ध्यान आँख है—प्रवचन—61
सूत्र—
यो
व पुब्बे पमज्जित्वा पच्छा सो नप्पमज्जति।
सो
' मं लोकं पभासेति अब्भा मुत्तो व चंदिमा।।150।।
यस्स
पापं कतं कम्मं कुसलेन पिथीयती।
सो
' मै लोकं पभासेति अब्भा व चंदिमा?।।151।।
अधं
भूतो अयं लोको विपस्सति।
सकुंतो
जालमुत्तो'
व अप्पो सग्गाय गच्छति?।।152।।
हंसादिच्चपथे
यंति आकासे यंति इद्धिया।
नीयंति
धीरा लोकम्हा जेत्वा मारं सवाहिनिं।।153।।
पथव्या
एकरज्जेन सग्गस्स गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्चेन
सोतापत्तिफलं वरं।।154।।
जब—जब भू के टुकड़े
होते
जड़
जड़ता से पापों सो
जब—जब
नभ की गरिमा गिरती
अविवेकी
अभिशापों से
जब—जब
आंखें अंधी होकर
अपने
पर रोया करती
जब—जब
मन ही गल जाता है
सुलग
रहे संतापों से
तब
कोई मधुगायन गाता है : असतो मा सदगमय।
जब—जब
कालिख पुत जाती है
दीवाली
के माथे पर
दिशा—दिशा
पर निशि छा जाती है
खो
जाती है डगर—डगर
गलियां
तो लुट जाया करतीं
सड्कों
पर डाके पड़ते
घर—घर
दीवाला हो जाता
हो
जाता नीलाम नगर
तब
कोई गायन गाता है :तमसो मा ज्योतिर्गमय।
जब
जीवन मरुथल बन जाता
मर
जाता प्यासा प्यासा
जब
अनब्याही रह जाती है
निर्धन
क्यारी अभिलाषा
लोहे
की बेड़ी बन जाते
शीशे
के कंगन—चूड़ी
हाथों
से मेंहदी उड़ जाती
तज
जाती आशा आशा
तब
कोई गायन गाता है : मृत्योर्माऽमृतंगमय।
बुद्ध
अनूठे हैं। ध्रुवतारे हैं। तारे तो बहुत, लेकिन ध्रुवतारा एक है। बुद्ध
ध्रुवतारे जैसे हैं। उनके साथ मनुष्य की चेतना के इतिहास में एक नए अध्याय का
सूत्रपात हुआ। कृष्ण ने जो कहा, वह पहले से कहा जाता रहा था।
उसमें नया कुछ भी न था।
क्राइस्ट
ने जो कहा, वह पुराने की ही नयी व्याख्या थी। व्याख्या नयी थी, लेकिन
सत्य पुराने थे। अति प्राचीन थे। महावीर ने जो कहा, उसे
महावीर के पहले तेईस और तीर्थंकर दोहरा चुके थे। जोड़ा—बहुत जोड़ा—लेकिन नए का कोई
जन्म न था। बुद्ध के साथ कुछ नए का जन्म हुआ। बुद्ध के साथ एक क्रांति उतरी मनुष्य
की चेतना में। उस क्रांति को समझना जरूरी है, तभी हम बुद्ध
के वचनों को समझ पाएंगे।
ये
वचन साधारण नहीं हैं,
ये क्रांति के उदघोष हैं।
तुम
बुद्ध को औरों के साथ मत गिन लेना। हिंदुओं ने बुद्ध को अपने दस अवतारों में गिना
है। बौद्ध भी सोचते हैं कि यह बुद्ध के प्रति बड़ा सम्मान हिंदुओं ने प्रगट किया, मैं नहीं
सोचता। क्योंकि बुद्ध को दस अवतारों में गिनना बुद्ध के ध्रुवतारे पर चोट करनी है।
बाकी जो हिंदुओं के नौ अवतार हैं, उनमें से किसी ने भी नए को
कोई सूत्रपात नहीं दिया है, कोई क्रांति उनसे प्रारंभ नहीं
होती। उन्होंने शाश्वत सत्य दोहराए हैं। वे बहुमूल्य पुरुष थे, पर अनूठे नहीं। उनसे परंपरा को बल मिला, लेकिन क्रांति
का जन्म नहीं हुआ।
इसलिए
बुद्ध को किसी दस के साथ जोड़ना बुद्ध का अपमान है, सम्मान नहीं। बुद्ध अकेले
हैं, न उन जैसा उनके पहले है कोई, न उन
जैसा उनके बाद है कोई। उनके अकेलेपन में ही उनकी खूबी है। उनकी विशिष्टता यही है।
क्या
क्रांति बुद्ध मनुष्य की चेतना में ले आए? समझें।
पहली
बात, बुद्ध के साथ धर्म ने वैज्ञानिक होने की क्षमता जुटायी। बुद्ध के साथ धर्म
वैज्ञानिक हुआ। बुद्ध के साथ विज्ञान की गरिमा धर्म को मिली। इसलिए यह आकस्मिक
नहीं है कि आज विज्ञान के युग में जब राम फीके पड़ गए हैं और क्राइस्ट के पीछे चलने
वाले भी औपचारिक ही क्राइस्ट का नाम लेते हैं, महावीर की
पूजा भी चलती है, लेकिन बस नाममात्र को, कामचलाऊ, बुद्ध की गरिमा बढ़ती जाती है। जैसे—जैसे
विज्ञान प्रतिष्ठित हुआ है मनुष्य की आंखों में, वैसे—वैसे बुद्ध की
गरिमा बढ़ती गयी है। बुद्ध की गरिमा एक क्षण को भी घटी नहीं है। और तो सत्युरुष
पुराने पड़ गए मालूम पड़ते हैं, बुद्ध ऐसा लगता है कि अब उनका
युग आया। या शायद अभी भी नहीं आया है, आने वाला है। पगध्वनि
सुनायी पड़ती है कि बुद्ध का युग करीब आ रहा है। चाहे अलबर्ट आइंस्टीन हों, चाहे बर्ट्रेड रसल, चाहे ज्याँ पाल सार्त्र, चाहे कार्ल जैस्पर्स, पश्चिम के बड़े से बड़े विचारक
भी, जो क्राइस्ट के सामने झुकने में बेचैनी अनुभव करते हैं,
उनके सिर भी बुद्ध के सामने झुक जाते हैं।
बर्ट्रेड
रसल ने लिखा है कि मैं ईसाई घर में पैदा हुआ और ईसाई धारणा में पाला—पोसा गया, लेकिन
उससे मैंने छुटकारा पा लिया। एक बड़ी अनूठी किताब लिखी है—व्हाय आई एम नाट ए
क्रिश्चियन। मैं ईसाई क्यों नहीं हूं। और सारे तर्क दिए हैं कि जीसस का व्यक्तित्व
अवैज्ञानिक है, इसलिए मैं ईसाई नहीं हो सकता।
लेकिन
बर्ट्रेंड रसल ने भी कहा है, बुद्ध के साथ बात कुछ और है। बुद्ध को इनकार
करना मुश्किल है। क्योंकि बुद्ध ने अवैज्ञानिक कोई बात ही नहीं कही। बुद्ध ने एक
शब्द नहीं उच्चारा जिसे तुम तर्क से खंडित कर सकी। बुद्ध ने एक बात भी नहीं कही जो
बुद्धि की कसौटी पर खरी न उतरती हो।
इसका
यह अर्थ नहीं है कि बुद्ध बुद्धि पर चुक जाते हैं। बुद्ध बुद्धि के पार जाते हैं। लेकिन
बुद्धि का सहारा लेकर जाते हैं, बुद्धि के विपरीत नहीं, विरोध
में नहीं। यह बुद्ध की पहली क्रांति है।
बुद्ध
कहते हैं, बुद्धि की भी सीढ़ी बना लेंगे। इस पर चढ़ेंगे। सत्य बुद्धि के पार है,
लेकिन बुद्धि—विरोधी नहीं है। एंटी इंटेलेक्यूअल नहीं है। सुपर इंटेलेक्यूअल
है। इसलिए बुद्धि को छोड़ने की जरूरत नहीं है सत्य को पाने के लिए, बुद्धि को परिमार्जित, निखारने की जरूरत है। शुद्ध
करने की जरूरत है। अगर बुद्धि शुद्ध न हो तो जहर है, शुद्ध
हो जाए तो अमृत है। बुद्ध बुद्धिवादी हैं। यद्यपि उनकी बुद्धि बुद्धि के पार जो है
उसकी तरफ इशारा करती है। इसलिए कोई बुद्धिवादी बुद्ध को इनकार नहीं कर सकता।
बुद्ध
ने, जानते हो, भगवान की बात ही नहीं की, ईश्वर की बात ही नहीं की, परमात्मा का नाम ही नहीं
लिया। नहीं कि बुद्ध को पता नहीं है। बुद्ध को पता न होगा तो किसको पता होगा!
लेकिन नाम लेना भी अबौद्धिक मालूम पड़ता है। इसका प्रमाण नहीं जुटाया जा सकता। अगर
कोई पूछे, कहां है ईश्वर, तो कैसे
प्रमाण जुटाओगे? तो बुद्ध ईश्वर की बात छोड़ दिए, लेकिन अप्रामाणिक बात कहने की उन्होंने भूल नहीं की। ईश्वर के संबंध में
चुप रह गए। ध्यान की बात कही। क्योंकि वे जानते हैं, जो
ध्यान में उतरेगा वह एक दिन ईश्वर को जान ही लेगा, ईश्वर की
बात ही क्या करनी! स्वाद ही ले लेगा, उस दिन डोल जाएगा,
उस दिन मस्त हो जाएगा। लेकिन जब तक स्वाद नहीं लिया है, तब तक कहीं ऐसा न हो कि ईश्वर की बात करके ही रुकावट पड़ जाए।
तुमने
देखो, बहुत लोग ईश्वर के कारण ही धार्मिक होने से रुके हैं। क्योंकि ईश्वर में
ही भरोसा नहीं आता तो धार्मिक कैसे हों! बुद्ध ने नास्तिक को भी धार्मिक होने का
मार्ग खोला, यह अपूर्व क्रांति है।
बुद्ध
ने कहा, नास्तिक हो, ठीक है, भले हो,
आओ। क्योंकि ध्यान करने में तो नास्तिक को भी क्या बाधा हो सकती है!
और ध्यान रखना, जब बुद्ध कहते हैं ध्यान, तो उनका वही अर्थ नहीं होता जो दूसरों का होता है। जब मीरा कहती है ध्यान,
तो उसका अर्थ होता है—कृष्ण पर ध्यान। किसी पर ध्यान। जब बुद्ध कहते
हैं ध्यान, तो वे कहते हैं, जब तक कोई
तुम्हारे चित्त में है तब तक ध्यान ही नहीं है। न कृष्ण, न
राम, न अल्लाह। जब तक तुम्हारे चित्त में कोई है तब तक चित्त
है। तब तक कैसा ध्यान? तो ध्यान का अर्थ है, चित्त से शून्य हो जाना, विचार से शून्य हो जाना। किस
पर ध्यान, बात ही गलत है। ध्यान एक अवस्था है निर्विचार की। ध्यान
एक अवस्था है जब तुम बिलकुल अकेले हो, एकाकी। अकेला तुम्हारा
चैतन्य बचा। निर्विकार। जरा भी बादल न रहे, आकाश बचा,
कोरा आकाश, निरभ्र आकाश, तब ध्यान। इस ध्यान को तो नास्तिक भी कर सकता है। इस ध्यान के लिए कोई भी
श्रद्धा जरूरी नहीं है।
बुद्ध
ने एक नया शब्द कहा—शोध। श्रद्धा नहीं, शोध। खोज। श्रद्धा का अर्थ होता है,
खोजने के पहले मान लो। श्रद्धा का अर्थ होता है, मानना पहले, खोजना बाद में। लेकिन बुद्ध कहते हैं,
अगर पहले मान ही लिया तो खोजोगे कैसे? फिर तो
मान्यता ही बाधा बन गयी। खोज का तो अर्थ है, आंख खाली हो,
कोई मान्यता न हो—न पक्ष, न विपक्ष। खोज का तो
अर्थ होता है, इतना ही बोध हो कि मुझे पता नहीं और मैं पता
करना चाहता हूं।
तुम
अगर आस्तिक से पूछो,
तो वह कहता है, ईश्वर है, मेरी श्रद्धा है। नास्तिक से पूछो, तो वह कहता है,
ईश्वर नहीं है, यह मेरी श्रद्धा है। आस्तिक और
नास्तिक दोनों श्रद्धालु हैं। एक ईश्वर के होने को मानता है, एक ईश्वर के न होने को। बुद्ध कहते हैं, दोनों
धार्मिक न रहे। धार्मिक का तो अर्थ है कि आदमी कहेगा, मुझे
पता नहीं है, मैं अंधेरे में खड़ा हूं। खोजना है। जब तक खोज न
हो जाए, तब तक कैसे कहूं कि ईश्वर है या नहीं है! खोज हो
जाएगी पूरी, तब कहूंगा। निष्पत्ति तो बाद में आएगी। यही तो
विज्ञान की प्रक्रिया है। विज्ञान की प्रक्रिया के ये चरण हैं—पक्षपात रहितता,
धारणा—शून्यता, अवलोकन—ऑब्जवेंशन।
लेकिन
अवलोकन तो हो ही नहीं सकता,
अगर तुम पहले ही से मानकर चले हो। तब तो तुम वही देखते रहोगे जो तुम
देखना चाहते हो। तब तो तुम्हारी आंखें तुम्हें वही दिखाती रहेंगी जो तुम देखना
चाहते हो। असंभव है।
मैंने
सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे बहुत परेशान हो गयी— शराब और शराब और
शराब। कोई उपाय न दिखे उसे शराब से छुड़ाने का। तो उसे एक सूझ आयी। मुल्ला रात
लौटता है शराब पीकर घर,
तब करीब का रास्ता मरघट से होकर गुजरता है। तो रात के नशे में डर
इत्यादि तो खो ही जाते हैं, नशे में किसका क्या होश कि मरघट
है कि क्या? तो वह करीब के रास्ते ही से घर आता है। दिन में
तो मरघट से नहीं निकलता। दिन में तो लंबे रास्ते से मधुशाला जाता है। लेकिन रात जब
पी चुकता तो फिर वह कब्रों को ही टकराता हुआ, कब्रों पर ही
गिरता हुआ घर लौटता। तो उसे एक सूझ आयी पत्नी को कि अब और तो कोई उपाय नहीं है,
तो कुछ यह तरकीब की जाए।
वह
एक रात जाकर एक कब्र के पीछे छिप गयी। काला कपड़ा पहन लिया, मुंह पर
कालिख लगा ली, भूत बनकर छिप गयी। कि शायद घबड़ा जाए, डर जाए तो उसी डर में, घबड़ाहट की हालत में इससे वचन
ले लेना जरूरी है। जब मुल्ला वहां से निकला लड़खड़ाता हुआ तो वह एकदम से कब्र के ऊपर
से छलांग लगाकर उसके सामने कूदकर खड़ी हो गयी। एक क्षण को तो वह चौंका, फिर बोला, अरे! पत्नी खूब जोर से चिल्लायी कि घबड़ा
जाए। मगर वह बोला, चिल्लाओ क[ए मत, पहचाना
नहीं मैं कौन हूं मुल्ला ने उससे कहा। उसकी पत्नी ने कहा, कौन
हो? उसने कहा, मैं हूं मुल्ला
नसरुद्दीन और तुम हो मेरे साले। अपनी बहन को भी भूल गए? तुम्हारी
बहन से तो मेरी शादी हुई है। चेहरा कुछ पहचाना हुआ सा लगा तो उसने सोचा, हो न हो मेरी पत्नी का भाई है। आओ, हाथ मिलाओ और घर
चलो, तुम्हारी बहन बड़ी खुश होगी।
धारणा
पहले से हो, पहले से एक आकृति मन में हो तो उसी आकृति के सहारे तुम देखोगे। वह चीख—पुकार
तो पत्नी की पहचानी हुई थी, कई दफे चीख चुकी, पुकार चुकी, इस तरह का विकराल रूप घर में भी रख लेती
है—घर में पत्नियां बड़ा विकराल रूप रख लेती हैं, इसीलिए तो
बाहर निकलते वक्त उनको साज—संवरने में बड़ी देर लग जाती है। क्योंकि घर तो वे चंडी
होती है। तो वह तो यह रूप घर देख चुका था कई दफा, पहचाना हुआ
रूप था। यद्यपि स्थान नया था, मरघट था, कालिख भी लगा ली थी मुंह पर, बाल बिखरा लिए थे,
काले कपड़े पहन लिए थे, तो भी फर्क न पड़ा। पहचान
गया।
तुम्हारी
आंख में जब कोई आकृति बसी हो तो तुम उसे खोज ही लोगे। हम वही सुनते हैं जो हमारी
धारणा है। हम वही देखते हैं जो हमारी धारणा है। विज्ञान का अनिवार्य चरण है कि तुम
निर्धारणा से जाओ। तुम पहले से खयाल लेकर मत जाना। शून्य मन जाओ, नग्न मन
जाओ। तो अवलोकन होगा।
फिर
परीक्षण करो। क्योंकि अवलोकन से कुछ नहीं होता। जो बात पहली दफे समझ में आ गयी हो, उसे कई
तरफ से जांचो—परखो, बहुत प्रयोग करो, जब
हर प्रयोग में एक ही नतीजा आए और कभी अपवाद न हो, तब कुछ
रास्ता है, तो अनुभव होगा। अनुभव से निष्पत्ति होगी। श्रद्धा
बाद में। श्रद्धा पहला कदम नहीं है विज्ञान में। पहला कदम संदेह, अंतिम कदम श्रद्धा।
जिसको
तुम धर्म कहते हो,
आमतोर से उसमें श्रद्धा पहला कदम और संदेह की तो कोई जगह ही नहीं है।
इसलिए बहुत बुद्धिमान लोगों को मजबूरी में अधार्मिक रहना पड़ता है। क्योंकि यह बात
उनकी पकड़ ही में नहीं आती। संदेह को कहा ले जाएं? है तो है!
और अगर परमात्मा ने दिया है संदेह तो उसे काटकर कैसे फेंक दें? उसका कोई उपयोग होना चाहिए।
इसलिए
मैं कहता हूं बुद्ध ने अनूठी बात कही। बुद्ध ने कहा, संदेह का उपयोग हो सकता है।
संदेह को श्रद्धा की सेवा. में लगाया जा सकता है। संदेह श्रद्धा के विपरीत नहीं है।
संदेह के ही सहारे श्रद्धा खोजी जा सकती है।
यही
तो विज्ञान करता है,
संदेह के सहारे श्रद्धा खोजता है। और वैज्ञानिक जब एक निष्पत्ति पर
पहुंचता है तो संदेह का कारण ही नहीं रह जाता। सब परीक्षण कर लिए, अवलोकन कर लिया, सब तरह से जांच—परख कर ली, ऐसा पाया। तथ्य। धारणा नहीं, तथ्य।
बुद्ध
का एक नाम है तथागत। उसका अर्थ होता है, जो जगत में तथ्य को लाया। जिसके
द्वारा जगत में तथ्य आया। इसके पहले कल्पनाएं थीं, धारणाएं
थीं, विश्वास थे। तथागत प्यारा शब्द है। उसके बहुत अर्थ होते
हैं। उसका एक अर्थ यह भी होता है—आगत का अर्थ होता है, आया,
और तथा का अर्थ होता है, तथ्य—जिसके द्वारा
तथा, तथ्य जगत में उतरा। जिसने सत्य को तथ्य के माध्यम से
खोजने के लिए कहा। जिसने श्रद्धा की शोध संदेह के द्वारा करने को कहा। यह बड़ी
कीमिया है कि हम संदेह का उपयोग श्रद्धा को पाने के लिए कर लें।
केशर—कस्तुरी
नहीं
मैली
राख
कर
सकती है पावन
कनक—रजत
के जूठे पात्र
तुमने
देखा, जूठे पात्र को साफ करना हो—
केशर—कस्तूरी
नहीं
मैली
राख
कर
सकती है पावन
कनक—रजत
के जूठे पात्र
स्वर्ण
और चांदी के बने जूठे पात्रों को साफ करना हो तो राख का सहारा लेना पड़ता है। केशर—कस्तुरी
से थोड़े ही पात्र शुद्ध होते हैं, राख से शुद्ध होते हैं। और राख क्या शुद्ध
करेगी, तुम कहोगे, राख तो खुद ही शुद्ध
नहीं है। ऐसा ही संदेह है। ऊपर से देखोगे राख, लेकिन अगर
इसका उपयोग कर लो तो तुम्हारी आत्मा के रजत—कनक के पात्र इससे शुद्ध हो जाते हैं।
बुद्ध
ने संदेह को शुद्धि के लिए उपयोग कर लिया। और कलाकार वही है जो व्यर्थ का भी
सार्थक उपयोग कर ले। गुणी वही है जो काटे को भी फूल बना ले। काट देना कोई गुण नहीं
है, उपयोग कर लेना, सृजनात्मक उपयोग कर लेना गुण है।
विज्ञान
कहता है, निरपेक्ष रही, कोई अपेक्षा लेकर सत्य के पास मत जाओ।
आंखें खाली हों, ताकि तुम वही देख सको जो है। यथावत। तथावत। तुम
अगर पहले से ही कुछ मानकर चल पड़े हो तो वही देख लोगे। तुम्हारी कल्पना का
प्रक्षेपण हो जाएगा।
मेरे
एक मित्र थे—बूढ़े आदमी थे,
अब तो चल बसे—महात्मा भगवानदीन। अनूठे व्यक्ति थे। एक महानगर में
कुछ पैसे इकट्ठे करने गए थे—कहीं एक आश्रम बनाते थे। सीधे—साधे आदमी थे। बस एक
अंडरवियर पहने रहते थे, कभी—कभी सर्दी इत्यादि में एक चांदर
भी डाल लेते थे। वह अंडरवियर पहने ही वे दुकानों पर गए। किसी ने चार आने दिए,
किसी ने आठ आने दिए; किसी ने रुपया दिया। सांझ
जब मुझे मिले, उन्होंने कहा, इतना बड़ा
नगर है, कुल बीस रुपए इकट्ठे हुए!
मैंने
कहा, आप पागल हो, यह कोई ढंग है? आपको
महात्मा होना आता ही नहीं। मुझसे पूछा होता। यह जाने का ढंग ही नहीं। अब दो—चार
दिन रुक जाओ, दों—चार दिन जाओ मत, लोगों
को भूल जाने दो। उन्होंने कहा, क्यों फिर क्या होगा? मैंने कहा, देखेंगे चार दिन बीत जाने के बाद अखबार
में मैंने खबर दिलवायी कि बड़े महात्मा गांव में आए हैं—महात्मा भगवानदीन। और चार—छह
मित्रों को कहा कि जरा डुग्गी पीटो, उनकी खबर करो गांव में। फिर
पंद्रह—बीस मित्रों को इकट्ठा कर दिया, मैंने कहा, इनको साथ लेकर अब जाएं—उन्हीं दुकानों पर जाना जिनसे चार आने और आठ आने और
बारह आने पाए थे।
वह
उन्हीं दुकानों पर गए,
वे लोग उठ—उठकर चरण छुए कि महात्माजी आइए, बैठिए,
बड़ी कृपा की। अखबार में पढ़ा कि आप आए हैं। और बीस—पच्चीस आदमियों की
भीड़! जिसने चार आने दिए थे उसने पांच सौ रुपए दिए जिसने आठ आने दिए थे उसने हजार
रुपए दिए। जब वह सांझ को लौटे तो बीस रुपए नहीं, बीस हजार
रुपए इकट्ठे करके लौटे।
मैंने
पूछा, कहो कैसी रही! लोग प्रचार को देते हैं, विशापन को
देते हैं। लोग तुम्हें थोड़े ही देते हैं, कि तुम चले गए अपना
अंडरवियर पहनकर! चार आने दे दिए, यही बहुत! तुमसे अंडरवियर
नहीं छीन लिया उन लोगों ने, भले लोग हैं। नहीं तो धक्का
मारकर निकालते अलग और अंडरवियर छीन लेते सो अलग।
मगर, वह कहने
लगे, आश्चर्य की बात है, कि उन्हीं
दुकानों पर गया और बुद्धओं को यह भी न दिखायी पड़ा कि मैं पहले चार आने लेकर चला
गया हूं!
देखता
कौन है! वह चार आने तुम्हें थोड़े दिए थे, हटाने को दिए थे, कि जो भी हो, चलो हटो! फुर्सत किसको है? धारणा! जब धारणा हो मन में कि कोई महात्मा है तो फिर महात्मा दिखायी पड़ने
लगता है। चोर हो तो चोर दिखायी पड़ने लगता है।
एक
आदमी के घर बगीचे में काम करते वक्त उसकी खुर्पी खो गयी। तो उसने चारों तरफ देखा, एक पड़ोस
का लड़का जा रहा था, बिलकुल चोर मालूम पड़ा, उसने कहा हो न हो यही शैतान खुर्पी ले गया। फिर दों—तीन दिन उसने उसकी जांच—परख
की, जहा भी दिखायी पड़े तब गौर से देखे, बिलकुल चोर मालूम पड़े। चाल से चोर, आंख से चोर,
हर तरह से चोर। और तीसरे—चौथे दिन अपने बगीचे में काम करते वक्त एक
झाड़ी में पड़ी हुई वह खुर्पी मिल गयी। अरे, उसने कहा, खुर्पी तो यहीं पड़ी है! फिर उस दिन उस लड़के को देखा, वह एकदम भला सज्जन मालूम पड़ने लगा। न उसने खुर्पी उठायी थी, न उसे कुछ पता है कि क्या हुआ, लेकिन धारणा।
जब
तुम्हारी धारणा हो कि फलां आदमी चोर, तो तुम्हें चोर दिखायी पड़ने लगेगा।
जब तुम्हारी धारणा हो कि फलां आदमी साधु, तुम्हें साधु
दिखायी पड़ने लगेगा। ये सत्य को खोजने के ढंग नहीं। धारणा अगर पहले ही बना ली तो
तुम तो असत्य में जीने की कसम खा लिए। तो बुद्ध ने कहा, कोई
धारणा नहीं। कोई शास्त्र लेकर सत्य के पास मत जाना। सत्य के पास तो जाना
निर्वस्त्र और नग्न, शून्य; दर्पण की
भांति जाना सत्य के पास। तो जो हो, वही झलके। तो ही जान
पाओगे।
अब
मैं तुमसे दूसरी बात कहना चाहता हूं कि विज्ञान से भी कठिन काम बुद्ध ने किया। क्योंकि
विज्ञान तो कहता है,
वस्तुओं के प्रति निरपेक्ष भाव रखना। वस्तुओं के प्रति निरपेक्ष भाव
रखना तो बहुत सरल है, लेकिन स्वयं के प्रति निरपेक्ष भाव
रखना बहुत कठिन है। बुद्ध ने वही कहा। विज्ञान तो बहिर्मुखी है, बुद्ध का विज्ञान अंतर्मुखी है। धर्म का अर्थ होता है, अंतर्मुखी विज्ञान। बुद्ध ने कहा, जैसे दूसरे को
देखते हो बिना किसी धारणा के, ऐसे ही अपने को भी देखना बिना
किसी धारणा के।
यह
जरा कठिन बात है। करीब—करीब असंभव जैसी। क्योंकि हम अपने को तो बिना धारणा के देख
ही नहीं पाते। हम तो सब अपनी—अपनी मूर्तियां बनाए बैठे हैं। हम सबने तो मान रखा है
कि हम क्या हैं,
कैसे हैं, कौन हैं। पता कुछ भी नहीं है,
मान सब रखा है। इसीलिए रोज दुख उठाते हैं। क्योंकि कोई हमें गाली दे
देता है तो हमें कष्ट हो जाता है। क्योंकि हमने तो मान रखा था कि लोग हमारी पूजा
करें और लोग गाली दे रहे हैं। कोई पत्थर फेंक देता है तो हम क्रोधित हो जाते हैं,
क्योंकि हमने तो मान रूखा था कि लोग फूलमालाएं चढ़ाके, लोग पत्थर फेंक रहे हैं। हमारी धारणाएं हैं अपनी। हमने मन में अपनी एक
स्वर्ण—प्रतिमा बना रखी है। कल्पनाओं की, सपनों की, इंद्रधनुषी।
बुद्ध
कहते हैं, ये प्रतिमाएं भी छोड़ो। नहीं तो तुम आत्म—साक्षात्कार न कर सकोगे। तुम कौन
हो, यह धारणा छोड़ो। हिंदू कि मुसलमान कि ईसाई कि जैन। तुम
कौन हो, ब्राह्मण कि शूद्र कि क्षत्रिय? तुम कौन हो, साधु कि असाधु? ये
सब धारणाएं छोड़ो। तुम निर्धारणा होकर भीतर उतरो। अभी तुम्हें कुछ भी पता नहीं है
कि तुम कौन हो। और ये सब धारणाएं बहुत छोटी हैं। असाधु की धारणा तो व्यर्थ है ही,
साधु की धारणा भी व्यर्थ है। क्योंकि जिसे तुम भीतर विराजमान पाओगे,
वह स्वयं परमात्मा है। ये तुम कहां की छोटी—छोटी धारणाएं लेकर चले
हो! इन छोटी—छोटी धारणाओं के कारण वह विराट नहीं दिख पाता। आंखें इतनी छोटी हैं,
विराट समाए कहा? तुमने सीमाएं इतनी छोटी बना
ली हैं, बड़ा उतरे कैसे? तो तुम अपने
भीतर भी टटोलते हो तो बस धारणाओं में ही उलझे रहते हो।
बुद्ध
ने कहा, भीतर भी ऐसे जाओ जैसे तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। शांत, मौन, अपने अज्ञान को धारण किए भीतर जाओ। तब वही
दिखायी पड़ेगा, जो है। और जो दिखायी पड़ेगा वही आंखें खोल देगा।
ध्यानी आंख बंद करके ध्यान करने बैठता है, लेकिन जब ध्यान हो
जाता है तो आंख ऐसी खुलती है कि फिर कभी बंद ही नहीं होती। फिर सदा के लिए खुली रह
जाती है।
जिनको
तुमने अपना विचार मान रखा है, कभी खयाल किया, वे क्या
हैं? मैं हिंदू मुसलमान, कि ब्राह्मण,
कि शूद्र, कि अच्छा, कि
बुरा, कि ऐसा, कि वैसा, ये तुमने जो मान रखे हैं विचार, ये तुम्हारे हैं?
ये सब उधार हैं। मन तो एक चौराहा है, जिस पर
विचार के यात्री गुजरते रहते हैं। तुम्हारा इसमें कुछ भी नहीं है।
मैं
एक घर में मेहमान था। दो बच्चे सीढ़ियों पर बैठकर बड़ा झगड़ा कर रहे थे। तो मैंने
पूछा, मामला क्या है? जब मारपीट पर नौबत आ गयी तो मैं उठा
और बाहर गया, मैंने कहा, रुको, बात क्या है? अभी तो भले—चंगे बैठे खेल रहे थे। उन्होंने
कहा कि इसने मेरी कार ले ली। मैंने कहा, कहां की कार?
तो उन्होंने कहा, आप समझे नहीं, आपको खेल का पता ही नहीं है। मैंने कहा कि खेल मुझे समझाओ। तो उन्होंने
कहा, बात यह है कि रास्ते से जो कारें गुजरती हैं, जो पहले देख ले वह उसकी। अभी एक काली कार गुजरी, वह
मैंने पहले देखी और यह कहता है कि मेरी! इससे झगड़ा हो गया है।
अब
सड़क से कारें गुजर रही हैं और दो बच्चे लड़ रहे हैं कि किसकी और बंटवारा कर रहे हैं।
कार वालों को पता ही नहीं है! कि यहां मुकदमे की नौबत आ गयी, मारपीट की
हालत हुई जा रही है।
विचार
भी ऐसे ही हैं। तुम्हारे मन के रास्ते से गुजरते हैं इसलिए तुम्हारे हैं, ऐसा मत
मान लेना। तुम्हारा कौन सा विचार है? जैन—घर में पैदा हो गए,
मां—बाप ने कहा तुम जैन हो—एक कार गुजरी। तुमने पकड़ी, कि मेरी। मुसलमान—घर में रख दिए गए होते तो मुसलमान हो जाते। हिंदू—घर में
रख दिए गए होते तो हिंदू हो जाते। संयोग की बात थी कि तुम रास्ते के किनारे खड़े थे
और कार गुजरी। यह संयोग था कि तुम जैन—घर में पैदा हुए कि हिंदू—घर में पैदा हुए। यह
संयोगमात्र है, इससे न तुम हिंदू होते हो, न जैन होते हो। मगर हो गए। तुमने पकड़ ली बात।
किसी
ने समझा दिया ब्राह्मण हो,
तिलक—टीका लगा दिया, जनेऊ पहना दिया। कैसे —कैसे
बुद्ध बनाने के रास्ते हैं। और सरलता से तुम बुद्ध बन गए। और तुमने मान लिया कि बस
मैं ब्राह्मण हूं। और तुम शूद्र को हिकारत की नजर से देखने लगे। और अपने पीछे
तुमने अकड़ पाल ली। और फिर ऐसा ही तुमने गीता पढ़ी, और कुरान
पढ़ी और बाइबिल पढ़ी और विचारों की श्रृंखला तुम्हारे भीतर चलने लगी, तैरने लगी, रास्ते पर ट्रैफिक बढ़ता चला गया और तुम
सारे ट्रैफिक के मालिक हो गए। तुम्हारा इसमें क्या है? तुम्हारा
इसमें कोई भी विचार नहीं है। और फिर तुमने यह भी देखा, विचार
कितने जल्दी बदल जाते हैं। विचार बड़े अवसरवादी हैं, विचार बड़े
राजनीतिज्ञ हैं। पार्टी बदलने में देर नहीं लगती। जब जैसा मौका हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने घोड़े को बांधकर एक दुकान पर सामान खरीदने गया है। जब वह लौटकर आया
तो किसी ने घोड़े पर लाल पेंट कर दिया। घोड़े पर! तो बड़ा नाराज हुआ कि यह कौन आदमी
है, किसने शरारत की? तो किसी ने कहा, यह सामने जो शराबघर है, उसमें से एक आदमी आया और
उसने इसको पोत दिया। कोई पीए होगा।
तो
मुल्ला बड़े क्रोध में भीतर गया, और उसने कहा कि किस नालायक ने मेरे घोड़े पर लाल
रंग पोता है? हड्डी—हड्डी निकालकर रख दूंगा, कौन है, खड़ा हो जाए! जब आदमी खड़ा हुआ तो बड़ा घबड़ाया।
कोई साढ़े छह फीट लंबे एक सरदार जी खड़े हो गए! मुल्ला थोड़ा सहमा। उसने कहा यह हड्डी
वगैरह तो निकालना दूर है, अपनी हड्डियां बच जाएं तो बहुत है।
उसने, सरदार ने कहा, बोलो, क्या विचार है? क्या कह रहे थे? किसलिए आए हो? मुल्ला ने कहा, अरे
सरदार जी! मैं यह कहने आया हूं कि घोड़े पर पहली कोट तो सूख गयी, दूसरी कोट कब करोगे? बड़ी कृपा की घोड़ा रंग दिया,
मगर पहली कोट बिलकुल सूख गयी है।
ऐसे
बदल जाते हैं विचार। विचार बड़े अवसरवादी हैं। विचारों का बहुत भरोसा मत करना, मन
राजनीतिज्ञ है। और जो मन में पड़ा रहा, वह राजनीति में पड़ा
रहता है। इसलिए मैं कहता हूं धार्मिक आदमी राजनीतिज्ञ नहीं हो सकता। क्योंकि
धार्मिक होने का अर्थ है, मन के पार गया। मन के पीछे जो
चैतन्य है, उसमें विराजमान हुआ। विचारों की इस भीड़ से हटो। लेकिन
जब तक तुम पकड़े रहोगे, कैसे हटोगे? विचारों
की भीड़ ने ही तुम्हें बेईमान बनाया है, पाखंडी बनाया है,
अवसरवादी बनाया है। मन रोग है। इससे अपने हाथ धो लो। बे—मन हो जाओ। समाधि
का इतना ही अर्थ है, ध्यान का इतना ही अर्थ है कि किसी तरह
मन से तुम्हारा तादात्म्य छूट जाए। और तुम रोज देखते हो कि यह मन तुम्हें कैसे—कैसे
धोखे दिए जाता है और इस मन के द्वारा तुम दूसरों को धोखा दे रहे हो। और यह मन
तुमको धोखा दे रहा है।
मैंने
सुना है कि जंगल के जानवरों को आदमियों का एक दफे रोग लग गया। जंगल में दौड़ती
जीपें और झंडे और चुनाव! जानवरों ने कहा, हमको भी चुनाव करना चाहिए। लोकतंत्र
हमें भी चाहिए। बड़ी अशांति फैल गयी जंगल में। सिंह ने भी देखा कि अगर लोकतंत्र का
साथ न दे तो उसका सिंहासन डावाडोल हो जाएगा। तो उसने कहा, भई,
हम तो पहले ही से लोकतंत्री हैं। खतम करो इमरजेंसी, चुनाव होगा। चुनाव होने लगा। अब बिचारे सिंह को घर—घर, द्वार—द्वार हाथ जोड़कर खड़ा होना पड़ा। गधों से बाप कहना पड़े।
एक
लोमड़ी उसके साथ चलती थी,
सलाहकार, जैसे दिल्ली में होते हैं। उस लोमड़ी
ने कहा, एक बात बड़ी कठिन है। आप अभी— अभी भेड़ों से मिलकर आए
और आपने भेड़ों से कहा कि तुम्हारे हित के लिए ही खड़ा हुआ हूं। तुम्हारा विकास हो। सदा
से तुम्हारा शोषण किया गया है, प्यारी भेड़ो, तुम्हारे ही लिए मैं खड़ा हुआ हूं। आपने भेड़ों से यह कह दिया है। और आप
भेड़ों के दुश्मन भेड़ियों के पास भी कल गए थे और उनसे भी आप कह रहे थे कि प्यारे
भेडियो, तुम्हारे हित के लिए मैं खड़ा हूं। तुम्हारा हित हो,
तुम्हें रोज—रोज नयी—नयी जवान—जवान भेड़ें खाने को' मिलें, यही तो हमारा लक्ष्य है। तो लोमड़ी ने कहा,
यह तो ठीक है कि इधर तुमने भेड़ों को भी समझा दिया है, भेड़ियों को भी समझा दिया है। और अगर अब दोनों कभी साथ—साथ मिल जाएं,
फिर क्या करोगे?
उसने
कहा, तुम गांधी बाबा का नाम सुने कि नहीं? सुने, उस लोमड़ी ने कहा, गांधी बाबा का नाम सुने। तो
उन्होंने कहा, गांधी बाबा हर तरकीब छोड़ गए हैं। जब दोनों साथ
मिल जाते हैं तब मैं कहता हूं, मैं सर्वोदयी हूं? सबका उदय चाहता हूं। भेड़ों का भी उदय हो, भेड़ियों का
भी उदय हो, सबका उदय चाहता हूं। जब अकेले—अकेले मिलता हूं तो
उनका बता देता हूं जब सबको मिला तो सर्वोदयी की बात कर देता हूं।
यह
सर्वोदय शब्द भी सोचने जैसा है। पश्चिम में एक बहुत बड़ा विचारक हुआ, जान
रस्किन। उसने एक किताब लिखी है—अनटू दिस लास्ट। अफ्रीका में महात्मा गांधी को किसी
ने वह किताब भेंट की। उस किताब से वह बहुत प्रभावित हुए। उसका उन्होंने गुजराती
में अनुवाद किया। तो किताब को क्या नाम दें? किताब का ठीक—ठीक
नाम अगर अनुवाद करना हो तो होगा—अंत्योदय। उन्होंने नाम दिया—सर्वोदय। अनटू दिस लास्ट—यह
जो आखिरी आदमी है, इसका विकास हो—तो अंत्योदय। अगर मैं
अनुवाद करूं तो अंत्योदय करूंगा, सर्वोदय तो नहीं कर सकता। यह
तो बेईमानी का शब्द है।
और
अनटू दिस लास्ट का मतलब होता भी नहीं सर्वोदय। क्योंकि जो आगे खड़े हैं और जो पीछे
खड़े हैं, अगर सबका उदय होता रहे साथ—साथ, तो जो आगे हैं वे
आगे रहेंगे, जो पीछे हैं वे पीछे रहेंगे, फासला बराबर उतना का उतना रहेगा। जो आगे खड़ा है, उसे
थोड़ा रोकना पड़ेगा ताकि पीछे वाला आगे बढ़े और साथ हो जाए। अंत्योदय ठीक अनुवाद होगा,
लेकिन गांधीजी ने सर्वोदय शब्द चुना उसके लिए। क्योंकि गांधी जी को
लगेगा, लगा होगा कि अगर अंत्योदय की बात करो, भेड़ों की तो बात हो गयी, लेकिन भेड़ियों का क्या?
फिर बिड़ला और जमनालाल बजाज, इनका क्या?
सर्वोदय बात ज्यादा राजनीतिज्ञ लगती है।
यह
शब्द कुछ नया नहीं है। एक जैन—दार्शनिक समत भद्राचार्य ने हजारों साल पहले इस शब्द
का प्रयोग किया है—सर्वोदय। लेकिन बड़े दूसरे अर्थ में। तब तो अर्थ ठीक था। समत
भद्राचार्य ने सर्वोदय शब्द का प्रयोग किया है महावीर के लिए कि तुम सर्वोदय—तीर्थ
हो। क्योंकि तुम्हारे घाट से ब्राह्मण भी उतर जाता, शूद्र भी उतर जाता, क्षत्रिय भी उतर जाता, वैश्य भी उतर जाता। तुम्हारा
तीर्थ सबके लिए है। यह तो ठीक था, यह धार्मिक अर्थ था
सर्वोदय का। लेकिन गांधी ने उसे राजनीतिक अर्थ दिया और अंत्योदय को सर्वोदय में
बदल दिया।
शेर
भी कहता है कि मैं जब दोनों को साथ—साथ मिल जाता हूं तब सर्वोदय की बात करता हूं।
तुम
अपने मन को जांचो। तुम बड़ी राजनीति मन में पाओगे। तुम चकित होओगे देखकर कि
तुम्हारा मन कितना अवसरवादी लेकिन तुम एक मजे की बात देखोगे, पार्टी
कोई भी हो, कांग्रेस हों—पुरानी कि नयी—कि जनता पार्टी हो,
यहां तक कि समाजवादी भी, पार्टी कोई भी हो,
लेकिन सब कहेंगे कि महात्मा गांधी के अनुयायी हैं हम। कुछ बात है
गांधी बाबा में। समय पर काम पड़ते हैं। कुछ तरकीब है। तरकीब है—अवसरवादिता के लिए
सुविधा है। तो है। जब जो तुम्हारे अनुकूल पड जाता है, उसी को
तुम स्वीकार कर लेते हो। जब जिस चीज से जिस तरह शोषण हो सके, तुम वैसा ही शोषण कर लेते हो। जब जैसा स्वांग रचना पडे, वैसा ही स्वांग रच लेते हो।
अगर
ऐसा ही चलता रहा यह स्वांग रचने का खेल तो आत्मबोध कभी भी न हो सकेगा। कितने तो
स्वांग तुम रच चुके। कभी जंगली जानवर थे, कभी वृक्ष थे, कभी पशु—पक्षी थे; कभी कुछ, कभी
कुछ; कभी स्त्री, कभी पुरुष; कितने स्वांग तुम रच चुके। अनंत—अनंत यात्रापथ पर। कितने विचारों के चक्कर
में तुमने कितने स्वांग रचे। कितनी योनियों में तुम उतरे। और अभी भी चक्कर जारी है।
बुद्ध कहते हैं, जो मन से मुक्त हो गया वह आवागमन से मुक्त
हो गया। क्योंकि मन ही तुम्हारे आवागमन को चलाता है। मन चलता है और तुम्हें चलाता
है। मन का चलना रुक जाए तो तुम्हारा चलना भी रुक जाए। इस यात्रा का जो पहला कदम है,
वह है मन के साथ तादात्म्य तोड़ लेना। मैं मन नहीं हूं तो फिर मन के
विचारों से क्या संबंध? तो न तो ईश्वर के संबंध में कोई विचार
लेकर चलना, न आत्मा के संबंध में कोई विचार लेकर चलना,
न शुभ—अशुभ के संबंध में कोई विचार लेकर चलना। विचार को पकड़कर चलने
वाला निर्विचार तक कभी नहीं पहुंच सकेगा। विचार को छोड़ना है और निर्विचार में थिर
होना है। यह महाक्रांति बुद्ध संसार में लाए।
एक
बात और, फिर हम सूत्रों में उतरें।
पश्चिम
का एक बड़ा विचारक है,
कार्ल गुस्ताव जुंग। उसने एक महत्वपूर्ण बात खोजी—नयी नहीं है,
कहना चाहिए पुन: खोजी। क्योंकि इस देश को और पूर्वी मनीषा को यह
तथ्य हजारों साल से ज्ञात है। कार्ल गुस्ताव जुग ने यह खोजा कि कोई पुरुष सिर्फ
पुरुष ही नहीं है, उसके भीतर स्त्री भी छिपी है। और कोई
स्त्री सिर्फ स्त्री नहीं है, उसके भीतर पुरुष भी छिपा है।
यह
स्वाभाविक भी है,
वैज्ञानिक भी है। क्योंकि प्रत्येक का जन्म दो के मिलने से हुआ है—पुरुष
और स्त्री के मिलने से। तुम्हारी मां और तुम्हारे पिता के मिलन से तुम पैदा हुए हो।
तो कुछ तुम्हारे पिता का तुममें आया है, कुछ तुम्हारी मां का
तुममें आया है। तो तुम न तो एकदम पुरुष हो सकते हो, न एकदम
स्त्री हो सकते हो। सौ प्रतिशत पुरुष होता ही नहीं। और न सौ प्रतिशत कोई स्त्री
होती है। भेद ऐसा होता है कि साठ प्रतिशत पुरुष, चालीस
प्रतिशत स्त्री; तो तुम पुरुष। या तुम स्त्री—साठ प्रतिशत
स्त्री और चालीस प्रतिशत पुरुष, तो तुम स्त्री। लेकिन भेद
ऐसा ही होता है, थोड़ा सा।
प्रत्येक
व्यक्ति के भीतर स्त्री छिपी है और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर पुरुष छिपा है। मनुष्य
द्विलिगीय है,
बायो—सेक्यूअल है। इस तथ्य को मैं क्यों तुमसे कहना चाहता हूं
क्योंकि इस तथ्य के सहारे कुछ बातें समझ में आ जाएंगी।
पहली
बात, तुम्हारे भीतर जो पुरुष छिपा है, उस पुरुष के कुछ
लक्षण हैं। तर्क, सक्रियता, आक्रमण,
हमला, पुरुष के लक्षण हैं। और तुम्हारे भीतर
जो स्त्री छिपी है, उसके कुछ लक्षण हैं—प्रेम, स्वीकार, भावना, कल्पना,
समर्पण। पुरुष का लक्षण है संकल्प, स्त्री का
लक्षण है समर्पण। पुरुष का लक्षण है शान, स्त्री का लक्षण है
भक्ति। पुरुष का लक्षण है सत्य की खोज पर जाना, स्त्री का
लक्षण है सत्य के आने की प्रतीक्षा करना। ये दोनों तुम्हारे भीतर छिपे हैं।
तो
तुम्हारे भीतर का पुरुष अगर बहुत सक्रिय हो जाए और वस्तु—जगत में भी अगर पुरुष को
ही खोजे, तुम्हारा पुरुष अगर वस्तु—जगत में भी पुरुष को ही खोजे, तो तुम वैज्ञानिक बन जाओगे। इसलिए वैज्ञानिक कठोर तर्क से जीता है और कठोर
सत्य की खोज करता है। एक सुंदर फूल लगा है। अगर वैज्ञानिक आएगा तो सौंदर्य नहीं
देखेगा फूल में, वह देखेगा, किन
रासायनिक द्रव्यों से मिलकर बना है फूल। उसमें जो कोमल तत्व है फूल में, उसे चूक जाएगा। जो कठोर तत्व है, उसको पकड़ लेगा।
वैज्ञानिक
पुरुष की पुरुष से मिलन की अवस्था है। इसलिए विज्ञान एक तरह की होमोसेक्यूअलिटी है, समलिगीयता
है। पुरुष पुरुष की खोज कर रहा है, जैसे पुरुष पुरुष के
प्रेम में पड़ गया है। इससे खोज तो होती है, लेकिन बहुत सृजन
नहीं होता, क्योंकि पुरुष और पुरुष के साथ कैसे सृजन हो सकता
है!
फिर
एक दूसरी इससे विपरीत दशा है कि तुम्हारे भीतर की स्त्री सारे जगत में व्याप्त
स्त्रैण—तत्व की खोज करे,
तुम्हारे भीतर की कोमलता जगत की कोमलता की खोज करे। इससे काव्य का
जन्म होता है, कला का।
तो
तुम कवि को देखते हो,
स्त्रैण हो जाता है—लंबे बाल बढ़ाए है, ढीले—ढाले
कपड़े पहने है, रंग—बिरंगे कपड़े पहने है। और अगर तुम फूल
दिखाओ तो उसको रासायनिक द्रव्य नहीं दिखायी पड़ेंगे। फूल का सौंदर्य, फूल का रंग, फूल की सुगंध, कोमल
तत्व उसे दिखायी पड़ेंगे।
अगर
तुम चांद दिखाओ तो वैज्ञानिक देखेगा चांद में पत्थर, पहाड़, झीलें, कुछ इस तरह की चीजें देखेगा। अगर कवि को तुम दिखाओ
चांद तो उसे अपनी प्रेयसी का मुख दिखायी पड़ेगा, कि खिलता हुआ
कमल दिखायी पड़ेगा, कि काव्य का जन्म होगा।
तो
कवि है स्त्री—तत्व के द्वारा स्त्री—तत्व की खोज। वह भी होमोसेक्यूअलिटी है। क्योंकि
दो स्त्रियों के प्रेम से फिर कुछ सृजन नहीं हो सकता। और धर्म, धर्म है
तंट्रोसेक्यूअलिटी, एक स्त्री और एक पुरुष का मिलन।
अब
धर्म दो तरह के हो सकते हैं। तुम्हारे भीतर का पुरुष अस्तित्व में छिपी हुई स्त्री
को खोजे, तो एक तरह का धर्म होगा। और तुम्हारे भीतर की छिपी स्त्री अस्तित्व गे
छिपे पुरुष को खोजे तो दूसरी तरह का धर्म होगा। इसी से भक्ति और ज्ञान का भेद है। भक्ति
का अर्थ हुआ, तुम्हारे भीतर की स्त्री जगत में छिपे पुरुष को
खोज रही है। राधा कृष्ण को खोज रही है। ज्ञान का अर्थ हुआ, तुम्हारे
भीतर का छिपा पुरुष अस्तित्व में छिपी स्त्री को खोज रहा है।
बुद्ध
का धर्म ज्ञान का धर्म है। तुम्हारे भीतर का पुरुष जगत में छिपी स्त्री को खोज रहा
है। बुद्ध का धर्म ज्ञान और ध्यान का धर्म है। नारद, मीरा, चैतन्य का धर्म भक्ति का, प्रेम का धर्म है।
तुमने
कभी खयाल किया,
हिंदू कभी भी जब कहते हैं तो ऐसा नहीं कहते— कृष्ण—राधा नहीं कहते,
कहते हैं—राधा—कृष्ण। राधा को पहले रखते हैं, कृष्ण
को पीछे कर देते हैं। कहते है—सीताराम। सीता को पहले रख देते हैं, राम को पीछे रख देते हैं। क्या कारण होगा? यह अकारण
नहीं है, कुछ भी अकारण नहीं होता, यह
चुनाव है। इसमें बात जाहिर है कि हमारे भीतर का स्त्री—तत्व जगत में छिपे पुरुष—तत्व
को खोज रहा है। इसलिए स्त्री पहले है। राधा पहले, कृष्ण पीछे।
ज्ञानी
कुछ और ढंग से खोजता है। अगर सूफियों से पूछो कि परमात्मा का क्या रूप है, तो वे
कहते हैं—प्रेयसी, परमात्मा प्रेयसी है। हिंदू भक्तों से
पूछो तो वे कहते हैं, परमात्मा पुरुष है, प्रेयसी हम हैं। हम उसकी सखियां हैं, वह पुरुष। और
सूफी कहते हैं कि हम पुरुष, वह हमारी प्रेयसी। प्रियतमा। इसलिए
सूफियों की जो कविता है, उसमें पुरुष की तरह परमात्मा का
वर्णन नहीं है, स्त्री की तरह वर्णन है, प्यारी, प्रियतमा की तरह।
फर्क
खयाल में लेना। ये दो संभावनाएं हैं धर्म की। तुम्हारा पुरुष खोजे स्त्री को, या
तुम्हारी स्त्री खोजे पुरुष को। बुद्ध का धर्म, तुम्हारे
भीतर जो पुरुष है, तुम्हारे भीतर जो विचार, ज्ञान, विवेक, तुम्हारे भीतर
तर्क, संदेह, उस सबको नियोजित करना है सत्य
की खोज में।
अभी
कल तक मैं दया की बात कर रहा था, वह ठीक इससे उलटी बात थी। वहां स्त्री खोज रही
थी पुरुष को। तो तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी कल्पना, तुम्हारी भावना,
तुम्हारी
अनुभूति, तुम्हारा हृदय लगेगा काम में।
बुद्ध
के साथ तुम्हारी बुद्धि लगेगी काम में। तुम्हारे हृदय की कोई जरूरत नहीं, हृदय को
बाद दी जा सकती है। भावना, समर्पण इत्यादि की कोई जरूरत नहीं
है। भावना और समर्पण वाला धर्म सुगम है, बहुप्रचारित है। बुद्ध
ने धर्म को एक नया आयाम दिया, ताकि तुम्हारे भीतर जो पुरुष
छिपा है, वह कहीं वंचित न रह जाए। तो तुम सोच लेना, अगर तुम्हारे भीतर संदेह की क्षमता है तो तुम श्रद्धा की झंझट में मत पड़ो।
अगर तुम पाते हो संदेह में कुशल हो, तो श्रद्धा की बात भूलो।
अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर संकल्प का बल है, तो तुम
समर्पण को छोड़ो। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास तलवार की धार की तरह बुद्धि
है, तो तुम उसका उपयोग कर लो। उसी से पहुंच जाओगे। जो
तुम्हारे पास हो, उसे ठीक से पहचान लो और उसका उपयोग कर लो।
अब
सूत्र!
कृष्ण
ने गीता कही तो एक शिष्य को कही, ये सूत्र धम्मपद के अलग— अलग शिष्यों से अलग—अलग
समयों 'में कहे गए हैं। ये बहुत शिष्यों को बहुत अलग—अलग
स्थितियों में कहे गए हैं। और आज के जो सूत्र हैं, उन सब
सूत्रों के पीछे छोटी—छोटी कथाएं हैं—कब कहे गए। वे कथाएं भी मैं तुम्हें याद
दिलाना चाहूंगा, क्योंकि संदर्भ में ही तुम ठीक से समझ पाओगे।
पहला
सूत्र—
यो
व पुब्बे पमज्जित्वा पच्छा सो नप्पमज्जति।
सो
' म लोकं पभासेति अब्भा मुतो व चंदिमा।।
'जो पहले प्रमाद करके पीछे प्रमाद नहीं करता, वह मेघ
से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है।'
तुमने
एक वचन सुना होगा! पश्चिम के ईसाई फकीर कहते हैं कि प्रत्येक संत का अतीत है और प्रत्येक
पापी का भविष्य है। एवरी सेंट हैज ए पास्ट एंड एवरी सिनर हैज ए फ्यूचर।
यह
बड़ी महत्वपूर्ण बात है। क्योंकि सभी संत अपने अतीत में पापी रहे हैं। और दूसरी बात
और भी महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक पापी का भविष्य है। क्योंकि कितना ही तुम पाप करो, तुम किसी
भी दिन चाहो उसी दिन संत हो सकते हो। यह तुम्हारा निर्णय है, यह तुमने चुना है। तुम जैसे हो वैसा होना नियति नहीं है, यह तुम्हारा निर्णय है। तुम इसे बदल दे सकते हो। तो प्रत्येक पापी का
भविष्य है और प्रत्येक संत का अतीत है।
यह
सूत्र कहता है,
'जो पहले प्रमाद करके पीछे प्रमाद नहीं करता।'
पहले
तो बड़ी भूलें कीं,
निद्रा में जीआ, सोया—सोया रहा, प्रमाद किया, आलस्य किया, बेहोश
रहा, मूर्च्छित रहा।
'
जो पहले प्रमाद करके पीछे प्रमाद नहीं करता। '
लेकिन
जाग गया फिर,
होश आ गया फिर।
'वह मेघ से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है। '
वही
है संत। संत का यह अर्थ नहीं है कि जिसने कभी भूलें नहीं कीं। ऐसे संत को खोजने
निकलना ही मत। ऐसा संत होता ही नहीं। हो ही नहीं सकता। संत का अर्थ है, जिसने
बहुत भूलें कीं, दिल खोलकर भूलें कीं—और खूब की होंगी तभी तो
जागा, नहीं तो इतनी आसानी से जाग भी नहीं सकता था। इतनी की
होंगी, इतनी की होंगी कि उनकी पीड़ा अब और झेलनी संभव न रही। इतनी
की होंगी कि उनका कांटा चुभते —चुभते हृदय तक पहुंच गया। इतनी की होंगी कि रोआं —रोआं
पीड़ा से भर गया, क्योंकि भूल करोगे तो पीड़ा तो झेलनी पड़ेगी।
इसलिए
मैं तुमसे एक बात कहता हूं—कान खोलकर सुनना—अगर पाप करना हो तो कुनकुने पाप मत
करना। नहीं तो तुम करते रहोगे, करते रहोगे, करते रहोगे। जैसे
सौ डिग्री पर पानी उबलकर भाप बनता है, ऐसा सौ डिग्री पर पापी
संत बनता है। पाप ही करना हो तो पूरी शक्ति लगाकर कर लेना। ऐसा कंजूसी मत करना पाप
करने में कि थोड़ा— थोड़ा कर रहे, फुटकर—फुटकर। थोक करना। तो
संभावना है कि किसी दिन तुम जग जाओ। नहीं तो तुम कभी न जगोगे। क्योंकि अगर थोक। किया
तो थोक ही पश्चात्ताप भी होगा। अगर थोक किया तो पहाड़ टूट पडेगा पीड़ा का उस पीडा के
पहाड़ के टूटने में ही कोई जागता है, नहीं तो जागता नहीं।
तुमने
कभी देखा, रात तुम दुख—स्वप्न देखते हो, चलता जाता है दुख—स्वप्न!
तुम्हें मारा जा रहा है, पीटा जा रहा है, सताया जा रहा है, दुष्ट तुम्हारी छाती पर बैठे हैं,
तुम्हें पहाड़ के नीचे फेंक रहे, तुम गिर रहे,
चलता रहता है। तुम जगना भी चाहते हो जग भी नहीं सकते, तुम करवट भी बदलते हो मगर हाथ नहीं हिलता, आंख खोलना
चाहते हो आंख नहीं खुलती, ऐसा दुख—स्वप्न!
लेकिन
वह भी टूटता तो है ही। मगर तुमने खयाल किया, कब टूटता है? जब आखिरी घड़ी आ जाती है, कि हिमालय ही तुम्हारी छाती
पर गिर गया, फिर टूटता है। जब आखिरी तुम एकदम जागकर उठ आते
हो। एक सीमा है, उसके बाद दुख—स्वप्न टूटता औ,। अगर दुख—स्वप्न भी धीमा— धीमा चलता रहे, होमियोपैथी
की मात्रा में चलता रहे एलोपैथिक डोज चाहिए पाप का, तो कोई
जगता है। इसलिए बड़े पापी अक्सर क्षणभर में संत हो जाते हैं।
तुमने
बाल्मीकि की कथा सुनी न?
क्षणभर में, बाल्या भील क्षणभर में बाल्मीकि
हो गया। पकड़ लिया एक ऋषि को, ऋषि जा रहे अपनी वीणा बजाते,
भजन गाते, गीत गाते, पकड़
लिया लूटने के इरादे से। लुटेरा था बाल्या। बांध दिया एक वृक्ष से और कहा, दे दो जो कुछ हो। ऋषि के पास कुछ था भी नहीं, उसने
कहा, यह वीणा है, अगर लेना हो ले लो। और
मैं हूं अगर मुझसे कुछ काम लेना हो, मुझसे काम ले लो,
लेकिन मामला क्या है? यह तू कर क्या रहा है?
तो बाल्या ने कहा, क्या कर रहा हूं? बच्चों का पेट भरना है। पत्नी है, बच्चे हैं,
के माता—पिता हैं। उसने कहा, ठीक है, तू एक बात तो उनसे पूछ आ कि जब इन सारे पापों का फल तुझे मिलेगा, वे इसमें सहयोगी होंगे? भागीदार होंगे?
बाल्या
थोड़ा चौंका। उसने कहा,
महाराज, तरकीबें न निकालो भाग जाने की,
मैं जाऊंगा इधर और तुम इधर नदारद हो जाओगे! तो ऋषि ने कहा, तू मुझे ठीक से बांधकर जा, या चाहे तो मैं तेरे साथ
घर चला चलूं। देखा ऋषि की आंखों में,
आदमी निष्ठावान था। सीधा—सरल था। बांध दिया, कहा,
मैं अभी आया पूछकर।
बाल्या
घर गया। अपनी पत्नी से पूछा कि देख, रोज मैं चोरी करता, डाके डालता, लोगों को मारता, मार
भी डालता कभी, यह तुम्हारे लिए कर रहा हूं। जब इसका फल मुझे
मिलेगा, नर्क में जब मैं जलाया जाऊंगा, सडाया जाऊंगा, तब तुम इसमें भागीदार होओगे कि नहीं?
तो उसकी पत्नी ने कहा, इसमें क्या भागीदारी?
यह तुम्हारा काम है, पति हो तो तुम करते हो,
मगर भागीदारी वगैरह इसमें कुछ नहीं है। तुम्हारा तुम जानो। हमें पता
ही क्या कि तुम कहां से क्या करके लाते हो? और इसमें स्त्री
को लेना—देना भी क्या है कि तुम पुण्य से कमाते कि पाप से, यह
तुम जानो। बाल्या तो बहुत चौंका।
उसने
अपने के बाप से पूछा। बूढ़े बाप ने कहा, मैं वैसे ही का हो गया और परेशान
हो रहा हूं और अब कहां की परेशानियों की बातें मेरे पास लाता है! और तू तो जब
मरेगा तब मरेगा, मेरी मौत तो करीब आ रही है, यह साझेदारी नहीं होगी, हम नरक में पहले पहुंच
जाएंगे। फिर हमें कुछ मतलब नहीं। तू पुण्य करके ला कि पाप करके ला, के बाप की सेवा करेगा न! के बाप की सेवा करने से जो पुण्य तुझे मिलना है
वह मिलेगा, बाकी तू जो कर रहा है वह तू जान। उसने सबसे पूछा,
कोई भागीदारी में राजी नहीं था। उसने कहा, यह
भी खूब रही!
वह
लौटकर आया, ऋषि को उसने छोड़ दिया, पैरों पर गिर पड़ा। उसने कहा
कि प्रभु, मुझे कुछ ध्यान बता दो। हो गया बहुत! लेकिन मैं
बड़ा पापी हूं और जल्दी परमात्मा का साक्षात्कार मुझे होगा इसकी आशा नहीं, लेकिन कोई फिकर नहीं। मैं जिस जिद्द से पाप करता था, उसी जिद्द से अब पुण्य करूंगा। और जिस जिद्द से नुकसान पहुंचाया है,
उसी जिद्द से स्मरण भी करूंगा। हठी हूं इतनी भर बात मुझमें गुण की
है, कि जो करूंगा, पूरी तरह करूंगा। आप
मुझे बता दो।
बेपढा—लिखा
था बाल्या। ऋषि ने कहा,
तो तू अब और तो क्या करेगा, राम—राम, राम—राम जप। वह जपता रहा, लेकिन थोड़ी ही देर में भूल
गया राम—राम, तो मरा—मरा जपता रहा। राम—राम जोर से जपो तो
मरा—मरा हो जाता है। जैसे कभी—कभी मालगाड़ी के डिब्बे एक—दूसरे पर चढ़ जाते हैं न,
राम—राम—राम—राम तेजी से जपते रहो तो पक्का नहीं रह जाता कि रा पहले
कि म पहले, एक—दूसरे पर चढ़ जाते हैं। तो वह मरा—मरा जपता
रहा।
और
जब ऋषि वापस आए,
तो देखा कि वह तो ज्ञान को उपलब्ध हो गया— अपूर्व उसकी आभा है। ऐसा
तो ऋषि को भी नहीं हुआ था। उससे पूछा, तूने किया क्या पागल?
तू तो पहुंच गया मालूम होता है, तू तो परमहंस
हो गया। तेरे आसपास सूगंध है। तेरे आसपास ज्योति है। तूने किया क्या? उसने कहा, कुछ नहीं, वह जो आप
मंत्र बता गए थे कि मरा—मरा जपते रहो, वह मैं जपता रहा। मगर
दिल खोलकर जपा। हो गया।
ऋषि
की आंख में आंसू आ गए। वह राम—राम जपते उनकी जिंदगी हो गयी है। मगर कुनकुना—कुनकुना
जपते होंगे। ऐसा वीणा वगैरह बजाते होंगे, सुर—ताल का भी '' मान रखते होंगे, हिसाब से जपते होंगे। मगर इसने बेहिसाब
जपा। यह पहुंच गया। पापी अक्सर एक क्षण में क्रांति को उपलब्ध हो जाते हैं। कुनकुने
जो जीते हैं, कि लोग वही हैं। या तो त्वरा से जीओ पापी की
तरह, या त्वरा से जीओ पुण्यात्मा की तरह, तो ही तुम जानोगे कि जीवन का अर्थ क्या है। पाप की त्वरा जलाएगी, राख कर देगी तुम्हें। लेकिन उसी राख में से नया जीवन आविर्भूत होता है।
बुद्ध
कहते हैं, 'जो पहले प्रमाद करके पीछे प्रमाद नहीं करता। '
जिसने
पहले बहुत भूलें कीं,
बहुत पाप किए, लेकिन एक दिन पापों का बोझ इतना
हो गया कि अब इसको और ढोना संभव नहीं है, उसे उतारकर रख देता
है।
वह
इस लोक को मेघों से मुक्त हो गए चंद्रमा की भांति प्रकाशित करता है।
देखा, रात कभी
आकाश में मेघ घिर जाते तो चांद दब जाता है। बस ऐसे ही तुम्हारी दशा है। तुम भटके
नहीं हो, केवल थोड़े से मेघों में घिर गए हो। चांद अब भी चांद
है। उतना ही पवित्र जितना कभी था। तुम अब भी क्वारे हो। तुम्हारा अंरतम पापी हो ही
नहीं सकता। वहां तक पाप पहुंचता ही नहीं। क्योंकि चांद को कितने ही मेघ घेर लें,
और कितने ही काले—कजरारे मेघ हों, कोई फर्क
नहीं पड़ता, चांद अछूता रहता है।
यह
एक बहुत मौलिक घोषणा है कि तुम चांद जैसे शुद्ध और पवित्र हो। तुम्हारे ऊपर अगर
मेघ घिर गए हैं,
तो विचारों के, वासनाओं के। और वे भी इसलिए
घिर गए है कि तुम बड़ी निद्रा में जी रहे हो। प्रमाद शब्दबौद्धों का अपना शब्द है। प्रमाद
का अर्थ होता है, कोई आदमी ऐसे जीए जैसे नींद में। या कोई
आदमी ऐसे जीए जैसे नशे चल भी रहा है, पक्का पता भी नहीं,
क्यों चल रहा है। चल भी रहा है, पक्का पता
नहीं, कहां चल रहा है। चल भी रहा है, पक्का
पता नहीं, कहा जा रहा है, जा रहा है। चला
जा रहा है।
एक
शराबी शराबघर से निकला,
रास्ते पर आया। संयोगवशात एक पैर तो उसका नीचे पड़ गया सड़क पर और एक
पड़ गया सड़क के पास की पटरी पर, अब बड़ा हैरान हुआ कि यह मामला
क्या है, क्या मैं लंगड़ा हो गया? ये
मेरे पांव नीचे—ऊंचे क्यों हो गए? लंगड़ा हो गया, यह सोचकर बेचारा सम्हल—सम्हलकर चलने लगा। मगर उसने पटरी की लीक पकड़ रखी। एक
पैर पटरी पर और एक सड़क पर। एक पुलिस वाले ने उसे देखा, उसने
कहा, इसे हुआ क्या है? क्योंकि बड़े
धीरे— धीरे सरकता चला जा रहा है, बड़ी मुश्किल उठा रहा है। चलना
कठिन हो रहा है। उस पुलिस वाले ने आकर पूछा कि मामला क्या है? उसने कहा, मामला क्या है, मेरी
ही समझ में नहीं आता, लगता है कि अचानक मैं लंगड़ा हो गया। एक
पैर छोटा एक पैर बड़ा हो गया।
यह
आदमी मूर्च्छित है। तथ्य इसे दिखायी नहीं पड़ते। ऐसी अवस्था को बौद्ध कहते हैं, प्रमाद।
यह
सूत्र बुद्ध ने एक विशेष घटना के समय कहा था, वह घटना भी समझ लेने जैसी है।
बुद्ध
के शिष्यों में एक भिक्षु थे उनका नाम था समंजनी। उन्हें सफाई का पागलपन था। क्योंकि
बुद्ध ने कहा स्वच्छ रहो साफ— सुथरे रहो। वह उनको धुन पकड़ गयी पागल तो पागल वह ठीक
बात में से भी गलत बात निकाल लेते। उनको ऐसी धुन पकड़ गयी कि चौबीस घंटे वह झाडू ही
लिए रहते। इधर जाला दिखायी पड़ गया उधर कचड़ा दिखायी पड़ गया सफाई ही सफाई।
कई
स्त्रियों को यह रोग रहता है, सफाई ही सफाई। किसके लिए सफाई कर रही हैं,
यह भी कुछ पक्का नहीं।
मैं
एक घर में कुछ दिन तक रहता था, बड़ा साफ—सुथरा घर था, ऐसा
साथ— सुथरा घर मैंने देखा ही नहीं। घर कहना ही नहीं चाहिए उसको, इतना साफ—सुथरा था। उसमें रहने की सुविधा ही नहीं थी। वह महिला अपने पति
को भी अपने बैठकखाने में नहीं बैठने देती थी, कि तुम उठो!
अखबार भीतर चलकर पढ़ो! क्योंकि इधर बैठे रहे घंटेभर तो उसकी गद्दी खराब हो जाए। मेहमानों
को वह पसंद न करती कि कोई घर में आएं, क्योंकि वह सफाई!
बच्चे बैठकखाने में प्रवेश न कर सकते, क्योंकि सफाई!
मैं
दो—चार दिन देखता रहा,
मैंने उससे कहा कि सफाई तो बड़ी तू गजब की कर रही है। उसको मैंने यह
कहानी कही थी जो मैं तुम्हें सुना रहा हूं बुद्ध की। मैंने कहा, यह तो ठीक है, मगर किसलिए? मेहमान
आ नहीं सकते, पति बैठ नहीं सकता, बच्चे
आ नहीं सकते, तुझे मैंने कभी बैठा देखा नहीं, बस तू सफाई में ही लगी है। वह दिनभर लिए है कपडा और बाल्टी और जगह—जगह घिस
रही है। सफाई तो बुरी बात नहीं, उसने मुझसे कहा। मैंने कहा,
नहीं, सफाई बुरी बात नहीं। लेकिन सफाई ही सफाई
करते रहो सफाई का प्रयोजन क्या है? कि साफ—सुथरे घर में रहो,
मगर रहने का मौका भी चाहिए न! रहने का अवकाश चाहिए।
......यह
बुद्ध के भिक्षु थे समंजनी बुद्ध की बात सुनकर कि स्वच्छ रहो उनको पकड़ गयी। पागल
रहे होंगे दिमाग कुछ झक्की रहा होगा। उन्होंने कहा ठीक! जब बुद्ध ने कहा तो फिर..? तो वह
झाडू लिए रहते दिनभर और दिनभर झाडू लगाया करते। कभी यहां गंदा कभी वहां गंदा
उन्हें मौका ही न मिलता भीतरी सफाई का जिसके लिए भिक्षु हुए थे जिसके लिए संन्यास
लिया था।
एक
दिन एक वृद्ध भिक्षु रेवत ने उन्हें कहा आमुस भिक्षु को सदा बाहर की सफाई ही नहीं
करते रहना चाहिए। बाहर की सफाई ठीक है तो कभी सुबह कर ली सांझ कर ली बाकी चौबीस
घंटे यही काम। तो झाडू से तुम स्वर्ग नहीं पहुंच जाओगे! कुछ ध्यान भी करो कुछ भीतर
की सफाई भी करो। कुछ भीतर की झाडू उठाओ। कभी ध्यान किया करो कभी शांत बैठा करो कभी
विश्राम में भीतर जाया उसे कुछ भीतर भी तो झांको। उससे ही असली सफाई होगी। भीतर कब
झाडू मारोगे? उस बूढे फकीर ने पूछा। या कि जीवनभर ऐसा ही बिता देना है!
बात
चोट खा गयी। समंजनी को बोध हुआ। होश आया बात तो उसे हासगस्पद लगी कि मैं क्या करता
रहा! कोई दस साल हो गए बुद्ध के पास यही काम ताम करते जैसे नीदं टूटी। तंद्रा की
जैसे एक पर्त आंखों से गिर गयी। बाहर नहीं
जैसे भीतर की आंख अचानक खुल गयी। जैसे सुबह कोई रात का सोया हुआ जागे और सपने खो
जाएं।
दूसरे
दिन उसे झाडू न लगाते देखकर अन्य भिक्षु हैरान हुए यह तो बात ही भरोसे की न थी कि
समजनी और झाडू न लगाएं। और दूसरे दिन देखा कि झाडू बगैरह उनके हाथ में भी नहीं है
तो उनको तो भरोसा ही नहीं आए क्योंकि वह तो झाडू वाले ही भिक्षु की तरह प्रसिद्ध
थे। झाडू वाले बाबा! उन्होंने पूछा आवुस समंजनी स्थविर, आज झाडू
कहां? यह आपके स्वभाव में परिवर्तन कैसा? आप होश में तो हैं तबीयत तो ठीक है न? कुछ बीमार
इत्यादि तो नहीं हो गए यह कैसा पतन! यह कैसा चरित्र का हास! देखो इस जगह कूड़ा
इकट्ठा हो गया है उस जगह मकड़ी का जाला लगा है लोग मजाक करने लगे।
समंजनी
हंसे और बोले भंते सोते समय मैं ऐसा करता था। सोते समय मैं ऐसा करता था लेकिन अब
जाग गया हूं। मेरा प्रमाद गया और अप्रमाद का मुझमें उदय हुआ है। सुबह—सांझ झाडू
लगा दूंगा उतना पर्याप्त है शेष समय भीतर की सफाई। और ऐसा कहकर वह फिर ध्यान में
लीन हो गए।
भिक्षुओं
ने यह बात जाकर बुद्ध को कही। बुद्ध ने कहा हां भिक्षुओ मेरा वह पुत्र प्रमाद के
समय ऐसा करता था। लेकिन अब जाग गया है और उस व्यर्थ के विक्षिप्त व्यवहार से मुक्त
हो गया है। तब बुद्ध ने यह गाथा कही।
यही
गाथा आज का पहला सूत्र है:—
यो व पुब्बे पमज्जित्वा पच्छा सो नप्पमज्जति।
सो ' मं लोकं पभासेति अछभा मुतो व चदिमा
।।
'जो पहले प्रमाद करके पीछे प्रमाद नहीं करता, वह मेघ
से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है।'
बुद्ध
ने कहा, मेरा यह पुत्र। सच्चा पिता तो गुरु ही है। क्योंकि उससे आत्मा को जन्म
मिलता है। बुद्ध ने कहा, मेरा यह पुत्र अब जाग गया है। बेहोश
था, तब ऐसा मूर्च्छित व्यवहांर चलता था। पागलपन का व्यवहांर
था वह। अब यह होश में आ गया है। तुम जाओ उसके पास बैठो। उसे गौर से देखो, यह वही आदमी नहीं है। यह चांद है जो मेघों से मुक्त हो गया है। इसका
प्रमाद गया।
दूसरा
सूत्र—
यस्स
पापं कतं कम्मं कुसलेन पिथीयती।
सो
' मं लोकं पभासेति अब्भा मुतो व चंदिमा।।
'जिसका किया हुआ पाप उसी के बाद में किए हुए पुण्य से ढंक जाता है, वह मेघ से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है।'
पापों
की चिंता मत करो। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमने पाप किए बहुत, उनको कैसे काटें?
अब
पीछे तो लौटना संभव नहीं। जो गया सो गया, जो हुआ सो हुआ। अब तो तुम कुछ ऐसा
करो, कुछ ऐसी दिशा में अपनी जीवन—ऊर्जा को बहाओ कि संतुलन आ
जाए। जैसे तुमने चोरी की, तो दान कर दो। पुण्य का और क्या
अर्थ होता है? तुमने कभी पुण्य का ऐसा सोचा अर्थ? पुण्यात्मा होकर तुम अहंकारी मत बन जाना। क्योंकि पुण्यात्मा तो सिर्फ
पश्चात्ताप है। उसमें गौरव का कुछ भी नहीं है।
जैसे
एक आदमी बीमार हुआ। ज्यादा भोजन करता था, रात देर तक जागता था, कामाचारी था, बीमार हुआ। तो अब दवा लेनी पड़ती,
पथ्य पर जीना पड़ता, ठीक समय सोना पड़ता,
सुबह व्यायाम करना पड़ता। तो ऐसा आदमी सड़क पर जाकर अपनी दवाइयों की
बोतल दिखाकर लोगों को तो नहीं कहता कि देखो, मैं कैसा
पुण्यात्मा, कैसी—कैसी दवाइयां पीता हूं, पथ्य से जीता हूं। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं कहता। क्योंकि
जो वह कर रहा है, वह तो जो पहले किया है, उसको अनकिया करने के लिए कर रहा है। अब इसका कोई मूल्य थोड़े ही है। किया
था पाप, तो पुण्य। चोरी की, तो दान। क्रोध
किया था, तो करुणा। लोभ किया था, तो
सेवा।
कुछ
करो। जो हो गया,
उसको तो अनकिया नहीं किया जा सकता, वह तो गया।
वह तो समय गया, वह हाथ के बाहर हो गयी बात। लेकिन तुम अभी अपनी
ऊर्जा को ठीक दूसरी दिशा में झुका सकते हो। तो संतुलन आ जाएगा। जैसे आदमी तराजू तोलता
है। एक पलड़े पर तुम चीजें रखते गए, रखते गए, रखते गए, वह
पलड़ा जमीन से लग गया और दूसरा उठ गया ऊपर, अब— क्या
करो? समय का पलड़ा है कि जो पलड़ा जमीन से लग गया वह तो
तुम्हारे हाथ के बाहर हो गया था, वह तो अतीत हो गया, अब उसमें से चीजें निकाल नहीं सकते। जो कर लिया, कर
लिया। अब कैसे घटाओगे? तो पुण्य की प्रक्रिया का अर्थ इतना
ही है कि वह तो तुम्हारे हाथ के बाहर हो गया, अतीत का पलड़ा
तो तुम्हारे हाथ के बाहर हो गया, लेकिन भविष्य का पलड़ा
तुम्हारे हाथ के भीतर है, इस पर पुण्य चढ़ाओ। धीरे— धीरे यह
पलडा भारी होकर नीचे उतरेगा और पुराने पलड़े को बराबर ले आएगा, संतुलन हो जाएगा। और जहां तराजू मध्य में ठहर जाएगा, जहां तराजू का काटा बताने लगेगा दोनों बराबर हो गए, उसी
क्षण मुक्ति है।
मुक्ति, जहा कांटा
मध्य में आ जाता है। जहां न तुम पापी रहे, न पुण्यात्मा। जहां
न शभ रहे, न अशुभ। न अच्छे, न बुरे। न
सज्जन, न दुर्जन। उसी क्षण तुम पार हो जाते हो। उस अवस्था को
बौद्धों ने कहा है, सम्यकत्व। समता आ गयी। यह दूसरे सूत्र की
घटना
भिक्षु अंगुलीमाल के देह छोड़ने पर अन्य भिक्षुओं ने पूछा भंते
अंगुलीमाल मरकर कहां उत्पन्न हुए होंगे?
यह
जिज्ञासा स्वाभाविक थी, क्योंकि अंगुलीमाल बड़ा हत्यारा था। उसने एक
हजार लोगों की हत्या की थी। उसने कसम ली थी कि एक हजार लोगों को मारकर उनकी
अंगुलियों की माला बनाकर पहनूंगा। इसीलिए उसका नाम अंगुलीमाल पड़ गया था, क्योंकि अंगुलियों की माला उसने पहन ली थी। उसने एक हजार लोग मार डाले थे।
वह बड़ा भयंकर हत्यारा था बुद्ध के समय का। नौ सौ निन्यानबे आदमियों को मार चुका था,
और हजारवें की प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन दूर—दूर तक लोग चौंक गए
थे। तो जिस जंगल में छिपकर अंगुलीमाल रहता था, वहां कोई जाता
नहीं था। जाए ही नहीं कोई—उसकी मां नहीं जाने को राजी थी। क्योंकि लोगों को डर था, लोग जानते थे, वह मां तक को मार डालेगा। उसको तो एक
हजार का व्रत पूरा करना है।
बुद्ध
उस रास्ते से गुजरते थे। तो लोगों ने कहा, आप न जाएं, भंते! वह आदमी खतरनाक है। वह सोचेगा ही नहीं आप कौन हैं, उसको तो. बिलकुल अंधा है। उसने नौ सौ निन्यानबे आदमी मार डाले हैं। राजा
उससे कांपते हैं। सैनिक उससे डरते हैं। फौजें नहीं निकलतीं इस रास्ते से। क्योंकि वह
किसी को भी मार डाले। वह एकदम पागल है। उसे होश है ही नहीं। आप मत जाएं।
लेकिन
बुद्ध ने कहा,
अगर मुझे पता न होता तो शायद मैं न भी जाता, लेकिन
अब पता है मुझे, वह बेचारा एक की प्रतीक्षा करता होगा! नौ सौ
निन्यानबे आदमी मार डाले न, उसको हजार आदमी चाहिए, उसकी प्रतिज्ञा का क्या होगा, यह भी तो सोचो! तो मैं
जाता हूं।
तो
बुद्ध गए। उनके साथी—संगी भी पीछे छूट गए। ऐसे समय कौन साथ, कौन संगी!
जब बुद्ध गए तो अकेले ही रह गए। अंगुलीमाल फरसे पर धार रखने लगा देखकर कि कोई आ
रहा है। लेकिन वह भी बहुत चौंका। क्योंकि वर्षों से इस रास्ते पर कोई चलता ही नहीं।
यह कौन नासमझ—उसको भी दया आने लगी—यह कौन नासमझ मरने आ रहा है! उसने गौर से देखा,
गैरिक वस्त्र, अरे! उसने सोचा, कोई संन्यासी है। गया बिचारा काम से। इसे कुछ पता नहीं है। गांव के लोगों
ने भी बताया नहीं मालूम होता है, ऐसा सोचने लगा। फरसे पर धार
रखी।
जैसे
—जैसे बुद्ध करीब आने लगे वैसे —वैसे उसका भाव बदलने लगा, उसे दया
आने लगी। उसने अपने मन में सोचा, अंगुलीमाल, तुझे हो क्या रहा है? ऐसी दया तुझे कभी नहीं आयी,
तेरी मां भी आती तो भी तू काटने को तत्पर था। यह तो कौन है, अपनी क्या जान, क्या पहचान! लेकिन कुछ होने लगा। बुद्ध
की मौजूदगी कुछ करने लगी। वे तरंगें बुद्ध की, वह शाति बुद्ध
की, वह हवा बुद्ध की, वह सुगंध बुद्ध
की कुछ करने लगी।
जब
वह थोड़ी दूर रह गए तो अंगुलीमाल चिल्लाया और उसने कहा कि रुक जाओ वहीं, अगर आगे
बढ़े तो खतरा है। यह फरसा देखते हो? ये अंगुलियां देखते हो?
मैं अंगुलीमाल हूं मेरा नाम सुना? गर्दन काटकर
अंगुलियों की माला बना लूंगा! और मेरा व्रत पूरा करना है मुझे, और कई सालों बाद तुम दिखायी पड़े हो, कोई और आता भी
नहीं। मगर तुम्हें मैं एक मौका देता हूं। न—मालूम कैसे कमजोरी का क्षण है मेरा कि
मैं तुम्हें एक मौका देता हूं भाग जाओ। लेकिन और करीब मत आओ। मैं आदमी बुरा हूं। जरा
भी आगे मत चलो।
बुद्ध
ने कहा,
पागल, मेरा चलना तो कई वर्ष हुए तब बंद हो
चुका। जिस दिन मन गया, उस दिन सब चलन भी गया, सब चलना भी गया। अब कहा चलना! मैं तो ठहरा हुआ हूं। मैं तुझसे कहता हूं तू
चलना बंद कर। अंगुलीमाल ने कहा कि मैं सोच ही रहा था कि आदमी पागल होना चाहिए। तुम
पागल हो, चल तुम रहे हो, चलते हुए को
कहते हो कि चलता नहीं और मैं बैठा हुआ फरसे पर धार रख रहा हूं और मुझको तुम कहते
हो कि चलते हो। तुम्हारा दिमाग खराब है, अब मैं समझा कि तुम
कैसे चले आ रहे हो। बुद्ध ने कहा, ठीक है, मगर मैं तुझसे फिर कहता हूं सोच ले, मैं रुका हुआ
हूं तू चल रहा है। तेरा मन अभी बहुत दौड़ता है, यहां—वहां दौड़ता
है, इसलिए मैं कहता हूं? तू चलता है।
खैर, बुद्ध पास
आ गए। अंगुलीमाल ने कहा, अगर तुम जिद्दी हो तो मैं भी जिद्दि
हूं। मुझे शक होता है कि हो न हो तुम गौतम बुद्ध हो, जिनकी
मैंने खबरें सुनी है। क्योंकि जिन लोगों को मैंने मारा, उनमें
से कई ने मुझे कहा कि ऐसा लगता है, सिवाय गौतम बुद्ध के तुझे
कोई भी बदल न सकेगा। हो न हो तुम वही हो। मगर भूल जाओ, मैं
भी अंगुलीमाल हूं। मैं मारकर रहूंगा। बुद्ध ने कहा, तू अपनी
तैयारी कर ले, फरसे पर धार रख ले, मैं
बैठा हूं। वे बैठ गए शात। वह फरसे पर धार रखता है —क्योंकि कई साल से कोई आया नहीं
तो फरसे पर जंग चढ़ गयी है।
वह
बार—बार देख लेता है इस आदमी को, बात क्या है, उसका दिल बड़ा पिघला जा रहा है! इस आदमी पर बड़ा प्रेम आया जा रहा है। इस
आदमी की तरफ बड़ा लगांव हुआ जा रहा है। वह डर रहा है। थोड़ी देर करने लगा फरसे पर
धार रखने में कि और थोड़ी देर जी ले, इस आदमी का साथ बड़ा
प्यारा है। फिर मर जाएगा। फिर कब ऐसा आदमी मिलेगा? वह और देर
लगाने लगा।
बुद्ध
ने कहा,
मुझे लगता है तुम जरा देरी लगा रहे। फरसे पर धार रखो, अंगुलीमाल! तुम अपना काम करो, मुझे मेरा काम करने दो,
ऐसे जल्दी से किसी के प्रभाव में नहीं आ जाते। अंगुलीमाल ने कहा,
कि तुम आदमी कैसे हो, तुम मरने पर तत्पर हो,
आत्महत्या करने की तुमने सोच रखी है? लेकिन
उसका दिल बदल गया है। फरसे पर धार बेमन से रख रहा है।
फिर
धार भी पूरी हो गयी। फिर उसने कहा, बोलो क्या विचार है? बुद्ध से पूछता है, अब क्या विचार है! बुद्ध ने कहा,
विचार की संभावना कहां, विचार तो मैं छोड़ ही
चुका, अंगुलीमाल। और तू जिसे मारेगा, वह
मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे कोई भी मार नहीं सकता। कौन
फरसा मुझे छेद सकेगा?
अंगुलीमाल
ने आंख में आंख डालकर देखा। इस आदमी को मारना असंभव है। लेकिन फिर भी जिद्द पुरानी, पुरानी
आदत, वह अपना फरसा लेकर खड़ा हो गया। उसने कहा कि ठीक है,
दो आदमियों की जिद्द अटकी है। तुम बुद्ध हो, मैं
अनुलीमाल हूं। इतनी जल्दी हार नहीं जाऊंगा। मगर यह क्यों मेरा दिल कमजोर हुआ जाता
है? क्यों मेरी छाती बैठी जाती है, मैं
तुमसे पूछता हूं। बुद्ध ने कहा, इसका कारण है। मारने में कुछ
कला है ही नहीं, अंगुलीमाल, यह तो
बच्चे कर सकते हैं। तु देख, यह सामने वृक्ष है, इसकी शाखा काटकर मुझे दे दे। तो उसने फरसे से शाखा काट दी। बुद्ध ने कहा,
अब इसे तू वापस जोड़ दे। उसने कहा, यह कैसे हो
सकता हे। तो बुद्ध ने कहा, काटना—मारना तो बहुत आसान है। जोड़कर
कोई आदमी महान बनता है। काटकर कोई महान बनता है? अब तू मेरी
गर्दन काट दे, बात खतम हो गयी। मगर याद रख, जिन गर्दनों को जोड़ नहीं सकता, उन्हें काटने का तुझे
हक नहीं है। और जोड़ तो कुछ बात हुई! तो दुनिया तुझे याद रखेगी।
फरसा
उसने फेंक दिया,
वह बुद्ध के चरणों में गिर गया। वह अंगुलीमाल बुद्ध का भिक्षु हो
गया। उसका भय ऐसा था कि जब खबर फैल गयी कि बुद्ध तो मारे नहीं गए उलटा अंगुलीमाल
मारा गया, तो खुद सम्राट अजातशत्रु उसे देखने आया। क्योंकि
अजातशत्रु तक के प्राण कंपते थे।
वह
आया और उसने कहा कि भंते, मैंने सुना है अंगुलीमाल भिक्षु हो गया,
विश्वास नहीं आता। अगर यह हो सकता है तो सब कुछ हो सकता है। यह मुझे
विश्वास नहीं आता। मैं मान ही नहीं सकता, इसमें कुछ अफवाह है,
झूठी बात है। बुद्ध ने कहा, आप मानें या न
मानें, यह पास जो भिक्षु बैठा है, कौन
है? वह बुद्ध के पास ही बैठा पंखा कर रहा था।
यह
सोचकर ही कि यह अंगुलीमाल है, अजातशत्रु ने अपनी तलवार निकाल ली।
उसने कहा यह खतरनाक आदमी है, कोई धोखाधड़ी की हो, बैठा हो बनकर भिक्षु और एकदम हमला कर दे। बुद्ध ने कहा, तू तलवार भीतर रख, तलवार की कोई जरूरत नहीं, अजातशत्रु! यह अंगुलीमाल वह अंगुलीमाल नहीं है। यह और ही हो गया है।
जब
अंगुलीमाल गांव में भिक्षा मांगने गया—जैसा भिक्षु को जाना पड़ता था—तो गांव के
लोगों ने दरवाजे बंद कर लिए, दुकानें बंद हो गयीं। लोग अपनी छतो
पर चढ़ गए। और लोगों ने पत्थर इकट्ठे कर लिए। और कहते हैं, जब
अंगुलीमाल बीच सड़क पर था तो लोगों ने उसे पत्थर मारे। कायर, कमजोर
लोग! और अंगुलीमाल बीच सड़क पर खड़ा रहा और उसके सिर पर पत्थर गिरते रहे और लहू बहता
रहा।
और
अभी तरु ने जो मंत्र पढ़ा न—
बुद्धं शरणं गच्छामि, वह इसे
दोहराता रहा।
बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं
गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि,
ऐसा
कहते—कहते ही वह गिर गया।
बुद्ध
को खबर मिली,
वह आए। आखिरी घड़ी थी, बुद्ध ने उससे कहा,
अंगुलीमाल, तेरा क्या भाव है? उसने कहा, आप और पूछते हैं! ठहरे हुए का क्या भाव?
रुके हुए का क्या भाव? तेरे मन को कुछ हुआ
अंगुलीमाल? अंगुलीमाल ने कहा, नहीं,
कुछ भी नहीं हुआ; देखता रहा, साक्षी था। तो अंगुलीमाल ने कहा, होता भी क्या?
मैं देखने वाला हूं, द्रष्टा हूं यही तो आपने
समझाया। बुद्ध उससे बोले, अंगुलीमाल, तू
ब्राह्मण होकर मर रहा है। तू ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध होकर मर रहा है। तू अर्हत को
उपलब्ध हो गया, तू अरिहंत हो गया।
ऐसा
जब अंगुलीमाल मर गया तो और भिक्षुओं ने पूछा बुद्ध को भंते! अंगुलीमाल मरकर कहां
उत्पन्न हुए?
बुद्ध ने कहा भिक्षुओ मेरा वह पुत्र परिनिवृत्त हो गया परिनिर्वाण
को उपलब्ध हो गया है। अब उसका जन्म नहीं होगा। वह जन्म— मरण के पार हो गया है। अब
वह वापस नहीं लौटेगा। भंते भिक्षुओं ने कहा इतने मनुष्यों को मार कर? भिक्षुओं को भरोसा न आया। ऐसा पापी परिनिर्वाण को उपलब्ध हो गया। हां
भिक्षुओ बुद्ध ने कहा सोए— सोए उसने बहुत पाप किए, लेकिन
जागकर पुण्यों से उसने उन्हें काट डाला ऐसे वह शून्यभाव में डूबकर निर्वाण को
उपलब्ध हो गया है। लेकिन भिक्षुओं ने फिर पूछा भगवान। उसे तो ज्यादा समय भिक्षु
हुए भी नहीं हुआ उसने पुण्य किए कहां? बुद्ध ने कहा कभी— कभी
एक पुण्य का छोटा सा कृत्य भी अगर समग्रता से किया जाए तो सारे पा के को काट डालता
है। नहीं उसे ज्यादा दिन लगे नहीं ज्यादा दिन वह जीआ, लेकिन
जब लोग उसे पत्थर मार रहे थे तब वह साक्षी बना रहा यह सबसे बड़ा पूण्य — कृत्य है।
कर्ता होने में पाप है साक्षी होने में पुण्य है; ऐसी अपूर्व
बात बुद्ध ने कही।
और
तब उन्होंने यह दूसरी गाथा कही—
यस्य पापं कत कम्मं कुसलेन पिथीयती।
सो ' म लोकं पभासेति अब्भा मुतो व चंदिमा।।
'जिसका किया हुआ पाप उसके बाद में किए हुए पुण्य से ढंक जाता है, वह मेध से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है। '
तीसरा
सूत्र—
अधं
भूतो अयं लोको तनुकेत्थ विपस्सति।
सकुंतो
जालमुतो '
व अप्पो सग्गाय गच्छति।।
'यह सारा लोक अंधा बना है। यहां देखने वाला कोई विरला है। जाल से मुक्त हुए
पक्षी की भांति विरला ही स्वर्ग को जाता है।'
'यह सारा लोक अंधा बना है। '
यहां
लोगों के पास आंख नहीं,
क्योंकि लोगों के पास ध्यान नहीं। ध्यान आंख है। ध्यान का चक्षु ही
असली चक्षु है—उसको तृतीय नेत्र कहो, शिव नेत्र कहो, या जो भी नाम दो—अन्यथा आदमी अंधा है। जब तक तीसरी आंख न खुल गयी हो,
जब तक भीतर देखने वाली आंख न खुल गयी हो, तब
तक आदमी अंधा है।
यह
सूत्र बुद्ध ने इस परिस्थिति में कहा—
एक
जुलाहे की बेटी गौतम बुद्ध के दर्शन को आयी। अत्यंत आनंद और अहोभाव से उसने बुद्ध
के चरणों में सिर रखा। बुद्ध ने उससे पूछा बेटी कहां से आती हो? भंते नहीं
जानती हूं वह बोली उसकी अभी ज्यादा उम्र भी न थी। अठारह वर्ष की केवल। बुद्ध ने
कहा कहां जाओगी बेटी? भंते, उसने कहा, नहीं जानती हूं। क्या नहीं जानती हो बुद्ध ने पूछा वह बोली भंते जानती
हूं। जानती हो बुद्ध ने कहा? वह बोली कहां भगवान जरा भी नहीं
जानती हूं।
ऐसी
बातचीत सुनकर अन्य उपस्थित लोग बहुत नाराज हुए। गांव के लोग जुलाहे की बेटी को
भलीभांति जानते हैं कि यह क्या बकवास कर रही है! और यह कोई ढंग है भगवान से बात
करने का?
यह कोई शिष्टाचार है? गांव के लोगों ने कहा कि
सुन पागल यह तू किस तरह की बात कर रही है होश में है? किससे
बात कर रही है? डांटा— डपटा भी
लेकिन
भगवान ने कहा पहले उसकी सुनो भी तो गुनो भी तो वह क्या कहती है। बुद्ध हंसे
उन्होंने कहा बेटी इन सबको समझा कि तूने क्या कहा।
तो
उस युवती ने कहा जुलाहे के घर से आ रही हूं, भगवान यह तो आप जानते ही
हैं। और ये गांव के लोग भी जानते हैं। लेकिन कहां से आ रही हूं यह जन्म कहां से
हुआ मुझे पता नहीं। वापस जुलाहे के घर जाऊंगी यह मैं भी जानती हूं आप भी जानते हैं
ये गांव के लोग भी जानते हैं यह कोई बात है! लेकिन इस जन्म के बाद जब मृत्यु होगी
तो कहाँ जाऊंगी मुझे कुछ पता नहीं है। इसलिए आपसे कभी मैने कहा जानती हूं— जब मैने
सोचा कि आप पूछ रहे हैं कहां से आ रही है जुलाहे के घर से? तो
मैने कहा जानती हूं। जब आपने कहा कहां जा रही है? मैने सोचा
कि पूछते हैं कहां वापस जाएगी जुलाहे के घर? तो मैने कहा
जानती हूं। लेकिन फिर जब मैने आपकी आंखों में देखा तो मैने कहा नहीं— नहीं बुद्ध
और ऐसा प्रश्न क्या खाक पूछेंगे। वह पूछ रहे हैं कहां से आती है किस लोक से?
कहां तेरा जीवन— स्रोत है? तो मैने कहा नहीं
भगवान नहीं जानती हूं फिर मैने सोचा कि जब आप पूछते हैं कहां जाती है तो मैने सोचा
मरने के बाद कहां जाऊंगी— बुद्ध तो ऐसे ही प्रश्न पूछेंगे न— तो मैने कहा नहीं
जानती हूं।
इसलिए।
तब बुद्ध ने यह गाथा कही—
'यह सारा लोक अंधा है। यहां देखने वाला विरला ही है। जाल से मुक्त हुए पक्षी
की भांति विरला ही स्वर्ग को जाता है।'
उस
लड़की को उन्होंने कहा,
तेरे पास आंख है। तू देख पाती है। ये गांव के लोग अंधे हैं। आंख
वाला जब बोले तो अंधों की समझ में नहीं आता, क्योंकि आंख
वाला ऐसी बातें करेगा जो अंधे मान ही नहीं सकते कि हो सकती हैं। आंख वाला कहेगा,
प्रकाश, आंख वाला कहेगा, रंग, आंख वाला कहेगा, कैसा
प्यारा इंद्रधनुष; और अंधा कैसे समझेगा?
बुद्ध, कृष्ण,
महावीर आंख वाले हैं, अंधे नहीं समझ पाते हैं।
अंधे कुछ का कुछ समझ लेते हैं।
'हंस सूर्यपथ से जाते हैं। ऋद्धि से योगी भी आकाश में गमन करते हैं। धीरपुरुष
सेनासहित मार को पराजित कर लोक से निर्वाण चले जाते हैं।'
हंसादिच्चपथे यंति आकासे यंति इद्धिया।
नीयंति धीरा लोकम्हा जेत्वा मारं सवाहिनिं।।
जैसे
हंस आकाश में उड़ते हैं,
ऐसा एक और आकाश है—अंतर का प्राकाश—जहा परमहंस उड़ते हैं। जैसे हंस
आकाश में उड़ते हैं और दूर की यात्रा करते हैं, ऐसे परमहंस
अंतर के आकाश में उड़ते हैं और निर्वाण में लीन हो जाते है, निर्वाण
में चले जाते हैं।
यह
गाथा बुद्ध ने एक बड़े अनूठे समय पर कही—
एक
दिन तीस खोजी बुद्ध के पास आए। तीसों बुद्ध के भिक्षु हैं बहुत लंबा पाटन करके आए
हैं। भिक्षु आनंद द्वार पर पहरा दे रहा है और वे तीस खोजी बुद्ध के कमरे के भीतर
बात कर रहे हैं। आनंद को बड़ी देर लग रही है कि बहुत देर हो गयी, बहुत देर
हो गयी बात चलती ही जा रही है बुद्ध को वे सताए ही चले जा रहे हैं, अब निकलें भी अब निकलें भी समय मांगा था, उससे दुगुना
समय हो गया ! आखिर सीमा आ गयी उसके धैर्य की वह उठा उसने दरवाजे से झांककर देखा,
बड़ा हैरान हुआ वहां बुद्ध अकेले बैठे हैं। वे तीस आदमी वहां हैं ही
नहीं। उसको तो—अपनी आंखें मीड़ीं—उसको भरोसा न आया क्योंकि दरवाजा एक है, वह दरवाजे पर बैठा है वे जा तो सकते नहीं गए कहां?
आनंद
ने भगवान से पूछा भंते कुछ व्यक्ति आप से मिलने आए थे यह क्या चमत्कार वे कहां हैं? बाहर तो
निकले नहीं क्योंकि मैं द्वार पर बैठा हूं। निकलने का कोई और द्वार है भी नहीं
इसलिए जा कहीं सकते नहीं। गए कहां? तो बुद्ध ने कहा, वे गए आनंद वे आकाश मार्ग से चले गए। आनंद ने कहा आप मुझे इस तरह की बातों
में उलझाए मत पहेलियां न बुझे। आप सीधा—सीधा कहें वे गए कहां? क्योंकि द्वार पर मैं बैठा हूं और मैं पूरा सजग हूं। तो बुद्ध ने कहा
आनंद वे भीतर के आकाश से समाधि में उतर गए। इस अंतर—आकाश में उतरने के लिए किसी और
द्वार से जाने की जरूरत नहीं है। अपने ही भीतर कोई चला जाए। उस समय आकाश में हंस उड़
रहे थे। तो बुद्ध ने कहा देख आनंद द्वार के बाहर देख, जैसे
आकाश में हंस उड़ रहे हैं ऐसे ही वे भी उड़ गए। आनंद ने पूछा तो क्या वे उड़कर हंस
हो गए? गए कहां? बुद्ध ने कहा वे परमहंस
हो गए हैं आनंद।
और
तब उन्होंने यह गाथा कही—
हंसादिच्चपथे यंति आकासे यंति इद्धिया।
'जैसे सूर्य पथ से जाते आकाश में हंस……।'
नीयंति धीरा लोकम्हा जेत्वा मारं सवाहिनिं।।
'ऐसे ही धीरपुरुष शैतान की सारी सेना को मारकर—सेनासहित मार को पराजित कर—लोक
से निर्वाण को चले जाते हैं।'
यह
कथा बड़ी अदभुत है। झेन जैसी है। इसका मतलब कुल इतना है कि वे तीस ही व्यक्ति बुद्ध
के पास बैठे—बैठे ध्यान में लीन हो गए, समाधिस्थ हो गए। वे इतनी गहरी
समाधि में चले गए—नहीं कि उनके शरीर वहां नहीं थे, शरीर तो
आनंद को भी दिखायी पड़ रहे होंगे, शरीर तो थे ही—मगर वे चले
गए थे। बस शरीर ही थे। लाशें रखी थीं, पक्षी उड़ गया था। पक्षी
जैसे वहां था ही नहीं। मूर्तिवत। वे समाधि में उतर गए थे। और इस समाधि में जो
उतरता है उसी की आंख खुलती है।
अंतिम
सूत्र—
पथव्या एकरज्जेन सग्गस्स गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्चेन सोतापत्तिफलं वरं।।
'पृथ्वी का अकेला राजा होने से—चक्रवर्ती होने से—या स्वर्ग के गमन से—देवता
होने से—अथवा सभी लोकों का अधिपति बनने से भी स्रोतापत्ति—फल श्रेष्ठ है।'
जो
ध्यान की सरिता में उतर गया, उसको बौद्ध— भाषा में कहते हैं, स्रोतापन्न। वह स्रोत की तरफ चल पड़ा। हम तो ऐसे लोग हैं जो किनारे पर खड़े
हैं। नदी में उतरते नहीं, बस किनारे पर खड़े हैं। नदी बही जा
रही है, पीते तक नहीं, क्योंकि पीने के
लिए झुकना पड़ेगा। उतरते नहीं, क्योंकि डरते हैं, कहीं गल न जाएं। क्योंकि जो झूठ हमने बना रखी है अपने जीवन में, वह निश्चित गल जाएगी। जो प्रतिमा हमने अपनी मान रखी है, वह बह जाएगी, तो घबड़ाहट है। और हमें भीतर का तो कुछ
पता नहीं है, तो हम ध्यान की धारा में उतरते नहीं। ध्यान की
धारा में जो उतरता है, उसे कहते हैं—स्रोतापन्न।
दुनिया
में दो तरह के लोग हैं। एक,
जो जीवन में लक्ष्य की तरफ दौड़ रहे हैं। लक्ष्य का मतलब— धन पाना है,
पद पाना है। स्रोतापन्न दूसरे तरह के लोग हैं, जो स्रोत की तरफ जा रहे हैं। जो लक्ष्य की तरफ नहीं जा रहे हैं, जिनकी सारी खोज यह है कि हम आए कहा से? उस मूलस्रोत
को पकड़ लेना है। उसे पकड़ लिया तो सब पकड़ लिया। क्योंकि जहां से हम आए, अंततः वहीं जाना है। गंगा गंगोत्री में ही लौट जाती है। बीज वृक्ष बनता है
और फिर बीज बन जाता है, वर्तुल पूरा हो जाता है। हम जहां से
आए वहीं लौट जाना है—स्रोत, मूलस्रोत की तरफ।
यह
गाथा बुद्ध ने एक विशेष अवसर पर कही।
ये
सारे अवसर बड़े प्यारे हैं,
इसलिए मैं कह रहा हूं।
एक
बड़ा दानी था उसका नाम था, अनाथपिंडक। वह अनाथों का बड़ा सहारा था। देता
लोगों को दिल खोलकर देता। उसके घर काल नाम का एक पुत्र था। उानाथपिंडक बुद्ध को
सुनने जाता लेकिन काल कभी बुद्ध को सुनने न जाता था। काल शब्द भी बड़ा अच्छा!
अनाथपिडक का मतलब होता है, देने वाला, दान
दे ने वाला, अनाथों को सनाथ कर दे जो। और काल का अर्थ होता
है, समय, या मौत। न तो समय बुद्ध को
सुनने जाना चाहता है और न मौत, क्योंकि दोनों बुद्ध से डरते
हैं।
समय
तो क्षणभंगुर है,
शाश्वत के पास जाने में घबड़ाता है। और मौत भी जीवन के सामने जाने
में घबड़ाती है। तुम तो मौत के सामने जाने में घबड़ाते हो, बुद्धपुरुष
के सामने मौत आने में घबड़ाती है। ये तो प्रतीक हुए नाम के।
बाप
लेकिन चाहता था कि बेटा जाए बुद्ध को सुने। लेकिन बेटा सुनता नहीं था। तो बाप ने
कहा ऐसा कर मैं तुझे सौ स्वर्णमुद्राएं दूंगा अगर तू बुद्ध के वचन सुनने जाए। इस
लोभ में वह गया।
तुम
खयाल रखना,
पहली दफे जब तुम धर्म की तरफ आते हो तो तुम लोभ में ही आते हो। लोभ
किसी तरह का हो, कि चलो मन को थोड़ी शांति मिलेगी, अशांति से छुटकारा होगा, कि थोड़ा आत्मविश्वास बढ़ेगा,
कि जीवन में सफलता शायद इस तरह से मिल जाए, कि
दुकान तो चलती नहीं शायद ध्यान करने से चल जाए, क्योंकि लोग
कहते हैं कि ध्यान करने से तो परमधन मिलता है, तो यह तो छोटा—मोटा
धन है, यह तो मिल ही जाएगा, ऐसे ही
हजार—कि बीमार रहती है तबियत शायद ध्यान करने से ठीक हो जाए; कि पति—पत्नी की बनती नहीं तो सोचते हैं, चलो ध्यान
कर लें शायद बनने लगे, कुछ ऐसे लोभ से आदमी आता है।
तो
गया बेटा बुद्ध को सुना लौटकर आया आते ही उसने कहा कि सौ स्वर्णमुद्राएं? पीछे भोजन
करूंगा क्योंकि मुझे भरोसा किसी का नहीं। पहले स्वर्णमुद्राएं गिनवा ली तब भोजन
किया। वह तो गया ही उसके लिए था। उसको बुद्ध को सुनने से मतलब थोड़े ही था! वह तो
जब बुद्ध को सुन रहा होगा तब भी मुद्राएं गिन रहा होगा। सोच रहा होगा कि बाप देगा
कि नहीं देगा कि चालबाजी की है कि ऐसे ही बहाना कर दिया है कि इसी बहाने भेज दिया।
दूसरे
दिन बाप ने कहा कि अब हजार स्वर्णमुद्राएं दूंगा लेकिन शर्त एक है कि सुनना काफी
नहीं जो सुनो उसे याद भी रखना और मेरे सामने आकर दोहराना हजार स्वर्णमुद्राएं। तो
बेटा गया। लेकिन वहां जाकर डुबकी खा गया।
वह
याद रखने में गड़बड़ हो गयी। गौर से सुनना पड़ा, याद रखना था। ध्यान से
सुनना पड़ा, गुन—गुनकर सुनना पड़ा कि एक भी बात चूक न जाए,
नहीं तो बाप भी पक्का बाप है, वह एक हजार
स्वर्णमुद्राओं में काट लेगा—इतना याद नहीं रहा। इतने गौर से सुना, ध्यान से सुना— भूल ही गया स्वर्णमुद्राओं को उस भाव में—डुबकी खा गया।
आया
ही नहीं घर सांझ हो गयी बाप भागा आया कि मामला क्या है? वह आंख
बंद किए बैठा था अरे बाप ने कहा घर चल। उसने कहा सुन लिया अब कहां आना और कहां
जाना? बाप ने कहा हजार स्वर्णमुद्राएं तेरी प्रतीक्षा कर रही
हैं उसने कहा वह अब आप ही सम्हालकर रख लो और ये सौ भी जो कल दी थीं वापस ले जाओ!
बाप
तो बड़ा हैरान हुआ क्योंकि बुद्ध को बहुत सुनता था उनकी बात मानकर दान भी करता था
लेकिन ऐसा नहीं सुना था जैसा इस बेटे ने सुन लिया।
अक्सर
ऐसा होता है कि जवानी जो सुन सकती है, बुढ़ापा नहीं सुन सकता। युवा मन जो
सुन सकता है, का मन नहीं सुन सकता। थक गया होता है। या,
जानकारी की इतनी पर्तें इकट्ठी हो गयी होती हैं! ताजा मन जो सुन
सकता है..। बाप ने बहुत समझाया लेकिन उसने कहा अब छोड़ो पिंड तुम यही तो चाहते थे
हो गया। बाप ने कहा यह जरा ज्यादा हो गया। मैने इतना चाहा था कि सुन लेगा लौट आएगा
थोड़ा समझदार हो जाएगा धार्मिक हो जाएगा प्रतिष्ठित हो जाएगा मगर यह जरा ज्यादा हो
गया तेरा क्या इरादा है? उसने कहा अब क्या इरादा है बात खतम
हो गयी। अब हम बुद्ध के हैं। बात उतर गयी
बाप
ने बुद्ध को कहा कि यह मामला क्या है? मैं जन्म से सुन रहा हूं और इस
आदमी ने दो ही बार सुना है और यह भी किसी और कारण से सुना है पैसा पाने के लिए
बुद्ध ने कहा तुम्हारा बेटा अब तुम्हारा नहीं मेरा हो गया। जिसने मुझे सुन लिया
मेरा हो गया। अब यह बेटा मेरा है अब यह तुम दावा जाने दो। अब उसे तुम चक्रवर्ती की
संपत्ति भी दो तो भी लौटने वाला नहीं तुम उसे देवलोक का सम्राट बना दो इंद्र बना
दो तो भी लौटने वाला नहीं। तुम तीनों लोकों की सारी संपदा उसके चरणों में रख दो तो
भी लौटने वाला नहीं तो बाप ने कहा इसे हो क्या गया है? तो
बुद्ध ने कहा यह स्रोतापन्न हो गया। यह ध्यान की सरिता में उतर गया है।
इस
घड़ी बुद्ध ने यह गाथा कही—
पथव्या एकरज्जेन सग्गस्स गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्चेन सोतापत्तिफलं वरं।।
'पृथ्वी का अकेला राजा होने से, या स्वर्ग के गमन से,
अथवा सभी लोकों का अधिपति बनने से भी स्रोतापत्ति—फल श्रेष्ठ है।'
ध्यान
आंख है इस स्रोतापन्न हो जाने को ही मैं संन्यास कहता हूं। तुममें से जिसने सुना
हो, वह खयाल रखें इस घटना को। सुना, तो मेरे हुए। अगर
सुनकर चले गए बिना मेरे हुए, तो सुना ही नहीं। स्मरण रखना। और
जब तक तुम स्रोतापन्न न हो जाओ, जब तक तुम ध्यान की सरिता
में डूबने न लगो, डुबकी न खाने लगो, तब
तक सुना या न सुना सब बराबर।
आज
इतना ही।
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