइयों की जो त्रिमूर्ति है--ईश्वर पिता, जीसस क्राइस्ट और होली घोस्ट--वे तीनों गपशप कर रहे हैं। यूं भी मोक्ष में बैठ कर और करोगे क्या! गपशप कर रहे हैं। होली घोस्ट ने कहा, बहुत दिन हो गए, कहीं जाने का मन होता है, छुट्टियां मनाने का मन होता है। आप लोगों की इच्छा नहीं होती कहीं जाने की?
ईश्वर ने कहा कि मैं तो बूढ़ा हो गया बहुत, अब क्या छुट्टियां मनानी, कहां मनानी, अब तो जो कुछ है ठीक है, यहीं ठीक है। लेकिन जीसस को कहा कि बेटे तेरी इच्छा हो, तो एक चक्कर पृथ्वी का फिर मार आ।
जीसस ने कहा, अब दोबारा नहीं जाऊंगा। एक ही बार गया, जो फल भोगा, सूली पर चढ़ना पड़ा, अब तो बिलकुल नहीं जाऊंगा।
होली घोस्ट ने कहा, तो क्या बिगड़ता है? ज्यादा से ज्यादा सूली पर चढ़ाएंगे, क्षण भर में फैसला हो जाता है, फिर अपने घर वापस। वह समझो कि वापसी टिकट।
जीसस क्राइस्ट ने कहा कि तुम्हें पता नहीं है, तुम अखबार नहीं देखते हो। आजकल वे सूली पर नहीं चढ़ाते; या तो जेलखाने में रख देंगे, जहां जिंदगी भर सड़ो; या साइबेरिया भेज देंगे, जहां जिंदगी भर गङ्ढे खोदो। और अगर ज्यादा ही हरकत की, तो पागलखाने में रख देते हैं, जहां इलेक्ट्रिक शॉक देते हैं। वे पुराने लोग तो बड़े भले थे जिन्होंने सूली पर लटका दिया, आखिर घड़ी दो घड़ी में मामला खत्म हो जाता था। मगर अब तो पूरी जिंदगी का उपद्रव है। यह झंझट मैं नहीं लेना चाहता। पृथ्वी पर अब मुझे दोबारा नहीं जाना है। छुट्टी वगैरह मुझे नहीं मनानी। यहीं ठीक है। यहीं से जो अखबार पढ़ लेता हूं, वही काफी हैं।
गुरजिएफ के साथ तो यह घटना घटी। रूस से उसे हटना पड़ा। गुरजिएफ इस सदी के उन थोड़े से लोगों में एक था, जो पूर्ण बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। वे थोड़े से लोग बहुत ही थोड़े से हैं। गुरजिएफ, रमण, कृष्णमूर्ति--ये तीन ही व्यक्ति हैं जिनकी गिनती बुद्धों में की जा सके। गुरजिएफ को रूस छोड़ देना पड़ा, भागना पड़ा। भागते समय भी तीन बार उसके जीवन को खत्म करने की कोशिश की गई। तीन बार उसको गोलियां लगीं, लेकिन बच गया। कभी पैर में गोली लगी, ऐसी जगह गोली लगी कि जीवन-घातक नहीं हो सकी। मगर उसके शरीर को तो सदा के लिए नुकसान पहुंच ही गया। शरीर को कमजोर तो कर ही गईं गोलियां। निकल भागा वहां से, लेकिन फिर छिपना पड़ा उसे। तो टर्की में छिपा रहा।
शायद वहीं छिपे-छिपे मर जाना पड़ता। वह तो पश्चिम के कुछ लोगों ने, खास कर आसपेंस्की ने उसे खोज लिया, जो तलाश में था किसी सदगुरु की। मगर आसपेंस्की भी लाख उपाय किया--आसपेंस्की जगत-प्रसिद्ध गणितज्ञ था, लोक-विख्यात था--लेकिन वह भी उसके लिए घर नहीं खोज पाया। लाख कोशिश की कि इंग्लैंड में बस जाए, लेकिन इंग्लैंड की सरकार इंग्लैंड में प्रवेश न करने दे। कोई दूसरा देश उसको अपने भीतर लेने को राजी नहीं। बामुश्किल फ्रांस राजी हुआ उसको लेने को, और वह भी इस शर्त पर कि वह पेरिस से दूर जंगल में अपना आश्रम बना ले। और जहां तक बने फ्रेंच जीवन, राजनीति, समाज-व्यवस्था से अपने को अलिप्त रखे। अगर उसने कोई भी गड़बड़ की तो तत्क्षण उसे निकाल कर देश के बाहर कर दिया जाएगा।
तुम क्या सोचते हो मेरे लिए आसान पड़ने वाला है अगर मैं जाना चाहूं, दुनिया के किसी और देश में बसना चाहूं! कितने पत्र आए हैं, कितने टेलीग्राम आए हैं, कितने फोन आए हैं--सारी दुनिया के कोने-कोने से--कि आप हमारे मुल्क में आ जाएं।
ठीक है, जो मुझे प्रेम करते हैं उनका निमंत्रण मैं समझता हूं। लेकिन उनको पता नहीं है कि उनके देश की राजनीति मुझे बरदाश्त कर सकेगी! कौन देश इस आग को लेने को राजी होगा? कोई देश इस आग को लेने को राजी नहीं हो सकता।
तो यह मेरे जैसे लोगों का भाग्य है कि हम जहां होंगे वहीं सूली पर होंगे। और सूली पर ही होना हो तो भारत सबसे अच्छा है। यहां सब काम ऐसा सुस्त है, इतना ढीला-ढाला है कि यहां सूली तक से निकल भागने के उपाय हैं। जेलखाने से लोग निकल जाते हैं।
एक व्यक्ति को मैं जानता हूं जिन्होंने करोड़ों रुपये का भारत को नुकसान दिया। जेल में बंद थे। जमानत पर छोड़े गए। मेरे परिचितों में से हैं। जवाहरलाल नेहरू के बहुत निकटतम लोगों में से एक थे, इसीलिए इतना बड़ा धोखा दे सके। उनको एक साल के लिए सख्त मुमानिअत थी कि वे भारत नहीं छोड़ेंगे। न केवल उन्होंने भारत छोड़ा, किसी को पता नहीं चला। इतना ही नहीं, फिर वापस आए, अपना काम करके फिर चले गए। दोबारा जब वापस आए तब लोगों को खबर पता चली।
यहां जैसी सुविधाएं हैं, वैसी सुविधाएं दुनिया में कहीं भी नहीं हैं। अब यह हद हो गई! कैसे उनको भारत के बाहर जाने का अवसर बन गया, कैसे उनको टिकट मिल गया, कैसे उनको पासपोर्ट मिल गया! सब मिलता है। यहां जितनी सुविधा है, कहीं और नहीं।
जब मोरारजी देसाई सत्ता में थे, और वे हर तरह से उपद्रव करने की कोशिश कर रहे थे कि मेरे लिए हर तरह से कठिनाइयां खड़ी कर दें--और वे जितनी कठिनाइयां खड़ी कर सकते थे, उन्होंने कीं--तो मैंने कुछ मित्रों को उनके मुल्कों में उनकी सरकारों से पूछताछ करने को कहा था।
जर्मनी से तो साफ खबर आ गई कि जर्मनी मुझे लेने को राजी नहीं होगा, क्योंकि जर्मनी का प्रोटेस्टेंट चर्च मेरे प्रवेश पर भारी हंगामा मचाएगा। मेरे खिलाफ किताबें छापी गई हैं। मेरे खिलाफ हर चर्च में सूचनाएं भेजी गई हैं कि मैंने जीसस के संबंध में जो कहा है, उसमें से कुछ उद्धरण न दिया जाए। मेरे नाम का उल्लेख चर्चों में न किया जाए। इसलिए जर्मनी से खबर आई कि मुझे जगह नहीं मिल सकती।
नेपाल के मित्रों ने कहा कि हम कोशिश कर लेते हैं। लेकिन खबर अंततः आई कि नेपाल की सरकार भी भारत की सरकार को नाराज नहीं कर सकती। भारत की सरकार के विपरीत मुझे नेपाल भी जगह नहीं दे सकता।
और चीन तो मुझे जगह कैसे देगा! मेरी किताब प्रवेश नहीं हो सकती! और रूस तो मुझे कैसे जगह देगा! मेरी किताबें अनुवादित हो गई हैं, लेकिन छप नहीं सकतीं!
जहां मेरी किताबें अनुवादित होकर छपी हैं, उनमें से भी कोई मुल्क की सरकार हिम्मत नहीं जुटा सकती कि मुझे अपने भीतर ले ले। कोई मुसलमान देश तो मुझे ले नहीं सकता। क्योंकि जब हिंदू इतने अनुदार हो जाएं कि छुरा फेंकने लगें, तो फिर मुसलमानों का क्या कहना! वे तो आखिरी दर्जे के अनुदार हैं। उनका तो कोई मुकाबला ही नहीं है। वे तो इतनी देर-दार ही नहीं करेंगे।
अब तुम क्या सोचते हो मैं ईरान में एक दिन भी जिंदा रह सकता हूं? अयातुल्ला खोमैनी मुझे एक दिन जिंदा रहने देंगे? असंभव।
कोई मुसलमान देश मुझे ले नहीं सकता। कोई ईसाई देश मुझे ले नहीं सकता। क्योंकि ईसाइयत बेचैन है, बहुत बेचैन है, क्योंकि मैंने जितने लोग संन्यासी बनाए हैं, उनमें से अधिक तो ईसाई हैं। इसलिए ईसाई मुझसे सबसे ज्यादा नाराज हैं। सच तो यह है कि हिंदुओं को मुझसे बहुत नाराज नहीं होना चाहिए। मैं बहुत थोड़े से ही हिंदुओं को बिगाड़ने में सफल हो पाया हूं। ईसाइयों की बड़ी संख्या मैंने बिगाड़ी है। और बड़ी संख्या बिगाडूंगा, क्योंकि ईसाई जितने सुशिक्षित हैं और जितने बुद्धिमान हैं और जितनी उनमें प्रतिभा है, उतनी किसी और में नहीं है। इसलिए मेरी बात जितनी उनको जम सकती है, उतनी किसी और को नहीं जम सकती।
इजरायल तो मुझे एक क्षण के लिए बरदाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि ईसाइयों के बाद नंबर दो पर यहूदी हैं। यहां बड़ी संख्या में यहूदी हैं। तुम यह जान कर हैरान होओगे कि हिंदुस्तान में इतनी बड़ी संख्या में यहूदी तुम्हें एक जगह कहीं नहीं मिलेंगे। यह अकेली जगह है जहां सैकड़ों यहूदी हैं। इसलिए इजरायल नाराज है, बहुत नाराज है। क्योंकि यहूदियों को जीसस भी नहीं बिगाड़ पाए। नाराजगी स्वाभाविक है। अगर मैं इजरायल में होऊं तो फिर से सूली लगनी स्वाभाविक है। फिर से सूली लगेगी।
कुछ बात मेरी यहूदियों से बनती है, क्योंकि यहूदियों के पास प्रतिभा तो है, प्रखर प्रतिभा है। और यहूदियों के धर्म ने कुछ बातें उन्हें दी हैं, जो बातें किसी धर्म ने नहीं दीं। और इसलिए मेरी बात का कुछ तालमेल उनके हृदय से एकदम बैठ जाता है। एक तो यहूदी इसलिए मेरी बात में तत्क्षण उत्सुक हो जाते हैं कि मैं कह रहा हूं कि मैं एक ऐसी धार्मिकता चाहता हूं दुनिया में, जो धर्मों से मुक्त हो। यहूदियों ने यहूदी धर्म के कारण बहुत तकलीफ झेल ली, बहुत तकलीफ झेल ली।
मैंने सुना है, एक बूढ़ा यहूदी तीस वर्ष तक प्रार्थना करता रहा रोज सिनागॉग में जाकर। आखिर ईश्वर भी थक गया होगा। ईश्वर ने एक दिन कहा कि भई, आखिर तुझे क्या कहना है, कह ही दे। क्या चाहता है? तीस साल तू सतत प्रार्थना में लगा है। तू बोल ही दे क्या चाहता है!
उसने कहा कि भई, मुझे एक बात पूछनी है। हम आपके चुने हुए लोग हैं--यहूदी?
ईश्वर ने कहा, इसमें क्या शक है!
तो उसने कहा, अब आप कृपा करो, किसी और को चुनो। तुम्हारे चुनने के कारण आज ढाई हजार वर्षों से हम इस तरह सताए जा रहे हैं। तुमने किसी और को क्यों न चुना? तुम्हें कोई और न मिला? हम गरीब यहूदियों को पकड़ लिया, हमको चुन लिया!
यहूदियों की यह धारणा है कि वे ईश्वर के चुने हुए लोग हैं। और इसी धारणा ने उनको कष्ट में डाला है। यहूदी ईसाई नहीं हो सकते। इस कारण ईसाई नहीं हो सकते कि जीसस ने यहूदियों की सारी मान्यताओं का विरोध किया। और इस कारण भी नहीं हो सकते ईसाई कि ईसाइयों ने यहूदियों को दो हजार साल तक इस बुरी तरह सताया है कि अब क्या ईसाई होना, किस वजह से ईसाई होना! और यहूदी कोई दूसरा धर्म भी अंगीकार नहीं कर सकते। क्योंकि यहूदियों की मूल मान्यता त्यागवादी नहीं है। वे मानते हैं जीवन में, जीवन के स्वीकार में। यहूदी धर्म तपश्चर्या और त्याग में भरोसा नहीं करता। जीवन का रस और जीवन की स्वीकृति और जीवन का अंगीकार और जीवन का अहोभाव। यह सब उन्हें मेरे विचारों में मिल जाता है। मैं जीवन के अहोभाव को स्वीकार करता हूं।
फिर मैं न ईसाई हूं, न हिंदू हूं, न मुसलमान हूं--मैं कोई धर्म में मानता नहीं, धार्मिकता में मानता हूं। इसलिए बड़े यहूदियों का वर्ग मेरी तरफ आकर्षित हुआ है। सारी दुनिया से यहूदी यात्रा करके मेरे पास पहुंचे हैं।
इजरायल मुझ पर नाराज है--स्वभावतः। जिस बुरी तरह मैं यहूदियों को भ्रष्ट कर रहा हूं, पिछले दो हजार सालों में कोई आदमी नहीं कर पाया। उनके गढ़ को तोड़े डाल रहा हूं।
यहूदी मुझे ले नहीं सकते। इजरायल मुझे स्वीकार करेगा नहीं। ईसाई मुझे स्वीकार कर नहीं सकते। कम्युनिस्ट मुझे स्वीकार कर नहीं सकते। मैं जहां भी रहूंगा, वहां अड़चन स्वाभाविक है। मैंने कुछ अनायास ही, आकस्मिक रूप से भारत में रहना तय नहीं किया--यही स्थल सर्वाधिक सुगमतापूर्ण मालूम पड़ता है।
इसलिए कैलाश गोस्वामी, इस चिंता में न पड़ो कि भगवान, ऐसे मुर्दा देश में क्या आपका रहना उचित है?
फिर मुर्दा जहां हों, वहीं तो जरूरत है कि कोई मुर्दों को जगाने वाला हो। जहां बीमार हों, वहीं तो चिकित्सक की आवश्यकता है। जहां बीमारी हो, वहां उपचार चाहिए।
और यह देश सच में मुर्दा है। और बहुत दिन से मुर्दा है। और इस देश के भीतर बड़ी प्रतिभा छिपी पड़ी है। क्योंकि जो देश बुद्ध को पैदा कर सका, कृष्ण को पैदा कर सका, महावीर को पैदा कर सका, कबीर को, नानक को पैदा कर सका, फरीद को पैदा कर सका--उस देश के पास आग छिपी है, मगर राख में दब गई है। और राख पांच हजार साल पुरानी है। उस राख को अगर हम हटाने में समर्थ हो सकें, तो अंगारा फिर चमक सकता है।
और यह भी ध्यान रहे कि हमने पांच हजार सालों से अपनी प्रतिभा का कोई उपयोग नहीं किया है, इसका एक लाभ हो सकता है। ऐसे ही जैसे अगर जमीन को बहुत दिन तक बिना खेती-बाड़ी के छोड़ दिया जाए, तो जमीन में बहुत से खनिज इकट्ठे हो जाते हैं। अगर दस-पंद्रह साल तक जमीन में कोई खेती न की जाए और फिर खेती की जाए, तो जो पैदावार होगी उसके कहने क्या! ठीक वैसी हालत भारत की प्रतिभा की है। जहां दूसरे देशों ने तो अपनी प्रतिभा का उपयोग कर लिया है, भारत की प्रतिभा बिना उपयोग की पड़ी है, राख में दबी पड़ी है। हीरे कचरे में पड़े हैं। कचरे को हटाना है, राख को झड़ाना है और भारत से ऐसी प्रतिभा का आविर्भाव हो सकता है कि सारे जगत को उससे रोशनी मिले।
इसलिए भारत की संभावना बहुत है। भारत का भविष्य महत्वपूर्ण है। लेकिन किसी न किसी को तो हिम्मत करनी पड़ेगी और किसी न किसी को तो हाथ जलाने की तैयारी दिखानी होगी। जब तुम राख झड़ाओगे अंगारे से, तो हाथ जलेंगे। और यहां के साधु-महात्मा तो छाछ भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं। वे दूध के जले हैं, वे छाछ भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं।
मैं चाहता हूं एक ऐसी आग मेरे संन्यासियों से पैदा हो, जो इस देश की सोई हुई मुर्दा प्रतिभा को पुनरुज्जीवित कर दे। तो शायद हम सारी पृथ्वी को रोशनी देने में समर्थ हो सकते हैं। फिर सौभाग्य का उदय हो सकता है। फिर सूर्योदय हो सकता है।


आखिरी प्रश्न: भगवान!
मैं एक ज्योतिषी हूं, किंतु आपके विचार सुन कर ऐसा लगता है कि यह गलत और धोखे का धंधा छोड़ दूं। आपका आशीष चाहिए।

पंडित कृष्णदास शास्त्री!
भैया, जल्दी न करना। धंधा तो धोखे का है और झूठा है, मगर छोड़ कर फिर क्या करोगे? बाल-बच्चे होंगे, पत्नी होगी, परिवार होगा। यूं तो सभी धोखा है और सभी झूठ है। कुछ और करोगे। और अगर जीवन भर के अभ्यासी हो झूठ के, तो जो भी करोगे वह भी झूठ ही होगा। अभ्यास जल्दी नहीं जाते।
फिर ज्योतिषी का धंधा यूं प्रतिष्ठित धंधा है। क्यों झंझट में पड़ते हो? नाटक है, करते रहो। बस नाटक समझो। मैं किसी को भी कुछ छोड़ने को नहीं कहता हूं। तुम जो भी कर रहे हो, उसे अभिनय की तरह करो। और ज्योतिषी का धंधा तो इस समय खूब चमक रहा है। दिल्ली जा बसो भैया, कहां की बातों में पड़े हो!
बनाते वर्ष-फल और राशि-फल संपादकों का हम
किसी अखबार में खुलता हमारे नाम से कालम
कभी अफसर, कभी बाबू, कभी व्यापारियों के घर
हमारे चरण-कमलों में झुके होते सभी के सर
न फिर यों जिंदगी का बोझ गदहों की तरह ढोते
                    अगर हम ज्योतिषी होते
सफल फिल्मों के अभिनेता हमारे साथ में होते
हमारे देश के नेता हमारे हाथ में होते
हमारा पर्स भी सौ-सौ के नोटों से भरा होता
महानगरों के उत्तम होटलों में बिस्तरा होता
न टूटी खाट पर बच्चों सहित फिर इस तरह सोते
                    अगर हम ज्योतिषी होते
हमारे भाषणों के अंश भी अखबार में छपते
हमारे नाम की माला सभी वी.आई.पी. जपते
हमारे नाम के चर्चे भी हिंदुस्तान में होते
कभी लंदन, कभी पेरिस, कभी जापान में होते
किसी कोने में अपना सर छुपा कर हम नहीं रोते
                    अगर हम ज्योतिषी होते
हमारे सामने होतीं न कोई भी समस्याएं
हमें भोजन खिला, नहला रही होतीं सुकन्याएं
सुरक्षित सेफ में होतीं असीमित स्वर्ण मुद्राएं
चहकतीं आश्रम में बुलबुलों की भांति शिष्याएं
लगाते साथ उनके हम भी स्विमिंग पूल में गोते
                    अगर हम ज्योतिषी होते
हमारे भक्त गण होते सभी शहरों में गांवों में
हमारा नाम भी चर्चित हुआ करता चुनावों में
हमारे साथ भी यारो हजारों सिर-फिरे होते
जहां जाते वहीं पर पत्रकारों से घिरे होते
स्वदेशी सैकड़ों नेता हमारे भी चरण धोते
                    अगर हम ज्योतिषी होते
चला कर चक्र तंत्रों का कुबेरों को फंसाते हम
बता कर भाग्य लिपि उनकी उन्हें बुद्धू बनाते हम
किसी के शुक्र के घर में कभी शनि को घुसा देते
किसी के चंद्रमा पर राहु या केतु बिठा देते
                              अगर  हम  ज्योतिषी  होते
जो ज्योतिषी नहीं हैं, वे बेचारे प्रार्थना करते हैं परमात्मा से कि हे प्रभु, ज्योतिषी बना दो। और पंडित कृष्णदास शास्त्री, तुम ज्योतिषी होकर मेरी बातों में न आ जाना। डटे रहो। जमे रहो। बस इतना ही खयाल रहे कि सब खेल है, सब अभिनय है। गंभीरता से न लो। गंभीरता से लेने से उपद्रव खड़ा होता है।
ज्योतिष में कुछ खराबी नहीं है, और हजार तरह की बेईमानियां चल रही हैं। लेकिन अगर तुम जान कर कर रहे हो, होशपूर्वक कर रहे हो, तो जो दूसरों को लूट रहे हैं उनको लूटने में क्या हर्जा है! गरीबों को कृपा करना, उनके हाथ वगैरह मत देखना, उनकी जन्म-कुंडली न बिठाना और बिठाओ तो मुफ्त बिठा देना। अमीरों से दिल खोल कर लेना। राजनेताओं को जितना खींच सको खींचना; रस निचोड़ लेना; छोड़ना ही मत जो फंस जाए तुम्हारे चक्कर में, निचोड़ ही लेना।
तुम्हारे हाथ में अच्छी कला है। यहां-वहां न भटको। गांव-देहातों में क्या रखा है, दिल्ली में बसो। सब ज्योतिषी दिल्ली में बस गए हैं। ऐसा कोई राजनेता नहीं है जिसका ज्योतिषी न हो। और अगर होशियार हो, तो ज्योतिष का खेल ऐसा है कि उसमें कभी नुकसान होता ही नहीं। धंधा बड़ा अच्छा है। ज्योतिषी बात इस तरह की करता है कि उसमें कभी फंसने का मौका ही नहीं आता।
अगर तुम्हें गुर न आते हों, तो मुझसे एकांत में मिल लो, मैं तुम्हें कुछ गुर समझा दूं। जैसे कुछ गुर तो हरेक व्यक्ति जानता है। जैसे हर आदमी का हाथ देखो और कहो कि धन आता है, लेकिन टिकता नहीं। किसके हाथ में टिका? धन टिक जाए, तो वह धन ही नहीं। धन तो आता ही जाता है। इसलिए तो अंग्रेजी में उसको करेंसी कहते हैं। करेंसी मतलब: जो आए और जाए, चलती-फिरती रहे। धन चंचल है। जिससे मिलो उससे ही कहो कि जितनी तुम्हारी योग्यता है, उसके योग्य अभी संसार ने तुम्हें स्वीकार नहीं किया। सभी की योग्यता हमेशा ज्यादा होती है। कौन मानता है कि मेरी योग्यता को कोई स्वीकार करता है?
मुल्ला नसरुद्दीन दिखा रहा था हाथ अपने एक ज्योतिषी को। चवन्नी छाप ज्योतिषी। ज्योतिषी ने कहा कि बेटा, खुश हो जा! बड़ी ससुराल मिलने वाली है। धन वाली ससुराल। एकमात्र बेटी है। उसके साथ ही बहुत धन भी दहेज में मिलने वाला है।
मुल्ला ने कहा, गजब कर दिया! यह लो और चवन्नी, मगर एक बात और बताओ कि मेरी पत्नी और तीन बच्चों का क्या होगा?
इस तरह की बातें जरा सोच-समझ कर कहना। उनको हमेशा सशर्त कहना। उनको इस ढंग से कहना कि चाहो तो इधर मोड़ दो, चाहो तो उधर मोड़ दो। हमेशा दोहरी कहना। ज्योतिषी जो होशियार है, वह राजनीतिज्ञ की भाषा बोलता है। वह इस ढंग से बोलता है कि उसके कुछ भी अर्थ हो सकते हैं। जब जैसी जरूरत पड़े वैसे अर्थ।
एक ज्योतिषी ने एक आदमी का हाथ देखा, चंदूलाल का, और चंदूलाल से कहा, तुम्हारा विवाह हो रहा है। चंदूलाल ने कहा, बिलकुल ठीक।
सारे गांव को खबर थी। अब कोई विवाह ऐसी चीज थोड़े ही है कि छिप कर होती है। अरे छिप कर ही करना हो, तो विवाह करना होता है? विवाह तो खुलेआम होता है। बैंड-बाजे बज रहे थे। सारे गांव में निमंत्रण-पत्र बांटे गए थे। चंदूलाल सजे-बजे घूम रहे थे। कोई भी देख कर कह देता।
ज्योतिषी ने कहा, तुम्हारा विवाह हो रहा है, और यह तुम्हारे दुखों का अंत है।
पांच-सात दिन बाद चंदूलाल ने ज्योतिषी को एकदम पकड़ लिया रास्ते में। गर्दन दबाने लगा। कहा कि गर्दन दबा दूंगा तेरी। अठन्नी वापस कर! तूने तो कहा था दुखों का अंत हो रहा है और मैंने दुख इसके पहले कभी जाने ही नहीं थे! यह तो दुखों की शुरुआत हो गई। यह पत्नी क्या आई है, चौबीस घंटे नाक में दम किए हुए है। बिलकुल मुर्गा बना दिया है मुझे। नाकों चने चबवा रही है।
ज्योतिषी ने कहा, गला छोड़ भाई, पहले तू बात तो समझ। यह मैंने जरूर कहा था कि तेरे दुखों का अंत आ गया है, लेकिन कौन सा अंत आ गया--इधर वाला या उधर वाला, यह मैंने कहा नहीं था। अंत तो दो होते हैं न! हर चीज के दो छोर होते हैं, दो अंत होते हैं। तो कौन सा अंत आ गया, यह मैंने कुछ कहा ही नहीं था। तूने पूछा भी नहीं, मैंने कहा भी नहीं। अठन्नी में तू सभी कुछ जान लेना चाहता था! अगर तू और अठन्नी देता तो मैं बता देता--कौन सा अंत आ गया है।
ज्योतिषी हमेशा दोहरी बात बोलता है; कूटनीति की बात बोलता है; होशियारी की बात बोलता है। उसके कुछ भी अर्थ हो सकते हैं।
एक बार एक शहजादा घूमता हुआ एक छोटे से गांव में पहुंचा। तभी सामने से आता हुआ गांव का ज्योतिषी दिखाई दिया, जिसकी शक्ल शहजादे से हूबहू मिल रही थी। उसे छेड़ने के ढंग से शहजादे ने पूछा, क्यों मियां, क्या तुम्हारी मां हमारे महलों में काम करती थी कभी? ज्योतिषी बोला, नहीं-नहीं श्रीमान, पर मेरे पिता अवश्य बहुत वर्षों तक शाही हरम में द्वारपाल रह चुके हैं।
ज्योतिषी जानता है कि कैसे बात को बदल देना, कैसे बात के रुख को बदल देना। और जिंदगी में हर चीज जुड़ी हुई है, इसलिए तुम एक बात कहो तो खयाल रखना, वह और बातों से जुड़ी हुई है, उनको भी ध्यान में रख कर कहना।
सफल ज्योतिषी वही हैं जो बहुत सी बातों को खयाल में रख कर चलते हैं, जो जीवन के अंतर्संबंध को खयाल में रख कर चलते हैं, जो एक ही बात को इकहरा नहीं कह देते। बातें एटामिक नहीं हैं, अणुओं की तरह अलग-अलग नहीं हैं, उनकी शृंखलाएं हैं, उन सबके भीतर सूत्र बंधे हुए हैं। जैसे अगर वे कहेंगे किसी नेता को, तो कहेंगे जीत तो अवश्य होगी, मगर एक ही बाधा पड़ रही है। उतना बचा लेंगे, ताकि अगर जीत न हो तो वे बाधा को बड़ा करके बता सकें, कि हमने पहले ही कहा था कि एक बाधा पड़ रही है।
एक दिन नसरुद्दीन घबड़ाया हुआ सा अपने निजी डाक्टर के पास पहुंचा और उससे बोला कि डाक्टर साहब, मेरे नौजवान बेटे ने, जिसे कि छूत की बीमारी है, मेरी नौजवान नौकरानी को चूम लिया है और वह कहता है कि मैं तो उसे अक्सर चूमा करता हूं।
डाक्टर बोला, तो आखिर इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है? नसरुद्दीन, आखिर वह अभी युवा ही है। फिर छोकरे छोकरे हैं, लड़के लड़के हैं। और नौकरानी को ही चूमा है न, तो इसमें इतना क्यों घबड़ाते हो?
नसरुद्दीन बोला, पर डाक्टर साहब, आप समझने की कोशिश कीजिए, क्योंकि मैं भी उस नौकरानी को अक्सर चूमा करता हूं। क्या वह छूत का रोग मुझे नहीं लग सकता?
डाक्टर बोला, घबड़ाओ मत बड़े मियां, नौकरानियां आखिर चूमने के लिए ही तो रखी जाती हैं। और छूत की बीमारी भी कोई बीमारी है! और यदि तुम्हें कोई लग भी जाए, तो उसका आखिर इलाज है। मैं किसलिए हूं?
नसरुद्दीन बोला, पर डाक्टर साहब, बात यहीं खत्म नहीं होती। नौकरानी को चूमने के बाद मैं कई बार अपनी पत्नी को भी चूम चुका हूं।
अब डाक्टर ने घबड़ाते हुए कहा, एं, तो क्या यह वाहियात रोग मुझे भी लग गया!
जिंदगी बड़ी जुड़ी है। इधर एक चीज से दूसरी चीज जुड़ी है। होशियार ज्योतिषी वही है, पंडित कृष्णदास, जो सारे जोड़ों का हिसाब रख कर चलता है। और इस तरह की बातें बोलता है कि जिसमें सारे जोड़ों का हिसाब आ जाए, कि कभी इधर भी हो जाए बात, उधर भी हो जाए बात, तो चित भी उसकी, पट भी उसकी।
मैं नहीं कहूंगा कि तुम छोड़ो ज्योतिषी का काम। और इतने जल्दी डगमगा जाओ, यह शोभा नहीं देता। मेरी बातें कई लोग सुनते हैं, कई शास्त्री यहां आते हैं, मगर बिलकुल अडिग रहते हैं, बिलकुल पत्थर की तरह, हिलते ही नहीं। सुनते ही नहीं, हिलने का सवाल कहां! तुम भी बड़े सरल आदमी मालूम होते हो। असल में ज्योतिषी होने योग्य नहीं। इतने सरल आदमी, इतने जल्दी राजी हो जाएं; ज्योतिषी होने योग्य नहीं। इसके लिए तो बड़ी चालबाजी चाहिए। चार सौ बीस होना चाहिए। अगर यह चार सौ बीसी तुममें न हो, तो फिर भैया छोड़ ही दो। क्योंकि उसमें फिर सार हाथ लगेगा नहीं। उसमें जगह-जगह कुटोगे-पिटोगे, उलटा-सीधा बोलोगे, कुछ का कुछ निकल जाएगा, झंझट में पड़ोगे।
और ऐसा लगता है कि सरल आदमी हो। तुम कहते हो: "मैं एक ज्योतिषी हूं, किंतु आपके विचार सुन कर ऐसा लगता है कि यह गलत और धोखे का धंधा छोड़ दूं। आपका आशीष चाहिए।'
मैं तो आशीष दे दूं। आशीष में न तो हल्दी लगती है, न फिटकरी। तुम अपनी सोच लो। और धंधा न चल रहा हो, तो बात अलग, छोड़ ही दो फिर। ऐसा ही लगता है कि धंधा चल भी नहीं रहा। यह तो बहुत काइयों का काम है, यह धंधा ऐसा गलत धंधा है। यह धंधा अच्छा धंधा नहीं है। अच्छे आदमी इसको कर नहीं सकते। बहुत चालबाज, बहुत शैतान प्रकृति के आदमी ही यह काम कर सकते हैं। तुम सीधे-सादे आदमी मालूम पड़ते हो।
अगर तुम्हें बात जम ही गई हो, तो मेरा आशीष है, छोड़ दो। मगर इसके पहले सोच-विचार कर लेना। मुझे दोषी मत ठहराना। मैं किसी का दोष अपने ऊपर नहीं लेता। मैं किसी के लिए उत्तरदायी नहीं हूं। मेरे साथ चलने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए स्वयं उत्तरदायी है। क्योंकि तुम्हारा उत्तरदायित्व जब तुम्हारा होता है, तभी तुम स्वतंत्र होते हो। और मेरी यही सबसे महत्वपूर्ण घोषणा है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजता में जीए, अपनी स्वतंत्रता में जीए। तुम्हें दिखाई पड़ता हो कि व्यर्थ है, छोड़ दो। मेरी बात समझ कर मत छोड़ देना, नहीं तो कल मुझे दोषी ठहराओ। तुम्हें ही दिखाई पड़ने लगा हो, तो फिर ठीक है। मेरा आशीष तुम्हारे साथ है।

आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें