कुल पेज दृश्य

बुधवार, 3 मई 2017

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-06



ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
जीवन जीने का नाम है-(प्रवचन-छट्ठवां)
छठवां प्रवचन; दिनांक २६ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,
ऋतस्य यथा प्रेत।
अर्थात प्र्राकृत नियमों के अनुसार जीओ।
यह सूत्र ऋग्वेद का है।
भगवान, हमें इसका अभिप्रेत समझाने की कृपा करें।
आनंद मैत्रेय

यह सूत्र अपूर्व है। इस सूत्र में धर्म का सारा सार-निचोड़ है। जैसे हजारों गुलाब के फूलों का कोई इत्र निचोड़े, ऐसा हजारों प्रबुद्ध पुरुषों की सारी अनुभूति इस एक सूत्र में समायी हुई है। इस सूत्र को समझा तो सब समझा। कुछ समझने को फिर शेष नहीं रह जाता।
लेकिन इस सूत्र का इतना ही अर्थ नहीं है कि प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ। सच तो यह है कि "ऋत' शब्द के लिए हिंदी में अनुवादित करने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए समझने की कोशिश करो। प्राकृत शब्द से भूल हो सकती है। निश्चित ही वह एक आयाम है ऋतु का। लेकिन बस एक आयाम। ऋतु बहु आयामी है। जिसको लाओत्सु ने "ताओ' कहा है। उसको ही ऋग्वेद ने ऋतु कहा  है। जिसको बुद्ध  ने "एस धम्मो सनंतनो' कहा है, "धम्म' कहा है, वही ऋत का अर्थ है।

ऋत का अर्थ: जो सहज है, स्वाभाविक है; जिसे आरोपित नहीं किया गया है आविष्कृत किया गया है; जो अंतस है तुम्हारा, आचरण नहीं, जो तुम्हारी प्रज्ञा का प्रकाश है, चरित्र  की व्यवस्था नहीं; जिससे यह सारा जीवन अनुस्यूत है; जिसके आधार से सब ठहरा है, सब चल रहा है; जिसके कारण अराजकता नहीं है। वसंत आता है और फूल खिलते हैं। पतझड़ आता है और पत्ते गिर जाते हैं। वह अद्दश्य नियम, जो वसंत को लाता है और पतझड़ को। सूरज है, चांद है, तारे हैं। यह विराट विश्व है और कोई अराजकता नहीं है। सब सुसंबद्ध है। सब संगीतपूर्ण है। इस लयबद्धता का नाम ऋतु है।
इतने विराट विश्व के भीतर अकारण ही इतना सुनियोजन नहीं हो सकता। कोई अद्दश्य ऊर्जा सबको बांधे हुए है। सब समय पर हो रहा है। सब वैसा हो रहा है  जैसा होना चाहिए, अन्यथा नहीं हो रहा है। यह जो जीवन की आंतरिक व्यवस्था है...न तो वृक्षों से कोई कह रहा है कि हरे हो जाओ, न पत्तों को कोई खींच-खींच कर उगा रहा है...। बीज से वृक्ष पैदा होता है, वृक्षों में फूल लग जाते हैं। सुबह होती है, पक्षी गीत गाते हैं।
संगीत में कोई बांसुरी बजाता है तो हम कहेंगे सुंदर है कोई सितार बजाता है, वह भी सुंदर है और कोई तबला बजाता है, वह भी सुंदर है। लेकिन जब बहुत से वाद्य एक साथ किसी एक राग और एक लय में नियोजित हो जाते हैं, जब सारे वाद्यों का संगीत मिल कर एक प्रवाह बनता है--तब जो रस है, तब जो संगीत है, तब जो सौंदर्य है, वह एक-एक वाद्य का नहीं हो सकता। और अगर सारे वाद्य अलग-अलग संगीत पैदा करें तो सिर्फ शोरगुल पैदा होगा, संगीत नहीं पैदा होगा।
यह विश्व एक आर्केस्ट्रा है। और जिस सत्य के कारण यह आर्केस्ट्रा है, कि बांसुरी तबले से बंध कर बज रही है, तबला सितार से बंध कर बज रहा है, सब एक दूसरे से बंध कर बज रहे हैं, कोई किसी के विपरीत नहीं है, कहीं कोई संघर्ष नहीं है, सहयोग है--ऋत शब्द में सब समाया  हुआ है। इसलिए ऋत का अर्थ समझो: धर्म। प्राकृत होना उसका एक अंग है।
जैसे आग का धर्म है गर्म होना और पानी का धर्म है नीचे की तरफ प्रवाहित होना और मनुष्य का  धर्म है परमात्मा की तरफ ऊपर उठना। जैसे अग्नि की लपट ऊपर की ओर ही जाती है, चाहे तुम दीए को उलटा भी कर दो तो भी ज्योति ऊपर की तरफ ही जाएगी, ज्योति उल्टी नहीं होगी--ऐसे ही सारा जीवन प्रवाहित हो रहा है किसी अज्ञात शिखर की ओर! किसी ऊंचाई को छूने के लिए एक गहरी अभीप्सा है। किसी सत्य को जानने की प्यास है। उस परम सत्य का नाम ऋत है।
लाओत्सु ने कहा, उसका कोई नाम नहीं, इसलिए मैं उसको "ताओ' कहूंगा। वेद भी कहते हैं, उसका कोई नाम  नहीं, हम उसे ऋत कहेंगे। ऋत शब्द से ही ऋतु बना है। ऋतु का अर्थ है: पता नहीं कौन अज्ञात हाथ कब मधुमास ले आते हैं, मगर नियोजित, सुसंबद्ध, संगीतपूर्ण! कब हेमंत आ जाता है, कब वसंत आ जाता! कैसे आता है! न  कहीं कोई आज्ञा सुनायी पड़ती है, न कहीं ढोल पीटे जाते, न कहीं नोटिस लगाए  जाते। कोई किसी को कुछ कहता नहीं। पता नहीं कैसे फूलों  को खबर हो जाती है! पता नहीं कैसे पक्षियों को पता चल जाता है! पता नहीं कैसे मेघ घिर आते हैं, मोर नाचने लगते हैं! पता नहीं कैसे, यह जो अज्ञात सबको समाए हुए है अपने में, यह जो अज्ञात सबके भीतर यूं समाया हुआ है जैसे माला के मनकों में धागा पिरोया होता है! यूं तो फूलों का ढेर भी लगा सकते हो, मगर फूलों का ढेर ढेर ही है। लेकिन धागा पिरो दो, इन्हीं फूलों में, तो माला बन जाए। और माला ही अर्पित हो सकती है।
यह जगत फूलों का ढेर नहीं, एक माला है। और माला परमात्मा के चरणों में अर्पित की जा सकती है। यह सारा जगत, जैसे-जैसे तुम समझोगे वैसे-वैसे पाओगे--संगीतपूर्ण है, लयबद्ध है।
तुम अपने ही भीतर देखो। वैज्ञानिक आज तक नहीं खोज पाए कोई उपाय कि रोटी कैसे खून बन जाती है। नहीं तो वैज्ञानिक रोटी से सीधा खून बना लें। रक्तदान की, अस्पतालों में रक्त के बैंक बनाने की ऐसी कोई जरूरत न रह जाए, लोगों से रक्त मांगना न पड़े, मशीन में ही इधर रोटी डाली पानी डाला और दूसरी तरफ ये रक्त निकाल लिया। विज्ञान इतना विकसित हुआ है, फिर भी अभी छोटी सी बात पकड़ में नहीं आ सकी कि कैसे रोटी रक्त बन जाती है। और तुम बनाते हो, ऐसा तो तुम सोचोगे भी नहीं,भूल कर भी नहीं कह सकते हो  कि तुम बनाते हो। तुमने रोटी तो गले के नीचे कर ली, इसके बाद तुम्हें पता नहीं कि क्या होता है, कौन सब सम्हाल जाता है? कैसे रोटी टूटती है, कैसे रक्त बनती है, कैसे मांस मज्जा बनती है? वही रोटी तुम्हारी मस्तिष्क की ऊर्जा बनती है। वही रोटी वीर्य कण बनती है। उसी रोटी से जीवन की धारा बहती है। तुम्हारा जीवन ही नहीं, तुम्हारे बच्चों का जीवन भी उस रोटी से निर्मित होता है। तुम्हारे भीतर एक अदभुत कीमिया काम कर रही है। बस कीमिया का नाम ऋत है।
तुम क्यों सांस लेते हो, कैसे सांस लेते हो? अक्सर हम सोचते हैं, हम सांस लेते हैं। वहां बड़ी भूल है, बुनियादी भूल है। हम सांस नहीं लेते । अगर हम सांस लेते होते, तब तो किसी का मरना संभव ही नहीं था। मौत आती और हम सांस लिए चले जाते। हम कहते हम तो सांस लेंगे, तो मौत क्या करती? लेकिन जब सांस चली जाती है बाहर और नहीं भीतर लौटती, तो कोई उपाय नहीं है हमारे पास उसे भीतर लौटा लेने का। गयी  तो गयी। हम श्वास लेते हैं, यह भ्रांति है। श्वास हमें लेती है, यह ज्यादा बड़ा सत्य होगा। ज्यादा सही होगा कि श्वास हमें लेती है।
यह हमारा अहंकार है, नहीं तो ऋत को समझने में जरा भी अड़चन न हो। तुम्हारे भीतर भी ऋत समाया हुआ है। तुम्हारी हर सांस उसकी गवाही है।। कौन ले रहा है श्वास तुम्हारे भीतर? तुम तो नहीं ले रहे हो, यह पक्का है।। नहीं तो रात नींद में कैसे लोगे जब तुम सो जाते हो? यह शराब पीकर जब तुम बेहोश होकर नाली में गिर जाते हो, जब यह भी होश नहीं रहता कि नाली है, जब यह भी  होश नहीं रहता कि कहां गिर पड़ा हूं, जब यह भी होश नहीं रहता  कि कौन हूं...।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात शराब पीकर लौटा। सामने ही उसके दरवाजे पर बिजली का खंभा है। दूर से ही उसने देखा खंभे को, तो खंभे से बच कर निकलने की कोशिश की कि कहीं टकरा न जाऊं।  यूं काफी जगह है खंभे के दोनों तरफ। और खंभे की मोटाई ही क्या होगी--छह इंच। कोई उससे टकराने का कारण न था। कोई अंधा भी निकलता तो सौ में एक ही मौका था कि टकराता। मगर वह बचकर निकलने की कोशिश की कि कहीं टकरा न जाऊं और टकरा गया। बचकर निकलने में एक खतरा है टकराने का।
अगर तुमने नयी-नयी साइकिल चलानी सीखी हो तो तुम्हें पता होगा, साठ फीट चौड़ा रास्ता, और रास्ते के किनारे लगा हुआ एक मीन का पत्थर। वह बेचारा हनुमान जी की तरह अलग बैठा हुआ है, उसको कुछ लेना-देना नहीं तुम्हारी साइकिल से, तुमसे। मगर दूर से ही वह जो लाल हनुमान जी दिखाई पड़ते हैं मील के पत्थर के, सिक्खड़ साइकिल वाले को घबराहट होती है कि कहीं पत्थर से टकरा न जाऊं। और टकराता है, उसी पत्थर से जाकर टकराता है। साठ फीट चौड़े रास्ते पर साठ मील लंबे रास्ते पर, एक छोटा-सा पत्थर जिसमें कोई बहुत निशानेबाज भी अगर तीर मारना चाहता तो शायद चूक जाता, मगर नया सिक्खड़ नहीं चूकता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं  कि जिससे हम बचना चाहते हैं उस पर हमारी आंखें आरोपित हो जाती हैं। स्वाभावतः, उससे बचना है तो हमारा सारा चित्त उसी पर केंद्रित हो जाता है। और सब भूल जाता है, सारी नजर वहीं टिक जाती है, सारे प्राण वहीं अटक जाते हैं। वह साठ फीट चौड़ा रास्ता भूल गया, बस वे हनुमान जी दिखाई पड़ने लगे। अब तुम लाख भीतर-भीतर हनुमान चालीसा पढ़ो, कि कहो कि जय बजरंग बली, बचाओ बजरंग बली! मगर अब कुछ न होगा, आंखें तुम्हारी टिकी हैं। इसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं: आत्म सम्मोहन। तुम सम्मोहित हो गए हो पत्थर से। अब वह पत्थर तुम्हें खींच रहा है। पत्थर का कोई हाथ नहीं है, तुम्हारा ही सब खेल है। और सिक्खड जाकर उसी पत्थर से टकराता है। और सोचता भी है कि माजरा क्या है, इतने बड़े रास्ते पर, खाली पड़े रास्ते पर टकरा क्यों गया! मगर उसके पीछे मनोवैज्ञानिक सूत्र है, वह आत्म-सम्मोहित हो गया, उसकी आंखें अटक गयीं। बचने की कोशिश में वह सारा रास्ता भूल गया। बस पत्थर ही याद रहा। और पत्थर याद रहा तो चल पड़ा पत्थर की तरफ। जितना बचाने लगा उतना ही पत्थर की तरफ चल पड़ा। इस सूत्र को खयाल में रखना।
तो शराबी तो और भी जल्दी सम्मोहित हो जाता है। शराब का अर्थ ही इतना होता है कि वह तुमसे तुम्हारा होश छीन लेती है। और जहां होश नहीं है वहां सम्मोहित हो जाना है; किसी भी चीज से सम्मोहित हो जाने में कोई अड़चन नहीं है; किसी भी कल्पना में जकड़ जाने में कोई अड़चन नहीं है।
मुल्ला बिलकुल सम्हल कर चला कि खंभे से बच कर निकलना है और टकरा ही गया खंभे से जाकर। बड़ी जोर से चोट लगी। लौटा दस कदम पीछे। फिस से कोशिश की कि बच कर निकल जाऊं। अब की दफा और बुरी तरह टकराया। खयाल रखना, जिस चीज से तुम एक बार टकरा गए तो उससे फिर अगर कोशिश करोगे बच कर निकलने की तो निश्चित ही टकराओगे। तीसरी बार और मुश्किल हो गयी। चौथी बार, पांचवी बार, छठवीं बार...तब वह एकदम घबड़ाया और जोर से चिल्लाया कि, हे प्रभु, बचाओ! लगता है मैं खंभो के जंगल में खो गया हूं! उसको लगा कि खंभे ही खंभे हैं चारों तरफ, जहां जाता हूं खंभे से ही टकराता हूं! वहां एक ही खंभा है कुल जमा।
एक पुलिस वाले ने किसी तरह पकड़ कर उसे उसके दरवाजे पर पहुंचा दिया और कहा कि कोई जंगल वगैरह नहीं है, एक खंभा है। और मैं खड़ा देख रहा हूं, मैं चकित हो रहा हूं कि तुम कैसे उससे टकरा रहे हो।
हाथ कंप रहे हैं उसके। ताला पकड़ता है तो ताला कंप रहा है। तो पुलिस वाले ने कहा कि लाओ, मैं तुम्हारा ताला खोल दूं। उसने कहा कि नहीं-नहीं, मैं खोल लूंगा। ऐसा कुछ नशा नहीं है।
कोई नशा करनेवाला नहीं मानता कि मैं कुछ नशे में हूं। पूरी कोशिश यह करता है कि मैं  हूं ही नहीं । और फिर पुलिस वाले के सामने तो कैसे स्वीकार करे कि नशे में हूं। खीसे में हाथ डाला, चाबी निकाली। अब वह चाबी ताले में नहीं जाती, क्योंकि हाथ दोनों  कंप रहे हैं, ताला भी कंप रहा है, जिसमें चाबी लिए हुए है वह भी कंप रहा है। पुलिस वाले ने कहा कि लाओ भैया, चाबी मुझे दो, मैं खोल दूं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, "ऐसा करो कि अगर सहायता ही करनी है तो जरा मकान को पकड़ लो कि मकान हिले न। यह मकान इतने जोर से हिल रहा है,भूंकप आ रहा है या क्या हो रहा है?
इस बीच पत्नी भी जग गयी। उसने खिड़की से झांक कर देखा और कहा कि फजूल के पिता, क्या बात है? चाबी तो नहीं खो गयी है? कहो तो दूसरी चाबी फेंक दूं।
नसरुद्दीन ने कहा, "चाबी बिलकुल ठीक है। हरामजादा ताला गड़गड़ कर रहा है। तू दूसरा ताला फेंक दे।'
होश न हो तो आदमी जो भी करेगा, जो भी सोचेगा, वहीं भूल होती चली जाती है। होशियारी करता है। नशे में आया हुआ आदमी बड़ी होशियारी करता है। होशियारी में ही फंसता है। कैसे होशियारी करेगा?
हम सब अहंकार के नशे में पड़े हुए हैं, इसलिए ऋत से वंचित हैं। देख नहीं पाते। कहते हैं--मैं सांस ले रहा हूं! मुझे भूख लगी है! क्या तुम्हें भूख लगेगी? तुम साक्षी हो भूख के। भूख तुम्हें नहीं लगती। न तुम्हें प्यास लगती है। न तुम श्वास ले रहे हो। न तुम जवान होते हो न तुम बूढ़े होते हो। तुम तो कुछ भी नहीं होते। तुम तो जैसे हो वैसे ही हो।तुम्हारे चारों तरफ कुछ हो रहा है। मगर होश कहां! शरीर बच्चा था, जवान हुआ, बूढ़ा होगा--और शरीर किसी एक अज्ञात नियम को मान कर चल रहा है। तुम्हारा कुछ वश नहीं है। लाख उपाय करता है आदमी कि जवानी में ही अटका रहे।
चंदूलाल की पत्नी उससे कह रही थी कि जरा मेरी तरफ तो देखो। तीन घंटे आईने के सामने सज कर आयी थी। और चंदूलाल भन्नाए बैठे थे, क्योंकि अब स्टेशन जाने से कोई सार नहीं था, बाड़ी कभी की निकल गयी होगी। अब तो दूसरी गाड़ी मिल जाए, वह भी बहुत है। मगर इसी आशा में थे कि दूसरी गाड़ी मिल जाएगी। मगर भन्नाए तो बहुत थे। और उसने, पत्नी ने आकर क्या पूछा. उसको गाड़ी-वाड़ी से क्या लेना! उसने पूछा कि जरा मेरी तरफ तो देखो, मेरी उम्र तुम्हें तीस साल की लगती है या नहीं?
चंदूलाल ले कहा कि लगती थी जब रहीं तुम तीस साल की। अब कैसे लगे? अब तीन घंटे नहीं, तुम तीस घंटे भी संवारो अपने को तो तीस साल की नहीं लग सकती हो। लगती थी कभी, जब तीस साल की रहीं।
मगर हर स्त्री कोशिश कर रही है कि जवानी को रोक ले। हर पुरुष कोशिश कर रहा है कि जवानी को रोक ले। तुम्हारे हाथ में नहीं है। सांस ही तुम्हारे हाथ में नहीं है, जवानी और बुढ़ापा तो तुम्हारे हाथ में क्या होगा! फिर किसके हाथों में है? कौन है अद्दश्य ऊर्जा? उस ऊर्जा का नाम:ऋत। उसे नाम तो देना होगा, ताओ कहो, ऋत कहो, धम्म कहो, धर्म कहो, कोई भी नाम दे दो। उसका कोई नाम नहीं है, अनाम है। लेकिन एक बात समझ लो कि यह सारा जीवन किसी एक अज्ञात सूत्र के सहारे चल रहा है। उस सूत्र को खोज लेना ही सत्य को खोज लेना है। और उसे खोजने की दिशा में पहला कदम होगा: अपने से शुरू करो। अपने ही भीतर ऋत को खोजो। लेकिन वह ऋत नहीं खोज पाओगे अगर अहंकार में दबे रहे।
और अहंकार कैसे-कैसे तर्क खोज लेता है--यह मैंने  किया! कुछ तुमने किया नहीं है, सब हुआ है। कोई चित्रकार है, उसने कुछ किया नहीं। यह उसका ऋत  है। यह उसका स्वभाव है। कोई कवि है, उसने कुछ किया नहीं। कोई गायक है, उसने कुछ किया नहीं। उसका जो स्वभाव था, वही प्रगट हुआ है। गुलाब है, जुही है, चंपा है। अगर गुलाब, जुही और चंपा के पास भी सोच विचार की क्षमता होती तो गुलाब भी कहता कि देखो, क्या फूल मैंने खिलाए हैं! कैसे फूल मैंने खिलाए हैं! क्या सुगंध है। और रातरानी भी कहती कि चुप रहो, बकवास बंद करो। सुगंध है तो मेरी है, कि सारा आंगन भर दिया है सुगंध से! तुम्हारी क्या सुगंध कि जब कोई पास आए, सूंघे तो बामुश्किल पता चले? सुगंध मेरी है! राह से गुजरते लोग भी आंदोलित हो रहे हैं। यह मैंने किया है!
मैंने सुना है, एक बच्चे ने एक पत्थर उठाया और एक महल की खिड़की की तरफ फेंक दिया। पत्थर जब उठने लगा ऊपर की तरफ, तो उसने पत्थरों की जो नीचे ढेरी थी जिसमें वह वर्षों से पड़ा था, अपने मित्रों, सगे-संबंधियों की तरफ चिल्ला कर कहा कि देखते हो मैं जरा महल की यात्रा के लिए जा रहा हूं। फेंका गया था, लेकिन कहा कि महल की यात्रा के लिए जा रहा हूं। कसमसा गए और पत्थर,र् ईष्या से जल-भुन गए और पत्थर, मगर करते भी क्या! इनकार भी नहीं कर सकते थे। जा तो रहा ही था। उन्हें भी पता नहीं कि भेजा जा रहा है। और उनकी भी तो आकांक्षा थी कभी महल की यात्रा करें। यह महल पास में ही खड़ा है। यह सुंदर महल, पता नहीं इसके भीतर क्या हो रहा है! कभी गीत उठते हैं, कभी संगीत बजता है, कभी दीए जलते हैं, कभी दीवाली है, कभी होली है। पता नहीं क्या रंग, क्या ढंग भीतर गुजर रहा है! देखने की तो उनकी भी इच्छा थी। वे सब हार गए और उनका  एक साथी जीत गया। जा रहा है, इनकार कर भी नहीं सकते। मन मसोस कर रह गए।
वह पत्थर ऊपर उड़ा और जाकर टकराया कांच की खिड़की से। कांच चकनाचूर हो गया। स्वभावतः, जब पत्थर कांच से टकराता है तो कांच चकनाचूर हो जाता है। यह पत्थर का ऋत और कांच का ऋत इसमें कुछ पत्थर की खूबी नहीं और कांच की कोई कमजोरी नहीं। यह सिर्फ स्वाभाविक नियम है, कि पत्थर कांच से टकराएगा तो कांच टूटता है। पत्थर कांच को तोड़ता नहीं, कुछ हथौड़ी लेकर कांच को तोड़ने नहीं बैठ जाता है। बस यह स्वाभाविक है। इसमें पत्थर को अकड़ने की कोई जरूरत नहीं है। न कोई कांच को दीन होने की जरूरत है। लेकिन कांच दीन-हीन हो गया। और पत्थर ने कहा, मैंने हजार बार कहा है, सुना नहीं तुमने? तुम्हें खबर नहीं? कितनी बार मैंने नहीं कहा है कि जो मुझसे टकराएगा चकनाचूर हो जाएगा! अब देख लो, अब खुद देख लो अपनी आंखों से क्या गति तुम्हारी हो गयी है। मुझसे दुश्मनी लेना ठीक नहीं है।'
और तभी पत्थर जाकर भीतर बहुमूल्य कालीन पर गिरा--ईरानी कालीन और पत्थर ने कहा, बहुत थक भी गया। लंबी यात्रा, आकाश में उड़ना। फिर दुश्मनों का सफाया। इस कांच  से टकराना, कांच को चकनाचूर कर देना। यह विजय! थोड़ा विश्राम कर लूं।'
विश्राम कर लूं--ऐसा सोच रहा है! गिरा है मजबूरी में; क्योंकि जिस बच्चे ने फेंका था वह ऊर्जा पूरी हो गयी। जितनी ऊर्जा उस बच्चे के हाथ ने दी थी वह समाप्त हो गयी। अब पत्थर को गिरना ही है। यह मजबूरी है, मगर मजबूरी को कोई स्वीकार करता है? हम तो मजबूरी में भी अहंकार खोज लेते हैं। हम तो वहां भी तरकीबें खोज लेते हैं। उस पत्थर ने भी खोज लीं। कहा  कि थोड़ा विश्राम कर लूं,  फिर आगे की यात्रा पर निकलूंगा।
तभी महल के दरबान ने, यह पत्थर का आना और कांच का टूटना, आवाज सुनी,पत्थर का गिरना, वह भागा आया। पत्थर पड़ा पड़ा ईरानी कालीन पर बहुत आनंद ले रहा था। सोच रहा था इस महल के लोग भी बड़े अतिथि-प्रेमी मालूम होते हैं। लगता है मेरे आने की खबर उनको पहले ही हो गयी थी। कालीन इत्यादि बिछा रखे हैं। सब फानूस लटका दिए हैं। सुंदर चित्र लगा रखे हैं। दीवालों पर नया-नया ही रंग रोगन किया गया है। फर्नीचर भी सब ताजा ताजा है। तैयारी पूरी है । कहा भी है कि अतिथि तो देवता है। मैं अतिथि हूं! मेरे लिए ही यह इंतजाम हुआ है।
यही हमारी भाषा है। हर आदमी यही सोचता है कि मेरे लिए ही सारा इंतजाम हुआ है।। जैसे सब चांद तारे सूरज  मेरे लिए ही उगते और डूबते हैं! यह सारा जगत, प्रत्येक व्यक्ति अपने आसपास ही घूमता हुआ अनुभव करता है कि मैं ही केंद्र हूं। पत्थर ने भी कुछ भूल तो न की, मनुष्य की भाषा में ही सोचा। दरबान ने पत्थर हाथ में उठाया और पत्थर ने सोचा कि दिखता है,महल का मालिक मुझे हाथों में उठा कर स्वागत कर रहा है कि धन्यभाग हमारे कि आप पधारे! पलक पांवड़े बिछाते हैं। स्वीकार करो हमारा आतिथ्य! हाथों में उठा कर यही कह रहा है। हाथों में उठाया था दरबान ने इसलिए कि वापिस फेंक दे। लेकिन यह बात तो कोई सोचता नहीं।
मौत तुम्हारी करीब आती है बौर तुम जन्म दिन मनाए चले जाते हो। मनाना चाहिए मृत्यु दिवस। हर साल मृत्यु दिवस मनाना चाहिए, मनाते हो जन्म दिवस। और जन्म तो पीछे छूटता जा रहा है, मौत करीब आती जा रही है: हर साल एक एक साल और बीत गया। एक साल और गुजर गया। एक साल और कम हो गया। तुम्हारा जीवन घट और रीत गया। तुम व्यतीत हो रहे हो। तुम अतीत रहे हो। तुम समाप्त हो रहे हो। तुम बूंद-बूंद निचुड़ते जा रहे हो। मगर मनाते हो जन्म दिन। मृत्यु के दिन को तुम जन्म दिन मनाते हो! मरते हो और सोचते हो कि जीवन घटित हो रहा हो। घसिटते हो, लेकिन सोचते हो कि विजय यात्रा हो रही है!!
उस पत्थर को दरबान ने वापिस फेंक दिया। लेकिन पत्थर ने यही सोचा कि दरबान समझ सका...यह मालिक महल का समझ सका--वह तो मालिक ही समझ रहा था उसे-- कि मुझे घर की बहुत याद आ रही है,कि मुझे अपने प्रियजनों की बहुत याद सता रही है। मैं तो वापिस जाता हूं। अरे मुझे महलों से क्या लेना! महलों में रखा भी क्या है!
अंगूर खट्टे। मिलें न तो खट्टे, मिल जाएं तो मीठे। पत्थर वापिस गिरा अपनी ढेरी पर। गिरते समय उसने कहा, "मित्रो, महल सुंदर था, बहुत सुंदर था! मगर अपने घर की बात और, स्वदेश की बात ही और! तुम्हारी बड़ी याद आती थी, मैं तो वापिस लौट आया।'
और कहने हैं, बाकी पत्थरों ने उससे कहा  कि तुम हमारे बीच सबसे धन्यभागी पत्थर हो। तुम साधारण पत्थर नहीं , अवतारी हो। तुम अपनी जीवन कथा लिखो, ताकि बच्चों के काम आए।
अब वह पत्थर जीवन कथा लिख रहा है।
तुम्हारी भी जीवन कथा यही है। ऋत को कैसे समझोगे? अहंकार को थोपते जाते हो, आरोपित करते जाते  हो। अहंकार को जरा हटा कर देखो, अहंकार का घूंघट हटा कर देखो! घूंघट के पट खोल! वह घूंघट क्या है? वह घूंघट का पट क्या है? किस चीज का घूंघट है तुम्हारे स्वभाव पर? अहंकार का। हटाओ अहंकार के घूंघट को!  थोड़ा अपने में झांको। और तुम चकित हो जाओगे। तुम इस सूत्र का ही अर्थ, इस सूत्र का अभिप्राय , अभिप्रेत अनुभव कर पाओगे। "ऋतस्य यथा प्रेत!...तब तुम जानोगे कि जीवन  की  सम्यक कला ऋत के साथ एक होकर जीने में है; भिन्न होकर नहीं, अभिन्न होकर । जो इससे अलग होकर जीने की कोशिश करता है, टूटता है, हारता है, पराजित होता है। जो इसके अलग होकर जीने की कोशिश करता है, टूटता है, हारता है, पराजित होता है। जो इसके साथ जीता है, उसकी जीत सुनिश्चित है। उसकी जीत नहीं है, जीत तो ऋत की है हमेशा।
तुम यूं हो, अहंकार यूं है, जैसे कोई नदी में उलटी धार तैरना चाहे। थोड़े बहुत हाथ मार सकता है, मगर जल्दी थक जाएगा। नाहक थक जाएगा। और थकेगा तो नदी पर नाराज होगा। और कहेगा, "यह दुष्ट नदी मुझे ऊपर की तरफ नहीं जाने देती।' नदी जा रही है सागर की तरफ। तुम नदी के संगी-साथी हो लो। ऋतस्य यथा प्रेत! तुम नदी से लड़ो मत, नदी के साथ बहो। तैरो भी मत, बहो।
तुमने देखा, जिंदा आदमी नदी में डूब जाता है और मर जाता है और मुर्दा तैर जाता है! कुछ कला है जो मुर्दे को आती है, जो जिंदा को नहीं आती। जिंदा कैसे डूब गया और मुर्दा कैसे तैर गया? जिंदा नीचे जाता है, मुर्दा ऊपर आता है बात क्या है, मामला क्या है, रहस्य क्या है? रहस्य इतना ही है कि मुर्दा लड़ता नहीं है नदी से। लड़ सकता नहीं, मुर्दा समर्पित है समर्पित है। तो नदी का मित्र है। और मित्र को कौन हाथों पर न उठा ले! और जिंदा लड़ता है। हर तरह से लड़ता है; जब तक सांस है, लड़ता है, झगड़ता है। झगड़न में ही टूट जाता है। लड़ने में ही खुद की शक्ति गंवा बैठता है। लड़ने में ही डूबता है। लड़ने में ही मरता है
ऋतस्य यथा प्रेत। ऋत के अनुसार जीओ, अर्थात नदी के साथ बहो, लड़ो मत। यह जीवन की नदी, यह जीवन की सरिता परमात्मा के सागर की तरफ अपने-आप जा रही है। कुछ और करना नहीं है। इस जीवन के प्रति समर्पित हो जाओ। अस जीवन के साथ आपने को एक अनुभव करो। एक तुम हो, अनुभव करो या न करो! करो तो विजय का आनंद है। न करो तो पराजय की पीड़ा है।
लेकिन हमारी सारी शिक्षा इसके विपरीत है। हमारा सारा समाज इसके विपरीत है। हम प्रत्येक व्यक्ति को आचरण सिखाते हैं। अंतस का आविष्कार नहीं। आचरण का अर्थ है: ऊपर से थोपी हुई बात। हम कहते  हैं: ऐसे जीओ, ऐसा करो, ऐसा मत करना! यह पुण्य है, यह पाप है। दूसरे तय करते हैं। दूसरे अपने स्वार्थ से तय करते हैं। निश्चित, उनके अपने स्वार्थ होने वाले हैं। उन्हें तुमसे कोई प्रयोजन नहीं।
जब बच्चा पैदा होता है तो मां बाप तय करते  हैं कि कैसे जीए, क्या बने क्या न बने। किसे पड़ी है बच्चे की, कि वह क्या बनने का राज लेकर आया है, कि उसका ऋत क्या है, किसी को प्रयोजन नहीं है। इसलिए तो हमने इतनी उदास मनुष्यता को जन्म दिया है, इतनी विक्षिप्त मनुष्यता को जन्म दिया है। जिसको संगीतज्ञ होना था, वह डाक्टर है। वह कभी सुखी नहीं होगा। वह सदा दुखी होगा। उसे बजानी थी वीणा। वह दवाइयों की बोतलें भर रहा है, प्रिस्क्रिप्शन लिख रहा है। जिसको दुकानदार होना था वह नौकरी कर रहा है। जिसको नौकरी करनी थी वह कविता कर रहा है। जिसको कवि होना था वह सब्जी बेच रहा है। सब औरों की जगह बैठे हुए हैं, कोई अपनी जगह नहीं है। कोई अपने स्वभाव में नहीं है, सब च्युत हो गए हैं। किसने किया यह सब उपद्रव? कौन कर रहा है यह उपद्रव? यह उपद्रव भी उनसे हो रहा है जो तुम्हारे बड़े हिताकांक्षी हैं। यह बड़ी अच्छी अभिलाषा से हो रहा है। कौन मां-बाप अपने बच्चे को दुखी देखना चाहता है? लेकिन कौन मां-बाप अपने बच्चे को उसके स्वभाव के अनुसार जीने देने के लिए राजी हैं? मां बाप की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं, जो अतृप्त रह गयीं। महत्वाकांक्षाएं तो सभी की अतृप्त रह जाती हैं, किसी की कभी पूरी होती नहीं।
बुद्ध ने कहा है: तृष्णा दुष्पूर है। तृष्णा का स्वभाव ही है दुष्पूर होना, वह कभी पूरी नहीं होती। मां-बाप की अभिलाषाएं अधूरी रह गयीं हैं, वे बच्चों के कंधों पर सवार होकर अपनी अभिलाषाएं पूरी करना चाहते हैं। हालांकि ऐसा वे सोचते नहीं, न ऐसा वे कहते हैं, न ऐसा उन्हें बोध है। वे तो सोचते हैं बच्चों के हित  में वे यह कर रहे हैं। बच्चा कहता है, मुझे बांसुरी बजाना है। बाप कहता है, पागल फेंक बांसुरी, गणित कर, भूगोल पढ़, इतिहास पढ़। यह काम आएगा। बांसुरी बजा कर क्या भूखे मरना है, क्या भीख मांगनी है?
एक बहुत बड़े सर्जन की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मनायी गयी। नृत्य का आयोजन हुआ, भोज का आयोजन हुआ। उसके सारे मित्र, उसके सारे शिष्य इकट्ठे हुए। उन्होंने बड़ी प्रशंसा में, उसकी स्तुति में बड़ी-बड़ी बातें कहीं। कहा कि आपसे बड़ा सर्जन पृथ्वी पर नहीं है। लेकिन वह उदास ही बैठा रहा। उसके एक मित्र ने कहा कि हम सब उत्सव मना रहे हैं तुम्हारे पचहत्तरवें जन्म दिन का, दुनिया से, दूर दूर कोनों से तुम्हारे मित्र और तुम्हारे शिष्य इकट्ठे हुए हैं और तुम हो कि उदास बैठे हुए हो! तुम सफलतम व्यक्तियों में से एक हो।
उस सर्जन ने कहा, मत कहो यह बात, मत कहो! यह सारा उत्सव देख कर, नाचते हुए जोड़ों को देख कर मेरे चित्त में जो उदासी छा रही है, वह मैं जानता हूं। क्योंकि मैं वस्तुतः एक नर्तक होना चाहता था। लेकिन मेरे पिता ने मुझे सर्जन बना दिया। धक्के दे-देकर भेज दिया मुझे मेडीकल कॉलेज। मैं जाना चाहता था संगीत अकेडेमी में। आज तुम सबको नाचते देख कर मैं अनुभव रहा हूं, मेरा जीवन व्यर्थ गया। मुझे कोई आनंद नहीं मिला सर्जन होने से। धन मिला, सफलता मिली, आनंद नहीं मिला। मैं भीतर खाली का खाली रहा। मैं गरीब रहता, लेकिन नर्तक हो गया होता, तो मुझे आनंद मिलता।
और आनंद से बड़ी कोई संपदा है?
स्वभाव के अनुसार जब कोई चलता है तो आनंद घटता है और स्वभाव के प्रतिकूल जब कोई चलता है तो दुख। दुख और सुख की तुम परिभाषा खयाल रखना। सुख का अर्थ है: स्वभाव के अनुकूल। कभी भूल चूक से जब तुम स्वभाव के अनुकूल पड़ जाते हो तो सुख होता है। भूल चूक से ही पड़ते हो तुम, क्योंकि तुम्हें बोध तो है नहीं। कभी आकस्मिक रूप से संग-साथ हो जाता है तुम्हारा स्वभाव का, यह और बात। लेकिन जितनी देर को संग-साथ हो जाता है, उतनी देर के लिए जीवन में रोशनी आ जाती है। जितनी देर के लिए संग-साथ हो जाता है, जीवने में नृत्य और उत्सव आ जाता है। मगर यह सब आकस्मिक है। कभी कभी हो जाता है। आमतौर से तो तुम अपने साथ जबरदस्ती किए जाते हो; वही तुम्हें सिखाया गया है। इसको अच्छे-अच्छे नाम दिए हैं--अनुशासन, कर्तव्य, शिक्षा, दीक्षा। मगर क्या करते हैं हम शिक्षा दीक्षा में? महत्वाकांक्षा सिखाते हैं।
सम्यक शिक्षा का अभी पृथ्वी पर जन्म नहीं हुआ है। हो जन्म तो इस पृथ्वी पर एक एक व्यक्ति उत्सव हो। हर व्यक्ति में फूल खिलें। हर व्यक्ति में सुगंध हो, ज्योति जले। लेकिन सब उदास, सब बुझे दीए बैठे हैं। सारी पृथ्वी पर विषाद ही विषाद है। किसी तरह ढकेले जामे हैं,  जीये जाते हैं। एक ही आशा है कि कोई सदा थोड़े ही जिंदा रहना है, अरे कभी तो खत्म हो ही जाएंगे। और इतने दिन गुजारा और थोड़े दिन गुजार लेंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी, मरणशैया पर पड़ी थी। डॉक्टर ने उसके कान में फुसफुसा कर कहा कि क्षमा करो, तुम्हारी पत्नी दोत्तीन महीने से ज्यादा नहीं जी सकेगी।
मुल्ला ने कहा, कोई फिक्र न करो। अरे जब तीस साल गुजार दिए तो तीन महीने और गुजार देंगे। क्यों इतने दुखी हो रहे हो? तीन ही महीने की बात है, गुजार देंगे।'
यहां न कोई प्रेम अनुभव कर रहा है, न कोई धन्यभाव अनुभव कर रहा है। मामला क्या हो गया है? पशु पक्षी भी ज्यादा आनंदित मालूम होते हैं। तुमने कभी किसी कोयल से बेसुरापन सुना किसी कोयल से? तुमने कभी किसी कोयल के कंठ से बेसुरे राग उठते देखे? सभी कोयलों के कंठ से सदा सुर भरे राग ही उठते हैं।तुमने किसी पपीहे को जब पी-कहां पुकारता है, तो अनुभव किया? सारे पपीहे एक ही माधुर्य से पी -कहां पुकारते हैं। तुमने किसी हरिण को कुरूप देखा? सभी हरिण सुंदर मालूम होते हैं। जरा जंगल जाओ, पशु पक्षियों को देखो। सभी प्रफुल्लित, सभी मस्त, सभी अपने चाल में मदमाते! आदमी को क्या हो गया है? आदमी, जो कि इस पृथ्वी का सबसे ज्यादा श्रेष्ठ चैतन्य का मालिक है, बुद्धिमत्ता का धनी है, इसको क्या हो गया है? इस पर कौन सा दुर्भाग्य घटा है? इस पर कौन सा अभिशाप पड़ गया है?
पशु-पक्षियों के पास इतनी बुद्धि नहीं है कि वे स्वभाव के विपरीत जा सकें। सहज ही स्वभाव के अनुकूल होते हैं। आदमी का सौभाग्य भी यही है कि उसके पास बुद्धि है और दुर्भाग्य भी यही है कि उसके पास बुद्धि है। अब तुम्हारे हाथ में है, तुम चाहे सौभाग्य बना लो चाहे दुर्भाग्य। धन्य हैं वे लोग जो अपनी बुद्धि का उपयोग ऋत के साथ जोड़ लेते हैं। और अभागे हैं वे जन, जो ऋत के विपरीत चल पड़ते हैं।
ध्यान है ऋत के आविष्कार की प्रक्रिया। ध्यान का अर्थ होता है: साक्षीभाव। भीतर साक्षीभाव से देखो कि तुम्हारी निजता क्या है। और अपनी निजता की उद्घोषणा करो, चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े। भूखा मरना पड़े, गरीब होना पड़े, मगर अगर बांसुरी बजाने में ही तुम्हारा रस है तो बांसुरी ही बजाना। तुम होकर भी सिकंदर महान से ज्यादा सुखी हो होओगे। मत बेच देना अपनी आत्मा को, क्योंकि आत्मा बेचने का एक ही अर्थ होता है: ऋत के विपरीत चले जाना। आचरण थोथा है, ऊपर से आरोपित है। दूसरों ने कह दिया--ऐसा करो, ऐसा उठो, ऐसा बैठो--और तुम मान कर चले जा रहे हो। तुम नकलची हो गए हो। तुम पाखंडी हो गए हो। तुमने एक पर्त ओढ़ ली है ऊपर से, एक चदरिया ओढ़ ली है राम नाम की। और भीतर? भीतर तुम कुछ और हो। तो तुम्हारे भीतर खंड हो गए। तुम्हारा व्यक्तित्व विभाजित हो गया। और जहां विभाजन है वहां विषाद है। क्योंकि संगीत टूट जाता है। बांसुरी अलग बज रही है, तबला अलग बज रहा है; दोनों में कोई तालमेल नहीं है। तबला बांसुरी को नष्ट कर रहा है, बांसुरी तबले को नष्ट कर रही है; दोनों एक-दूसरे की दुश्मनी साधे हुए हैं। संगत नहीं बैठ रही है, साज नहीं बैठ रहा है। सब बेसाज हुआ जा रहा है!
तुम जरा अपने को भीतर देखो, सब बेसाज हुआ जा रहा है। और क्या कारण है बेसाज हो जाने का? तुमने अपनी न सुनी, औरों की सुनी। और औरों को क्या पता कि तुम क्या होने को पैदा हुए हो, तुम्हारी नियति क्या है? औरों को क्या पता कि तुम्हारे जीवन का अभिप्रेत क्या है? तुम्हें पता नहीं तो औरों को कैसे पता होगा? औरों को अपना पता नहीं, तुम्हारा कैसे पता होगा?
संन्यास का मैं एक ही अर्थ करता हूं: अपनी निजता की उद्घोषणा। संन्यास बगावत है, विद्रोह है--समस्त थोपे गए आचरण के विपरीत; दूसरों की जबरदस्ती के विपरीत।संन्यास इस बात का स्पष्ट स्वीकार है कि मैं अब अपने ढंग से  जीऊंगा, चाहे जो परिणाम हो। मैं किसी और के द्वारा नहीं  जीऊंगा। कोई और मुझे खींचतान करे तो मैं इनकार करूंगा। न तो में किसी की जबरदस्ती सहूंगा और न किसी पर जबरदस्ती करूंगा। संन्यास इन दो बातों की घोषणा है। ये दो बातें एक ही सिक्के के पहलू हैं--दो पहलू, मगर सिक्का एक। मैं स्वतंत्रता से जीऊंगा।
यह स्वतंत्रता शब्द बड़ा प्यारा है। दुनिया की किसी भाषा  में ऐसा शब्द नहीं। स्वतंत्रता का अर्थ होता है: स्वयं का तंत्र, स्वयं के आंतरिक बोध में जीना। और वही स्वच्छंदता का भी अर्थ होता है। बिगड़ गया, लोगों ने उसका अर्थ खराब कर  लिया है। जिन्होंने खराब कर लिया है, वे ही लोग हैं तुम्हारे दुश्मन। उन्होंने ही तुम्हें खींच खींच कर परतंत्र किया है। मगर परतंत्र भी जब किसी को करना हो तो होशियारी से करना होता है। जंजीरें भी पहनानी हों तो सोने की पहनाओ,क्योंकि वे आभूषण लगेंगी और आभूषण  के धोखे में आदमी पहन लेगा। मछली को भी पकड़ने जाते हैं तो कांटे में आटा लगाते हैं। कोई मछली कांटा तो लीलने को राजी होगी नहीं, आटा लीलने को राजी हो जाती है। और आटे के साथ कांटा चला जाता है। जंजीरें बनानी हों तो कम से कम सोने का पालिश तो चढ़ा ही दो। न मिलें असली हीरे-जवाहरात तो सस्ते खरीद कर नकली लगा दो, मगर चमकदार पत्थर होने चाहिए। ऐसी भ्रांति हो जाए कैदी को कि ये आभूषण हैं, तो फिर तुम्हें उस पर पहरा  नहीं बिठाना पड़ेगा। वह खुद ही अपने आभूषणों की रक्षा करेगा।
संन्यास इस बात की घोषणा है कि दूसरे आभूषण भी दें तो जंजीरें बन जाते हैं। दूसरा तुम्हें परतंत्रता ही दे सकता है। और दूसरे तुम्हें समझाते हैं कि देखो स्वच्छंद मत हो जाना। हालांकि स्वच्छंद शब्द बड़ा प्यारा है। उसका अर्थ है: स्वयं के छंद को उपलब्ध हो जाना। बड़ा अद्भुत शब्द है! स्वयं के गीत को--छंद यानी गीत! हमारे पास एक उपनिषद है: छांदोग्य उपनिषद। छंद बड़ा प्यारा शब्द है। ऋत का भी वही अर्थ है। तुम्हारे भीतर का जो नाच है, जो गीत है, जो संगीत है, जो स्वर है--उसको ही जीओ। जरूर कठिनाई होगी। तलवार की धार पर चलने जैसा है, क्योंकि ये चारों तरफ जो लोग तुम्हें घेरे हुए हैं, कोई भी बर्दाश्त न करेंगे। क्योंकि जो व्यक्ति अपने छंद से जीता है वह बहुत बार दूसरों की आज्ञा स्वीकार करने में अपने को असमर्थ पाता है। हर बात में हां न भर सकेगा। जब उसके स्वयं के छंद  के अनुकूल होगी तो हां भरेगा,  जब प्रतिकूल होगी तो विनम्रता से नहीं कहेगा। वह आज्ञाकारी नहीं हो सकता। जरूरत नहीं है कि वह जरूरी रूप से आज्ञा का खंडन करे। मगर आज्ञा को तब तक ही मानेगा जब तक उसके छंद के साथ तालमेल है; जहां छंद से तालमेल टूटा, वहां पिता कहते हों, कि शिक्षक कहते हों, कि राजनेता कहते हों, कि धर्मगुरू कहते हों, कोई भी कहता हो...। स्वयं के छंद से बड़ी कोई चीज नहीं, क्योंकि स्वयं का छंद ईश्वर की वाणी है। वह तुम्हारे भीतर बैठे हुए  परमात्मा का स्वर है। उसके अनुसार जीना संन्यास है और उसको खोज लेना ध्यान है।
प्यारा है यह सूत्र: ऋतस्य यथा प्रेत! ऋत के अनुसार जीओ। यह क्रांति का मूलसूत्र है। यह आध्यात्मिक क्रांति का आधार है, बुनियाद है। यह एक चिनगारी है, जो तुम्हारे भीतर आग को पैदा कर देगी। तुम्हें आग्नेय कर देगी। तुम प्रज्जवलित हो उठोगे। तुम न केवल खुद प्रकाशित हो जाओगे, तुम्हारे प्रकाश से दूसरे भी प्रकाशित होने लगेंगे। तुम्हारी ज्योति से दूसरे भी अपने बुझे दीयों को जला सकते हैं।
मगर यह जमीन गुलामों से भरी है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है। ये सब गुलामों के नाम हैं। मैं तुमसे नहीं कहता कि जैन बनो।  मैं कहता हूं: जिन बनो! जिन यानी विजेता। जैसे महावीर जिन थे। महावीर जैन नहीं थे। जैन वह है जो नकल कर रहा है, जो महावीर के ढंग से चलने की कोशिश कर रहा है। और ध्यान रखना, दुनिया में दो महावीर न पैदा हुए हैं, न होंगे। इस जगत में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा अद्वितीय बनाता है, बेजोड़ बनाता है। और जब तुम किसी की नकल करते हो, तुम परमात्मा का अपमान करते हो। तुम अपना भी अपमान करते हो। ये दोनों एक ही बात है--परमात्मा का अपमान करना या अपना अपमान करना।
और जब तुम नकल करोगे तो एक बात खयाल रखना, जिसकी तुम नकल कर रहे हो वह तो तुम हो ही न पाओगे। वह तो हो ही नहीं सकता। वह तो ऋत के विपरीत है। क्योंकि दो आदमी एक जैसे न कभी होते हैं, न हो सकते हैं। और दूसरा खतरा है कि दूसरे होने की कोशिश में तुम्हारी सारी ऊर्जा लग जाएगी, तो स्वयं होने के लिए ऊर्जा न बचेगी। दूसरे तुम हो  न सकोगे। और स्वयं तुम जो हो सकते थे, वह तुम हो न पाओगे। तुम्हारा जीवन विडंबना हो जाएगा। तुम्हारा जीवन एक तनाव--सिर्फ एक तनाव, एक चिंता, एक व्यथा हो जाएगी।
हर आदमी के चेहरे पर व्यथा लिखी है। व्यथा ही हमारी एकमात्र  कथा है, और हमारे पास कुछ भी नहीं। दुख ही दुख! और सबसे बड़ा दुख यह है कि व्यक्ति अपने केंद्र से च्युत हो जाए। और सारे तुम्हारे हितेच्छु तुम्हें च्युत करने में लगे हैं। वे भी अंधे हैं। कोई जानकर नहीं कर रहे हैं। सारी शिक्षा की आयोजन ऐसी है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके स्वभाव से हटा देती है। महत्त्वाकांक्षा दे देती है। पद पर पहुंचने की दौड़ दे देती है। धन कमाने की एक विक्षिप्तता पैदा कर देती है। आगे हो जाओ, सबसे आगे हो जाओ! दौड़ो, लड़ो! फिर कोई भी साधन हों, येन केन प्रकारेण, लेकिन तुम्हें पद पर होना है! धनी होना है! और कोई नहीं पूछता कि पद पर होकर करोगे क्या?धन ही पा लोगे तो करोगे क्या? अगर खुद को गंवा दिया और सारी दुनिया का धन भी पा लिया तो क्या सार है, क्या हाथ लगेगा?? खाक भी हाथ नहीं लगेगी।
लकड़ी जल कोयला भइ कोयला जल भइ खाक,
मैं पापिन ऐसी जली कोयला भइ न राख।
ऐसे जलोगे कि न कोयला हाथ लगेगा, न राख हाथ लगेगी।। कुछ भी हाथ न लगेगा। व्यर्थ ही जल जाओगे। लेकिन न तो अभी सम्यक शिक्षा पैदा हो सकी है, न सम्यक सभ्यता पैदा हो सकी है, क्योंकि बिना शिक्षा के कैसे सभ्यता पैदा हो? और जब सभ्यता ही पैदा नहीं हो सकती तो संस्कृति कैसे पैदा हो? शिक्षा पहली चीज है। सम्यक शिक्षा अर्थात स्वयं के ऋत के अन्वेषण की विधि। उससे दोनों चीजें पैदा होंगी! बाहर के जगत में सभ्यता पैदा होगी; तुम्हारे दूसरों से जो संबंध है, बड़े प्रीति और आनंद का हो जाएगा। और उससे संस्कृति पैदा होती है। संस्कृति भीतरी चीज है, आंतरिक चीज है। तुम्हारा आत्म परिष्कार होगा। तुम्हारे भीतर जो भी कूड़ा करकट है छंटता जाएगा। तुम्हारे भीतर परमात्मा की मूर्ति निखरती आएगी।
जार्ज बर्नाड शॉ से किसी ने कहा कि आपका सभ्यता के संबंध में क्या ख्याल है? जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा, सभ्यता बहुत अच्छा विचार है, लेकिन किसी को उस विचार को क्रियांवित करने की कोशिश करनी चाहिए। विचार ही है सिर्फ। अभी आदमी सभ्य हुआ नहीं। अभी हम सभ्यता पूर्व अवस्था में हैं। और संस्कृति तो बहुत दूर की बात है, जब सभ्यता ही नहीं हुई। सभ्यता यानी बाहर के संबंध, तो भीतर का परिष्कार तो अभी कैसे होगा? और दोनों नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि शिक्षा हमारी बुनियादी रूप से गलत है।
जिस शिक्षा में ध्यान आधार नहीं है, वह शिक्षा कभी भी सही नहीं हो सकती। वह क्या सिखाएगी? धन सिखाएगी, पद सिखाएगी, प्रतिष्ठा सिखाएगी, अहंकार सिखाएगी,। ये अहंकार के ही सींग हैं--पद प्रतिष्ठा इत्यादि-इत्यादि। और ध्यान तुम्हें निरहंकारिता सिखाता है। और निरहंकारिता में ही तो ऋत का अनुभव हो सकता है। जब मैं नहीं हूं तभी तो पता चलता है कि परमात्मा है। जहां मैं गया वहां परमात्मा है। और जहां मैं नहीं वहां ऋत है।
ऋत परमात्मा से भी प्यारा शब्द है। क्योंकि परमात्मा से खतरा है कि कहीं तुम पूजा न करने लगो। ऋत में तो यह खतरा नहीं है। ऋत की पूजा नहीं की जा सकती। ऋत के अनुसार जीआ जा सकता है। ऋत जीवन बनता है, परमात्मा आराध्य बन जाता है; वह खतरा है, शब्द खतरा है। इसलिए बुद्ध जैसे अदभुत व्यक्ति ने परमात्मा शब्द का उपयोग ही नहीं किया, इनकार ही कर दिया कि छोड़ो यह बकवास है। धर्म की बात करो, परमात्मा की बात मत करो।
आमतौर से हम सोचते हैं कि परमात्मा के बिना कैसा धर्म? लेकिन बुद्ध ने कहा: धर्म पर्याप्त है। धर्म यानी ऋत। धर्म यानी जिसने सबको धारण किया है। धर्म यानी  जिसके आधार पर हम जी रहे हैं; श्वास ले रहे हैं, हम चेतन हैं। उसको ही समझ लो। उसको ही पहचान लो। ध्यान उसी के आविष्कार की कला है। जैसे हर जगह जमीन के नीचे पानी है, कुदाली उठा कर खोदो तो पानी मिल जाएगा। ध्यान कुदाली है हरेक के भीतर ऋत है। जरा खोदो। समाज ने बहुत सी मिट्टी तुम्हारे ऊपर जमा दी है। न मालूम कहां-कहां के कचरे विचार तुम्हारे ऊपर आरोपित कर दिए हैं! उन सबको जरा हटा डालो। कूड़ा करकट को अलग कर दो, पत्थर मिट्टी को तोड़ डालो और तुम्हारे भीतर झरना फूट पड़ेगा। फिर उस झरने को जीओ। वही झरना तुम हो, तुम्हारा स्वभाव है--तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी स्वछंदता, तुम्हारी निजता, तुम्हारा अहोभाव। फिर तुम जैसा भी जीओगे वही ठीक है, वही सम्यक है, वही पुण्य है।
ऋत के विपरीत जाना पाप है। ऋत के साथ कदम उठाना पुण्य है। ऋत के विपरीत जो गया उसका परिणाम दुख है। और ऋत के साथ जो बड़ा उसका परिणाम महासुख है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
जिंदगी सहरा भी है और
जिंदगी गुलशन भी है
प्यार में खो जाओगे तो
जिंदगी मधुबन भी है।
रात मिट जाती है आता है
सवेरे का जनम
धीरे-धीरे टूट जाता है
अंधेरे का भी दम
हंसते सूरज की तरह से
जिंदगी रोशन भी है
पार उतरेगा वही जो
खेलेगा तूफान से
मुश्किलें डरती हैं
नौजवां इंसान से
मिल ही जाएंगे सहारे
जिंदगी दामन भी है
प्यार में खो जाओगे तो
जिंदगी मधुबन भी है
भगवान, इस बेबूझ पहेली को समझाने की कृपा करें।
कृष्ण सत्यार्थी,

जीवन समस्या नहीं है, इसलिए सुलझाया नहीं जा सकता। जीवन पहेली भी नहीं है, क्योंकि हर पहेली के उत्तर होते हैं। जीवन का कोई उत्तर नहीं। जीवन एक रहस्य है। निश्चित ही बेबूझ है।
रहस्य का अर्थ होता है: जिसे सुलझाया न जा सके; जिसे सुलझाने की कोई जरूरत भी नहीं है। जीवन को जीओ, सुलझाना क्या है? सुलझा कर करोगे भी क्या? कुछ हैं ऐसे पागल जो सुलझाने में ही लगे रहते हैं। वे सुलझाते रहते हैं कि प्रेम क्या है। अरे प्रेम करो, सुलझाना क्या है? और कैसे सुलझाओगे बिना प्रेम किए? जान ही कैसे पाओगे? हां पुस्तकालय में बैठ कर प्रेम पर लिखी गयी सैकड़ों किताबें पढ़ सकते हो, प्रेम के संबंध में हजारों सूचनाएं इकट्ठी कर सकते हो; लेकिन प्रेम के संबंध में जानना प्रेम को जानना नहीं है। और प्रेम को वह जानेगा जो समझने की फिक्र न करे। समझने की फिक्र जिसने की वह जान ही न पाएगा।
जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गयी, रही किनारे बैठ।।
यह कबीर का वचन खयाल करो। मैं बौरी खोजन गयी! मैं पागल खोजने तो गयी थी, रही किनारे बैठ, मगर किनारे  ही बैठी रही। समझने की कोशिश करोगे तो किनारे ही बैठे रह जाओगे। उतरो,डुबकी मारो। जिन खोजा तिन पांइयां, गहरे पानी पैठ! ऐसे डूबो कि फिर निकलने को भी न रह जाए कुछ शेष। डूबो ही नहीं, एक हो जाओ,  तत्सम हो जाओ, तादात्म्य हो जाए।
जीवन को समझने की कोशिश में एक उपद्रव हो जाता है कि तुम जीने से वंचित हो जाते हो, किनारे बैठ जाते हो। जीवन जीने का नाम है। जीओ! और जितने बहु-आयामी ढंग से जी सको उतने बहु-आयामी ढंग से जीओ।
इसलिए मैं पुराने संन्यास के विरोध में हूं, क्योंकि वह एक आयामी जीवन था--भगोड़ेपन का, पलायन का। वह जीवने से भागना था। वह जीवन की भगवत्ता को स्वीकार करना नहीं था। वह, जीवन पाप है, इसकी घोषणा थी । और जीवन से भाग जाने में पुण्य समझा गया था। भागोगे कहां? जंगल में जाओगे। अगर ठीक से देखो तो वहां भी जीवन है--वृक्षों का जीवन है, पशुओं का जीवन है, पक्षियों का जीवन है। भागोगे कहां? चारों तरफ जीवन ही जीवन है। चांदत्तारों पर भी चले जाओगे तो चांद तारों का जीवन होगा। आदमियों से भाग सकते हो।और मजा यह है कि आदमी हो तुम आदमियों के साथ जीने में ही तुम्हें जीवन की गहराई मिलेगी। पत्थरों के साथ जीओगे, पत्थर हो जाओगे। स्वभावतः संग साथ का परिणाम होता है। इसलिए तुम्हारे गुफाओं में बैठे हुए लोग अगर मुर्दा पत्थरों की तरह हो जाते हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं है। भगोड़ों को और मिलेगा भी क्या? जीवन को उसके अनंत अनंत रंगों में जीओ। यह पूरा इंद्रधनुष है। इसके सातों रंग जीने योग्य हैं।
हां, इतना ही ख्याल रहे कि साक्षीभाव से जीओ, होशपूर्वक जीओ। और होशपूर्वक की शर्त भी इसलिए है, ताकि पूरे-पूरे जी सको। बेहोश जीओगे तो अधूरे जीओगे। पूरे-पूरे जीओ। जागे हुए जीओ। मस्त होकर जीओ जरूर। जागने का मतलब यह मत समझ लेना कि मस्ती गंवा देनी है।
जीवन का यही तो सबसे बड़ा रहस्यपूर्ण हिस्सा है कि यहां एक ऐसा होश भी है जो साथ ही साथ बेहोशी से भी ज्यादा गहरा होता है। यहां एक ऐसी बेहोशी भी है, जो साथ ही साथ होश के दीए से जगमगाती है। बाहर की शराब पीओगे तो बेहोश होओगे। भीतर की शराब पीओगे तो मस्ती भी होगी, बेहोशी भी होगी और होश भी न खोएगा। यह विरोधाभास घटता है। यही तो पहेली है--बेबूझ पहेली है यही रहस्य है।
जिंदगी सहरा भी है और जिंदगी गुलशन भी है। दोनों है। खिजां भी और मधुमास भी। वसंत भी और पतझड़ भी। बगीचा भी, रेगिस्तान भी। सब जिंदगी के अलग-अलग पहलू हैं। रेगिस्तान का अपना सौंदर्य है, जो किसी बगीचे में नहीं होता। कहां रेगिस्तान का सन्नाटा! कौन बगीचा उसका मुकाबला करेगा? कहां रेगिस्तान की ताजगी! दूर दूर तक फैला हुआ विस्तार, असीमता! कौन बगीचा उसका मुकाबला करेगा?
बगीचे का अपना सौंदर्य है। ये रंग-बिरंगे फूल, ये पक्षियों के गीत, ये वृक्षों का नृत्य...कौन रेगिस्तान इसका मुकाबला करेगा? मैं कहता हूं: चुनो मत। रेगिस्तान भी तुम्हारा है, मरूद्यान भी तुम्हारा है! यह सारा जीवन हमारा है। हम जीवित हैं, इसलिए हमें जीवन के सारे अंगों को छूना चाहिए। जितने अंगों को तुम छुओगे उतनी ही तुम्हारी आंतरिक समृद्धि होगी। अपने जीवन को रेलगाड़ी की पटरी जैसा मत बनाओ, मालगाड़ी के डिब्बे हो जाओगे नहीं तो। बस चले उसी पटरी पर, शंटिग ही करते रहोगे। ज्यादातर तो शंटिग ही करते हैं मालगाड़ी के डब्बे। बस इधर से उधर होते रहते हैं। और वही पटरी है बंधी हुई, उसी पर चलते रहना है, लीक, लकीर के फकीर।
नहीं, रेलगाड़ी की पटरी की तरह मत हो जाओ। मैं तो कहता हूं, नहर की तरह भी मत होओ, नदी की तरह होना चाहिए।  नहर में भी बंधाव हो जाता है। वह बंधी हुई धारा है। नदी की तरह कभी बाएं मुड़ते, कभी दाएं मुड़ते--और अज्ञात की यात्रा पर! और प्रतिपल अन्वेषण का है, आविष्कार का है। प्रतिपल नए नए का अनुभव है।
जिंदगी जीने वाले की है और जो जीता है वही जान पाता है। मगर जानना कुछ ऐसा गहरा है कि जान कर कोई कह नहीं सकता कि मैंने जान लिया। कहे कि जान लिया समझो कि नहीं जाना।
उपनिषदों का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि जो कहे मैंने जान लिया, जानना कि नहीं जाना।
सॉक्रेटीज ने कहा कि मैं इतना ही जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता। यह परम ज्ञान की अवस्था है।
उपनिषद का एक और अदभुत सूत्र है,लेकिन भारतीय पंडित उससे किस तरह चूकते गए हैं इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। उस सूत्र को तो भारत के हर पंडित की खोपड़ी पर खोद देना चाहिए। वह सूत्र कहता है कि अज्ञानी तो अंधेरे में भटकते ही हैं,ज्ञानी और महाअंधकार में भटक जाते हैं। क्या अदभुत बात है! जिसने कही होगी, किन गहराइयों से कही होगी! अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में स्वभावतः लेकिन तथाकथित ज्ञान का जिनको अहंकार है, ज्ञानी पंडित है, हैं तो तोता--पंडित तोताराम--लेकिन इस भ्रांति में हैं कि उनको ज्ञान हो गया है। यह हमेशा भ्रांति ही है।
जो जीवन को जानेगा, जान ही लेगा, मगर गूंगे का गुड़ है। स्वाद तो ले लेगा। तुम पूछोगे तो मुस्कराएगा। तुम पूछोगे तो हो सकता है बांसुरी बजाए कृष्ण की तरह कि मीरा की तरह नाचे कि बुद्ध की तरह आंख बंद कर ले। तुम पूछोगे तो जवाब न देगा। तुमसे यह कहेगा कि तुम भी बैठ जाओ चुप्पी में जैसा मैं बैठा, कि तुम भी नाचो  जैसा मैं नाच रहा, शायद तुम भी जान लो। जान लो तो ही जान पाओगे। मेरे कहे से कुछ भी न होगा। मेरे कहे से तो बात खराब हो जाएगी।
जीवन अगर समस्या होती तो उत्तर खोजा जा सकता था, उत्तर दिया जा सकता था।
लेकिन अच्छा है कि जीवन समस्या नहीं है। नहीं तो एक बुद्ध हो जाता और उत्तर दे जाता, बात खतम हो गयी,फिर तुम क्या करते? तुम्हारे लिए कुछ भी न बचता। अच्छा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना स्वयं खोजना होता है। स्वयं का मजा कुछ और है, रस ही और है, आनंद ही और है। और परमात्मा ने यह आयोजन किया हुआ है--यह ऋत है, एस धम्मो सनंतनो--कि किसी दूसरे का सत्य कभी तुम्हारा सत्य नहीं हो सकता।
इसलिए कोई कहना चाहे तो कह नहीं सकता; कहने की कोशिश भी करे तो कह नहीं पाता। और कह भी दे समझने वाला समझ नहीं पाता, सुनने वाला कुछ से कुछ सुन लेता है।
जीवन की मदिरा पीओ। और यह मदिरा बड़ी अनूठी है, विरोधाभासी है। बेहोश भी होओगे और जागोगे भी साथ साथ।
यारो मुझे मुआफ करो, मैं नशे में हूं
अब तो जाम खाली दो, मैं नशे में हूं
यारो, मुझे मुआफ  करो।
मासूर हूं जो पांव मेरा बेतरह पड़े
तुम सरगरां तो मुझसे न होओ
यारो मुझे मुआफ करो, मुआफ करो
या तो हाथ दो मुझे जैसे कि जामे-मय
या थोड़ी दूर साथ चलो, मैं नशे में हूं
यारो, मुझे मुआफ करो
मुआफ करो, मैं नशे में हूं
एक नशा बाहर का, जहां कि पैर डगमगा जाते हैं। और एक नशा भीतर का, जहां डगमगाते पैर ठहर जाते हैं, संभल जाते हैं। एक नशा बाहर का, जो अंधा कर देता है। और एक नशा भीतर का, जो आंखें दे जाता है।
ध्यान की शराब पीओ, कृष्ण सत्यार्थी। जीवन की पहेली को बूझने मत बैठो। यह पहेली ही नहीं है, इसलिए कभी बूझ न पाओगे। और बूझते रहे तो बूझते-बूझते लाल-बुझक्कड़ हो जाओगे, कुछ हाथ न लगेगा। और जो भी बूझोगे, उल्टा सीधा होगा।
लाल बुझक्कड़ की कहानियां तो तुमने पढ़ी ही हैं। गांव से एक हाथी निकल गया। सुबह गांव के लोग बड़े चिंतित, विचार में पड़ गए। सारा गांव इकट्ठा, क्योंकि पैर के निशान थे। रात हाथी निकल गया, किसी ने देखा नहीं। और हाथी उस गांव से कभी निकला न था। उस इलाके में हाथी होते न थे। उस दिन गांव में कामधाम न हुआ! कैसे हो! ऐसी बड़ी पहेली आ खड़ी हुई! कोई खेत पर न गया, कोई बगीचे में न गया। लोग खाना पीना भूल गए। सारा गांव वहीं इकट्ठा है कि माजरा क्या है, यह पहेली क्या है। अगर कोई जानवर निकला है तो कितना बड़ा न होगा। इसके पैर तो देखो! और जानवर तो देखा नहीं कभी, होता नहीं।
फिर गांव में जो लाल बुझक्कड़ था--हर गांव में होते हैं--उसने कहा, कुछ इसमें चिंता की बात नहीं। मैंने सब राज खोल लिया। यह कुछ खास बात नहीं है। सीधी सीधी बात है। पैर में चक्की बांध कर हरिणा कूदा होय! कुछ और मामला नहीं है। किसी हरिण ने पैर में चक्की बांध कर कूदा है। सो निशान तो बन गए बड़े बड़े, रहा हिरण।
और गांव तृप्त हो गया कि क्या बात खोज ली लाल बुझक्कड़ ने! फिर एक दफे चोरी हो गयी इसी गांव में। शहर इंस्पेक्टर आया। बहुत खोजबीन की, कुछ पता न चले। फिर लोगों ने कहा कि भैया, ऐसे पता नहीं चलेगा। एक दफा अड़चन आ गयी थी हमको, इधर से कोई जानवर निकला था, कोई सूझ न सका, कोई बूझ न सका। बड़े-बड़े पंडित सिर खुजाने लगे। शास्त्रों में उल्लेख नहीं था। लेकिन गांव में हमारे लाल बुझक्कड़ हैं, हर चीज को बूझ देता है। उसने बूझ दिया, मिनट में बूझ दिया। जैसे ही आए, उसने कहा कि क्यों परेशान हो रहे हो। पैर में चक्की बांध कर हरिणा कूदा होय। अब तो मामला उससे सुलझेगा।
इंस्पेक्टर ने भी सोचा कि चलो, कोई बात नहीं, कोई और रास्ता तो मिल नहीं रहा, पूछ ही लें। यह कौन लाल बुझक्कड़ हैं! लाल बुझक्कड़ को लाया गया। उन्होंने इन्स्पेक्टर से कहा, "कुछ मामला बड़ा नहीं। मगर एकांत में बताऊंगा, बिलकुल एकांत में बताऊंगा। क्योंकि मैं झंझट में नहीं पड़ना चाहता! मैं बता दूं कि किसने चोरी की, फिर वह मुझे परेशान करे। तो इसकी कसम खाओ, खाओ बाप की कसम, कि किसी को मेरा नाम नहीं बताओगे। और एकांत में बताऊंगा, कोई सुने नहीं।
तो लेकर लाल बुझक्कड़ उसको गांव के बाहर गए। जब बहुत दूर निकल आए, आदमी भी छूट गए, रास्ता भी बहुत दूर रह गया, गांव भी दिखाई भी न पड़े। इंस्पेक्टर थोड़ा घबड़ाने लगा कि यह आदमी कैसा है! इससे पूछा कि भई अब तो बता, अब यहां कोई भी नहीं, पशु-पक्षी भी नहीं, गाय भैंस भी पीछे छूट गयीं। अब रात भी आयी जा रही है। तू कहां तक लिए जा रहा है?
और कान में लाल बुझक्कड़ ने क्या कहा, कहा कि ऐसा लगता है, किसी चोर ने चोरी की है! इसको बताने के लिए इतनी दूर लेकर आए...किसी चोर ने चोरी की है! इंस्पेक्टर ने अपनी खोपड़ी से हाथ मार लिया, कि क्या गजब रहस्य खोला, आपने भी!
लाल बुझक्कड़ हो जाओगे,कृष्ण सत्यार्थी। जीवन की पहेली को बूझने मत जाना, नहीं तो कुछ उल्टा सीधा हो जाएगा जीवन को जीओ--समग्रता से जीओ, पूर्णता से जीओ, साक्षीभाव से जीओ, होश से जीओ। होश में--और तल्लीनतापूर्वक: यही मेरा संदेश है मेरे संन्यासियों को।
और यहीं सारी कठिनाई है। होश में जीना आसान है, अगर जंगल में भाग जाओ, क्योंकि कोई अड़चन नहीं रह जाती। संसार में जीना आसान है, अगर होश खो दो। तल्लीनता आसान है संसार में। लोग तल्लीन ही हैं। कोई धन में तल्लीन है, कोई पद में तल्लीन, कोई पत्नी में, कोई बच्चों में। अपनी-अपनी तल्लीनता सबने खोज रखी है। मगर होश खो जाता है, तल्लीनता बच जाती है। जंगल में होश आसान है,तल्लीनता खो जाती है। और बिना दोनों के जीवन का राज समझ में नहीं आता। होशपूर्वक तल्लीनता: तल्लीनतापूर्वक होश!
डूबो जरूर, मगर जागे भी रहो! और तब तुम्हें जीवन का रहस्य अनुभव में आएगा। और ऐसा नहीं कि तुम बता सकोगे कि क्या अनुभव में आया। गुपचुप रह जाओगे। कंठ तुम्हारा अमृत से भर जाएगा। जीवन तुम्हारा ज्योतिर्मय हो जाएगा। मगर बोल न सकोगे, गूंगे हो जाओगे। वाणी ठहर जाएगी।
बुद्धों ने जो भी कहा है वह सत्य के संबंध में कहा है, सत्य तो कहा नहीं जा सकता। बुद्धों ने जो भी कहा है, वह इशारा है कि चल पड़ो, यह रही दिशा। फिर जाकर ही तुम्हें अनुभव हो पाएगा।
तुम मुझसे पूछो कि सूर्योदय कैसा होता है और कमरे के बाहर न निकलो, द्वार दरवाजे बंद किये बैठे रहो, मैं क्या करूं? कैसे समझाऊं तुम्हें कि सूर्योदय कैसा होता है? मैं तुमसे यही कह सकता हूं: द्वार दरवाजे खोलो, बाहर आओ। देख ही लो। लेकिन तुम कहो कि मैं बाहर तो तब आऊंगा जब मैं समझ लूं कि सूर्योदय होता कैसा है, है भी देखने योग्य या नहीं? तो ज्यादा से ज्यादा मैं कह सकता हूं कि एक तसवीर ले आऊं सूर्योदय की, और तो ज्यादा से ज्यादा क्या किया जा सकता है? एक तसवीर ले आऊं। लेकिन तसवीर तो मुर्दा होगी। तसवीर में सूर्य ऊगता हुआ नहीं होगा; अटका होगा, एक जगह ठहरा होगा।
चंदूलाल की पत्नी धन्नो अपने बेटे को परिवार का अलबम दिखा रही थी। एक तसवीर पर बेटे ने कहा, रुको-रुको! मम्मी, यह कौन है? ये दिलीप कुमार जैसी जुल्फें! यह है कौन?
तो गुलाबो ने कहा, अरे तू पहचाना नहीं! ये तेरे पापा हैं। ये तेरे पिताजी हैं।
तो उस बेटे ने कहा, ये मेरे पिताजी हैं! आज तक तुमने बताया ही नहीं। तो अपने घर में वह जो गंजा आदमी रहता है, वह कौन है? मैं तो उसी को अब तक पिताजी समझता रहा।
मगर वे दिलीप कुमार जैसी जुल्फें ठहरी थोड़े ही रहती हैं। वे कभी न कभी चली जाएंगी। तसवीर में ठहरी रहती हैं। तसवीर में सब चीज ठहरी रहती है। इसलिए सब चीजें तसवीर की झूठी होती हैं।
बड़े चित्रकार पिकासो से किसी महिला ने कहा--बड़ी सुंदर अभिनेत्री ने--कि कल मैंने तुम्हारी तसवीर एक घर में टंगी देखी और ऐसा भाव विभोर हो गयी कि मैंने उसे छाती से लगा लिया और चूम लिया।
पिकासो ने कहा, फिर उस तसवीर ने क्या किया?
उस अभिनेत्री ने कहा," तसवीर ने क्या किया! तसवीर क्या करेगी? तसवीर ने कुछ नहीं किया।'
तो पिकासो ने कहा, "फिर वह मैं नहीं था। फिर वह तसवीर ही रही होगी। किसी की भी हो, मुझे पता नहीं, मगर मैं नहीं था। क्योंकि मुझे कोई चूमे और मैं कुछ न करूं और मुझे गले लगाए और मैं कुछ न करूं, यह हो ही नहीं सकता।'
और पिकासो ने कहा, तू भी हद करती है! मुझे इतनी बार मिल चुकी, कभी गले न लगाया और कभी चूमा भी नहीं और तसवीर को चूमने गयी!'
मगर लोग यूं ही हैं। बुद्ध जिंदा होंगे तो नहीं बुद्ध के पास जाएंगे, मूर्ति को पूजेंगे, फिर सदियों तक पूजेंगे। लोग तसवीरों को पूजने के आदी हैं; जिंदा से भागते हैं, डरते हैं, घबड़ाते हैं, क्योंकि जिंदा जवाब देगा। मुर्दे को पूजने में आसानी है। तुम्हारी जैसी मौज। अब जब चाहो कृष्ण जी के मंदिर के दरवाजे खोल दो और जब चाहो बंद कर दो, और जब चाहो मसहरी पर लिटा दो उनको। और जब चाहो उठा दो,बेचारे कुछ कर सकते नहीं। आधी रात उठा कर खड़ा कर दो कि चलो खड़े होओ कृष्ण कन्हैया! मगर असली कृष्ण कन्हैया के साथ ऐसा नहीं चल सकता। अरे असली कृष्ण की तो बात दूसरी, घर में छोटे से बच्चे को जरा सुलाने की कोशिश करो। उठ उठ कर बैठ जाता है कि नहीं सोना, क्यों सोएं?
एक घर में मैं मेहमान था। उस घर के मेहमान के बच्चे ने मुझसे कहा कि मेरी मम्मी पागल है। मैंने पूछा, क्यो? उसने कहा कि जब मुझे नींद नहीं आती तब कहती है सोओ और जब मुझे नींद आती है तब कहती है उठो। यह पागलपन नहीं तो क्या है? सुबह सुबह मुझे उठाने लगती है, जब मुझे नींद आती है और रात मुझे सुलाती है, जब मुझे नींद नहीं आती। मुझे टेलीविजन देखना है और वह कहती है सोओ। इसका दिमाग खराब है। आप अच्छे आ गए, इसको जरा समझाओ उलट-सुलट काम करती है।
बात बच्चा ठीक कह रहा है कि जब मुझे नींद नहीं आती है तब तो सोने नहीं देती। कहती है,ब्रह्ममुहूर्त है।' और जब मैं जागना चाहता हूं, रेडियो पर खबरें आ रही हैं, टेलीविजन पर फिल्म चल रही है, तो मुझे कहती है सो जाओ।'
यह बच्चे को तर्क समझ में नहीं आता। जिंदा बच्चे को भी नहीं सुला सकते। जिंदा कृष्ण कन्हैया को तुम क्या सुलाओगे? मगर मुर्दा कृष्ण कन्हैया को जब चाहो बांसुरी पकड़ा दो, जब चाहो छीन लो। जब चाहो भोग लगा दो। और मजा यह है कि खाओगे भोग तुम्हीं, लगाओगे उनको। जो दिल हो जैसे कपड़े पहनाने हों पहना दो। नंगा खड़ा कर दो, नंगे खड़े रहेंगे। ठंड हो तो ठीक। गरमी हो बरसात हो, तो ठीक। मुर्दा के साथ आसानी है। जिंदा के साथ मुश्किल है।
लेकिन जिंदगी को जानना हो तो जिंदगी को ही जानना होगा। मैं तसवीर भी लाकर तुम्हारे सामने रख दूं तो यह सूर्यास्त नहीं है, यह सूर्योदय नहीं है। इसमें कुछ बात खो गयी, बुनियादी बात खो गयी। यह तो सिर्फ कागज है सपाट, जिस पर कुछ रंग बिखेर दिए गए हैं। यह तो झूठी बात है।
मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि मैं दरवाजा खोलने का रास्ता जानता हूं, मैंने अपना दरवाजा खोला। तुम्हारा थोड़ा भिन्न ढंग का होगा, थोड़ा ढांचा अलग होगा। मेरा पूरब खुलता है, तुम्हारा पश्चिम खुलता होगा। तुम्हारी सिटकनी और ढंग की लगी होगी, ताला और ढंग का होगा। मगर दरवाजा खोला जा सकता है, इतना पक्का है और हर ताले की चाबी खोजी जा सकती है, इतना पक्का है। सच पूछो तो ताले के पहले चाबी तुम्हें दी गयी है। और पूरब से निकलो कि पश्चिम से, आकाश उपलब्ध है। और कहीं से भी निकल  आओ तारों के नीचे। कहीं से भी निकल आओ वृक्षों के पास। तब तुम्हें अनुभव होगा।
मैं तुम्हें मार्ग दे सकता हूं सत्य नहीं दे सकता। पहेली बूझी नहीं जा सकती। हां, पहेली में कैसे तुम डुबकी मार जाओ, इसकी कला तुम्हें दे सकता हूं। उसे ही मैं ध्यान कह रहा हूं। जागृति और तल्लीनता एक साथ। होश और बेहोशी एक साथ। जिस दिन तुम इस परम विरोधाभास को अपने भीतर पूरा कर लोगे, उस दिन सब तुम्हारा है--सारा आकाश, सारे तारे, सारा सौंदर्य, सारा आनंद, सारा उत्सव!

तीसरा प्रश्न: भगवान,
आप कुछ भी कहें, लेकिन मैं तो लेखन-कार्य में सफलता के लिए आपका आशीष लेकर ही लौटूंगा।
धन्य कुमार कमल,

धन्य हो माई के लाल! नाम लेकिन तुमने बड़ा पुराना चुना है--कवि का नाम--कमल। कमल के दिन लद गए। तुम कहते हो आधुनिक हूं। क्या खाक आधुनिक हो! कमल नहीं, कैक्टस, कोकाकोला, ऐसा कोई नाम रखो--जो आधुनिक हो, अंतर्राष्ट्रीय हो। क्या कमल?? कहां की कमल बत्तीसी में पड़े हो? कमल के दिन लद गये। यह तो बड़ा पुराना प्रतीक है। तुम आधुनिक कवि, आधुनिक लेखक, अकविता लिखते हो, अकहानी लिखते हो।
और अक्सर ऐसा होता है कि अकविता वे ही लोग लिखते हैं जो कविता नहीं लिख सकते। अकविता का मतलब है, जिनसे तुकबंद भी करते नहीं बनती। फिर अकविता लिखते हैं वे। जो लोग लेखक नहीं बन पाते वे आलोचक हो जाते हैं। जो लोग राजनीति में सफल नहीं हो पाते वे पत्रकार हो जाते हैं। जो लोग रास्ते पर नहीं चल पाते वे किनारे पर खड़े होकर पत्थर मारने लगते हैं चलने वालों को, और क्या करेंगे! कम से कम दूसरे चलने वालों के रास्ते में बाधाएं ही खड़ी करेंगे। जो तुकबंदी भी नहीं कर पाते वे अकविता करने लगते हैं। अकविता का मतलब यही होता है कि तुमसे कविता नहीं बनती करते।
और सफल होकर भी क्या करोगे? और मैंने तुम्हें कल ही समझाया कि अगर तुम कवि हो तो आशीष मिले या न मिले, क्या फर्क पड़ता है आशीष से? तुम कवि हो तो कविता करने में तुम्हारा आनंद होगा। सच पूछो तो कवि को सफलता की आकांक्षा करनी ही नहीं चाहिए। आ जाए संयोग की बात है। नदी नाव संयोग। न आना ज्यादा सुनिश्चित है, क्योंकि कविता न तो ओढ़ी जा सकती है, न खायी जा सकती, न पहली जा सकती है। किसके काम की है? रोटी बनाओगे कविता की? कपड़े बनाओगे, छप्पर बनाओगे? और लोग चाहते हैं--रोटी, रोजी, मकान। और तुम कहते कविता ले लो, कि यह ले जाओ कविता। लेकिन भूखे भजन न होहिं गोपाला! वे भूखे बैठे हैं और तुम कविता पकड़ा रहे हो। वे तुम्हारी गर्दन दबा देंगे, सफलता की बात कर रहे हो तुम?
तुम देखते नहीं कवि सम्मेलनों में किस तरह लोगों को हूट किया जाता है, कैसे लोग जूते घिसते हैं, कैसे शोरगुल मचाते हैं, कैसे बंद करवाने की कोशिश करते हैं। और कभी अगर बंद नहीं भी करवाते तो उसके कारण अलग-अलग होते हैं।
मैंने सुना, एक कवि सम्मेलन में एक कवि छंदबद्ध संगीत में बंधी हुई कविता का पाठ कर रहा था तरन्नुम में। और लोग उससे बार-बार कहें--मुकर्रर, फिर से, एक बार और। उसने दुबारा कविता फिर गायी, बड़ा प्रसन्न हुआ, आह्लादित हुआ--सौभाग्य कि जनता ने स्वीकार किया। लेकिन लोग फिर चिल्लाए--मुकर्रर, फिर से वंस मोर। और प्रभावित हुआ। तीसरी बार लोग फिर चिल्लाए। फिर तीसरी बार उसने पढ़ दी। जब चौथी बार लोग चिल्लाए तो उसने कहा कि, मुझे और भी कविता पढ़ने दोगे या इसी-इसी को दोहराता रहूं? तब एक आदमी खड़ा हुआ कि जब तक तुम इसको ठीक से न पढ़ोगे, तब तक हम मुकर्रर ही कहे चले जाएंगे पहले इसको ठीक से पढ़ो, फिर आगे बढ़ो।
मैंने तुम्हें समझाया, मगर तुम समझे नहीं। लोग अपनी ही जिद  में पड़े होते हैं, अपने ही खयालों में डूबे होते हैं। तुम अगर सच में कवि हो तो सफलता की आकांक्षा का सवाल ही नहीं उठता। कविता कर लेने में ही सफलता मिल गयी। अपना गीत गा लिया, सफलता मिल गयी। कौन कोयल फिक्र कर रही है कि उसको नोबल प्राइज मिले,  कि कौन पपीहा चिंता में पड़ा है कि कब भारत रत्न की उपाधि  मिले, कम से कम पदम-विभूषण तो हो ही जाए? किसी को पड़ी नहीं। किसी को चिंता नहीं। अपना गीत गा लिया, गीत गाने में आनंद है। सफलता की बात ही क्या? सफलता का क्या मतलब? सफलता का मतलब है: यश मिले।
तुमको तो मैं आशीर्वाद दे दूं, मगर मैं उनकी भी सोचता हूं जिनके कारण तुमको यश मिलेगा। उनकी तुम छाती पर दाल दलोगे।
एक रात एक शराब घर में ऐसा हुआ कि कुछ लोग आए और उन्होंने जी भर की शराब पी और डट कर पी और पिलायी भी। और भी जो लोग आए उनको भी पिलाते गए, जो अनजान अजनबी बैठे उनको भी पिलायी। जो आदमी था, बड़ा दिलफेंक आदमी था, जो पिला रहा था। और जब उसने पांच सात सौ रुपये का बिल चुकाया, आधी रात जब जाने लगे लोग, तो दुकानदार ने कहा कि तुम जैसे ग्राहक अगर रोज रोज आ जाएं तो हमारे तो सौभाग्य खिल जाएं, हमारी जिंदगी में रौनक आ जाए। उस जाते हुए आदमी ने कहा कि हम तो रोज-रोज आएं, तुम प्रार्थना किया करना परमात्मा से कि हमारा धंधा ठीक से चले।
उसने कहा, "जरूर प्रार्थना करेंगे। अरे क्यों नहीं करेंगे! जरूर कल से ही प्रार्थना करूंगा। गणपति बप्पा मोरया! कल से ही लो। गणपति की बिलकुल जान खा जाऊंगा कि तुम्हारे धंधे को सफल करे। तुम्हारा सफलता से चले तो हमारा सफलता से चले। और हमारा सफलता से चले तो गणपति का सफलता से चले। सबका चले, साथ-साथ चले। यह तो संग-साथ की बात है। जरूर!
लेकिन जाते-जाते उसने पूछा कि यह तो बता जा भाई कि तेरा धंधा क्या है? उसने कहा, "यह तुम न पूछो तो अच्छा। क्योंकि मैं मरघट पर लकड़ियां बेचने का काम करता हूं। लोग रोज-रोज मरते रहें, ज्यादा लोग मरते रहें, तो मेरा धंधा चलता है। मगर परमात्मा की कृपा से सब चलता है। कभी फ्लू, कभी हैजा, कभी डैंगू!'
क्या-क्या बीमारियां परमात्मा ने ईजाद की हैं-डैंगू! अरे आदमी को मारना ही हो, एक बार में ही मार डालो। जिंदगी भर की सजा एक बार में ही क्यों नहीं गूदते? या तो बल्कि यूं कहो, जी भर कर सजा एक ही बार में क्यों नहीं देते? मारो, धीरे धीरे मारो, घिस-घिस कर मारो! हाथ पैर तोड़ो। कमर में दर्द, हाथ में दर्द, पैर में दर्द, सिर में दर्द। परमात्मा भी क्या-क्या आविष्कार करता है! बीमारियां लगा रखी हैं और फिर आदमी के पीछे--एलापेथी, होम्योपेथी, आयुर्वेदिक और हकीमी और नेचरोपेथी, और न मालूम कितनी पेथियां लगा रखी हैं! अगर किसी तरह बीमारी से बच जाओ तो इनसे बचना मुश्किल। डैंगू से बच जाओ तो डाक्टर मारेगा। बहरहाल किसी न किसी हालत में मरना है, बहाना कोई खोजो।
सो उसने कहा कि तुम प्रार्थना करो, घबड़ाओ मत। वैसे भी लोग मरते हैं। जरा प्रार्थना करोगे, थोड़े ज्यादा मरेंगे। प्रार्थना तो सुनी जाती है। और मुझे तो पक्की परमात्मा पर श्रद्धा है, क्योंकि जब भी मैंने प्रार्थना की, कभी खाली न गयी। कोई न कोई बीमारी आ जाती है। जरूर सुनता है। अरे हृदय से पुकारो तो जरूर सुनता है! और लकड़ियां मेरी बिकती रहें तो मैं तो रोज आता रहा रहूं, यूं ही गलछर्रे उड़ें।
तुम तो आशीष मांगते हो, मगर उनका भी तो सोचो जिनको तुम्हारी कविता सुननी पड़ेगी। तुमको तो आशीष दे दूं, लेकिन उन बेचारों पर जो गुजरेगी, उनको जो डैंगू बुखार आएगा...! सफलता का मतलब क्या? मगर तुम सुनते नहीं। तुम अपनी धुन में हो। तुम कहते हो: आप कुछ भी कहें, लेकिन मैं तो लेखन-कार्य में सफलता के लिए आपका आशीर्वाद लेकर ही लौटूंगा।' जैसी तुम्हारी मर्जी! भैया किसी तरह लौट जाओ, आशीर्वाद लो, मगर लौटो! मुझे आशीर्वाद देने में कोई झंझट नहीं, क्योंकि मैं जानता हूं आशीर्वाद मेरा फलता नहीं। क्या झंझट है, जाओ।
एक व्यक्ति ने सुना था कि दिल्ली में बहुत जेबकतरे हैं। हैं ही, कोई झूठा भी नहीं सुना था। दिल्ली में रहना और जेब काटना न आता है तो क्या खाक दिल्ली में रहोगे! एक दिन वह अपनी जेब में खोटे सिक्के डाल कर पूरी दिल्ली घूमा और सोचा कि मेरी जेब देखें कोई कैसे काटता है। देखें ये दिल्ली के जेबकतरे मेरा क्या कर पाते हैं! शाम को जब घर लौटा तो टटोलने पर सब सिक्के ठीक-ठाक मिले, साथ में एक पर्ची भी मिली जिस पर लिखा था-- सूट पहनने से कोई बाबू नहीं बन जाता। जेब में तो खोटे सिक्के रखे हो।'
कोई कविता ही लिखने से कवि नहीं बन जाता भैया। सूट वगैरह पहन लिया, इससे क्या होता है? जेब में सिक्के भी तो असली होने चाहिए। कोई जेबकतरा भी नहीं काटेगा। वह भी पर्ची रख गया।
लेकिन तुम अपनी जिद में हो। तुम्हें कुछ और समझ में ही नहीं आ रहा है, बस सफलता ही पानी है।
एक व्यापारी ने दूसरे से कहा कि उसके शो रूम को आग लग गयी, जिसके बदले उसको बीमा-कंपनी ने दो लाख रुपया अदा किया!
दूसरे ने बताया, "विचित्र संयोग है। मुझे भी बीमा कंपनी से पांच लाख रुपये मिले। मेरे गोदाम बाढ़ की चपेट में आ गए थे।'
पहला आश्चर्य से बोला, "परंतु आप बाढ़ लाए कैसे?'
पोल ज्यादा देर छिपती नहीं। उसने बेचारे ने आग लगायी थी, सो उसे पता था, कि आग लगाना तो समझ में आता है मगर बाढ़ ले आया, यह आदमी हमसे आगे निकल गया!
तुम कविता करते कैसे हो? क्योंकि मेरी अपनी प्रतीति यह है कि जो कवि है वह सफलता की आकांक्षा नहीं करता। कविता तुम चुराते होओगे, इधर-उधर से जोड़त्तोड़ करके बिठाते होओगे।
चोरी इस देश में बहुत चलती है। छोटे-छोटे लोग ही चोरी नहीं करते, बड़े-बड़े लोग चोरी करते हैं। उन्नीस सौ तीस में सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर कलकत्ता की हाईकोट में मुकदमा चला चोरी का, कि उन्होंने एक विद्यार्थी की पी. एच. डी. की थीसिस में से पन्ने के पन्ने चुरा लिए, चैप्टर के चैप्टर चुरा लिए। जिस किताब से डाक्टर राधाकृष्णन जगत-विख्यात हुए, वह पूरी की पूरी चोरी है। "इंडियन फिलासफी' नाम की किताब से वे प्रख्यात हुए। वह एक विद्यार्थी की एक थीसिस थी--एक गरीब विद्यार्थी की। उसकी थीसिस उनके पास जांच के लिए आयी थी। वे प्रोफेसर थे, परीक्षक थे। उसकी थीसिस को तो दबा रखा उन्होंने और जल्दी से अपनी  किताब पहले छपवा ली, ताकि अदालत में यह कहने को हो जाए--कभी अगर मामला बिगड़े भी--कि मेरी किताब पहले छपी। मुकदमा चला और मामला पकड़ में आ गया, क्योंकि उसने थीसिस उनके पहले, किताब के छपने के एक-डेढ़ साल पहले विश्वविद्यालय में समर्पित की थी। डेढ़ साल से वह राधाकृष्णन के पास पड़ी थी। और एकाध वाक्य मिल जाए तो समझ में आता है, चैप्टर के चैप्टर,वही के वही। जल्दी में करना पड़ा उनको, तो उसमें कुछ थोड़े बहुत मेल मिलान भी कर देते, थोड़ी मिलावट भी कर देते, जैसा इस मुल्क में चलता है, इधर उधर कुछ मिला-जुला कर एक सा कर देते तो शायद पकड़ में इतने जल्दी भी न आते। लेकिन जल्दी छपवानी थी, क्योंकि यह थीसिस पड़ी थी उसकी,  उसको विश्वविद्यालय पीछे पड़ा था कि आप लौटाइए। हां या न कुछ भी भरिए।
और मजा तुम देखते हो, उन विद्यार्थी को इन्होंने फेल किया। फेल किया इसलिए कि उसको फिर से थीसिस लिखनी पड़ेगी, उसमें और दो साल लगेंगे। तब तक उनकी किताब जगत-विख्यात हो जाएगी, तब तक मामला बिलकुल  गड़बड़ हो जाएगा। लेकिन वह विद्यार्थी भी, था तो गरीब, लेकिन उसने जब इनकी किताब देखी तो दंग रह गया, भरोसा ही न आया। हाईकोट में मुकदमा गया। उस विद्यार्थी को दस हजार रुपये देकर किसी तरह--गरीब विद्यार्थी था--किसी तरह राजी किया और अदालत से  मुकदमा वापिस लौटाया।
राधाकृष्णन जैसे लोग, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ये तक चोरी करते हैं। इस देश में चोरी का तो हिसाब ही नहीं है। बड़ा आश्चर्यजनक  है यह देश। यहां मेरे देखे अधिकतर लोग बस उधार चलाते रहते हैं। जिनको तुम ज्ञानी और पंडित कहते हो, वह भी सब चोरी। अपना अनुभव तो कुछ भी नहीं।
तुम्हारी कविता  भी तुम्हारी नहीं हो सकती, नहीं तो सफलता की बात ही नहीं उठती। एक बात ख्याल रखो, काव्य एक सृजनात्मक आनंद है। यह अपने में ही अपना अंत है। यह किसी चीज का साधन नहीं है। यह तो अपनी मस्ती है कि तुमने गीत लिख लिया, अब सफलता क्या मांगनी! तुमने अपना गीत गाया, किसी से सुना या नहीं,  क्या लेना-देना! जंगल में फूल खिलता है, कोई उसकी सुगंध ले या न ले, तो भी मस्ती से खिलता है। एकांत में नाचता रहता है सूरज की रोशनी में। कोई पास से राहगीर गुजर जाये  गुजर जाए, न गुजरे न गुजरे। क्या लेना देना है?
यह सफलता की इतनी आकांक्षा छोड़ो। यह सफलता की आकांक्षा  व्यवसायी बुद्धि है। और यह बुद्धि खतरनाक है।
काया माया छोड़ कर, चले सत्य अवतार,
बेटों ने उत्साह से किया दाह संस्कार।
किया दाह संस्कार, कीमती शाल ओढ़ाई,
असली घृत से, मृत की चंदन चिता जलाई।
पशोपेश में एकाउंटेंट, कर रहे चर्चा,
किस खाते में डाले लालाजी का खर्चा?
एक आवाज उसी क्षण स्वर्गलोक से आई
"पेकिंग-फार्वडिंग' खर्चा दिखला दो भाई!
मर गए, मगर वह पेकिंग फार्वडिंग खर्चे में डाल दो, क्या सोच विचार में पड़े हो--स्वर्ग से आवाज दे रहे हैं!
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी जब मर रहे थे तो उनके चारों बेटे सोचने लगे कि अब आखिरी घड़ी आ गयी । पिताजी ने इतना कमाया, मगर कभी भोगा नहीं। कम से कम मरने के बाद तो इनकी अरथी यूं निकले जैसे कभी किसी की अरथी न निकली हो। इस शान से निकले! तो छोटे बेटे ने कहा, -ऐसा करो कि गांव में राजा साहब हैं, उनकी राल्सरायस मांग ली जाए। उसमें ही अरथी चले।'
दूसरे बेटे ने कहा, "वह जरा खर्चीला मामला है। उतना खर्च करने में सार क्या है? अरे अब आदमी तो मर ही गया, अब राल्सरायस में ले जाओ कि एम्बेसडर में ले जाओ, क्या फर्क पड़ता है? जिंदा आदमी हो तो फर्क पड़ता है। जिंदा आदमी हो तो यह खतरा है कि एम्बेसडर में कहीं मर ही न जाए। ऐसे दचके देती है एम्बेसडर। अब मर गया, अब इनको क्या फर्क पड़ता है? दचके खा लेंगे थोड़े तो क्या फर्क पड़ता है? कोई गर्भवती स्त्री तो है नहीं कि दचका खाए तो बच्चा पैदा रास्ते में ही हो जाए। अब ये मर ही गए। एम्बेसेडर मुहल्ले वाले की मांग लाएंगे। सस्ता काम, पेटा्रेल का भी कम खर्चा। वैसे ही पेटा्रेल के दाम देखो कैसे बढ़ते चले जा रहे हैं!'
तीसरे ने कहा, "क्या बकवास लगा रखी है? अरे अपने पिताजी की आत्मा को क्या दुख देना है? उनके जीवन भर की शैली समझो--सादा जीवन, उच्च विचार। बैलगाड़ी बिलकुल ठीक रहेगी--भारतीय भी, परंपरागत भी। यह क्या एंबेसेडर लगा रखी है? सस्ती भी, न कोई पेटा्रेल की जरूरत, न कुछ। और अपने नौकर के पास ही बैलगाड़ी है। यूं मुफ्त में ही काम चल जाएगा।'
अभी चंदूलाल मरे न थे, मरणशैया पर थे। वे यह सब सुन रहे थे। यह सारी बात सुन रहे थे। यह सारी बात सुन कर वे उठ कर बैठ गए और बोले, "बेटा, मेरे जूते कहां हैं?'
तीनों बेटों ने कहा, "अरे जूतों का क्या करिएगा?'
उन्होंने कहा, "बेटा, अभी मैं जिंदा हूं, मैं पैदल ही चला चलता हूं। वहीं चल कर जाऊंगा। क्यों खर्चा करना? बैलगाड़ी लाओ, घासपात खिलाओ, घास के दाम तो देखो!'
आदमी अपने ही ढंग में पकड़े जाता है--मरते दम तक, मरने के बाद भी!
तुम सुनते नहीं जो मैंने कहा उसको।
मुक्केबाजी की प्रतियोगिता में एक मुक्केबाज ने अपने प्रतियोगी को जब धराशायी किया तो रैफरी ने गिनती गिननी शरू कर दी। परंतु जब काफी समय तक धराशायी खिलाड़ी न उठ सका तो विजयी मुक्केबाज बोला, "अब गिनती न गिन कर राम-नाम का जाप कीजिए, शायद सांस वापस आ जाए।'
लोग होश में दिखाई पड़ते हैं, हैं नहीं। सुनते दिखाई पड़ते हैं, सुनते नहीं। तुम सुन रहे हो, मगर नहीं सुन रहे। तुम अपने भीतर हिसाब-किताब लगा रहे हो कि सफलता कैसे मिले। हम तो आशीष ही लेकर जाएंगे! अरे इसी के लिए तो आए हैं। मैं कहे चला जाऊं, तुम कहते हो: आप कुछ भी कहें...!
लोग करीब-करीब सोए हुए हैं। राम-नाम ही सुन लें तो बहुत। जिंदगी में तो सुनते नहीं, इसलिए लोग जब मरघट ले जाते हैं तो राम-नाम सत्य बोलते हैं, कि भैया अब सुन लो; जिंदगी भर तो सुना नहीं, अब शायद सुन लो। अब तो सुन लो! मगर जिसने जिंदगी में न सुना वह मर कर क्या खाक सुनेगा?
और यूं भी समझ लो कि तुम सफल भी हो जाओ तो क्या मिल जाएगा? किसी सड़ियल पत्रिका के संपादक हो जाओगे, और क्या हो जाएगा? छपास निकल जाएगी। छपास भी एक बीमारी है--छपना चाहिए। सो छपास निकल जाएगी। जैसे प्यास होती है न, ऐसे छपास ! हो क्या  जाएगा, मिल क्या जाएगा?
ये गैली ये डमियों ये प्रूफों का दफ्तर,
ये दफ्तर की छत से पर झड़ता पलस्तर!
ये ओ क़े र?िवीजन में पन्नों की खलबल,
ये खलबल अगर थम भी जाए तो क्या है!
कहानी औ गजलों के संग लघुकथाएं,
हुआ क्या अगर ये पढ़ी भी न जाएं!
ये पढ़ पढ़ ये छप-छप फटाफट का दफ्तर,
ये दफ्तर हमें मिल भी गया तो क्या है!
हरिक ब्लाक धुंधला, हरिक प्रिंट खतरा,
कर जाता सुर्खी में गलती ये बतरा!
ये दफ्तर में गलती या गलती में दफ्तर,
ये दफ्तर हमें मिल भी गया तो क्या है!
यहां कोशिशें फुर्सतों की हैं नाकाम,
ये मुदगल, ये उनियाल, अरुण और बलराम,
ये नंदन घिरे रहते हर दिन सुबह-शाम,
ये शामे अवध मिल भी जाए तो क्या है!
किस दें दुआएं करें किसलिए गम,
खपो जितना मरजी मिलेगा बहुत कम!
महीने में दो अंकों वाला ये दफ्तर,
ये दफ्तर हमें मिल भी गया तो क्या है!
उठा लो उठा लो उठा लो ये दफ्तर,
यूं ही सामने से हटा लो ये दफ्तर!
तुम्हारा है तुम ही सम्हालो ये दफ्तर,
ये दफ्तर हमें मिल भी गया तो क्या है!
फिर जैसी तुम्हारी मर्जी। कवि हो तो कविता में आनंद लो। कवि नहीं हो तो फिर तलाश करो कि क्या  तुम्हारा स्वयं का छंद है, क्या तुम्हारा स्वरूप है, क्या तुम्हारा ऋत है।
मैंने जीवन मैं कभी सफलता की भाषा में सोचा नहीं। वह मेरी भाषा नहीं। सफलता यानी अहंकार। कैसे तुम्हें आशीष दूं अहंकार की तृप्ति में। अहंकार ने ऐसा अंधेरा किया है हमारी आंखों में, हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और जो दिखाई पड़ता है वह गलत दिखाई पड़ता है।
जेलर साहब बहुत परेशान थे। उनके एक मित्र ने उनकी परेशानी का कारण पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, "कल रात रामनवमी के उपलक्ष में हमारे जेल के कैदियों ने रामलीला खेली।'
तो मित्र ने कहा, "इसमें परेशानी की क्या बात है? यह तो अच्छी बात है कि कैदियों ने रामलीला खेली।'
जेलर ने कहा, "पहले पूरी बात तो सुनो जी। लक्ष्मण जी को शक्ति-बाण लगने पर हनुमान बना कैदी संजीवनी-बूटी लेने गया।'
अरे--मित्र ने कहा--तो इसमें क्या बुराई है? यह तो होना चाहिए,नहीं तो रामलीला पूरी कैसे होगी?
जेलर ने कहा, "तुम पूरी बात ही नहीं सुनते, बीच-बीच में अपनी अड़ा देते हो। वह अभी तक वापिस नहीं आया है।'
जेलर की अपनी परेशानी है। उसको रामलीला से क्या लेना है? वे जो हनुमान जी गए हैं जड़ी बूटी लेने, वे लौटे ही नहीं, वे निकल ही भागे दिखता है।
तुम मुझे सुन नहीं रहे हो। तुम अपने गणित में पड़े हुए हो। तुम शायद सोचते होओगे कि में कोई चमत्कार कर दूंगा, तुम सफल हो जाओगे। मैं चमत्कार वगैरह करता नहीं। राख वगैरह भी निकालता नहीं। उस सबके लिए जाना है तो सत्य सांई बाबा के पास चले जाओ। वे राख भी निकाल देंगे। हालांकि वह आशीर्वाद अभिशाप है, क्योंकि अहंकार की तृप्ति अभिशाप है। अहंकार तो हार ही जाए यह अच्छा है। अहंकार तो बिलकुल हार जाए तो अच्छा है। उसको तो कभी सफलता न मिले तो अच्छा है। क्योंकि जब अहंकार हारता है ,तभी जीवन में वह घड़ी आती है--विचार की, चिंतन की, मनन की, रूपांतरण की। हारे की हरिनाम!

आज इतना ही।
छठवां प्रवचन; दिनांक २६ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें