प्रियतम तेरे सपनों की, मधुशाला मैंने देखी है।
होश बढ़ता
इक-इक प्याला, ऐसी हाला देखी है।।
मदिरालय
जाने बालों नें,
भ्रम
न जाने क्यों पाला।
हम
तो पहुंच गए मंजिल पे,
पीछे
रह गई मधुशाला।।
शब्दों कि
मधु, शब्दों की हाला,
शब्दों की ही
बनी मधुशाला।
आँख खोल कर देख सामने,
थिरक रही जीवित की होला।।
धर्म-ग्रंथ भी नहीं जले जब,
कहां
जली अंतर की ज्वाला।
मन्दिर,
मस्जिद, गिरिजो मे भी,
कहां
छलक़ती अब हाला।।
चख कर मधु को बुरा कहे वो,
समझे खुद
को मतवाला।
आंखें बोले,
तन भी ड़ोले,
बस मुंह पर
पडा रहे ताला।।
होली
आए या आये दीवाली,
भेद
ये क्या पड़ने बाला।
अंहकार
को देख लांघ जा,
भभकेगी
तब वो ज्वाला।।
प्रियतम पिला रही है हाला,
फिर भी क्यों खाली प्याला।
प्यास बूझेगी
तभी सुरा से,
बनेगा खुद जब
मधुशाला।।
--स्वामी आनंद प्रसाद ‘मानस’
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