नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-आट्ठवां
दिनांक 01 जून सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
एक कथा: दो अर्थ
कोई भी वासना मन को पकड़ ले, तो चेतना
मूर्च्छित हो जाती है। या हम ऐसा कह सकते हैं कि जब भी चेतना मूर्च्छित होती है,
तभी कोई वासना मन को पकड़ती है।
ये दोनों एक-दूसरे से जुड़ी घटनाएं हैं।
प्रश्न:
भगवान, भगवान बुद्ध एक कहानी कहा करते थे। एक आदमी को
खेत में बाघ मिल गया। वह भागा।
बाघ ने भी उसका पीछा किया। वह एक भयानक खड्ड के किनारे पहुंच
गया, जिसके आगे राह नहीं थी।
एक जंगली बेल की जड़ को पकड़कर, वह खाई के
नीचे लटक गया।
बाघ भी वहां पहुंचकर ऊपर से उसको सूंघने लगा। ऐसे कांपते हुए उस
आदमी ने खड्ड में झांका तो वहां एक दूसरा बाघ उसको निगलने को तैयार खड़ा था। इस बीच
दो चूहे--एक सफेद और एक काला--उस बेल की जड़ को धीरे-धीरे कुतरने लगे। और उस आदमी
को उसी समय एक पका हुआ मीठा फल दिख गया।
एक हाथ से बेल को थामते हुए उसने दूसरे हाथ से फल को तोड़ लिया।
कैसा मीठा उसका स्वाद था!
भगवान! इस कहानी को हमें समझाने की कृपा करें।
कहानी
बुद्ध से भी पुरानी है। लेकिन बुद्ध ने जिस अर्थों में उसका प्रयोग किया, वह बिलकुल
बुद्ध का अपना है। दोनों ही अर्थ समझ लेने जैसे हैं।
कहानी
तो हिंदू-चिंतन का सार है। लेकिन बुद्ध ने उसके ऊपर बड़े नए अर्थ की कलम लगाई। और
तब कहानी का पूरा अर्थ ही बदल गया। और बुद्ध ने उस कहानी की जो परिभाषा की, वह बड़ी
अनूठी है।
तो
पहले तो हम हिंदू-दृष्टि को समझ लें। उसकी अपनी सार्थकता है। और तब हमें यह भी समझ
में आ सकेगा कि एक ही प्रतीक कैसे दो भिन्न दृष्टियों के लिए आधार बन सकता है।
देखने का ढंग बदल जाए,
तो जो हम देखते हैं, वह भी बदल जाता है। और
जगत हमारी दृष्टि में है, वस्तुओं में नहीं। देखने वाला जैसा
होता है, वैसा ही जगत दिखाई पड़ता है।
हिंदू-चिंतन
का आधार है कि जगत माया है। उसमें मिले हुए सुख क्षणभंगुर हैं, सत्य
नहीं। अभी हैं, अभी नहीं हो जाएंगे। मौत जीवन को पोंछ
डालेगी। प्रतिपल पोंछ ही रही है। और वह जो सफेद और काला चूहा है, वे दिन और रात, जीवन की जड़ों को काट रहे हैं। जितनी
देर हम जीते हैं, उतनी देर हम मरते हैं। और जन्म के साथ ही
मरना शुरू हो जाता है। बच्चा पैदा नहीं हुआ कि मरना शुरू हो गया। काले-सफेद चूहों
ने जड़ें काटनी शुरू कर दीं। जड़ें अभी जम भी नहीं पाईं और जड़ों का अंत प्रारंभ हो
गया।
यहां
जन्म के साथ ही मृत्यु जुड़ी है। जन्म है एक कदम, मृत्यु उसी का दूसरा कदम
है। तो जिसे हम जन्म-दिन कहते हैं, वह मृत्यु का भी दिन है।
फासला है--सत्तर वर्ष का हो, सौ वर्ष का हो--लेकिन वह दो
कदमों का ही फासला है। स्वभाव जन्म और मृत्यु का बिलकुल एक है।
हिंदू
कहते हैं, जो जन्मा है, वह मरेगा। और जो गहरा देख सकता है,
वह जन्म में ही मृत्यु को देख लेगा। इसलिए जन्म कोई खुशी का अवसर
नहीं। और जन्म अगर खुशी का अवसर है, तो मृत्यु कोई रोने की
बात नहीं। अगर तुम जन्म में हंसे और मौत में रोए, तो उसका
अर्थ है कि तुम अंधे हो।
काल
कुतर रहा है,
तुम्हारी जड़ों को काटता जा रहा है। एक-एक क्षण जा रहा है, उतने ही तुम चुकते जाते हो, रिक्त होते जाते हो। और
हिंदू कहते हैं, बचने का कोई उपाय नहीं है।
संसार
में बचने का कोई उपाय ही नहीं है। क्योंकि संसार मृत्यु का ही विस्तार है। तो तुम
कहीं भी भागो,
तुम कहीं भी छिपो, मृत्यु तुम्हें खोज लेगी।
मन सोचता है कि कोई उपाय खोज लेंगे, कोई घर बनाएंगे, कोई सुरक्षा, कोई पहाड़, कोई
दीवाल और छिप रहेंगे। तो मन धन की दीवालें बनाता है, पद-प्रतिष्ठा
खड़ी करता है। विज्ञान, ज्ञान, टेक्नालॉजी,
और सोचता है कि बच रहेंगे, मौत से बचने का कोई
उपाय होगा।
हिंदू
कहते हैं, बचने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संसार का स्वभाव
मृत्यु है। तुम भागो कहीं भी, मौत तुम्हारा पीछा करेगी। वह
जो बाघ है, वह तुम्हारे पीछे लगा है। और आज नहीं कल, वह जगह आ जाएगी, जहां आगे रास्ता न होगा, जहां भागना भी छोड़ देना पड़ेगा। जिसको अंग्रेजी में इम्पासे कहते हैं,
वह जगह आ जाएगी, जिसके आगे फिर कोई मार्ग ही
नहीं है। पीछे लौटो तो मौत, आगे जाओ तो गङ्ढ। और नीचे झांककर
तुम देखोगे तो पाओगे वहां भी मौत प्रतीक्षा कर रही है। गङ्ढ में कूदकर भी बचने का
उपाय नहीं है। ऐसे तो गङ्ढे में कूदोगे तो भी मिट जाओगे, लेकिन
एक आशा की किरण रह सकती है कि बच जाएं, शायद बच जाएं। तो
वहां दूसरा बाघ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।
हिंदू
कहते हैं, जीवन चारों तरफ मृत्यु से घिरा है। सब दिशाएं उसी से आच्छादित हैं। इसलिए
एस्केप, पलायन नहीं हो सकता। भागने से कुछ हल नहीं है। सिर्फ
थकोगे और उस जगह पहुंच जाओगे, जहां रुकना पड़ेगा। फिर भी आदमी
कोशिश करेगा--नीचे मौत है, ऊपर मौत है, भयंकर गङ्ढ है, हाथ छूट जाए तो मौत है--तो भी आदमी
कोशिश करेगा। आदमी का मन आखिरी क्षण तक कोशिश करता है। जड़ों को पकड़कर ही लटक
जाएगा। जड़ें कोई बहुत भरोसे की नहीं हैं, क्योंकि दिन और रात
उन्हें काट रहे हैं। लेकिन आशा तिनके में भी सहारा खोज लेती है, सपने में भी साथी खोज लेती है। जहां कुछ भी नहीं हो सकता, वहां भी मन कल्पना करके सोचता है, कुछ जरूर हो
सकेगा।
मन
का यह गुणधर्म है कि वह आशा किए चला जाता है। उमर खय्याम की एक रुबाई है कि गुरुओं
से पूछा, ज्ञानियों से पूछा, आचार्यों से पूछा कि यह जीवन
चलता क्यों जाता है, रुक क्यों नहीं जाता? क्योंकि कोई भी सुखी नहीं दिखाई पड़ता, सब दुखी हैं।
फिर भी जीवन चलता जाता है। तो इस जीवन के चलने का मूल-सूत्र कहां है?
कोई
उत्तर न पाया। उमर खय्याम ने लिखा है, जिस द्वार से भीतर गया, उसी द्वार से बाहर आया। बड़े पंडित थे, पर कोई उत्तर
न पाया। फिर मैंने आकाश से पूछा, क्योंकि आकाश सदा रहा है।
सब बदलता गया है--लोग आए हैं, मिटे हैं, जन्म हुआ, मृत्यु हुई, सभ्यताएं
खड़ी हुईं, खो गईं--आकाश सदा देखता रहा है। इससे बड़ा और कोई
गवाह नहीं। तो मैंने आकाश से पूछा कि इस जीवन का राज क्या है? यह चलता क्यों जाता है? तो आकाश से एक आवाज आई--आशा
के सहारे।
दुख
बहुत है, लेकिन आशा उससे भी बड़ी है। यह सुख के सहारे नहीं चल रहा है जीवन, क्योंकि सुख तो बिलकुल नहीं है। अगर अकेला दुख ही दुख हो, तो यह टूट जाए, आप अभी आत्मघात कर लें। इसलिए जो भी
थोड़ा विचारशील है, वह जीवन में कभी न कभी आत्मघात का विचार
करता है। कभी न कभी सोचता है, मिटा लूं। क्या है सार सुबह उठ
आने का, सांझ सो जाने का? फिर वही भोजन,
फिर वही वस्त्र, फिर वही काम। इस पूरे चाक पर
घूमते रहने का कोई भी तो प्रयोजन नहीं मालूम पड़ता। और अंत में मर ही जाना है,
तो आज मरने में क्या बुराई है? तीस साल,
चालीस साल और चक्कर खाने के बाद मरना ही पड़ेगा। और जब खाई लील ही
लेगी, तो आज ही उसे समर्पित हो जाने में हर्ज क्या है?
यह इतना कष्ट क्यों? यह बीच की इतनी व्यर्थ की
चिंता, उपद्रव, संताप क्यों?
इसलिए
विचारशील कभी न कभी आत्मघात की सोचता ही है। सिर्फ निर्बुद्धि हैं, जो कभी
आत्मघात की न सोचते हों। मूढ़ हैं, जो कभी न सोचते हों कि
जीवन खत्म करने जैसा है। विचारशील तो निरंतर, अनेक बार उस
जगह आ जाता है, जहां सोचता है, मिटा
दूं! जब मिटना ही है, तो अपने हाथ से ही मिटा दूं!
इसलिए
दुख की तो परिपूर्णता है। सुख की कहीं कोई झलक भी नहीं है। लेकिन फिर भी आशा कहती
है, जो आज नहीं मिला, वह कल मिलेगा। इसलिए कल तक रुकना
जरूरी है। आत्मघात रुका है आशा के कारण, जीवन के कारण नहीं।
और आशा कहे ही चली जाती है कि क्यों घबड़ाते हो, जो आज तक
नहीं हुआ, वह भी कल हो सकता है। कौन जाने, दूसरे क्षण द्वार खुल जाए स्वर्ग का। दूसरे क्षण खजाना मिल जाए जीवन का।
वह दूसरा क्षण लुभाता है। इसलिए हम कल में जीते हैं।
मन
कल की आशा का नाम है। ऊपर मौत है, नीचे मौत है, लटके हुए हम
हैं। जड़ें किसी भी क्षण टूट सकती हैं। न भी टूटें, तो हाथ थक
जाएंगे थोड़ी देर में। फिर भी आशा है, कुछ हो सकता है। समय
अभी बाकी है, तो प्रतीक्षा जारी है।
और
ऐसी ही प्रतीक्षा के क्षण में दिखाई पड़ जाता है एक फल, जंगल का
बेर, या कोई और फल, और सब भूल जाता है।
न आगे खड़ी मौत, न पीछे खड़ी मौत दिखाई पड़ती है, न गङ्ढ दिखाई पड़ता है। न हाथ छूटे जा रहे हैं जड़ों से, यह समझ में आता है। उस जंगली फल का मधुर स्वाद, उस
स्वाद के क्षण में सब भूल जाता है।
क्षणभंगुर
है सुख, लेकिन सबको भुला देता है। गहरा नशा है उसका। स्वाद बिलकुल क्षणभर टिकेगा,
लेकिन बेहोशी उसकी परम है। एक क्षण को होगा, लेकिन
उस एक क्षण में सब जगत भूल जाता है--सारे दुख, सारी यात्रा
का कष्ट, सारे संताप जो बीत गए हैं, और
सारे संताप जो आएंगे--सब भूल जाता है। क्षणभर होगा सुख, लेकिन
पूरे ब्रह्म को आच्छादित कर लेता है।
हिंदुओं
ने इस कथा का उपयोग किया था कि ऐसे क्षणभर के स्वाद में मत भटको। सजग रहो। मौत को
भुलाओ मत ऐसे,
कोई फल का स्वाद मौत से बचा न सकेगा। जीवन को, स्वयं को मोहित करने का कोई भी मार्ग मत दो--न स्वाद से, न काम से, न लोभ से--कोई भी इंद्रिय से जीवन को
आच्छादित मत होने दो।
स्वाद
तो एक इंद्रिय है। आंख से भी यह हो सकता था। कहानी हो सकती थी कि एक सुंदर युवती
दिखाई पड़ गई,
या एक मोर नाचने लगा, या सूरज निकला, या एक इंद्रधनुष आकाश में फैल गया और उस क्षण में सब भूल गया। या हो सकता था
कि सिर्फ सुगंध आई होती, बेला के फूल खिले होते, और सुगंध की एक लहर नासापुटों को भर गई होती, उस
क्षण में सब भूल जाता।
तो
कहानी तो केवल प्रतीक है। कोई भी इंद्रिय भुला सकती है। सभी इंद्रियां मूर्च्छित
होने को तत्पर हैं। इंद्रिय का रस ही मूर्च्छा में है। जब आप होश में होते हैं, तब
इंद्रिय मृत होती है। जब इंद्रिय जगती है, तब आप मूर्च्छित
होते हैं। आपकी मूर्च्छा में इंद्रिय का जागरण है, इंद्रिय
की मूर्च्छा में आपका जागरण है। तो जब इंद्रिय जगी और स्वाद मन को भर गया, उस समय भीतर सब मूर्च्छा हो गई। और ऐसी स्थिति में, विकट
स्थिति में, जब कि मौत सामने खड़ी थी!
महात्मा
गांधी ने अपने बचपन का संस्मरण लिखा है। और वह संस्मरण उनके जीवनभर का घाव हो गया।
उस घाव ने उनके पूरे जीवन को प्रभावित किया, रूपांतरित किया। ऐसे घाव को
मनोवैज्ञानिक ट्रामेटिक कहते हैं, जो फिर मिटते नहीं और
जिनके आधार पर फिर पूरे जीवन की प्रक्रिया बुनी जाती है।
गांधी
के पिता मर रहे हैं। और चिकित्सकों ने कहा कि यह रात आखिरी है, आज बच न
सकेंगे। सुबह सूरज इन्हें जीता हुआ न देखेगा। तो स्वाभाविक था कि बेटा बाप के पास
बैठे। यह आखिरी रात थी, किसी भी क्षण श्वास टूट जाएगी। और
ऐसा भी नहीं था कि बेटे को बाप में श्रद्धा न थी, प्रेम न था;
बड़ा लगाव था, बड़ा भाव था, पिता के प्रति बड़ा सम्मान था। तो गांधी उनके पैर दबाते हुए बैठे रहे। फिर
बारह बजे, फिर एक बजा, फिर पिता को
झपकी लग गई। और जब पिता को झपकी लग गई, तो गांधी के मन में
विचार उठने लगे कि चिकित्सक कोई भविष्यवक्ता तो नहीं, कि
नहीं ही बचेंगे सुबह; ऐसी भी क्या बात है, सिर्फ अनुमान है।
मन
ने दरवाजा खोल दिया। और जब पिता सो ही गए हैं, विश्राम कर रहे हैं, तो पत्नी की स्मृति मन में उठने लगी। एक दीवाल के पार पत्नी है। और क्षणभर
को जाकर उसे प्रेम कर आऊं, तो कुछ हर्ज नहीं है। पिता को
सोया छोड़कर गांधी पत्नी के कमरे में चले गए। संभोग कर रहे थे पत्नी से, तभी द्वार पर दस्तक पड़ी और किसी ने खबर दी कि पिता चल बसे।
यह
जीवनभर के लिए घाव हो गया। सारा ब्रह्मचर्य गांधी का इसी घाव से निकला। इसलिए
गांधी के ब्रह्मचर्य में महावीर वाला ब्रह्मचर्य नहीं है। उसमें रोग है, उसमें एक
रुग्णता है। उसमें एक पीड़ा है। उस ब्रह्मचर्य में आनंद और अहोभाव नहीं है, एक प्रायश्चित्त है। और यह समझ लेने जैसा जरूरी है, क्योंकि
ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य भी एक से नहीं होते। कहां से निकलती है धारा? क्यों निकलती है?
तो
गांधी का जो भाव है ब्रह्मचर्य का, वह एक प्रायश्चित्त है, जो पिता से जुड़ा हुआ है। फिर वह पत्नी के पास दुबारा कभी उस निर्दोष भाव
से न सो सके, क्योंकि हमेशा पिता की मृत्यु बीच में खड़ी हो
गई। और ऐसा लगने लगा कि मैं अपराधी हूं। और ऐसा लगने लगा कि यह भी क्या बात हुई कि
पिता मरते हों और मैं एक रात पत्नी से दूर न रह सका! पत्नी गर्भवती थी और चार या
आठ दिन बाद ही बच्चा हुआ। वह बच्चा भी मरा हुआ हुआ। इसलिए और भी घाव लग गया कि हो
सकता है मेरे संभोग का ही यह परिणाम है कि बच्चा मरा हुआ हुआ। क्योंकि इतने,
नौ महीने की गर्भवती स्त्री के साथ संभोग कभी-कभी खतरनाक हो सकता है,
बच्चे का प्राण जा सकता है।
अभी
कुछ दस-पंद्रह साल पहले तक तो चिकित्सक कहते थे कि यह भ्रांति है कि गर्भ के आखिरी
दिनों में संभोग करने से बच्चा मरेगा। यह केवल एक अंधविश्वास है। लेकिन इधर
दस-पंद्रह वर्षों में जो नई शोध हुई है, तो पता चला कि अंधविश्वास सही हो
सकता है। क्योंकि जब स्त्री संभोग के क्षण में आती है, तो
उसके हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं। और जब संभोग अपने परम शिखर पर पहुंचता है,
तो उसके हृदय की जो सामान्य गति है, वह
डांवाडोल हो जाती है और उसके शरीर में आक्सीजन की मात्रा में रूपांतरण हो जाता है।
और बच्चे के पास जो भी आक्सीजन पहुंचती है, वह मां से ही
पहुंचती है। और बच्चा अभी इतना कोमल है कि इस अस्तव्यस्त अवस्था का परिणाम उस पर
घातक हो सकता है।
अभी
नई एक शोध प्रकाशित हुई है,
जो कहती है, इस बात की संभावना है कि इस
पुराने अंधविश्वास में सचाई हो। क्योंकि पूरा का पूरा संभोग के क्षण में, आरगाज्म के क्षण में स्त्री का पूरा रासायनिक रूपांतरण हो जाता है। शरीर
पसीना छोड़ता है, हृदय धड़कता है, शरीर
जैसे बुखार से भर जाता है। और बच्चा जो अभी कोमल है और सब भांति मां पर निर्भर
है--अभी वह खुद श्वास भी नहीं लेता, अभी मां की ही श्वास
उसकी श्वास है--यह इतना बड़ा तूफान है बच्चे के लिए कि इसमें उसकी श्वास घुट सकती
है। और एक क्षण को भी उसे आक्सीजन न मिले, तो वह मृत हो सकता
है।
फिर
गांधी को बड़ी पीड़ा रही: बच्चा मरा, पिता मरे और उस क्षण में भी मैं
वासना से पूरित रहा! पत्नी गर्भवती थी, तो भी वासना न रोक
सका! पिता मर रहे थे, तो भी मैं वासना न रोक सका! इसलिए
वासना के प्रति एक गहन पश्चात्ताप, अपराध, घृणा, निंदा, मन में प्रवेश कर
गई।
लेकिन
उस क्षण में,
जब पत्नी ने मन को घेर लिया, तो सारा संसार
भूल गया। उस क्षण, पिता मर रहे हैं, यह
बात याद न रही। उस क्षण, पत्नी गर्भवती है, यह बात याद न रही।
कोई
भी वासना मन को पकड़ ले,
तो चेतना मूर्च्छित हो जाती है। या हम ऐसा कह सकते हैं कि जब भी
चेतना मूर्च्छित होती है, तभी कोई वासना मन को पकड़ती है। ये
दोनों एक-दूसरे से जुड़ी घटनाएं हैं।
स्वाद
तो केवल प्रतीक है। कोई भी इंद्रिय का द्वार खुला कि चेतना के द्वार बंद हुए।
हिंदुओं
ने यह कथा कही है,
ताकि क्षण में आप न खो जाएं और सनातन को न भूल जाएं। क्षण की क्षमता
है सनातन को भुला देने की। यह बड़ा ऊहापोह का प्रश्न है। और निरंतर चिंतक पूछते रहे
हैं कि यह हुआ कैसे कि माया, जो कि असत्य है, उसने ब्रह्म को आच्छादित कर लिया! यह हुआ कैसे कि अंधेरा, जो है ही नहीं, उसने प्रकाश को ढंक लिया! यह हुआ
कैसे कि अविद्या, अज्ञान, जिनकी कोई
जड़ें नहीं, मूल नहीं, उन्होंने परम
ज्ञान, परम चैतन्यस्वरूपी आत्मा को भटका दिया! यह हुआ कैसे?
अगर माया सच में ही नहीं है, तो फिर हम भटक
कैसे रहे हैं?
यह
हुआ। इस कथा को अगर समझें,
तो समझ में आ जाएगा। क्षणभर को भी अगर हम सो जाएं तो ब्रह्म खो जाता
है। हमारी निद्रा उसका खो जाना है।
जैसे
सूरज उगा हो,
और मैं आंख बंद कर लूं। माना कि आंख की क्या ताकत सूरज के सामने!
बड़ी कमजोर है, लेकिन बंद तो कर ही सकता हूं। पलकों की
सामर्थ्य क्या है? छोटे-छोटे हैं। लेकिन सूरज को ढंक लेते
हैं। आंख बंद कर ली, सूरज खो गया। हिमालय खड़ा हो, छोटी सी पलक बंद कर लूं, हिमालय खो गया। एक जरा सा
रेत का कंकड़ आंख में पड़ जाए, आंख बंद हो गई। कंकड़ बड़ा छोटा
है, लेकिन गौरीशंकर खो गया। तो कंकड़ के छोटेपन से यह मत
सोचना कि हिमालय को नहीं ढंक सकता है। ढंक सकता है, क्योंकि
आंख को बंद कर सकता है।
ब्रह्म
अपनी जगह है। हमारे लिए खो जाता है, मेरे लिए खो जाता है। जब मेरी आंख
बंद है, तब खो जाता है। और सभी इंद्रियां सुलाने के उपाय
हैं। इंद्रियों का रस निद्रा में है, सो जाने में है। इसलिए
तमस का इतना विरोध है।
तमस
का अर्थ है: सोने की वृत्ति। तमस का अर्थ है: निद्रित भाव। तमस का अर्थ है:
मूर्च्छित जीने का ढंग। जो चीज भी तमस लाती है, वही संसार को बढ़ाती है।
उस
क्षण, जब स्वाद लिया जंगली फल का, घेर लिया तमस ने। मन
आच्छादित हो गया, स्वाद में खो गया। स्वाद ही बचा और सब खो
गया। ब्रह्म, सत्य, वह जो चारों तरफ
मौजूद है, वह कुछ भी दिखाई न पड़ा।
और
अक्सर ऐसा होता है। जब जीवन में दुख हो, तब हम मूर्च्छा की तलाश करते हैं।
दुनियाभर में शराब का इतना आकर्षण है, और कितना ही समझाएं
उपदेशक, आदमी से शराब का छुटकारा आसान नहीं है। क्योंकि
संसार में इतना दुख है। और उपदेशक के उपदेश से दुख नहीं मिटता। और दुख इतना ज्यादा
है कि आदमी भुलाने के उपाय न करे, तो क्या करे! या तो दुख के
पार जाए, जो कभी किसी बुद्ध के लिए संभव हो पाता है। और या
फिर दुख को विसर्जित न कर सके, तो विस्मृत कर दे, जो कि शराब से हो सकता है; हजार ढंग के नशे हैं,
जिनसे हो सकता है।
सभी
तरह की एंद्रिकता मादकता है। जब आप एक स्त्री को देखते हैं सुंदर, या एक
सुंदर पुरुष को, तो क्षणभर को शराब पकड़ लेती है। और जब मैं
यह कह रहा हूं, तो सिर्फ प्रतीक के अर्थ में नहीं कह रहा
हूं। अब तो मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक भी गवाही देते हैं कि जब एक सुंदर स्त्री को
आप देखते हैं, तो आपके भीतर शरीर में हार्मोन्स में फर्क पड़
जाता है। और आपके शरीर में ग्रंथियां हैं, जिनसे मादक-द्रव्य
खून में विस्तारित होते हैं।
तो
जैसे ही एक सुंदर स्त्री को आपने देखा, आपके शरीर की ग्रंथियां नशीले
तत्वों को खून में छोड़ देती हैं। तो यह हो सकता है कि आप दुनिया को भूलकर उस
स्त्री के पीछे चल पड़ें; नियम, व्यवस्था,
समाज, कानून को भूलकर स्त्री पर हमला कर दें।
और अगर अदालत में आप कहें कि यह मैंने नहीं किया, तो वह भी
सच होगा। यह आपके भीतर मादकता इतनी घनी हो गई कि हो गया आपसे, आपने किया नहीं, आप मालिक थे भी नहीं। करने का
निर्णय आपने लिया नहीं, भीतर शरीर के हार्मोन, शरीर के रासायनिक तत्वों ने लिया।
धन
को देखकर आप पागल हो सकते हैं। भूल ही जा सकते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं।
हिंदुओं
ने इस कथा का प्रयोग किया था कि क्षणभर भी इंद्रिय का स्वाद सनातन ब्रह्म को छिपा
देता है। लेकिन बुद्ध ने इस कथा का बड़ा दूसरा उपयोग किया। क्योंकि बुद्ध और
हिंदू-विचार के कुछ मौलिक भेद खयाल में आ जाएं, तो कथा का अर्थ-भेद समझ में आएगा।
हिंदू
कहते हैं: क्षण तो असत्य है; शाश्वत सत्य है। वह जो सदा है, वह सत्य है। और जो क्षण है, वह सत्य नहीं है;
क्षण केवल सपना है। क्योंकि क्षण का मतलब है, क्षणभर
पहले नहीं था और क्षणभर बाद फिर नहीं हो जाएगा। हिंदू-विचार कहता है: जो क्षणभर
पहले नहीं था, जो क्षणभर बाद फिर नहीं हो जाएगा, उसका अभी होना सत्य नहीं हो सकता; जिसके दोनों तरफ
असत्य है, वह मध्य में सत्य नहीं हो सकता; जिसके दोनों तरफ शून्य है, वह बीच में पूर्ण नहीं हो
सकता; जिसके दोनों छोरों पर भ्रम है, वह
मध्य में वास्तविक नहीं हो सकता। वास्तविक वही है--सत्य की यही हिंदू-परिभाषा
है--कि जो शाश्वत है, जो सदा है, सदा
था, सदा रहेगा। जो न मिट सकता है, न
मिटाया जा सकता है।
लेकिन
बौद्धों की परिभाषा बड़ी अलग है। बुद्ध हैं क्षणवादी; हिंदू हैं
शाश्वत-सनातनवादी।
बुद्ध
कहते हैं: क्षणमात्र ही सत्य है; सनातन है ही नहीं कुछ, शाश्वत
कुछ है ही नहीं। शाश्वत केवल विचार है, शाश्वत केवल सिद्धांत
है; शाश्वत दार्शनिकों की खोज, कल्पना,
परिकल्पना, हाइपोथीसिस है। क्षण ही केवल सत्य
है। जो अभी और यहां है, वही केवल सत्य है। इस क्षण से ज्यादा
और कोई सत्य नहीं है।
बौद्ध-चिंतन
में सत्य का अर्थ है: जो वर्तमान में है, जो अभी है, जस्ट
हियर एंड नाऊ, बस वही सत्य है। और बौद्ध कहते हैं: जो अभी
सत्य है, उसको तुम असत्य कहते हो, और
जो कभी भी अभी नहीं होता है, उसे तुम सत्य कहते हो? क्षण के अतिरिक्त समय है ही नहीं। क्योंकि एक क्षण से ज्यादा आपको उपलब्ध
नहीं होता। शाश्वतता धारणा है, क्षण वास्तविकता है।
और
बड़े मजे की बात यह है कि इन दो विपरीत दृष्टिकोणों से जो आत्यंतिक लक्ष्य फलित
होता है, वह बिलकुल एक है।
तो
अब हम बुद्ध के हिसाब से इस कथा को समझें।
बुद्ध
कहते हैं: भाग रहे तुम जंगल में और एक सिंह तुम्हारा पीछा करता है; मौत पीछे
लगी है, पहुंच गए खाई के किनारे, लेकिन
नीचे सिंह खड़ा हुआ तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। इससे बुद्ध कुछ तुम्हें भयभीत नहीं
करना चाहते। वह कहते हैं, ऐसा जीवन का स्वरूप है।
हिंदू-कथा
में भय का अंश है। होगा,
क्योंकि माया से तुम भयभीत हो जाओगे, तो ही
तुम ब्रह्म की खोज पर निकलोगे।
बुद्ध
कहते हैं: यहां कोई ब्रह्म तो है नहीं जिसकी खोज पर जाना है। इसे तुम चाहे माया
कहो और चाहे जो,
बस यही है। यह जीवन की वास्तविकता है कि मौत तुम्हारे पीछे लगी है।
इसमें भय का कारण भी तुम्हारा मन है। अन्यथा तुम समझोगे कि ऐसा जीवन का स्वभाव है।
इस तरफ भी मौत है, उस तरफ भी मौत है। और उस जगह हम पहुंच गए
हैं खाई पर, जिसके आगे कोई मार्ग नहीं है।
बुद्ध
के हिसाब से प्रतिक्षण तुम उस खाई पर खड़े हो, जिसके आगे कोई मार्ग नहीं है।
मार्ग है ही नहीं। क्योंकि मार्ग तभी हो सकता है, जब
तुम्हारे हाथ में एक क्षण से ज्यादा समय हो।
यह
थोड़ा जटिल है।
अगर
आपके पास एक क्षण मात्र है,
तो गति करने का उपाय ही नहीं है। दो क्षण हों, तो गति हो सकती है। अगर खड़े भर होने को जमीन है, तो
मार्ग कहां होगा? चलने को जगह चाहिए। मन के चलने को समय
चाहिए। यह जो घड़ी है, यही सब कुछ है, तो
तुम चलोगे कहां? जाओगे कहां? अपनी जगह
पर खड़े होकर तुम कितने ही कूदते रहो, जागिंग करते रहो,
जाना-आना कहीं भी नहीं है।
बुद्ध
के हिसाब से कोई यात्रा नहीं है। तुम उसी जगह खड़े कूद रहे हो। जैसा घर में किसी को
व्यायाम करना हो,
अपने ही बाथरूम में खड़े होकर कूदता रहे, ऐसा
मीलों की यात्रा का भ्रम पैदा हो सकता है। चलना मीलों हो जाए और जगह फीट भर की हो।
बुद्ध
कहते हैं: एक क्षण ही तुम्हारे पास है, तुम्हारा मन उसी में कूदता रहता
है। इसलिए प्रतिक्षण, तुम वहां खड़े हो, जहां से आगे कोई मार्ग नहीं है। जिस दिन तुम्हें दिख जाएगा, उसी दिन तुम रुक जाओगे, व्यर्थ उछल-कूद न करोगे।
संसार
आदमी के मन की व्यर्थ उछल-कूद है, जिससे कुछ निष्कर्ष भी नहीं निकलता। व्यायाम
जरूर हो जाता है, सो हम जन्मों-जन्मों से कर रहे हैं।
पहुंचते कहीं भी नहीं, लेकिन दौड़ काफी हो जाती है। चलते बहुत
हैं, मंजिल कभी नहीं आती। फिर भी हम कभी बैठकर नहीं सोचते कि
इतना चले और कहीं न पहुंचे, कहीं ऐसा तो नहीं कि हम उसी जगह
पर कूद रहे हैं! नहीं तो इतना चलकर कहीं तो पहुंचना चाहिए था!
जीवनभर
आदमी यात्रा करता है और मरते वक्त वहीं पाता है, जहां जन्म के वक्त पाया था।
यह यात्रा कुछ स्वप्निल मालूम पड़ती है। जैसे रात आप सो गए, और
एक सपना देखा कि हवाई जहाज में उड़ रहे हैं, या न्यूयार्क
पहुंच गए हैं, और बड़ी यात्रा है और बड़े कष्ट यात्रा के उठाए।
और सुबह जब आंख खुलती है तो अपने घर में, अपने ही बिस्तर पर
अपने को पाते हैं। तब आप कहते हैं, सब सपना था।
क्यों
कहते हैं सपना था?
अगर न्यूयार्क में आंख खुले, तब आप कह सकेंगे,
सपना था? अगर कहीं पहुंच गए, फिर तो सपना न कह सकेंगे। सपने का अर्थ ही यह होता है कि चले बहुत,
रहे वहीं। इसलिए सुबह कह पाते हैं, सपना है।
अगर रात में कुछ आपके साथ तरकीब की जाए, आप सपना देखते हों
न्यूयार्क जाने का और आपकी खाट को आपके मित्र उठाकर न्यूयार्क पहुंचा भी दें,
और सुबह आंख खुले, तो पहली दफे जिंदगी में
आपके मुसीबत खड़ी होगी। तब आपको बड़ा कठिन हो जाएगा कहना कि रात जो देखा, वह सपना था। तब वह सत्य हो जाएगा।
बुद्ध
कहते हैं: सत्य का अर्थ है,
जिस चलने से मंजिल मिले। असत्य का अर्थ है, जिसमें
चलना तो बहुत हो, मंजिल बिलकुल न मिले। यात्रा लंबी, पहुंचना कहीं भी नहीं। और जब आंख खुले तो आप पाएं कि वहीं के वहीं खड़े
हैं।
बुद्ध
का जगत को सपना कहने का यह अर्थ है। बुद्ध भी जगत को माया कहते हैं, लेकिन
ब्रह्म के विपरीत नहीं। वे कहते हैं: ब्रह्म तो है ही नहीं, बस
यह माया है। और बुद्ध की बात समझने जैसी है।
वे
कहते हैं: ब्रह्म भी तुम्हारे मन की नई आशा है। तुम आशा छोड़ते ही नहीं। धन से छोड़
दी, संसार से छोड़ दी, तो तुम ब्रह्म में स्थापित कर लेते
हो। संसार व्यर्थ हो गया, समझ लिया यहां कुछ भी नहीं है,
तो ब्रह्म में सब कुछ है। पहले संसार को पाना था, अब ब्रह्म को पाना है। लेकिन मन पाने से नहीं हटता। और बुद्ध कहते हैं,
जब तक पाना बाकी है, तब तक मन बाकी है।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं: ब्रह्म को क्षमा करो, मत बीच में लाओ। क्योंकि तुम उसे
भी वासना की दौड़ ही बना लोगे। कल तक बाजार की तरफ जाते थे, अब
मंदिर की तरफ जाओगे, लेकिन जाओगे जरूर। कल तक धन इकट्ठा करते
थे, रोज गिनती करते थे; अब पुण्य
इकट्ठा करोगे, लेकिन इकट्ठा करोगे जरूर। धन भी संपदा है,
पुण्य भी संपदा है।
और
ध्यान रहे, धन भी समाज की मान्यता है और पुण्य भी समाज की मान्यता है। वह जो सौ का
नोट है, वह सौ का इसीलिए है कि समाज स्वीकार करता है कि वह
सौ का है। कल समाज कह दे, राज्य घोषणा कर दे कि सौ का नोट
समाप्त हुआ--दो कौड़ी उसके दाम नहीं। जिसको हम पुण्य कहते हैं, वह भी समाज की मान्यता है।
हिंदुस्तान
में एक विवाह करना पुण्य है; चार तुम कर लो, तो झंझट
में पड़ोगे। हिंदू एक विवाह करे तो पुण्य है। क्योंकि पितृ-ऋण चुकेगा नहीं बिना
विवाह के--बच्चे न होंगे, कैसे पितृ-ऋण चुकेगा? हिंदू चार विवाह कर ले, तो पाप है। और मुसलमान चार
विवाह करे, तो पुण्य है; कोई भी पाप
नहीं है। चार विवाह के सिक्के को मुसलमान स्वीकार करता है, हिंदू
स्वीकार नहीं करता।
पुण्य-पाप
भी सिक्के हैं,
वे भी समाज के द्वारा। अगर तुम जंगल में अकेले हो तो वहां क्या
पुण्य है और क्या पाप है? और सौ के नोट का क्या करोगे,
एक का नोट क्या उपयोग का है? जंगल में सौ का
नोट कागज है। पुण्य कागज है, पाप कागज है। जंगल में तुम
कितने ही भले हो, तो भी भलाई को अर्जित नहीं कर सकते। और भले
भी तुम किस भांति होओगे जंगल में? कोई वहां है नहीं, जिस पर दया करो। कोई है नहीं, जिसकी सेवा करो। बुरे
कैसे होओगे? कोई है नहीं, जिसको गाली
दो, जिसकी हत्या करो। तुम अकेले हो, तो
पाप-पुण्य खो गया। पाप-पुण्य सिक्के हैं समाज के।
तो
एक दफा आदमी धन इकट्ठा करता है, तिजोड़ी बनाता है। उस तिजोड़ी से भी अहंकार को
भरता है कि मैं कुछ हूं, देखो कितनी संपदा मेरे पास है! फिर
इससे हट जाता है तो--बुद्ध कहते हैं--वह पुण्य इकट्ठा करता है, फिर वह पुण्य की तिजोड़ी बनाता है।
और
ध्यान रहे, पुण्य की तिजोड़ी ज्यादा चालाकी की बात है। क्योंकि यह तिजोड़ी यहीं छूट जाए,
पुण्य की तिजोड़ी की आशा है कि साथ जाएगी, मौत
उसको नहीं छीन पाएगी।
मैं
एक गांव में था। उस गांव में मुसलमानों का एक संप्रदाय मानता है कि उनका पुरोहित
मरते वक्त चिट्ठी पर लिख देता है कि इस आदमी ने इतने-इतने पुण्य किए, इतना दान
किया; और दस्तखत कर देता है। वह चिट्ठी उस मरे हुए आदमी के
साथ कब्र में रख दी जाती है, ताकि वह भगवान को दिखा दे कि यह
पुरोहित का लिखा हुआ सर्टिफिकेट साथ लाया हूं।
बुद्ध
कहते हैं: इस मूढ़ता में मत पड़ना। क्योंकि तुम्हारा यह भगवान, तुम्हारी
दुकान का ही फैलाव हुआ। और तुम्हारा अहंकार नष्ट नहीं हो रहा है, खो भी नहीं रहा है। अब ब्रह्म के नाम से जुड़ रहा है, अब तुम ब्रह्म को पाकर रहोगे। अब, तब तक तुम्हें चैन
नहीं है, जब तक ब्रह्म तुम्हारी मुट्ठी में न आ जाए, जब तक तुम घोषणा न कर दो कि देखो, मैंने संसार में
ही जीता नहीं, ब्रह्म को भी जीतकर ले आया हूं।
तुम्हारा
मैं, तुम्हें स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देखने देता। तुम्हारा ब्रह्म भी
तुम्हारे भीतर रहेगा; तुम्हारा धन भी तुम्हारे भीतर; तुम्हारी वासना भी तुम्हारे भीतर; तुम्हारी
प्रार्थना भी तुम्हारे भीतर।
सुना
है मैंने, एक यहूदी धनपति एक हसीद फकीर के पास गया और उस धनपति ने कहा कि प्रार्थना
करना चाहता हूं, कितनी ही कोशिश करूं, लेकिन
प्रार्थना नहीं होती, वासना ही बनी रहती है। देना चाहता हूं,
दान करना चाहता हूं, लेकिन दान के पीछे भी लोभ
खड़ा रहता है; पाने की आकांक्षा खड़ी रहती है। छोड़ सकता हूं,
लेकिन वह भी सौदा है। कुछ मिलने की आशा, और
ज्यादा मिलने की आशा, तो छोड़ सकता हूं। और कितनी ही आंख बंद
करता हूं, किसी परमात्मा का कोई दर्शन नहीं होता। मैं से ही
भरा रहता हूं। क्या करूं? और क्या है इस उपद्रव का कारण?
उस
हसीद फकीर ने कहा,
आओ मेरे साथ। उठाया उस धनपति को, ले गया खिड़की
के पास। खिड़की पर स्वच्छ कांच है। बाहर वृक्ष हैं, पक्षी हैं,
आकाश में बगुले उड़ रहे हैं, बादल हैं, सूरज निकला है। उसने कहा, देखो बाहर। सब दिखाई पड?ता है। धनपति ने कहा, सब दिखाई पड़ता है, कांच बिलकुल निर्मल है, ट्रांसपेरेंट है, पारदर्शी है। फिर फकीर ले गया दूसरी दीवाल पर, जहां
एक आईना लटका है, और कहा, इस कांच में
और उस कांच में तुम कुछ फर्क पाते हो? धनपति खड़ा हुआ,
सिवाय खुद की शकल के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है।
दोनों
ही कांच हैं,
फकीर ने कहा, फर्क क्या है?
धनपति
हंसने लगा, उसने कहा, मैं समझ गया, रजत की
एक पर्त! उस कांच पर कोई रजत की पर्त नहीं है, इस कांच पर
इसके पीछे रजत की एक पर्त है। उस पर्त के कारण इसके आर-पार नहीं दिखाई पड़ता,
मेरी ही शकल मुझे दिखाई पड़ती है। समझ गया, उस
धनपति ने कहा, ऐसी ही रजत की पर्त मेरे चारों तरफ है। इसलिए
जब भी देखता हूं कुछ और, कोई परमात्मा नहीं, कोई ब्रह्म नहीं, बस मैं ही दिखाई पड़ता हूं।
रजत
कई तरह की हो सकती है। वह सांसारिक हो सकती है, आध्यात्मिक हो सकती है। लेकिन जब
तक आपके ऊपर वासना की कोई भी पर्त है--वही रजत है--तब तक आप अपने से घिरे हैं।
बुद्ध
ने एक बड़ी गहन घोषणा की,
पृथ्वी पर पहली बार उतने शुद्ध ढंग से घोषणा की, और वह घोषणा यह थी कि तुम्हारा ब्रह्म तुम्हारे अहंकार का ही विस्तार है।
इसलिए बुद्ध ने कहा, कोई ब्रह्म नहीं है। इसका तुम यह मतलब
मत समझ लेना कि ब्रह्म नहीं है। बुद्ध ने कहा, कोई परमात्मा
नहीं है। इससे तुम यह मतलब मत समझ लेना--अन्यथा भूल हो जाएगी--कि बुद्ध ने
परमात्मा को इनकार किया।
बुद्ध
ने जब कहा, कोई परमात्मा नहीं, कोई ब्रह्म नहीं, तब उन्होंने यह कहा कि तुम्हारा परमात्मा और तुम्हारा ब्रह्म, तुम्हीं हो। और तुम्हारा ही खेल है। तुम्हारे ही अहंकार के नए द्वार,
नया फैलाव, नया विस्तार। तुम्हारा ब्रह्म
तुम्हारे अहंकार का नया उपनिवेश है, वहां भी तुम अपने को ही
बसाने चले हो।
इसलिए
बुद्ध अति कठोर हैं,
क्योंकि उनकी करुणा महान है। वे कहते हैं: न कोई परमात्मा, न कोई आत्मा, न कोई मोक्ष, कुछ
भी नहीं है। बस, यह क्षण सब कुछ है।
और
अगर बुद्ध की बात समझ में आ जाए कि यही क्षण सब कुछ है और आगे कोई समय नहीं, पीछे कोई
समय नहीं--कोई शाश्वत, कोई सनातन नहीं--तो तुम कहां जाओगे?
वासना तुम्हारी दौड़ेगी कहां? सब उपाय छीन लिए,
सब मार्ग मिटा दिए, सब सेतु गिर गए। तुम यहीं
खड़े रह जाओगे।
पीछे
मौत है--इसे थोड़ा हम समझें--बुद्ध के हिसाब से। क्योंकि बुद्ध कहते हैं, जन्म के
पहले मौत। क्योंकि अगर तुम मरते न, तो तुम पैदा कैसे होते?
जैसे जन्म के बाद मौत, वैसे ही जन्म के पहले
मौत। मौत और जन्म एक ही सिक्के के दो हिस्से हैं। तुम मरे पिछले जन्म में, इसलिए इस जन्म में पैदा हुए। तुम इस जन्म में पैदा हुए, इसलिए फिर मरोगे। मरते ही तुम फिर पैदा हो जाओगे। अगर मौत एक कदम, तो दूसरा कदम हमेशा मौजूद है। अगर जन्म एक कदम है, तो
दूसरा कदम हमेशा मौजूद है।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं: पीछे मौत,
आगे मौत, जन्म बीच में है। हर दो मौतों के बीच
में एक जन्म है, हर दो जन्मों के बीच में एक मौत है। तुम
जहां भी खड़े हो, दोनों तरफ मौत है, आगे
भी, पीछे भी। यह स्थिति है। लटके हो तुम खाई-खड्ड पर,
और देखा कि एक मधु का छत्ता है--बुद्ध की कथा में फल नहीं है,
मधु का एक छत्ता है--और उससे एक बूंद मधु की लटक रही है, किसी भी क्षण गिर सकती है। तुम्हारी आंखें उसमें उलझ गई हैं। तुमने अपना
मुंह खोल लिया है। तुम प्रतीक्षा कर रहे हो। और फिर बूंद गिरती है और बुद्ध कहते
हैं, आह, कितनी मधुर! कैसा स्वाद!!
अगर
तुम दोनों मौतों को भी भूल सकते हो--बुद्ध की कथा का अर्थ है--तुम्हारे हाथ कमजोर
और शिथिल हुए जा रहे हैं,
जड़ें आज नहीं कल छूट जाएंगी, इसे भी भूल सकते
हो; और यह क्षण का स्वाद तुममें इतना गहन हो सकता है कि इस
क्षण में सिर्फ स्वाद रह जाए, कुछ और न रहे। क्योंकि जब तुम
मौत को भूलते हो, तब तुम स्वयं को भी भूल जाते हो। जब न मौत
है, न समय है, न स्थिति का कुछ पता रहा,
तब यह स्वाद तुम्हारी समाधि बन गया, तब यह
तुम्हारा ध्यान हो गया। और इसी क्षण में तुम मुक्त हो गए। इसी क्षण में तुमने जान
लिया, ब्रह्म क्या है।
तो
बुद्ध के लिए यह कथा बड़ा और अर्थ रखती है।
बुद्ध
के ध्यान का यही अर्थ है: प्रतिपल, पल-पल जीना। और प्रतिपल का स्वाद
इस समग्रता से लेना कि लेने वाला भी भीतर न हो। नहीं तो समग्रता खंडित हो जाती है।
अगर, जब
तुम्हारे मुंह में गिरे मधु की बिंदु और तुम भी वहां मौजूद रहो, तो स्वाद पूरा न हो पाएगा।
सिर्फ
स्वाद ही रह जाए। सिर्फ फैलते हुए मधु की मधुरता तुम्हारे भीतर रह जाए, तुम्हारी
पूरी आत्मा मधु की मधुरता हो जाए। कुछ भी न बचे। जानने वाला, भोगने वाला भी न हो। कर्ता भी न हो। कोई न हो। सिर्फ मधु की मधुरता फैलती
चली जाए। उस क्षण में समाधि है।
तो
बुद्ध कहते हैं कि प्रत्येक इंद्रिय समाधि का द्वार बन सकती है। इंद्रियों में
उपद्रव नहीं है बुद्ध के हिसाब से, अहंकार में उपद्रव है। अगर अहंकार
इंद्रियों का उपयोग करे, तो हर इंद्रिय बंधन बन जाती है। और
अगर अहंकार भीतर शांत हो जाए, तो हर इंद्रिय मुक्ति बन जाती
है।
ये
बड़ी विपरीत बातें हैं। लेकिन दोनों का आत्यंतिक परिणाम एक है।
तुम्हें
जो उचित लगे। मैं तुम्हें भ्रम में नहीं डालना चाहता, लेकिन
कथाओं के दोनों अर्थ कह देने जरूरी हैं। चुनाव फिर तुम स्वयं कर ले सकते हो।
तुम्हें अगर लगती हो पहली धारणा ठीक, तो तुम्हारे जीवन का पथ
बिलकुल अलग होगा। फिर तुम्हें अलग मार्ग से, जिसको तप कहें,
उससे यात्रा करनी होगी, संकल्प जिसको कहें,
उससे यात्रा करनी होगी। संघर्ष! एक-एक इंद्रिय को काटना और प्रत्येक
इंद्रिय से स्वयं को जाग्रत करना। तल्लीनता तुम्हारा मार्ग नहीं होगा, तुम्हारा मार्ग होगा संघर्ष-पूर्ण संकल्प। अपने को बचाना और खड़ा करना।
और
अंत में तुम्हें जो सबसे बड़ी तकलीफ आएगी, वह यह आएगी कि इन सब इंद्रियों को
जब तुम पार कर चुके होओगे और कोई इंद्रिय का तुम पर कोई प्रभाव न रह जाएगा,
तब तुम पाओगे, अब मैं जो शुद्ध रूप में बचा
हूं, इसको कैसे ब्रह्म में लीन करूं? क्योंकि
हर इंद्रिय से लड़कर तुम्हारा मैं मजबूत होगा, और शुद्ध होता
जाएगा।
इसलिए
हिंदू साधना-पद्धति में जो अंतिम सवाल उठता है, वह यह है कि तपस्वी अपने अहंकार को
कैसे लीन करे? क्योंकि तपस्वी का अहंकार बड़ा सघन हो जाता है।
साधारण सांसारिक आदमी के पास अहंकार जैसा क्या है? लेकिन
तपस्वी के पास है।
हिंदू-साधना
प्रथम चरणों में बड़ी सरल है। क्योंकि लड़ाई हमेशा आसान है। लड़ने को हम तैयार ही
बैठे हैं। लड़ना हम चाहते ही हैं--चाहे दूसरे से लड़ें, चाहे खुद
से लड़ें। हिंसा सुलभ है। काटना, पीटना, समझ में आता है। मिटाने में हम सबकी उत्सुकता है। विध्वंस हमारा रस है।
इसलिए तपश्चर्या एकदम गहरी अपील करती है।
कोई
आदमी को देखकर कांटों पर सोया, तुम भी रुक जाते हो, तुम
भी महिमा से भर जाते हो। कोई आदमी खड़ा है और वर्षों से बैठा नहीं, उसे देखकर तुम्हारा सिर झुक जाता है। किसी ने उपवास किया है, महीनों से जल भी नहीं पीया, उसके चरणों में तुम जाकर
लीन होना चाहते हो।
तपश्चर्या
जंचती है, क्योंकि तपश्चर्या आत्महिंसा जैसी है, अपने को
मिटाने की।
लेकिन
जो मिटा रहा है,
वह भीतर बन रहा है। शरीर मिटेगा, अहंकार मजबूत
होगा। हिंदू-साधना प्रथम चरण पर बड़ी सरल है, अंतिम चरण पर
बहुत कठिन है। क्योंकि फिर आखिरी छलांग इकट्ठी लगानी पड़ेगी। उस अहंकार को, जिसको इतने दिन सम्हाला और साधा, सजाया, शृंगार से भरा, इतना निखारा, शुद्ध
बनाया, वह स्फटिक-मणि की भांति हो गया। पहले दिन फेंकते तो
अनगढ़ पत्थर था। तब छोड़ने में कोई अड़चन न आती शायद। लेकिन इतनी तपश्चर्या के बाद
उसे इतना शुद्ध कर लिया कि अब उसे छोड़ने में बड़ी कठिनाई होगी। इसलिए अंतिम चरण में
हिंदू-साधक बड़ी कठिनाई का अनुभव करता है--कैसे इस स्फटिक-मणि को अब परमात्मा में
छोड़ दे?
बौद्ध-साधना
शुरू में बहुत कठिन है,
क्योंकि इंद्रिय के स्वाद को ध्यान बनाना अति कठिन बात है। इंद्रिय
का स्वभाव मूर्च्छा है, और ध्यान का अर्थ है अमूर्च्छा। तो
इंद्रिय के रस को अमूर्च्छित भोगना, इतनी पूर्णता से भोगना
कि भीतर न अहंकार बचे, न भोक्ता बचे, सिर्फ
भोग रह जाए, अति कठिन है। क्योंकि इंद्रियां हमें सुलाती
हैं। सोने के लिए ही हम उनकी शरण जाते हैं। और बुद्ध कहते हैं, शुरू से ही जागना। और अहंकार के द्वारा उनका नियंत्रण नहीं करना है,
अहंकार को हटा ही देना है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, न भीतर कोई आत्मा है, न कोई अस्मिता है--भीतर कोई है
ही नहीं। तुम मात्र रथ हो, वहां सारथि कोई है ही नहीं। इस
भाव से ही चलो।
तो
शुरू अत्यंत कठिन है। लेकिन अंत बड़ा सरल है। क्योंकि इस भाव से जो चलेगा, उसको एक
दिन ऐसा नहीं आएगा कि अचानक बढ़े हुए अहंकार को परमात्मा में फेंकना पड़े। वह तो
धीरे-धीरे पाएगा कि अहंकार बचा ही नहीं। उसका विसर्जन बड़ा सुगम होगा। एक दिन अचानक
वह पाएगा कि मैं तो हूं ही नहीं, ब्रह्म ही है। इस अवस्था को
बुद्ध ने निर्वाण कहा है।
लेकिन
अगर हम पूरी साधना-पद्धति को देखें, तो बात एक जैसी है। चाहे शुरू में
कठिनाई, अंत में सरलता; चाहे शुरू में
सरलता, अंत में कठिनाई। पूरे हिसाब में बात बराबर है। दोनों
तराजू बराबर हो जाते हैं।
इसलिए
प्रत्येक साधक को अपने लिए ही सोच लेना है। बुद्ध के साथ चलना हो तो शुरू में ही
कठिनाई है। शंकर के साथ चलना हो तो अंत में कठिनाई है। इसलिए तुम पर निर्भर है।
कठिनाई तो है ही,
उसे तो पार करना ही होगा। तुम पर निर्भर है, तुम्हारा
झुकाव, तुम्हारी नियति, तुम्हारा अपना
जीवन, व्यक्तित्व का ढांचा, तुम्हारा
टाइप। उसे तुम समझ लो, उस हिसाब से तुम आगे बढ़ो। पहुंच तुम
वहीं जाओगे।
बुद्ध
उसे निर्वाण कहते हैं,
शंकर उसे ब्रह्म कहते हैं। शंकर शाश्वत को साधकर वहां पहुंचाते हैं,
बुद्ध क्षण को साधकर वहां पहुंचाते हैं।
बुद्ध
का विचार इसीलिए भारत में बहुत जड़ें नहीं जमा सका, क्योंकि हिंदू-विचार की
लंबी परंपरा थी। और हिंदू-विचार ने क्षण का इतना विरोध किया था कि यह बात ही समझ
में आनी मुश्किल थी कि क्षण के द्वारा भी कोई सत्य को पहुंच सकता है। और
हिंदू-विचार ने इंद्रियों का इतना निरोध और विरोध किया था, क्योंकि
पतंजलि ने पूरी परिभाषा ही योग की की: चित्तवृत्ति-निरोध। वह वृत्ति और चित्त को
लड़ाना ही था। इसकी लंबी परंपरा थी। इस धारा में बुद्ध की बात बिलकुल विरोधाभासी
मालूम पड़ी और लगा कि इससे हिंदू-विचार का सारा तंत्र टूट जाएगा।
इसलिए
हिंदुओं ने जैसा दुश्मन बुद्ध में देखा, वैसा उनको कहीं और दिखाई नहीं पड़ा।
महावीर से हिंदुओं ने उतना विरोध नहीं किया, इसलिए जैन
हिंदुस्तान में बच सके। क्योंकि महावीर की भी साधना संकल्प की है, इंद्रियों के ऊपर वश पाने की है। साधना का मौलिक ढंग हिंदू है। इसलिए जैन
में और हिंदू में कोई बुनियादी फासला नहीं है। सैद्धांतिक बातचीत का फर्क होगा।
लेकिन ढांचा व्यक्तित्व का एक है।
इसलिए
जैन हिंदुस्तान में बच सके,
लेकिन बौद्ध को बचने देना असंभव हुआ। बुद्ध को तो उखाड़ना ही पड़ेगा।
उखाड़ने का कारण है, क्योंकि बिलकुल विरोधी दृष्टि है यात्रा
की। वह जो मधु का बिंदु टपका है, उसके स्वाद में इस भांति लीन
हो जाना है कि वह मधु-बिंदु ब्रह्म हो जाए। यहां मधु का बिंदु था हिंदू-धारणा में,
इंद्रिय, माया। बुद्ध की धारणा में मधु-बिंदु
हो गया ब्रह्म, परम सत्य, वही।
दोनों
सही हैं। और जब मैं कहता हूं दोनों सही हैं, तो बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। क्योंकि
सदा आसान है एक को सही कहना और दूसरे को गलत कहना। क्योंकि दोनों विपरीत दिखाई
पड़ते हैं। और धर्म की सबसे बड़ी कला यही है कि जहां भी आप विपरीत को पाएं, वहां जल्दी मत कहना कि दूसरा गलत है। क्योंकि धर्म, विपरीत
को जोड़ने का ही नाम है। जल्दी मत करना। क्योंकि विपरीत को मन तत्क्षण कहना चाहता
है, यह गलत है। क्योंकि मन यह कहता है कि दो में से एक ही
ठीक हो सकता है। दोनों कैसे ठीक हो सकते हैं?
जीवन
मन से बहुत बड़ा है। मन बहुत संकरा है। उसमें एक ही ठीक हो सकता है। जीवन में दोनों
ठीक हो सकते हैं। बुद्धि बड़ी छोटी है। वहां जगह नहीं है विरोधी को समाने की।
अस्तित्व विराट है। वहां विरोधी समाया हुआ है। वहां विरोधी भी साथ-साथ है। जितनी
तुम्हारी धार्मिक दृष्टि पैनी होगी, उतना ही तुम पाओगे, सब विरोध समाहित हो जाते हैं।
प्रश्न:
भगवान श्री, आप हमें समर्पण के लिए कहते हैं और
साथ ही यह भी कहते हैं कि मुझे जकड़ मत लो।
और अब जो हमारी हालत है, उससे लगता है कि समर्पण के
नाम पर आपको जकड़ ही लिया है।
अब जैसे आपके बिना हम मर ही जाएंगे!
ऐसा होने की वजह क्या है?
ऐसे में हमें क्या करना चाहिए?
मर
जाना चाहिए! वही समर्पण का अर्थ है। बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। मरने में कुछ
भी बुराई नहीं है,
सारी बुराई बचने में है। और क्या है बचाने को, जिसके लिए हम इतने चेष्टारत रहते हैं कि बचाओ! बचाओ! बचाओ! क्या है बचाने
को? एक क्षण भी गौर से देखोगे, शांत
बैठकर सोचोगे, तो तुम्हारे पास बचाने को भी क्या है?
और
जब तुम्हें यह दिखाई पड़ जाएगा कि बचाने को कुछ भी नहीं है, तो मरने
का भय तत्क्षण खो जाएगा। क्योंकि मरेगा कौन? जब बचाने को कुछ
नहीं, तो खोना क्या है? यह डर कि कहीं
कुछ खो न जाए, इस भ्रांति पर खड़ा है कि कुछ मेरे पास है। और
तुम अपने घर के द्वार खोलकर कभी देखते भी नहीं हो कि वहां कुछ है? शायद इसी डर से नहीं देखते कि कहीं दिखाई न पड़ जाए कि कुछ भी नहीं है।
क्योंकि फिर यह जो इतना शोरगुल मचाए रखते हो बचाने का, बचने
का, यह भी न कर सकोगे। फिर बड़े असहाय मालूम पड़ोगे। तिजोड़ी न
हो, लेकिन शोरगुल तो हम मचाए ही रखते हैं कि कहीं चोरी न हो
जाए। उससे भी ऐसा लगता है कि कुछ है।
मरने
का डर क्या है?
उसमें इतना भय क्या है? तुम्हारे मिटने से
क्या खोएगा? यह गहन से गहन सवाल है, जो
साधक को अपने भीतर पूछना चाहिए कि मैं अगर मिट गया, तो हर्ज
क्या है? क्या होगा मेरे मिटने से? अगर
मैं नहीं हो जाऊं, तो इस नहीं स्थिति को स्वीकार करने में
बेचैनी क्या है? क्योंकि जो है की स्थिति है, वहां कोई सुख तो है नहीं। वह मैंने जो पीछे कहा, बस
आशा है कि शायद सुख कभी होगा।
तुम
जो भी हो, वहां पीड़ित और परेशान हो; जैसे भी हो, वहां पीड़ित और परेशान हो। फिर भी तुम कहते हो कि यह कहीं खो न जाए!
नहीं, मर जाओ!
मरना ही बड़ी से बड़ी कला है। और जो मरना सीख लेता है, उसे ही
जीवन का पूरा उत्सव उपलब्ध होता है।
जिस
क्षण तुम अपने को छोड़ दोगे,
उस क्षण तुम्हारे भीतर जीवन की सारी शक्तियां एक अनूठे नृत्य में
लीन हो जाएंगी। तुम जब तक अपने को बचा रहे हो, उस बचाने के
कारण नृत्य मुक्त नहीं हो पाता। तुम इतने डरे हुए हो कि तुम हंस नहीं सकते। तुम
इतने भयभीत हो कि तुम्हारे भीतर फूल खिल नहीं सकते। तुमने अपने ही जीवन को अपने ही
हाथों से इस बुरी तरह कस लिया है कि तुम्हारे हाथ ही तुम्हारी गर्दन को फांसी का
फंदा बन गए हैं। और तुम दबाए जा रहे हो कि कहीं मैं मिट न जाऊं। और मिटने की
तुम्हें जो प्रतीति हो रही है, वह तुम्हारे अपने ही हाथों की
है। एक दुष्टचक्र पैदा हो जाता है।
एक
मित्र मेरे पास आते हैं। दिनभर उन्हें सिरदर्द रहता है। तो सिरदर्द से बचने को रात
शराब पी लेते हैं। शराब की वजह से दूसरे दिन सुबह से सिरदर्द शुरू हो जाता है। अब
क्या करना चाहिए?
सांझ को जब मुझे मिलते हैं तो वह कहते हैं, क्या
करूं! पीना पड़ेगी, क्योंकि यह सिरदर्द है। सुबह जब मिलते हैं
तो शिकायत करते हैं कि कैसे इससे छुटकारा हो? क्योंकि पी
लेता हूं तो सिरदर्द हो जाता है।
बस
यह जीवन की स्थिति है। एक तरफ तुम अपना दुख पैदा करते हो और दूसरी तरफ दुख से बचना
चाहते हो। उनकी इच्छा क्या है अब? मैंने उनसे कहा कि तुम्हारी इच्छा कुछ ऐसी है
कि शराब पीना तो जारी रहे और सिरदर्द न हो। उन्होंने कहा, बात
आपने बिलकुल पकड़ ली। बस यही है।
और
यह हो नहीं सकता। तुम्हारी भी इच्छा यही है कि तुम भी रहो और मुक्ति भी हो जाए। यह
नहीं हो सकता। तुम मरो,
तो मुक्ति। तुम बचो, तो बंधन। क्योंकि तुम ही
बंधन हो। तुम्हारा न होना ही मोक्ष है।
आज इतना ही।
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