ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
अपने-अपने काराग्रह-(पहला प्रवचन)
दिनांक २१ सितंबर, १९७०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
संत रज्जब ने क्या हम सोए हुए लोगों को देख कर ही कहा है: ज्यूं
मछली बिन नीर। समझाने की अनुकंपा करें।
नरेंद्र बोधिसत्व,
और
किसको देख कर कहेंगे?
सोए लोगों की जमात ही है। तरहत्तरह की नींदें हैं। अलग-अलग ढंग हैं
सोए होने के। कोई पद की शराब पी कर सोया है। लेकिन सारी मनुष्यता सोयी हुईं है।
जिन्हें तुम धार्मिक कहते हो वे भी
धार्मिक नहीं है, क्योंकि बिना जागे कोई धार्मिक नहीं हो
सकता है। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई
हैं, जैन हैं--लेकिन धार्मिक मनुष्य का कोई पता नहीं चलता।
धार्मिक मनुष्य हो तो हिंदू नहीं हो सकता है। ये सब सोए होने के ढंग हैं। कोई
मस्जिद में सोया हुआ है, कोई मंदिर में सोया है। मैं एक बड़े
प्यारे आदमी को जानता था।
सरल थे, अदभुत रूप से सरल थे! और
आग्नेय भी थे, अग्नि की तरह दग्ध कर दें। नाम था
उनका--महात्मा भगवानदीन। वे जब भी बोलते थे तो बीच-बीच में रुक जाते। कहते,
"बायां हाथ ऊपर करो। अब दायां हाथ ऊपर करो। अब दोनों हाथ ऊपर
करो।' फिर कहते, "दोनों हाथ नीचे
कर लो।' मैंने उनसे पूछा कि यह बीच-बीच में रुक कर लोगों से
कवायद क्यों करवानी? तो वे कहते, "यह तो मुझे पक्का हो जाए कि लोग जागे सुन रहे हैं कि सोए हैं!' और मैंने देखा कि यह सच था। जब वे कहते बायें हाथ ऊपर करो, तो कुछ तो करते ही नहीं, कुछ दायें कर देते।
अधिकतर
लोग तो सोए ही हुए हैं--यूं भी, आंखें खोले हुए भी सोए हैं। नींद का अर्थ है कि
तुम्हें इस बात का पता नहीं कि तुम कौन हो। काश तुम्हें पता हो जाए कि तुम कौन हो,
तो फिर जीवन में आनंद है, फिर जीवन में एक
सुवास है! क्योंकि फिर जीवन का फूल खिलता है, जीवन का सूर्य
निकलता है, उत्क्रमण की यात्रा शुरू होती है। अथर्ववेद का यह
वचन प्यारा है--"उत्क्रामातः पुरुष मावपत्थाः माच्छित्था अस्माल्लोकावग्ने
सूर्यस्य संद्दशः।'
हे
पुरुष, उत्क्रमण करो! उठो, ऊंचे उठो! इहलोक में ही रहते हुए सूर्य के सदृश्य तेजस्वी
बनो।'
पुरुष
कहते हैं, वह जो तुम्हारे भीतर बसा है। शरीर के भीतर जो बसा है वह तुम हो। वह कौन है
जो भीतर बसा है? उसका ही पता नहीं, तो
और तुम्हारे जागरण का क्या अर्थ हो सकता है? अपनी ही सूझ न
हो, अपना ही हाथ न सूझे, उसको हम अंधा
कहेंगे। और अपनी ही आत्मा भी न सूझती हो, उसको तो महाअंधा
कहना होगा। और जब तक यह अंधापन है, कैसे उत्क्रमण हो?
कैसे तुम ऊंचे उठो? मूर्च्छा गर्त है, खड्ड है। जागरण पंख लगा देता है।सारा आकाश तुम्हारा है,बस दो पंख चाहिये। सारे आकाश का विस्तार तुम्हारा है। चांदत्तारे तुम्हारे
हैं। अब तुम्हें यह जागरण की कला आ जाए तो सीढ़ी मिल गयी--मंदिर की सीढ़ियां मिल
गयीं।अब बढ़े चलो।
और
यह सूत्र इसलिए भी प्यारा है कि यह मेरे संन्यास की परिभाषा है--इहलोक में ही रहते
हुए सूर्य सदृश्य तेजस्वी बनो।' छोड़ो मत,भागो मत। संसार
में रहते हुए ही, इहलोक में ही रहते हुए ही तुम्हारा सूर्य
प्रगट हो सकता है। लेकिन सोए हुए लोग हिमालय चले जाएं, गुफाओं
में बैठ जाएं, कुछ भेद न पड़ेगा। तुम्हारी नींद तो तुम अपने
साथ ले जाओगे। तुम्हारी मूर्च्छा तो तुम्हारी छाया की तरह तुम्हारा अनुगमन करेगी।
तुम फिर चाहे त्यागी बन जाओ, तपस्वी बन जाओ, शीर्षासन करो, सिर के बल खड़े रहो, एक टांग पर खड़े रहो, भूखे मरो, जो तुम्हें करना हो करो--नींद नहीं टूटेगी। ये कुछ नींद के टूटने के
रास्ते नहीं हैं। हां, यह हो सकता है कि तुम धार्मिक ढंग के
सपने देखने लगो। यह हो सकता है कि तुम्हारे सांसारिक सपने तो हट जाएं,उनकी जगह मोक्ष और स्वर्ग के सपने आ जाएं।मगर भेद कुछ भी न होगा। कल ढब्बू
जी कह रहे थे, "भगवान, मैं पूजा
करके उठा तो देखा मेरी छोटी भतीजी कुछ देर बाद उसी आसन पर बैठ, आंख बंद कर, हाथ जोड़ कर हिल-हिल कर गा रही--दो
बेचारे, बिना सहारे, फिरते मारे मारे।'
ढब्बूजी
कहने लगे मुझसे,
"मुझे बड़ी हंसी आ गयी और मैंने पूछा--नीनू,यह क्या है! वह बोली,अभी चुप रहिए,मैं पूजा कर रही हूं चाचा जी।'
ढब्बू
जी ने कहा,
"पूजा! अरे यह फिल्मी गाना है या पूजा? इस
पर वह झट से बोली, "पूजा में आप और दादी भी तो ओम जय
जगदीश हरे, पिक्चर का गाना गाते हैं।'
इससे
क्या फर्क पड़ता है कि क्या गाना गा रहे हो? भजन हो कि फिल्मी गीत हो, तुम्हारी नींद में सब बराबर है। तुम स्वप्न स्वर्ग का भी देखो तो कोई भेद
नहीं पड़ता। तुम्हारे स्वप्न में देवता प्रकट हों तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। जाग कर
पाओगे,सब सपने झूठे थे।
कुछ
लोग संसार के सपनों में खोए हैं, कुछ लोग त्याग के सपनों में खोए हैं। और इन
त्यागियों को तुम महात्मा कहते रहे हो। इनकी नींद तुम्हारे जैसी है, जरा भी फर्क नहीं, जरा भी भेद नहीं। सपने भी
तुम्हारे जैसे हैं, क्योंकि सपना सपना है; किस चीज का देखते हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। कोई
सपने में साधु है, कोई सपने में चोर है। जाग कर तो दोनों
सपने खो जाएंगे। जाग कर तो पता चलेगा कि मैं सिर्फ द्रष्टा हूं--न चोर हूं,
न साधू हूं। मैं तो केवल साक्षी हूं।
नरेंद्र
बोधिसत्व, रज्जब का यह वचन...और रज्जब का ही क्यों, जो भी जागे
उन सारे अदभुत लोगों से ही कहे गये हैं। जागे हुए से तो कहने का कोई उपाय नहीं,
कहने की कोई जरूरत भी नहीं। जिसे खुद ही दिखाई पड़ रहा हो, उसे क्या कहना है? इसलिए दो जागे हुए व्यक्ति मिल
जाएं तो कहने को कुछ भी नहीं
है, मौन
बैठेंगे। शून्य में दोनों बैठेंगे। आह्लादित होंगे एक दूसरे को देख कर। आनंदित होंगे।
लेकिन बोलने को क्या बचेगा? बुद्ध ने कहा: तीन तरह के जोड़ हो
सकते हैं। दो बुद्धपुरुषों का मिलना हो, यह एक जोड़
--बोलना बिलकुल नहीं होगा। दो बुद्धुओं का जोड़ हो; बहुत
बकवास होगी, सुनना बिलकुल नहीं होगा। दो बुद्धपुरुष मिलें,
बोलेंगे कुछ भी नहीं, समझेंगे बहुत।
मेरे
पिता मुझे पत्र लिखते थे। नियम से पत्र लिखते थे। उनके पत्र में यह बात हमेशा होती
थी--"लिखा थोड़ा,
समझना ज्यादा।'
मैंने
उनसे कहा,
"इसको थोड़ा और आगे बढ़ाओ--लिखा कुछ भी नहीं, समझ लेना सब।' ऐसे भी कुछ लिखते नहीं थे। लिखने को
कुछ होता भी नहीं था। तो खाली कार्ड ही भेज दिए--लिखा कुछ भी नहीं, समझना सब। इसको भी लिखने की जरूरत नहीं, खाली कार्ड
आएगा तो मैं समझ ही लूंगा कि लिखा कुछ भी नहीं, समझना ही
समझना है।
कहते
हैं एकनाथ ने पत्र लिखा निवृत्तिनाथ को। खाली कागज भेज दिया। लिखो भी क्या! एकनाथ
भी जागे हुए हैं,
निवृत्तिनाथ भी जागे हुए हैं; लिखना क्या है,
कहना क्या है! दोनों देख रहे, दोनों पहचान रहे,
दोनों जी रहे। खाली कागज आया। पत्रवाहक लेकर आया, कासिद आया। निवृत्तिनाथ ने पहले पत्र पढ़ा। नीचे से ऊपर तक पढ़ा। फिर पास
में ही उनकी बहन मुक्ताबाई बैठी थी, उसे दिया कि अब तू पढ़।
फिर मुक्ताबाई ने भी पढ़ा। वह भी जाग्रत महिलाओं में से एक थी। मुक्ताबाई ने पढ़ कर
कहा, "खूब लिखा है! जी भर कर लिखा है! और एकनाथ ऐसे ही
कोरे हैं जैसा यह कागज। सब लिखावट खो गयी है, शून्य बचा है।'
और
जहां शून्य बचता है वहीं शास्त्र का जन्म होता है। शून्य से ही उठते हैं शास्त्र।
दो
बुद्धपुरुष मिलें तो शून्य का ही आदान-प्रदान होता है। सुनोगे तुम कुछ भी नहीं।
बात कह दी जाएगी,
कही बिलकुल न जाएगी। शब्द आड़े न आएंगे, हृदय
से हृदय जुड़ जाएगा। दोनों डोलेंगे मस्ती में। नाच सकते हैं हाथ में हाथ ले कर।
मदमस्त हो सकते हैं। मगर बोलने को क्या है? बुद्ध और महावीर
एक ही धर्मशाला में ठहरे, मगर मिले भी नहीं। क्या था कहने को,
क्या था मिलने को! सोचता हूं मैं तो ख्याल आता है, निवृत्तिनाथ ने भी नाहक कासिद को तकलीफ दी। काहे को भेजा कोरा कागज,
इसकी भी कोई जरूरत न थी।
बुद्ध
और महावीर मिले ही नहीं एक ही धर्मशाला में ठहरे। आधे हिस्से में बुद्ध का डेरा, आधे में
महावीर का डेरा। एक ही गांव, एक ही धर्मशाला। मिले नहीं।
क्या जरूरत! कहने को कुछ है नहीं। मिलने की कुछ बात नहीं। मगर दो बुद्धू मिल जाएं
तो बकवास बहुत। सुनता कोई नहीं। एक-दूसरे से कहे ही चले जाते हैं। फुरसत किसे
सुनने की! सिर में इतना कचरा भरा है, उसे उलीचने में लगे
हैं। अवसर चूकते नहीं। मिल गया कोई तो इसकी खोपड़ी में उलीच दो। अपना बोझ हलका करो।
लोग
कहते हैं न--आ गये,
तुमसे बात कर ली, बोझ बड़ा हल्का हो गया, सो तो बड़ी कृपा हुई कि बोझ हलका
हो गया, मगर इस बेचारे पर क्या बीती? इसका
बोझ बढ़ा दिया। एक महिला एक डाक्टर के पास गयी। घंटे भर तक डाक्टर की खोपड़ी खायी,
न मालूम कहां-कहां की बीमारियां, बचपन से लेकर
अब तक का सारा इतिहास कहा। फिर जाते वक्त बोली कि आप भी अदभुत चिकित्सक हैं,
सिर में मेरे बहुत दर्द था
जब आयी थी, अब बिलकुल चला गया है।
डाक्टर
ने कहा,
"निश्चित चला गया होगा, क्योंकि मेरी
खोपड़ी भनभना रही है। तेरा तो गया, मुझे मिल गया। गया कहीं
नहीं है। घंटे भर तूने सिर खाया तो मेरा सिर दुख रहा है अब। तू तो हल्की हो गयी।
बिना दवा के चिकित्सा हो गयी।'
न
तो दो मूढ़ों के बीच बात होती है, न दो जाग्रत पुरुषों के बीच बात होती है।
जाग्रत पुरुष बोलते नहीं, मूढ़ पुरुष सुनते नहीं। फिर तीसरा
एक संयोग है कि जाग्रत और सोए के बीच। बस वहीं बात हो सकती है। जाग्रत कहता है कि
सुनो। सोया हुआ सुने, न सुन, मगर
जाग्रत को कहना ही होगा। उसकी करुणा।
रज्जब
ने ही नहीं, जो भी जागे उन्होंने संबोधन ही किया है सोए हुए लोगों को। सोए हुए को
जगाना है। रज्जब का यह वचन बड़ा प्यारा है। पूरा वचन समझने जैसा है।
"खिन खिन दुखिया दग्धिये, विरह विथा तन पीर।
धड़ी
पलक में बिनसिए,
ज्यूं मछली बिन नीर।।'
खिन
खिन दुखिया दग्धिये! लोग दग्ध हो रहे हैं दुख में। क्षण-क्षण दुख ही दुख। प्रतिपल
दुख ही दुख। और तो कुछ जाना ही नहीं।
क्या
है तुम्हारा जीवन?
जरा पन्ने पलटो। अपनी कथा को देखो। व्यथा ही व्यथा है। हर पन्ने पर
दुख के दाग हैं। हर पन्ने पर पीड़ा की लिखावट है। हर पन्ने पर आंसू टपके हैं। खिन
खिन दुखिया दग्धिये जैसे कोई आग में जलता हो! और तुम पूछते हो कि नर्क है या नहीं?
नर्क में जीते हो और पूछते हो कि नर्क है या नहीं! मेरे पास लोग आ
जाते हैं, वे पूछते हैं कि नर्क है या नहीं? मैं उनसे कहता हूं, "पागल! और तुम सोचते हो कि
तुम हो कहां! नर्क में ही हो। कहीं और कोई नर्क नहीं है।' यह
सोच रहे हैं कहीं और भी नर्क होगा। नर्क भी यहीं, स्वर्ग भी
यहीं है। नर्क जीवन की शैली है। यह कोई भौगोलिक स्थान नहीं।
मैंने
सुना, जब पहला रूसी अंतरिक्ष यात्री चांद का परिभ्रमण करके लौटा तो ख्रुश्चेव ने
उससे पूछा--एकांत में स्वभावतः, बिलकुल अकेले में--कहा कि
दरवाजा भी बंद कर दे। पूछा कि एक बात बता, चांद का चक्कर लगा
कर आया, ईश्वर दिखाई पड़ा?
उसने
मजाक किया। उसने कहा,
"हां, ईश्वर है।' ख्रुश्चेव
ने कहा, "मुझे पहले संदेह था कि होगा। मगर कसम खा ली कि
किसी और को न बताना।'
जो
संग्रहालय मास्को में बनाया गया है, चांद से लाई गयी मिट्टी, पत्थरों का जहां संग्रह है, अंतरिक्ष के संबंध में
जो अब तक खोज हुई है, चित्र लिए गये हैं, उनका संग्रह है--उसके द्वार पर लिखा हुआ है कि हमारे अंतरिक्ष यात्री चांद
पर पहुंच गये और उन्होंने एक बात सुनिश्चित रूप से पायी कि वहां कोई ईश्वर नहीं
है।
फिर
यह अंतरिक्ष यात्री जगह-जगह निमंत्रित हुआ। यह वैटिकन भी गया, जहां
ईसाइयों के केथौलिक संप्रदाय के प्रधान, पोप का निवास है।
पोप ने भी उसे बुलाया। दरवाजा लगवा लिया, वैसे ही जैसे
ख्रुश्चेव ने लगवाया था। और पूछा कि एक बात बताओ, बिलकुल
एकांत, कानोंकान, किसी को खबर न
हो--"ईश्वर दिखाई पड़ा?'
उसे
मजाक सूझी। एक मजाक ख्रुश्चेव से की थी, यहां भी वह चूका नहीं। उसने कहा कि
ईश्वर है ही नहीं, कोई ईश्वर दिखाई नहीं पड़ा।
पोप
ने कहा,
"मुझे पहले ही संदेह था।' मगर अब तुम
इतनी कृपा करना, यह बात किसी से कहना मत।'
यहां
नास्तिकों को भी संदेह है--हो न हो, ईश्वर हो! यहां आस्तिकों को भी
संदेह है कि हो न हो, ईश्वर न हो! सब कल्पना-जाल में खोए हुए
हैं। किसी का कोई अनुभव नहीं है।
लोग
पूछते हैं,
"नर्क है?' जैसे कि नर्क कोई भौगोलिक चीज
है! या स्वर्ग कोई भौगोलिक चीज है! लोग पूछते हैं, "ईश्वर
कहां है?' जैसे कि ईश्वर कोई व्यक्ति है और किसी सीमा में
आबद्ध होगा! स्वर्ग और नर्क जीवन की शैलियां हैं। नर्क का अर्थ है-- जिसे अपने
ईश्वर होने का बोध नहीं, उसके जीवन की शैली नर्क होगी। खिन
खिन दुखिया दगधिये! वह जलेगा आग में। और जिसे पता है कि में ईश्वर हूं, मेरे भीतर ईश्वर है--उसके जीवन शैली में स्वर्ग होगा। उसके आसपास मुरली
बजेगी। उसके आसपास अप्सराएं नाचेंगी। उसके आसपास फूल खिलेंगे। उसके आसपास गीतों की
झड़ी लगेगी। जिसे अपने भीतर के ईश्वर का पता है, उसके जीवन
में स्वर्ग होगा। और जिसे अपने भीतर के ईश्वर का पता नहीं, उसका
जीवन नर्क होगा।
नर्क
और स्वर्ग कहीं और नहीं है। यहीं रज्जब जैसे व्यक्ति स्वर्ग में जीते हैं और तुम
यहीं नर्क में जीते हो। तुम्हारा चुनाव।
खिन
खिन दुखिया दग्धिये! क्षण-क्षण जल रहे हो, मगर जलने की तुम्हारी आदत हो गयी
है। अब तो तुम जानते ही नहीं कि जीवन का कोई और ढंग भी हो सकता है। तुम मान कर ही
बैठ गये कि बस यही जीवन की एक व्यवस्था है, यही जीवन का एक
रंग है, यही एक रूप है। जीवन इतने पर समाप्त नहीं है।
सितारों
के आगे जहां और भी हैं
इश्क
के अभी इम्तिहां और भी हैं
जो
तुमने जाना है वह तो कुछ भी नहीं है। सितारों के आगे जहां और भी हैं! अभी और बहुत
जानने को शेष है। अभी जाना ही कुछ नहीं। अभी तो जानने का पहला कदम भी नहीं
उठाया।
अज्ञान
में तो दग्ध होओगे ही। अज्ञान ही अग्नि है। नर्क में तुमने जिन कड़ाहों की बात सुनी
है कि जल रहे हैं और आदमी कड़ाहों में भूने जा रहे हैं, इस
भ्रांति में मत पड़े रहना कि ये कड़ाहे वस्तुतः कहीं हैं। यह तुम कैसे जीते हो,
इस पर निर्भर है। तुमने अपने चारों तरफ कड़ाही बना ली है, इसमें भुने जा रहे हो। तुम जरा गौर से अपने जीवन को तो देखो!
मगर
हम इतने होशियार हैं कि हमने नर्क को भी बहुत दूर पाताल में रख दिया है। इस तरह यह
भ्रांति बनी रहती है कि हम कोई नर्क में नहीं हैं। थोड़ा दान-पुण्य कर लेंगे, गंगा में
स्नान कर आएंगे, काबा की यात्रा करके हाजी हो जाएंगे,
थोड़ा गरीबों को, भिखारियों को, ब्राह्मणों को दान दे देंगे--बस स्वर्ग अपना है। एक पिंजरा पोल खुलवा
देंगे, गौ रक्षा करवा देंगे कि अनाथ बच्चों के लिए अनाथालय
खुलवा देंगे। करोड़ों रुपये कमाओगे और दस-पांच हजार लगा कर एक हनुमान जी की मड़िया
बनवा दोगे। और सोचते हो स्वर्ग निश्चित!
तुमने
स्वर्ग को भी दूर रख दिया है, वह भी होशियारी है। वह भी यहां स्वर्ग से बचने
का उपाय है। और तुमने नर्क को दूर रख दिया है, ताकि तुम्हें
यह दिखाई न पड़े कि तुम जहां हो वह नर्क है।
मैं
चाहता हूं, तुम दोनों को पास ले आओ। नर्क भी तुम्हारे वातावरण का नाम है और स्वर्ग
भी। और फिर बात तुम्हारे हाथ में है। फिर
चाहो तो नर्क में जीओ, कोई तुम्हें रोकता नहीं। अगर
तुम्हें नर्क में ही रस आता हो...कुछ नर्क
के कीड़े होते हैं, करोगे भी क्या! गुबरीले होते हैं, गोबर के कीड़े होते हैं। उनको गोबर में ही सुख है। तो उनको तुम नाहक गोबर
से निकाल कर स्वच्छ भूमि पर मत रख देना, नहीं तो वे मर
जाएंगे। उनको तो गोबर में ही रस है।
तुम
अगर नर्क में ही जीना चाहते हो तो भी जान कर जीओ कि यही मेरा सुख है। कड़ाहों में जब तक मैं भूना न
जाऊं, मुझे मजा न आएगा। फिर तुम्हारी मर्जी। तुम स्वतंत्र हो।
मनुष्य
की गरिमा यही है कि वह स्वतंत्र है। चुनाव
अपने हाथ है। लेकिन जान कर चुनना। और मैं यह समझता हूं कि जान कर कोई भी नर्क नहीं
चुन सकता है। गुबरीला भी जान ले यह गोबर है, तो गोबर नहीं चुन सकता है, चाहे गऊमाता का ही गोबर क्यों न हो!
गुबरीले भी इतने बुद्धु नहीं होते
जितने गौ-भक्त होते हैं। गुबरीला भी छोड़
भागेगा अगर उसको पता चल जाए यह गोबर है।
बेचारे को पता नहीं तो जीता है। सोचता है
यही जीवन की शैली है। बाप-दादों से चली आयी है, परंपरा से
चली आयी है, सदियों से चली आयी है। इसी में सदा रहे हैं। इसी
में पैदा हुए हैं। यही दुनिया है।
गुबरीले
को क्षमा किया जा सकता है। मगर तुम्हारी गौ-भक्ति क्षमा नहीं की जा सकती। तुम आदमी
हो। तुम मनुष्य हो।
मनुष्य
का अर्थ होता है--जिसके पास मनन करने की क्षमता है। आदमी शब्द उतना अच्छा नहीं।
आदमी तो आदम से बनता है। आदम का अर्थ होता
है--मिट्टी मिट्टी से बनाया परमात्मा ने आदमी को। मिट्टी का पुतला बनाया, फिर उसमें
सांस फूंक दी। एक अर्थ में सच है। शरीर के बावत सच है। आदमी शब्द में शरीर की
सूचना है कि तुम शरीर हो। मनुष्य शब्द में तुम्हारे मनन की क्षमता की घोषणा है कि तुम्हारे पास बोध है।
मनुष्य
हो, थोड़ा विचार करो, थोड़ा सजग हो कर अपने चारों तरफ
देखो--तुमने यह क्या जिंदगी बना रखी है? जिसमें खिन-खिन
दुखिया दगधिए! जिसमें कि दग्ध हो रहे हो! और अपने हाथों से ईंधन डालते हो, अपने ही हाथों से कड़ाही बनाते हो, अपने ही हाथों से
कड़ाही में तेल उंडेलते हो। और यह भी नहीं देखते कि तेल के कितने भाव बढ़ गए! ईंधन
भी पाना मुश्किल हो गया, मगर कष्ट देने के लिए तुम सब तरह का
ईंधन जुटा लेते हो। लाख-लाख उपाय करके ईंधन जुटाते हो, तेल
जुटाते हो, कड़ाहे लाते हो। फिर उसी में गिरते हो।
मैंने
सुना है कि रोम में बहुत धनी लुहार था। उसकी प्रतिष्ठा थी कि उसके द्वारा बनायी
गयी हथकड़ियों को कभी कोई तोड़ नहीं सका। कोई कैदी भाग नहीं सका उसकी हथकड़ियों और
बेड़ियों को तोड़ नहीं सका। सारे यूरोप में उसकी ख्याति थी। वह अपनी हर हथकड़ी बेड़ी
पर दस्तखत करता था। उसके दस्तखत जिस हथकड़ी और बेड़ी पर होते उस पर भरोसा किया जा
सकता था। वह कोई भारतीय ढंग की चीजें नहीं
बनाता था।
इधर
मैंने सुना है कि हिमालय की चढ़ाई के लिए एक भारतीय यात्री-दल गया था, पर्वतारोही
आरोहण कर रहे थे। एक आदमी उस आरोहण में बड़ा डर रहा था। कप्तान ने उससे पूछा कि तू
इतना भयभीत क्यों हो रहा है? उसने कहा, "मैं राज की बात कह दूं। मुझे पहाड़ वहाड़ का डर नहीं है। मैं डरता हूं
इस रस्सी से जिस पर चढ़ना है, क्योंकि यह मेरे ही कारखाने की बनी है जहां मैं काम करता हूं। और मैं
जानता हूं मेरे कारखाने में बनने वाली रस्सियां की हालत। यह कब टूट जाए, इसका कुछ भरोसा नहीं है। मैं पहाड़ चढ़ने से नहीं डर रहा हूं, इस रस्सी को देख कर डर रहा हूं। यह रस्सी दगा देगी। यह स्वदेशी है! ठीक
भारत में बनी है। और मेरे ही कारखाने में
बनी है। और किसी के कारखाने में बनी होती तो भी मुझे पता नहीं होता। मैं अपने कारखाने को जानता, कारखाने की रस्सियों को जानता।
उस
लुहार की बड़ी ख्याति थी। फिर रोम पर हमला हुआ और रोम के सभी धनी लोग पकड़ लिए गये।
दुश्मन ने रोम को जीत लिया। वह लुहार भी पकड़ा गया, क्योंकि वह काफी धनी था। उन सबके
हाथों में हथकड़ियां डाल दीं। उन सबको दुश्मन ले चला। सौ प्रतिष्ठित नागरिक जो रोम
के थे, उनको जंगल में ले जाकर जंगली जानवरों का भोजन बनवा
दिया। फिंकवा दिया जंगल में। निन्यानबे तो रो रहे थे, चिल्ला रहे थे, मगर वह लुहार
निश्चिंत था। पूछा किसी ने राह में उससे कि तुम बड़े निश्चिंत मालूम हो रहे हो!
उसने कहा, "कोई फिक्र न करो, तुम
भी निश्चिंत रहो। मैं जानता हूं हर हथकड़ी तोड़ी जा सकती है। जिंदगी भर मैंने
हथकड़ियां बनायी हैं। इसलिए फिक्र मत करो।
पहले मैं अपनी तोड़ लूंगा, फिर तुम्हारी तोड़ दूंगा। एक दफा
इनको फेंक कर चले जाने दो, ये निश्चिंत हो जाएं कि हम फेंक आए जंगल में हथकड़ियां बेड़ियां डाल, अब तो भाग नहीं सकते ये, अब तो इनको
जंगली जानवर खाएंगे। तुम जरा इनको चला
जाने दो। घबराओ मत, रोने की कोई जरूरत नहीं। मैं हूं।'
वे भी आश्वस्त हुए। जंगल में छोड़ कर जब दुश्मन चले
गये तो उन्होंने उस लुहार से कहा, " भई अब कुछ करो।' वह
लुहार तो रोने लगा। उन्होंने कहा, अरे अब तक तुम कहते थे कि मैं करके दिखा दूंगा,
अब रोते क्यों हो?'
उसने
कहा कि रो इसलिए रहा हूं कि मैंने हथकड़ी पर गौर किया, यह तो
मेरी ही बनायी हथकड़ी है, यह टूट नहीं सकती। इस पर मेरे दस्तखत हैं।यह किसी और ने बनायी होती तो
जरूर तोड़ लेता। यह मेरी ही बनायी गयी है। और मैं जानता हूं कि मेरी बनायी गयी चीज
को तोड़ने का कोई उपाय नहीं। जो टूट जाए,
ऐसी मैं चीज नहीं बनाता। आज पता चला, अपनी ही
हथकड़ियों में एक दिन मरा जाना होगा। कभी सोचा न था खुद ही ढालता हूं और अपनी मौत
ढाल रहा हूं।
मैंने
जब यह कहानी पढ़ी तो मुझे लगा यह तो सबकी
कहानी है, यह तो हर आदमी की कहानी है। तुम्हारे हाथों में जो हथकड़ियां हैं, पैरों में जो बेड़ियां हैं, वे
किसने ढाली हैं? वे तुमने ढाली हैं? जरा
गौर से देखो, तुम उन पर अपने हस्ताक्षर पाओगे। यह नर्क
तुम्हारा बनाया हुआ है।
लेकिन
इतना में तुमसे कह सकता हूं कि वह लुहार
तोड़ सका या नहीं तोड़ सका, ये हथकड़ियां ऐसी हैं जो तुमने
बनायी हैं, निश्चिंत
तुम इन्हें तोड़ सकते हो। मैंने तोड़ी हैं।
अपनी ही बनायी थी। तो मैं जानता हूं कि तुम भी तोड़ सकते हो। तुम्हारी बनायी हैं। बनाने वाले से बनायी गयी
चीज कभी बड़ी नहीं होती। कितनी ही मजबूत हो, जिसने बनाया है, वह इसे बिगाड़ भी सकता है, मिटा भी सकता है। यह हस्ताक्षर तुम पोंछ भी दे सकते हो। और ये
हथकड़ियां लोहे की नहीं हैं, सिर्फ कल्पना की हैं, विचारों की हैं, इच्छाओं की हैं, वासनाओं की हैं। और तब स्वर्ग भी
फूट पड़ सकता है--झरना जैसे फूट पड़े!
"खिन खिन दुखिया दगधिये, विरह विथा तन पीर।'
तुमने
जाना ही नहीं कुछ और। व्यथा जानी है। और क्या है व्यथा जीवन की? क्या है
व्यथा का मूल आधार? कि हम अपने ही भीतर के परमात्मा से
टूट गये हैं, अपने
से ही छूट गये हैं। जैसे जड़ें उखड़ जाएं किसी वृक्ष की, ऐसे
हम भूमि से उखड? गए हैं। सूख रहे हैं, कुम्हला
रहे हैं। फूलते नहीं फलते नहीं। पत्ते झरे
जा रहे हैं। और फिर भी यह फिक्र नहीं करते कि गौर कर लें, हमारी
जड़ें कहीं उखड़ तो नहीं गयीं भूमि से?
मगर तुम तो और उखाड़ने में लगे हो।
अहंकार
और क्या है? अहंकार इस बात की घोषणा है कि मैं अलग हूं,, मैं
भिन्न हूं, मैं इस पूरे अस्तित्व से भिन्न हूं। अलग-थलग खड़े
होने की चेष्टा है अहंकार अहंकार का अर्थ अपनी जड़ों को तोड़ लेना अस्तित्व से। और
निर-अहंकार का अर्थ है अपनी जड़ों को फिर
जोड़ लेना अस्तित्व से। अहंकार नर्क पैदा करता है और निर-अहंकारिता में स्वर्ग की सुगंध आ जाती है। निर-अहंकारिता से गीत बहते
हैं स्वर्ग के। और अहंकार से सिर्फ
दुर्गंध निकलती है--लाशों की सड़ी दुर्गंध!
अहंकार इस जगत में सबसे बड़ा असत्य है।
मगर
बड़े मजेदार लोग हैं! वे जगत को माया कहते हैं। और मैं हूं, इसको जकड़
कर पकड़ते हैं। सारा जगत माया है, यह मानने को राजी हैं वे, लेकिन मैं? मैं सत्य हूं! जब कहते हैं वे
ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या--तो साथ
में वे यह भी कहते हैं--अहं
ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं! मैं
सत्य हूं और सारा जगत असत्य है!
बात
उल्टी है। मैं असत्य है और सब सत्य है। मैं से बड़ी कोई झूठ नहीं। फिर मैं से और
झूठें पैदा होती हैं,
जैसे मृत्यु। जिसके पास मैं का भाव है उसको मृत्यु का भय सताएगा, क्योंकि
मैं को तो मरना ही
होगा। यह मैं-भाव जी नहीं सकता। यह झूठ है, यह तो
गिरेगा ही,टूटेगा ही। यह तो कितनी बार गिरता है और तुम फिर
इसे उठा-उठा कर खड़ा कर लेते हो। बैसाखियां दिये जाते हो इसको, नयी नयी बैसाखियां खरीदे जाते हो। इसको नये-नये सहारे लगाए चले जाते हो।
इससे भारी मोह है तुम्हारा। यह सब तरह से तुम्हारे जीवन में व्यथा लाता है।
विरह
विथा! विरह किससे हो गया है? अपने से ही विरह हो गया है। अपने स्वभाव से
विरह हो गया है। अपने स्वरूप से टूट गये हो।
ध्यान
रहे, वह जो तुम्हारे भीतर सत्य है वहां कोई मैं भाव नहीं है। वह तो मैं से
बिलकुल शून्य है। इसलिए मैं बुद्ध से ज्यादा राजी हूं, बजाए
उपनिषदों के। उपनिषदों की भाषा खतरनाक है, धोखे में डाल सकती
है। अहं ब्रह्मास्मि--यह हर अहंकारी को पसंद आएगा। मैं ब्रह्म हूं--कौन नहीं
चाहेगा! दिल बाग-बाग हो जाता है--अहा, मैं ब्रह्म हूं! यही
तो हम चाहते हैं। यही तो हमारी आकांक्षा है।
बुद्ध
से हम बहुत नाराज हुए। आज तक हम बुद्ध का क्षमा नहीं कर पाए। कसूर क्या था इस आदमी
का? इस आदमी का कसूर था कि इसने तुम्हारे अहंकार पर जितनी चोट की, दुनिया में किसी आदमी ने कभी नहीं की थी। बुद्ध ने कहा--"अनत्ता,
अनात्मा।' बुद्ध ने कहा, कोई आत्मा नहीं तुम्हारे भीतर। क्योंकि आत्मा शब्द के पीछे मैं बच जाता
है। आत्मा यानी मैं। आत्मा सुंदर कवच बन जाती है मैं को बचाने की। बुद्ध ने कहा
कोई आत्मा नहीं है, ताकि
मैं की बिलकुल ही संभावना न रह जाए। क्योंकि बुद्ध जानते हैं कि जो है वह तो है। आत्मा शब्द के
कारण अहंकार बच जाएगा, इसकी आड़ में अहंकार बच जाएगा। और जब
हम किन्हीं गलत शब्दों को धार्मिक रंग दे देते हैं तो फिर बचने की बहुत सुविधा हो
जाती है। और हम हर चीज को धार्मिक रंग देने में कुशल हो गये हैं।
जैसे
जहर की गोली भी किसी को खिलानी हो तो हम उस पर शक्कर की एक पर्त चढ़ा देते हैं, चासनी चढ़ा
देते हैं। शक्कर के स्वाद में आदमी जहर को गटक जाता है। ऐसे ही हमने हर जहर को
धर्म की चासनी चढ़ा दी है। अहंकार तो जहर है, लेकिन उसको
आत्मा कहो--बस प्यारा हो गया, मीठा हो गया, स्वादिष्ट हो गया! अब गटक जाओ मजे से। अब तुम्हें कोई अड़चन न आएगी,
कोई रुकावट भी न आएगी, कोई यह भी न कह सकेगा
कि यह तुम क्या कर रहे हो। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि तुम्हारे तथाकथित महात्मा
और संत जितने अहंकारी होते हैं उतना कोई और नहीं। राजनेताओं को भी मात दे देते हैं,
सम्राटों को भी मात दे देते हैं। तुम्हारे तथाकथित ब्राह्मण,
पंडित जितने अहंकारी होते हैं उतना कोई और नहीं।
यह
देश तो अच्छी तरह परिचित है। पांच हजार साल हो गये, इस देश पर ब्राह्मण अपने
अहंकार के कारण छाती पर चढ़ा हुआ है। और ब्राह्मण ने शास्त्र रचे हैं, उसके अहंकार से निकले शास्त्र हैं। मनुस्मृति जैसा शास्त्र लिखा है,
जिसको हर होली पर जलाया जाना चाहिए। रावण को जलाकर क्या करोगे?
पुतला बनाओ और जलाओ! अपना ही पुतला बनाते हो और जलाते हो, नाहक मेहनत कर रहे हो! अब रावण को जलाना बंद करो। रावण की जगह मनुस्मृति
जलाओ, क्योंकि मनुस्मृति ब्राह्मण के अहंकार की उदघोषणा है,
हिंदू के अहंकार की उदघोषणा है। हिंदू की सारी मूढ़ता मनुस्मृति पर
आधारित है।
मनुस्मृति
कहती है कि ब्राह्मण सर्वोच्च है। ब्राह्मण मुख से पैदा हुआ। क्षत्रिय बाहुओं से
पैदा हुए। वैश्य जंघाओं से पैदा हुए। शूद्र पैरों से पैदा हुए। इसलिए शूद्रों की
वही गति है जो जूतियों की। इससे ज्यादा उनकी कोई हैसियत नहीं है। और वैश्य भी कुछ
ऊंचा नहीं, क्योंकि नाभि के नीचे का जो शरीर है वह निम्न है। इसलिए वैश्य शूद्र से
जरा ही ऊंचा है, ख्याल रखना। इस भ्रांति में मत पड़ना कि
वैश्य कुछ ऊंचा है। मनुस्मृति की उदघोषणा के अनुसार वैश्य भी बस शूद्र से इंच भर
ही बड़ा है, जंघाओं से पैदा होता है। शरीर को भी बांट दिया
हिस्सों में। जो अविभाज्य है उसको भी विभाजित कर दिया। जो जो अंग कमर के नीचे हैं
वे निम्न हैं और जो कमर के ऊपर हैं वे उच्च। क्षत्रिय बाहुओं से पैदा हुए। वे जरा
ऊंचे वैश्यों से। मगर ब्राह्मण मुख से पैदा हुए--ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए।
वैश्य चाहे तो शूद्र की लड़की से विवाह कर सकता है, शूद्र
नहीं कर सकता। क्षत्रिय चाहे तो वैश्य और शूद्र की लड़की से विवाह कर सकता है,
लेकिन वैश्य क्षत्रिय की लड़की से विवाह नहीं कर सकता। और ब्राह्मण
चाहे तो किसी की लड़की से विवाह करे, ब्राह्मण की लड़की से कोई
विवाह नहीं कर सकता। सौ शूद्र भी मार डालो तो कोई पाप नहीं और अगर एक ब्राह्मण को
भी मार डालो तो जन्मों जन्मों तक नर्कों
में सड़ोगे। ब्राह्मण ही लिखेंगे शास्त्र तो स्वभावतः अपने अहंकार की प्रतिष्ठा करेंगे, अपने
अहंकार को बचाएंगे।
और
बुद्ध ने कहा कि ब्राह्मण कोई जन्म से नहीं होता, न कहीं कोई ब्रह्मा है
जिसके मुंह से ब्राह्मण पैदा हुए। यह सब ब्राह्मणों की ईजाद, ये सब पंडित पुरोहित की चालबाजियां, ये बेईमानियां,
ये शोषण के ढंग। शूद्र को
वेद सुनने का भी अधिकार नहीं। एक शूद्र के कान में राम तक ने सीसा पिघलवा कर डलवा
दिया, क्योंकि यह खबर दी गयी उनको कि उस शूद्र ने किसी
ब्राह्मण के द्वारा वेद पढ़ा जा रहा था उसको छुप कर सुन लिया है।। और राम को तुम
मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हो, संकोच भी नहीं, शर्म भी नहीं! तो फिर अब जो शूद्र जलाए
जाते हैं गांवों में, वह सब धार्मिक कृत्य है! राम तक
कर सकते हैं, तो साधारण जनों का क्या कहना!
"स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं। स्त्रियों को कोई मनुष्य होने का हक नहीं।
स्त्रियां वस्तुएं जैसी हैं। स्त्री को तो पति के साथ मर जाना चाहिए, सती हो जाना चाहिए। यही उसका एक मात्र उपयोग है--पति के लिए जीए, पति के लिए मरे।' पुरुषों ने शास्त्र लिखे तो
पुरुषों ने अपने अहंकार की रक्षा कर ली। स्त्री के अहंकार को बचाने वाला तो कोई
शास्त्र नहीं। महात्माओं ने शास्त्र लिखे तो अपने अहंकार की व्यवस्था कर ली
उन्होंने कि महात्माओं की सेवा करो, इसमें पुण्य है।
महात्माओं के पैर दबाओ, इसमें पुण्य है। इससे स्वर्ग मिलेगा।
बुद्ध
ने इस सब की जड़ काट दी। कहा: ब्राह्मण होता है कोई ब्रह्म को जानने से। और ब्रह्म
है तुम्हारा स्वभाव। और स्वभाव का पता तब चलता है जब मैं बिलकुल मिट जाता है।
आत्मा को भी मत अपने पकड़ कर रखना, नहीं तो उतने में भी अहंकार बच रहेगा। बुद्ध को
हम क्षमा नहीं कर पाए, क्योंकि बुद्ध ने बाहर के ईश्वर को भी इनकार कर दिया और भीतर की आत्मा
को भी इनकार कर दिया। अहंकार को कहीं भी बचने की कोई जगह न दी, कोई शरण न दी। अहंकार को जिस तरह से बुद्ध ने काटा, पृथ्वी
पर किसी व्यक्ति ने कभी नहीं काटा था।
इसलिए बुद्ध की जो अनुकंपा है वह बेजोड़ है, उसका कोई जवाब
नहीं बुद्ध बस अपने उदाहरण स्वयं हैं।
लेकिन
हमने उखाड़ फेंका बुद्ध को इस देश से। यह धार्मिक देश है! धार्मिक नहीं है, अहंकारी
है। इसलिए उखाड़ फेंका बुद्ध को, क्योंकि बुद्ध ने हमारे
अहंकार पर ऐसी चोटें कीं कि हम कैसे बर्दाश्त करते। हमने बदला लिया।
अहंकार
का अर्थ है: मैं अलग हूं अस्तित्व से। अस्तित्व से माया है, मैं सत्य
हूं! यह वृक्ष, ये पशु-पक्षी, ये आकाश,
ये चांद तारे--ये माया हैं, मैं सत्य हूं और
मजा यह है कि ये सब सत्य हैं और मैं माया है। लेकिन मैं को माया कहने में हमारे
प्राण छटपटाते हैं। हालांकि इस मैं के कारण ही हम दुख झेलते हैं। हमारी मूढ़ता बड़ी
सघन है! हम यह भी नहीं देखते कि हमारे दुख का कारण क्या है।
तुमने
कभी ख्याल किया कि मैं ने कितना दुख दिया है तुम्हें! मैं भाव ने सिवाय घावों के
और क्या दिया है,
उसकी भेंट और क्या है? मैं एक घाव है, जो जरा सा छू दो तो दुखता है। जब
तुम्हारा कोई अपमान कर देता है तो कौन-सी चीज दुखती है तुम्हारे भीतर? क्या कोई तुम्हारा अपमान करता है इसलिए पीड़ा होती है? इससे क्या पीड़ा होगी? उसने अपनी जबान खराब की,
तुम्हारा क्या बिगड़ा? उसकी मौज उसकी जबान है।
जैसा चलाए चलाए। उल्टी चलाए, सीधी चलाए--उसकी जबान है। भजन
गाए, गाली बके--उसकी जबान है, तुम्हारा
क्या बनता बिगड़ता है? तुमसे क्या लेना-देना है? अगर अहंकार न हो तो तुम्हें दया आएगी उस पर। मगर अहंकार है तो छिद जाएगी
तलवार की तरह गाली, बदला लेने को आतुर हो जाओगे। उसको जड़ मूल
से नष्ट करने के लिए आबद्ध हो जाओगे। अहंकार दुखता है।
अहंकार
की ही आकांक्षा है कि धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो।
अहंकार दौड़ता है। और धन, पद, प्रतिष्ठा
की दौड़ में सिवाय दुख के और कुछ भी हाथ लगता नहीं। इस जगत में किसको सफलता मिली
है। असफलता ही असफलता है। असफलता तुम्हारे अहंकार के कारण है, मैं तो कोई असफलता नहीं देखता। मैं तो इस जगत में आनंद ही आनंद देखता हूं।
मैं तो यहां चारों तरफ उत्सव देखता हूं। मैं तो एक पल भी अनुभव नहीं करता कि कहीं
कोई असफलता है, कि कहीं कोई विषाद है, कि
कहीं कोई संताप है।
लेकिन
अहंकार है तो फिर सब विषाद ही विषाद है। जो आदमी तुम्हें रोज नमस्कार करता था, आज बिना
नमस्कार किए निकल जाए, बस, गाली भी नहीं
दी उसने, सिर्फ बिना नमस्कार किए निकल गया--और तुम्हारा
चित्त उद्विग्न हो उठा! जरा गौर करो, कौन तुम्हारे जीवन में
दुख पैदा कर रहा है? लेकिन तुम बड़े होशियार हो। उसको तो नहीं
देखते जो दुख पैदा कर रहा है, और और तरकीबें खोजते हो। और
तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हारी तरकीबों में समर्थन देते हैं। वे कहते हैं पिछले
जनम में कोई पाप किया होगा, उसके कारण दुख झेल रहे हो। बंद
करो यह बकवास! पिछले जनम में तुमने जो
किया होगा पिछले जनम में भोग लिया होगा, अब क्या भोगना है?
जगत में सब चीजें नगद हैं, इतनी उधार थोड़े ही।
आग में अभी हाथ डालोगे, अगले जन्म में जलोगे? अरे अभी जल जाओगे। पिछले जन्म में हिसाब-किताब हो जाता है, वहीं हो जाता है। निपटारा तत्क्षण हो जाता है। जगत में उधारी थोड़े ही चलती
है।
एक
भिखमंगा भीख मांग रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन के सामने उसने अपना पात्र बढ़ा दिया बीच
बाजार में। दे तो मुश्किल,
न दे तो मुश्किल।। दे तो मुश्किल, क्योंकि
देना चाहता नहीं, फिर पीछे पछतावा होगा कि लूट लिया उस दुष्ट
ने बीच बाजार में भिक्षापात्र फैला कर! लेकिन न दे तो मुश्किल, कि लोग क्या कहेंगे, क्या कंजूस! भिखारी भी हिसाब
रखते हैं कि कहां भिक्षापात्र...। ऐसी जगह भिक्षा मांगने खड़े हो जाते हैं जहां
आदमियों में बदनामी हो जाए अगर पैसे न दो। लोग कहने लगे कि अरे क्या महा कंजूस!
तुमसे दो पैसे न दिए गये! तो अपनी जिद भी बचानी है--मतलब अहंकार भी बचाना है,
बाजार में साख भी रखनी है। और धन का मोह भी है, क्योंकि धन है तो अहंकार है। जेब गरम है तो अहंकार में कुछ वजन होता है।
जेब खाली है तो क्या खाक वजन होगा! कौन पूछता है जिसके पास धन नहीं है उसे! तो धन
को भी बचाना है, प्रतिष्ठा भी बचानी है। तरकीब निकालनी पड़ती
है फिर।
मुल्ला
ने कहा कि भई आज तो मैं कुछ लिए नहीं हूं, जेब खाली है, कल लेकर आऊंगा, तब दे दूंगा। तो उस भिखारी ने कहा,
"जो भी कुछ हो दे दो भैया, क्योंकि इसी
तरह उधारी करते-करते बहुत उधारी हो गयी। जो देखो वही कल देता है, फिर कल पता ही नहीं चलता। ऐसी करोड़ों की उधारी हो गयी है मेरी, अब और उधार नहीं कर सकता। क्या मेरा धंधा बिलकुल डुबाना है?'
इस
जगत में उधारी नहीं चलती। यहां सब नगद मामला है। धर्म भी नगद है, उधार
नहीं। यहां तुम प्रेम दोगे, अभी प्रेम बरसेगा। और यहां तुम
पीड़ा दोगे, अभी पीड़ा आएगी। अभी दीया बुझाओगे, अभी अंधेरा हो जाएगा। और अभी दीया जलाओगे, अभी उजाला
हो जाएगा, कि अगले जन्म में? इतनी देर?
लेकिन
लोग होशियार हैं। उन्होंने कहावतें खोज रखी हैं। कहते हैं: "देर है, अंधेर
नहीं।' मगर देर ही तो अंधेर है। और क्या अंधेर होगा? देर भी नहीं है--मैं तुमसे कहता हूं--अंधेर भी नहीं है। सब नगद है। मगर
अहंकार को नहीं देखना है तो कहीं भी टालना है। पिछले जन्म में किए थे कोई कर्म,
उनका दुख भोग रहे हैं; या भाग्य में लिखा है,
किस्मत में लिखा है, हम करें भी तो क्या कर
सकते हैं? न तुम्हारे भाग्य में लिखा है। किसी के भाग्य में
कुछ नहीं लिखा है।। कोई परमात्मा एक-एक की खोपड़ी में लिख कर नहीं भेजता, जैसा तुम सोचते हो कि विधाता बैठा है और विधि लिखता जाता है, हर एक की खोपड़ी में लिख देता है यह यह होगा। कोई विधाता नहीं--तुम विधाता
हो! कोरा कागज तुम्हारे हाथ में देता है। कोरा चैक, फिर तुम
जो चाहो लिख लेना। तुम्हारे ऊपर सब निर्भर है। यह सब तुम्हारी लिखावट है जो तुम
भोग रहे हो। कोई किस्मत नहीं। कोई किस्मत
नहीं है! कोई भाग्य नहीं है।
मगर
लोग तरकीबें ईजाद कर लेते हैं। हर चीज में ईजाद कर लेते हैं।
मैंने
सुना है कि स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी को सात का अंक हमेशा शुभ सिद्ध हुआ था। वे
सातवें, महीने अर्थात जुलाई की सात तारीख को सन १९०७ में पैदा हुए थे। और अपने बाप
की सातवीं संतान थे। सात साल की उम्र में ही उनके नाम सात लाख की लाटरी खुली थी,
जिससे बड़े होकर उन्होंने सात मंजिल ऊंची इमारत बनवायी। यद्यपि
मैट्रिक की परीक्षा में सातवीं दफे उत्तीर्ण हुए, किन्तु
जिंदगी में सात बार ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के कारण उनका नाम तीनों लोकों की
चारों दिशाओं में प्रख्यात हो उठा। सन उन्नीस सौ सतत्तर की बात है, एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय घोड़ों की रेस में अपने भाग्य को आजमाना चाहा। अपनी
सारी धन-सम्पत्ति बेच कर उन्होंने सात नंबर के घोड़े पर लगा दी और जैसा कि
अंक-विज्ञान के अपेक्षित था, वैसा चमत्कार घटित हुआ। जानते
हैं क्या हुआ! वह घोड़ा सातवें नंबर पर
आया।
क्या-क्या
लोग हिसाब लगा रहे हैं। अरे हाथ में लकीरों के सिवाय कुछ भी नहीं। मगर लकीरों को
पढ़वा रहे हैं! और जब तुम मूढ़ता करोगे तो कोई ने कोई तुम्हारा शोषण करने वाला मिल
जाएगा, कोई न कोई तुम्हारा भाग्य बताने वाला मिल जाएगा। हस्तरेखा विज्ञानी बैठे
हुए हैं। जन्म कुंडली बना रहे हैं लोग। और जन्म कुंडलियां मिला मिला कर ये शादियां
की जा रही हैं। और शादियों की गति देखते
हो? फिर भी तुम्हें शरम नहीं आती! इनकी जन्म कुंडली
मिलाते हो और किसी की कुंडली मिलती हुई मालूम होती नहीं।
तुमने
कभी पति-पत्नी देखे जो कलह न कर रहे हों, जो झगड़ा न कर रहे हों, जो एक-दूसरे की जान
के पीछे न पड़े हों? मैंने तो नहीं देखे। मैं तो न मालूम
कितने परिवारों से परिचित हूं और लाखों लोगों से संबंधित हुआ हूं और लाखों लोगों
ने अपनी व्यथा मुझसे कही है--स्त्रियों ने, पुरुषों ने। सबकी
पीड़ा वही है। पति पत्नी के पीछे पड़ा है, पत्नी पति के पीछे
पड़ी है। और बड़े-बड़े ज्योतिषियों से जन्मकुंडली मिलवाई थी। और मजा यह है कि जिस
ज्योतिषी से तुमने जन्म-कुंडली मिलवाई, जरा उसकी घर की हालत
भी तो देख लेते। अपनी मिला पाया और तुम्हारी मिला दी!
एक
चीज को तुम नहीं देखना चाहते हो, उसके लिए तुमने कितना धुआं पैदा कर लिया है। एक
चीज सीधी-सादी, कि अहंकार तुम्हारे सारे दुख की जड़ है।
अहंकार तुम्हें तोड़े हुए है परमात्मा से, स्वभाव से, अस्तित्व से। और तुम दुख पा रहे हो। मगर ऐसी मूढ़ता है, ऐसी बेहोशी है कि कोई हिसाब नहीं।
सरदार
बिचित्तरसिंह जिस होटल की तीसरी मंजिल में ठहरे थे उस होटल में आग लग गयी। जब आग
लगी उस समय सरदार जी स्नान कर रहे थे। बाथरूम
से निकल कर सीधे बालकनी की ओर भागे--एकमात्र कच्छा पहने हुए। नीचे की
मंजिलों में आग काफी फैल चुकी थी, अतः सीढ़ियों से नीचे उतरना संभव नहीं था। फायर
ब्रिगेड वालों ने नीचे एक स्प्रिंग वाला मोटा स्पंज का गद्दा बिछा दिया था और वे
चिल्ला रहे थे कि ए सरदार जी, गद्दे के ऊपर कूद जाओ।
विचित्तरसिंह कूद गये मगर चमत्कार कि स्पंजों और स्प्रिगों ने उन्हें ऐसा उछाला कि
वे जाकर फिर तीसरी मंजिल की बालकनी पर जा बैठे। दुबारा फिर कूदे, फिर वैसा ही हुआ। तीसरी बार कूदने पर जब वे पुनः तीसरी मंजिल पर पहुंच गये
तो उन्हें एक तरकीब सूझी। बाथरूम में जाकर जल्दी से वे दाढ़ी में लगाने वाली मूंछों
पर ताव देने वाली गोंद उठा लाए और अपने कच्छे पर लगाने लगे, ताकि
गद्दे से जाकर चिपक जाएं। उनकी इस बुद्धिमानी को देख नीचे खड़े लोग और फायर ब्रिगेड
वाले बहुत खुश हुए और तालियां बजाने लगे। बिचित्तरसिंह ने जोर से "बो सो
निहाल सत श्री अकाल' कह कर फिर छलांग लगा दी। अगले क्षण का
दृश्य देखने लायक था--जब कच्छा तो गद्दे में चिपका छूट गया और नंग-धड़ंग सरदार जी
उछल कर वापिस तीसरी मंजिल पर खड़े हो गये।
मूढ़ता
ऐसी है कि तुम उपाय भी खोजोगे तो तुम ही खोजोगे न! लोग अहंकार से छूटने के उपाय भी
खोजते हैं,विनम्र होने की चेष्टा करते हैं। मगर वही
मूढ़ता। अहंकार विनम्रता के पीछे से आकर खड़ा हो जाता है। कच्छा तो चिपका रह
जाता है, सरदार जी नंग-धड़ंग खड़े हैं फिर वापिस तीसरी मंजिल
पर! वे लाख बोलें "बोलें से निहाल सत
श्री अकाल' मगर कौन बोल रहा है इस पर निर्भर करता है। उनके
हाल तो बेहाल ही रहेंगे, निहाल विहाल नहीं होने वाले। कोई सत
श्री अकाल बोलने से निहाल हुआ है? अरे निहाल कोई होता है
बुद्धिमानी से। बोले सो निहाल--ऐसे कहीं कोई निहाल होता है? इतना
आसान मामला है?
लोग
विनम्रता लाद लेते हैं अपने ऊपर और भीतर वही अहंकार नंग-धड़ंग खड़ा हुआ है। कच्छा भी
नहीं! तुम देखो विनम्र आदमियों को, जो कहते फिरते हैं कि मैं तो आपके
पैर की धूल हूं।
मैं
जबलपुर में जब पहली दफा गया तो मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे--हरिदादा। उनको
पड़ोस के लोग हरिदादा कहते थे, क्योंकि उनको रहीम के दोहे बड़े याद थे और हर
चीज में वे दोहा जड़ देते थे रहीम का। सो उनकी ख्याति एक धार्मिक आदमी की तरह थी।
और हर एक को उपदेश देते थे। जब मैं पहुंचा तो स्वभावतः उन्होंने मुझे भी उपदेश
देने की कोशिश की। और उनको माना जाता था वे बड़े विनम्र हैं। और वे विनम्रता की बड़ी
बातें करते थे। लेकिन उन्हें मेरे जैसा
आदमी पहले मिला नहीं होगा। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तो आपके पैर की धूल हूं।
मैंने कहा, "वह तो मुझे दिखाई ही पड़ रहा है। आप बिलकुल
पैर की धूल हैं! आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।'
वे
एकदम नाराज हो गये कि आप क्या बात कहते हैं!
मैंने
कहा, "मैं तो वही कह रहा हूं जो आपने कहा। मैंने तो एक शब्द भी नहीं जोड़ा। आप ने
ही कह, आपने ही शुरू किया। मैंने तो सिर्फ स्वीकृति दी कि आप
बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैं देख ही रहा हूं आपका चेहरा बिलकुल धूल है! आपकी समझ
बिलकुल साफ है, आपने ठीक पहचाना
वे
तो ऐसे नाराज हुए कि फिर दुबारा मुझसे बात न करें। रास्ते में मिल जाएं, मैं जयराम
जी करूं तो जवाब न दें। मैं भी यूं छोड़ देने वाला नहीं था। मुंह फेर कर निकलना
चाहें तो मैं उनके चारों तरफ लगाऊं कि नमस्कार, कि आप उस दिन
बिलकुल ठीक कह रहे थे, आप बिलकुल पैर की धूल हैं!
अहंकार
क्या-क्या भाषाएं सीख लेता है! वे भूल गये सब चौपाइयां। सब चौपाइयां चौपाए हो कर
भाग खड़ी हुईं। फिर रहीम वहीम के दोहे उन्हें याद न रहे। नहीं तो वे बड़े दोहे
दोहराते थे। और मोहल्ले के लोग भी कहने लगे कि मामला क्या है। मुझसे पूछने लगे।
एक
डॉक्टर दत्ता सामने ही रहते थे, वे मुझसे पूछने लगे कि आपने कर क्या दिया? जब से आप आए हो, हरिदादा बचे-बचे फिरते हैं। और आपका
तो नाम लेते ही गरम हो जाते हैं, हमने इनको कभी गर्म नहीं देखा।
मैंने
कहा, "वे गरम इसलिए हो जाते हैं कि मैंने उनकी बात मान ली, आप लोगों ने मानी नहीं। वे कहते थे हम आपके पैर की धूल हैं, आप वे कहते थे कि नहीं-नहीं अरे हरिदादा ऐसा कहीं हो सकता है! आप तो
सिरताज हैं! आप तो बड़े धार्मिक साधु पुरुष हैं! वे इसलिए तो बेचारे कहते थे कि आप
कहो साधु-पुरुष हैं। और मैंने उनकी मान ली, इससे मुझसे नाराज
हैं। इससे मेरी जयराम जी का भी उत्तर नहीं देते। मगर मैं भी कुछ छोड़ देने वाला
नहीं हूं। मैं दस-पांच दफा दिन में मिल ही जाता हूं उनको। नहीं अगर मिल पाते तो
दरवाजे पर दस्तक देता हूं कि हरिदादा जयराम जी! वे मुझे देख कर ही एकदम गरमा जाते
हैं। और गरमाने का कुल कारण इतना है कि मैंने वही स्वीकार कर लिया जो वे कहते हैं।'
पांच
सात साल उनके पड़ोस में रहा,
उनका सारा संतत्व खराब हो गया। क्योंकि जो-जो बातें वे कह रहे थे,
सब उधार थीं, सब बासी थीं। उनमें कहीं कोई
अर्थ न था। मगर इस तरह के तुम्हें हर गांव, हर देहात में,
हर नगर में लोग मिलेंगे--जिन्होंने अपने अहंकार पर एक पतली सी झीनी
चादर विनम्रता की ओढ़ा दी है। तुम जरा चादर खींच हर देखो; कुछ
बहुत मोटी भी नहीं है, बिलकुल साफ झलक रहा है। अहंकार यह नया
आभूषण बना लेता है। अहंकार की चालें बड़ी गहरी हैं। अहंकार बहुत सूक्ष्म है।
और
अहंकार ही सारी विरह-विथा है। इसी से तुम्हारे तन-मन में पीड़ा है। इस मूल कारण को समझो।
"घड़ी पलक में बिनसिए।' यह एक क्षण में मर जाएगा। तुम
इसे सहारा न दो, यह अभी मर जाएगा। और तुम सहारा भी देते रहो
तो मौत आएगी, तब इसे गिरा देना। "घड़ी पलक में बिनसिए
ज्यूं मछली बिन नीर।' जैसे मछली मर जाती है बिना नीर के,
पानी से मछली को खींचकर कोई डाल दे तट पर तो मरने लगी--ऐसे ही तुमने
खुद ही अपने को खींच लिया है परमात्मा से, स्वभाव से,
धर्म से। अब तुम तड़फ रहे हो, तड़फे जा रहे हो
और तड़फने के लिए न मालूम क्या-क्या तुम
बहाने खोज रहे हो, तर्क खोज रहे हो! मगर सीधी सी बात नहीं
देखते कि नदी के बाहर पड़ गये हो! खुद ही मछली उछल कर बाहर आ गयी है, कोई मछुए ने भी नहीं खींचा है तुम्हें। यह तुम्हारी करतूत है कि तुम्हें
उछल कर तट की रेत पर पड़ गये हो। अब जल भुन रहे हो। धूप घनी होती जा रही है,
तेज होती जा रही है, आग बरस रही है। और तुम
तड़फे जा रहे हो, भुने जा रहे हो। मगर तुम बहाने खोज रहे हो,
मूल कारण नहीं देखते कि वापिस कूद कर नदी से कूद कर तट पर आ गये तो
तट से कूद कर नदी में भी जा सकते हो। जब निर-अहंकार से अहंकार में आ गये तो अहंकार
से फिर निर-अहंकार में जा सकते हो। सिर्फ
समझ चाहिए, प्रज्ञा चाहिए, बोध चाहिए,
जाग्रति चाहिए, होश चाहिए। उस होश की
प्रक्रिया को ही मैं ध्यान कहता हूं।
ध्यान
तुम्हारे अहंकार को गला देता है; बता देता है कि झूठ है अहंकार। और जिस दिन
तुमने जाना कि अहंकार झूठ है, जिस दिन तुमने जाना मैं नहीं
हूं--उसी दिन परमात्मा है और उसी दिन आनंद के द्वार खुल जाते हैं। अनंत द्वार!
वर्षा हो जाती है फूलों की! नहा जाते हो तुम--एक नयी रोशनी में। उस जीवन का नाम
स्वर्ग है।
मैं
के आसपास जो अंधेरा घेर लेता है, वह नर्क। मैं नहीं हूं, इसके
आसपास जो आभा उभर आती है, वही स्वर्ग।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आपने कहा है कि बारह वर्ष बाद जब बुद्ध घर लौटे तो उन्हें लगा
कि उन्होंने जो पाया उसे वे अपने प्रियजनों को पहले बांटें।
आखिर हम सब आपके संन्यासी भी यही तो चाहते हैं कि आपके पास रह
कर हमें जो भी मिला है वह उन्हें भी मिले जो कि हमारे अब तक साथी रहे हैं।
लेकिन भगवान, ये प्रियजन ही उसे लेने में इतने
क्यों सकुचाते हैं, भयभीत होते हैं, क्रोधित
होते हैं?
अजित सरस्वती,
वही
अहंकार बाधा बनता है--खास कर प्रियजनों को और भी, क्योंकि तुम्हें उन्होंने
एक अवस्था में जाना है--दुख की अवस्था में। तुम्हारे उनके जो संबंध हुए थे,
वे तब हुए थे जब तुम्हारे भीतर भी दुख था, उनके
भीतर भी दुख था। तब उन संबंधों में एक तालमेल था। एक सा विषाद था। एक ही तरह की
अवस्था थी। फिर तुम्हारे जीवन में क्रांति हो गयी। इस क्रांति को वे कैसे स्वीकार
करें कि तुम उनसे आगे निकल गए? इससे उनके अहंकार को चोट पड़ती
है। वे कैसे मानें कि तुम जान गये और हम न
जान पाए! वे कैसे स्वीकार करें कि तुमने इतना बोध उपलब्ध किया और हम बुद्दू
रहें! नहीं, उनका अहंकार कहता है जरूर तुम धोखे में हो! अहंकार का यही तो
गणित है कि मानता नहीं कि मैं धोखे में
हूं। हमेशा टालता है धोखे को किसी और पर।
अजित
सरस्वती, तुम अपने प्रियजनों को बांटने जाओगे
तो सबसे ज्यादा अड़चन खड़ी होगी, सबसे ज्यादा मुश्किल
खड़ी होगी। वे स्वीकार नहीं कर सकेंगे यह बात
कि तुम, अरे हम तुम्हें भलीभांति जानते हैं! अब
तुम्हारी पत्नी तुम्हें भलीभांति जानती है। तुम्हारे सारे अज्ञान से परिचित
है--अज्ञान में ही तो तुमने उसे पत्नी बनाया था। तुम्हारे काम को, तुम्हारी वासना को, तुम्हारे मोह को, तुम्हारे लोभ को सबको जानती है। आज कैसे एकदम स्वीकार कर ले कि तुम उस
सबके पार हो गये, तुम पहुंच गये शिखर पर ज्योति के! तुम्हें
खींच कर वापिस गङ्ढे में गिरा कर बताएगी। यह उसके अहंकार को चुनौती है। वह तुम्हें
इस तरह से परेशान करेगी और तुम क्रुद्ध हो जाओ तो वह प्रसन्न होगी कि लो देखो, तुम तो कहते थे पार
हो गये! अब क्या हुआ? कहां पार हुए? यह
क्रोध तो वहीं के वहीं है। वह सब तरह की चेष्टाएं करेगी यह सिद्ध करने की कि तुम
में कुछ बदला नहीं है, तुम धोखे में पड़े हो, तुम भ्रांति में आ गये हो। वह
मुझे गालियां देगी, तुम्हें
गालियां देगी, तुम्हारे ध्यान का विरोध करेगी। क्यों?
क्योंकि उसके अहंकार पर भारी चोट पड़ रही है। तुम शराब पीने लगते तो
कुछ बुराई न थी। तुम ध्यान करने लगे तो बुराई हो गयी। तुम जुआ खेलने लगते तो कुछ
बुरा न था, क्योंकि जुआ खेलने में और शराब पीने में तो पत्नी
को एक लाभ था। उसका अहंकार तुमसे ऊपर हो जाता। वह हमेशा तुम्हारी गर्दन दबा सकती
थी।
मुल्ला
नसरुद्दीन डॉक्टर के पास गया, लंगड़ाता हुआ अंदर प्रविष्ट हुआ। डॉक्टर ने पूछा,
"क्या हो गया?'
उसने
कहा कि पैर में बहुत तकलीफ है। डॉक्टर ने पैर देखा और बोले कि मामला क्या है, कब से
तकलीफ है? यह तो फ्रेक्चर का मामला मालूम होता है। कब से
तकलीफ है?
मुल्ला
ने कहा,
"कोई तीन महीने हो गये।'
तो
उसने कहा,
"हद हो गयी! तो तुम तीन महीने क्या करते रहे? और पड़ोस में ही तुम रहते हो और तीन महीने तुम्हें हो गये, तुम आए क्यों नहीं?'
मुल्ला
ने कहा,
"मैं भी क्या करूं? मैं कुछ भी कहूं,
मेरी पत्नी फौरन कहती है कि सिगरेट पीना बंद करो। सिर में दर्द,
सिगरेट पीना बंद करो! नींद नहीं आती, सिगरेट
पीना बंद करो! मैं कुछ भी कहूं, बस वह मेरे सिगरेट पर
टूट पड़ती है। सो उसके डर से मैं चुप ही
रहा कि मैंने अगर कहा कि पैर में दर्द है, तो वह कहेगी
सिगरेट पीना बंद करो। बस उसे बहाना कोई भी चाहिए--सिगरेट पीना बंदा करो! सिगरेट की
वजह से मैं उसके कब्जे में हूं। सो चुप ही रहा,मगर अब
बर्दाश्त के बाहर हो गया। दर्द बहुत है। अभी भी उसको बिना बताए आया हूं और आप भी
कृपा करके उसको बताना मत कि मरे पैर में
दर्द है, नहीं तो मेरे सिगरेट पर झंझट हो जाएगी खड़ी। मैंने
तो अपने दुख-दर्द की बात ही कहना बंद कर दी, क्योंकि कुछ भी
मैं कहूं बस वह तत्काल सिगरेट पर अस जाती है।'
अगर
तुम सिगरेट पीओ,
जुआ खेलना, शराब पीओ तो पत्नी को इतनी पीड़ा
नहीं होती। दिखाएगी कि बहुत पीड़ा हो रही है, मगर वह सब
दिखावा है, भीतर-भीतर खुश होगी, प्रसन्न
होगी। अब तुम उसके और भी कब्जे में हो गये अब तुम्हारी गरदन कभी भी दबा सकती है।
हर बहाने तुम्हारी गरदन दबाएगी। अब तुम घर में घुसोगे तो भीगी बिल्ली की तरह
घुसोगे, हमेशा पूंछ दबाए हुए रहोगे। क्योंकि तुम कुछ बोले तो
कि उसने कहा कि फिर दिखता है तुम पीकर आ गये। तुम डरे-डरे घुसोगे, क्योंकि तुमने कुछ भी कहा कि उसने कहा कि फिर...कुछ गड़बड़ है, तुम जुआ तो खेलकर नहीं आ रहे? तुम इतने घबड़ाए
रहोगे...। और इसमें ही तो मजा है उसके अहंकार को।
और
जो पत्नी के साथ सच है,
वही पति के साथ सच है, वही पिता कि साथ सच है ,
वही भाई बहनों के साथ सच है। जिनसे तुम्हारे निकट के संबंध
हैं...वही मित्रों के साथ सच है। तुम्हें दयनीय अवस्था में पाकर उन सबको सुख होता
है कि हम तुमसे ऊपर तुम हमसे नीचे। सहानुभूति का मजा बड़ा रुग्ण मजा है, रोग से भरा है। सहानुभूति दिखाने में सब लोग उत्सुकता लेते हैं। तुम्हारे
घर में आग लग जाए, फिर देखो, दुश्मन तक
आ जाते हैं सहानुभूति दिखाने। मित्रों की तो छोड़ो, दुश्मन भी
मौका नहीं छोड़ते। दुश्मन, जो तुमसे बोलते ही न थे, वे भी आ जाते हैं कि भाई बुरा हुआ। यह क्या हो गया? लेकिन
तुम एक मकान बनाओ और दुश्मन तो जनते हैं, दोस्त तक जलते हैं।
तुम्हारे सुंदर मकान को देख कर दोस्तों की छाती पर भी सांप लोट जाते हैं। क्या
अड़चन आ गयी? मकान जलता है तो दुश्मन भी सहानुभूति प्रगट करते
हैं; मकान बनता है तो दोस्त तक बच निकलते हैं, कि कहीं मकान की बात न आ जाए! वे नहीं बना पाए और तुमने बना लिया यह छोटी
छोटी चीजों में हो रहा है, तो ध्यान तो बड़ी चीज है, संन्यास तो बड़ी
चीज है तुमने जीवन की ऐसी संपदा पा ली है, जो पीछे रह गये,
निश्चित ही उनको कष्ट होगा।
जीसस
ने कहा है: किसी पैगंबर को उसके अपने गांव में प्रतिष्ठा नहीं मिलती।' और जीसस
ने अनुभव से कहा है। जीसस सिर्फ एक बार अपने गांव गये, प्रबुद्ध
होने के बाद, एक ही बार। और गांव के लोगों ने जो व्यवहार
किया, वे चकित हो गये। वे तो गये थे गांव के लोगों को समझाने,
बांटने कि जो मैंने जाना है दे आऊं। लेकिन गांव के लोग तो नाराज
बैठे थे कि यह छोकरा! उम्र उनकी कुल तीस ही वर्ष थी और गांव में बड़े बुजुर्ग--यह
कल तक गांव में लकड़ियां काटता रहा,बढ़ई का बेटा, ब्राह्मण तक का नहीं, बढ़ई का, किसी
रबाई का होता, किसी धर्मगुरु का होता तो भी समझ लेते,
यह बढ़ई का बेटा, आरा चलाता रहा, कुल्हाड़ी चलाता रहा, जंगल से लकड़ी ढोता रहा, इसका बाप अभी भी बढ़ई है, अभी भी गधे पर लकड़ियां ढो
कर लाता है--और यह ज्ञानी हो गया! ज्ञानी ही नहीं, परमज्ञानी
हो गया! गांव बर्दाश्त करेगा इसको? असंभव।
जीसस
जब अपने गांव गये तो गांव के लागों ने कहा कि "तो तुम ज्ञानी हो गये? तो चलो
हमारे मंदिर में, सिनागाग में--यहूदियों का मंदिर--और हमें कुछ
उपदेश दो। यह रही पुरानी बाइबिल। तो उन्होंने ओल्ड टेस्टामेंट रख दी जीसस के सामने
कि प्रवचन दो। जीसस ने उसे खोला, जहां पन्ना खुला गया वहीं
से बोलना शुरू कर दिया, क्योंकि बोलना तो जीसस को वही है जो
बोलना है। पन्ना कहां खुलता है, इससे क्या फर्क पड़ता है?
और तुम तो मुझे जानते हो, पन्ना कहां खुलता है
इससे क्या फर्क पड़ता है? इलेकियल का एक वचन है--जिस पर पन्ना
खुल गया, संयोगवशात--कि मैं कहता हूं कि स्वर्ग का राज्य
तुम्हारे भीतर है और मैं भी कहता हूं कि स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है।
इजेकियल ठीक कहते हैं। मैं गवाह हूं। बस गांव के लोग नाराज हो गये। उन्होंने कहा,
"तू छोकरा और गवाह! मतलब यह कि तू भी उतना जानता है जितना कि पैगंबर इजेकियल जानते हैं? गांव के लोगों ने तो उनको मार
डालने की कोशिश की, उनको खदेड़ कर गांव के बाहर निकाल दिया।
पहाड़ी पर ले जा कर उनको पटक देना चाहते थे। जीसस बामुश्किल बच पाए। तभी उन्होंने
लौट कर अपने शिष्यों को कहा कि पैगंबर का अपने गांव में कोई सम्मान नहीं होता।
बहुत मुश्किल है उसके गांव के लोग ही उसको समझ लें।
तुम
यूं देखो न, बुद्ध भारत से उखड़ गये और चीन और कोरिया और जापान और बर्मा और लंका,
सारे एशिया में फैल गये, सिर्फ भारत से उखड़
गये। तुम मुझे देखो न, यहां कितने भारतीय दिखाई पड़ते हैं?
सारी दुनिया यहां आ रही है। ऐसा कोई देश नहीं बचा है जहां से लोग
आकर संन्यस्त नहीं हुए हैं। लेकिन कितने भारतीय? उनकी संख्या
न्यून होती जा रही है। दाल में नमक के बराबर होती जा रही है। उन्हें दाल के बराबर
होना चाहिए था, होती जा रही है दाल में नमक के बराबर। कारण
क्या है? कारण साफ है। उनका दुर्भाग्य है कि मैं भारतीय हूं
उनको उससे अड़चन है, उससे उनको कठिनाई है। उससे उनको बेचैनी
है।
फिर
भारतीयों में भी तुम देखो,
तो तुम्हें जैनों की संख्या और भी कम मिलेगी। क्योंकि उनका
दुर्भाग्य और भी ज्यादा है, क्योंकि मैं जैन घर में पैदा
हुआ। इसलिए जैन मेरे बहुत खिलाफ। अभी कच्छ जाने के संबंध में जिन बीस संस्थाओं ने
विरोध किया है, इनमें अठारह जैन संस्थाएं हैं। कल ही मैंने
फेहरिस्त देखी। गुजरात की विधानसभा में प्रश्न उठा तो पूरी फेहरिस्त छापी उन्होंने
किनने मेरा विरोध किया है। तो मैंने देखा कि कौन हैं विरोध करने वाले? तो बीस में से अठारह जैन हैं। हजारों गैरजेनों ने समर्थन किया है। सिर्फ
मांडवी से सोलह सौ लोगों ने दस्तखत करके भेजे हैं, मगर उनमें
एक जैन नहीं। जैन मुनि ने तो विरोध किया है। तो जैन और भी कम दिखाई पड़ेंगे। उनका
और भी दुर्भाग्य है कि मैं जैन घर में पैदा हुआ। इसलिए जैन मेरे बहुत खिलाफ। अभी
कच्छ संबंध में जिन बीस संस्थाओं ने विरोध किया है, इनमें
अठारह जैन संस्थाएं हैं। कल ही मैंने फेहरिस्त देखी। गुजरात की विधानसभा में
प्रश्न उठा तो पूरी फेहरिस्त छापी उन्होंने कि किनने मेरा विरोध किया है। तो मैंने
देखा कि कौन हैं विरोध करने वाले? तो बीस में से अठारह जैन
हैं। हजारों गैरजेनों ने समर्थन किया है। सिर्फ मांडवी से सोलह सौ लोगों ने दस्तखत
करके भेजे हैं, मगर उनमें एक जैन नहीं। जैन मुनि ने तो विरोध
किया है। तो जैन और भी कम दिखाई पड़ेंगे। उनका और भी दुर्भाग्य है कि मैं जैन घर
में पैदा हो गया। फिर दिगंबर तो मुश्किल से ही दिखाई पड़ेंगे। श्वेताम्बर कुछ जैन
यहां दिखाई पड़ सकते हैं, श्वेताम्बर होंगे वे। दिगंबर तो
शायद ही कभी कोई यहां दिखाई पड़ता है, शायद ही, भूल-चूक से। क्योंकि मैं जिस घर में पैदा हुआ, उनके
दुर्भाग्य से वह घर दिगंबर था। फिर दिगंबरों में भी एक पंथ है--तारणपंथ। मैं उस
परिवार में पैदा हुआ जो दिगंबरों का तारणपंथी परिवार है। तो तारणपंथी तो यहां एक
नहीं दिखाई पड़ेगा--मेरे सिवाय और कोई नहीं। मैं ही तारणत्तरण का सिर्फ एकमात्र
नामलेवा। वे तो यहां कदम ही नहीं मारेंगे, पर नहीं मारेंगे।
उनकी दुश्मनी तो भारी है।
यह
तुम मजा देखते हो। मगर इसका गणित साफ है।
अजित
सरस्वती, स्वाभाविक है कि तुम आनंदित होओ तो बांटना चाहो। तुम्हारे भीतर अमृत भर
जाए तो यह बिलकुल स्वाभाविक आकांक्षा है कि जिनके साथ हम जीए, जिस घर में हम पैदा हुए, उन मां को, उन पिता को, उन भाई को, उन बहन
को, उस पत्नी को जिस हम कभी अज्ञान में अपने साथ बांध ले आए
थे--बांटे। क्योंकि इससे बड़ी संपदा और क्या
हो सकती है कि हम उन्हें भी इस संन्यास के रंग में रंग दें! मगर उनकी तरफ से ही
सर्वाधिक विरोध होगा।
अब
मैं यहां छह साल से हूं। अजित सरस्वती मेरे निकटतम संन्यासियों में से एक हैं। उन
थोड़े से संन्यासियों में से एक हैं। लेकिन उनकी पत्नी एक बार भी यहां सुनने नहीं
आयी। एक बार भी! क्या हो गया? छह साल में एकाध बार तो आ जाती, सिर्फ देखने आ जाती कि यहां क्या हो रहा है। अजित सरस्वती रोज यहां मौजूद
हैं नियम से यहां मौजूद हैं, शायद ही कभी चूकें हों। जब बाहर
हों पूना के तो चूकें हों एकाध दो दिन, बात अलग, अन्यथा इन छह वर्षों में जो लोग नियमित रूप से यहां हैं, वे यहां हैं। घर रोज नियमित ध्यान कर रहे हैं। प्रवचन घर पर भी सुन रहे
हैं। किताबें सारी घर पर हैं। रोज यहां आते हैं। लेकिन पत्नी को इतना भी नहीं लगा
कि एक बार आकर यहां देख तो जाए, क्या हो रहा है यहां! पति के
जीवन में क्रांति हो गयी है। वही बाधा बन रही है।
पत्नी
की तरफ से समझो तो यूं हो गयी हालत कि जैसे जिसको वह जानती थी, अजित को,
वे तो चल बसे। पत्नी तो विधवा हो गयी। और ये जो अजित सरस्वती हैं,
मेरे संन्यासी, ये तो आदमी ही और हैं। इनको
उसका क्या लेना-देना? इनसे उसकी क्या पहचान? ये तो अजनबी हैं। यह तो सिर्फ उसी देह में घटना घटी है, इसलिए चला जा रहा है मामला साथ, नहीं तो वह निकाल
बाहर करेगी। तुम यहां कैसे घुसे हो? तुम हो कौन? चेहरा मिलता-जुलता है, इसलिए बर्दाश्त कर रही है,
नहीं तो बाकी तो सब बदल गया है। कुछ नहीं बचा पुराना। तो वह तो मुझ
पर भी नाराज होगी, उसका पति मैंने छीन लिया। उसकी अड़चन यह कि
उसके अहंकार को भारी व्याघात पहुंचा है। तुम उसे समझाओगे, सुनेगी
नहीं, समझेगी नहीं। कौन पत्नी से समझने को राजी है या कौन
पति पत्नी से समझने को राजी है! बहुत मुश्किल। बहुत, लाखों
में कभी एक बार यह घटना घटती है। नहीं तो नहीं।
अब
ये फली भाई बैठे हुए हैं सामने, इनकी जिंदगी बदल गयी है। लेकिन पत्नी! पत्नी को
कुछ लेना देना नहीं। पत्नी को कोई प्रयोजन नहीं। असल में जितनी फली भाई की जिंदगी
बदलती गयी है, उतनी ही पत्नी और अपने को सम्हाल कर दूर हटती
गयी है। नाता ही जैसे टूट गया। अब बस बात की बात रह गयी है। सांप तो निकल चुका,
बस लकीर पड़ी रहा गयी है रास्ते पर, और कुछ भी
नहीं। अब जब मैं कच्छ जाऊंगा तो फली भाई तो कच्छ जाएंगे, अजित
सरस्वती भी कच्छ जाएंगे, पत्नियां यहीं रह जाने वाली हैं। वे
तो जा ही चुके हैं।
लेकिन
अड़चन भारी है। तुम्हारी भी अड़चन है कि तुम बिना समझाए नहीं रह सकते और उनकी भी
अड़चन है कि वे समझ नहीं सकते। परिवार के प्रियजन नहीं समझ सकते। यह उनके अहंकार के
विपरीत है। और यह तुम्हारे आनंद का स्वभाव होगा कि तुम बांटोगे। तो कोशिश करो।
बांटो। जितना बन सके,
कोशिश करो। मगर बहुत आशा रखना मत, ताकि कभी निराश न हो। बहुत अपेक्षा मत रखना, क्योंकि उपेक्षा होगी। श्रम कर लेना, अपना कर्तव्य
निभा लेना, मगर यह मत सोचना कि सफलता मिलेगी। असफलता की
ज्यादा सम्भावना है। निन्यानबे प्रतिशत सम्भावना असफलता की है, एक प्रतिशत सम्भावना सफलता की है। यह मान कर कोशिश करना।
तुम
पूछते हो, "ये प्रियजन ही उसे
लेने में इतने क्यों सकुचाते हैं? आदमी देने में ही कंजूस
नहीं होता, लेने में और भी ज्यादा कंजूस होता है, क्योंकि देने में तो अहंकार की तृप्ति हो सकती है। लेने में अहंकार को चोट
पहुंचती है। मैं और लूं--असंभव! मैं और भिक्षापात्र फैलाऊं--असंभव! मैं, और किसी और की बात स्वीकार करूं! और जितना निकट हो व्यक्ति उतना ही
मुश्किल है, कि इसकी बात स्वीकार करूं! और जितना निकट हो
व्यक्ति उतना ही मुश्किल है, कि इसकी बात स्वीकार करूं?
इसको तो मैं भली भांति जानती हूं। मेरा बेटा, मेरा
पति, मेरी पत्नी, मेरा भाई, मेरे पिता--इसको तो मैं भली भांति जानता हूं। इससे, और
मुझे लेना है!
अब
संत महाराज ने कितनी कोशिश की अपने पिता के लिए किसी तरह डूब जाएं! लेकिन वे भाग
खड़े हुए। वे इतनी तेजी से भागे...उसका भी कारण है। तेजी से भागने का कारण कि उनको
डर लगा कि कहीं डूब ही न जाऊं। उन्हें भी लगने लगा भीतर-भीतर कि डूब सकता हूं, यह मैं
कहां आ गया! यहां की हवा और है, फिजां और है। यहां जो लोग
कुतूहलवश आ जाते हैं, कभी कभी वे भी डूब जाते हैं। आए तो वे संत को ही मिलने, क्योंकि
वर्षों हो गए संत मिलने गये नहीं। मगर भीतर कहीं कुतूहल भी रहा होगा कि बात क्या
है! संत को क्या हो गया है? किसने जादू कर दिया है! और वह
जादू उन पर भी शुरू हो गया था। यहां मैं उनको देखता था, उनकी
आंखों से आंसू गिरते थे। अब यह बड़ी अजीब सी बात हुई। आंख से उनके आंसू गिरते थे जब
मैं बोलता था। और संत से उन्होंने कहा कि मुझे जरा पास बैठने दो, ताकि मैं ठीक से देख भी सकूं। और संत ने कहा भी कि अमृतसर में तो मैं दुखी
ही रहता हूं, यहां आकर पहली दफे मुझे शांति अनुभव हुई है।
लेकिन फिर भी भाग गये। और इतनी तेजी से भागे कि जब संत होटल पहुंचा तो वे सामान
बांध कर टैक्सी में ही सवार हो रहे थे। संत ने कहा भी कि इतनी जल्दी क्या है! आए
तो थे और दो-चार दिन ज्यादा रुकने, भागने की इतनी जल्दी क्या
है? कम से कम चाय
नाश्ता तो कर लो। पर वे चाय नाश्ता करने को भी राजी नहीं थे। वे तो एकदम स्टेशन
गये। यहां से महाबलेश्वर भी नहीं गये, क्योंकि महाबलेश्वर से
फिर लौटेंगे तो फिर पूना पड़ेगा, बीच में पूना फिर पड़ेगा,
कि कहीं अटकाव न आ जाए! ऐसे घबड़ा कर भागे। घबराहट इसलिए पैदा हो गयी
कि उनकी बेटी तो संन्यास लेने को राजी हो गयी, उससे घबड़ा गये,
कि अभी बेटी तैयार हुई कहीं पत्नी तैयार हो जाए, कहीं मैं खुद तैयार हो जाऊं! कहीं भीतर उनके भी सुगबुगाहट होने लगी थी,
कहीं मैं तैयार हो जाऊं!
तो
बाप का अहंकार। और बेटे संत कि कारण अड़चन पड़ी, कि बेटा डूब गया, मैं तो बेटे को निकालने आया था और मैं खुद डूबने लगा। इसके पहले कि बात
बिगड़ जाए, भाग खड़े
होना चाहिए।
मगर
मैं कहता हूं कि भाग भला गये हों वे, मैं
उनका पीछा करूंगा। अमृतसर में भी उन्हें
याद आएगी पूना की--और ज्यादा याद आएगी। अब पूना के स्वाद से थोड़ परिचित हो कर गये
हैं।
घर
के लोगों की अपनी अड़चन,
तुम्हारी अपनी अड़चन। लेकिन मेरा सुझाव यह है कि पहले अपनी तलवार
औरों पर चलाओ, उसमें आसानी होगी। फिर जब तलवार पर खूब धार आ
जाए तब अपनों पर चलाना। वही मैंने किया। मैंने अपने घर के लोगों को बदलने की कोई
कोशिश ही नहीं की। पहले मैं सारी दुनिया को बदलने में लगा रहा। मुझसे कहते थे भी लोग
कि आपके पिता आते हैं, मां आती हैं, आप
उनको संन्यास के लिए नहीं कहते? मैंने कहा, मैं कहूंगा नहीं, क्योंकि उससे ही बाधा हो जाएगी।
मैं रुकूंगा। जल्दी क्या है? जरा उनको देखने दो, इतने लोग बदल रहे हैं। यह हवा घनी होने दो।। आते हैं, यही बहुत। यह हवा घनी होती गयी। यह बात उनको साफ दिखाई देने पड़ने लगी कि इतने लोग बदल रहे
हैं, इतने लोगों के जीवन में क्रांति घट रही है, तो हम क्यों वंचित रह जाएं? जब उन्हें यह समझ में आ
गया कि हम क्यों वंचित रह जाएं, तो अपने से...। मैंने कभी कहा नहीं। न अपनी मां को कहा,
न अपने पिता को कहा, न अपने भाइयों को कहा।
लेकिन मेरे पिता, मेरी मां ,मेरे
भाई...सिर्फ एक भाई अभी संन्यासी नहीं है। उसकी पत्नी संन्यासी हो गयी है। उसने एक
बार कहा था कि मैं भी संन्यास ले लूं? लेकिन जिस ढंग से उसने
कहा, मैंने कहा रुक। मैं भी ले लूं...कोई प्रफुल्लता न थी।
यूं था कि अब पत्नी ने ले लिया, सारा परिवार संन्यासी हो गया,
अकेला बचा। लोग पूछते होंगे उससे कि क्या बात है, तुमने क्यों नहीं लिया। सारा परिवार संन्यासी हो गया, तुम अकेले कैसे बच रहे? तो मुझसे पूछा कि मैं भी ले लूं? इसमें प्रश्नवााचक
चिन्ह था। मैं कहूं तो ले। मैंने इतना भी
नहीं कहा। मैंने कहा कि रुक। मैं मुश्किल से ही किसी को कहता हूं रुक। कोई भी
मुझसे पूछे कि ले लूं तो मैं कहता हूं इसी वक्त! मगर भाई है छोटा, तो मैंने कहा रुक। अभी कोई जल्दी नहीं। तब तक रुका रहूंगा मैं जब तक वह
प्रश्नचिन्ह समाप्त न हो जाए। मुझसे क्या पूछना है कि ले लूं? मांगना चाहिए कि दें संन्यास, देना ही होगा। तो फिर
देने का मजा है।
पहले तलवार पर धार औरों पर रखो। और ज्यादा आसानी
से बदले जा सकेंगे,
अजित। क्योंकि उनसे तुम्हारे कोई पुराने नाते नहीं हैं, उन्होंने तुम्हारा कोई पुराना रूप नहीं देखा है। इसलिए उनको कोई अड़चन नहीं
है। वे तुम्हारे नये रूप से ही परिचित होंगे सीधा सादा परिचय होगा। जिनसे तुम्हारे
पुराने रूप का संबंध है, उनकी उलझन है। उन्होंने तुम्हारा
पुराना रूप भी जाना है--क्रोधित, लोभी, मोही, सब देखा उन्होंने। अब उसमें कैसे मानें कि
अचानक ध्यान का फूल खिल गया? उन्होंने कीचड़ देखी कमल में
भरोसा नहीं आता। लेकिन अपरिचित लोग कमल को देखेंगे, कीचड़
उन्होंने देखी नहीं। और एक बार कमल पर भरोसा आ जाए तो क्रांति शुरू हो जाती है।
पहले
धार औरों पर रखो। और जब तलवार में बहुत धार आ जाएगी तो अपने भी कटेंगे। मगर थोड़ा
रुको। जल्दी न करना। और मैं जानता हूं
तुम्हारी तकनीक कि जल्दी करने का मन होता कि समय जा रहा है,व्यर्थ जा
रहा है। और जिनको हम प्रेम किये हैं, स्वाभाविक है कि हम
उनको अपने जीवन की जो संपदा है, उसमें भागीदार बना लें,
साझीदार बना लें।
लेकिन
एक बात और ख्याल रखो,
लाख हम जिनको अपना कहते हैं वे भी क्या खाक अपने हैं! अपना क्या है?
कोई सात फेरे लगाने से अपना हो जाता है। धोखा हो जाता है अपना होने
का। पति हो गये, पत्नी हो गये। बच्चा पैदा हो गया। कोई अपना
हो जाता है? सांयोगिक है। न तुम्हें उसके पैदा होने के पहले
पता था कि कौन पैदा होने वाला है, न उसको पता था कि किन के
घर मैं पैदा हो रहा हूं। किसी को कुछ पता नहीं, सब अंधेरे
में हो रहा है। दुर्घटना ही समझो। और अपना हो गया! कैसे अपना हो जाएगा? कौन अपना है यहां?
प्रीतम
ने गीत लिखा--
कहने
को सभी अपने हैं मगर सहरा में हमारा कोई नहीं
ओठों
पे हंसी के गुल हैं बहुत,
खुशबू का बहारां कोई नहीं
बाहर
तो बड़ी रौनक है यहां, सामान
बहुत सुख सुविधा के
अंदर
तो मगर सुनसान है सब,
अपना-सा बेचारा कोई नहीं
रिश्तों
की बड़ी इस दुनिया में,
हमदर्द यहां दिखते हैं सभी
जब
गौर किया मालूम हुआ,
सचमुच का सहारा कोई नहीं
दामन
ही नहीं हम थामें जिसे,
बस्ती ही नहीं टिकने को यहां
बेकार
भरम में खोये रहे आनंद का दुवारा कोई नहीं
सब
रस्ते हैं भटकाने के लिए,
अटकाने के बंदोबस्त हैं सब
यहां
प्यार की बातें होतीं बहुत,
पर प्यार का मारा कोई नहीं
कौन
है अपना? बस बातें हैं। फिर जिनको तुम बदलने चलते हो, उनके
साफ बहुत परोक्ष व्यवहार करना होता है, प्रत्यक्ष नहीं,
सीधा सीधा नहीं। किसी को सीधा सीधा बदलने का मतलब है उसका अपमान।
बहुत कलात्मक होना चाहिए। इतने आहिस्ता होनी चाहिए बदलाहट की बात कि दूसरे को पता
न चले कि कब तुमने उसके पिंजरे का द्वार खोल दिया। खटका भी हो गया तो पिंजरे में
बंद रहने का आदी हो गया है, सींकचों को पकड़ लेगा। तोते को
फुसलाना होता है।
सदगुरु
की कुल कोशिश होती है फुसलाने की, बहलाने की--बड़ आहिस्ता आहिस्ता, जैसे छोटे बच्चे को मनाना होता है। सब छोटे ही बच्चे हैं। सीधे-सीधे
इनसे अगर कहो तो ये भाग ही खड़े होंगे। इन्हें बहुत आहिस्ता से,
इनकी भाषा में, इनके रंग ढंग को समझ कर
व्यवस्था बनानी होती है।
बहुत
बार यूं खुद को खुद पर ही विश्वास नहीं होता है
कुछ
होता है भीतर भीतर पर अहसास नहीं होता है!
इनको
पता भी न चलने लगे,
भीतर-भीतर कुछ होने भी लगे। होता है, जरूर
होता है। पति बदलेगा, घर में इतनी बड़ी क्रांति हो जाएगी,
दीया जलेगा, तो पत्नी को रोशनी दिखायी नहीं
पड़ेगी? बेटा बदलेगा तो मां के प्राणों में कुछ कंपन नहीं
होगा? होगा, जरूर होगा, मगर मुश्किल है बहुत।
बहुत
बार यूं खुद को खुद पर ही विश्वास नहीं होता है
कुछ
होता है भीतर-भीतर पर अहसास नहीं होता है
सागर
सी गहरी आंखों में आसमान सा उतरे कोई,
पर
ऐसी घटनाओं का कोई इतिहास नहीं होता है।
रास
आ गया जिस तोते को सोने के पिंजरे का जीवन,
उन
पांखों के लिए कभी कोई आकाश नहीं होता है।
तन
से छू जाये कोई,
आंखों ही आंखों में झांके,
परदों
के ऊपर हैं परदे,
बाहर बंद पड़े दरवाजे,
दस्तक
देती सदा रोशनी पर आभास नहीं होता है।
दस्तक
तो तुम दे रहे हो,
मगर आभास होना चाहिए भीतर जो सोया है उसे। पिंजरे में जो बंद होने
का आदी हो गया है, उसे पिंजरा ही सब कुछ है, वही उसका आकाश है।
धीरे-धीरे
समझाना आहिस्ता आहिस्ता समझाना। बहुत प्रेम से, बहुत प्रीति से। निवेदन पूर्वक।
कहीं भी जोर जबरदस्ती न हो जाए। कहीं जल्दी न हो जाए।
और
फिर मैं कहूंगा:पहले औरों पर साधो, फिर अपनों पर। होगा। अगर तुम्हारी
आकांक्षा है तो जरूर उनके जीवन में भी कुछ होगा। होना ही चाहिए, होना सुनश्चित है।
आज इतना ही
पहला प्रवचन; दिनांक २१ सितंबर, १९७०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
#1: अपने-अपने कारागृह
#3: अंतर्यात्रा पर निकलो
#4: ध्यान पर ही ध्यान दो
#5: सत्य की कसौटी
#6: जीवन जीने का नाम है
#7: श्रद्धा और सत्य का
मिथुन
#8: प्रतिरोध न करें
#9: संन्यास: ध्यान की
कसम
#10: ध्यान
विधि है मूर्च्छा को तोड़ने की
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