नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-चौथा
दिनांक 28 मई सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
मुन्नट्ठी में हवा
प्रकृति एक पड़ाव है स्वभाव और संस्कार के बीच, वहां थोड़ी
देर विश्राम जरूरी है। फिर वहां से आगे की यात्रा शुरू होती है, वह भीतर की तरफ है।
प्रश्न:
भगवान श्री, बुद्ध को ज्ञान हुआ वृक्ष के नीचे।
सुकरात के बारे में आप बताते हैं कि जिस दिन उसे ज्ञान की घटना
घटी, वह वृक्ष के नीचे खड़ा था।
कृष्णमूर्ति के जीवन में भी इसी तरह का उल्लेख है
और आप स्वयं भी ज्ञान के दिन घर से निकलकर वृक्ष पर गए थे।
तो क्या वृक्ष का ज्ञान की घटना से कोई इसोटेरिक संबंध है?
और यह भी समझाएं कि ज्ञान जब आकस्मिक रूप से घटता है,
तो आपको इसकी पूर्व-सूचना कैसे मिली थी, जो आप घर
से निकलकर वृक्ष पर चढ़े थे?
ज्ञान
का कोई भी संबंध किसी बाह्य वस्तु से नहीं है। हो भी नहीं सकता। ज्ञान है आंतरिक
घटना। आपमें घटती है और आपके कारण ही घटती है। रुकती है तो भी आपके ही कारण। नहीं
घट पाई आज तक,
तो भी आपके ही कारण। आपके अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है अज्ञान
के लिए। इसलिए ज्ञान के लिए भी आपके अतिरिक्त और कोई भी कारण नहीं बन सकता।
ध्यान
रखें, जिस कारण घटना रुकती है, उसी कारण सहायता मिल सकती
है। कोई वृक्ष आपके अज्ञान का कारण नहीं है। बोधि-वृक्ष बुद्ध के ज्ञान में बाधा
नहीं था, तो सहयोगी भी नहीं हो सकता। वृक्ष का कोई जिम्मा
नहीं है। बुद्ध का वृक्ष से संबंध भी क्या? बुद्धत्व नहीं
घटा, तो खुद बुद्ध ही कारण थे। बुद्धत्व घटा, तो भी बुद्ध ही कारण थे।
इसे
तो पहले आधारभूत सिद्धांत की भांति समझ लें। क्योंकि हमारे मन की आम-वृत्ति है, उत्तरदायित्व
को किसी पर छोड़ना। बुरा हो तो हम सोचते हैं, कोई और; शायद तारे या ग्रह-नक्षत्र, परिस्थिति, लोग; भला हो, तो भी हम सोचते
हैं, कहीं और हमसे उसका स्रोत है, अलग।
मन
की इस आदत का कारण है। इससे मन खुद जिम्मेवारी से मुक्त हो जाता है। स्वयं का
दायित्व शून्य हो जाता है। तो कोई भाग्य का नाम लेता है, कोई
परमात्मा का। कोई कहता है, भाग्य में जब होगा तब घटेगा। इससे
आपको कुछ करने का, कुछ दिशा में यात्रा करने का, कोई श्रम उठाने का प्रश्न नहीं उठता। और परमात्मा की जब मर्जी होगी तब
होगा।
आपके
अतिरिक्त और किसी की मर्जी न तो साथी है, न विरोधी है। आपकी मर्जी के
अतिरिक्त और कोई भाग्य नहीं है।
पर
फिर भी, बुद्ध वृक्ष के नीचे थे जब ज्ञान घटा, सुकरात भी एक
वृक्ष से टिका हुआ खड़ा था, महावीर भी एक वृक्ष के पास थे। तो
क्या कारण होगा? ये सारी घटनाएं सांयोगिक नहीं हो सकतीं।
कारण
केवल इतना है,
जैसा मैं कल आपको कह रहा था: व्यक्ति के ऊपर पहली पर्त है संस्कृति
की, समाज की, संस्कार की; दूसरी पर्त है प्रकृति की। और तीसरा, जो आधारभूत
स्वभाव है, वह है परमात्मा का।
तो
इसे हम ऐसा समझें,
संस्कृति ऊपरी पर्त है, प्रकृति उसके बाद की
गहरी पर्त है। और स्वभाव, स्वरूप, आधार
है। या ऐसा समझें कि स्वरूप है केंद्र, स्वभाव है केंद्र,
प्रकृति है उसकी परिधि और उस प्रकृति के ऊपर भी संस्कारों का जाल
है।
वृक्ष
केवल प्रकृति का प्रतीक है। ये सारे लोग संस्कृति और समाज को छोड़कर वन में चले गए।
इसे प्रतीक के अर्थ में समझें। ये सारे लोग संस्कार को छोड़ दिए और प्रकृति में चले
गए। घटना प्रकृति में घटी। संस्कृति में नहीं घट पाई। घटना वहां घटी जहां मनुष्य
का किया हुआ कुछ भी न था। जहां मनुष्य का कोई चिह्न न था, हस्ताक्षर
न थे। जहां मनुष्य के नियम, विधियां, मनुष्य
का बनाया हुआ कृत्रिम जाल बिलकुल न था। वहां घटना घटी। पर वह घटना का कारण नहीं
है। ये लोग संस्कृति से हटे और प्र्रकृति में चले गए।
और
फिर प्रकृति में इन्होंने प्रकृति से हटने को साधा और प्रकृति को भी छोड़ा।
संस्कृति को छोड़कर तो जंगल जा सकते हैं, फिर जंगल को छोड़कर कहां जाइएगा?
संस्कृति और प्रकृति दोनों बाहर हैं, तो
संस्कृति से प्रकृति में जा सकते हैं, प्रकृति से संस्कृति
में वापस आ सकते हैं। लेकिन अगर दोनों को छोड़ना हो, तो कहां
जाइएगा?
फिर
बाहर जाने का उपाय नहीं बचता, भीतर जाने का ही उपाय बचता है। समाज को छोड़कर
हिमालय चले जाएं, हिमालय को छोड़कर वापस नगर लौट आएं, तो दोनों ही बाहर हैं। जो व्यक्ति संस्कार को छोड़कर प्रकृति के जगत में
गया, अब कहां जाए? अब वह प्रकृति को भी
छोड़ेगा, आंख बंद करेगा, अपने भीतर
जाएगा।
तो
पहली यात्रा है,
संस्कृति से प्रकृति। और दूसरी यात्रा है, बाहर
से भीतर। ये घटनाएं प्रकृति में घटीं, प्रकृति में घट सकती
थीं, क्योंकि वहां ही दूसरी यात्रा शुरू होती है।
प्रकृति
एक पड़ाव है स्वभाव और संस्कार के बीच, वहां थोड़ी देर विश्राम जरूरी है।
यह वृक्ष के नीचे विश्राम करते हुए बुद्धपुरुषों की जो कथा है, यह संस्कार छोड़कर, समाज छोड़कर, प्रकृति के नीचे विश्राम करते हुए लोगों की कथा है। फिर वहां से आगे की
यात्रा शुरू होती है, वह भीतर की तरफ है।
बुद्धत्व
वृक्ष के नीचे नहीं घटता,
बुद्धत्व तो स्वयं के भीतर घटता है। वृक्ष पड़ाव था।
ऐसा
समझ में आ जाए तो आपकी साधना का पथ भी सुगम हो जाएगा। पहले संस्कृति को साफ करना
है। जो-जो मनुष्य ने लिखा है आपके ऊपर, उसको हटा देना है। उसके हटते ही आप
वृक्ष के नीचे आ जाएंगे, प्रकृति में आ जाएंगे। प्रकृति में
आने का अर्थ है, जैसे शुद्ध बच्चा, बालपन,
भोलापन; वह सब गणित, होशियारी,
चालाकी, जो समाज ने दी थी, छूट गई; निर्दोषता, एक
पवित्रता का उदय हुआ। अब आप न बुरे हैं न भले हैं।
कोई
वृक्ष बुरा और भला नहीं है। किसी वृक्ष को आप साधु-असाधु में नहीं बांट सकते। अगर
एक वृक्ष के नीचे आप बैठे हों और वह आपके सिर पर फल गिराकर चोट भी पहुंचा दे, तो भी आप
यह नहीं कह सकते कि यह दुष्ट है। वृक्ष आपके ऊपर गिर जाए और आपकी हत्या हो जाए,
तो भी कोई यह नहीं कहेगा कि यह हत्यारा है। क्योंकि वृक्ष की चेतना
अभी विभाजित नहीं बुरे और भले में। अगर आप वृक्ष के नीचे मर भी गए, तो यह संयोग है, वृक्ष जिम्मेवार नहीं। क्योंकि
वृक्ष की खुद की मंशा आपको मारने की नहीं थी।
प्र्रकृति
में आने का अर्थ है,
बुरे और भले की धारणा से पीछे हट जाना, वहां
पहुंच जाना जहां शुद्ध निर्विकार प्रकृति है, जहां कोई
द्वंद्व नहीं, जहां कोई चुनाव नहीं, जहां
अपनी कोई मंशा नहीं। जहां जो हो रहा है, उसका स्वीकार है;
जहां हम नियंत्रण नहीं करते हैं, सिर्फ बहते
हैं।
यही
है वृक्ष, इसी वृक्ष के नीचे बुद्धत्व घटता हुआ मालूम पड़ा है। और जब भी आप मनुष्य से
हटते हैं, तभी आप हलके हो जाते हैं। शायद आपको खयाल में न
आया हो कि पहाड़ पर जाकर जो शांति मिलती है, वह पहाड़ के कारण
नहीं मिलती, मनुष्य से हटने के कारण मिलती है।
आप
अकेले एक रास्ते पर घूमने निकले हैं, कोई भी रास्ते पर नहीं है। फिर
अचानक एक आदमी रास्ते पर आ जाता है, आप तत्क्षण बदल जाते हैं,
आपकी चाल बदल जाती है, आपकी आंख बदल जाती है,
आपके मन पर एक नया बोझ आ जाता है। समाज प्रविष्ट हो गया। अभी तक आप
अकेले थे। वृक्ष थे, पक्षी थे, आकाश था,
तारे थे, पर आप अकेले थे। कोई आपके ऊपर निर्णय
लेने वाला नहीं था कि आप गलत कि ठीक, कि चाल उचित या अनुचित।
आप चल रहे थे अपनी मौज में, गीत गुनगुना रहे थे, हंस रहे थे, अकेले थे। यह जो एकाकीपन था, इसमें आप छोटे बच्चे की भांति हो गए थे। तो हो सकता है अपने से बात कर रहे
हों, मुंह बिचका रहे हों, नाच रहे हों।
लेकिन एक आदमी अचानक रास्ते पर आ गया, सब बदल गया, बचपन खो गया, आप वापस लौट आए अपने गणित, अपने हिसाब में। यह आदमी क्या कहेगा! समाज मौजूद हो गया। अब आप ऐसा
व्यवहार करेंगे जैसा समाज चाहता है। अन्यथा आप विक्षिप्त मालूम होंगे। अब आप
सम्हलकर चलेंगे। शिष्टाचार, सभ्यता सब वापस लौट आई।
एकांत
में, अकेले में जो सुख मिलता है, वह समाज से छुटकारे का
सुख है। क्योंकि समाज एक सदा बना रहने वाला कारागृह है, जो
सब तरफ मौजूद है।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं, ध्यान में रस आता है, आनंद आता है, पर कोई देख रहा है, इससे हम पूरे नहीं उतर पाते। कोई देखेगा, तो क्या
कहेगा, इससे बाधा खड़ी हो जाती है।
दूसरे
की आंख निर्णायक है। क्योंकि दूसरा सिर्फ देखेगा नहीं, दूसरा
निर्णय लेगा कि तुम ठीक हो कि गलत हो। दूसरा सोचेगा तुम्हारे संबंध में कुछ।
तुम्हारे संबंध में उसका कोई मंतव्य रहा है, तो बदलेगा। अब
तक सोचा था तुम भले आदमी हो, सोचा था तुम संस्कारी हो,
सोचा था कि तुम सभ्य हो, और यहां तुम्हें रोते,
चीखते, चिल्लाते देखा तो उसकी धारणा तुम्हारे
संबंध में बदल जाएगी।
और
हम लोगों के मत से जीते हैं, उनका ओपिनियन बड़ा मूल्यवान है। क्योंकि उनके
साथ जीना है। कल इस आदमी से कुछ काम करवाना होगा, तो वह
दफ्तर में भीतर ही नहीं आने देगा। इसे आप नमस्कार करोगे, तो
वह बचकर निकल जाएगा। क्योंकि कहीं कोई देख न ले कि इस पागल से इनका संबंध है,
दोस्ती है, मित्रता है, पहचान
है। तो जरूर इसमें भी कुछ पागलपन होगा।
मत
का बड़ा डर है और समाज मत का एक जाल है हमारे चारों तरफ। एक महिला ने मुझे आकर कहा
कि जाती हूं ध्यान देखने,
लेकिन वहां कर न सकूंगी। क्योंकि वहां सौ दो सौ देखने वाले लोग
इकट्ठे हो जाते हैं। उनमें से कई लोग परिचित हैं। पश्चिम से आने वाले साधक जितनी
सरलता से ध्यान कर पाते हैं, उतना आप नहीं कर पाते। उसका
कारण है कि यहां उनका कोई परिचित नहीं है। और आपके मत का उन्हें कोई मूल्य नहीं है,
आपसे कुछ लेना-देना नहीं है।
आप
भी इंग्लैंड या अमरीका में जाएं तो इतने ही आनंद से ध्यान कर सकते हैं। क्योंकि
क्या प्रयोजन है?
वह जो समाज है, आपका समाज नहीं है। वे जो लोग
हैं, न होने के बराबर हैं। उनकी आंखें कुछ भी निर्णय लें,
आपका क्या बिगाड़ पाएंगी? पर जो आंखें आपको
पहचानती हैं, जिनसे आपके संबंध हैं, जिनसे
आपका लेना-देना है, जिनसे आपका व्यवसाय है, उनसे डर है। उनसे स्वार्थ को नुकसान पहुंच सकता है।
और
उनकी आंखों में आपकी जो प्रतिमा है, वह बदले, तो
आपको बेचैनी होगी। क्योंकि आपकी अपने पास अपनी तो कोई समझ नहीं है; दूसरे जो आपको समझते हैं, वही आप अपने को समझते हैं।
अगर दूसरे कहते हैं, आप बड़े सुंदर हैं, तो आप समझते हैं आप सुंदर हैं। और दूसरे कहते हैं कि आप बहुत भले हैं,
सज्जन हैं, तो आप समझते हैं कि आप भले और
सज्जन हैं। और दूसरे अगर समझने लगें कि आप पागल हैं, तो
ज्यादा दिन न लगेंगे कि आपको भी शक शुरू हो जाएगा। और बहुत ज्यादा देर न लगेगी कि
आप भी मानने लगेंगे कि आप पागल हैं।
मनस्विद
कहते हैं कि हम बहुत से बच्चों की बुद्धि का विकास रोक देते हैं, क्योंकि
बचपन से ही हम उनको इस तरह देखते हैं, जैसे वे मूढ़ हैं। अगर
आप एक बच्चे को निरंतर कहते हैं कि तू मूढ़ है, तेरे में
बुद्धि नहीं, कब तुझ में बुद्धि आएगी, तो
उसमें कभी भी न आएगी। और ध्यान रहे, यह पाप आप कर रहे हैं
उसमें बुद्धि न आने का। उसको भी धारणा पक्की हो जाएगी कि जब पिता कहते हैं,
तो ठीक ही कहते होंगे; और जब मां भी कहती है,
तो ठीक ही कहती होगी; और जब स्कूल का गुरु भी
कहता है, तो ठीक ही कहता होगा; जब सभी
मानते हैं कि मैं मूढ़ हूं, तो यह बच्चा अपने को मूढ़ सिद्ध
करने में लग जाएगा, क्योंकि लोगों की धारणा तोड़ना ठीक नहीं।
इतने लोग जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। और जब भी यह मूढ़
सिद्ध होगा, तो यह कहेगा कि यह होने ही वाला था, क्योंकि मैं मूढ़ हूं, क्योंकि सभी मुझे मूढ़ मानते
हैं।
मनस्विद
कहते हैं कि कोई भी धारणा बार-बार दोहराई जाए, तो चित्त में बैठ जाती है और
परिणामकारी हो जाती है।
तो
जो समाज आपके संबंध में कहता है, उसी से आपने अपनी प्रतिमा का निर्माण किया है।
आप उस प्रतिमा के लिए लोगों की आंखों पर निर्भर हैं। वह प्रतिमा उधार है। उस
प्रतिमा से केवल वे ही मुक्त हो सकते हैं जिन्होंने अपनी वास्तविक छवि का आविष्कार
कर लिया हो, जिन्होंने ठीक से पहचान लिया हो कि मैं कौन हूं?
आत्मज्ञानी ही उधार प्रतिमा से मुक्त हो सकता है। और उधार प्रतिमा
को जब तक आप न तोड़ें, तब तक आत्मज्ञानी नहीं हो सकते।
इसलिए
महावीर या बुद्ध वन की तरफ चले जाते हैं। वह जंगल का आकर्षण नहीं है, आपका
विकर्षण है। पहाड़ नहीं बुला रहे हैं, आप हटा रहे हैं। पहाड़
प्यारे हैं, क्योंकि वे निर्णय नहीं करते हैं। अगर आप वहां
अलमस्त होकर नाचेंगे, तो कोई पहाड़ यह न कहेगा कि यह पागल है।
वृक्ष
संतों जैसे हैं। वे आपके संबंध में कोई विचार नहीं करते और कोई मंतव्य जाहिर नहीं
करते। आप बैठे हों,
ठीक। खड़े हों, ठीक। रोते हों, हंसते हों, सब ठीक। वृक्ष को आप स्वीकार हैं जैसे आप
हैं। वृक्ष आपके होने में किसी तरह की बाधा न देगा।
लेकिन
आदमी बहुत विचित्र है। आदमी स्वीकार ही नहीं करता कि आपके भी होने का कोई स्वातंत्र्य
है, कि आप अपने जैसे होने के अधिकारी हैं। आदमी कहता है, मैं बाधा डालूंगा, मैं तुम्हें बनाऊंगा। हर आदमी
एक-दूसरे को बनाने में लगा है। पत्नी पति को सम्हालने में लगी है, पति पत्नी को सम्हाल रहा है, बाप बेटे को सम्हाल रहा
है, बेटे भी बाप को सम्हाल रहे हैं। एक-दूसरे की नजरें
सैनिकों की तरह पहरा दे रही हैं। आंखें नहीं हैं, संगीनें
हैं। और उनसे हम मंतव्य जाहिर कर रहे हैं, ठीक या गलत। निंदा,
प्रशंसा चारों तरफ जारी है।
इस
जाल के बीच स्वयं को पाना बड़ा कठिन है। इसलिए लोग जंगल की तरफ हट गए। इसलिए बुद्ध
को राजमहल छोड़ देना पड़ा।
ध्यान
रहे, मेरा जोर इस पर है कि राजमहल छोड़ने का सवाल नहीं है। जंगल बुला नहीं रहा
है। यह जो भीतर हमारा संस्कारों का जाल है, यह राजमहल से इस
बुरी तरह जुड़ा है कि राजमहल छोड़े बिना टूटेगा नहीं, राजमहल
छोड़कर भी टूट जाए तो काफी। डर तो यह है कि शायद राजमहल के बिना भी पीछा करेगा।
बुद्ध
अपना महल छोड़ दिए,
तो जिस राज्य में प्रवेश करते थे, उसी राज्य
का सम्राट उनके पास आकर प्रार्थना करता था कि यह आप क्या कर रहे हैं! अगर पिता से
न बनती थी--क्योंकि पिता के मित्र थे बाकी राजे बिहार के--अगर पिता से न बनती हो,
तो मेरा राजमहल है, मेरी युवा लड़की है,
विवाह कर लें। आधा राज्य सम्हाल लें। पर यह शोभा नहीं देता। राजा के
पुत्र और भिखारी की तरह घूमते हैं, यह शोभा नहीं देता। पिता
से न बनती हो, कोई हर्ज नहीं, हम हैं,
पिता के मित्र हैं, तुम्हारे पिता जैसे हैं।
बुद्ध
हंसते थे। कहते थे,
पिता से बनने न बनने का कारण नहीं है। राजमहल छोड़ने न छोड़ने की बात
नहीं है। यह अपने को बदलने की बात है। और जब पिता के महल में अपने को न बदल सका,
तो तुम्हारे महल में बदलना तो और भी मुश्किल हो जाएगा। जब अपनों के
बीच बदलना इतना मुश्किल हुआ, तो परायों के बीच बदलना और भी
मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि अपने थोड़ा-बहुत क्षमा भी कर दें, पराए
तो क्षमा भी नहीं करते। परायों की दृष्टि तो बहुत कठोर होती है, उनका निर्णय तो कठोर होता है। अपना थोड़ा दया-ममता करता है, भूल भी करें, तो निंदा नहीं करता, आंख हटा लेता है। लेकिन पराया! पराया क्यों आंख हटाएगा?
बुद्ध
को छह वर्षों तक निरंतर निमंत्रण मिलते रहे। और जब बुद्ध के पिता को खबर मिलती थी
कि बुद्ध भीख मांगते हैं सड़कों पर, तो वे कहते थे, कैसा पागल है! हमारे पास सब है और हमारे वंश में कभी कोई भिखमंगा नहीं हुआ,
हम सदा सम्राट रहे हैं। इसको क्या पागलपन सवार हुआ है?
पिता
को निश्चित ही लगता रहा होगा कि बुद्ध पागल हैं। इसी आंख से बचने को जंगल जाना
पड़ा। काश, पिता स्वीकार कर लेते कि बुद्ध का होने का यह ढंग है, और यह ढंग भी स्वीकृत है!
इस
जगत में अनंत-अनंत ढंग हैं होने के, और प्रत्येक आत्मा को अधिकार है कि
वह जो हो सके, जो होना चाहे, जो उसके
होने की आंतरिक क्षमता हो, जो उसकी नियति है, उसको पा ले।
और
प्रेम का अर्थ ही यही है कि हम दूसरे को वह हो जाने दें, जो वह हो
सकता है। उसके बीज को हम उसके वृक्ष के फल तक पहुंच जाने दें, हम बाधा न दें। हम गुलाब से न कहें कि तू चमेली हो जा, और हम चमेली को कमल होने का उपदेश न दें, हम चमेली
को चमेली होने दें। पानी दें, सीचें, फिक्र
करें, बाकी चमेली के होने में बाधा न डालें। प्रेम का अर्थ
ही यही है। इसलिए प्रेम बिलकुल नहीं है जगत में।
काश, राजमहल
में प्रेम होता, तो बुद्ध को छोड़ना न पड़ता। क्योंकि प्रेम
स्वीकार करता है कि तुम ऐसे हो, प्रेम बदलने की कोशिश नहीं
करता। बदलने की कोशिश हिंसा और घृणा का हिस्सा है। बदलने की कोशिश एक तरह की
सर्जरी है सूक्ष्म। हम तुम्हें काटते हैं, निखारते हैं। हम
तुम्हारा उपयोग एक पत्थर की तरह करते हैं। और प्रतिमा हम अपनी तुम्हारे भीतर
बनाएंगे, तो छैनी उठाकर हम हथौड़े से तुम्हें काटेंगे। और जब
तक तुम वैसे न हो जाओ जैसा हम चाहते हैं, तब तक हम पाएंगे कि
तुम गलत हो।
और
हर आदमी एक-दूसरे को निखार रहा है। और यह निखारने में कोई निखरता नहीं, सिर्फ
विकृति आती है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वही हो सकता है, जो
वह होने की क्षमता लेकर पैदा हुआ है। दुनिया में कोई उपाय नहीं उसे अन्यथा बनाने
का। और जब भी हम अन्यथा बनाने की कोशिश करेंगे, तो यह
दुष्परिणाम होगा कि वह जो हो सकता था, हो न पाएगा; और वह जो हो ही नहीं सकता, वह तो हो कैसे सकता है?
वह पंगु हो जाएगा, त्रिशंकु की भांति अटका रह
जाएगा। उसकी विधि, उसके जीवन की नियति बदल गई और वह जो नहीं
हो सकता था, वह तो हो नहीं सकता है।
इसलिए
हम सब अधबने,
कुरूप जीते हैं, अधबने और कुरूप ही मर जाते
हैं। हमारे बीज कभी ठीक फूलों तक नहीं पहुंच पाते। इसलिए दुनिया में इतने थोड़े
बुद्ध, इतने थोड़े महावीर दिखाई पड़ते हैं।
हर
आदमी क्षमता लेकर पैदा होता है बुद्धत्व की। लेकिन इतने लोग उसे बनाने में लगे
हैं। कहते हैं कि अगर बहुत रसोइए हों, रसोई बिगड़ जाती है। यहां एक-एक
आदमी के पीछे इतने कलाकार लगे हैं, इतने मूर्तिकार, इसके मूर्ति के बनने का कोई उपाय ही नहीं है, यह बन
ही नहीं सकती। मां कुछ और बना रही है बेटे को, बाप कुछ और
बना रहा है, दादा कुछ और बना रहा है, चाचा
कुछ और, भाई कुछ और सोच रहे हैं, शिक्षक
कुछ और उपाय कर रहा है, राजनेता कुछ और आकांक्षा रखता है। ये
सब मिलकर उसे बना रहे हैं। ये सभी उसके मिटाने वाले हैं। ये सब विध्वंसक हैं।
दूसरे को बनाने की कोशिश विध्वंस है।
हम
साथ दे सकते हैं,
सहारा दे सकते हैं, पर दूसरा वही बने जो उसकी
अंतर-नियति तय करती है। पर बड़ा कठिन है, क्योंकि हम सहारा ही
क्यों देंगे! सहारा तो हमारा शोषण है। हम सहारा तब देते हैं सौदे की तरह, जब तुम हमारी मानने को राजी हो। बाप भी बेटे से कहता है, अगर तू मेरी सुनने को राजी नहीं तो ये दरवाजे तेरे लिए बंद हैं।
ये
दरवाजे कोई प्रेम के कारण नहीं खुले हैं, बाप जो हिंसा कर रहा है, उसका सौदा है। मेरे जैसा, मैं जो चाहता हूं, मेरा अहंकार जो तय करता है, वैसा तू हो सकता हो,
तो रोटी-रोजी, यह मकान तेरे लिए है। अगर तू
मेरे जैसा नहीं हो सकता, तो फिर मेरा तुझसे क्या संबंध?
अगर तुझे अपने ही जैसा होना है, तो तू अपने
पैरों पर खड़ा हो जा।
पति
और पत्नी के बीच जो निरंतर चलती कलह है सारी पृथ्वी पर, उसका कारण
पति-पत्नी के भीतर नहीं है, उसका कारण इस वृत्ति में है।
क्योंकि पत्नी नहीं मान सकती कि पति स्वतंत्र है। वह उसके रोएं-रोएं, रेशे-रेशे को नियंत्रित करना चाहती है।
मैंने
सुना है कि एक स्कूल की शिक्षिका ने एक पत्र, उसकी कक्षा में पढ़ने वाले एक छोटे
लड़के के लिए, उसकी मां को लिखा। और लिखा कि इस लड़के को मैं
सम्हाल-सम्हालकर परेशान हुई जा रही हूं, लेकिन कुछ समझ नहीं
आ रहा है। यह स्कूल की सभी लड़कियों का पीछा कर रहा है और उनको सता रहा है।
तो
उसकी मां ने पत्र लिखा कि अगर तुम कोई उपाय खोज लो, तो मुझे लिखना, क्योंकि वही मैं उसके पिता के साथ उसी उलझन में पड़ी हूं। अगर तुम सफल हो
जाओ कोई विधि खोजने में, जिससे मेरा लड़का लड़कियों का पीछा न
करे, तो विधि मुझे बता देना, क्योंकि
वही विधि मुझे उसके पिता पर उपयोग करनी है। बारह साल से मैं कोशिश कर रही हूं,
अभी तक सफल नहीं हो पाई।
हर
पत्नी कोशिश करती है जीवन भर और असफल होती है। इसलिए नहीं कि आदमी बुरे हैं, इसलिए कि
दूसरे को बनाने में कभी कोई सफल हो ही नहीं सकता। पति भी पूरे वक्त आंखें लगाए हुए
है। वे आंखें प्रेम की नहीं हो सकतीं, क्योंकि प्रेम स्वीकार
करता है, भरोसा करता है। ट्रस्ट प्रेम का लक्षण है। दफ्तर
में बैठा है, लेकिन चिंता है उसे, उसकी
पत्नी किसी से हंस-बोल न रही हो। क्योंकि पति यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि उसकी
पत्नी उसके बिना भी हंस सकती है! उसके बिना तो उसे बैठे हुए रोते रहना चाहिए।
सब
पति सोचते हैं कि पत्नियां कालिदास के पात्र हैं। मेघों से संदेश भिजवा रही हैं और
सूख रही हैं। उन्हें कोई और पुरुष दिखाई नहीं पड़ता। जीवन में उनके कोई प्रसन्नता
और नहीं है। जैसे प्रसन्नता का एक ही झरोखा है, वह मैं हूं। जैसे अगर कोई शुद्ध
हवा आएगी, तो मुझसे ही आएगी। जैसे और सब दिशाएं रिक्त हैं।
यह
भरोसा नहीं है,
और न प्रेम है; यह दूसरे को अपने ढंग पर लाने
की चेष्टा है। दूसरा जैसे एक साधन है, एक वस्तु है, जिसे सजाना है, संवारना है। लेकिन दूसरा कोई व्यक्ति
नहीं है, उसकी कोई आत्मा नहीं है।
यह
जो दूसरे को बदलने की चेष्टा चलती है--चाहे कैसे ही संबंध हों--इस चेष्टा का नाम
समाज है। यह चेष्टा इतनी भारी हो जाती है, इसीलिए बुद्ध को जंगल में जाना
पड़ता है।
और
जंगल में बैठेंगे कहां?
कहीं भी बैठें, वृक्ष के नीचे बैठेंगे। इसलिए
कहता हूं, सांयोगिक है। वृक्ष की छाया है, उसके नीचे बुद्ध बैठे हैं, समाज से हटकर। क्योंकि
समाज की आग जलाती है, समाज का जहर मिटाता है। और समाज अब तक
ऐसा हम नहीं बना पाए पृथ्वी पर कि उसके भीतर बुद्धत्व पैदा हो सके। उस समाज को ही
मैं समाज कहूंगा, जहां बुद्धत्व होने के लिए जंगल न जाना पड?। तब तक समाज नहीं है। तब तक हमें मानना चाहिए कि यह समाज का धोखा है,
हत्यारों और हिंसकों का एक समूह है, जो हरेक
की गर्दन को दबा रहा है।
लेकिन
गर्दन को दबाने के ढंग ऐसे बारीक और सूक्ष्म हैं कि जिसकी गर्दन दबाई जा रही है, वह भी
प्रसन्न हो रहा है। वह शायद सोच रहा है कि मेरे हित में यह सब किया जा रहा है। ऐसा
समझाया गया है, हजारों साल का प्रचार है कि हम जो भी कर रहे
हैं, वह तुम्हारे हित में कर रहे हैं। अगर हम तुम्हें मार भी
डालें, तो भी तुम्हारे हित के लिए ही मार रहे हैं।
और
जो आपके साथ किया जा रहा है, वही आप दूसरों के साथ कर रहे हैं।
इस
उपद्रव के बीच से हट जाना जरूरी है। इसलिए घटना वहां घटती है। लेकिन ध्यान रहे, बुद्धत्व
के बाद बुद्ध वापस समाज में लौट आते हैं। जिनत्व के बाद महावीर वापस समाज में लौट
आते हैं। इस दूसरी घटना पर बहुत कम विचार किया गया है कि क्यों वापस लौट आते हैं?
अब
कोई भय नहीं है। अब तुम कितनी ही गर्दन दबाओ, अब तुम बुद्ध को मिटा न सकोगे। अब
बुद्धत्व में वह पा लिया है, जो कि मिटता ही नहीं है। अब
अमृत्व बुद्ध के जीवन का हिस्सा हो गया, अब यह धारा शाश्वत
है। अब तुम बुद्ध के पास जाओगे, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे।
अब तुम बुद्ध को मुश्किल में नहीं डाल सकते। अब तुम उनके पास जाओगे, तो तुम अपनी जोखम खुद उठा रहे हो। और बुद्ध तुम्हें बदलने के लिए चेष्टारत
नहीं हैं, पर बुद्ध के होने का ढंग ऐसा है कि तुम बदलोगे।
गुरु
वह नहीं है, जो तुम्हें बदलने के लिए पीछे पड़ा हो। गुरु वह है, जिसके
पास जाकर बदलाहट शुरू हो जाए। गुरु केटेलिटिक एजेंट से ज्यादा नहीं हो सकता। और
अगर ज्यादा है, तो वह दुष्ट है। अगर वह तुम्हें बदलने की कोई
सीधी चेष्टा कर रहा है, तो वह भी तुम्हारी गर्दन पर सवार हो
जाएगा। अगर वह तुम्हारी प्रशंसा करता है और तुम्हारी निंदा करता है; वह तुम्हें फुसलाता है, राजी करता है; अगर तुम उसकी नहीं मानते, तो नाराज होता है; अगर मान लेते हो, तो मुस्कुराता है--तब वह भी
स्वर्ग-नर्क, लोभ-भय की तरकीब का उपयोग कर रहा है। तब वह भी
तुम्हें सताएगा। तब वह भी तुम्हें नष्ट करेगा। इसलिए अधिक गुरु अनुयायियों के
दुश्मन हैं। और अधिक गुरुओं के पास शिष्य नए जीवन को उपलब्ध नहीं होते, केवल सड़ जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं।
सिर्फ
वही गुरु तुम्हें मुक्त कर सकता है, जो तुम्हें मुक्त करने के लिए भी
सीधी चेष्टा नहीं कर रहा है, जो प्रत्यक्ष रूप में तुम्हें
बदलने को उत्सुक नहीं है। लेकिन जिसकी मौजूदगी, अप्रत्यक्ष
तुम्हें बदलती है। जिसके पास जाकर बदलाहट घटनी शुरू होती है, जैसे सूरज निकलता है और एक कली नीचे खिलना शुरू हो जाती है। कोई सूरज की
किरणें कली को पकड़कर खोल नहीं रही हैं। और कली न खिले तो सूरज कोई उदास नहीं होगा।
और कली न खिले तो सूरज को कुछ चिंता भी नहीं है। लेकिन सूरज की किरणों की मौजूदगी
में कली खिलनी शुरू हो जाती है, क्योंकि खिलना इतना
आनंदपूर्ण है सूरज में, और सूरज की किरणों को पीना इतना
अहोभाग्य है, और सूरज में नाचना जन्मों-जन्मों का सपना है उस
कली का।
कली
अपने से खुल रही है। सूरज उसे खोल नहीं रहा। पक्षी अपने से आंख खोल लिए हैं, सूरज उनके
दरवाजों पर खटके नहीं मार रहा कि उठो, सुबह हो गई, भोर हो गई, अब सोए मत रहो, ब्रह्म-मुहूर्त
में उठना उचित है; ऐसा कुछ सूरज कह नहीं रहा। सूरज की किरणें
आनी शुरू होती हैं और पक्षियों के कंठ सजग हो गए, उनकी आंखें
खुल गईं, उन्होंने गीत गाने शुरू कर दिए। एक उत्सव का क्षण
उपस्थित हुआ है, पक्षी उसमें सम्मिलित हो रहे हैं। पक्षियों
का यह सम्मिलित होना उनकी अपनी चेष्टा है। सूरज की मौजूदगी का जो भी कार्य है,
वह अप्रत्यक्ष है, वह परोक्ष है। उसकी मौजूदगी
से कुछ हो रहा है, लेकिन मौजूदगी से हो रहा है, सूरज खुद कुछ नहीं कर रहा है।
अगर
पूरी पृथ्वी भी सोई रहे और एक कली न खिले और एक पक्षी गीत न गाए, तो भी
सूरज की खुशी में इससे कुछ अंतर नहीं पड़ेगा। ऐसा नहीं कि दोपहर को वह अचानक उदास
हो जाएगा और सब किरणें सिकोड़ लेगा और उसकी आंखों से आंसू टपकने लगेंगे। या दूसरे
दिन वह विचार करेगा कि अब निकलूं या न निकलूं। अब अपने रथ को चलाऊं इस यात्रा पर
या बंद करूं। और जब लोगों ने मुझे अस्वीकार कर दिया तो मैं क्यों फिकर करूं?
सदगुरु
सूरज की भांति है,
शिष्य उसके पास खिलते हैं, लेकिन उसकी कोई
चेष्टा नहीं है। संत हो शिष्य कि पापी हो, सदगुरु की आंखों
में समान है। संत के लिए कोई प्रशंसा नहीं है और पापी के लिए कोई निंदा नहीं है।
ऐसे ही व्यक्ति के पास केटेलिटिक संभावना है, ऐसे व्यक्ति के
पास कुछ हो सकता है।
बुद्ध
लौट आते हैं एक सूरज की भांति। उनकी मौजूदगी में घटनाएं घटनी शुरू हो जाती हैं, उनके पास
पहुंचकर...।
इस
गुरु के पास होने को हमने सत्संग कहा है। सत्संग का अर्थ है, गुरु के
पास होना। हमारे अनूठे साहित्य का नाम उपनिषद है। उपनिषद का अर्थ है, गुरु के पास बैठना। कुछ और करना नहीं, सिर्फ गुरु के
पास होना; ताकि उसके अज्ञात से निकलती किरणें तुम्हारी कली
को खोलना शुरू कर दें।
कहना
पड़ता है खोलना,
लेकिन यह शब्द उचित नहीं है, क्योंकि खोलने से
लगता है कि कोई क्रिया की जा रही है। न, उसकी मौजूदगी में
तुम्हारी कलियां अचानक खुलना शुरू हो जाएं। गुरु कुछ भी नहीं करता और बहुत कुछ
उसके पास घटता है। जो गुरु करता है, उसके पास कुछ भी नहीं
घटता।
समाज
में लौट आते हैं बुद्धपुरुष। अब समाज है ही नहीं। कल तक, जब वे गए
थे बुद्धत्व के पहले, समाज था। समाज था, क्योंकि समाज उन्हें मिटा रहा था। अब उन्हें कोई भी मिटा नहीं सकता,
अब वे वापस लौट आ सकते हैं। अब समाज का जहर उनके लिए जहर नहीं है।
अब विध्वंस असंभव है। अब जो उन्हें मिटाने आएगा, वह भी उनसे
कुछ लेकर जाएगा। वह भी उनके प्रेम का भागीदार होगा। वह भी कोई भेंट स्वीकार करेगा,
जो जन्मों-जन्मों तक उसके जीवन को प्रभावित करेगी।
ज्ञान
पाया गया वन में,
और ज्ञान लुटाया गया वापस समाज में। कोई भी बुद्धपुरुष जंगल में रह
नहीं गया। रह जाए, तो बुद्धत्व अभी घटा नहीं। क्योंकि जब
आनंद मिलता है, तो बांटने का भाव भी उसके साथ ही मिलता है।
इसे
थोड़ा समझ लें!
जो
हमारे पास है,
उसे हम देना चाहते हैं। दुख है तो दुख देना चाहते हैं, आनंद है तो आनंद देना चाहते हैं। जो भी हमारे पास है, वह बांटने से बढ़ता है। जब आप दुख देते हैं, तो दुख
बढ़ता है; जब आप आनंद देते हैं, तो आनंद
बढ़ता है। जो भी आप बांटते हैं, वही बढ़ने लगता है। बांटना
बढ़ाने का मार्ग है।
इसलिए
अगर आप समझदार हों,
तो दूसरे को दुख न देंगे, क्योंकि वह आपके दुख
को बढ़ाएगा। और दूसरे के रास्ते पर कांटे न रखेंगे, क्योंकि
यह अपने ही रास्ते पर रखे गए कांटे हैं, देर-अबेर इन कांटों
से मिलना होगा। अगर आप होशियार हैं, तो दुख कभी भी न
बांटेंगे, क्योंकि दुख बांटने से बढ़ेगा और न बांटने से
मरेगा। अगर आप समझदार हैं, तो आप आनंद सदा बांटेंगे, क्योंकि आनंद बांटने से बढ़ेगा और न बांटेंगे तो मरेगा। बांटना विस्तार का
सूत्र है।
कंजूस
सिर्फ मरता है। कृपण का कोई जीवन ही नहीं है। कृपण मरा हुआ आदमी है। वह लाश है।
कृपण के जीवन में कभी कोई उत्सव नहीं आता, आ ही नहीं सकता, क्योंकि उत्सव बांटने से ही आता है, देने से ही आता
है।
इसलिए
उत्सव के दिन पर हम एक-दूसरे को भेंटें देते हैं, कुछ बांटते हैं। कुछ न हो,
तो दूसरे को कम से कम बधाई देते हैं, अपने
हृदय का उल्लास बांटते हैं। सभी उत्सव के दिन बांटने के दिन हैं।
कृपण
कभी भी नहीं बांट सकता,
उसके जीवन में कभी उल्लास नहीं आता। इस जगत में कृपण से मरा हुआ
आदमी खोजना कठिन है। मरे से मरा हुआ आदमी भी कृपण के बराबर मुर्दा नहीं होता।
मैंने
सुना है कि एक गांव में एक आदमी मरा। वह स्कॉट था। डाक्टर को बुलाया गया, क्योंकि
मौत संदिग्ध थी। डाक्टर जांच करने आया। उसने बजाय जांच करने के, सिर्फ स्कॉट के खीसे में हाथ डाला। हाथ वापस निकाल लिया और कहा कि यह आदमी
बिलकुल मर गया। तो लोगों ने कहा, यह जांच बड़ी नई है। हमने और
भी जांचें देखी हैं, यह कौन सा ढंग है? उसने कहा, स्कॉट के खीसे में हाथ डालो और अगर वह
जिंदा हो तो पड़ा नहीं रह सकता, चाहे खीसा खाली ही क्यों न
हो। योरोप में स्कॉट सबसे ज्यादा कृपण लोग हैं। इसलिए अगर एक भी सांस बची है,
तो यह आदमी उठकर खड़ा हो गया होता कि किसने मेरे खीसे में हाथ डाला!
यह बिलकुल मर गया है, इसकी अब और किसी जांच की जरूरत नहीं
है।
कृपण
का अर्थ है, संकोच, सिकुड़ता हुआ व्यक्तित्व। और जो सिकुड़ रहा है,
वह ब्रह्म को कैसे पाएगा? क्योंकि ब्रह्म का
अर्थ है विस्तार। जो फैल रहा है, वही ब्रह्म को पाएगा। तो जब
आनंद उपलब्ध होता है, तो आनंद बंटता है; जब ज्ञान उपलब्ध होता है, तो ज्ञान बंटता है।
आप
भी बांटते हो। अगर ज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ तो अज्ञान बांटते हो। इस जगत में जितनी
सलाहें दी जाती हैं,
उतनी और कोई चीज नहीं दी जाती। इतने अज्ञानी हैं, और हरेक सलाह दे रहा है। अज्ञान यहां अनंत गुना हो जाता है सलाहों के
कारण। क्योंकि अज्ञानी कभी यह फिक्र ही नहीं करता कि जो सलाह मैं दे रहा हूं,
मैं उस संबंध में कुछ जानता हूं! यह सवाल ही नहीं है कि आप जानते
हैं। सलाह देने से जानने का मजा आ जाता है। ज्ञानी एक दफे झिझक जाए सलाह देने में,
अज्ञानी नहीं झिझकता। उससे आप कुछ भी पूछें, वह
तैयार है सलाह देने को।
अज्ञान
बांटते हैं, दुख बांटते हैं,र् ईष्या, महत्वाकांक्षा
बांटते हैं, सब तरह के रोगों के कीटाणु हम बाहर भेज रहे हैं।
खुले हाथों बांट रहे हैं। और उससे हम जगत को एक महा-रोग, एक
महा-विक्षिप्त स्थान में बदल देते हैं।
ज्ञानी
भी बांटता है। आनंदित पुरुष भी बांटता है। परमात्मा को उपलब्ध चेतना भी बांटती है।
और बांटना तो समाज में ही घट सकता है। ज्ञान भला बोधि-वृक्ष के नीचे घट जाए, लेकिन ज्ञान
के बांटने की घटना तो आपके पास ही घट सकती है।
सभी
जाग्रत पुरुष समाज में वापस लौट आते हैं। लेकिन वे लौटते हैं तब, जब इस
समाज का जाल उन्हें जरा भी प्रभावित नहीं कर सकता। जब यह समाज की कोई रेखा उनके
ऊपर नहीं आ सकती। जब यह समाज कितनी ही रेखाएं खींचे, वे पानी
पर खींची गई रेखाएं सिद्ध होने लगती हैं; खींच भी नहीं पाते
कि बिखर जाती हैं, मिट जाती हैं। न तुम्हारी प्रशंसा फिर
प्रभावित करती है, न तुम्हारी निंदा। तुम क्या कहते हो,
यह अर्थहीन हो जाता है।
नहीं, कोई
इसोटेरिक, कोई गुप्त संबंध नहीं है। और ऐसा मत सोचना कि
ज्ञान घटेगा तभी, जब तुम किसी वृक्ष के नीचे रहोगे। कहीं भी
घट सकता है। आकाश उतना ही निर्दोष है जितना कोई वृक्ष। इस मकान के छप्पर के नीचे
भी घट सकता है, क्योंकि छप्पर पर छाए हुए कवेलू भी मनुष्यों
से ज्यादा निर्दोष हैं। कहीं भी घट सकता है। एक चट्टान की आड़ में घट सकता है,
खुले आकाश के नीचे घट सकता है।
ज्ञान
के घटने का कोई कार्य-कारण संबंध किसी वृक्ष से नहीं है। लेकिन वृक्ष के नीचे बहुत
बार घटा है, क्योंकि समाज अब तक इस योग्य नहीं कि समाज को बोधि-वृक्ष बनाया जा सके।
समाज अभी भी असमर्थ है, कमजोर है, रुग्ण
है, इसलिए!
लेकिन
कोई गुप्त या कोई छिपी हुई बात खोजने की जरूरत नहीं है।
प्रश्न:
भगवान, आपके एक संन्यासी हैं और मेरे मित्र।
वर्षों से आपका पावन-सत्संग उन्हें उपलब्ध रहा है।
एक दिन बातचीत के सिलसिले में उन्होंने मुझसे कहा कि
मैंने तो अभी तक भगवान का दिया हुआ पहला पाठ भी ग्रहण नहीं
किया।
अपने मन में मैंने कहा: अरे, यह आदमी
तो मेरी ही बात कह रहे हैं।
क्या यह हमारी मूढ़ता की निशानी है?
या यह विद्या ही अति कठिन है?
या हम कभी यह पाठ सीखना ही नहीं चाहते?
सभी
बातें एक साथ हैं। विद्या अति कठिन है। क्योंकि इस विद्या का सारा संबंध अज्ञात, अननोन से
है। और जिसे तुमने कभी जाना नहीं, किसी तरह का जिससे कोई
संपर्क नहीं हुआ, जिससे कोई पहचान नहीं बनी, उसके संबंध में तुम सीखने आओ, तो जो भी कहा जाए,
वह सब शून्य में खो जाता है।
भीतर
उसका कोई छोटा सा भी अनुभव हो, तो उस अनुभव के आसपास अज्ञात के लिए कही गई
बातें इकट्ठी हो जाएंगी। लेकिन वैसा कोई अनुभव भीतर नहीं है। इसलिए तुम्हारे सिर
पर से सारी बातें बह जाती हैं। यह विद्या ही अज्ञात की है। और तुम जो भी जानते हो,
उससे इसका कोई संबंध नहीं जुड़ता। संबंध जुड़ जाए, तो तुम्हारे भीतर यह अटक जाए, कहीं जगह बना ले। यह
बिना तुम्हें छुए बह जाती है, तुम इसे पकड़ ही नहीं पाते।
पकड़ोगे
भी कैसे? क्योंकि जिससे तुम पकड़ने की कोशिश करते हो, उससे
इसका कोई संबंध नहीं है। ऐसे ही है जैसे कोई हवाओं को मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश
करे। मुट्ठी बंध जाती है, हवा बाहर हो जाती है। और मजा तो यह
है, खुली मुट्ठी में हवा होती है, बंधी
मुट्ठी में खो जाती है। और जिसने मुट्ठी बांधकर पाया कि हवा खो जाती है, उसका तर्क क्या कहेगा? उसका तर्क कहेगा, ठीक से नहीं बांध पाए। उसका तर्क कहेगा, बांधने में
जरा देर हो गई। जरा और झपट्टे से बांधो, ताकि हवा बाहर न
निकल पाए और तुम मुट्ठी बांध लो। उसका तर्क कहेगा, तुम्हारी
मुट्ठी में कहीं कोई छिद्र हैं, जिनसे हवा बाहर निकल जाती
है। यह सीधी सी बात है। और हम जानते हैं कि यह गलत है। और तर्क यह कहेगा।
तर्क
यह तो कभी कहेगा ही नहीं कि तुम मुट्ठी बांधते हो, इसी से हवा निकल जाती है।
तुम बांधो ही मत, हवा सदा वहां है। लेकिन हमारी बुद्धि कहेगी
कि बिना बांधे कोई चीज कैसे हो सकती है? धन हम तिजोड़ी में
बांधते हैं, तो रुकता है। धन हम मुट्ठी बांधते हैं, तो रुकता है। धन को अगर ऐसा खुली मुट्ठी में छोड़ दें, तो क्षण भर नहीं रुकेगा। मुट्ठी बांध-बांधकर भी नहीं रुकता, तो खुली मुट्ठी में तो कैसे रुकेगा? तिजोड़ी की चाबी
एक दिन भूल जाए तो तिजोड़ी गई।
जीवन
का अनुभव कहता है,
बांधो, पकड़ो जोर से, तो
ही कोई चीज पकड़ी जाती है। पर हमें हवा को बांधने का कुछ पता ही नहीं कि हवा के
बांधने का ढंग विपरीत है। वहां खोलो, मुक्त करो, तो हवा तुम्हारी है। वहां बांधा कि तुम चूके। वहां बांधा कि तुमने खोया।
हवा
पर कोई तिजोड़ियां नहीं हो सकतीं और न चाबियां हो सकती हैं। हवा का अर्थ ही
उन्मुक्तता का नाम है। हवा सदा बह रही है। उसे अगर तुम बांध भी लोगे, कोई उपाय
कर लोगे, तो वह गंदी हो जाएगी। और बंधी हवा से, जो प्राणदायी तत्व है, वह विलीन हो जाएगा। बंधी हवा
से आक्सीजन तो खो जाएगी, सिर्फ नाइट्रोजन और दूसरे मृत्यु के
तत्व रह जाएंगे। एक तो हवा को बांधना मुश्किल। अगर तुमने बांध लिया, तो हवा में जो बांधने योग्य था, वह खो जाएगा;
और जो न बांधने योग्य था, वह बच रहेगा।
ऐसी
ही अवस्था है। ज्ञात जो हमारा है, वह पदार्थ से संबंधित है, संसार से संबंधित है, शरीर से संबंधित है। और अज्ञात
का हमें कुछ पता नहीं है। उन्हीं उपायों को हम अज्ञात पर भी लगाते हैं, जिन्हें हमने ज्ञात पर लगाकर सफलता पाई है। इसलिए इस जगत की सफलता उस जगत
में विफलता सिद्ध होती है।
अब
तक जो भी तुमने सीखा है,
वह स्मृति से सीखा है। उस जगत की कोई भी घटना स्मृति से नहीं सीखी
जा सकती, केवल अनुभव से जानी जा सकती है। अब तक तुमने जो भी
जाना है, वह क्षुद्र है, उसकी सीमा है,
उसकी परिभाषा हो जाती है। और अब जो मैं तुमसे कह रहा हूं, उसकी कोई सीमा नहीं, वह विराट है, उसकी कोई परिभाषा नहीं हो सकती।
लोग
पूछते हैं, परमात्मा की क्या परिभाषा? वे प्रश्न ही मूढ़तापूर्ण
पूछ रहे हैं। परिभाषा तभी हो सकती है, जब किसी चीज की सीमा
हो। और परिभाषा सदा हमें दूसरे से करनी पड़ती है। अगर कोई तुमसे पूछे कि जीवन क्या
है, तो तुम्हें तत्क्षण मृत्यु को परिभाषा में लाना पड़ेगा।
तुम्हें कहना पड़ेगा, जो मृत्यु नहीं। कोई तुमसे पूछे,
प्रकाश क्या है? तुम्हें तत्क्षण अंधेरे को
परिभाषा में लाना पड़ेगा और कहना पड़ेगा, जो अंधेरा नहीं। बड़े
से बड़े शब्दकोश में भी अगर तुम खोजोगे, तो बड़े हैरान होओगे,
कैसा बच्चों का खेल है! अगर शब्दकोश में पूछो कि पदार्थ क्या है?
तो वे कहते हैं, मन नहीं। और तब तुम उलटो
पन्ने, और पहुंचो मन पर, और पूछो कि मन
क्या है? तो वे कहते हैं, पदार्थ नहीं।
ये कोई परिभाषाएं हैं, जिसमें विपरीत को भीतर लाना पड़े?
यह सिर्फ खेल है।
कठिनाई
हो जाती है, इस खेल को परमात्मा पर जारी नहीं रखा जा सकता। क्योंकि परमात्मा का कोई
विपरीत नहीं है जो तुम कह सको, जिससे तुम परिभाषा बना सको।
तुम्हारे घर के चारों तरफ बाउंड्री है, सीमा है। लेकिन क्या
कभी तुमने खयाल किया कि वह सीमा दूसरे के घर से बनती है? अगर
तुम ही अकेले पृथ्वी पर हो, तो कैसे सीमा बनाओगे? सीमा के लिए दूसरा चाहिए, विपरीत चाहिए, दुश्मन चाहिए। परमात्मा से अन्य कोई भी नहीं। कोई दूसरा नहीं। दि अदर कहा
जा सके, ऐसा कोई नहीं। कोई शत्रु नहीं। इसलिए परमात्मा को
द्वंद्व की परिभाषा में नहीं लाया जा सकता।
मेरे
पास लोग जो आते हैं,
वे कहते हैं, परमात्मा की क्या परिभाषा?
उनसे मैं कहता हूं, कोई परिभाषा नहीं। तो वे
कहते हैं, फिर आगे बात ही नहीं हो सकती।
वे
ठीक कहते हैं। क्योंकि जब किसी शब्द की परिभाषा ही न होती हो, तो आगे
बात क्या करनी? इसलिए पश्चिम के बहुत से आधुनिक विचारक कहते
हैं कि परमात्मा इत्यादि अर्थहीन शब्द हैं। क्योंकि इनकी परिभाषा नहीं हो सकती,
तो अर्थ कैसा? मीनिंगलेस।
पश्चिम
में एक बहुत बड़ा आंदोलन पिछले पचास वर्षों में चला है, भाषाशास्त्रियों
का और दर्शनशास्त्रियों का। उन्होंने एक नया मत, एक नया
संप्रदाय खड?ा किया है। उनके संप्रदाय का आधार एनालिसिस आफ
लैंग्वेज, भाषा का विश्लेषण है। और वे कहते हैं कि जब तक
किसी शब्द की परिभाषा न हो, तब तक हम उस पर चर्चा ही नहीं
करना चाहते। क्योंकि चर्चा होगी कैसे? जब तक शब्द का अर्थ ही
निर्णीत नहीं, तो चर्चा व्यर्थ है। हम कुछ कहेंगे, तुम कुछ समझोगे, तीसरा कुछ अर्थ लेगा, चौथा कुछ अर्थ करेगा।
इस
संप्रदाय के,
भाषा-संप्रदाय के लोग कहते हैं कि दर्शनशास्त्र इसी तरह की व्यर्थ
चर्चाओं में हजारों साल से लगा हुआ है। पहले शब्द की स्पष्ट परिभाषा होनी चाहिए,
फिर आगे बढ़ा जा सकता है।
तो
फिर परमात्मा में आगे बढ़ने का उपाय बंद, आत्मा में आगे बढ़ने का उपाय बंद,
प्रेम में आगे बढ़ने का उपाय बंद, ध्यान में
आगे बढ़ने का उपाय बंद, सब द्वार बंद। यह कठिनाई है। इस जगत
के संबंध में जो भी तुमने जाना, वह काम नहीं देगा। और जिन
विधियों का तुमने उपयोग किया, वे विधियां भी काम नहीं देंगी।
इसलिए यह विद्या कठिन है।
इस
विद्या की कठिनता के कारण ही इस विद्या को हजारों साल तक गुप्त रखना पड़ा। गुप्त
रखने का और कोई कारण नहीं है। क्योंकि जब तुम समझ ही न सकोगे, तो इसकी
चर्चा करने से फायदा क्या? पहले तुम्हें तैयार करना पड़ेगा,
ताकि तुम समझ सको। जब तुम योग्य हो जाओगे, पात्र
हो जाओगे, जब तुम उस जगह खड़े हो जाओगे, जहां से इन अनिर्वचनीय शब्दों का इशारा तुम तक पहुंचने लगे, तब तुम समझ पाओगे। विद्या कठिन है।
और
दूसरी बात भी सच है कि मनुष्य मूढ़ है। इसलिए जटिलता और भी बढ़ जाती है। विद्या कठिन
है और मनुष्य मूढ़ है।
मूढ़ता
का क्या अर्थ है?
मूढ़ता का अर्थ गैर-जानकारी नहीं है। क्योंकि पंडित भी मूढ़ होते हैं।
और कभी-कभी अपठित, अपंडित भी मूढ़ नहीं होता।
मूढ़ता
चित्त की आच्छादित दशा का नाम है। अहंकार से आच्छादित चित्त का नाम मूढ़ता है। मूढ़
का अर्थ कम या ज्यादा जानने से नहीं है। अगर कम जानने का नाम मूढ़ता हो, तो कबीर
मूढ़ हैं। अगर कम जानने का नाम मूढ़ता हो, तो बुद्ध को भी
मैट्रिक पास करवाना मुश्किल है। एकदम अभी अगर सीधा उनको ले आया जाए उनके
महानिर्वाण से उतारकर, और बिठा दिया जाए मैट्रिक की परीक्षा
में, फेल होना निश्चित है। तो इसका अर्थ हुआ कि तुम्हारे
बच्चे भी, जो मैट्रिक पास हो रहे हैं, वे
बुद्ध से कम मूढ़ हैं!
जीसस
कहां टिकेंगे?
मोहम्मद को कहां खड़ा करोगे? मोहम्मद लिखना भी
नहीं जानते। और जब पहली दफे कुरान की आयत उतरी, तो मोहम्मद
ने जो पहला शब्द कहा, वह यह कि यह क्या कर रहे हो? मैं तो लिखना ही नहीं जानता! तो जो कहा जा रहा है, उसे
लिखूंगा कैसे? दैवी वचन सुनाई पड़ा मोहम्मद को कि तू फिक्र मत
कर। जब अनुभव हो जाएगा, तो लिखना भी आ जाएगा। जो बोलना नहीं
जानते, वे भी बोलने लगेंगे, जब अनुभव आ
जाएगा। क्योंकि अनुभव बहेगा। तू घबड़ा मत।
लेकिन
मोहम्मद इतने घबड़ा गए कि यह क्या काम मुझसे लिया जा रहा है! मैं लिखना ही नहीं
जानता, मैं अपने दस्तखत ही नहीं कर पाता हूं। वचन सुना गया कि तेरे दस्तखत की तो
जरूरत ही नहीं है। जो आदमी अभी दस्तखत करने में उत्सुक है, उस
पर तो यह कुरान उतरेगी भी नहीं। तेरे हस्ताक्षर चाहिए भी नहीं। तू तो बिलकुल मिट
जा। और तू घबड़ा मत।
मोहम्मद
घर लौटे और अपनी पत्नी से बोले कि कंबल ले आ, मुझे बुखार चढ़ा है। कंबल पर कंबल
डालकर वे अंदर हो गए और शरीर उनका कंप रहा है। पत्नी ने कहा, यह सब अचानक कैसे हुआ? घड़ी भर पहले तुम गए, तब सब ठीक था, यह अचानक बुखार?
मोहम्मद
ने कहा, यह बुखार कुछ और ही तरह का है। मेरा पूरा प्राण कंप रहा है। क्योंकि मुझसे
कुछ ऐसा काम लिया जा रहा है, जो मैं पाता हूं कि मैं बिलकुल
असमर्थ हूं, मैं नहीं कर पाऊंगा। लेकिन मेरे हाथ के बाहर है,
इसे मैं रोक भी नहीं सकता। कोई मुझ में प्रवाहित हो रहा है। यह
ऊष्णता मेरी नहीं है, यह बुखार बुखार नहीं है, यह कुछ और है, जिसे मैं पहचान भी नहीं सकता। क्योंकि
यह पहली दफा आया है, इसकी प्रत्यभिज्ञा कैसे करूं? यह पहले कभी आया नहीं, इसका रिकग्नीशन कैसे हो?
यह कुछ दैवी बुखार है, डिवाइन फीवर। तू मुझे
सिर्फ विश्राम करने दे।
तीन
दिन तक मोहम्मद बुखार में पड़े रहे। तीन दिन के बाद जब वे उठे, तो उनका
चेहरा बदल गया था। जैसे कि सोना आग से गुजर गया हो। एक साधारण, बेपढ़ा-लिखा आदमी अचानक ज्ञानी हो गया था।
क्या, घटना क्या
घटी? अन्यथा मोहम्मद मूढ़ हैं। इसलिए कुरान में वह साहित्यिक
खूबी नहीं है, जो उपनिषदों में है। इसलिए हिंदू कुरान को
पढ़ता है, तो उसे लगता है, इसमें क्या
है? उसे पता नहीं कि एक गैर पढ़े-लिखे आदमी के द्वारा लिखा
गया है। उपकरण लिखने-पढ़ने वाला नहीं था। इसके पास बहुत अच्छे शब्द नहीं थे। लेकिन
इस कारण कुरान में एक और खूबी है जो उपनिषद में नहीं है। वह खूबी है, जैसे कि गांव का गंवार बोलता है, उसकी भाषा में
साहित्य नहीं होता, लेकिन चोट होती है। क्योंकि उसकी भाषा
जीवन से आती है, किताब से नहीं आती, मुर्दा
नहीं होती। नाजुक नहीं होती, लेकिन जीवंत होती है।
इसलिए
कुरान जितना जीवंत है,
दुनिया का कोई शास्त्र उतना जीवंत नहीं। है गंवार के ढंग की बात,
कि पत्थर की तरह सिर पर पड़ता है, कि लट्ठ की
तरह सिर पर पड़ता है, चोट उसकी गहरी है और जिंदगी के सीधे
अनुभव से आई है। नाजुकता नहीं है, काव्य नहीं है। बड़ी उपमाएं
नहीं हैं, बड़ी कल्पनाएं नहीं हैं, सीधे
देहाती के वचन हैं, पर बड़े साफ हैं। इसलिए कुरान पर किसी
टीका की जरूरत नहीं पड़ी। टीका का कोई सवाल नहीं है, गंवार से
गंवार भी समझ सकता है।
गीता
पर हजारों टीका की जरूरत पड़ी है, फिर भी समझ में नहीं आती। वह भाषा एक परिष्कृत
आदमी की है। कुरान सीधा समझ में आता है। इसलिए गीता पर टीकाएं बहुत और बहुत लोगों
ने गीता पढ़ी, लेकिन इस्लाम जिस आग की तरह फैला, हिंदू-धर्म कभी नहीं फैल सका। वह पंडित का धर्म है, इसलिए
लोकमानस को कभी उस तरह नहीं छू सका, जैसा इस्लाम ने छुआ। और
जिस तरह मुसलमान इस्लाम के लिए मरने के लिए तैयार हैं, कोई
हिंदू हिंदू-धर्म के लिए मरने के लिए कभी तैयार नहीं होता। क्योंकि वह जो चीज आपका
जीवन ही नहीं बनी, सिर्फ बुद्धि रही, उसके
लिए कौन मरने को तैयार होता है? इसलिए इस्लाम की बड़ी पकड़ है,
बड़ी गहरी पकड़ है, जैसे भीतर सीधे हृदय को पकड़
लेता है। और मोहम्मद पर उतरा, जिसको हम कहेंगे बेपढ़ा-लिखा,
अपठित, असंस्कृत।
जीसस
का कोई ज्ञान नहीं है। एक बढ़ई का लड़का है। एक शूद्र परिवार से आता है। इसलिए बाइबिल
में भी कोई काव्य-गौरव नहीं है। पर जैसे सीधे वचन, तीर की तरह चुभने वाले,
बाइबिल में हैं, वैसे कहां पाइएगा!
जब
मैं कहता हूं मूढ़,
तो मेरा मतलब यह नहीं कि आप कम जानते हों, तो
मूढ़। मेरा मतलब इतना है कि आप सब कुछ जानते हों, स्वयं को
नहीं जानते, तो मूढ़। और कुछ भी न जानो और स्वयं को जानो,
तो ज्ञानी।
तो
यहां ज्ञान का एक ही अर्थ है, स्वयं को जानना। और स्वयं को आप तब तक न जान
पाओगे जब तक आप अहंकार को जानते हो, जब तक आप कहते हो,
मैं हूं। यह मैं ही बाधा है। इसलिए अहंकार मूढ़ता है, परम मूढ़ता है। निरअहंकारिता ज्ञान है।
निश्चित
ही मनुष्य मूढ़ है और विद्या कठिन है। और तीसरी बात भी सच है कि तुम कहते जरूर हो
कि तुम जानना चाहते हो,
लेकिन तुम जानना नहीं चाहते। कहते जरूर हो कि तुम जानना चाहते हो,
फिर भी तुम जानना नहीं चाहते। गहरे में तुम जानने को तैयार नहीं,
तुम जानने से बचना चाहते हो।
क्या
कारण होगा इस जटिलता का?
क्योंकि अगर नहीं जानना चाहते हो, तो बात खतम
हो गई। जानना चाहते हो, तो जानने में लगो। यह दोहरापन क्यों?
यह
दोहरापन बहुत नाजुक है और समझने जैसा है। और जब तक इस दोहरेपन को तुम न समझोगे, तुम्हारे
भीतर ही जो द्वंद्व है, उसको न समझोगे, तब तक निर्द्वंद्व नहीं हो सकते हो। हजारों लोगों को निकट से जानने का
मेरा जो अनुभव है, वह यह कि वे सभी कहते हैं कि वे जानना
चाहते हैं, उनमें से शायद ही कभी कोई जानना चाहता है। क्यों
कहते हैं फिर? किसको धोखा देते हैं? धोखा
देने का सार भी क्या है? खुद का समय, जीवन,
व्यय करते हैं। अगर जानना है, तो जानने में
लगना चाहिए; नहीं जानना है, तो बात छोड़
देनी चाहिए। यह द्वंद्व क्यों? इस द्वंद्व का कारण है।
पहला
कारण, तुम जानना नहीं चाहते हो, क्योंकि तुम जिस जीवन में
रह रहे हो, उस जीवन में अकेला दुख ही नहीं है, उस जीवन में सुख की झलकें भी हैं। उन सुख की झलकों को तुम छोड़ना नहीं
चाहते। और वह जो दुख है, उसको तुम छोड़ना चाहते हो। इससे
द्वंद्व पैदा होता है।
इसको
ठीक से समझ लें। तुम्हारे जीवन में दोनों हैं, दुख भी है, सुख
भी है। सुख कम होगा, झलक होगी, आभास
होगा, आशा होगी, लेकिन है। दुख भी है।
दुख से तुम मुक्त होना चाहते हो। इसलिए तुम ज्ञानियों के पास पहुंचते हो, क्योंकि वहां आश्वासन है कि दुख से छुटकारा हो जाएगा। और जब तुम ज्ञानी के
पास पहुंचते हो, तो वह कहता है, सुख-दुख
दोनों छोड़ो तो ही ज्ञान होगा।
बस, वहां अड़चन
खड़ी हो जाती है। क्योंकि सुख तुम्हारा है, वह तुम छोड़ना नहीं
चाहते। अभी-अभी विवाह करके तुम आए हो, एक सुंदर पत्नी को घर
ले आए हो। अभी-अभी तो लोगों ने फूलमालाएं पहनाई थीं इस अहोभाग्य के लिए कि तुम
विवाहित हो, पत्नी है, जिसे तुमने चाहा
था, वह मिल गई है। सुख तो तुम बचाना चाहते हो। तुम किसी ऐसी
तरकीब की तलाश में हो, जिसमें संसार का सुख बच जाए और संसार
का दुख मिट जाए।
और
यह असंभव है। इसे कोई कभी नहीं कर सका और कभी भी नहीं कर सकेगा, क्योंकि
संसार के सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, या तो सिक्का
पूरा हाथ में रहेगा या पूरा सिक्का तुम्हें फेंक देना पड़ेगा। तुम असंभव की कोशिश
में लगे हो, इसलिए भीतर विभाजित हो गए हो। तुम इसमें से आधा
बचाना चाहते हो, इसमें से आधा तुम छोड़ना चाहते हो। और यह
जीवन बांटा नहीं जा सकता, यह पूरा है। इसको बांटने का उपाय
ही नहीं है।
तो
जब तुम ज्ञानियों की बात सुनते हो कि दुख से छुटकारा है, कि दुख से
मुक्ति है, कि उपाय है, मार्ग है,
कि परम आनंद हो सकता है। जब ज्ञानी कहते हैं परम आनंद, तो तुम सोचते हो अपने सुख की बात। तुम सोचते हो, ठीक,
यही तो हम चाहते हैं कि सुख हमारा परम हो जाए।
ज्ञानी
का आनंद और तुम्हारा सुख अलग-अलग चीजें हैं। ज्ञानी का शब्द आनंद तुम्हें धोखे में
डालता है। तुम सोचते हो,
बस यही तो हम चाहते हैं, महा-सुख, चलो, ज्ञानी की बात सुनो। ज्ञानी की बात सुनकर तुम
अड़चन में पड़ते हो। क्योंकि वह कहता है, तुम्हारा दुख भी छूटे,
तुम्हारा सुख भी छूटे, तुम दोनों छोड़ दो,
तो आनंद होगा। और जब वह कहता है, तो बात तर्क
से तुम्हारी समझ में भी आ जाती है।
समझो, एक पत्नी
से तुम्हें सुख मिलता है। इसी पत्नी से तुम्हें दुख मिलेगा। जो तुम्हें सुख दे
सकता है, वही दुख दे सकता है। जो सुख नहीं दे सकता, उससे दुख मिलने का कोई कारण नहीं। पड़ोसी की पत्नी से तुम्हें दुख नहीं मिल
सकता। और अगर मिलता हो, तो जानना कि उससे कुछ न कुछ सुख मिल
रहा है। चाहे उसे देखने से ही मिल रहा हो। जिससे तुम्हें सुख मिलता है, उससे तुम्हें दुख भी मिलेगा। जब तुम गुलाब का फूल तोड़ने जाओगे, तो कांटे भी चुभेंगे। वे अंग हैं।
तुम्हारी
पत्नी प्रसन्न है आज,
तो उसकी मुस्कुराहट फूल बन जाती है। लेकिन कल तुम्हारी पत्नी दुखी
होगी, अप्रसन्न होगी, तब? तब उसकी उदासी कांटा बन जाएगी। तुम चाहते हो, तुम्हारी
पत्नी प्रसन्न हो, इससे तुम प्रसन्न होते हो। लेकिन तुम्हारी
पत्नी चौबीस घंटे प्रसन्न नहीं रह सकती। क्योंकि साधारण जीवन-धारा विपरीत में
परिवर्तित होती रहती है। सिवाय परमज्ञानी के, चौबीस घंटे कोई
प्रसन्न नहीं रह सकता। जैसे दिन है, फिर रात है, ऐसे सुख है, फिर दुख है। ऐसे प्रसन्नता है, फिर उदासी है।
अगर
पत्नी तुम्हारी बहुत प्रसन्न है, तो तुम तैयार रहो, जल्दी
ही उदासी आएगी। और इस प्रसन्नता से तुम्हें सुख मिल रहा है तो फिर उदासी से दुख
मिलेगा। तुम भी चौबीस घंटे प्रसन्न नहीं रह सकते, तुम भी
चौबीस घंटे शांत नहीं रह सकते, विपरीत आएगा। जैसे दो किनारों
के बीच नदी बहती है, ऐसा तुम द्वंद्वों के बीच बहते हो। एक
किनारे के साथ नदी नहीं बह सकती और न एक किनारे के साथ तुम बह सकते हो।
बुद्ध
बिना किनारे के बहना शुरू करते हैं। वे सागर की तरह हैं। एक किनारा नहीं छूटता, दोनों ही
छूट जाते हैं। एक जो छोड़ना चाहता है, वह कभी भी नहीं छोड़
पाएगा।
इसलिए
तुम्हारा लोभ तुम्हें ज्ञानियों के पास ले आता है। उनकी बातें भी तुम्हारी समझ में
आ जाती हैं बुद्धि से,
कि वे ठीक कह रहे हैं। जब तक सुख है, तब तक
दुख भी रहेगा। जब तक तुम जीवन में सुख पा रहे हो, मृत्यु में
दुख पाओगे। जब तक तुम्हें पद मिल रहा है, प्रतिष्ठा मिल रही
है और तुम उसमें सुख पा रहे हो, तो जब पद छिनेगा? और पद छिनेगा! नहीं तो दूसरों को कैसे मिलेगा? अगर
छिनता नहीं, तो तुमको कैसे मिलता? किसी
का छिना, तब तुम्हें मिला। तो मिलना और छिनना जारी रहेगा। जब
पद पर रहकर तुम्हें प्रसन्नता हो रही है, पद छिनकर तुम सिकुड़ोगे,
तुम्हें दुख होगा। आज यश है, कल अपयश होगा। आज
लोग गीत गाते हैं तुम्हारे, कल गालियां देंगे।
लोग
भी तुम्हारे गीत सदा नहीं गा सकते, गीत गा-गाकर भी थक जाते हैं।
गालियां भी जरूरी हो जाती हैं। और ध्यान रहे, जिसने तुम्हारा
गीत बहुत गाया, वही तुम्हें गाली देगा। क्योंकि वही तुम्हारे
गीत से बुरी तरह ऊब जाएगा। और उसने गीत जब गाया, तो तुम्हारा
जो-जो भला था, उसको चुना था, और जो-जो
बुरा था, उसको उसने छिपा लिया था। कब तक छिपाए रखेगा?
आज नहीं कल, उसे दिखाई पड़ने लगेगा। जितना गीत
गाएगा, उतना ही दिखाई पड़ेगा कि झूठ बोल रहा हूं।
सबसे
बड़ी अदभुत बात यह है कि किसी भी चीज को उसकी अतिशयोक्ति पर ले जाओ, और उसका
विपरीत तत्क्षण दिखाई पड़ने लगेगा। जैसे किसी आदमी को तुमने कहा, बहुत सुंदर है, अति सुंदर है, ऐसा
सुंदर आदमी नहीं हुआ, तत्क्षण तुम्हें उस आदमी की कुरूपता
दिखाई पड़ने लगेगी। क्योंकि तुमने अति कर दी। सब आदमी बीच में हैं सुंदर और कुरूप
के, कोई आदमी न तो बिलकुल कुरूप है और न कोई आदमी बिलकुल
सुंदर है। इस जगत में अति तो होती ही नहीं, सभी मध्य है। अगर
तुमने अति की, और कहा कि अहा, इससे
ज्यादा सुंदर कोई व्यक्ति कभी नहीं हुआ। बस, उसी वक्त
तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि इसमें येऱ्ये कुरूपताएं हैं।
जिसने
गाया गीत, गाली देने को तैयार हुआ। जिसने दी गाली, आज नहीं कल
गीत गाएगा। जो बना मित्र, उसने शत्रुता की तैयारी की। और जो
तुम्हारा शत्रु है, या तो पुराना मित्र है, या भविष्य में मित्र होगा।
तो
जिस-जिस चीज से तुम्हें सुख मिल रहा है, आज नहीं कल, तुम
दुख पाओगे। यह बात तर्क से समझ में आ जाती है। बस तर्क से समझ में आती है, हृदय को समझ में नहीं आती, बुद्धि को समझ में आती
है। तो जब तुम संतों के पास होते हो, उनकी बात बिलकुल ठीक
समझ में आती है। वहां से तुम उठे, तुम जरा दूर भी नहीं पहुंच
पाए कि सब बुद्धि का हिसाब बिखर जाता है। तुम्हारे भीतर की वृत्तियां, तुम्हारे जीवन की मूढ़ता, तुम्हारे जीवन का अज्ञान,
सब बगावत करता है और कहता है, यह क्या सोच रहे
हो, इसमें तो सब जीवन खो जाएगा। अगर सुख भी छोड़ दिया,
तो फिर सार क्या है! कुछ ऐसा करो, सुख को बचाओ,
दुख को काटो।
सांसारिक
आदमी यही कर रहा है: सुख को बचा रहा है, दुख को काट रहा है। संन्यासी दोनों
छोड़ रहा है। बस इतना ही फर्क है संन्यासी और संसारी में। संसारी सोच रहा है,
कोई न कोई तरकीब जरूर होगी, कहीं न कहीं कोई न
कोई उपाय जरूर होगा, जिससे मैं सुख को बचाऊंगा और दुख को काट
दूंगा। और संन्यासी हम उसे कहते हैं, जो इस समझ को उपलब्ध हो
गया कि यह प्रयास असंभव है। यह हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह
जीवन और प्रकृति का नियम नहीं है। यह विपरीत है।
यह
ऐसा ही विपरीत है,
मैंने सुना है, एक आदमी एक डाक्टर के दफ्तर
में भागा हुआ पहुंचा। उसने अपने कान पर से रूमाल हटाया, कान
खून से भरा था, खून टपक रहा था। किसी ने उसका कान काट लिया
था, चमड़ी लटकी हुई थी। डाक्टर चकित हुआ, उसने कहा, यह कैसे हुआ? वह
आदमी थोड़ा झिझका, और फिर उसने कहा कि मैंने ही अपना कान भूल
से काट लिया है। उस डाक्टर ने कहा, यह असंभव है। अपना ही कान
तुम कैसे काट सकते हो? उस आदमी को भी खयाल आया, उसने कहा कि मैं कुर्सी पर खड़ा था।
उस
आदमी ने सोचा कि शायद अब यही उपाय है बचने का कि डाक्टर कह रहा है, अपना कान
कैसे काटोगे? तो उस आदमी ने कहा, मैं
कुर्सी पर खड़ा था। जैसे कि ऊंची चीज को पाने के लिए कुर्सी पर खड़े होने से कोई
आसरा मिल जाता हो।
काटा
तो कान उसकी पत्नी ने था,
लेकिन चलते वक्त कहा था, यह बात कहना मत! तुम
यही कह देना कि तुमने ही काट लिया है। और पति जैसे आमतौर से डरे हुए होते हैं,
उसने कह दिया कि मैंने ही काट लिया है। कहकर फंसा! तब उसको भी समझ
में आया कि अपने कान तक पहुंचोगे कैसे? तो कुर्सी पर खड़ा था!
मगर असंभव होता नहीं, चाहे कुर्सी पर खड़े हो जाओ, और चाहे पहाड़ पर खड़े हो जाओ। चाहे गरीब की झोपड़ी में रहो, और चाहे महल में, अपना कान काट न पाओगे।
सुख
और दुख को काटकर,
एक को बचाकर, और दूसरे को हटा देने का कोई
उपाय नहीं। यह प्रतीति जब तुम्हें सघन हो जाएगी, जब यह
तुम्हारी बुद्धि में नहीं, हृदय में उतर जाएगी, जब तुम्हारा रोआं-रोआं इसे अनुभव करेगा, उसी क्षण
में, पहली बार तुम अपने को बदलना चाहोगे, उसके पहले नहीं।
और
जिस दिन तुम अपने को बदलना चाहोगे, कोई मूढ़ता बाधा नहीं दे सकती। जिस
दिन तुम अपने को बदलना चाहोगे, अहंकार को छोड़ना आसान है,
बहुत आसान है। ऐसा ही आसान है, जैसे कोई आदमी
अपने सिर पर बोझ ढो रहा हो और परेशान हो रहा हो और कह रहा हो, बहुत वजन है, बहुत वजन है। लेकिन सोचता है कि भीतर
सोने की अशर्फियां भरी हैं इसलिए वजन को ढोना है। और कोई उसे बता दे कि सिर्फ
पत्थर है इसमें, सोना नहीं है, और वह
उसी क्षण ढेर को गिरा दे।
जिस
दिन तुम अपने को बदलना चाहोगे, तुम्हारा अहंकार पत्थर का बोझ मालूम पड़ेगा,
स्वर्ण का, बहुमूल्य हीरों का बोझ नहीं,
उस क्षण तुम उसे गिरा दोगे। और जिस दिन तुम्हारी मूढ़ता गिरती है,
उस दिन यह विद्या कठिन नहीं है। उस दिन यह विद्या बड़ी सरल है।
क्योंकि
स्वभाव में जाना कठिन कैसे हो सकता है? जो तुम सदा से हो, उसी को पाना कठिन कैसे हो सकता है?
आज इतना ही।
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