पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 09 जून सन् 1980,
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-नौवां-(प्रश्न-सार)
01—बेइरादा नजर तुमसे टकरा गई,
जिंदगी में अचानक बहार आ गई।
मौत क्या है जमाने को समझाऊं क्या,
एक मुसाफिर को रस्ते में नींद आ गई।
रुख से परदा उठा, चांद शरमा गया,
जुल्फ बिखरी तो काली घटा छा गई।
दिल में पहले सी अब वो हलचल नहीं,
अब मुहब्बत में मिटने की घड़ी आ गई।
02—अगर एक पुरुष अपनी पत्नी से कामत्तुष्टि नहीं
पाता है तो वह दूसरी स्त्रियों के पास जाता है। ऐसा करने से वह एक अपराध-भाव अनुभव
करता है, क्योंकि उसे पत्नी से और सब सुविधाएं मिलती हैं,
और वह उन सब बातों के लिए उसे चाहता है। जब वह अपराध-भाव अनुभव करता
है तो उसका मन तनाव से घिर आता है। उसे क्या करना चाहिए कि उसका मन तनावग्रस्त न
हो अथवा उसे अपनी कामत्तृप्ति के लिए कहीं जाना बंद कर देना चाहिए?
03—आपके विवाह-संबंधी विचार सुन-समझकर, विवाह करने की इच्छा ही उड़ गई; परंतु ऐसे महत्वपूर्ण
अनुभव से गुजरे बगैर रहा भी नहीं जा सकता। मुझ त्रिशंकु का मार्ग-दर्शन करें!
04—आप दलबदल करने वाले राजनीतिज्ञों के संबंध में
क्या कहते हैं?
पहला प्रश्न: भगवान!
बेइरादा नजर तुमसे टकरा गई,
जिंदगी में अचानक बहार आ गई।
मौत क्या है जमाने को समझाऊं क्या,
एक मुसाफिर को रस्ते में नींद आ गई।
रुख से परदा उठा, चांद शरमा गया,
जुल्फ बिखरी तो काली घटा छा गई।
दिल में पहले सी अब वो हलचल नहीं,
अब मुहब्बत में मिटने की घड़ी आ गई।
आनंद मोहम्मद!
मनुष्य के इरादे कभी भी परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते--नहीं पहुंच सकते
हैं। मनुष्य के इरादे मनुष्य की वासनाओं, इच्छाओं का ही
विस्तार हैं। मनुष्य तो परमात्मा को भी चाहेगा, तो परमात्मा
को चाहने के लिए नहीं, कुछ और चाहने के लिए--धन के लिए,
पद के लिए, प्रतिष्ठा के लिए।
मंदिर हैं, मस्जिद हैं, गिरजे हैं, गुरुद्वारे हैं। इतनी पूजा है, इतनी प्रार्थना,
इतनी आराधना--और सब झूठी। इरादे ही नेक नहीं हैं, बुनियाद में ही भूल है। लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन प्रार्थनाएं दबी हुई वासनाओं के ही रूप हैं--कुछ मांग है।
और जहां मांग है, वहां कैसी प्रार्थना! प्रार्थना
धन्यवाद है, अनुग्रह का भाव है। प्रार्थना इस बात का अहोभाव
है कि इतना दिया है जिसके कि मैं योग्य नहीं था! मेरा पात्र छोटा है, मेरी गागर को सागर से भर दिया है! और चाहूं भी तो क्या चाहूं! और मांगूं
भी तो क्या मांगूं! न मेरी योग्यता है, न मेरा कुछ
अर्जन--फिर भी मुझ पर आकाश बरसा है! जीवन दिया है, जीवन को
सौंदर्य दिया है, अनुभव की क्षमता दी है, चैतन्य दिया है, चैतन्य में संभावना दी है मुक्ति
की--और कौन से मोती मांगने हैं!
लेकिन हमारी तो प्रार्थनाएं भी वासनाओं से भरी हैं। इसलिए हमारी
प्रार्थनाएं उड़ नहीं पातीं; उनमें पंख नहीं हैं। उठ भी नहीं पातीं जमीन से। उठती
भी नहीं और गिर जाती हैं। जमीन में ही गड़ी रह जाती हैं, आकाश
तक उनकी गति नहीं है।
इसलिए परमात्मा से मिलन तो बेइरादा ही होता है।
तुम कहते हो: "बेइरादा नजर तुमसे टकरा गई।'
यह तो कभी आकस्मिक क्षणों में ही घटना घटती है, सोच-विचार कर नहीं। यह झरोखा तो कब खुल जाता है...तुम अगर तैयारी करके
बैठे हो, तो सब तैयारी समझ लेना चूकने की ही तैयारी है। दूर
से आती कोयल की आवाज सुनते-सुनते झरोखा खुल जाए, प्रार्थना
बन जाए। कि सुबह ऊगता हुआ सूरज, और क्षण भर को तुम स्तब्ध हो
जाओ, और झरोखा खुल जाए। कि रात तारों से भरी हुई और तुम्हारे
भीतर सोच-विचार ठहर जाए! सोचोगे भी तो क्या सोचोगे?
आकाश को देख कर भी जो सोचता है, उससे ज्यादा मूढ़ और
कौन होगा? तारों से भरा आकाश अगर तुम्हें क्षण भर को
निर्विचार नहीं कर जाता, तो तुम विक्षिप्त हो। वे अनंत-अनंत
तारे भी अगर तुम्हारी विचार की तंद्रा नहीं तोड़ पाते, अगर तुम्हारे
भीतर रहस्य की धारा को नहीं बहा पाते, अगर वृक्षों पर खिले
हुए फूल तुम्हारे भीतर भी आश्चर्य-विमुग्धता के फूल नहीं बन जाते, तो फिर परमात्मा से मिलने का कोई उपाय नहीं है।
न गीता मिलाएगी, न कुरान, न
बाइबिल। फूल मिला देते हैं। चांदत्तारे मिला देते हैं। सूर्योदय-सूर्यास्त मिला
देता है। पक्षियों का कलरव मिला देता है। पहाड़ से गिरता हुआ पानी का झरना मिला
देता है। परमात्मा यूं लिखा पड़ा है तुम्हारे चारों तरफ!
और यह घटना अनायास घटती है। जब तुम मंदिर जाते हो, तब उसमें प्रयास है, एक आयोजना है। हिंदू हिंदू के
मंदिर जाता है, बस वहीं चूक हो गई। परमात्मा हिंदू का नहीं
होता, और न मुसलमान का, और न ईसाई का,
और न जैन का। मुसलमान मस्जिद जाता है। वहां भी उसने व्यवस्था कर रखी
है अपने अहंकार की। ईसाई बाइबिल पढ़ेगा, गीता में उसे कुछ
दिखाई नहीं पड़ता। जैन महावीर के सामने झुकेगा, बुद्ध के
सामने अकड़ा खड़ा रह जाता है। ये अंधे लोग, ये दिग्भ्रमित लोग,
ये परमात्मा की तलाश को निकले हैं! इनकी तो यात्रा ही गलत शुरू होती
है, ये तो पहला कदम ही चूक गए, अब
मंजिल क्या खाक मिलेगी!
मेरी सारी चेष्टा, आनंद मोहम्मद, तुम्हें बेइरादा करने की है। तुम्हें उस घड़ी का स्वाद चखा देने की है,
जब तुम्हारे भीतर कोई इरादों का तूफान नहीं होता; कोई मांग नहीं, कोई वासना नहीं, कोई आकांक्षा नहीं, कोई अभीप्सा नहीं--एक सन्नाटा,
एक शून्य, एक चुप्पी; एक
ऐसी गहन चुप्पी कि तूफान भी आए, आंधी भी आए, तो भी तुम्हारी चुप्पी हिलती नहीं, डुलती नहीं;
एक ऐसी थिरता।
और ऐसी थिरता प्रकृति के सान्निध्य में अपने आप घटती है। और अनायास ही
घटती है।
जब भी परमात्मा किसी को उपलब्ध हुआ है तो बेइरादा उपलब्ध हुआ है।
इरादे से जो चले थे, वे तो चूकते ही रहे। बेइरादे जो चले थे, पहुंच गए।
"बेइरादा
नजर तुमसे टकरा
गई,
जिंदगी में अचानक बहार आ गई।'
यूं ही बहार आती रही है। यूं ही बहार आएगी सदा। यही बहार के आने का
ढंग है।
तुम कहते हो: "दिल में पहले सी अब वह हलचल नहीं,
अब मुहब्बत में मिटने की घड़ी आ गई।'
मुहब्बत में मिटने की घड़ी ही तो नवजीवन है। और ऐसा जीवन, फिर जिसका कोई अंत नहीं। प्रेम में जो मिटा, वह
धन्यभागी है।
यूं तो सभी को मिटना है, लेकिन यूं जो मिटते
हैं, व्यर्थ ही मिटते हैं; व्यर्थ ही
जीते, व्यर्थ ही मिटते हैं; कब्रों में
ही जीते, कब्रों में ही गिर कर समाप्त होते हैं। प्रेम में
जो मरा, वह मृत्यु के पार हो गया। उसने विजय पा ली मृत्यु
पर। उसके लिए अमृत के द्वार खुल गए।
और निश्चित ही उसके पहले सब हलचल ठहर जाएगी। प्रेम की मृत्यु के पूर्व
एक गहन मौन छा जाएगा, जैसे कुछ भी न बचा, कोई भी न
बचा भीतर, सब खाली हो गया--रिक्त। उसी रिक्तता में एक तरफ
मृत्यु मालूम होगी, क्योंकि अहंकार गया; और दूसरी तरफ एक नये जीवन का प्रारंभ, क्योंकि
परमात्मा आया।
तुम मिटो तो परमात्मा अभी मिले, यहीं मिले, इसी क्षण, तत्क्षण। तुम जब तक हो तब तक परमात्मा
नहीं मिल सकता है।
आनंद मोहम्मद, शुभ घड़ी आ रही है। इसे आने देना, रोकना मत। मौत से डर कर ठिठक मत जाना, झिझक मत जाना।
मौत से डर कर आगे कदम बढ़ाने से रुक न जाना। मौत से डर कर पीछे मत लौट पड़ना।
प्रेम मृत्यु है और प्रार्थना परम मृत्यु है। मगर मृत्यु के बाद ही तो
जाना जाता है वह, जिसका न कोई जन्म है, न कोई
मृत्यु है।
दूसरा प्रश्न: भगवान!
अगर एक पुरुष अपनी पत्नी से कामत्तुष्टि नहीं
पाता है तो वह दूसरी स्त्रियों के पास जाता है। ऐसा करने से वह एक अपराध-भाव अनुभव
करता है, क्योंकि उसे पत्नी से और सब सुविधाएं मिलती हैं और वह
उन सब बातों के लिए उसे चाहता है। जब वह अपराध-भाव अनुभव करता है तो उसका मन तनाव
से घिर आता है।
उसे क्या करना चाहिए कि उसका मन तनावग्रस्त न हो
अथवा उसे अपनी कामत्तृप्ति के लिए और कहीं जाना बंद कर देना चाहिए?
श्री मोदी!
यह प्रश्न थोड़ा जटिल है। जटिल इसलिए कि दोष इसमें व्यक्ति का न के
बराबर है, और सारा दोष व्यक्ति के ऊपर ही थोपा जाता है। दोष है
व्यवस्था का। सारी व्यवस्था अप्राकृतिक है। और अप्राकृतिक व्यवस्था हो, तो स्वभावतः ये सब विकृतियां पैदा होती हैं।
विवाह एक अप्राकृतिक व्यवस्था है। मनुष्य को छोड़ कर और तो किसी
पशु-पक्षी में विवाह का आयोजन नहीं है। मनुष्य में भी विवाह सदा से नहीं रहा है, बहुत बाद की ईजाद है। और उस ईजाद के कुछ लाभ थे, जिनके
कारण ईजाद की गई प्रथमतः, लेकिन हानियां भी थीं। लाभ तो कब
के खो गए हैं, अब हानियां ही हानियां रह गई हैं।
लेकिन व्यवस्थाएं एक बार आदमी को जकड़ लेती हैं तो छोड़ती नहीं। और इतना
साहस थोड़े ही व्यक्तियों में होता है कि वे समाज की मान्य धारणाओं के विपरीत जा
सकें। विद्रोह की क्षमता थोड़े ही व्यक्तियों में होती है। और समाज विद्रोही को
कुचल भी डालता है। क्योंकि विद्रोही खतरनाक है। वह संदेह पैदा कर रहा है व्यवस्था
में। विद्रोही और विद्रोह के लिए हवा पैदा कर रहा है। और समाज भलीभांति जानता है, खासकर समाज के ठेकेदार--वे धर्मगुरु हों, राजनेता
हों, या दूसरे हों--वे भलीभांति जानते हैं कि यह आग ऐसी है,
अगर पैदा हो जाए विद्रोह की, तो फिर बुझाई न
बुझेगी। इसे शुरू में ही कुचल देना उचित है। चिनगारी ही नहीं बचने देनी चाहिए।
नहीं तो यह ऐसी भभकेगी कि सारे जंगल को घेर लेगी।
जब विवाह ईजाद हुआ शुरू-शुरू में तो उसके कारण थे। सबसे बड़ा कारण तो
यही था कि जो शक्तिशाली पुरुष थे, जो ताकतवर लोग थे, जिनके हाथ में लाठी थी, वे स्त्रियों पर कब्जा कर
लेते। और चीजों पर कब्जा करते थे, वैसे ही स्त्रियों पर
कब्जा कर लेते। जमीन पर कब्जा करते। जिसके पास जितनी ताकत होती, उतनी बड़ी जमीन पर कब्जा करता, उतना बड़ा भूपति होता,
उतना बड़ा सम्राट होता। उन्हीं लुटेरों की कहानियां हम इतिहास में
पढ़ते रहते हैं। किसी को हम कहते हैं--महान सिकंदर! ये सब लुटेरे हैं। छोटे लुटेरे
नहीं, बड़े लुटेरे हैं। इतने बड़े लुटेरे हैं कि इनको लुटेरे
कहने में हमें संकोच होता है। छोटे लुटेरे तो जेलखानों में मरते हैं, बड़े लुटेरे इतिहास में जगह पाते हैं; स्वर्णाक्षरों
में उनके नाम लिखे जाते हैं। ये लुटेरे जमीन पर कब्जा करते; ये
लुटेरे धन पर कब्जा करते; ये लुटेरे स्त्रियों पर भी कब्जा
कर लेते थे। और एक-दो स्त्रियों पर नहीं, जिसकी जितनी
सामर्थ्य होती, उतनी स्त्रियों पर कब्जा कर लेते।
अभी, इस सदी के प्रारंभ तक निजाम हैदराबाद की पांच सौ
पत्नियां थीं! अभी पचास साल पहले तक! यह कोई पांच हजार साल पहले की बात नहीं है।
निजाम हैदराबाद की पांच सौ पत्नियां! शायद सबको पहचान भी न सके, शायद सबके नाम भी न जानता हो, शायद एक पत्नी का एकाध
बार साल में नंबर लगे या दो साल में नंबर लगे!
कृष्ण के जीवन की कहानी है कि उनकी सोलह हजार रानियां थीं। कुछ हैरानी
की बात नहीं। अगर पांच सौ पत्नियां बीसवीं सदी में निजाम हैदराबाद की हो सकती हैं, तो आज से पांच हजार साल पहले सोलह हजार पत्नियां कुछ ज्यादा नहीं--सिर्फ
बत्तीस गुनी।
असल में पत्नियों के आधार पर तौला जाता था कि कौन आदमी कितना
शक्तिशाली है। जैसे हम धन से तौलते हैं कि किसके पास कितना धन है, उतना शक्तिशाली है। पद से तौलते हैं कि किसके पास कितनी बड़ी प्रतिष्ठा है,
कौन मंत्री है, कौन प्रधानमंत्री है, कौन राष्ट्रपति है--उससे उसकी क्षमता, उसके अहंकार
का बल। वैसे ही एक जमाना था कि पत्नी तौल थी।
लोग कब्जा कर लेते थे पत्नियों पर जिनके पास ताकत थी। गरीब आदमी क्या
करे? सामान्यजन क्या करे? उसके लिए
तो स्त्रियां ही न बचेंगी। इसलिए विवाह को ईजाद करना पड़ा। विवाह को ईजाद करने का
यह अर्थ था कि गरीब को भी स्त्री मिल सके। यह उसकी उपादेयता थी। नहीं तो गरीब को
तो स्त्री ही नहीं मिलेगी।
आखिर स्त्री-पुरुष बराबर पैदा होते हैं प्रकृति में, यह खयाल रखना। यूं जब पैदा होते हैं शुरू में, तो एक
सौ पंद्रह बच्चे पैदा होते हैं--लड़के, और सौ लड़कियां पैदा
होती हैं। क्योंकि प्रकृति को यह खयाल है, अनुभव है कि पुरुष
कमजोर प्राणी है, स्त्री की बजाय। उसकी प्रतिरोधक क्षमता कम
है। इसलिए विवाह की उम्र के आते-आते पंद्रह लड़के मर जाएंगे। लड़कियां आसानी से नहीं
मरतीं। तो एक सौ पंद्रह लड़के पैदा होते हैं, सौ लड़कियां पैदा
होती हैं। लेकिन अठारह साल के करीब पहुंचते-पहुंचते सौ ही लड़के बचते हैं, सौ ही लड़कियां बचती हैं। पंद्रह लड़के तब तक खत्म हो गए होते हैं।
तो प्रकृति तो एक संतुलन रखती है। अगर कुछ लोग हजारों स्त्रियों पर
कब्जा कर लें, तो बाकी लोगों का क्या होगा? तो
समाज को कुछ व्यवस्था करनी पड़ी। और यह धारणा पैदा करनी पड़ी, और
इस धारणा को धर्म का बल देना पड़ा, कि किसी की विवाहिता
स्त्री को छीनना पाप है। किसी दूसरे की स्त्री की, किसी और
की स्त्री की तरफ देखना भी पाप है। इसकी उपादेयता थी।
और इसीलिए हम बाल-विवाह करते थे। नहीं तो दूसरे की स्त्री होने का
मौका ही नहीं आएगा, इसके पहले ही जिनके हाथ में ताकत है, वे स्त्रियों को खदेड़ कर ले जाएंगे। इसलिए बिलकुल बचपन में शादी कर देते
थे। जब तक कि कोई राजा-महाराजा उन पर कब्जा करे, उनका विवाह
हो जाता था। फिर विवाहित स्त्री पर कोई कब्जा न कर सके, इसके
लिए समाज को एक नैतिक धारणा पैदा करनी पड़ी, एक संस्कार पैदा
करना पड़ा--कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्त्री के प्रति ही निष्ठा रखनी चाहिए;
और दूसरे की स्त्री की तरफ देखना भी पाप है। यह इतनी सदियों तक
दोहराई गई बात है कि अब यह हमारा अंतःकरण बन गया। ऐसे ही अंतःकरण निर्मित होता है।
वह बात आज भी हमारे भीतर गहरी बैठी हुई है। लेकिन जो व्यवस्था की गई
थी, उसका समय तो कभी का लद गया। अब किसी की हैसियत नहीं है, न किसी की ताकत है कि हजारों स्त्रियों पर कब्जा कर ले। लेकिन वह लकीर अभी
भी खिंची है और हम उसके फकीर बने चल रहे हैं।
इसका यह तो लाभ हुआ कि गरीब से गरीब आदमी को भी स्त्री मिल सकी; नहीं तो सिर्फ अमीरों को मिलती, शक्तिशालियों को
मिलती। और यह अन्याय होता। गरीब की कामवासना का क्या होता! और गरीब बड़ी संख्या में
हैं। उनका जीवन बड़ा दूभर हो जाता। उनके लिए भी आयोजन चाहिए। ठीक है, जो सुविधा-संपन्न थे, वे सुंदरतम स्त्रियों को कर
लें इकट्ठा। लेकिन कम से कम गरीबों के लिए कुछ तो छोड़ दें। गरीब को जैसे भोजन
चाहिए, वैसे ही स्त्री भी चाहिए। वह उसकी जरूरत है।
लेकिन इसका एक दुष्परिणाम भी हुआ। इसका एक दूसरा पहलू है। और वह पहलू
यह है कि फिर एक ही स्त्री के साथ एक पुरुष को जीवन जीना है। इंद्रियों का यह
स्वभाव है कि एक ही चीज को बार-बार उपयोग करने से ऊब जाती हैं। अब जैसे तुम्हें
रोज ही रोज एक ही सब्जी, एक ही सब्जी खानी पड़े, तो चाहे
तुम्हें कितनी ही पसंद हो सब्जी, तुम ऊब जाओगे।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन लखनऊ के एक नवाब की सेवा में
नियुक्त हुआ था। और नवाब उससे बड़ा खुश था। नसरुद्दीन होशियार आदमी है, चमचागिरी में उसकी बड़ी पहुंच है। और नवाबों के आस-पास और किस तरह के लोग
चाहिए--चमचे ही चाहिए।
एक दिन नवाब और नसरुद्दीन साथ-साथ भोजन करने बैठ हैं। नवाब उसे सदा
साथ रखता है। नयी-नयी भिंडियां आई हैं और बड़ी स्वादिष्ट सब्जी भिंडियों की बनी है।
नवाब ने तारीफ की। रसोइए को बुला कर कहा कि सुंदर सब्जी बनी है। नसरुद्दीन ऐसा
मौका चूकने वाला नहीं था। उसने कहा, सुंदर होगी ही!
क्योंकि मैं वनस्पति-शास्त्र का ज्ञाता हूं, भिंडी तो अमृत
है, भिंडी से श्रेष्ठ तो कोई सब्जी ही नहीं। इसीलिए तो लखनऊ
में भिंडी का इतना समादर है, क्योंकि यहां पारखी लोग रहते
हैं। नसरुद्दीन तो बढ़ता गया, कहता ही गया। जब चमचे कुछ कहते
हैं तो फिर रुकते नहीं। और जब सम्राट, नवाब प्रसन्न हो रहा
था, तो उसने कहा कि यूं समझो कि ये भिंडियां नहीं हैं,
लैला की अंगुलियां हैं। अरे, इनका स्वाद! इनका
रस!...
रसोइए ने भी सुना। उसे यह पता नहीं था कि भिंडियां इतनी गजब की चीज
हैं। उसने दूसरे दिन भी भिंडियां बनाईं। सुबह भी बनाईं, शाम भी बनाईं, तीसरे दिन भी बनाईं, और नसरुद्दीन रोज तारीफ के पुल बांधता रहा, बांधता
रहा। छठवें दिन जब भिंडियां बनीं...नवाब तो ऊब गया था भिंडियां खाते-खाते, सुबह भी खाए, शाम भी खाए! छठवें दिन जब भिंडियां
बनीं, तो उसने थाली उठा कर फेंक दी। उसने कहा, बुलाओ उस मूरख रसोइए को, क्या मुझे मार डालेगा?
नवाब का रुख बदला तो चमचे का रुख बदल गया। चमचे तो बड़े पारखी होते हैं, वे तो हवा का रुख देख कर चलते हैं। नवाब तो गरम हुआ ही रसोइए पर, नसरुद्दीन ने तो उठ कर उसको दो हाथ जमा दिए। और कहा, हरामजादे, सम्राट को मारना है? अरे ये जहर हैं, भिंडियां नहीं हैं। भिंडियों की तो
इतनी निंदा है कि इनको खाता ही कौन है! इनको तो गरीब-गुरबे, जिनको
कुछ खाने को नहीं मिलता, वे भिंडियां खाते हैं। इनका नाम
ही--भिंडियां! तू जान लेगा नवाब साहब की? तुझे कुछ होश है?
नवाब तो बहुत चौंका। उसने कहा, नसरुद्दीन, छह दिन पहले तो तुम कहते थे भिंडियां अमृत, और अब
तुम कहते हो भिंडियां जहर?
नसरुद्दीन ने कहा, हुजूर, मेरे
मालिक, मैं आपका सेवक हूं, भिंडियों का
नहीं। मुझे तनख्वाह आप देते हैं, भिंडियां नहीं। अरे आप कहो
तो अमृत हैं, आप कहो तो जहर। आप कहो तो स्वर्ग बता दूं,
आप कहो तो नरक।
रोज अगर स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन भी करने को मिले, तो तुम्हारे स्वाद के जो सूक्ष्म तंतु हैं, वे मरने
लगेंगे। तुम्हारी जिह्वा उनका स्वाद लेना बंद कर देगी। यह प्राकृतिक नियम है।
इंद्रियों का यह स्वभाव है। जब तक तुम अतींद्रिय नहीं हो गए हो, जब तक तुम्हारे जीवन में इंद्रियों के पार जाने का कोई मार्ग नहीं खुल गया
है--जिसका कि सिर्फ एक ही मार्ग है, ध्यान--तब तक यह मुसीबत
होने वाली है। तुम्हें अगर रोज एक ही संगीत सुनना पड़े, तो भी
तुम घबड़ा जाओगे, ऊब जाओगे, परेशान होने
लगोगे, विक्षिप्त होने लगोगे।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन ने सितार खरीदा और एक ही तार को बस
टुन-टुन, टुन-टुन करता रहे। एक दिन, दो
दिन...।
पत्नी ने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? हमारा
दिमाग फिरा जा रहा है। हमने और भी सितार बजाने वाले देखे हैं--मगर और स्वर भी हैं,
और तार भी हैं, सितार बजाने वाले हाथ तारों पर
फिराते हैं। तुम तो एक ही तार को खींचते हो, टुन-टुन-टुन-टुन
बजाए रखते हो। यह कोई सितार बजाना है? यह कोई ढंग है?
नसरुद्दीन ने कहा, तू समझी नहीं। वे लोग तारों पर
हाथ फेरते हैं, यहां से वहां हाथ दौड़ाते हैं, इस स्वर को, उस स्वर को, क्योंकि
वे अपने स्वर की तलाश कर रहे हैं। मुझे मेरा स्वर मिल गया, अब
मैं क्यों खोज करूं? जो मुझे चाहिए था, मुझे मिल गया। अब तो मैं यही बजाऊंगा।
पत्नी तो मायके चली गई। चली ही जाएगी और क्या करेगी! बच्चों ने कहा, हमें हॉस्टल में भरती करवा दो। जो बच्चे कभी हॉस्टल जाने को राजी नहीं थे,
वे सब हॉस्टल चले गए। नसरुद्दीन अकेला रह गया तो और दिल खोल कर
टुन-टुन करने लगा। दिन हो कि रात...।
मोहल्ले के लोग परेशान हो गए। आखिर बरदाश्त की एक सीमा होती है। सामने
वाले आदमी ने एक रात दो बजे उठ कर कहा कि नसरुद्दीन, अगर अब एक मिनट भी और
तुमने यह टुन-टुन मचाई, तो मैं पागल हो जाऊंगा।
नसरुद्दीन ने कहा, भैया, देर
हो गई। मैं दो घंटे पहले सितार बंद कर चुका हूं।
आदमी पागल हो ही जाएगा अगर एक ही स्वर...। मगर जो कान के संबंध में सच
है, जो जबान के संबंध में सच है, वही सच है यौन के संबंध
में, क्योंकि वह भी इंद्रिय है। वही स्त्री, वही पुरुष--ऊब स्वाभाविक है, इसमें कुछ अस्वाभाविक
नहीं है। जब तक कि तुम ध्यानी नहीं हो गए हो, तब तक यह
बिलकुल स्वाभाविक है कि तुम ऊब जाओ। वही शरीर, वही शरीर का
ढांचा, वही शरीर का अनुपात, वही शरीर
का भूगोल--उसमें कुछ भी अन्वेषण करने को नहीं बचा।
जब एक पुरुष एक स्त्री में उत्सुक होता है, तो उत्सुकता में बहुत सी बातें होती हैं। एक तो जो छिपा है, जो राज है, उसे उघाड़ने की आकांक्षा होती है।
इसलिए स्त्रियां अपने को छिपा-छिपा कर रखती हैं। जिस देश में
स्त्रियां अपने को जितना छिपा कर रखती हैं, उस देश में स्त्रियां
उतना ही पुरुषों को आकर्षित करती हैं। तुम यह मत सोचना कि छिपाना लज्जा के कारण हो
रहा है, इस गलती में मत पड़ना। छिपाना आकर्षित करने की विधि
है; क्योंकि जो चीज जितनी छिपी हो उतना ही ज्यादा बुलावा है
उसमें।
पश्चिम की स्त्रियां उतनी आकर्षक नहीं मालूम होतीं--सुंदर से सुंदर भी, क्योंकि वे करीब-करीब अर्धनग्न हैं। और समुद्रत्तट पर तुम उनको पूरा नग्न
देख सकते हो। पश्चिम के समुद्रत्तटों पर स्त्रियां नग्न धूप-स्नान ले रही हैं।
पुरुष निकलते चले जाते हैं, कोई ध्यान नहीं देता।
भारत की स्त्रियां ज्यादा आकर्षक मालूम होती हैं। और कारण? वे ऐसी साड़ियों में लिपटी हुई छिपी हुई बैठी हैं कि राज बन गई हैं,
रहस्य बन गई हैं। इससे तुम यह मत सोचना कि यह कोई बड़ी आध्यात्मिकता
और धार्मिकता के कारण हो रहा है। यह होशियारी है। यह भारत का अनुभव है--सदियों का
अनुभव है--कि चीजें उघाड़ो तो उनमें से रस खो जाता है। चीजों को छिपा कर रखो,
ढांक कर रखो, तो उनमें रस देर तक बना रहता है।
और चूंकि भारत विवाह की परंपरा को अक्षुण्ण रखना चाहता रहा है, इसलिए स्त्रियों को खूब छिपा कर रखता है। शायद पति भी अपनी पत्नी को कभी
नग्न नहीं देखता। पत्नी से जब प्रेम भी करता है, तब भी
अंधेरे में, चुपचाप, किसी को पता न चल
जाए, चोरी-चोरी।
और निश्चित ही, चुराए गए चुंबन ज्यादा मीठे होते हैं। पक्का पता ही
नहीं चलता कि अपनी पत्नी है कि किसी और की है। अंधेरे में क्या खाक पता चलेगा!
होशियार लोग थे जो यह व्यवस्था दे गए कि अंधेरे में प्रेम करना।
पश्चिम के लोग पागल हैं; दिन दहाड़े प्रेम करते हैं। आमतौर से प्रेम का समय रात
से बदल कर सुबह हो गया है--खासकर अमरीका में। इसका दुष्परिणाम होने वाला है।
दुष्परिणाम यह होने वाला है कि जल्दी ही तुम ऊब जाओगे; तुम
पत्नी की देह से परिचित हो गए।
पत्नियां ज्यादा होशियार हैं, वे जब भी प्रेम करती
हैं, आंख बंद कर लेती हैं। इसलिए पत्नियां पुरुषों से कम ऊबती
हैं, खयाल रखना, पुरुष पत्नियों से
जल्दी ऊब जाते हैं। वे देखती ही नहीं कि कौन सज्जन हैं, वे
तो आंख ही बंद किए हुए हैं।
उनकी आंख बंद करने के कई कारण हैं। जानकार कहते हैं कि बड़ा कारण तो यह
है कि वे अपने पति को प्रसन्न हालत में नहीं देख सकतीं, इसलिए आंख बंद करती हैं--कि ले ले मजा जो लेना हो, मगर
मुझे दिखाई नहीं पड़ना चाहिए। यह बरदाश्त के बाहर है।
लेकिन इसके पीछे एक ज्यादा मनोवैज्ञानिक राज है। आंख बंद करते ही फर्क
पड़ जाता है--दिन भी हो तो रात हो जाती है। स्त्रियां कभी पसंद नहीं करतीं कि
प्रकाश हो और तुम उन्हें प्रेम करो। क्योंकि अगर स्त्री उघड़ी हुई दिखाई पड़े तो
जल्दी ही तुम्हारा आकर्षण उसमें समाप्त हो जाएगा।
तुमने कभी यह खयाल किया कि नग्न स्त्री में तुम उतने उत्सुक नहीं
होओगे, जितनी कपड़े उतारती हुई स्त्री में उत्सुक होओगे। चाहे
वह भद्दी और बेहूदी औरत ही क्यों न हो, मगर उसका कपड़े उतारना
तुम्हें ज्यादा आकर्षित करेगा--बजाय नग्न सुंदरतम स्त्री को देख कर भी। नग्न ही है
तो तुम्हारी कल्पना के लिए कोई उपाय नहीं बचता। लेकिन एक स्त्री आहिस्ता-आहिस्ता
कपड़े उतार रही है...स्ट्रिपटीज़ जो सारी दुनिया में प्रचलित हुआ है, कैबरे नृत्य और इस तरह की जो चीजें प्रचलित हुई हैं, उन सबका ढंग है एक--आहिस्ता-आहिस्ता वे एक-एक कपड़े उतार कर फेंकती जाती
हैं, और तुम्हारी उत्सुकता गहन होती चली जाती है। तुम चाहते
हो बस एक और उतारे, एक और उतारे, एक और
उतारे...।
मुल्ला नसरुद्दीन की प्रेयसी मिनी स्कर्ट खरीद लाई। आधुनिक, लेकिन जरा संकोच में भी भरी थी। उसने नसरुद्दीन से कहा कि देखो नसरुद्दीन,
यह स्कर्ट तो बहुत छोटा है, कहीं ऐसा न हो कि
इससे मेरा नीचे का अंडरवियर दिखाई पड़े। तो तुम जरा देखो तो, अंडरवियर
तो दिखाई नहीं पड़ता? नहीं तो मैं जाऊं यह पहन कर और लोगों को
अंडरवियर दिखाई पड़े तो भद्दा लगे।
नसरुद्दीन ने देखा और कहा कि नहीं दिखाई पड़ता।
वह और थोड़ी झुकी। उसने कहा, अब देखो। अब तो दिखाई
नहीं पड़ता?
नहीं दिखाई पड़ता।
वह और झुकी।
नसरुद्दीन ने कहा, कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
उसने कहा, कुछ नहीं दिखाई पड़ता! वह और झुकी।
नसरुद्दीन ने कहा, बिलकुल कुछ नहीं दिखाई पड़ता। हो
तो कुछ दिखाई पड़े, अंडरवियर तूने पहना ही नहीं है। तू मुझे
मूरख बना रही है।
स्त्रियां कपड़ों की पर्तों में पर्तों में पर्तों में छिपी हैं।
आकर्षक लगती हैं। फिर झूठ भी चल जाता है।
मेरी एक संन्यासिनी है--माधुरी। उसकी मां भी संन्यासिनी है। उसकी मां
ने मुझे कहा कि उसके तो आपरेशन में दोनों स्तन उसे गंवाने पड़े। लेकिन डाक्टरों ने
कहा, चिंता न करो, अब तुम्हें कोई
नया विवाह तो करना भी नहीं है, उम्र भी तुम्हारी ज्यादा हो
गई। और झूठे रबर के स्तन मिलते हैं, वे तुम अंदर पहन लो,
बाहर से तो वैसे ही दिखाई पड़ेंगे। रबर के हों कि चमड़ी के हों,
क्या फर्क पड़ता है? बाहर से तो वैसे ही दिखाई
पड़ेंगे। सच तो यह है कि रबर के ज्यादा सुडौल होंगे।
तो वह रबर के स्तन पहनने लगी। मेक्सिको में रहती थी। कार से कहीं
यात्रा पर जा रही थी। रास्ते में ट्रैफिक जाम हो गया तो रुकी। पुलिस का इंसपेक्टर
पास आया। खुद ही कार ड्राइव कर रही थी। वह एकटक उसके स्तन की तरफ देखता रह गया।
उसे मजाक सूझा। बड़ी हिम्मतवर औरत है। उसने कहा, पसंद हैं?
एक क्षण को तो वह इंसपेक्टर डरा कि कोई झंझट खड़ी न हो।
मगर उसने कहा, नहीं, चिंता न करो, पसंद हैं?
उसने कहा कि सुंदर हैं। क्यों न पसंद होंगे? सुडौल हैं।
तो उसने कहा, यह लो, तुम्हीं ले लो। उसने
दोनों स्तन निकाल कर दे दिए। अब जो उस पर गुजरी होगी बेचारे पर, जिंदगी भर न भूलेगा। अब असली स्तन वाली स्त्री को भी देख कर एकटक अब नहीं
देखेगा। अब कौन जाने असलियत क्या हो? रखे होगा वह रबर के
स्तन अब, अपनी खोपड़ी से मारता होगा कि अच्छे बुद्धू बने।
मुझे उसकी घटना पसंद आई। मैंने कहा, तूने ठीक किया। तू तो
और खरीद ले और बांटती चल। जो मिले उसको बांट दिए। जितनों का छुटकारा हो जाए उतना
अच्छा। मूढ़ हैं, बचकाने हैं--छुटकारा करो। जगह-जगह मिलेंगे
इस तरह के लोग।
अपनी पत्नी से तो तुम स्वभावतः ऊब जाओगे। पत्नियां भी ऊब जाती हैं।
लेकिन पत्नियों को हमने इतना दबाया है सदियों में कि वे यह कह भी नहीं सकतीं कि ऊब
गई हैं। हमने उन्हें कहा है, पति परमात्मा है। हमने उन्हें कहा
है कि एक पति को ही सब कुछ मानना है। पति-व्रत की हमने उन्हें खूब शिक्षा दी है।
सदियों की धारणाओं ने उनको एक तरह से कुंठित कर दिया है। उनका रस ही खो गया है।
उनका सच में पूछो तो किसी पुरुष में कोई रस नहीं रहा है। मुझसे हजारों स्त्रियों
ने कहा है कि उनका किसी पुरुष में कोई रस नहीं रहा है। पुरुषों ने ही रस मार डाला
है।
यह बात तुम खयाल रखना कि अगर एक पुरुष में रस है, स्त्री का, तो और पुरुषों में भी रस होगा। क्योंकि
पुरुष में रस होने का अर्थ पुरुष में रस होना होता है, इससे
कुछ फर्क नहीं पड़ता कि किस में! अगर एक पुरुष में रस है, तो
और पुरुषों में भी रस होगा। अगर एक पुरुष आकर्षित करता है, तो
उससे सुंदर व्यक्ति को देख कर वह क्यों आकर्षित न होगी?
हमने सदियों से उसे समझाया है कि किसी दूसरे पुरुष में आकर्षण मत रखना, यह महापाप है। और स्त्रियां निश्चित ही ज्यादा भावुक हैं, हार्दिक हैं, उन्होंने इसको हृदय में ले लिया है।
पुरुषों के संस्कार तो खोपड़ी में हैं, लेकिन स्त्रियों के
संस्कार हृदय तक पहुंच गए हैं, ज्यादा गहरे पहुंच गए हैं।
चूंकि उन्हें किसी पुरुष में कोई रस नहीं लेना है, इसका
अंतिम परिणाम यह हुआ कि उन्हें अपने पुरुष में भी कोई रस नहीं है।
इस गणित को तुम ठीक से समझ लो। अगर सारे पुरुषों से रस हटा दोगे तो
स्वयं के पुरुष से भी रस नहीं रह जाएगा। और तब वह स्त्री बोझ की तरह पुरुष के साथ
संभोग करेगी। पुरुष को तृप्ति नहीं मिलेगी, यह अड़चन है। उसको
तृप्ति कैसे मिले? वह स्त्री कोई रस ही नहीं ले रही है। वह
यूं टाल रही है कि ठीक है--यंत्रवत। क्योंकि मैं पत्नी हूं, तुम्हारी
दासी हूं, तुम्हारी सेवा के लिए ही मेरा जीवन है, जो करना हो करो, यह देह तुम्हारी है--लाश की
तरह।...जैसे लाश से तुम प्रेम करोगे, तो क्या रस मिलेगा?
उसकी तरफ से कोई प्रत्युत्तर नहीं है--न वह नाचती, न वह गाती, न वह गुनगुनाती, न
वह मस्त होकर डोलती, न वह तुम्हें धन्यवाद देती।
हालत तो उलटी है, हालत तो यह है कि जब भी तुम उससे
कहते हो कि क्या विचार है आज? तो वह कहती है, सिर में दर्द है। कभी कमर में दर्द है। कि आज मैं थक गई हूं, आज क्षमा करो। कि आज मुन्ना के दांत निकल आए हैं, और
वह दिन भर से रो रहा है। और बड़ा बेटा अभी तक नहीं लौटा है, पता
नहीं कहां गया, आधी रात हो रही है। और तुम्हें यह सूझी है!
कि रसोइया घर छोड़ कर चला गया है; कि नौकर ने चोरी कर ली है;
कि दिन भर से मैं मरी जा रही हूं काम कर-करके, घर में मेहमान ठहरे हुए हैं--और तुम्हें यह सूझी है!
मैंने सुना, एक बूढ़े ने जिसकी उम्र अस्सी साल थी, एक बुढ़िया से जिसकी उम्र पचहत्तर साल थी, शादी कर
ली। अमरीका में घटना घटी, यहां तो कैसे घटेगी! यह समय तो
संन्यास का है--पचहत्तर साल। पचहत्तर साल में कोई विवाह करे, तो उस पर तो जूतियों की वर्षा हो जाए। उस पर तो लानत-मलानत इतनी हो उसकी,
इतना कुटे-पिटे जहां जाए वहीं, ऐसा
स्वागत-सत्कार हो उसका कि वह भी जिंदगी भर याद रखे। अमरीका में संभव है।
दोनों की शादी हो गई। शादी में बहुत लोग सम्मिलित हुए, क्योंकि सब लोगों को आनंद आया कि यह बढ़िया बात है--पचहत्तर साल की बहू,
अस्सी साल का दूल्हा। जो नहीं भी संबंधित थे, वे
भी देखने आए थे शादी। चर्च खचाखच भरा था। और सबने फूल भी भेंट किए, सबने उपहार भी भेंट किए--अपरिचितों ने भी--कि आपका दांपत्य जीवन सुखमय हो।
हिम्मतवर लोग हो, गजब की हिम्मत है! अरे आदमी
तीस-पैंतीस-चालीस साल तक पहुंचते-पहुंचते टूटने लगता है, घबड़ाने
लगता है; मगर गजब के जुझारू हो, रिटायर
होने का नाम ही नहीं ले रहे।
मगर अब करते क्या दोनों बेचारे। शादी तो हो गई, सुहागरात मनाने भी गए मियामी बीच, जहां जाना चाहिए।
जो भी औपचारिक था, सब पूरा किया। शानदार से शानदार होटल में
ठहरे, जहां सुहागरात मनाने वाले जोड़े ठहरते हैं। सुंदर से
सुंदर कमरा लिया। बहू पचहत्तर साल की तैयार होकर बिस्तर पर लेटी। दूल्हा राजा
तैयार होकर...दांत वगैरह निकाल कर उन्होंने सब साफ किए; सिर
पर जो बालों का विग वगैरह पहन रखा था, उसको ठीक से जमाया;
मूंछें, जिनको काला रंग लिया था, उन पर ताव दिया। वे भी आकर बिस्तर पर लेटे। बुढ़िया का हाथ हाथ में लिया,
बड़े प्रेम से दबाया, थोड़ी देर दबाए रहे
दोत्तीन मिनट, फिर कहा कि अब सो जाएं। तो दोनों सो गए। ऐसी
सुहागरात की पहली रात बीती। दूसरी रात भी हाथ दबाया, उतनी
देर नहीं। जब तीसरी रात बूढ़ा हाथ दबाने लगा, तो बुढ़िया ने
करवट ली और कहा, आज मेरे सिर में दर्द है।
स्त्रियां, इस देश में तो कम से कम, कह भी
नहीं सकतीं यह बात; कहना भी हमने उनसे छीन लिया, उनकी जबान भी छीन ली है। इसलिए तो पुरुषों ने वेश्याएं ईजाद कर लीं,
लेकिन स्त्रियों ने वेश्य ईजाद नहीं किए। हालांकि लंदन में, न्यूयार्क में अब पुरुष वेश्याएं उपलब्ध हैं। उनको वेश्या नहीं कहना चाहिए,
वेश्य कहना चाहिए। यह स्त्री आजादी के आंदोलन का परिणाम है वहां,
कि जब पुरुष वेश्याओं के पास जा सकते हैं, तो
स्त्रियां क्यों न वेश्यों के पास जाएं!
मेरा मतलब वेश्यों से वह नहीं है जो कि हमारे यहां ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र से
होता है। जो अपने शरीर को बेचते हैं, वे वेश्य; जैसे वेश्या, जो अपने शरीर को बेचती है। पुरुष वेश्य
उपलब्ध हैं लंदन में। जैसे स्त्रियां खड़ी होती हैं सज-धज कर खास रास्तों पर--उनके
रास्ते हैं, उनके मोहल्ले हैं, रेड-लाइट
इलाके--वैसे ही पुरुष भी खड़े होते हैं सज-धज कर। स्त्रियां अपनी कारें रोक कर उनको
देखती हैं, पसंद करती हैं, दाम तय करती
हैं, हिसाब-किताब होता है।
मगर भारत में तो यह कल्पना के बाहर है बात। स्त्रियां तो सोच ही नहीं
सकती हैं। हमने उनका सोचना भी मार डाला है। लेकिन पुरुष का सोचना नहीं मरा है! और
स्त्रियों का सोचना पुरुषों ने ही मारा है, इसलिए वे अपना सोचना
तो क्यों मारेंगे? वे मालिक हैं। उन्होंने अपने को तो मुक्त
रखा है। इससे एक दुविधा और एक अड़चन पैदा हुई है।
इसलिए मैंने कहा कि श्री मोदी का प्रश्न थोड़ा जटिल है। दुविधा यह है
कि सब पुरुष अपनी पत्नियों से ऊब जाते हैं। कोई कहता है, कोई नहीं कहता। कोई झेल लेता है, कोई नहीं झेल पाता।
कोई इधर-उधर से रास्ते निकाल लेता है पीछे के दरवाजे से, कोई
नहीं निकाल पाता।
लेकिन जब तुम पीछे का रास्ता निकालोगे तो अपराध-भाव पैदा होगा, गिल्ट पैदा होगा, क्योंकि वह पंडित-पुरोहितों की
आवाज तुम्हारे भीतर भरी हुई है। वे कहेंगे कि तुम पाप कर रहे हो। तब घबराहट पैदा
होगी, बेचैनी पैदा होगी। पत्नियां तो सोच ही नहीं सकतीं। अगर
सोचेंगी भी, तो भी अपराध-भाव पैदा हो जाएगा। करना तो दूर,
अगर दूसरा पुरुष उन्हें सुंदर भी मालूम पड़ेगा, तो भी उनके भीतर बेचैनी पैदा हो जाएगी कि यह कैसे हुआ! इसलिए उन्होंने तो
अपने को बिलकुल जड़ कर लिया है, संवेदना को ही मार डाला है।
इसलिए भारत की स्त्रियां एक अर्थ में आत्महीन हो गई हैं। आत्महीन
उन्हें होना पड़ा है, नहीं तो अपराधी होना पड़े। अपराधी होने से आत्महीन
होना अच्छा है; बिलकुल जड़ हो जाना अच्छा है। और पुरुष
आत्महीन तो नहीं हुए, लेकिन तब अपराध की भावना पकड़ती है।
दोष व्यवस्था का है, व्यक्ति का नहीं है। हमें
व्यवस्था बदलनी होगी। हमें एक व्यवस्था देनी चाहिए जिसमें पुरुष और स्त्रियां साथ
रहें, लेकिन इतने बंधन में नहीं जितने बंधन में हम उन्हें रख
रहे हैं।
और मनोवैज्ञानिकों का यह अनुभव है पिछले पचास वर्षों का, मेरा यह अनुभव है मेरे अपने आश्रम का, जहां सैकड़ों
जोड़े रह रहे हैं, कि अगर कभी-कभी कोई पुरुष किसी स्त्री के
साथ दिन, दो दिन के लिए बिता दे, या
कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ दिन, दो दिन के लिए बिता दे,
तो इससे उनके आपसी संबंध खराब नहीं होते--गहरे होते हैं।
यह बात उलटी लगेगी और रूढ़िग्रस्त लोगों के लिए तो महापाप की लगेगी; मगर मैं तो सत्य ही कहने को मजबूर हूं। लगे जिसको जैसा लगना हो। मैंने तो
कसम खाई है कि जो सत्य है, उसे वैसा ही कहूंगा जैसा है;
नग्न ही कहूंगा, उस पर वस्त्र भी नहीं
डालूंगा। सत्य यह है कि अगर पति-पत्नी का संबंध गहरा करना हो, अगर सिर्फ औपचारिक न रखना हो, तो हमें इतनी
स्वतंत्रता देनी चाहिए कि पुरुष कभी किसी और स्त्री के साथ जाए, तो इससे पत्नी बेचैन न हो, परेशान न हो। और अगर
पत्नी कभी किसी पुरुष के साथ चली जाए, तो पति बेचैन न हो,
परेशान न हो। इससे उनका दांपत्य नष्ट नहीं होगा, इससे उनके दांपत्य में पुनर्जीवन आ जाएगा।
अगर उस नवाब को दो-चार दिन दूसरी सब्जी खाने को मिली होती, और फिर भिंडी मिलती, तो फिर भिंडी में रस आता,
फिर भिंडी अच्छी लगती। इससे कुछ गहराई में बाधा नहीं आएगी, इससे गहराई बढ़ेगी। इसमें अपराध-भाव की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
श्री मोदी, मैं यह कहना चाहूंगा कि छोड़ो अपराध-भाव। अगर तुम्हें
लगता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी कामवासना को तृप्त नहीं कर पाती, तो किसकी पत्नी कर पाती है? किसका पति कर पाता है?
और अगर तुम्हें कभी किसी दूसरी स्त्री में रस मालूम होता है,
तो अपराध-भाव से मत भरो, अन्यथा दोहरी
मुश्किलें होंगी।
अगर अपराध-भाव से भरे तुमने किसी स्त्री से कोई संबंध भी बनाया, तो उससे भी तुम्हें तृप्ति नहीं मिलेगी, क्योंकि वह
अपराध-भाव बीच में खड़ा रहेगा, वह दीवाल बनी रहेगी। तुम उसको
प्रेम करते समय भी जानोगे कि सिर्फ पाप कर रहे हो, गुनाह कर
रहे हो, नरक में जा रहे हो; तुम अपनी
पत्नी के साथ धोखा कर रहे हो।
कोई अपराध-भाव की जरूरत नहीं है। लेकिन यह अपराध-भाव तब तक तुम्हारा
पीछा करेगा, जब तक तुम पत्नी को भी इतनी ही स्वतंत्रता न दोगे।
इतनी ही स्वतंत्रता पत्नी को भी देनी चाहिए। वह भी मनुष्य है, जैसे तुम मनुष्य हो। न तुम समाधिस्थ हो, न वह
समाधिस्थ है। न तुम बुद्ध हो, न वह बुद्ध है। न तुमने ध्यान
जाना, न उसने ध्यान जाना। हां, ध्यान
जान लो तो कामवासना से मुक्ति हो जाती है। जब तक ध्यान नहीं जाना है, तब तक तुम भी स्वतंत्रता से अपनी इंद्रियों को तृप्ति दो और अपनी पत्नी को
भी तृप्ति देने दो।
लेकिन पुरुष को यह बात अखरती है। वह सोचता है कि मैं तो स्वतंत्रता
अनुभव करूं, लेकिन पत्नी! यह बरदाश्त के बाहर है कि कोई मुझसे कह
दे कि तुम्हारी पत्नी किसी और पुरुष के साथ देखी गई। तो उसके अहंकार को चोट लगती
है।
अगर अहंकार को चोट लगेगी, तो फिर अपराध-भाव भी
रहेगा, क्योंकि फिर तुम धोखा दे रहे हो। फिर तुम अपनी पत्नी
के साथ बेईमानी कर रहे हो। फिर तुम्हें दिखावा करना होगा। फिर तुम्हें एक चेहरा
पत्नी के सामने ओढ़ कर रखना पड़ेगा कि प्रेम मैं तुझे करता हूं, सिर्फ तुझे करता हूं, और किसी को नहीं। और पीछे
तुम्हें दूसरा चेहरा! तुम दो चेहरे वाले आदमी हो जाओगे। दो चेहरों के बीच में तुम
कशमकश में रहोगे, दुविधा में रहोगे। तुम्हारे जीवन में
द्वंद्व हो जाएगा।
और दो ही चेहरे होते तो ठीक थे, बड़ी मुश्किलें हैं,
कई चेहरे हो जाएंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही थी कि देखो, जब तक मैं बरदाश्त कर सकती हूं करती हूं, लेकिन अगर
किसी दिन बात पकड़ में आ गई तो ठीक नहीं होगा। यह औरत कौन थी जो अभी रास्ते पर हमको
मिली और एकदम मुस्कुरा कर तुम्हारी तरफ देखा, और तुम एकदम डर
गए और तुम नीचे देखने लगे--यह औरत कौन थी?
नसरुद्दीन ने कहा कि बाई, तू मुझसे कह रही है
कि वह औरत कौन थी! मैं उससे डरा हुआ हूं कि वह मुझे मिलेगी तो पूछेगी कि वह औरत
कौन थी जो तुम्हारे साथ थी?
झंझट तो होने वाली है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन अपनी नौकरानी से बोली कि सुनती हो, मुझे इस बात के पक्के प्रमाण मिलने शुरू हो रहे हैं कि नसरुद्दीन अपनी
टाइपिस्ट के साथ गलत संबंध बनाए हुए है।
वह नौकरानी बोली, रहने दो, रहने
दो! मत कहो ये बकवास की बातें! यह सिर्फ तुम मुझसे इसलिए कह रही हो ताकि मेरे मन
मेंर् ईष्या पैदा हो, जलन पैदा हो। मैं ऐसी जलने-भुनने वाली
नहीं हूं। मैं ऐसी बातों में पड़ने वाली नहीं हूं। नसरुद्दीन का प्रेम मुझसे बिलकुल
शाश्वत है। उसने खुद ही मुझसे कहा है कि मेरा प्रेम अमर है।
यह पत्नी को पता ही नहीं था।
दो ही चेहरे से काम नहीं चलेगा, बहुत चेहरे लगाने
पड़ेंगे। और तब झंझटें होने वाली हैं। जितने झूठ बोलोगे, उतने
उपद्रव में पड़ जाओगे।
मेरी सलाह है: जीवन को सहजता से जीओ, प्राकृतिक ढंग से
जीओ। व्यवस्था भला अप्राकृतिक हो, तुम्हें कुछ अप्राकृतिक
होने की जरूरत नहीं है। लेकिन अपनी पत्नी के साथ भी ईमानदारी बरतो। उसको भी कहो कि
तू भी स्वतंत्र है।
और इससे यह अर्थ नहीं होता कि तुम अपनी पत्नी को प्रेम नहीं करते। यह
भी भ्रांति पैदा की गई है कि अगर प्रेम है, तो एक से ही होगा। यह
बात बिलकुल फिजूल है। इस बात का कोई मूल्य नहीं है। अगर प्रेम है, तो निश्चित ही अनेक से होगा--यह मैं तुमसे कहता हूं। क्योंकि प्रेम कोई
ऐसी चीज नहीं जो एक पर चुक जाए। जिसको फूलों से प्रेम है वह सिर्फ गुलाब के फूलों
से ही प्रेम करेगा? चंपा के फूल उसे प्रीतिकर नहीं लगेंगे?
चमेली के फूल उसे प्रीतिकर नहीं लगेंगे? कमल
उसे प्रीतिकर नहीं लगेगा? अगर कोई ऐसा कहता हो, तो या तो वह विक्षिप्त है या फिर झूठ बोल रहा है। जिसे फूलों से प्रेम है,
उसे बहुत तरह के फूल प्रीतिकर लगेंगे। बेले का भी अपना आनंद है और
गुलाब का भी अपना आनंद है। और दोनों की अपनी खूबियां हैं।
यह हो सकता है, एक स्त्री की देह तुम्हें पसंद आए और इससे ज्यादा कुछ
भी पसंद न आए। और यह भी हो सकता है, एक स्त्री का भाव
तुम्हें पसंद आए, लेकिन देह पसंद न आए। और यह भी हो सकता है,
एक स्त्री की बुद्धिमत्ता पसंद आए--न भाव पसंद आएं, न देह पसंद आए। किसी स्त्री से तुम्हारा लगाव बौद्धिक हो सकता है, तात्विक हो सकता है। तुम उससे चर्चा कर सकते हो गहराइयों की। तुम उससे कला
की, धर्म की, अध्यात्म की चर्चा कर
सकते हो। और एक स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध केवल दैहिक हो सकता है, क्योंकि उसकी देह सुंदर है, सानुपाती है। और एक
स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध बड़ा रहस्यपूर्ण हो सकता है कि तुम तय ही न कर पाओ कि
किस कारण से है, लेकिन कुछ है, कुछ
रहस्यपूर्ण जो तुम्हें जोड़े हुए है। और यही बात पुरुषों के संबंध में सही है।
जिस दिन मनुष्य प्राकृतिक होगा, जिस दिन समाज इन अतीत
की व्यर्थ वर्जनाओं से मुक्त हो जाएगा, अंधविश्वासों से,
जड़ शृंखलाओं से--उस दिन हम इन सारे सत्यों को स्वीकार करेंगे।
अब यह हो सकता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे जीवन में एक अनिवार्यता
हो। उसने तुम्हें जैसी सुविधा दी हो, तुम्हारे जीवन को
जैसी व्यवस्था दी हो, तुम्हारे जीवन को जैसा स्वास्थ्य दिया
हो, तुम्हारी उसने जितनी चिंता की हो, फिक्र
की हो--उतना कोई न करे। लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि इससे तुम्हारी कामवासना को
वह तृप्त कर पाए। और यह हो सकता है, जो स्त्री तुम्हारी
कामवासना को तृप्त करे, उससे तुम्हें यह कुछ भी न मिल सके।
हो सकता है, सुबह उठ कर तुमको ही चाय बना कर उसको पिलानी
पड़े। ज्यादा संभावना यही है। हो सकता है, बर्तन वह तुमसे
धुलवाए, कपड़े तुमसे धुलवाए।
व्यक्ति के बहुआयाम हैं, और उसके सब आयाम
तृप्ति मांगते हैं। अपराध का भाव जबरदस्ती थोपा गया भाव है। अपराध के भाव से
बिलकुल मुक्त हो जाओ। वह व्यवस्था-जन्य है। लेकिन उससे मुक्त होने में सबसे जरूरी
कदम यह है कि अपनी पत्नी को भी मुक्ति दो। तुम्हारा जिसके साथ इतना निकट संबंध है,
तुम मुक्त रहो और उसे मुक्त न करो, तो कैसे
तुम अपराध से मुक्त हो सकोगे? उसे भी मुक्ति दो। उसे भी कहो
कि तू भी मुक्त है।
और झूठ न बोलो, चेहरे मत ओढ़ो, मुखौटे मत
लगाओ--सचाइयां प्रकट करो। और मैं तुमसे यह कहता हूं कि सचाइयां भला एकदम से तूफान
खड़ा कर दें, लेकिन वे तूफान आते हैं और चले जाते हैं। और
सचाइयों से आए हुए तूफान नुकसान नहीं करते, जड़ों को और मजबूत
कर जाते हैं। यह हो सकता है कि झूठ बड़ा सुविधापूर्ण मालूम पड़े। पत्नी को कभी कहो
ही मत कि तुम्हारा किसी और स्त्री से कोई नाता-संबंध है। लेकिन कभी न कभी पता चल
जाएगा। और जिस दिन पता चलेगा, उस दिन सारी चीजें टूट जाएंगी।
बजाय इसके कि पता चले, यह बेहतर है कि तुम कहो। जिसको तुमने
प्रेम किया है, यह उचित है कि तुम उसके प्रति कम से कम अपने
सत्य को स्वीकार करो। और तुम जितना सत्य अपने लिए चाहते हो, जितनी
स्वतंत्रता अपने लिए चाहते हो, उसे भी दो। फिर कोई अपराध-भाव
पैदा नहीं होगा।
और स्मरण रखो कि अगर तुम दोनों एक-दूसरे को सत्य दे सको, और दोनों एक-दूसरे को स्वतंत्रता दे सको, तो
तुम्हारा संबंध निरंतर गहरा होगा, निरंतर उसमें नये-नये फूल
खिलेंगे। और तुम चकित होओगे यह जान कर कि सारी अतीत की धारणाएं कितनी भ्रांत हैं,
जो यह कहती हैं कि एक के साथ ही संबंध रखना, अगर
एक के साथ संबंध नहीं रखा तो संबंध विकृत हो जाएगा, नष्ट हो
जाएगा, खराब हो जाएगा; फिर जोड़ा नहीं
जा सकता। तुम्हें यही समझाया गया है।
यह बात बिलकुल ही गलत है। मनोवैज्ञानिक सत्य कुछ और है। मनोवैज्ञानिक
सत्य यह है कि मनुष्य को विभिन्न स्वादों की रुचि है। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है।
यह केवल मनुष्य की बुद्धिमत्ता का लक्षण है। लेकिन इस बुद्धिमत्ता को हम मौका नहीं
देते। हमारी छाती पर पंडित-पुरोहित बैठे हुए हैं। जमाने भर की मूढ़ताएं हम ढो रहे
हैं।
लेकिन यह मैं तुम्हें अंततः कह देना चाहूंगा कि दूसरी स्त्री जो
तुम्हें आज कामवासना तृप्त करती मालूम हो रही है, कल वह भी नहीं मालूम
होगी; परसों तीसरी स्त्री की जरूरत पड़ेगी; फिर चौथी स्त्री की जरूरत पड़ेगी; फिर पांचवीं स्त्री
की जरूरत पड़ेगी--क्योंकि कामवासना तृप्त होना जानती ही नहीं। कोई वासना तृप्त होना
नहीं जानती। वासना दुष्पूर है। बुद्ध का यह वचन सदा स्मरण रखने योग्य है: वासना
दुष्पूर है। वासना भरती ही नहीं कभी। लाख भरो, खाली की खाली
रह जाती है।
एक सूफी कहानी है। एक फकीर ने एक सम्राट के द्वार पर भिक्षापात्र
किया। संयोग की बात थी, सम्राट दरवाजे से निकल रहा था, सुबह
अपने बगीचे में घूमने को। उस भिखारी ने कहा, मालिक, क्या मैं कुछ मांग सकता हूं?
सम्राट ने कहा, हां, क्या मांगना चाहते हो?
उसने कहा, लेकिन मेरी एक शर्त है। जो मेरी शर्त पूरी करे,
उससे ही मैं अपनी मांग कर सकता हूं।
सम्राट ने कहा, क्या शर्त है? भिखारी मैंने
बहुत देखे, लेकिन सशर्त भिखारी तुम पहली बार हो। क्या
तुम्हारी शर्त है?
सम्राट भी उत्सुक हुआ।
उस भिखारी ने कहा, मेरी शर्त यह है कि अगर कुछ भी
आप मुझे देना चाहें, तो मैं लेने को राजी हूं, लेकिन मेरा भिक्षापात्र पूरा भरना पड़ेगा।
सम्राट भी हंसने लगा। उसने कहा, तूने मुझे भिखारी
समझा है क्या?
सिर्फ उस भिखारी को दिखाने के लिए कि मैं कौन हूं, उसने अपने वजीर को कहा, जो पीछे आ रहा था, कि इसके भिक्षापात्र को स्वर्ण अशर्फियों से भर दो!
उस फकीर ने कहा, एक बार पुनः सोच लें। मेरी शर्त
याद रखें। फिर मैं शर्त पूरी हुए बिना हटूंगा नहीं यहां से। मेरा भिक्षापात्र भरना
चाहिए।
सम्राट ने कहा, पागल, चुप रह! तेरा भिक्षापात्र,
जरा सा भिक्षापात्र लिए खड़ा है, इसको हम नहीं
भर सकेंगे?
स्वर्ण अशर्फियां डाली गईं, और सम्राट हैरान हुआ
कि यह तो झंझट हो गई। जैसे ही स्वर्ण अशर्फियां उसमें गिरें, वे न मालूम कहां खो जाएं! भिक्षापात्र खाली का खाली!
मगर सम्राट भी जिद्दी था, और एक भिखारी से
हारे! सम्राटों से नहीं हारा था। हार उसने जानी नहीं थी जिंदगी में। जीत और जीत ही
उसका एकमात्र अनुभव था। उसने कहा, आज मैं हूं और यह भिखारी
है। सारा खजाना डाल दो!
खजाने अकूत थे, मगर सांझ होतेऱ्होते खाली हो गए। हीरे-जवाहरात डाले
गए, मोती डाले गए, स्वर्ण-मुद्राएं
डाली गईं, चांदी की मुद्राएं डाली गईं। सब खत्म होता चला गया,
सब खत्म होता चला गया। सांझ होतेऱ्होते सम्राट की हालत भिखारी की हो
गई, और सारी राजधानी इकट्ठी हो गई यह देखने को। खबर आग की
तरह फैल गई कि एक भिखारी, पता नहीं क्या, कैसा जादू है उसके भिक्षापात्र में...! आखिर सम्राट सांझ को उसके पैरों पर
गिर पड़ा और उसने कहा, मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हें पहचान
नहीं पाया। मैं तुम्हारे इस जादू से भरे पात्र को भी नहीं पहचान पाया। मेरे अहंकार
को माफी दे दो। मुझ पर दया करो। मुझे यह शर्त स्वीकार नहीं करनी थी। शर्त सुन कर
ही समझ लेना था कि कुछ गड़बड़ होगी। क्या मैं पूछ सकता हूं...मैं हार गया, मैं शघमदा हूं अपनी अकड़ के लिए, लेकिन क्या मैं इतना
जान सकता हूं--क्योंकि यह जीवन भर मेरे मन में जिज्ञासा रहेगी--इस भिक्षापात्र का
जादू क्या है?
उस भिखारी ने कहा, इसमें कोई जादू नहीं है। इसे
मैंने आदमी की वासनाओं से निर्मित किया है। इसमें ताने-बाने आदमी की वासनाओं के
बुने हैं। यह आदमी का हृदय है, यह आदमी का मन है। इसमें
भिक्षापात्र में कुछ खूबी नहीं है। यह भिक्षापात्र साधारण है। बस इसके ताने-बाने
विशिष्ट हैं। वे ही ताने-बाने जिनसे तुम्हारा हृदय बना है। तुम्हारा भिक्षापात्र
भरा?
जैसे बिजली कौंध गई! सम्राट को दिखाई पड़ा कि निश्चय ही उसका
भिक्षापात्र भी खाली रह गया है। जीवन तो हो गया, अभी भी दौड़ जारी है।
मौत करीब आने लगी, दौड़ जारी है। हाथ खाली के खाली हैं। इतना
बड़ा साम्राज्य है, मगर तृप्ति कहां!
तो श्री मोदी स्मरण रखना, कोई स्त्री तुम्हारी
कामवासना को तृप्त नहीं कर पाएगी। वासनाएं तृप्त होतीं ही नहीं। इसलिए इस भ्रांति
में मत रहना कि मैं यह कह रहा हूं कि इस तरह तुम्हारी वासना तृप्त हो जाएगी। इतना
ही होगा कि इससे तुम्हें एक सजगता मिलेगी कि कोई स्त्री तुम्हारी वासना को तृप्त
नहीं कर सकती।
इस विवाह ने एक धोखा पैदा कर दिया है। विवाह का सबसे बड़ा धोखा जो
है...।
मैं दुनिया से विवाह को विदा कर देना चाहता हूं। और उसका कारण तुम जान
कर चकित होओगे। उसका कारण यह है कि अगर दुनिया से विवाह विदा हो जाए, तो इस दुनिया को धार्मिक होने के लिए रास्ता खुल जाए। विवाह के कारण यह
भ्रांति बनी रहती है कि इस स्त्री में मैं उलझा हूं, इससे
फंसा हूं, इसलिए वासना तृप्त नहीं हो रही! काश मुझे मौका
होता, इतनी सुंदर स्त्रियां चारों तरफ घूम रही हैं, तो कब की वासना तृप्त हो गई होती।
वह भ्रांति है। मगर वह भ्रांति बनी रहती है विवाह के कारण। दूसरे की
स्त्री सुंदर मालूम पड़ती है। दूसरे के बगीचे की घास हरी मालूम पड़ती है। और दूसरे
की स्त्री जब घर से बाहर निकलती है, तो बन-ठन कर निकलती
है, तुम्हें तो उसका बाहरी आवरण दिखाई पड़ता है। तुम्हारी
स्त्री भी दूसरे को सुंदर मालूम पड़ती है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया और उसने देखा कि चंदूलाल मारवाड़ी उसकी
पत्नी को आलिंगन कर रहा है। वह एकदम ठिठका खड़ा रह गया। चंदूलाल बहुत घबड़ाया।
चंदूलाल ने समझा कि मुल्ला एकदम गुस्से में आ जाएगा, बंदूक उठा लेगा!
लेकिन न उसने बंदूक उठाई, न गुस्से में आया।
चंदूलाल के कंधे पर धीरे से हाथ मारा और कहा, जरा मेरे पास
आओ। बगल के कमरे में ले गया और बोला, मेरे भाई, मुझे तो करना पड़ता है, तुम क्यों कर रहे हो? तुम्हें क्या हो गया? तुम्हारी बुद्धि मारी गई है?
मेरी तो मजबूरी है, क्योंकि मेरी पत्नी है। सो
रोज मुझे आलिंगन भी करना पड़ता है और रोज कहना भी पड़ता है कि मैं तुझे बहुत प्रेम
करता हूं। बस तुझे ही चाहता हूं, जी-जान से तुझे चाहता हूं
मेरी जान, जनम-जनम तुझे चाहूंगा। मगर तुझे क्या हो गया मूरख?
और हमने तो सुना था कि मारवाड़ी बड़े होशियार होते हैं। मगर नहीं,
तू निपट गधा है। और तेरी जैसी सुंदर पत्नी को छोड़ कर तू यहां क्या
कर रहा है? अरे मूरख, मैं तेरी पत्नी
के पास से चला आ रहा हूं।
चंदूलाल ने कहा कि भैया, तूने मुझे भी मात कर
दिया। उस औरत के डर से मैं कहां-कहां नहीं भागा फिरता हूं! शराब पीता हूं, फालतू दफ्तर में बैठा रहता हूं, फिजूल ताश खेलता हूं,
शतरंज बिछाए रखता हूं कि जितनी देर बच जाऊं उस चुड़ैल से उतना अच्छा!
तू उसके पास से चला आ रहा है! कहते क्या हो नसरुद्दीन? मैं
तो सदा सोचता था कि तुम एक बुद्धिमान आदमी हो। तुमने उसमें क्या देखा? उस मोटी थुलथुल औरत में तुमको क्या दिखाई पड़ता है? एक
दिन स्टेशन पर वजन तुलने की मशीन पर चढ़ी थी, तो मशीन में से
आवाज आई: एक बार में एक, दो नहीं। तुम्हें उसमें क्या दिखाई
पड़ रहा है?
मगर यही होता है। विवाह ने एक भ्रांति पैदा कर दी है। विवाह ने खूब
धोखा पैदा कर दिया है। विवाह से ज्यादा अधार्मिक कृत्य दूसरा नहीं है, मगर धर्म के नाम पर चल रहा है! अगर लोग मुक्त हों, तो
जल्दी ही यह बात उनकी समझ में आ जाए कि न तो कोई पुरुष किसी स्त्री की वासना तृप्त
कर सकता है, न कोई स्त्री किसी पुरुष की वासना तृप्त कर सकती
है। लेकिन यह अनुभव से ही समझ में आ सकता है। जब एक से ही बंधे रहोगे तो यह कैसे
समझ में आएगा?
और जिस दिन यह समझ में आ जाता है, उसी दिन जीवन में
ध्यान की शुरुआत है। उसी दिन जीवन में क्रांति है। उसी दिन तुम वासना के पार उठना
शुरू होते हो। ध्यान है क्या? ध्यान यही है कि मन सिर्फ
दौड़ाता है, भरमाता है, भटकाता है
मृग-मरीचिकाओं में--और आगे, और आगे...। क्षितिज की तरह,
ऐसा लगता है--अब तृप्ति, अब तृप्ति, जरा और चलना है; थोड़े और! और क्षितिज कभी आता नहीं,
मौत आ जाती है। तृप्ति आती नहीं, कब्र आ जाती
है। ध्यान इस बात की सूझ है कि इस दौड़ से कुछ भी नहीं होगा। ठहरना है, मन के पार जाना है, मन के साक्षी बनना है।
श्री मोदी, अगर सच में ही चाहते हो कि वासना से तृप्ति, मुक्ति, वासना के जाल से छुटकारा हो जाए, तो न तुम्हारी पत्नी दे सकी है, न किसी और की पत्नी
दे सकेगी, न कोई वेश्या दे सकेगी, कोई
भी नहीं दे सकता है। यह कृत्य तो तुम्हारे भीतर घटेगा। यह महान अनुभव तो तुम्हारे
भीतर शांत, मौन, शून्य होने में ही
संभव हो पाता है।
मगर जब तक यह न हो, तब तक मैं दमन के पक्ष में नहीं
हूं। मैं कहता हूं, तब तक जीवन को जीओ, भोगो। उसके कष्ट भी हैं, उसके क्षणभंगुर सुख भी हैं;
कांटे भी हैं, फूल भी हैं वहां; दिन भी हैं और रातें भी हैं वहां--उन सबको भोगो। उसी भोग से आदमी पकता है।
और उसी पकने से, उसी प्रौढ़ता से, एक
दिन छलांग लगती है ध्यान में।
अपनी पत्नी को भी कहो कि सचाई क्या है। उससे भी पूछो कि उसकी सचाई
क्या है। जिनसे हम जुड़े हैं, कम से कम उनके प्रति हमें
प्रामाणिक होना चाहिए, आथेंटिक होना चाहिए। और उनको भी मौका
देना चाहिए कि वे प्रामाणिक हों। प्रेम का पहला लक्षण यह है कि जिससे हमारा प्रेम
का नाता है, उसके साथ हमारी प्रामाणिकता होगी; हम उससे सत्य कहेंगे। और सत्य शुरू में चाहे कितना ही कड़वा मालूम पड़े,
पीछे सदा मीठा है।
बुद्ध ने कहा है: झूठ पहले मीठा, पीछे जहर। और सत्य
पहले कड़वा, फिर पीछे अमृत।
सत्य से मत डिगना, किसी कीमत पर मत डिगना, कोई समझौता सत्य के संबंध में मत करना। और अपने सत्य को जीना, क्योंकि यह जीवन तुम्हारा है, तुम्हारी पत्नी का
नहीं। और पत्नी का जीवन उसका है, तुम्हारा नहीं। दोनों जीओ।
दोनों अनुभव करो। दोनों पहचानो। दोनों परखो। और धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जब तक
वासना है, तब तक हम बचकाने हैं, तब तक
हमारे जीवन में प्रौढ़ता नहीं है।
मगर हम बचकाने रह जाते हैं। उसका कारण है। हमको अनुभव ही नहीं करने
दिया जाता। अनुभव के बिना कोई कभी प्रौढ़ नहीं होता। उम्र तो बढ़ जाती है, मगर मन बचकाना रह जाता है। पहले महायुद्ध में पहली बार मनोवैज्ञानिकों को
यह पता चला कि आदमी की औसत उम्र बारह साल है। पहली दफा बड़े पैमाने पर इस बात की
जांच-पड़ताल की गई कि लोगों की मानसिक उम्र क्या है? तो बहुत
हैरानी की बात थी, चकित हो जाने वाली बात थी--अस्सी साल के
बूढ़े की भी उम्र बारह साल है! मानसिक उम्र इससे ज्यादा नहीं बढ़ पाती।
यह बड़ी दुर्घटना है। तो फिर खेल-खिलौनों में हमारा रस रहता है। और
इसको हम दमन करते जाएं, तो फिर वह रस हमारा जाएगा नहीं, वह बना ही रहेगा। फिर हम क्या-क्या तरकीबें नहीं निकालते! फिर अश्लील
साहित्य है, पोर्नोग्राफी की किताबें हैं, पत्रिकाएं हैं--गंदी, बेहूदी। गीता में और बाइबिल
में छिपा कर लोग प्लेबॉय देख रहे हैं। किसी को पता भी न चल जाए! अश्लील फिल्में
हैं। घरों में छिप-छिप कर लोग, मित्रों को इकट्ठा कर-कर के
अश्लील और नंगी फिल्में देख रहे हैं। यात्राओं पर लोग जाते हैं, नाम होता है व्यवसाय का, लेकिन मामला होता है केवल
वेश्याओं का। काम नहीं भी होता, तो भी टिके रहते हैं व्यवसाय
के लिए।
एक व्यक्ति कलकत्ता से बंबई आया। आया था तीन दिन के लिए, तीन सप्ताह बीत गए। तार भेजता रहे कि खरीद कर रहा हूं, खरीद कर रहा हूं, अभी खरीद जारी है।
जब तीन महीने बीतने लगे...शंकित तो पत्नी पहले ही से हो गई थी। पत्नी
शंकित तो पहले ही से होती हैं। कोई शंकित होने के लिए कारण की जरूरत नहीं होती।
विवाह पर्याप्त है शंका के लिए। विवाह इतना अप्राकृतिक है, इसलिए शंका बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए पत्नियों को कारण खोजने की जरूरत
नहीं पड़ती, शंका तो रहती ही है, कारण
तो फिर अपने आप मिल जाते हैं। कारण तो मिल ही जाएंगे। मिलने ही चाहिए। कारणों के
संबंध में पत्नियां निश्चिंत रहती हैं कि वे तो खोज लिए जाएंगे, उसमें कोई अड़चन नहीं है, देर-अबेर की बात है।
क्योंकि विवाह की संस्था इतनी अप्राकृतिक है।
शंकित तो थी ही, तीन महीने बाद उसने भी तार किया
कि अब ठीक है, तुम खरीद जारी रखो। तुम जो वहां खरीद रहे हो,
मैंने यहां बेचना शुरू कर दिया है।
वह आदमी भागा हुआ घर आया। क्योंकि वह जो खरीद रहा था, अगर वही बेचना शुरू कर दिया है, तो मारे गए।
पत्नी ने कहा, कैसे जल्दी से आ गए अब? खरीद
नहीं करनी? कब तक खरीदोगे तुम, फिर मैं
बेचूंगी भी यहां। वही, जो तुम खरीदोगे, वही यहां बेचूंगी। खरीद-खरीद कर इकट्ठा करते रहोगे, बेचना
भी चाहिए न!
शंका स्वाभाविक है। संदेह स्वाभाविक है। यह तथाकथित हमारा प्रेम बड़े
संदेहों से भरा हुआ है।
मुल्ला नसरुद्दीन रात सपने में बड़बड़ा गया: कमला! कमला! और पत्नियां तो
जागती ही रहती हैं। रात तो बिलकुल बैठी ही रहती हैं कि क्या बकता है रात, देख लें। उसी वक्त हिलाया, कहा, यह कमला कौन है?
मगर पति भी होशियार हैं, नींद में भी इतनी
होशियारी रखते हैं। उसने कहा, कोई नहीं, घबड़ा न तू। यह एक घोड़ी का नाम है। रेसकोर्स की एक घोड़ी है। उस पर मैं दांव
लगाने की सोच रहा हूं, वही मेरे दिमाग में चल रही है।
मगर पत्नी को इतनी आसानी से भरोसा तो नहीं आता। उसने कहा, ठीक है।
शाम को मुल्ला के दफ्तर उसने फोन किया कि वह रेसकोर्स की घोड़ी कमला ने
फोन किया है, आपको पूछ रही है कि कहां हैं? क्या
पता दे दूं?
कब तक छिपाओगे? कहां तक छिपाओगे? बेहतर है,
कह दो। बेहतर है, साफ-साफ करो। और इतनी प्रीति
तो दिखलाओ, इतना स्नेह तो जतलाओ, इतना
भरोसा तो दिखलाओ। और स्मरण रखो कि दूसरे को भी इतनी ही स्वतंत्रता दो। स्वतंत्रता
के फल मीठे हैं, सत्य के फल मीठे हैं। लेकिन अंत में। शुरू
में कड़वे हैं। शुरू की कड़वाहट से मत डर जाना। और अंततः तुम्हारे ये सारे अनुभव
तुम्हें ध्यान में ले आएंगे।
यहां मैंने अपने आश्रम में सारी तरह की चिकित्साओं की व्यवस्था की है।
यहां कोई सौ चिकित्सा के समूह काम कर रहे हैं। सौ चिकित्सा पद्धतियां काम कर रही
हैं। उनमें सब है चिकित्सा पद्धतियों में, जिसका जो रोग हो,
जिसका जहां मन अटका हो...। जैसे अगर किसी का मन कामवासना में अटका
है, तो उसे मैं तंत्र की चिकित्सा पद्धति में भेजता हूं।
तंत्र से गुजर कर ही फिर वह ध्यान कर पाता है। उसके पहले नहीं कर पाता। क्योंकि वह
ध्यान करे क्या? ध्यान करे कैसे?
यहां भारतीय मित्र आते हैं, वे मुझे लिखते हैं कि
आप कहते हैं ध्यान करो, हम ध्यान करने बैठते हैं, पास में कोई सुंदर स्त्री ध्यान कर रही है, हमारा
दिल वहीं-वहीं जाता है।
जाएगा ही। भारतीय शुद्ध संस्कृति का यह लक्षण है। और जाएगा कहां? सदियों से दबाया है, तो और जाएगा कहां? तुम्हारे पास में ही बैठा हुआ जो पाश्चात्य है, उसका
कोई मन उस स्त्री में नहीं जा रहा है; क्योंकि स्त्री का
काफी अनुभव हो चुका।
यह जान कर तुम चकित होओगे कि यहां जो मेरे संन्यासी हैं पश्चिम से आए
हुए, उनका कोई रस स्त्री-पुरुष में नहीं है--वैसा रस जैसा
कि भारतीयों का है, कतई नहीं है। सहज, सामान्य...।
जैसे कोई चौबीस घंटे भोजन के संबंध में सोचे तो पागल है; और
दिन में दो बार भोजन करे तो पागल नहीं है। किसी से तुम्हारा स्नेह नाता हो,
प्रेम का संबंध हो, तो इसमें कोई विक्षिप्तता
नहीं है। लेकिन कोई चौबीस घंटे बस यहीऱ्यही सोचता रहे, स्त्रियों
की ही कतार लगी रहे, तो फिर रुग्णता है।
मगर तथाकथित संस्कृति और तथाकथित धर्म और तथाकथित महात्माओं ने
तुम्हें जो दिया है, वह यही उनकी वसीयत है। इस वसीयत में तुम सड़ रहे हो।
इस सड़ांध से तुम्हें मुक्त करना चाहता हूं, इसलिए मैं दुश्मन
मालूम पड़ता हूं। मेरे पास लोग आते हैं, निजी तौर से स्वीकार
करते हैं कि आप जो कहते हैं ठीक है, आप जो कहते हैं शत
प्रतिशत ठीक है; लेकिन उनमें से एक भी सामूहिक वक्तव्य नहीं
देता मेरे पक्ष में।
मेरे विपक्ष में लिखने वाले हजारों लोग हैं। मेरे पक्ष में लिखने वाले
मुश्किल से कोई। मामला क्या है? और जो भी मेरे पक्ष में लिखते
हैं, वे मेरे संन्यासी हैं। दूसरा कोई मेरे पक्ष में नहीं
लिखता। दूसरे मुझे पत्र लिखते हैं कि आप जो कहते हैं, बिलकुल
ठीक है; उचित कहते हैं; लेकिन हम इसको
सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं कर सकते; क्योंकि हम इसको
सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें, तो हमारी प्रतिमा धूमिल होती
है।
यहां आने की हिम्मत नहीं पड़ती। यहां लोग आते हैं, छिप कर आते हैं। श्री मोदी को तो मैं हिम्मतवर कहूंगा। वे प्रतिष्ठित
व्यक्ति हैं। मोदी मिल्स के मालिक हैं। मैं उनके साहस का धन्यवाद करता हूं कि
उन्होंने हिम्मतपूर्वक यह प्रश्न पूछा। अब और थोड़ी हिम्मत जुटाओ, अपनी पत्नी को भी साफ करो। अपनी पत्नी को भी यहां ले आओ। अगर तुम साफ न कर
सको तो मैं साफ करूंगा। दोनों मुक्ति में जीओ। और तुम पाओगे, तुम्हारा प्रेम इस मुक्ति में बढ़ेगा, फलेगा, गहरा होगा। और जल्दी ही तुम दोनों ही ध्यान की तरफ अपने आप आकर्षित हो
जाओगे।
अगर व्यक्ति सहज-स्वाभाविक जीए, तो ध्यान अनिवार्य
परिणति है, अपरिहार्य। जीवन की प्रत्येक नदी जैसे सागर की
तरफ ले जाती है, ऐसे जीवन की प्रत्येक वासना ध्यान की तरफ ले
जाती है, अगर हम वासना को कहीं रोक न दें। रोक दें तो तालाब
बन जाती है। तालाब बना तो सागर से संबंध टूट गया। फिर सड़ना है। फिर कीचड़ है। फिर
गंदगी है। फिर गति नहीं। फिर प्रवाह नहीं।
मैं चाहता हूं तुम सरिताओं की तरह होओ, सरोवरों की तरह नहीं;
ताकि सागर को पाया जा सके। सागर को पाने में ही जीवन की धन्यता है,
सौभाग्य है।
तीसरा प्रश्न: भगवान!
आपके विवाह-संबंधी विचार सुन-समझ कर विवाह करने
की इच्छा ही उड़ गई; परंतु ऐसे महत्वपूर्ण अनुभव से गुजरे बगैर रहा भी
नहीं जा सकता। मुझ त्रिशंकु का मार्ग-दर्शन करें!
कृष्ण वेदांत!
मेरी बातों में पड़ना मत। विवाह करो! क्योंकि कुछ लोग बिना कांटों से
गुजरे फूलों का अनुभव नहीं कर पाते। दूसरे के अनुभव से समझ लेना, उसके लिए बड़ी गहन प्रतिभा चाहिए, जो कि बहुत ही
दुर्लभ है। अपने ही अनुभव से लोग नहीं समझ पाते, तो दूसरे के
अनुभव से क्या समझेंगे!
ययाति की कथा है उपनिषदों में। ययाति सौ वर्ष का हुआ--सम्राट था--मौत
आई। प्यारी कहानी है। कितनी ही बार मैंने कही, फिर भी मैं थकता
नहीं। उस कहानी में बड़ा रस और बड़ा अर्थ है। ययाति सौ साल का बूढ़ा है। उसकी सौ
पत्नियां हैं, सौ बेटे हैं। वह एकदम पैरों पर गिर पड़ा मौत के--महा
सम्राट है--और गिड़गिड़ाने लगा कि इतने जल्दी मुझे मत ले जाओ। अभी तो मेरी कोई भी
इच्छा पूरी नहीं हुई। सौ पत्नियां, सौ बेटे, बड़ा साम्राज्य, सब जो चाहिए आदमी को, जो आदमी मांगे, कल्पना करे, सब
उसके पास; मगर गिड़गिड़ाने लगा मौत के सामने कि अभी नहीं,
अभी जल्दी है! मैंने तो सोचा ही नहीं कि तुम आती होओगी। मुझ पर दया
करो।
मौत ने कहा कि मजबूरी है। मुझे किसी को तो ले ही जाना पड़ेगा। तो तुम
एक काम करो, तुम्हें गिड़गिड़ाता देख कर मुझे दया आती है; तुम्हारा कोई बेटा राजी हो जाने को, तो मैं उसे ले
जाऊं तुम्हारी जगह। मगर किसी को तो मुझे ले जाना ही पड़ेगा।
ययाति ने अपने सौ बेटे इकट्ठे किए, और उनसे कहा, मेरे बेटो, तुमने सदा मुझसे कहा है कि आपके लिए हम
अपनी जान निछावर कर सकते हैं, आज मौका आ गया। मौत कहती है कि
मैं बच सकता हूं अभी, अगर मेरा कोई बेटा साथ जाने को तैयार
हो। तुममें से कोई भी साथ जाने को खड़ा हो जाए।
सब एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। बेटे भी कुछ कम उम्र के नहीं थे--कोई
अस्सी साल का था, कोई सत्तर साल का था, कोई
पचहत्तर साल का था, कोई पैंसठ साल का था। वे सब एक-दूसरे की
तरफ देखने लगे कि भई, तुम बड़ी हांकते थे कि जान दे दूंगा! अरे,
पिता के लिए सब कुर्बान कर दूंगा! अब मौका आ गया, अब उठो। मगर सब एक-दूसरे की ताका-झांकी कर रहे हैं। कोई नीचे देख रहा है,
कोई इधर-उधर देख रहा है, मगर कोई उठता नहीं।
सबसे छोटा बेटा, जिसकी उम्र केवल बीस साल थी, वह उठ कर खड़ा हो गया। उसने मृत्यु से कहा, मुझे ले
चलो।
मृत्यु ने कहा कि मुझे जितनी दया तेरे पिता पर आती है, उससे ज्यादा दया तुझ पर आ रही है। तू तो अभी बीस ही साल का है। अरे पागल,
तुझे यह दिखाई नहीं पड़ता कि तेरे पिता सौ साल के होकर भी गिड़गिड़ा
रहे हैं कि मुझे कुछ दिन और जिंदा रहने दो? और तू तो अभी बीस
साल का है--न जीवन जाना, न पहचाना। अरे अबोध, नासमझ, तू मरने को तैयार है! तुझे होश है तू क्या कर
रहा है? फिर से सोच! पुनः विचार कर!
उसने कहा, मुझे कोई विचार नहीं करना है। मैं इसलिए नहीं जा रहा
हूं कि मेरे पिता बच जाएं; मैं तो यह देख कर जा रहा हूं कि
अगर सौ साल की उम्र तक भी पिता को अभी भी कुछ तृप्ति नहीं मिली, तो मुझे क्या खाक मिलेगा! मैं तो यह देख कर जा रहा हूं कि मेरे और
निन्यानबे भाई हैं, इनमें से किसी को तृप्ति नहीं मिली--कोई
अस्सी साल का है, कोई पचहत्तर साल का है, कोई सत्तर साल का है--तो मुझे क्या मिल जाएगा! मैं तो इनका अनुभव देख कर
ही समझ गया कि यहां आपाधापी व्यर्थ है। मुझे ले चलो। मैं तैयार हूं।
कहानी कहती है, वह बेटा उसी क्षण मोक्ष को उपलब्ध हो गया, मुक्ति को--नहीं किसी साधना से, बल्कि सिर्फ इस बोध
से। मृत्यु मोक्ष बन गई, सिर्फ इस बोध से!
और ययाति का क्या हुआ पता है? सौ साल बाद फिर जब
मौत आई, तो वह फिर गिड़गिड़ाने लगा, फिर
पैर पर गिर पड़ा कि अभी तो मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं हुई। फिर मेरे एक बेटे को ले
जाओ। अब तो उसे तरकीब भी हाथ लग गई थी।
ऐसे, कहते हैं, मौत दस बार आई,
और हर बार एक बेटे को लेकर गई। मौत ने भी जिद कर ली थी कि देखें कब
तक यह चलता है। एक हजार साल बीतने पर ययाति ने कहा कि हां, अब
मैं चलने को राजी हूं। मैं पागल था। मेरा पहला बेटा, जो बीस
साल में जाने को राजी हुआ, अदभुत उसकी प्रतिभा थी, अदभुत उसकी क्षमता थी। मैं हजार साल धक्के खाकर समझ पाया। वह बिना धक्के
खाए सम्हल गया। वह हमें देख कर समझ गया।
प्रतिभा का अर्थ यह होता है कि तुम दूसरे को भी देख कर बोध से भर जाते
हो। यही बुद्ध को हुआ। रास्ते पर उन्होंने देखा एक आदमी को बीमार--वे खुद बीमार न
पड़े थे तब तक--उन्होंने पूछा, यह आदमी को क्या हुआ? यह क्यों खांस रहा है, क्यों खकार रहा है?
किसी ने कहा, यह बीमार है।
बुद्ध ने कहा, क्या मैं भी बीमार पड़ सकता हूं?
सारथी ने कहा कि पड़ तो सकते हैं। कोई भी बीमार पड़ सकता है। देह है तो
बीमारी है।
बुद्ध उदास हो गए।
उसने कहा, आपको उदास होने की कोई जरूरत नहीं। आप बीमार नहीं हैं।
उन्होंने कहा, नहीं हूं, लेकिन अगर हो सकता
हूं तो हो ही गया।
इसे कहते हैं प्रतिभा।
और तब बुद्ध ने एक बूढ़े को देखा और पूछा कि यह कौन है? इसको क्या हो गया? यह क्यों लाठी टेक कर चल रहा है?
इसकी कमर क्यों झुक गई है?
उन्होंने कहा, यह बूढ़ा हो गया। हर आदमी को बूढ़ा होना होता है।
उन्होंने पूछा, क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा?
सारथी ने कहा, निश्चित ही। जो भी जन्मा है, उसे
बूढ़ा होना होगा।
तो बुद्ध ने कहा, वापस करो रथ घर! वे जा रहे थे
युवक महोत्सव में भाग लेने। उन्होंने कहा, अब मैं युवक
महोत्सव में क्या खाक भाग लूं! जहां सबको बूढ़ा होना है, वहां
कैसा युवक महोत्सव? मैं बूढ़ा हो गया।
सारथी ने कहा, आप बातें कैसी करते हैं? कैसी
उलटी-सीधी बातें करते हैं? आप बूढ़े कैसे हो गए? अभी-अभी जवान थे, अभी-अभी बूढ़े हो गए?
बुद्ध ने कहा, इसको बूढ़ा देखा, और जब सभी को
बूढ़ा होना है तो देर-अबेर की बात है।
और तभी एक मुर्दा देखा। और बुद्ध ने पूछा, इसको क्या हुआ?
सारथी ने कहा, यह बुढ़ापे के बाद की अवस्था है। यह आदमी मर गया।
तो बुद्ध ने कहा, जल्दी करो, मुझे घर पहुंचाओ। इसके पहले मैं मर न जाऊं, मुझे कुछ
करना है। मुझे उसे जानना है, जो नहीं मरता। इसके पहले कि मौत
आए, अमृत से परिचित हो जाना है।
उसी रात उन्होंने घर छोड़ दिया। इसको प्रतिभा कहते हैं।
वेदांत, अगर प्रतिभा हो, तब तो मेरी
बातें तुम समझ कर रूपांतरित हो जाओगे। मगर ऐसी प्रतिभा जरा मुश्किल मामला है। लोग
अनुभव से ही सीख लें, तो भी काफी बुद्धिमान समझो उन्हें।
जड़ता ऐसी घनी है कि लोग अपने अनुभव से भी कहां समझ पाते हैं। अनुभव कर-कर के
फिर-फिर उन्हीं-उन्हीं गङ्ढों में गिरते हैं--वही गङ्ढे!
अरबी में कहावत है कि गधे भी उसी गङ्ढे में दोबारा नहीं गिरते, सिवाय आदमी को छोड़ कर। आदमी अजीब गधा है। कल भी उस गङ्ढे में गिरा था,
परसों भी गिरा था!
तुम खुद ही अपनी तरफ देखो। तुमने कितनी दफे क्रोध किया है, और कितनी बार उस गङ्ढे में गिरे हो! और हर बार पछताए हो, और हर बार कहा है कि अब नहीं, अब नहीं करूंगा क्रोध।
क्या सार है! आग जलाना अपने भीतर। अपने को जलाना, दूसरे को
जलाना। हाथ तो कुछ लगता नहीं। व्यर्थ पीड़ा होती है, और
व्यर्थ पीड़ा दी जाती है।
मगर फिर आज अगर कोई जरा सा अपमान कर देगा, जरा सी चोट पहुंचा देगा...दूर अपमान की बात, चोट की
बात, रास्ते पर कोई गुजर जाएगा बिना जयरामजी किए, तो भी क्रोध भीतर भनभना उठेगा: अच्छा, इसकी यह
हैसियत कि मुझे और बिना जयरामजी किए निकल गया! वह मजा चखाऊंगा कि जीवन भर याद
रहेगा! यह अकड़ कहां से आ गई इसमें! इसने अपने को समझा क्या है! भीतर तूफान उठने
लगेगा।
लोग अपने अनुभव से भी नहीं सीखते। तुम अपने अनुभव से भी सीख लो, तो समझ लो पर्याप्त बुद्धि है।
मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे हमेशा कहता था कि भगवान, आप सच कहते हैं कि अगर विवाह न करता, तो जीवन में
आनंद ही आनंद होता। विवाह ने तो सारे जीवन को जंजीरों में जकड़ दिया है। इस पत्नी
से छुटकारा हो जाए। मगर कैसे हो छुटकारा? छोड़ भी नहीं सकता,
क्योंकि खुद ही मैं इसके पीछे चलता रहा हूं। खुद ही मैंने इसको
मनाया, समझाया-बुझाया; यह तो बामुश्किल
राजी हुई। जब भी इससे मैं कुछ कहता हूं तो यह कहती है: तुम्हीं मेरे पीछे पड़े थे।
तुम्हीं नाक रगड़ते थे। मैंने तुमसे कहा नहीं था। वर्षों मेरे पिता मना करते रहे,
मेरी मां मना करती रही--तुम्हीं हाथ जोड़े खड़े रहे। और तलाक देते भी
नहीं बनता, प्रतिष्ठा की भी बात है। फिर बच्चे भी हैं।
फिर यूं हुआ, जैसा कि आमतौर से होता नहीं, कि
पत्नी मर गई। अक्सर तो पति मरते हैं। इसलिए विधवाएं दिखाई पड़ती हैं, विधुर बहुत कम दिखाई पड़ते हैं। स्त्रियां मजबूत होती हैं। ज्यादा जीती
हैं--पांच साल ज्यादा जीती हैं पुरुषों से। एक तो पांच साल ज्यादा जीती हैं और हम
पांच साल कम उम्र की लड़की से शादी करते हैं--सो दस साल! दस साल पत्नी तुमसे ज्यादा
जीएगी, यह पक्का समझ लेना। तुम्हें ठिकाने लगा कर जीएगी। और
ठीक भी है, आखिरी इंतजाम कर दिया, तुमको
लिटा दिया कब्र में। रोज-रोज बिस्तर पर सुलाती थी, कब्र में
लिटा कर आखिरी इंतजाम करके, ताकि तुमको फिर पीछे झंझट न
हो--नहीं तो कौन तुम्हारी कब्र बनाएगा, कौन ढंग से पत्थर
लगवाएगा!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर गई। वह रो रहा था छाती पीट-पीट कर। तो
मैंने कहा, नसरुद्दीन, अब क्यों रो रहे हो?
अब रोने में क्या रखा है? तुम तो चाहते ही यह
थे, तुम्हारी भीतरी मंशा यही थी, परमात्मा
ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली। तुम्हारी सब नमाजें सफल हो गईं। अब पत्नी से
छुटकारा हो गया। अब तो प्रसन्न होओ, उत्सव मनाओ।
मगर वह माने ही नहीं। वह तो छाती ही पीटे जाए, वह तो रोए ही चला जाए। जब मैंने देखा वह मानेगा ही नहीं, तो मैंने कहा, अगर तुझे ऐसा ही अखर रहा है अकेलापन,
तो मत घबड़ा, अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। अभी दूसरी
शादी हो जाएगी। एक दो-चार महीने में दूसरी पत्नी खोज लेना।
उसने मेरी तरफ गुस्से से देखा और रोते ही रोते बोला कि बात तो आपकी
ठीक है, मगर मैं इसलिए रो रहा हूं कि आज की रात कैसे
गुजारूंगा? और किसके साथ गुजारूंगा?
क्या खाक आदमी अपने अनुभव से सीखता है! अपने अनुभव से भी नहीं सीखता।
अपने अनुभव से भी सीख ले तो बुद्धिमान। दूसरे के अनुभवों से सीख ले तो प्रतिभावान।
और जो दोनों से न सीखे, वह महामूढ़।
तुम कहते हो कि बिना इस अनुभव से गुजरे कैसे रह सकता हूं! नहीं रहा
जाता।
मत रहो, गुजरो। क्योंकि अगर मेरी बात मान कर जबरदस्ती रुक गए,
तो जीवन भर मुझको गाली दोगे। और मैं किसी के जीवन में बाधा नहीं डालना
चाहता। तुम अनुभव से गुजरो। कम से कम मुझे धन्यवाद तो दोगे। अनुभव से गुजरोगे तो
मेरी याद तो करोगे कि भगवान, ठीक कहा था! कि काश सुन लेते!
बेटी की शादी सिर पर आ गई और तुमने अभी घर के द्वार पर चौखट भी नहीं
लगवाई! पत्नी की बार-बार की इस शिकायत से परेशान होकर पति ने पूछा, तुम्हें सबसे पहले दरवाजे की चौखट की क्यों पड़ी है? क्या
इसके बिना शादी रुक जाएगी?
पत्नी ने झल्ला कर कहा, समझते क्यों नहीं जी!
हमारी बेटी अवसर पड़ने पर पति से कह तो दिया करेगी कि तुम्हीं तो गए थे मेरे बाप की
चौखट पर नाक रगड़ने। अब बिना चौखट के कैसे विवाह हो! पहला काम है कि चौखट लगनी
चाहिए!
झुम्मनलाल के दुखते पांव की जांच करने के बाद डाक्टर बोले, कितने दिनों से आपको यह तकलीफ है?
झुम्मनलाल ने कहा, लगभग दो माह से।
जनाब, आपके पैर में तीनत्तीन फ्रैक्चर हैं, और आप दो माह तक चुप बैठे रहे--कमाल है!
झुम्मनलाल बोले, बात यह है कि मुझे जब भी कुछ
होता है--सिर में दर्द हो, कि कमर में दर्द हो, कि हाथ में दर्द हो, बुखार आए--कुछ भी हो जाए,
तभी मेरी पत्नी मुझसे फौरन सिगरेट छोड़ने को कहती है। सो मैं चुपचाप
झेलता रहा यह दर्द, कि मैंने कहा कि पैर में तकलीफ है,
वह कहेगी--छोड़ो सिगरेट! कितनी दफे नहीं कहा कि सिगरेट छोड़ो!
इसलिए दो महीने वे तीनत्तीन फ्रैक्चर सहते रहे।
तुम्हारी मर्जी!
एक बाप अपने बेटे को शादी करने से रोकना चाहता था। स्वभावतः, अपना अनुभव ही काफी था बेचारे को। सोचता था बेटा बच जाए, तो वही बात बहुत। बहुत कम इतने समझदार बाप दुनिया में होते हैं। समझाते
हुए बोला, बेटा, जो लोग शादी करते हैं,
वे अच्छे हैं; और जो शादी नहीं करते, वे उनसे भी बेहतर होते हैं।
ठीक है--बेटे ने कहा--मैं अच्छा ही भला, दूसरों को बेहतर होने
दीजिए।
अब तुम्हारी मर्जी! तुम अगर यही चाहते हो, तो यही करो। अनुभव से ही सीख लेना। उसी तरह शायद समझ तुम्हें आए। इतनी ही
प्रार्थना कर सकता हूं परमात्मा से कि कम से कम उस तरह भी समझ आ जाए तो बहुत है!
आखिरी प्रश्न: भगवान!
आप दलबदल करने वाले राजनीतिज्ञों के संबंध में
क्या कहते हैं?
सरलादेवी!
मुझे पता है कि तुम्हारे पति भी दलबदलू हैं, आयाराम गयाराम हैं। इसीलिए प्रश्न तुम्हारे मन में उठा होगा। वे तो यहां
आते नहीं। मैं क्या कहता हूं, उनके कानों तक पहुंचेगा भी
नहीं। राजनीतिज्ञ करीब-करीब बहरे होते हैं, अंधे होते हैं।
अंधे और बहरे न हों, तो राजनीति में क्यों हों? मगर तुम चाहो तो कुछ कर सकती हो।
यह कविता मैं पढ़ रहा था। इससे कुछ सार तुम निकाल सको तो अच्छा है।
एक नेता दलबदल कर घर लौटे,
उन्हें पत्नी का पत्र मिला,
जो कई महीनों से मैके गई हुई थी,
लिखा था:
रम्मो के चाचा, तुम्हारे साथ रहते-रहते
बोर हो गए,
अब हमने राधेलालजी से
दाम्पत्य समझौता कर लिया है।
यह समझौता समान विचारों के
आधार पर किया है।
कहा-सुना माफ करना,
हमारे पति-बदल कार्य को उसी प्रकार
लाइटली लेना,
जैसे हम तुम्हारे दलबदल कार्य को लेती रही हैं।
भविष्य में दल बदलो तो सूचित करना,
हम भी पति-बदल प्रक्रिया से आपको अवगत कराएंगे।
तिजोरी की चाबी बगल वाले कमरे के आले में रक्खी है,
सेहत का खयाल रखना, मंत्री बनते ही तार देना।
हम हनीमून मनाने शिमला जा रहे हैं।
नेता जी ने पत्र पढ़ा।
माथा ठनका,
सोचने लगे,
दलबदल का एक दिन ऐसा सुफल मिलेगा,
कभी नहीं सोचा था।
उन्होंने उत्तर भेजा--
प्राणप्यारी जी, तुमसे ऐसी आशा नहीं थी,
दलबदल को इतना सीरियसली
नहीं लेना था।
तुम अब घर लौट आओ,
मैं भी पुराने दल में वापस जा रहा हूं।
पत्नी ने चार पंक्तियों का उत्तर भेजा--
पल-पल में दलबदल करते रहे हो,
एक दल में कुछ समय रह कर सूचित करना,
सहानुभूतिपूर्ण विचार करूंगी।
आम का अचार घड़े में रक्खा है,
उसे कभी-कभी पलटते रहना।
हम तो इस चेंज से काफी खुश हैं,
बड़े मौज से जिंदगी कट रही है।
सेहत का खयाल रखना।
आपकी भूतपूर्व पत्नी--
अब मिसेज राधेलाल।
कुछ ऐसा करो तो शायद पति को कुछ अकल आए तो आए सरलादेवी, अन्यथा आने वाली नहीं है। राजनीतिज्ञ की कोई आत्मा होती है? कोई निष्ठा होती है? ये तो चलते-फिरते मुर्दे हैं।
इनको तो जहां पद मिले, वहीं पूंछ हिलाने लगते हैं। इनका कोई
मूल्य नहीं है। इनकी चिंता भी मत लो, ये चिंता के योग्य भी
नहीं हैं। तुम अपनी फिक्र करो। इनकी उलझन में पड़े-पड़े अपना जीवन नष्ट न करो। इनको
करने दो दलबदल, तुम अपना जीवन बदलो।
मत समझ लेना कि मैं कह रहा हूं मिसेज राधेलाल हो जाओ। मैं कह रहा
हूं--जीवन बदलो। मैं कह रहा हूं--मन से अमन की तरफ चलो; विचार से ध्यान की तरफ चलो; समस्याओं से समाधि की
तरफ। बहुत दिन जी लिया इस तरह, अब इस जीवन के ऊपर उठो,
पार, अतिक्रमण करो।
और परमात्मा दूर नहीं है, बहुत पास है। हम एक
कदम उठाएं तो परमात्मा हजार कदम हमारी तरफ उठाता है।
आज इतना ही।
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