बढ़ी अम्माँ बैल गाडियों की लीक के किनारे बैठी
दूर से देखने पर ऐसी लग रही थी, जैसे कोई मूर्ति बैठी हो। उसका
शरीर एक दम थिर था, बिना हलचल के शांत मौन मुद्रा लिए हुए पाषाण वत लग रही थी।
कितनी-कितनी देर तक बिना हीले-डूले अपनी मुद्रा बदले वह इसी तरह वह सालों से बैठती
आ रही थी। उसके चेहरे की झुर्रियां में दुख, पीड़ा और संताप की लकीरें साफ देखाई
दे रही थी। सालों से अम्माँ इसी तरह नितान्त अकेली यहाँ आकर रोज बैठती थी। और दूर
उन धुँधली आँखों से क्षतिज का पोर-पोर निहारती रहती थी। अंबर में बनती मिटती धूधूंली
उन अकृर्तियां सा ही उसके मन मष्तिष्क कुछ कुछ छपता मिटता रहता। परंतु उसको न वह किसी
पर विभेद होने देती थी ओर नहीं उसे कोई जान पाया। दूर कहीं जब कोई आहट या बेलों के
पैरो से उड़ती घुल तब वह अपना दायां हाथ आँखों पर हाथ रख अपनी मुद्रा बदल कर उस और
देखने की बेकार कोशिश करती थी। क्योंकि अब अम्मा की आँखो कमजोर ओर धुँधली हो गई
थी। शायद यह मूर्ति किसी अर्पूणता को पूर्णता में बदलने के लिए किसी आने वाले किसी कलाकार
की राह तक रही हो। दूर तक फैला सफ़ेद काँस जैसे उसके बालों का विस्तार हो। पास पत्थर
मिट्टी के टिब्बा उसके रूखे चेहरे जैसे लग रहे थे। और तालाब का पानी सूख कर चितका
भर रह ऐसा लग रहा था, जैसे अम्माँ की आँखों में उतरा
मोतियाबिंद। मानों उसके इस दूख को आस पास की पूरी पकृति ने अपने पर उकेर लिया हो। देखते
हैं उसकी धुँधली आस कब तक हिलते हाथ की धुँधली परछाई को, आस भरी बूढ़ी आँखें निहार सकेगी।
अम्माँ का नाम राम प्यारी था। कब वह कितनी राम की प्यारी होगी ये शायद नाम
रखने वाला भी नहीं जानता होगा। पति कार्तिक मास के फैले प्लेग में महाकाल का ग्रास
बन गया था। उस समय पोकर केवल छ: महीने का था। हाय वो दिन याद कर पूरे गांव को भय
के मारे रंग सफेद हो जाता है। चारों तरफ़ फैला मौत का हाहाकार, जहाँ देखो वहीं मौत की विभीषिका भयंकर तांडव कर रही थी। क्या मनुष्य, क्या पशु सब एक समान उसके मुहँ मैं समा रहे थे। पूरा गाँव मसान बन गया था
। अब इस विभीषिका में रोंए भी तो कोई कितना रोंए। जीवित बचे सब प्राणी जंगल में
पड़ी उस टूटी-फूटी हवेली की शरण मे चले गये थे। पहले ही गाँव में कितने लोग थे, मात्रा गिने-चुने चाहो तो आप उन्हें उंगलियों पर गिन सकते हो। और अब उस
पर ये मौत का तांडव। अब तो भगवान जिसे बचाना चाहता है वहीं बच सकता है। जहाँ देखो वहीं मुर्दा की दुर्गन्ध और सड़ाँध फैली
हुई थी।, पशु ही नहीं मनुष्य भी सड़ रहे थे। अधजली लाशों को गिदड़, कौए, गिद्ध नोंच-नोंच कर इधर उधर बिखेर रहे थे। खाने के
नाम पर गांव में कुछ भी नहीं बचा था। काबुली कीकर, झाड़ के पत्तों को कूट-कूट कर लोग
खा रहे थे। पीने को एक-एक बूंद पानी को तरस गये थे। एक तो गाँव की खेती का रकबा
इतना बड़ा फिर इस पर यह महामारी, कौन बोए जोते ये उन बचे गिने चुने
आदमियों की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अगर कोई हिम्मत भी करे तो आदमी कहां से
आये सो इस साल पूरी की पूरी जमीन परती-पड़ी रह गई थी।
मौत की विभीषिका से जो जीवन सुख गया था। समय पाकर, उस पर फैली बेल फिर से फलने-फूलने लग गयी थी । गाँव के टूटे-फूटे
झोपड़ीयों से धुएँ की लकीरें निकल कर लंबी चादर सी फैलती हुई दिखाई देने लगी थी। जैसे
वो कह रही है अभी यहां जीवन बचा है, ये श्रृष्टि का नियम है यहां कुछ मिटता नहीं।
बल्कि मिटाया ही इस लिए जाता है ताकी नये का सर्जन किया जा सके। गाय, भैंसों के झुंड चरते नजर आने लगे
थे। बच्चे तालाब के पानी में छपाके मार-मार के खेलने लगे थे। वह अपने नंगे पैर कोमल
रेत पर घुल उड़ाते दौड़ते सबके मन को मोह रहे थे। मानों प्रकृति बच्चों
के इस क्रिया कलापों से गाँव में नये जीवन का संचार भरने की कोशिश कर रही थी। गांव
का कोई भी परिवार पूर्ण नहीं बचा था। किसी परिवार में कोई पुरूष बचा, किसी में कोई बच्चा, किसी में कोई भी नहीं। गाँव सिकुड़
कर छोटा और कई-कई परिवारों का एक परिवार बन गया था, दु:ख और पीड़ की इस घड़ी में हमे
एक दूसरे के कितने नजदीक आ जाते है। क्या ये मनुष्य का स्वभाव है। आज हम एक
दूसरे से जितना दूर जा रहे इस कारण कही हमारे सुख वैभव में तो नहीं छिपा। गांव
उजड़ा टूटा जरूर पर अब सब मिल-जुल रिसते नातों की चार दीवारी को तोड़ एक हो गये
थे। दूख की इस पूर्णता में आदमी अपना पन भूल कर पूर्ण हो जाता है। इस लिए गांव में
सबका दू:ख एक था सब के घर एक थे। कोई किसी भी घर में रह कर प्यार
और दुलार पा सकता था। मानों पूरा गांव एक घर बन कर रह गया था। सब खेती मिल कर करने
लगे थे। जमीन के खसरा गिरदावर-पटवारी जाने या उनके कागजी पुर्ज़े। या फिर गाँव का
बचा कोई बूढ़ा बड़ा बूढ़ा दादा भगवाना या पंडित मोती, जो अपनी कांपती उँगली के इशारे से
माथे पर हाथ रख दूर दराज उन खेतों की देखते हुए कहते --’ कि वो धम्म पाल में २५ बीघा की ये लार राम नाथ की हैं।’ पर इस और किसी का ध्यान नहीं
जाता था। जब कोई पराया ही नहीं है तो अपने का भेद भी खत्म हो जाता है। दौड़ते
बच्चे, सूखी लड़की आरणें चुनती औरतें, या झाड़ियों में थूथन घुसा कर घास चरती गाए-भैंसे, उनकी तरफ़ कोई ध्यान ही नहीं देती। तेज गर्मी में झुलसे पेड़-पौधे, तपती मिटटी, आसमान मैं बादलों को देख कैसे क्षण
भर के लिए अपनी जलन को भूल उन्हे निहार ने लग जाती हैं। कैसा विभेद होता है प्रकृति
में तपिस के बाद ही सितलता आती है। आश्चर्य और प्रसन्नता का फैला भाव आप उनके आस पास महसूस कर सकते हैं।
चार बूँद पड़ी नहीं कि पूरी प्रकृति इठलाती झूमती सी गाने लग जाती है। ओर एक सुरमई सुगंध
आस पास बिखेर देती है। सूखे घुप में सख्त हुई पेड़ के तनों पर भी कोमल पत्ते कैसे
नाचने, खिल-खिलाने लग जाते हैं, यही है जीवन और जीवन की तरूणाई। गांव
की आधे से अघिक जमीन अब भी परती-पड़ी रह जाती थी। माँ के आँचल की छाँव, गाँव भर का लाड़-दुलार पाकर ’पोकर’ का बचपन कब तरूणाई में बदल गया ये
किसी को पता ही नहीं चला।
गाँव के बच्चे तब तक ही गाँव की शोभा हैं, जब तक वो बच्चे हैं, फिर उसके बाद तो वो मानो मेहमान। पास
ही बसी दिल्ली छावनी, जो गाँव के उपर नंगी तलवार बन कर
लटकी थी, जैसे ही गांव का कोई लड़का जवान होता अंग्रेजों के
कारिंदे आ जाते ’ राजपूताना रायफ़ल’ में भरती करने के लिए। अब भाग कर जाओगे भी तो कहां छटपटाते पंछी की
तरह पिंजरा ही उसकी नियति बन गया था।
परन्तु ये बात सोलह आने सच थी, अँग्रेजों के राज मे बेरोजगारी
नहीं थी। ईमानदारी और न्याय के क़सीदे जो पढ़े जाते थे, शायद वो सच हो । अब गाँव की खेती
बाड़ी की फिक्र तो गोरे अँग्रेजों को है नहीं कि खेतों मैं हल बाखर चले बीज़ छिटकते है
या नहीं, उनको अपने राज की पड़ी जिस पर जर्मन, जापानियों ने हमला बोल दिया हैं।
रंगून तक खदेड़ते आ गये हैं, लगता हे अब चूहे दानी के अन्दर घेर कर मारेंगे। अंग्रेजों को १८५७ के बाद पहली बार राज खतरे मैं
नजर आ रहा हैं। हिटलर के साथ भारत को सपूत सुभाष चंद्र बोस ने लोगो के ज़ख़्मों को
हरा कर दिया। आज उनका खून जोर मार रहा था। एक नई लहर हिलोरे ले रही थी। सुभाष जी
के उस नारे के साथ ‘’तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।‘’ और सच माँएं
अपने सपूतों को खून देने मरने के लिए भेज रही थी।
राम प्यारी का एक मात्र बेटा कैसे बेरोजगार रह सकता था। दिल्ली पुलिस से
भाग कर आया तभी माँ का दिल आशंकित हो गया था ये ठीक नहीं हुआ। माँ ने और गाँव के
बूढे बुर्जगो ने लाख समझाया, पास बनी पूसा फार्म या सी० ओ० डी०
मे भरती हो जाओ। अब जवान खून का जोश बूढे ठंडे खून की बात कहाँ सुनने वाला था। कल
आज और कल भी यहीं चिर सत्य था और सदा सत्य रहेगा। पोकर, मनोहर, दीप चन्द और बुद्धि कुम्हार को राज
पूतना का सिपाही सालार बना कर, ट्रेनिंग के लिए आगरा छावनी भेज
दिया। ट्रेनिंग के बाद तीनों १५ दिनो की छुट्टियों में जब चारो घर आये। पोकर को
देख राम प्यारी को लगा, शायद समय थोड़ी देर थमा ही नहीं, २० वर्ष पीछे भी खिसक गया हैं। पोकर अपने पिता के रंग ही नहीं कद काठी पर
भी हु-व-हु गया था। नई-नई कोमल दूब की तरह उगी मूँछें, कैसे मरोड रखी थी, ठीक अपने पिता की तरह। माँ ने तीन बार जमीन की तरफ़ थू..थू..थू.. किया, कहीं उसकी ही नजर ना लग जाये। आँखों से दो आंसू ढुलके नहीं, भरे खड़े रह गये शान्त झील की तरह। छोटा गांव नाम भी ’दसघरा’ क्या खूब सोच कर रखा था बुर्जग ने, अब दस-घरों के लिए कितनी गलियाँ चाहिये मात्र केवल दो। जौहड़, चौपाल, रामतला के पीपल तले या दादा भैया
के कूएँ पर पानी भरती औरतों के
बीच इन्हीं चारो जवानों की चर्चा होती, कैसे गबरू जवान हैं, एक से एक रूप गुणों की खान जहाँ भी
जायेंगे,
गाँव का नाम रोशन करेंगे।
रामायण के चारो भाइयों से तुलना कर खूब आशिष दी जाती थी। बुद्धि कुम्हार का रंग
श्याम वर्ण था, इस लिए उसे ’राम भगवान’ की पदवी मिलनी अनिवार्य थी। गाँव
की सालों पुरानी, सोई दबी खुशी इन चारो को देख कर
उठी ही नहीं, प्रत्येक प्राणी के चेहरे पर मानो जाकर बैठ गई ।
चौपाल मे हुक्का पीते बुजुर्ग मे यहीं चर्चा होती थी कि कैसे मनोहर ने १० की १० गोलियां
लाल निशाने पर मारी पास खड़े अंग्रेज अफसर ने वैरी-गुड़ की शाबाशी के साथ १०/- रू और
’रम’ की बोतल वो भी घोड़ा छाप इनाम मे दी, साथ ही ’मारक मैन’ की उपाधी भी, परन्तु हाएं बेचारे ’मार्कस मैन’ को तब न जाने क्या साँप सूंघ गया, जब चुने हुये प्रतियोगियों के साथ उसे ’आगरा’ भेजा गया। और सब को उम्मीद थी की
वहां जरूर गांव और राजपूताना राइफल का नाम रोशन करेंगे। परन्तु एक भी गोली टार गेट को छू तक नहीं पाई। सारी हवा में
ही हवा हो गई।
कुछ
ही दिनों में फौज में भरती होने बाद पोकर को एक बेचैनी सी महसूस होने लगी थी। फौज की जिन्दगी एक आजाद जेल की तरह ही होती हैं।
जिसकी न दिखने वाली चार-दीवारी के आर पार तुम आ जा तो सकते हो, परन्तु उसे तोड़ कर तुम स्वछंद नहीं हो सकते। एक अदर्श कैद। वहाँ उसे एक
घुटन, एक छटपटाहट सी महसूस होने लगी थी, इस तड़प के कारण अन्धेरे मे दबा
बगावत का बीज़ न जाने कब अंकुरण हो फूट पड़ा। कब उसमे पत्ते निकले कब शाखा-प्रशाखाये
आई और देखते ही देखते एक दिन वो विशाल वृक्ष बन गया। अब आप उसे काट कर भी खत्म नहीं
कर सकते, जितना कटिंग उसमे उतनी अघिक शाखाएं निकलने लगेगी। यार
दोस्तों ने लाख समझाया ऐसा मत करो अभी समय नहीं आया हे। हमारे मन मे भी जोश हिलोरे
मार रहा है, देश की आजादी लिए। परन्तु पोकर ने उनकी एक न सुनी, एक अंधेरी रात मे अपने तीन और साथियों को लेकर फरार हो गया । अंग्रेज अफसर
के कान खड़े हो गये, उसे इसमे बगावत की बू नजर आई । परेड़़
करते सिपाहियों की आँखो में भी बगावत की चिंगारी नजर आने लगी थी। चिंगारी घर मे आग
लगाएँ इससे पहले उसे दबा देना ही अक्ल मन्दी हैं। ये अंग्रेज अफसर अच्छी तरह से
जानते थे। कुछ सिपहिया को साथ ले अंग्रेज अफसर पोकर और उसके साथियों को पकड़ने के
लिए निकल पड़ा। उधर पोकर और उसके साथियों के लिए अनजान जगह, अन्धेरी रातें, घने जंगल दिशा का कोई ज्ञान नहीं, परन्तु अन्दर जोश का जज्बा उनको साहस और सहारा दिये हुये था। एक लगन कि
हमे रंगून पहुँचना हैं, आजाद हिंद फौज से जाकर मिलना है।
यही लगन उन्हें खिचते लिए चली जा रही थी । सुभाष बाबू ने खून माँगा है, अब जिनकी रगो मे खून होगा वही तो देंगे, या देने का जोश अन्दर से धक्के मरेगा।
रातों-रात, छुपते-छुपाते, चाँद-तारों से दिशा का अन्दाज़
लगाते, साँप, जंगली जानवरों का भय अलग। भूखे
प्यासे चलते आज उन्हे दस दिन हो गये थे। परन्तु मंजिल है कि साँप सिड़ी का खेल बन
गई थी, जो आने का नाम ही नही ले रही थी। जब किसी गाँव के पास
कोई गडरिया या खेतों मे काम करता किसान उन्हे जंगल मे छुपा देख लेता, तो मुंह पर उंगली रख कर उसे चुप रहने का इशारा करके समझाना पड़ता। भाषा की
समस्या अलग थी, परन्तु भला हो इस फौजी ड्रेस का जो
उन्हे चोर-डाकू समझने से बचाए हुए थी। आजादी की लहर घर-घर, गाँव-गाँव,देश के कोने-कोने मे पहुँच चुकी
थी। जब कोई जगा हो तो आप उसके घर मे सेंध नहीं लगा सकते। कभी-कभी किसी गाँव के साहसी
लोग तो उनके लिए खाना लेकर भी आ जाते थे। इस सब से उनका जोश और अघिक बढ़ जाता कि हम
गलत नहीं हैं, देश हमारे साथ है।
....
झाड़ियों मे लेटे पोकर
ने आसमान की तरफ़ देखा, तेज़ प्रकाश मे आंखे बन्द नहीं हुई
मानो प्रकाश उनमें अन्दर सिमट कर बैठ गया हो। एक हलकी सी चुभन के साथ अन्दर तक
शीतलता उतरती चली गयी। ऐसा वो छुटपन से ही करता आया था, गाये-भैंसों को चराते, या यू हीं अकेले लेटे-लेटे आसमान की तरफ़ निहारते हुऐ, कैसे गोल-गोल छल्लों का समूह नीले आसमान मे पिरोया सा लगता था। माँ कहती
थी यही है प्राण-उर्जा जो हमे जीवन देती हैं। प्रकृति के कण-कण मे,समय और स्थान के अनन्त छौर तक होने पर भी हम उसे सीधे ग्रहण नहीं कर सकते।
जैसे ही अतीत की यादों में गहरे जाओगे आंखे उसे मार्ग देने के लिए दो बूँद आँसू
छलका देगी, मानो वो किनारे सिमट,सिकुड़ कर उसका आदर सत्कार दे रही
हो। गाँव की गलियाँ, घर का आँगन, दूर तक गंजे हुये खेतों मे चरते जानवर सभी एक क्षण मे चित्र की भाँति आँखो
के सामने घूमने लगे। खलिहान मे पेड़ गेहूँ के ढेर, गाहटा चलाते हुए बैल के पीछे चलना, बैलों के मुहँ पर लगा छींका, हाथ मे साँटा, मई की तेज गर्मी, सुर्य की तपिश कम होने पर भी हवा
अभी भी गर्म थी। बैल दिन भर की थकान के साथ आराम की उम्मीद मे पीछे मुड़ -मुड़ के
देख रहे थे। शायद ये आज का आखरी चक्र हो, फिर मौज से जुगाली करते हुये मुहँ
से खूब झाग बना-बना कर गिराएंगे, एक अल्हड़ बच्चे की तरह जो
टूथ-पेस्ट से मुँह मे झाग बना के गिरा रहा हो। लम्बे पैर करके लेटे-लेटे, चैन की लम्बी-लम्बी उसांस छोड़ेगे। इतनी देर मे तीन घोड़े आकर रुके, बैलों के कान खड़े हो गए, मानो कह रहे हो ये क्या आफत आ गई।
गोरे अंग्रेज के साथ दो मेम घूमने के लिए आई थे। एक गोरी मेम घोड़े से नीचे उतरी और
पोकर को काम करते, बड़े गौर से देखने लगी। कैसे दूर
से ही सुगंध का झोंका पोकर के पास आया, गोरी मुलायम चमड़ी, उसपर पके अमरूद की तरह लाल-लाल
चितके उसकी सुन्दरता का ह्रास कर रहे थे। आंखे नीली एकदम सफ़टीक, नीले आसमान की तरह जिस पर बादल का एक चितका तक न हो। पोकर को लगा वो गाटा
चलाना चाहती है, बेलों की रस्सी और साँटा गोरी मेम
की तरफ़ बढ़ा दिया, उसने कुतूहल वश मुस्कुरा कर पकड़
लिया। एक चक्कर लगाने
के बाद बेलों को कुछ अजीब सा लगा, वो चिर परिचित ध्वनि का न निकलना, न वो पदचाप, न वो स्पर्श , सब बदला सा लगा। बेलों ने अचानक पीछे मुड़ कर देखा, एक अनजान चेहरा देख वो डर गये। अचानक बेलों के जोर से भागने से गोरी मेम
झटका खा कर गिर गई, उसके हाथों से खून निकल आया। पोकर
ने दौड़ कर उसे उठाया, वह थर-थर काँप रहीं थी। पोकर ने
सोचा अब खैर नहीं, गोरी मेम फिर भी बच्चे के समान मुस्कुरा
रही थी। अंग्रेज घोड़े से उतरा, और रूमाल से उसका खून साफ़ करने लगा,या आल-राइट, ओ०के०थेंक्यु कह कर घोड़े पर बैठकर क्षण भर मे घुल उड़ाते, आँखो से ओझल हो गये। पोकर मूर्तिवत, आवक खड़ा देखता रह गया। ये इतने बुरे, वहशी, पाशविक नहीं लगते थे, जितना पोकर सोचता था, यह पोकर ने पहली बार देख और महसूस
किया।
पोकर और उनके साथी जानते थे, अंग्रेज उनका पीछा कर रहे होगें, कम से कम आराम करके ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाना चाहते थे। परन्तु होनी
को कोन टाल सकता है। सूर्य अभी निकला भी नहीं था, हलका-हलका झुटपुटा, भोर का तारा पुर्ण यौवन पर था, दुर कोई पपीहा विरह के गीत गा कर अभी-अभी चुप हुआ था, लेकिन झींगुर अभी भी अपनी लम्बी तान लगाये जा रहे था। अचानक तीतरों का एक झुंड
कि..कि..करके भयभीत होकर फुर्र.र्र.र्र....से उड़ा। खतरा भाँप चारो सतर्क हो नाले
मे पीछे की तरफ़ सरकने लगे, नाला गहरा था, उस पर फैली घनी झाड़ियाँ, जिससे नीचे सुर्य की रोशनी भी नहीं
आ पाती थी। पीछे सरकते हुये चारो नाले के उस छोर तक पहुंच गये, परन्तु आगे बहुत बड़ा तालाब था। चारो ने एक दूसरे की आँखो मे देखा और शहादत
के लिए तैयार हो गए। दोनो तरफ़ से गोलियां चलने लगी, एक तरफ़ २५-३० जवान और दुसरी तरफ़
गिनती के चार मतवाले, फिर भी चारो जी जान से लड़ते रहे, एक-एक ने तीन-तीन,चार-चार को घायल कर दिया था। पोकर
की एक गोली अंग्रेज आफ़िसर के कंघे मे लगी, वो छठ-पटा कर अपने कंघे को पकड़ कर बैठ
गया। पोकर के तीनों साथी शाहिद हो गये, उसकी गोलियां भी खत्म हो गई, लेकिन भी वो जीवित अंग्रेजों के हाथ नही आना चाहता था। कोई चारा ना देख
लाचार बेबस तालाब मे कूद गया, वैसे वह एक अच्छा तैराक था। परन्तु
तैराक बेचारा क्या करे जब चारो तरफ़ से अन्धाधुन्ध गोलियों चल रही हो। अंग्रेज
चीख-चीख कर कह आदेश दे रहा था, कील-हिम, कील-हिम...दे..ट मैन...।
पोकर के एक, दो, तीन... गोलियां शारीर को छलनी कर गई, खून निकल कर तालाब की लहरों को
रंग लेना चाहता था। खून के साथ पोकर उपर नहीं आया, वह एक पत्थर को पकड़, मंद
होती स्वास, डूबती चेतना
और छिटकते प्राणों
के प्रवाह मे
बह गया। धीरे-धीरे
पोकर के खून और सुर्य की फैली लाली ने पूरे तालाब को लाल रंग दिया, क्षितिज पर भी सुर्य की लालिमा फैली थी। अब ये भ्रम हो रहा था ये लाली
तालाब मे फैले खून की परछाई है या उगते सुर्य की। बादल भी चारो तरफ़ से सिमट कर
शायद सूरज को ढक लेना चाहते थे, ताकि ये नजारा वो देख न सके। इस लालिमा
ने अपनी पूर्ण आहुति में ने लिया अपने एक लाल को। ओर अपने खून की एक-एक बूंद उसने अर्पण
करदी उस माटी को.....जो करहा रहीं थी गुलामी की बोडियों में। ओर वह जानता था ये खून
का रंग ही उसे एक दिन आजाद करेंगा। ये रंग यूहि बेकार नही जायेगा।
परंतु दूर राह तकती उस मां को कोई कैसे बताये। इन बडी-बडी बातों को वह तो अपने
ह्रदय में एक आस को पिरोये बेठी थी। सब आ गये न जाने मेरा लाल कहां रह गया। बचपन में
भी वह देर तक जब घर नहीं आता था तो वह थान के पास आकर बैठ जाती थी उसे खेलते कभी आवाज
नहीं देती थी। माँ को कैसे कोई भरोसा दिलाए, वह अपनी आस को किस विश्वास के
सहारे जिन्दा रखे थी, ये जानते हुऐ भी मन मानने को तैयार
था, की उसका पोकर अब नहीं रहा। शायद वो बिखर गया हवा वो
मैं, धूल के कण-कण मैं, बरसात की बौछारों मैं, चाँद-तारों की छिटकती रोशनी मे, फिर कैसे माँ यकीन करे उसका पोकर
मिट सकता है। शायद इस गहरे सत्य को माँ का अन्तस जान गया था। दीप चन्द के पैर मे घूसे
छर्रे के कारण पैर अंगद का बन गया था। बच्चे बड़े अचरज से कपडा हटा कर उसे देखते , यहीं उसकी बहादुरी का तमग़ा था। बुद्धि कुम्हार आज भी लोगो को कहता फिरता
है, कि नेता सुभाष अभी मरे नहीं है,उन्हे कोशी-मथुरा में देखा गया हैं। बच्चे उसकी बात सुन कर गर्दन हिला
देते हैं, शायद गोली टाफ़ी के लालच मैं। ’मार्कस मैन’ अब दिल्ली पुलिस मैं पहाड़ का महाल
कहलाता हैं।
मोती पंडित साँझ संध्या कर के घर आते हुए, अम्माँ राम प्यारी का हाथ पकड़ कर गांव
की तरफ़ चल देता है। अम्मा ने इसका कोई विरोध नहीं किया, ये उसकी सर्दी, गर्मी, बरसात बारह महीने की प्रतिक्रिया
थी। रोज श्याम आ कर ने जाने क्यों इसी पत्थर पर बैठ कर राह के उस अंतिम छोर तक
देखती रहती थी जहां उन बूढ़ी आँखो की पकड़
भी नहीं थी। एक आस एक इन्तजार उस जरजर हुए शरीर को धोएं चली जा रहीं थी। देश आजाद
हो गया, १५ अगस्त को नेहरू ने लाल किले पर तिरंगा झंडा फहारा
दिया, तोपों की आवाज़ से ज़ामा-मस्जिद के गुम्बद पर बैठे कबूतर
डर के मारे फुर..र्र...र्र... से उड़ गये, परन्तु पास खड़े लोगों के कानों पर
जूं तक नहीं रेंगी। 26 जनवरी की ठंडी-मीठी धूप मै झण्डियों गेट पर सीधे चटते जहाज
तिरंगा बना कर छिटक गये। तिरंगे के रंग अब धुँधले पड़, धुआँ मात्र रह गया था। राम प्यारी
आसमान की तरफ़ मुहँ उठाये बादलों के आकारों मै अपने पोकर को ढूढ़ने की नाकाम कोशिश
कर रहीं थी। शायद इसी इन्तजार मे बैठे-बैठे एक दिन खुद भी मिटटी बन जायेगी! तभी
दोनों मिट्टी मिल कर दोनों को एक कर दे। श्याम गहराने लगी थी,
आसमान पर शुक्र सुर्य के जाते ही पुर्ण वेग से चमकने लगा था। अम्मा ने एक बार
आसमान की तरफ देखा, आसमान पर लालिमा लिये बादल आसमान पर छितरे पड़े थे। मानों वह भी
वह भी घर जाते सूर्य से कुछ कहना चाहते हो, लेकिन अम्मा के पास फैली शांति के
कारण वो मौन इंतजार में बस खड़े रह गये। उसके शब्द कहीं दुर नीरवता में निशब्द
बन गये। शुक्र तारे की चमक जो सुर्य के जाते ही, पुर्ण आसमान पर अपना प्रभुत्व
फैला रही थी। अब बादलों की ओट में छुप गई थी। आसमान रंग हिन काला हो गया था......न
कोई तारा चमक रहा था। न कोई जुगनु। जिस आजादी की चमक के हमने सपने देखे थे। वो
कालिमा बन कर अपना राज कर रही थी। आज चारों और लुट खसोट पैसे की मारा मारी। न कोई
आदर्श न संस्कार। बस जिसके हाथ में अधिकार है वह भूखे भेडिया की तरह इस देश को
नाचे जा रहा है। वैसे सालों की गुलामी के बाद ये तो सब होना ही था। ये आजादी नहीं
थी एक अराजकता थी। महात्मा गांधी के सपनों का खून था।
जिस महात्मागांधी ने हमें आजादी दी। जिसे
अंग्रेज सालों सहन करते रहे। जेल में डालते रहे सताते रहे। उसे हमने आजादी के बाद
केवल छ: माह में गोली मार दी। ये है हमारी आजादी की पहली कथा। हमारा चरित्र हमारी
नैतिकता। फिर बेचारी अम्मा के जीवन में कोई प्रकाश नहीं फैला हो तो यह कोई आश्चर्य
की बात नहीं है। कितने भगत सिंह---राम प्रसाद बिसमिल, चंद्रशेखर आजाद, महावीर
प्रसाद को उन माँओं ने बलिदान कर दिया। पर आज उनके जीवन में कहीं कोई प्रकाश नहीं
आया। प्रकाश की एक आस आई....वह बेचारे न अंदर ही प्रकाश खोज पा रही थी न बहार। अम्मा ने एक गहरी सांस ली और मोती
पंडित का हाथ पकड़ कर घर की और चल दी। उन बोझल कदमों से जिसका न आदि है न
अंत............
--स्वामी आनंद
प्रसाद ‘’मनसा’’
गांव दसघरा, मो:
9899002125
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