दसवां प्रवचन-(समर्पण ही सत्संग है)
दिनांक 30 नवम्बर, 1980,श्री ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
दुर्लभं त्रैयमेवैवत् देवानुग्रह हेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुयं महापुरुषसंश्रयः।।
मनुष्य देह, मुमुक्षा और महापुरुष का आश्रय,
ये तीनों अति दुर्लभ हैं--अलग-अलग होकर भी। जब तीनों एक साथ मिलें
तब तो परमात्मा का अनुग्रह ही है। तब मोक्ष करीब है। फिर भी आप चूक सकते हैं।
भगवान, हमारे लिए इस सुभाषित की विशद व्याख्या करने की
अनुकंपा करें।
सहजानंद, मनुष्य एक चौराहा है, जहां
से सब दिशाओं में मार्ग जाते हैं। यही उसकी विशिष्टता है। अनंत संभावनाएं मनुष्य
के लिए अपना द्वार खोले खड़ी हैं। मनुष्य जो भी होना चाहे हो सकता है। पशुओं का
भाग्य होता है, मनुष्य का कोई भाग्य नहीं। कुत्ता कुत्ते की
तरह ही पैदा होगा, कुत्ते की तरह ही जीएगा, कुत्ते की तरह ही मरेगा।
इससे अन्यथा होने का कोई उपाय नहीं। मनुष्य कोरे
कागज की भांति पैदा होता है, जिस पर कोई भी लिखावट नहीं है,
फिर जो लिखता है स्वयं, वही उसका भाग्य बन
जाता है। मनुष्य अपना भाग्य-निर्माता है, अपना स्रष्टा है।
अगर
हाथी-घोड़े-गधे ज्योतिषियों के पास जाएं तो समझ में आता है। मनुष्य जाए तो बात
बिलकुल समझ में नहीं आती। मनुष्य का कोई भाग्य नहीं है जिसे पढ़ा जा सके। मनुष्य तो
केवल एक अनंत संभावनाओं,
अनंत बीजों की भांति पैदा होता है। फिर जिस बीज को बोएगा, जिस बीज पर श्रम करेगा, वे ही फूल उसमें खिल जाएंगे।
कोई विधाता नहीं है। हम प्रतिपल अपने प्रत्येक विचार, अपने
प्रत्येक कृत्य से स्वयं का निर्माण कर रहे हैं। इसलिए एक-एक कदम सूझ-बूझ कर उठाना
और एक-एक पल होश से जीना। मूर्च्छा में जो जी रहा है, वह
मनुष्य ही नहीं है।
सहजानंद, संस्कृत
के सूत्र और तुम्हारे अनुवाद में थोड़े फर्क आ गए हैं। संस्कृत का सूत्र है:
मनुष्यत्वं--मनुष्यत्तत्व, मनुष्य-चेतना। और तुमने अनुवाद
किया: मनुष्य-देह। गहरी भूल हो गई वहां। मनुष्य की देह मनुष्य का तत्व नहीं है।
देह तो और पशुओं के पास भी है। देहों में क्या भेद? सब
मिट्टी के खिलौने हैं। ऐसा बनाओ कि वैसा बनाओ। माटी कहै कुम्हार सूं तू का रूंधे
मोहि। कहती है मिट्टी कुम्हार से: तू मुझे क्या रूंधता है! आएगा एक दिन, आएगी वह घड़ी, जब--मैं रूंधूंगी तोहि! जब मैं तुझे
रूंध डालूंगी।
एक
ही सोने से हजार तरह के गहने बन जाते हैं। एक ही मिट्टी से हजार तरह के घड़े बन
जाते हैं। देह का तो कोई मूल्य नहीं है। फिर देह मनुष्य की हो, कि पशु की
हो, कि पक्षी की हो, कि वृक्ष की
हो--इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। मूल सुभाषित मनुष्यत्तत्व की बात कर रहा है। और
मनुष्यत्तत्व मनुष्य-देह से बहुत भिन्न बात है। जो मूर्च्छित है, वह मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं। जो जागा, उसने ही
मनुष्य होना शुरू किया। मनुष्य होने के लिए दो जन्म चाहिए। और सब पशुओं का एक ही
जन्म होता है। एक बार जन्मे और फिर इसके बाद मौत है। मनुष्य द्विज हो सकता है।
द्विज होना ही ब्राह्मण होना है।
द्विज
होने का अर्थ है: माता-पिता से तो पहला जन्म मिलता है, ध्यान से,
समाधि से दूसरा जन्म मिलता है। ध्यान से, समाधि
से अपने भीतर के ब्रह्म का परिचय होता है, पहचान होती है। तब
वास्तविक जन्म मिला।
पहला
जन्म तो मौत में जाकर गिर जाएगा। पहला जन्म तो कब्र में जाकर समाप्त हो जाएगा।
झूले में और मरघट में कुछ बहुत फासला नहीं--चाहे सत्तर साल ही क्यों न लग जाएं
झूले से कब्र तक पहुंचते-पहुंचते, मगर इस अनंत काल में सत्तर वर्षों की क्या कीमत,
क्या बिसात! हां, दूसरा जन्म सच में जन्म है,
क्योंकि उससे जीवन की शुरुआत होती है, जिसका
फिर कोई अंत नहीं। शाश्वत जीवन जब तक न मिले तब तक जानना अभी तुम मनुष्य नहीं हो।
इसलिए, सहजानंद,
मैं अनुवाद में मनुष्य-देह रखना पसंद न करूंगा--मनुष्यत्तत्व! सभी
मनुष्य मनुष्य नहीं हैं। जिसने अपने भीतर की चैतन्य धारा को पहचाना, वही मनुष्य है। मगर हम चाहते हैं कि हम सबको मनुष्य माना जाए, क्योंकि हमारे पास देह मनुष्य जैसी है। निश्चित ही, बुद्ध
के पास भी ऐसी ही देह थी और महावीर के पास भी और कृष्ण के पास भी और क्राइस्ट के
पास भी; और नानक के, कबीर के और पलटू
के, सबके पास ऐसी ही देह थी। मगर इस देह पर वे समाप्त नहीं
थे। यह देह तो केवल सीढ़ी थी। इस देह से वे वहां पहुंच गए जो देहातीत है। उसे पाकर
ही वे ठीक अर्थों में मनुष्य हुए।
इसलिए
जीसस ने बहुत प्यारी बात कही, बार-बार कही है। कहीं जीसस कहते हैं मैं
मनुष्य-पुत्र हूं और कहीं कहते हैं मैं ईश्वर-पुत्र हूं। दोनों का उन्होंने भरपूर
उपयोग किया है। और ईसाइयत दो हजार सालों से चिंतना में पड़ी रही है कि क्या मानें
जीसस को? मनुष्य का बेटा या ईश्वर का बेटा? क्योंकि जीसस दोनों का ही उपयोग करते हैं। निश्चित ही, ईसाई पंडितों-पुरोहितों को बड़ी बेचैनी रही है कि क्यों जीसस ने कहा कि मैं
मनुष्य का बेटा। इतना ही कहा होता कि मैं ईश्वर का बेटा; बात
सीधी-साफ थी। यह उलझन क्यों खड़ी कर दी? मगर मैं तुमसे कहता
हूं: इसमें उलझन जरा भी नहीं है। मनुष्य होना और भगवान होना एक ही सिक्के के दो
पहलू हैं। जो मनुष्य हो गया, उसने जान ही लिया कि वह भगवान
है। भगवत्ता की पहचान ही मनुष्यता है। भगवत्ता की पहचान का ही नाम मनुष्यत्तत्व
है।
सूत्र
तो प्यारा है: दुर्लभं त्रैयमेवैवत् देवानुग्रह हेतुकम्।
तीन
चीजें दुर्लभ हैं--अति दुर्लभ हैं। मनुष्य होना; फिर मुमुक्षा का होना;
फिर महापुरुष का सत्संग--जहां उपनिषद घटे, जहां
एक ज्योति दूसरी ज्योति में समाए, मिले-जुले।
तीन
चीजों को सर्वाधिक दुर्लभ बताया: मनुष्य होना...। क्योंकि मनुष्य की तरह जन्मने
में तो कोई बड़ी कठिनाई नहीं, जैसे और कीड़े-मकोड़े पैदा होते हैं ऐसे ही
मनुष्य भी पैदा होता है, लेकिन और कोई भी प्राणी
आत्म-साक्षात्कार नहीं कर सकता। मनुष्य कर सकता है। यह यथार्थ तो नहीं है, लेकिन यथार्थ हो सकता है। बीज है, इसलिए वृक्ष भी हो
सकता है। इस संभावनाओं को देख कर पहली अति दुर्लभ बात है इस जगत में: मनुष्य की
भांति पैदा होना।
लेकिन, बीज भी
पड़े रहें और खेत भी घर के पीछे हो और कुएं में जल भरा रहे और सूरज धूप बरसाता रहे
और तुम बीज ही न बोओ--वसंत भी आए, कोयल भी कूके, मगर तुम्हारे बीज तो बीज ही रहेंगे।
सूफी
कहानी है। एक सम्राट के तीन बेटे थे और चुनाव करना बहुत मुश्किल था कि किसको अपना
राज्य सौंप दे। क्योंकि तीनों ही जुड़वां थे--बराबर उनकी उम्र थी, इसलिए
उम्र से कुछ तय न हो सकता था। तीनों प्रतिभा-संपन्न थे। शिक्षक भी नहीं कह सकते थे
कि कौन अधिक प्रतिभाशाली है। इसलिए उलझन और बढ़ गई थी। तीनों शक्तिशाली थे। एक से
दूसरा बढ़ कर था। तीनों युद्ध के मैदानों पर परीक्षित हो चुके थे। और सदा जीत कर
लौटे थे। हारना जैसे उन्होंने जाना ही न था। सम्राट किसे अपना उत्तराधिकारी चुने?
उसने
एक सूफी फकीर से पूछा। उस फकीर ने अपने झोपड़े में से लाकर फूलों के बीजों से भरी
हुई एक बोरी दे दी। और कहा,
यह ले जा, तीनों को बीज बांट दे और तू
तीर्थयात्रा को चला जा। और कहना कि जब मैं लौटूं तो बीज मुझे सुरक्षित वापस चाहिए।
और जो इसमें सर्वाधिक सफल होगा, वही मेरे राज्य का
उत्तराधिकारी भी होगा।
सम्राट
ने वे बीज तीनों को बांट दिए और तीर्थयात्रा को चला गया।
पहले
बेटे ने सोचा,
बीजों को सुरक्षित रखना है, एक ही उपाय है कि
इन्हें लोहे की तिजोड़ी में बंद कर दूं। कोई चूहा न पहुंच जाए, कोई कीड़े न लग जाएं, कोई चुरा न ले। तो उसने एक लोहे
की तिजोड़ी में बीज बंद कर दिए, मजबूत ताले जड़ दिए। चाबियां
बहुत संभाल कर रखीं। रात भी सोता था तो चाबियां अपने हाथ में ही रखता था, अपने तकिए के नीचे दबा रखता था। कहीं जाता था तो चाबियां साथ ले जाता था।
क्योंकि सारी जिंदगी, सारा भविष्य उन बीजों के बचने पर था।
दूसरे
बेटे ने सोचा कि मैं भी तिजोड़ी में बंद कर सकता हूं, लेकिन कहीं तिजोड़ी में हवा
न लगी, धूप न लगी और बीज सड़ गए! और पिता ने कहा था, जैसे दे रहा हूं वैसे ही वापस करना। कहीं बीज सड़ गए, तो मैं मारा गया। इसलिए अच्छा हो कि मैं बीज बेच दूं बाजार में। पैसे
सुरक्षित रहेंगे। जब पिता आएंगे, फिर बीज खरीद लाऊंगा।
बीजों-बीजों में क्या फर्क है? जैसे ये बीज वैसे वे बीज। कोई
बीजों पर हस्ताक्षर तो हैं नहीं पिता के! पहचान भी क्या कर सकेगा? सो उसने बीज बेच दिए। पैसे ज्यादा सुरक्षित रह सकते थे। और जब पिता आएगा
तो बीज खरीद लेगा।
तीसरे
ने जाकर बीज अपने महल के पीछे बो दिए बगीचे में। उसने सोचा, बीज का तो
अर्थ ही होता है संभावना। बीज को बचाना अर्थात संभावनाओं को बचाना। और संभावना
बचती है एक ही तरह से कि वास्तविक हो जाए। उसने बीज बो दिए।
जब
पिता वापस लौटा तीर्थयात्रा से तो पहले बेटे ने अपनी तिजोड़ी खोली। लेकिन बीज सड़ गए
थे। जिन बीजों से बड़े सुगंधित फूल पैदा हो सकते थे, उस तिजोड़ी से केवल दुर्गंध
उठी। बाप ने कहा, ये मैंने तुझे बीज दिए न थे। ये मेरे बीज
नहीं हैं। जो मैं तुझे दे गया था उनमें दुर्गंध नहीं थी, उनमें
सुगंध की संभावना थी। तूने संभावनाओं को विकृत कर दिया। तूने सड़ा डाले बीज। तू हार
गया।
दूसरे
बेटे से पूछा। दूसरे बेटे ने कहा, जरा रुकिए, मैं बाजार से
खरीद लाऊं! क्योंकि मैंने बेच दिए--इसीलिए कि तिजोड़ी में रखने का यह परिणाम होने
वाला है जो मेरे एक भाई का हुआ। मैं जाता हूं। पिता ने कहा, लेकिन
वे बीज वही नहीं होंगे जो मैंने तुझे दिए थे। वे वही नहीं हो सकते क्योंकि उन
बीजों पर एक फकीर का आशीर्वाद था। उन बीजों को एक फकीर ने छुआ था। एक बुद्ध पुरुष
के हाथ उन बीजों पर लगे थे। वे बीज वही नहीं हो सकते। अब तू उन बीजों को कहां से
पाएगा, पागल? हीरे बेच दिए, अब तू कंकड़-पत्थर लाएगा। रहने दे, मत जा, मत मेहनत कर! तू हार गया।
तीसरे
बेटे से पूछा। उसने कहा,
आएं मेरे महल के पीछे। क्योंकि बीज का तो अर्थ ही होता है, जो बढ़े। जो बढ़े नहीं, वह क्या बीज! जो फूटे, अंकुरित हो, वही बीज। तो मैंने उन्हें और तरह नहीं
सम्हाला, बो दिया है। आएं! दूर-दूर तक फूलों से ही भर गई है
बगिया। इतने फूल आए हैं कि पक्षियों को अपने घोंसले बनाने के लिए जगह भी नहीं मिल
रही है। ऐसे लदे-फदे हैं फूल, मेला भरा है! और राज्य की मुझे
चिंता नहीं है। मैं तो मस्त हो गया हूं माली होकर। मेरे लिए तो आपने काम दे दिया,
अब मैं यही करूंगा तो भी मेरा जीवन धन्य है। बीजों को फूल बनाता
रहूंगा--और इससे बड़ी क्या बात हो सकती है!
पिता
ने जाकर देखा। दूर-दूर तक जहां तक आंखें जाती थीं, फूल ही फूल थे। सुगंध उड़
रही थी। फूल हवाओं में नाच रहे थे। पिता ने कहा कि तूने ही केवल मेरे बीज बचाए।
हालांकि एक अर्थ में तो तूने बीज बिलकुल गंवा दिए। कहां हैं बीज? लेकिन एक अर्थ में तूने बचा ही नहीं लिए, तूने बहुत
बढ़ा दिए, अनंत गुना कर दिए। अब इन पौधों पर फूल आ गए हैं,
जल्दी ही इनमें बीज आएंगे, एक-एक बीज से
करोड़-करोड़ बीज हो जाएंगे। तूने ही बचाया। यही बचाने का ढंग है।
मनुष्य
एक बीज है। और जो इस बीज को फूलों तक पहुंचा देता है, वही हकदार
है कहने का कि मैं मनुष्य हूं। तिजोड़ी में बंद करने की यह चीज नहीं।
तीसरा
बेटा मालिक हो गया साम्राज्य का।
मनुष्य
होना दुर्लभ है--क्योंकि संभावना भी दुर्लभ है।
और
फिर मुमुक्षा। मुमुक्षा बड़ा प्यारा शब्द है। बहुत विचारणीय। मनन करने योग्य। तीन
शब्दों पर ध्यान रखो। एक है: कुतूहल। मिलते-जुलते हैं, इसलिए
उनको समझ लेना जरूरी है। दूसरा है: जिज्ञासा। और तीसरा है: मुमुक्षा। कुतूहल
बचकाना होता है। यूं ही पूछ लिया। जैसे खुजलाहट आई, जरा-सा
खुजा लिया और बात भूल गई। छोटे बच्चे यही करते हैं। कोई भी चीज देखते, पूछ लेते हैं। ऐसा क्यों? वैसा क्यों?
चंदूलाल
का बेटा टिल्लू पहले ही दिन स्कूल गया और शाम को वापस आते ही अपने पिता चंदूलाल से
पूछ बैठा: "पापा,
पापा, मैं कहां से आया?' चंदूलाल ने सार्थक नजरों से पत्नी की ओर देखा, आंख
मारी और मुस्कुराए; पूत के पांव पालने में ही दिखाई पड़ रहे
हैं। फिर टिल्लू से बोले: "तुम्हें यह बेवकूफी कहां से सूझी?' टिल्लू ने कहा: "स्कूल में रमेश बतला रहा था कि वह कलकत्ता से आया
है।'
बेचारा
बच्चा कोई ऐसी गहरी जिज्ञासा नहीं कर रहा जैसा चंदूलाल समझ गए! किसी ने कहा
कलकत्ते से आया हूं,
तो उसने पूछा कि मैं कहां से आया हूं? कुतूहल
जगा।
कुतूहल
में कोई जड़ें नहीं होतीं,
कोई गहराई नहीं होती। कुतूहल ऊपरी होता है। जवाब मिल जाए तो ठीक है,
न मिले तो ठीक है। कोई कुतूहल पर दांव नहीं लगा होता। इसलिए छोटे
बच्चे कुछ भी पूछते चले जाते हैं। तुम न जवाब दो तो वे कुछ ठहरते नहीं तुम्हारे
जवाब देने के लिए, दूसरा प्रश्न खड़ा कर देते हैं।
लेकिन
जिज्ञासा गहरी जाती है। जिज्ञासा का अर्थ होता है: एक सातत्य। जैसे बूंद-बूंद भी
गिरती रहे,गिरती रहे, तो गागर भर जाए--गागर ही क्यों, सागर भर जाए। जिज्ञासा में एक सातत्य है। कुतूहल केवल बूंद है। लेकिन
जिज्ञासा बूंद का सतत गिरते रहना है। रसरी आवत जात है सिल पर पड़त निशान। रस्सी भी
कुएं के पत्थर पर निशान बना देती है। आती रहती है, जाती रहती
है। जिज्ञासा दार्शनिक है। कुतूहल तो केवल खुजलाहट है। जिज्ञासा का अर्थ है: ऐसे
प्रश्न जो तुम्हारे प्राणों में शोर मचा रहे हैं। जो तुम्हारे अंतरतम में द्वार
खटखटा रहे हैं। जो कहते हैं: जवाब चाहिए ही चाहिए। जिज्ञासा पूरे जीवन पर फैल सकती
है। कुतूहल सभी में होता है, बुद्धू से बुद्धू में भी होता
है। लेकिन जिज्ञासा व्यक्ति को बौद्धिक बनाती है, दार्शनिक
बनाती है, चिंतक बनाती है, विचारक
बनाती है।
पर
मुमुक्षा और भी अदभुत बात है। जितनी दूरी कुतूहल और जिज्ञासा में है, उससे भी
ज्यादा दूरी जिज्ञासा और मुमुक्षा में है। कुतूहल और जिज्ञासा में तो जो भेद है वह
केवल मात्रा का है। एक बूंद, और बहुत बूंदें हैं। भेद परिमाण
का है, गुण का नहीं। लेकिन जिज्ञासा और मुमुक्षा में गुण का
भेद है।
जिज्ञासा
दार्शनिक बनाती है,
मुमुक्षा धार्मिक। जिज्ञासा में प्रश्न होते हैं, मुमुक्षा में जीवन ही प्रश्न बन जाता है। जिज्ञासा में बहुत प्रश्न होते
हैं, मुमुक्षा में एक ही प्रश्न होता है कि मैं कौन हूं?
जिज्ञासा में हजार उत्तर आते हैं, हर उत्तर
में से नए प्रश्न खड़े होते हैं। और मुमुक्षा में, मैं कौन
हूं, यह एक ही प्रश्न होता है और अंततः यह प्रश्न भी गिर
जाता है। जिस दिन यह प्रश्न गिरता है, उसी दिन जीवन उत्तर से
भर जाता है। उसी दिन जीवन रहस्य से ओत-प्रोत हो जाता है।
मुमुक्षा
का अर्थ है: जिससे मिल जाए मोक्ष। दर्शन से मोक्ष नहीं मिलता, मुक्ति
नहीं मिलती। जैसे कोई आदमी कारागृह में बंद हो। कुतूहल ऐसा होगा कि कभी पूछे कि
क्यों दरवाजे पर हमेशा संतरी खड़ा रहता है? इसके हाथ में
बंदूक क्यों है? बंदूक क्या करती है? पूछ
लेगा, मिला उत्तर तो ठीक है, तो भी कुछ
फर्क नहीं पड़ता; नहीं मिला उत्तर तो भी ठीक है, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। उसकी कुछ नींद इससे खराब नहीं होगी।
लेकिन
जिज्ञासा में नींद टूट जाएगी, खराब होने लगेगी नींद, रात-दिन
प्रश्न पीछा करेगा--ये दीवारें क्यों हैं? ये मेरे हाथ पर
जंजीरें क्यों हैं? ये मेरे पैरों में बेड़ियां क्यों हैं?
यह संतरी क्यों खड़ा है? मैंने क्या किया है?
लेकिन
कारागृह में बंद आदमी कैसे जान सकेगा कि मैं क्यों यहां बंद हूं? उसने तो
जब से पाया है तब से अपने को बंद ही पाया है। जब से आंख खोली है तब से जंजीरें
दिखाई पड़ी हैं, बेड़ियां दिखाई पड़ी हैं। जब से सजग हुआ तब से
द्वार पर ताला पड़ा है, सींकचे हैं, बाहर
बंदूकधारी सिपाही खड़ा है। क्या करेगा वह?
मुमुक्षा
का अर्थ है: सिर्फ कारागृह में बैठे-बैठे आराम से प्रश्न नहीं पूछने लगना, वरन दीवार
को तोड़ कर बाहर निकलने की कोशिश। दीवार को तोड़ना, सींकचों को
काटना, जंजीरों को गलाना--इसकी चेष्टा मुमुक्षा है। ताकि एक
दिन मोक्ष मिल सके, मुक्ति मिल सके। एक दिन जब बाहर खड़ा होगा
कारागृह के तभी जानेगा भेद बंधन का और मुक्ति का।
मुमुक्षा, सूत्र
कहता है, दूसरी अदभुत घटना है। पहले तो मनुष्य होना दुर्लभ
है। सौ में कोई एकाध मनुष्य होता है। सौ मनुष्यों में कोई एकाध मनुष्य होता है।
निन्यानबे तो बस दिखाई पड़ते हैं। यूं ही समझो जैसे खेत में खड़े हुए झूठे आदमी।
देखा
है न खेत में खड़ा हुआ बिजूका? एक डंडे पर हंडी लगा देते हैं, दूसरा डंडा हाथ की तरह बना देते हैं, कुर्ता पहना
देते हैं। हंडी पर चाहो तो दाढ़ी-मूंछ भी लगा दे सकते हो, गांधी
टोपी भी पहना दे सकते हो। पशु-पक्षियों को डराने के काम आएगा बिजूका, बस इससे ज्यादा किसी मतलब का नहीं है।
खलील
जिब्रान की एक कहानी है कि मैंने एक बिजूके से पूछा। सुबह-सुबह घूमने निकला था, कोई और था
नहीं, बहुत दिन से मन में जिज्ञासा उठती थी कि यह बिजूका
यहां खड़ा-खड़ा थक जाता होगा--दिन भी खड़ा, रात भी खड़ा; वर्षा हो कि सर्दी हो कि धूप हो, खड़ा ही खड़ा--बेचैन
होता होगा, ऊब जाता होगा।
तो
जयराम जी करके पूछ लिया कि बिजूके भाई, यहां खड़े-खड़े थक जाते होओगे?
वर्षा नहीं देखते, धूप नहीं देखते, सर्दी नहीं, गर्मी नहीं, मौसम
आएं कि जाएं, मगर तुम सतत अपनी तपश्चर्या में लीन यहीं खड़े!
बहुत तपस्वी देखे, बहुत महात्मा, लेकिन
तुम बेजोड़ हो! यह जिज्ञासा मेरे मन में बार-बार उठती है: ऊबते नहीं? बेचैन नहीं होते? कुछ और करने की नहीं सूझती?
इंच भर हिलते नहीं! बिलकुल खड़े श्री बाबा! वहीं खड़े हैं! पैर जमा कर
खड़े हैं!
बिजूके
के ओंठों पर मुस्कुराहट आई,
हंसा, खिलखिलाया और बोला कि नहीं, ऊब नहीं आती। पशु-पक्षियों को डराने में इतना मजा आता है कि ऊबने की
फुर्सत किसे? अरे, चैन कहां? काम-धाम इतना है, व्यस्तता इतनी है।
दुनिया
में बहुत-से तो बिजूके हैं। उनका कुल मजा इतना है कि दूसरे को कैसे डराएं, कैसे
धमकाएं! कोई राजनेता बन कर धमका रहा है, कोई धन इकट्ठा करके
धमका रहा है--सब तरह की दादागिरियां हैं। मगर हैं सब बिजूके। कैसी-कैसी चीजों से
धमका रहे हैं! मौका भर मिल जाए धमकाने का!
कल
मैंने अखबार में खबर पढ़ी कि मोरारजी देसाई को लाल रंग से चिढ़ है। जरूर होगी!
संन्यासियों का रंग है! और मेरे संन्यासियों को देख कर उनको एकदम आग लग जाती है!
और मैं भेजता रहता हूं अपने संन्यासी कि कहीं भी हों जाकर शोरगुल मचा दिया करें!
दर्शन तो उनको दे ही दिए! मगर यह चिढ़ उनकी ऐसी बढ़ गई कि कल अखबार में खबर थी कि जब
वे प्रधानमंत्री थे तो रेडियो स्टेशन दिल्ली ने उनका एक व्याख्यान प्रसारित करने
के लिए अपने एक आदमी को टेप रिकार्डर लेकर १,सफदरजंग--जहां उनका निवास था--भेजा।
प्रधानमंत्री के निवास पर। उस बेचारे को क्या पता, वह लाल
जैकेट पहन कर--जवाहरबंडी लाल पहन कर--पहुंच गया! बस, मोरारजी
ने देखा, कि जैसे बैलों को कोई लाल झंडी बता दे! कि बस वे
एकदम फनफनाने लगते हैं! उनके नासापुट फैल जाते हैं! एकदम भन्ना जाते हैं! वैसे
मोरारजी भन्ना गए! और कहा कि यह लाल बंडी क्यों पहनी? शायद
शक हुआ हो कि मेरा आदमी है। जासूस है या क्या बात है? पूरा
तो संन्यासी नहीं है, मगर लाल बंडी क्यों पहनी? वे इतने क्रुद्ध हो गए कि वह बेचारा कुछ कहे, इसका
मौका ही नहीं मिला। उसको कहा कि निकल जाओ यहां से बाहर! तुमको इतना भी पता नहीं कि
भारतीय संस्कृति में लाल रंग की साड़ियां सिर्फ स्त्रियां पहनती हैं, पुरुष नहीं।
सुनते
हो? शंकराचार्य स्त्री थे! यह जो सुभाषित पूछा है सहजानंद ने, यह शंकराचार्य की विवेक चूड़ामणि से है। रामानुज, निम्बार्क,
वल्लभ, सब स्त्री थे! एक मोरारजी पुरुष पैदा
हुए हैं! यहां पांच हजार वर्षों से संन्यासी गैरिक वस्त्र पहन रहा है और भारतीय
संस्कृति का उसको पता ही नहीं है! मोरारजी देसाई को भारतीय संस्कृति का पता है!
वे
तो फिर इतने गुस्से में आ गए कि उनका व्याख्यान रिकार्ड करने का तो सवाल ही नहीं
था, वह अपना रिकार्डर बचा कर बेचारा भागा! लाल बंडी ने सब गड़बड़ कर दिया।
दूसरों
को डराने का कैसा मजा है! ये सब बिजूके हैं। इनका मजा ही यही है। बड़ा मकान बना
लिया, पड़ोसियों को डरा दिया। झंडा ऊंचा रहे हमारा! ये सब बिजूके हैं, जो इस तरह की बातें करते हैं। अरे, तुम्हारे झंडे
में ऐसा क्या है जो ऊंचा रहे? और काहे को ऊंचा रहे? ठीक से सम्हाल कर अपने सूटकेस में रखो! झंडा ऊंचा रहे हमारा! लेकिन झंडा
ऊंचा रखने का मतलब कुछ और है--डंडा ऊंचा रहे हमारा। झंडा तो बहाना है, असली में तो डंडा है जो भीतर है। जरा गड़बड़ की कि झंडा तो विदा हो जाएगा और
डंडा बाहर आ जाएगा।
तो
लोग अपने-अपने डंडे पर तेल की मालिश कर रहे हैं! दूसरे को डराने का ऐसा मजा है!
खुद को जानने की फुर्सत कहां? सौ में निन्यानबे आदमी तो दूसरों के साथ
प्रतिस्पर्धा में लगे हैं। और कैसी-कैसी मूर्खतापूर्ण प्रतिस्पर्धा में लगे हैं,
होश ही नहीं है।
मुल्ला
नसरुद्दीन मुझे एक दिन रास्ते पर मिले। मैंने कहा, मियां तुम्हारे एक भाई हुआ
करते थे--कल्लन मियां--जुड़वां थे, बहुत दिन से दिखाई नहीं
पड़े वे।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा,
अरे, ले लिया बदला! ले लिया बदला एक ही बार
में। जिंदगी भर का बदला ले लिया। वह दुष्ट कल्लन, उसने मुझे
बहुत सताया। वह जरा मजबूत काठी का था--यूं तो हम जुड़वां थे, मगर
वह जरा मजबूत काठी का था। कुश्तम-कुश्ती में चारों खाने मुझे चित कर देता था।
इसलिए झगड़े में तो कोई सार ही नहीं था। झगड़ने से कोई फायदा ही नहीं था। मेरा सूट
पहने, मेरा कोट पहने, मेरी टाई लगाए।
मेरी छाती जली जाए, मगर कुछ करूं क्या? यहां तक शैतानी की उसने कि स्कूल में प्रथम पुरस्कार मुझको मिला और उसने
उठ कर ले लिया। फिर भी मुझे अपने पर संयम रखना पड़ा, क्योंकि
नहीं तो घर जाकर वह ऐसे पटकने देगा! मुझे निमंत्रण मिले भोजन का किसी के यहां,
वह पहुंच जाए। शकल बिलकुल एक जैसी थी, कोई
पहचान ही न सके। मगर सबसे हद तो तब हो गई जब मेरा एक लड़की से प्रेम हो गया और वह
उस लड़की को ले भागा। तबसे उस हरामजादे को मैं ठीक करने में लगा था। आखिर मैंने
बदला ले लिया।
मैंने
कहा, मुझे बताओ भी तो बदला कैसे लिया!
मुल्ला
नसरुद्दीन बड़ी रहस्यमयी मुद्रा में हंसे और बोले कि मैं मर गया और लोग उसको दफना
आए! अरे, सौ सुनार की एक लोहार की। बस, एक ही बार में जिंदगी
भर का ठिकाना लगा दिया!
क्या-क्या
मजा है! कैसी मूर्च्छा है! ये सौ में से निन्यानबे लोग तो मूर्च्छित हैं, बिलकुल
बेहोश हैं। इन्हें होश नहीं ये क्या कर रहे हैं! इन्हें पता नहीं ये क्यों हैं!
इन्हें यह भी पता नहीं ये क्या हैं!
पायलट
ट्रेनिंग का कोर्स चल रहा था। सरदार विचित्तर सिंह से जब पूछा गया कि मान लो तुम
हवाई जहाज से कूदे और छतरी नहीं खुली, तो ऐसी स्थिति में तुम क्या करोगे?
विचित्तर सिंह ने जवाब दिया: "सर, स्टोर
रूम से जाकर दूसरी छतरी मांग लाऊंगा।'
ओ
मेरे साथी रे,
तेरे बिना भी क्या जीना! सरदार विचित्तर सिंह ने इस प्रसिद्ध फिल्मी
गीत से प्रभावित होकर अपनी प्रेमिका के वियोग में अपने घर के जीने की एक-एक ईंट
उखड़वा कर फिंकवा दी।
ओ
मेरे साथी रे,
तेरे बिना भी क्या जीना। जीना ही तुड़वा दिया! ईंट-ईंट उखड़वा दी!
सरदार
विचित्तर सिंह एक फिल्म बना रहे थे। बड़ी दुस्साहस से भरी फिल्म थी। उसकी शूटिंग चल
रही थी। हीरो के डबल को ऊंची खिड़की से नीचे छलांग लगानी थी। काफी कहने पर भी वह
तैयार न हुआ।
अंततः
सरदार विचित्तर सिंह,
जो निर्देशन कर रहे थे, स्वयं आगे आए और कूद
कर दिखाने के लिए बढ़े। उन्होंने खिड़की से कूद कर दिखाया और सड़क पर पसरे-पसरे ही
कहा, अब समझ गए? समझ गए न कैसे कूदना?
अब खिड़की पर आओ और मेरी तरह छलांग मारो। मगर उससे पहले जरा किसी
डाक्टर को फोन कर दो। मेरी कई हड्डियां टूट गई हैं।
होश
किसको है! ये सौ आदमियों में निन्यानबे तो बेहोश जी रहे हैं। इनको यह भी पता नहीं
कि ये आदमी हैं। कोई हिंदू है--आदमी नहीं; कोई मुसलमान है--आदमी नहीं;
कोई ईसाई है--आदमी नहीं; कोई जैन है--आदमी
नहीं। कोई नीग्रो है, कोई सफेद चमड़ी वाला है, कोई जर्मन है, कोई जापानी है, कोई
हिंदुस्तानी है, कोई पाकिस्तानी--आदमी तो खोजे से न मिले!
तुम किसी से पूछो कि तुम कौन हो, तो शायद ही वह कहे कि मैं
आदमी हूं! शायद ही कहे मैं आदमी हूं! कहेगा--मद्रासी हूं, पंजाबी
हूं, बंगाली हूं, बिहारी हूं, गुजराती हूं, मारवाड़ी हूं, मगर
आदमी? आदमी! इस तरह की चीज कहीं पाई ही कहां जाती है।
सौ
में एकाध कोई आदमी होता है। और सौ आदमियों में से किसी एकाध को मुमुक्षा जगती है।
किसी को होश आता है कि यह जीवन एक बीज है और इस बीज को इसकी अंतिम नियति तक
पहुंचाना है,
अन्यथा व्यर्थ न चला जाए अवसर! सौ में से शायद एक तो आदमी और सौ
आदमियों में से शायद एक अपने जीवन को इस अंतिम खोज में संलग्न करता है, मुमुक्षा से भरता है। मुमुक्षा महंगा सौदा है।
मुमुक्षु
को ही मैं संन्यासी कहता हूं। वह मेरा नाम है। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। मुमुक्षु
कहो कि संन्यासी कहो,
जिसने अपने जीवन को इस अंतिम खोज में संलग्न कर दिया है कि जब तक न
जान लूंगा कि मैं कौन हूं तब तक चैन से न रहूंगा। तब तक क्या चैन से रहना! तब तक
एक-एक पल जो हाथ से जा रहा है वह कभी लौट कर न आएगा। वह लौटने वाला नहीं है। वह
गया सो गया। वह व्यर्थ न चला जाए। एक-एक पल को निचोड़ लूं, आत्म-ज्ञान
में ढाल लूं--ऐसी मुमुक्षा।
सूत्र
ठीक कहता है कि तीन चीजें अदभुत हैं: मनुष्यत्व, फिर मुमुक्षा--संन्यास--और
फिर महापुरुषसंश्रयः। फिर किसी सदगुरु के चरणों में बैठना, फिर
किसी सत्संग में भागीदार होना, फिर किसी बुद्ध पुरुष से जुड़
जाना, फिर किसी जले हुए दीए के पास सरकते आना, सरकते आना, उस समय तक जब तक कि अपना भी बुझा हुआ
दीया जल न जाए।
मुमुक्षा
भी लोगों में पैदा होती है तो भी जरूरी नहीं है कि वे सदगुरु का साथ खोजें।
क्योंकि सदगुरु का साथ खोजने के लिए अहंकार छोड़ना होता है। मुमुक्षा में अहंकार
नहीं छूटता। मुमुक्षा में अहंकार भर भी सकता है। जैसे कृष्णमूर्ति के पास जो लोग
इकट्ठे हुए हैं--तुम दुनिया के छंटे हुए अहंकारियों को वहां बैठा हुआ देखोगे। और
कारण? क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं, न समर्पण करना है,
न दीक्षा लेनी है, न किसी को गुरु मानना है,
तुम स्वयं काफी हो, तुम पर्याप्त हो।
यह
अहंकार को भाषा प्रीतिकर लगती है कि मैं पर्याप्त हूं, मुझे कहीं
झुकना नहीं है। और अगर कहीं झुकना नहीं है तो कृष्णमूर्ति के पास क्या भाड़ झोंक
रहे हो? क्या, किसलिए वहां बैठे हो
जाकर? नदी के किनारे बैठे हो और अंजुलि बनानी नहीं, पानी पीना नहीं--क्योंकि पानी पीने के लिए अंजुलि बनानी पड़े, मुमुक्षा की अंजुलि, पानी पीने के लिए झुकना पड़े,
तब तो अंजुलि में पानी भरोगे, तब तो तुम्हारे
कंठ तक पानी पहुंचेगा--तो घाट पर बैठे क्या कर रहे हो? या तो
डुबकी मारो या रास्ता पकड़ो।
कृष्णमूर्ति
के पास जो लोग बैठे हैं उनको सिर्फ अहंकार की तृप्ति मिल रही है कि बिना झुके
सत्संग हो रहा है। मगर बिना झुके सत्संग होता ही नहीं। समर्पण ही सत्संग है।
तो
तीसरी बात सर्वाधिक कठिन है। मैं कौन हूं इसकी खोज में मैं जो नहीं हूं, मैंने जो
अपने को मान रखा है, वह मेरा जो झूठा मैं है, उसे किसी के चरणों में समर्पित कर देना। कहना कि मुझसे तो छूटे-छूटे यह
नहीं छूटता, लेकिन तुम्हारे निमित्त शायद छूट जाए। तुम्हारे
प्रेम में शायद छूट जाए। महापुरुष का संश्रय, उसका सान्निध्य,
उसका सत्संग।
सूत्र
कहता है: और जब ये तीनों एक साथ मिलें तब तो समझना कि परमात्मा की बड़ी अनुकंपा है।
एक भी मिल जाए तो बहुत,
और तीनों अगर साथ-साथ मिल जाएं तो इसी को कहते हैं कि जब वह देता है
तो छप्पर फाड़ कर देता है। फिर तो इसे परमात्मा का अनुग्रह समझना। यह अपनी पात्रता
नहीं होगी। यह अपना अर्जन नहीं हो सकता। यह तो उसका प्रसाद है, उसकी भेंट है। तब मोक्ष करीब है। आ ही गया। द्वार पर ही खड़े हो। मगर फिर
भी खयाल रहे कि फिर भी चूक सकते हो। आदमी द्वार से भी तो वापस लौट जा सकता है।
कई
बार द्वार करीब आ चुका है तुम्हारे। अनंत-अनंत जन्मों में ऐसा हो ही नहीं सकता कि
द्वार तुम्हारे करीब न आया हो। तुममें से बहुत बुद्ध के करीब पहुंचे होंगे। तुममें
से बहुतों ने महावीर का सान्निध्य पाते-पाते छोड़ दिया होगा। तुममें से बहुतों के
कानों में कृष्ण के वचन पड़ते-पड़ते चूक गए होंगे। तुममें से बहुतों का हाथ जीसस ने
पकड़ना चाहा होगा,
लेकिन तुमने छुड़ा लिया होगा। तुममें से बहुतों के प्राणों में
मोहम्मद की आवाज गूंजते-गूंजते रह गई होगी। इस अनंत काल में, इस अनंत यात्रा में अनंत-अनंत बुद्ध हुए हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम
किसी बुद्ध के पास न पहुंचे हो, कि तुमने नानक और उनके
शागिर्द मस्ताना के गीत न सुने हों, कि तुमने कबीर की
उलटबांसियां न सुनी हों, कि पलटू ने तुम्हें झकझोरा न हो,
कि तुमने रैदास की आंखों में न झांका हो। मगर द्वार आया और चूक गया।
बुद्ध
कहते थे कि यूं समझो कि एक महल है जिसमें हजार दरवाजे हैं और एक अंधा आदमी महल में
अंदर भटक गया है। नौ सौ निन्यानबे दरवाजे बंद हैं, एक दरवाजा खुला है। वह अंधा
आदमी टटोलता है, टटोलता है, टटोलता है,
लेकिन बंद दरवाजे, बंद दरवाजे, बंद पर बंद दरवाजे। नौ सौ निन्यानबे दरवाजे बंद हैं, एक दरवाजा खुला है। और जब वह खुले दरवाजे के करीब आता है तो कभी सोचता है
कि यह भी होगा बंद, इतने तो देख चुका--और बिना टटोले निकल
जाता है। और तुम नाराज मत होना उस पर। क्या कसूर बेचारे का! इतने दरवाजे टटोले,
थक गया टटोलते-टटोलते, सब बंद, तो यह भी बंद ही होगा, ऐसा सोच कर आगे बढ़ जाता है।
चूक गया। फिर नौ सौ निन्यानबे दरवाजों पर भटकेगा तब यह दरवाजा आएगा।
कभी
यूं होता है कि खुले दरवाजे के करीब आता है और एक मक्खी सिर पर बैठ जाती है, और उसको
उड़ाने में ही दरवाजा चूक जाता है। आगे बढ़ जाता है, पैर आगे
निकल जाते हैं। छोटी-छोटी बातें चुका देती हैं। एक मक्खी सिर पर बैठ जाए, खुला दरवाजा चूक जाता है। या एक छोटा-सा तर्क। और तर्कों की कोई कमी है!
आदमी जितने चाहे उतने तर्क दे सकता है। अंधा आदमी भी अपने अंधेपन के बचाव के लिए
तर्क देता है। बहरा आदमी अपने बहरेपन के बचाव के लिए तर्क देता है। क्योंकि तर्कों
से सांत्वना मिलती है।
यह
सत्य वेदांत ने प्रश्न पूछा था न कि डोंगरे महाराज कहते हैं कि गरीबी पाप नहीं है, लेकिन
गरीब का सम्मान करना चाहिए।
अगर
गरीबी पाप नहीं है तो गरीब का सम्मान क्यों करना चाहिए? गरीबी के
कारण? मनुष्यता के कारण सम्मान करो। लेकिन मनुष्यता में क्या
भेद है फिर गरीब और अमीर का, फिर काले और गोरे का! मनुष्य का
आदर करो! लेकिन गरीबी पाप नहीं है, फिर भी गरीब का सम्मान
करना चाहिए! गरीब शब्द का विशेषण क्यों जोड़ते हो?
यह
जो डोंगरे महाराज ने कहा कि गरीब का सम्मान करना चाहिए, यही तो
महात्मा गांधी कह रहे थे कि दरिद्र नहीं है वह, दरिद्रनारायण
है! दरिद्र के रूप में भगवान आए हैं। और जब तुम दरिद्रनारायण का सम्मान करोगे तो
दरिद्रता को मिटाओगे कैसे? हालांकि दरिद्र को भी अच्छा लगता
है कि उसका कोई दरिद्रता के कारण सम्मान करे। सांत्वना मिलती है, अच्छा लगता है, प्रीतिकर लगता है, सुस्वादु लगता है। अमीर का अपमान हो, इससे भी मजा
आता है कि ठीक, मिलना ही चाहिए इसको अपमान। क्योंकि भीतरर्
ईष्या की आग जल रही है। और गरीब का सम्मान हो तो बड़ा सुखद मालूम होता है। जैसे
ठंडी हवा आ गई हो। उत्तप्त तुम थे और ठंडी हवा का झोंका बह गया और शीतल कर गया।
महात्मा
गांधी ने खूब राजनीति चलाई दरिद्र का सम्मान करके। क्योंकि यह देश अट्ठानबे
प्रतिशत तो दरिद्रों से भरा हुआ है, इन्हीं पर राजनीति चलनी है। इनको
दरिद्रनारायण कहो, निश्चित इनका मत तुम्हारे साथ, ये तुम्हें महात्मा कहेंगे। मगर इन गरीबों को यह पता नहीं कि इनकी गरीबी
का जितना सम्मान किया जाएगा उतनी ही यह गरीबी टिकेगी, बचेगी।
यह तर्क खतरनाक है, यह महंगा है।
मैं
तुमसे कहता हूं: सबका सम्मान करो! क्या गरीब और अमीर का भेद करते हो! सम्मान जीवन
का करो! मगर दरिद्र का सम्मान करना चाहिए, तो उसका तो मतलब हुआ कि दरिद्रता
के कारण! और अगर दरिद्रता के कारण सम्मान करना है तब तो निश्चित ही उसको दरिद्र
बने रहना चाहिए अगर सम्मान पाना हो। और कोशिश करो कि वह दरिद्र बना रहे ताकि
बेचारे को सम्मान मिलता रहे; नहीं तो कौन सम्मान देगा! जिस
दिन अमीर हो जाएगा उस दिन कोई सम्मान देने वाला न मिलेगा। दरिद्र रहेगा तो नारायण
है और अमीर हो गया तो चूक गया, भटक गया। गरीबी को आदर दोगे
और गरीबी को मिटाना चाहते हो!
और
मैं तुमसे कहता हूं कि निश्चित ही डोंगरे महाराज का यह वक्तव्य किसी और अर्थ में
सही है। उन्होंने कहा कि गरीबी पाप नहीं है। इस अर्थ में सही है कि गरीब का जिम्मा
गरीब होने में नहीं है--जैसा कि कहा जाता रहा है कि पिछले जन्मों का पाप भोग रहा
है। लेकिन, गरीबी पाप तो है। सामाजिक पाप है, व्यक्तिगत पाप
नहीं है। पूरा समाज जिम्मेवार है। यह कोढ़ जो गरीबी का है, इसकी
जिम्मेवारी समाज पर है। और उस समाज में भी सर्वाधिक जिम्मेवारी तुम्हारे साधु-महात्माओं
की है, जिन्होंने गरीब को तर्क दिए गरीब बने रहने के। गरीब
को अच्छे लगे, अमीर को भी अच्छे लगे।
अमीर
को इसलिए अच्छे लगे कि गरीब गरीब बना रहे तो अमीर अमीर बना रहे। और गरीब को अच्छे
लगे कि मेरी गरीबी कोई साधारण बात नहीं, बड़ी आध्यात्मिक बात है। अरे देखो,
बुद्ध ने भी महल छोड़ दिया। बुद्धत्व पाने के पहले गरीब हो जाना पड़ा।
महावीर ने भी राजपाट छोड़ दिया। यह सम्मान है गरीबी का। यह सत्कार है गरीबी का। यह
इस बात की स्वीकृति है कि गरीब होना परम सत्य को पाने के लिए अपरिहार्य है। तो
परमात्मा की बड़ी कृपा है जो मुझे गरीब बनाया, भिखमंगा बनाया,
दीनऱ्हीन बनाया, दुखी बनाया, बीमार बनाया। इस तरह अमीर को भी सुविधा मिल गई कि क्रांति से बचाव हो और
गरीब को सांत्वना मिल गई कि वह गरीबी में भी सुख लेने लगा, अपनी
बीमारी में भी समझने लगा कि यह आभूषण है, हीरे-जवाहरात जड़े
हैं।
इस
तरह की थोथी बातें और थोथे तर्क आदमी खोजता चला जाता है। एक के बाद एक खोजता चला
जाता है। और अच्छे-अच्छे प्यारे लगने वाले तर्क खोज लेता है। कहता है, विधाता ने
लिखा होगा भाग्य में तो होगा ज्ञान। अरे, बिना उसके तो पत्ता
भी नहीं हिलता तो कोई कैसे बुद्धत्व को प्राप्त होगा! जब उसकी कृपा होगी तो
बुद्धत्व भी मिलेगा, अपनी तरफ से क्या करना है!
इसका
परिणाम हुआ कि देश काहिल हुआ, सुस्त हुआ। अच्छी लगे बात या बुरी लगे, तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों का हाथ है तुम्हारी काहिलता में, तुम्हारी सुस्ती में, तुम्हारी गरीबी में, तुम्हारी दरिद्रता में। और जब तक हम इस बात से सजग न हो जाएं तब तक इस देश
से गरीबी को मिटाया नहीं जा सकता है। तो अच्छे-अच्छे तर्क आदमी खोज सकता है। गलत
से गलत बातों के लिए सुंदर से सुंदर छाते बचाव बन सकते हैं।
तो
पहले तो यही तर्क उठता है मन में कि मनुष्य की भांति पैदा हुआ, अब और
क्या मनुष्यता पानी है? यह तो हम पैदा ही मनुष्य हुए हैं। बस
वहीं रुकाव आ गया। या सोच सकता है कि जिज्ञासा ही तो मुमुक्षा है। अच्छे-अच्छे
प्रश्न पूछना कि ईश्वर है या नहीं, आत्मा है या नहीं--और
क्या करना है मुमुक्षा में? शास्त्र पढ़ेंगे, अध्ययन करेंगे, शास्त्रीयता को वरण कर लेंगे--और
क्या है मुमुक्षा? तो मुमुक्षा रुक गई। और फिर अहंकार कहेगा,
किसी की शरण क्यों जाना? क्यों किसी के चरण
गहने? क्यों कहीं समर्पण करना? अरे खुद
ही खोजेंगे। स्वयं ही पा लेंगे। तो महापुरुष का संश्रय, उसका
सान्निध्य, उसका सत्संग, इससे वंचित हो
गए। द्वार तो तुम्हारे करीब आ जाता है, मगर तुम द्वार से
निकल जा सकते हो। और कई बार यूं भी हो सकता है कि तुम द्वार पर चेष्टा भी करो,
लेकिन चेष्टा गलत हो।
जैसे
रामतीर्थ ने कहा है कि एक आदमी एक दरवाजे पर धक्का दे रहा था, खुलता ही
न था, खुलता ही न था। रामतीर्थ ने देखा तो कहा कि मेरे भाई,
जरा दरवाजे पर देखो तो कि क्या लिखा है? दरवाजे
पर लिखा था: पुल। पुश नहीं। और वह धक्के मार रहा था। धक्के मारने से दरवाजा नहीं
खुल सकता था। खींचने से खुलने वाला था। अपनी तरफ खींचने से खुलने वाला था। थोड़ा
पढ़ो भी तो, थोड़ा गौर से देखो भी तो कि दरवाजे पर क्या लिखा
है! दरवाजे पर खड़े हो और खुद ही अपने हाथ से चूक रहे हो।
तो
यूं भी हो जाता है कि कोई मनुष्य होने की चेष्टा में भी संलग्न हो जाए, मुमुक्षा
भी करे, सदगुरु भी मिल जाए, दरवाजे पर
खड़ा हो, लेकिन पढ़े ही न कि दरवाजे पर क्या लिखा है और उलटा
करता रहे। क्योंकि सुनोगे तो तुम, अर्थ तुम करोगे। मैं कुछ
कहूंगा, तुम कुछ सुन लोगे। मैं कुछ कहूंगा, तुम कुछ अर्थ कर लोगे। तो भी चूक जाओगे।
सदगुरु
के पास तो शून्य होकर बैठना पड़ता है। अपनी बुद्धि को विदाई ही दे देनी होती है।
कठिन काम है। क्योंकि तब ऐसा डर लगता है कि अपनी बुद्धि को विदा कर दिया तो फिर
निर्णय कैसे करेंगे?
मगर तुम्हारी बुद्धि अगर निर्णय कर सकती होती तो किसी के सान्निध्य
की जरूरत ही न थी। नहीं निर्णय कर सकती तो इस बुद्धि को जाने दो। इसको विदा दे दो।
इसको अलविदा कहो। इसको विदा देते ही तुम्हारी आंखें निर्मल हो जाएंगी, तुम्हारा हृदय सरल हो जाएगा। और तब जो कहा जाएगा वही तुम सुनोगे। जो तुम
देखोगे, वह वही होगा जैसा है। उसे तुम विकृत न करोगे। उसे
तुम अपने ढंग से, अपनी व्याख्या से अपना रंग न दोगे। उसमें
पक्षपात नहीं होगा।
कल
अरूप मेरे पास हालैंड से एक पत्र लाई। हालैंड की पार्लियामेंट ने मेरे संबंध में
खोजबीन करने के लिए कमेटी नियुक्त की है। क्योंकि हालैंड में संन्यासियों की
संख्या रोज बढ़ती जाती है। घबड़ाहट भारी हो गई है खड़ी। क्योंकि जब पार्लियामेंट में
कमेटी बनानी पड़े तो उसका अर्थ होता है कि मामला सीमा के बाहर हुआ जा रहा है।
हालैंड के गांव-गांव में,
छोटे से छोटे गांव में भी संन्यासी पहुंच गए हैं। जगह-जगह आश्रम और
जगह-जगह ध्यान-केंद्र बन गए हैं।
तो
उन्होंने कमेटी बनाई है और कमेटी ने मेरे प्रत्येक आश्रम को हालैंड में सूचना भेजी
है कि आप इतनी बातों की सूचनाएं हमें दें और पत्र लिखा है। पत्र में यह लिखा है कि
हम बिलकुल निष्पक्षता से,
पक्षपातरहित होकर इस बात की जांच करना चाहते हैं कि आप जो कार्य कर
रहे हैं उससे मनुष्य का हित होगा कि अहित होगा। और जिनके नाम हैं नीचे, उनमें कोई ईसाई पादरी है, कोई कैथोलिक है, कोई प्रोटेस्टेंट है--सब ईसाई हैं।
तो
हालैंड के मेरे संन्यासियों ने ठीक उत्तर दिया है। उन्होंने लिखा कि पहले यह तो आप
बताएं कि आप कैसे बिना पक्षपात के हम पर विचार करेंगे? आप खुद
ईसाई हैं। और जब आप ईसाई हैं तो आप क्या बिना पक्षपात के निर्णय कर सकते हैं! और
आपको क्या हक है हम पर विचार करने का?
जब
अरूप ने मुझे यह पत्र बताया तो मैंने कहा कि उनको लिखो कि वे भी एक कमेटी बनाएं और
सारे चर्चों को भेज दें कि हम पक्षपातरहित होकर ईसाइयत के संबंध में यह खोज करना
चाहते हैं कि दो हजार साल में तुमसे मनुष्यता को कुछ लाभ हुआ कि नुकसान हुआ! और हम
बिलकुल पक्षपातरहित होकर विचार करेंगे। क्योंकि मेरे संन्यासी निश्चित ही
पक्षपातरहित होकर विचार कर सकते हैं, क्योंकि मेरे संन्यासी न ईसाई हैं,
न हिंदू हैं, न मुसलमान हैं, न जैन हैं, न बौद्ध हैं, न
यहूदी हैं। मेरे संन्यासी तो सिर्फ धार्मिक हैं। उनका कोई विशेषण नहीं है।
धर्मरहित उनकी धार्मिकता है। संप्रदायरहित उनकी निष्ठा है।
तो
उनको लिखो कि हम निष्पक्ष होकर विचार कर सकेंगे। और तुम्हारा दो हजार साल का जो
कृत्यों का इतिहास है,
वह पर्याप्त प्रमाण है कि तुमसे हित हुआ या अहित हुआ। तुम क्या खाक
हमारे संबंध में विचार करोगे! तुम हो कौन? तुम्हें यह हक
किसने दिया? और पहले अपने भीतर तो जांच-पड़ताल करके देख लो कि
तुम्हारे दो हजार साल सिवाय हिंसा के... लहूलुहान कर गए हैं इतिहास के पृष्ठों को।
ईसाइयों ने जितना रक्त बहाया है उतना किसी और ने नहीं। मुसलमानों को भी मात दे दी
है। तो थोड़ा अपने पर तो विचार कर लो!
लेकिन
उन्होंने लिखते समय यह सोचा भी न होगा कि हम सब ईसाई हैं और हम पक्षपातरहित होकर
कैसे विचार करेंगे!
मैंने
खबर भिजवाई संन्यासियों को,
उनको कहना कि तुम्हारे कोई भी ईसाई संत ने, महात्मा
ने बुद्ध पर कुछ कहा है, महावीर पर कुछ कहा है, कृष्ण पर कुछ कहा है, लाओत्सू पर कुछ कहा है,
च्वांग्त्सू पर कुछ कहा है, बोकोजू पर कुछ कहा
है, बहाउद्दीन, जलालुद्दीन, मंसूर पर कुछ कहा है? सिवाय जीसस के उन्होंने किसी
पर कुछ नहीं कहा।
मैं
शायद अकेला आदमी हूं पृथ्वी पर, पहला आदमी हूं, जो जीसस
पर बोला है, जो बाइबिल पर बोला है, जिसने
धम्मपद पर बोला है, जिसने महावीर पर बोला है, जिन-सूत्रों पर बोला है, जिसने उपनिषद पर, जिसने कृष्ण पर, जिसने लाओत्सू पर, जिसने इस पृथ्वी के सारे धर्मों पर एक निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया है--क्योंकि
मेरा कोई पक्ष नहीं है, मेरा कोई अपना धर्म नहीं है। इसलिए
जब मैं महावीर पर बोला हूं तो मैंने महावीर को ही अपने भीतर से बोलने दिया है,
जरा बाधा नहीं डाली। और जब बुद्ध पर बोला हूं तो बुद्ध को अपने भीतर
से बोलने दिया है।
लेकिन
पक्षपात ऐसे गहरे बैठ जाते हैं कि जिन्होंने यह पत्र लिखा है उनको यह खयाल भी न
आया होगा कि अपने नामों के साथ हम लिख रहे हैं कि हम कैथोलिक हैं, हम
प्रोटेस्टेंट हैं, हम इस संप्रदाय के मानने वाले, उस संप्रदाय के मानने वाले। और फिर भी तुम सोचते हो कि तुम पक्षपातरहित हो
और तुम पक्षपातरहित होकर विचार करोगे!
सदगुरु
के साथ बैठना हो तो सारे पक्षपात छोड़ देने होते हैं। तभी संभव है कि सत्संग हो।
तभी संभव है कि सत्य का आदान-प्रदान हो। मोक्ष तो करीब आ जा सकता है, लेकिन तुम
अपने पक्षपातों के कारण चूक सकते हो।
सहजानंद, यह सूत्र
सच में अमृत वचन है--
दुर्लभं
त्रैयमेवैवत् देवानुग्रह हेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुयं
महापुरुषसंश्रयः।।
मनुष्य
की चेतना पाना,
मुमुक्षा की दृष्टि पाना, महापुरुष का आश्रय,
ये तीनों अति दुर्लभ हैं अलग-अलग भी और जब एक साथ मिलें तब तो मानना
कि परमात्मा का अनुग्रह है। मोक्ष फिर बिलकुल करीब है। यूं सामने रहा। लेकिन फिर
भी चूक सकते हो, क्योंकि मूर्च्छा भारी है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आप जरूर मजाक कर रहे थे। यह कैसे हो सकता है कि
बच्चे और बूढ़ों से ज्यादा प्रतिभाशाली हों?
कन्हैयालाल गोरक्षक, जय हो कन्हैयालाल की! इतना भी समझे
तो बहुत समझे। कुछ तो समझे। क्योंकि मजाक समझने के लिए भी थोड़ी बुद्धि तो चाहिए।
गोरक्षकों में इतनी भी नहीं होती। गऊमाता का दूध पीते-पीते हालत बैलों की हो जाती
है। चलो, थोड़ा मजाक और सही।
अध्यापक
ने शैतानी करते हुए छात्र से कहा: "टिल्लू, शांति के साथ बैठो।'
टिल्लू
ने कहा: "सर,
शांति तो आज स्कूल आई ही नहीं।'
और
तुम कहते हो बच्चे प्रतिभाशाली नहीं होते। बहुत प्रतिभाशाली होते हैं।
अध्यापक
ने कहा: "टिल्लू,
जब मैं तुम्हारी उम्र का था तो तुमसे एक क्लास आगे था।'
टिल्लू
ने कहा: "सर,
आपको अच्छा अध्यापक मिला होगा।'
"जब इस स्त्री की अपने पति के साथ लड़ाई हुई तब क्या तुम वहां मौजूद थे?'
जज ने पूछा।
"जी हां,' चौदह वर्षीय फजलू ने जवाब दिया।
"क्या गवाह की हैसियत से तुम्हें कुछ कहना है?'
"जी हां, यही कि मैं कभी शादी न करूंगा।'
चौदह
वर्ष का बच्चा भी समझ लेता है।
"आ जाओ, आ जाओ, कुत्ते से डरो
मत।' चंदूलाल के बेटे टिल्लू गुरु ने घर आए हुए मेहमान से
कहा: "अरे आ जाओ, आ जाओ।'
मेहमान
ने पूछा: "बेटा,
क्या यह काटता नहीं?'
टिल्लू
गुरु बोले: "यही तो देखना चाहता हूं। मैंने इसे आज ही खरीदा है।'
अध्यापक:
"अगर पचास मेहमानों के लिए एक मन दूध काफी हो, तो सौ मेहमानों के लिए
कितने दूध की आवश्यकता होगी?'
टिल्लू
बोले: "गुरु जी,
दूध तो इतना ही काफी होगा, हां, पानी कुछ अधिक ही डालना पड़ेगा।'
अध्यापक
ने कहा: "हवाई जहाज का आविष्कार किसने किया?'
फजलू
बोले: "सर,
मेरे पिता मुल्ला नसरुद्दीन ने।'
अध्यापक
ने गुस्से से कहा: "क्या बकते हो!'
फजलू
ने कहा: "सर,
आपने ही तो कहा था कि अपने पिता का नाम रोशन करना चाहिए।'
शिक्षक
ने पूछा: "बंटी,
बताओ जिस व्यक्ति का जन्म अठारह सौ चालीस में हुआ हो, अब उसकी उम्र क्या होगी?'
बंटी
ने कहा: "पहले यह बताइए जी, वह आदमी है या औरत?'
स्कूल
में शिक्षक नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे। बोले: "यदि मैं किसी लड़के को देखूं कि
वह गधे को मार रहा है और मैं उसे गधे को मारने से रोकूं तो मेरी इस नेकी को क्या
कहा जाएगा?'
टिल्लू
बोला: "भाईचारा।'
कन्हैयालाल, प्रतिभा
तो बच्चों में बहुत होती है। प्रतिभा का अर्थ सूचना का संग्रह मत समझ लेना। सूचना
का संग्रह नहीं होता, लेकिन देखने की एक सरलता होती है,
स्वच्छता होती है। उसी को मैं प्रतिभा कह रहा हूं। जानकारी कम होती
है, निश्चित ही जानकारी बूढ़े में ज्यादा होगी, क्योंकि वह जीया है इतने दिन तो जानकारी उसकी ज्यादा होगी, लेकिन उसकी जानकारी के कारण ही उसकी प्रतिभा दब जाती है। बच्चे में
प्रतिभा होती है, जानकारी नहीं होती। प्रतिभा का अर्थ होता
है: अभी कोई पर्दा नहीं, कोई आड़ नहीं, सीधा-सीधा
देखता है। और इसीलिए बच्चे बूढ़ों को अखरते हैं। क्योंकि बच्चे ऐसी बातें कह देते
हैं जो बूढ़ों को तकलीफ में डाल दें।
"तुम्हारी मां आज ही बीमार पड़ीं और आज ही ठीक भी हो गईं। डाक्टर ने क्या
दवा दी थी, बेटे?' पड़ोसिन ने टिल्लू
गुरु से पूछा।
"कुछ नहीं आंटी, वह मम्मी के कान में फुसफुसा कर बोला,
यह आपकी बढ़ती हुई उम्र का संकेत है। बस, मम्मी
उठ कर खड़ी हो गईं और पापा को डांटने लगीं।'
चाची:
"जब तुम्हारे चाचा लकड़ी की सीढ़ी से फिसल कर गिर पड़े थे, टिल्लू,
तो उन्होंने क्या कहा?'
टिल्लू
ने कहा: "चाची,
उनकी दी हुई गालियां तो छोड़ ही दूं न?'
चाची
बोली: "हां बेटा,
गालियां तो बिलकुल ही छोड़ दो।'
टिल्लू
बोला: "तो चाची,
उन्होंने कुछ भी नहीं कहा।'
आखिरी सवाल: भगवान,
लगन महूरत झूठ सब, रसमलाई है सच्ची।
बड़े-पकौड़े साथ हों, तो समाधि है पक्की।।
कृपया कुछ कहें।
प्रताप,
सब तुमने कह ही दिया। सत्य-वचन, महाराज। आप तो
सत्य ही वदंते। सत्य ही बोलंते, सत्य ही करंते, सत्य ही रहंते। आपका नाम तो आज से हो गया: सच्चा बाबा। ऐसी ही जगह तो
देवता रमंते। और फिर भी दुष्टजन पूछंते कि कायकूं रमंते?
सुबह
ही सुबह पलटू मिल गए तो मैंने उनसे कहा, सुन लो, यह
प्रताप क्या कहते हैं! ये सच्चा बाबा क्या कहते हैं! तुमने तो कहा--
पलटू
सुभ दिन सुभ घड़ी,
याद पड़ै जब नाम।
लगन
महूरत झूठ सब,
और बिगाड़ैं काम।।
लेकिन
सच्चा बाबा ने तो तुमको भी,
पलटू, पलटंते! खूब दुलत्ती मारंते। उनका भी
होश ठिकाने आवंते। तत्क्षण पलटू उदास होवंते। जार-जार रोवंते। मैंने कहा: कायकूं
रोवंते, भाई? बोले: ऐसी ज्ञान की
बातें। हाय दैय्या। कलियुग आ गया भैया।
आज इतना ही।
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