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बुधवार, 12 अप्रैल 2017

साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)-प्रवचन-06



साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)
ओशो

छठवां-प्रवचन
चित्त मुक्त हो, इस संबंध में कल सुबह हमने बात की है। वह पहला चरण है स्वयं का विवेक जग सके इस दिशा में। दूसरे चरण में स्वयं का विवेक कैसे जाग्रत हो, किन विधियों, किन मार्गों से भीतर सोई हुई विवेक की शक्ति जाग जाए, इस संबंध में हम आज बात करेंगे।
इसके पहले कि हम इस संबंध में विचार करना शुरू करें, एक अत्यंत प्राथमिक बात समझ लेनी जरूरी है। और वह यह कि मनुष्य के भीतर केवल वे ही शक्तियां जाग्रत होती हैं और सक्रिय, जिन शक्तियों के लिए जीवन में चुनौती खड़ी हो जाती है, चैलेंज खड़ा हो जाता है। वे शक्तियां सोई हुई ही रह जाती हैं, जिनके लिए जीवन में चुनौती नहीं होती।

यदि किसी व्यक्ति को वर्षों तक आंखों का उपयोग न करना पड़े, तो आंखों की जागी हुई शक्ति भी सो जाएगी। अगर किसी व्यक्ति को वर्षों तक पैरों से न चलना पड़ें, तो पैर भी पंगु हो जाएंगे। जीवन उन शक्तियों का निरोध कर देता है, जिन शक्तियों के लिए हम सक्रिय रूप से उपयोग नहीं करते हैं। ठीक इसके विपरीत, जीवन उन शक्तियों को पैदा भी कर देता है, जिनके लिए चुनौती उपस्थित हो जाती है।
विज्ञान भी इस दिशा में जिन खोजों को कर पाया है, वे भी इसकी समर्थक हैं। पशुओं में, प्राणियों में, पक्षियों में या मनुष्यों में, केवल वे ही शक्तियां जाग गई हैं, और सक्रिय हो गई हैं, जिनके लिए जीवन ने चुनौती खड़ी कर दी है। जहां चुनौतियों का अभाव है, जहां प्रेरणाएं नहीं हैं, वहां शक्तियों के जागने का कोई कारण नहीं रह जाता।
घने जंगलों में दरख्त ऊंचे उठ जाते हैं, अफ्रीका के जंगलों में दरख्त आकाश को छूने की तरफ बढ़ने लगते हैं। घने जंगल में श्वास लेने की सुविधा दरख्तों को नीचे होने पर नहीं मिल सकती, उनके सामने बड़ा प्रश्न खड़ा हो जाता होगा, उनके प्राण संकट में पड़ जाते होंगे, तो वे निरंतर ऊपर उठने की कोशिश करते हैं, ताकि हवा और रोशनी उन्हें मिल सके। लेकिन जहां घने जंगल नहीं होते, वहां दरख्त छोटे रह जाते हैं, वहां दरख्त बड़े नहीं होते। मरुस्थलों में, ऊंटों ने अपनी गर्दनें लंबी कर लीं, इसके सिवाय जीना असंभव था। जितना भयंकर मरुस्थल हो, और जिस मरुस्थल में नीचाइयों पर पत्तियों को पाना असंभव हो, वहां के ऊंट उतनी ही लंबी गर्दन करने में समर्थ हो गए हैं। ज़ीराफ होता है, उसने भी अपनी गर्दन बहुत लंबी कर ली है, क्योंकि जिन जंगलों में वह होता है, वहां दरख्त बहुत ऊंचे हैं।
प्राणी-विज्ञान इस बात को कहेगा कि हम केवल उन्हीं शक्तियों को विकसित कर पाते हैं जिन्हें बिना विकसित किए जीवन संकट में पड़ जाए। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क में बहुत से हिस्से निष्क्रिय पड़े हुए हैं। मस्तिष्क का बहुत छोटा सा हिस्सा काम कर रहा है, बाकी हिस्से सब बंद पड़े हुए हैं। शायद उनकी जरूरत नहीं पड़ी है, शायद उनके लिए चुनौती खड़ी नहीं हुई, शायद उनके लिए जीवन ने अभी मौका नहीं दिया कि वे जागें और सक्रिय हो जाएं।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं प्राथमिक रूप से कि विवेक की शक्ति भी प्रत्येक मनुष्य के भीतर उपस्थित है, लेकिन यदि हम विवेक की शक्ति के लिए चुनौती उपस्थित नहीं करेंगे, तो वह सोई रह जाएगी, वह जागेगी नहीं। श्रद्धा रोक देती है, विश्वास रोक देता है, क्योंकि विश्वास कर लेने पर विवेक को जागने का कोई कारण ही नहीं रह जाता।
इसलिए श्रद्धा विवेक की शक्ति के जागरण में बाधा है, तो ठीक श्रद्धा के विपरीत जो चित्त की दशा होती है वह सहयोगी होगी। संदेह, डाउट, विवेक को जगाने में सहयोगी होता है। धन्य होता हैं वे लोग जिनके जीवन में सम्यक संदेह का जन्म हो जाता है। क्यों? क्योंकि सम्यक संदेह के तीव्र दबाव में, प्रेशर में, संदेह की चित्त-दशा में विवेक सोया हुआ नहीं रह सकता, उसे जागना ही पड़ेगा। क्योंकि संदेह बाहर तो किसी बात पर विश्वास करने को राजी नहीं होता है और जब बाहर किसी बात पर विश्वास करने को हम राजी नहीं होते, तो एक ही मार्ग रह जाता है, राजी होने का, संतुष्ट होने का कि उत्तर भीतर से आए।
अगर बाहर के सब उत्तर व्यर्थ दिखाई पड़ने लगें, बाहर के सारे शास्त्र निरर्थक दिखाई पड़ने लगें, बाहर कोई भी शरण न मालूम पड़े और बाहर श्रद्धा को कोई आधार न रह जाए, तो उस निराधार चित्त की दशा में, जब बाहर के सब सहारे खो गए हों, और बाहर विश्वास के लिए कोई कारण न रह गया हो, प्राणों में सोई हुई वह ऊर्जा जगती है, जो भीतर से उत्तर देना शुरू करती है। उसके पहले भीतर से उत्तर नहीं आते। उसके पहले भीतर से उत्तर आने का कोई कारण भी नहीं है। भीतर से उत्तर तभी आ सकते हैं, जब बाहर के सब उत्तर व्यर्थ हो गए हों। जब तक हम विश्वास से जकड़े हुए हैं, तब तक भीतर से उत्तर उठने का कोई कारण नहीं रह जाता। वे ही थोड़े से लोग स्वयं के विवेक को जगा पाते हैं, जो क्रमशः बाहर के सब भांति के उत्तरों से, बाहर के सब समाधानों से अपने चित्त को मुक्त कर लेते हैं, उस स्थिति में गहरे और तीव्र संदेह की स्थिति में भीतर का विवेक जगता है। जैसे कोई आपके पीछे बंदूक लेकर दौड़ता हो, तो आपके दौड़ने की अंतिम शक्ति जाग जाएगी, आप अपनी पूरी शक्ति से भागेंगे।
एक बार ऐसा हुआ, जापान में एक राजा अपने एक नौकर को बहुत, बहुत प्रेम करता था। वह नौकर इस योग्य था भी। युद्धों में उस नौकर को वह अपने साथ ले गया, अपने महलों में उसे उसने अपने साथ रखा, अपनी यात्राओं में उसे साथी समझा। उसने कभी उससे नौकर जैसा व्यवहार भी नहीं किया, प्रेम किया मित्र जैसा। वह युवा नौकर सुंदर भी था और स्वस्थ भी था, बुद्धिमान भी था। उस राजा की पत्नी उस पर मोहित हो गई। राजा को यह पता चला। उसके चित्त को बहुत वेदना हुई, सीधी बात थी कि वह तलवार उठाता और नौकर की गर्दन काट कर अलग कर देता। इसमें कोई बाधा न थी, लेकिन उस नौकर को उसने बहुत प्रेम किया था और मित्र जैसा प्रेम किया था, तो उसने उसे अंतिम रूप से भी मित्र के अनुसार एक मौका देने की इच्छा प्रकट की।
उसने उस नौकर को बुलाया और कहा:  मित्र, चाहूं तो मैं तुम्हारी गर्दन काट दूं, लेकिन तुम्हें मैंने इतना प्रेम किया, इसलिए एक मौका दूंगा। यह तलवार अपने हाथ में लो और एक तलवार मैं अपने हाथ में लेता हूं, और हम दोनों लड़ें, और जो मर जाए, वह समाप्त हो जाए और जो शेष रह जाए, वह रानी भी उसकी हो जाए, यह राज्य भी उसका हो जाए। मित्र की हैसियत से यह मौका देना जरूरी है।
उस नौकर ने कहा:  यह तो बड़ी आप बात तो बहुत ऊंची कर रहे हैं, लेकिन इसमें कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि मैंने कभी तलवार उठाई नहीं। मैं, तलवार कैसे पकड़ी जाए, यह भी नहीं जानता हूं। तो नाममात्र को तो युद्ध होगा, मरूंगा मैं, झूठी बात होगी, प्रशंसा भी आपको मिलेगी और जान भी मेरी जाएगी, इससे बेहतर है आप ऐसे ही तलवार उठा कर मेरी गर्दन काट दें। इसमें कोई अर्थ ही नहीं है, मैं तो तलवार पकड़ना भी नहीं जानता, और आप, वह जो राजा था, उस समय का कुशलतम तलवारबाज था, पूरे मुल्क में उसका कोई मुकाबला नहीं था। उससे कोई मुकाबला करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता था। उसकी कुशलता अप्रतिम थी, तो एक नौकर जिसने कभी तलवार न उठाई हो, वह उससे कैसे जीतेगा? कैसे लड़ेगा?
लेकिन फिर भी राजा ने कहा कि मेरे अंतःकरण को यही उचित मालूम होता है कि तुम्हें एक मौका दूं।
आज्ञा थी, उस नौकर को तलवार लेकर खड़ा होना पड़ा। राजा बहुत बार तलवार की प्रतियोगिताओं में उतरा था और हमेशा सफल हुआ था, उसकी कल्पना में भी यह घटना नहीं थी, जो हुई।
उस दिन उस नौकर को पराजित करना मुश्किल हो गया। क्योंकि नौकर को मरने का तो कोई भय ही नहीं था, मरना तो निश्चित था, बचने का कोई उपाय नहीं था, तलवार चलानी उसे आती नहीं थी, लेकिन इतनी खतरे की स्थिति में, इतने डेंजर में, उसके प्राणों की सारी शक्ति जग गई, वह साधारण सा नौकर एकदम असाधारण हो उठा, उसके हाथ में तलवार बड़ी खतरनाक सिद्ध होने लगी। वह बिलकुल बेबूझ तलवार चला रहा था, उसे तलवारों के दांव-पेंच का कोई पता नहीं था, वह बेबूझ तलवार चला रहा था। लेकिन बचने का कोई उपाय नहीं था, इसलिए प्राणों की सारी शक्ति इकट्ठी हो गई थी, राजा पीछे हटने लगा, हर वार राजा को पीछे धकेलने लगा, और राजा घबड़ाया, जिंदगी में ऐसा मौका कभी नहीं आया था, बड़े से बड़े कुशल तलवारबाजों से वह लड़ा था, एक अकुशल आदमी से लड़ना? लेकिन अकुशल आदमी बढ़ा जा रहा था, राजा को प्राणों की रक्षा का सवाल खड़ा हो गया और राजा चिल्लाया कि रुक जाओ! और उसने कहा कि मैं हार गया, मेरी कल्पना के बाहर थी यह बात। उसने अपने गुर से, वह राजा राज्य छोड़ कर चला गया, उस नौकर के हाथ में सारी संपत्ति और पत्नी को छोड़ गया। बाद में उसने एक फकीर से पूछा कि यह क्या घटना घटी? यह कैसे संभव हुआ?
उस फकीर ने कहा:  यह तो होना निश्चित था, अगर तुम मुझसे पहले आते तो मैं तुमसे पहले ही कह देता। जब जीवन इतने खतरे में होता है, तो प्राणों की सारी की सारी संरक्षित शक्तियां संलग्न हो जाती हैं, उस समय जीतना बहुत कठिन। तुम्हारे लिए जीवन खतरे में नहीं था, तुम सुरक्षित थे अपनी कुशलता में, उस नौकर के लिए जीवन पूरी तरह खतरे में था, उसके पूरे प्राण दांव पर थे, उसकी पूरी शक्ति जग गई हो, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। और जब पूरी शक्ति जागती है, तो एक साधारण सा मनुष्य अदभुत रूप से असाधारण हो जाता है।
विवेक के इस संबंध में भी यही सत्य है। विवेक तभी जागता है, जब संदेह पूरा खतरा उपस्थित कर दे। लेकिन जो लोग संदेह के खतरे से बचते हैं, उनका विवेक कभी नहीं जगेगा।
विश्वास में एक तरह की सिक्योरिटी है, एक तरह की सुरक्षा है। हजारों साल से मां-बाप पीढ़ियां दर पीढ़ियां जिसे मानते रहे हैं, उसे हम भी मान लेते हैं, इसमें एक सुरक्षा है। इतने लोग गलत तो नहीं रहे होंगे। हजारों वर्ष से लाखों लोगों ने जिस बात को माना है, वे कोई भ्रांत तो नहीं रहे होंगे, वे कोई नासमझ तो नहीं रहे होंगे, तो हम सुरक्षित हैं। उन्होंने, जब इतनी भीड़ इस बात को सच कहती है, तो हम भी उस भीड़ में खड़े हो जाते हैं। और भीड़ के प्रभाव में, भीड़ की संख्या में हम भी अपनी सुरक्षा पा लेते हैं। हम बेसहारा नहीं रह जाते, अकेले नहीं रह जाते, इतने लोग साथ हैं, इतने लोगों का साथ होना बल देता है, हिम्मत देता है, आसरा देता है, सहारा देता है। खतरा कम हो जाता है जीवन का, हम सुरक्षित हो जाते हैं। और जो सुरक्षित हो जाता है, उसके भीतर के विवेक जागरण का कोई उपाय नहीं रह जाता। विवेक जागरण के लिए इनसिक्योरिटी चाहिए, खतरा चाहिए, चारों तरफ से ऐसी स्थिति चाहिए, जो चुनौती बन जाए, तो कुछ भीतर होता है, तो ही सोई हुई चीजें जागती हैं, नहीं तो नहीं जागती हैं। लेकिन हम तो विश्वास के घेरे में खड़े होकर सब भांति सुरक्षित हो जाते हैं। और इसीलिए हम खोज करते हैं इस बात की कि फलां किताब कितनी पुरानी है? दो हजार वर्ष पुरानी है, तो कम सुरक्षा देती है। पांच हजार वर्ष पुरानी है, तो ज्यादा सुरक्षा देती है; क्योंकि पांच हजार वर्ष से जिसे लोग मानते हैं, वह जरूर ही सच होगा। और अगर कोई यह भी सिद्ध कर दे कि वह किताब खुद ईश्वर की लिखी हुई है, ईश्वर-प्रणीत है, तो और सुरक्षा देती है, क्योंकि फिर तो उसके शक होने का सवाल ही नहीं रहा, संदेह का कोई सवाल नहीं रहा। इसलिए सारे दुनिया के धार्मिक लोग अपनी-अपनी किताब को ईश्वर के द्वारा बनाए होने का प्रमाण देने की कोशिश करते हैं।
यह प्रामाणिकता अपने संदेह को समाप्त करने की कोशिश है। हम बिलकुल निश्चिंत हो जाएं कि अब शक की कोई बात ही नहीं रही। हम खतरे के बिलकुल बाहर हो जाएं, सुरक्षा हमें पूरी मिल जाए, सिक्योरिटी में कोई शक न रहे। इसलिए तो सारी दुनिया के धार्मिक लोग लड़ते हैं। हिंदू कहेंगे, वेद ईश्वर के द्वार बनाया हुआ है; मुसलमान कहेंगे कि नहीं, यह कैसे हो सकता है? ईश्वर ने तो कुरान भेजी है। जैन कहेंगे कि नहीं-नहीं, ये कोई ईश्वर के बनाए हुए नहीं हैं, यह तो तीर्थंकर का प्रणीत, तो महावीर ने जो कहा है, वही है, वे सर्वज्ञ के वचन हैं। बौद्ध कहेंगे कि बुद्ध के जो वचन हैं, वे ही सत्य हैं, बाकी कुछ और भी सत्य नहीं है। सारी दुनिया के धार्मिक लोग इसलिए तो लड़ते हैं। यह लड़ाई इस बात की लड़ाई नहीं है, कि इनको इस बात से प्रयोजन हो कि कौन सी किताब ईश्वर की बनाई हुई है, इनका प्रयोजन केवल एक है कि जब सिद्ध हो जाए कि फलां किताब ईश्वर की बनाई हुई है, तो इनका चित्त निश्चिंत हो जाए। और जो चित्त निश्चिंत हो गया, वह मर गया, उसकी खोज खत्म हो गई। उसने सहारा खोज लिया और इंक्वायरी बंद हो गई।
यह जो सारी हमारी कोशिश चलती है कि महावीर सर्वज्ञ हैं, बुद्ध सर्वज्ञ हैं, वे सब जानते हैं, और जो जानते हैं बिलकुल ठीक जानते हैं। यह हम इतने जोर से क्यों लड़ते हैं इस बात के लिए? अगर कोई कह दे कि नहीं, महावीर की बात में फलां चीज गलत है, तो हम मरने-मारने को उतारू हो जाएंगे। कृष्ण ने फलां बात गीता में गलत कह दी, तो हम लड़ने को तैयार हो जाएंगे। क्यों? इतना हमारा आग्रह क्यों है उनके ठीक होने में। आग्रह इसलिए नहीं है कि हमको मतलब है कि वे ठीक हों, आग्रह इसलिए है कि अगर वे संदिग्ध हो गए तो हम तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। वे अगर संदिग्ध हो गए तो हम संदेह में पड़ जाएंगे। फिर हमारे विश्वास का आधार कहां रह जाएगा, और फिर हमें सुरक्षा कहां रह जाएगी, फिर तो संदेह खड़ा हो जाएगा, डाउट खड़ा हो जाएगा।
इसलिए ऐसी-ऐसी बातों पर भी हम शक करने में और कठिनाई में पड़ गए, जैसे बाइबिल। बाइबिल में कहा होगा कि जमीन चपटी है और जमीन सूरज के इर्द-गिर्द घूमती है। जब पहली दफा पश्चिम में वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि जमीन गोल है, तो पुरोहित और पादरी बहुत नाराज हुए। उन्होंने कहा:  यह बिलकुल ही गलत है, यह हो ही नहीं सकता। प्रमाण सब सामने थे जमीन गोल होने के, लेकिन वे कहते कि बाइबिल में लिखा है कि जमीन चपटी है, यह गोल हो नहीं सकती। वैज्ञानिक के प्रमाण को वे इनकार करते रहे, उन्होंने गैलीलियो को पकड़वा कर कहा कि हम गर्दन कटवा देंगे, कहो कि जमीन चपटी है। गैलीलियो ने कहा कि बड़ी मुसीबत है, तुम्हें इतनी क्या फिकर है जमीन चपटी होने की? तुम्हें इससे क्या प्रयोजन है?
नहीं; प्रयोजन था, अगर ईसा का एक वचन भी गलत होता है, तो बाकी वचन भी संदिग्ध हो जाएंगे। खतरा यही था। कि जमीन गोल है कि चपटी, किसी को क्या लेना-देना इस बात से। नहीं; खतरा यह था, अगर ईसा का यह वचन भी गलत है, तो दूसरे वचन संदिग्ध हो जाएंगे। शक हो जाएगा कि जो एक आदमी एक बात गलत बोल सकता है, तो दूसरी बातें भी गलत बोल सकता है। तो डाउटफुल हो जाएगी स्थिति। और अगर इससे भी कोई प्रयोजन नहीं कि ईसा गलत हों कि सही हों, प्रयोजन तो इसका है कि फिर हमारे लिए संदेह खड़ा हो जाएगा और हमारा विश्वास डगमगा जाएगा। तो ऐसी-ऐसी मूढ़ताओं पर भी विश्वास जारी रहा है जिनकी आप कल्पना नहीं कर सकते।
यूनान में अरस्तू के वक्त तक समझा जाता था कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। होने चाहिए, स्त्रियां कहीं पुरुषों के बराबर हो सकती हैं। यह हो ही नहीं सकता, वे तो हीन हैं, पुरुष से हीन हैं, इसलिए उनके दांत कम होने चाहिए। अरस्तू जैसा समझदार, विचारशील व्यक्ति उसने भी अपनी किताब में लिखा कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। बड़ी हैरानी की बात है, उसकी खुद की दो औरतें थीं, एक भी नहीं। वह कभी भी बैठा कर गिनती करवा सकता था, लेकिन उसने किया नहीं। क्योंकि पुराना धर्म यह कहता था यूनान का कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। अरस्तू के मरने के एक हजार बाद तक भी यूनान में यही माना जाता रहा कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। ऐसी स्त्रियां काफी हैं बहुतायत से, और अक्सर तो पुरुषों से थोड़ी ज्यादा हैं, कम नहीं हैं। और यूनान में तो बहुत थीं, क्योंकि जिन मुल्कों में लड़ाई चलती है, दंगे-फसाद होते हैं, वहां पुरुष कम हो जाते हैं, स्त्रियां ज्यादा हो जाती हैं। यूनान में तो संख्या कई दफा स्त्रियों की दुगुनी तक हो गई थी पुरुषों से, क्योंकि आए दिन तलवारबाजी थी। तो उस बेवकूफी में पुरुष मर जाते हैं, स्त्रियां बच जाती हैं। लेकिन किसी को यह नहीं सूझा कि जाकर वे स्त्रियों के दांत गिन लें। कोई खयाल ही नहीं आया, संदेह पैदा नहीं हुआ न। ऐसी हजारों तरह की मूढ़ताएं हजारों वर्ष तक चलती हैं।
और हम क्यों डरते हैं उनको उखाड़ने में? उनको खोलने में? डर इसलिए पैदा होता है कि अगर पूर्वजों की एक बात गलत हो जाए, तो पूर्वजों की दूसरी बातें भी गड़बड़ हो जाने का भय पैदा हो जाता है। और उस भय में फिर हमारे भीतर संदेह खड़ा होगा और हमको खोज करनी पड़ेगी, हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। लेकिन मैं आपसे कहूं, जिसका चित्त संदेह से नहीं भरता और जो संदेह की पीड़ा में नहीं पड़ता और जो संदेह की अग्नि में नहीं झुलसता, उसके भीतर विवेक कभी जाग्रत नहीं होता है। विवेक तो जाग्रत तब होता है, जब संदेह पीड़ा देने लगता है, कष्ट देने लगता है, संताप देने लगता है, एंग्ज़ायटी पैदा करने लगता है। जब संदेह चारों तरफ से प्राणों को छेदने लगता है और जब कोई उपाय नहीं रह जाता विश्वास करने का कि ये वेद ईश्वर के बनाए हुए हैं, कि यह कुरान परमात्मा कि भेजी हुई है, कि यह बाइबिल खुद ईश्वर के पुत्र की बनाई हुई है, जब इस पर कहीं कोई आसरा नहीं रह जाता और सब तरफ चित्त में संदेह खड़ा हो जाता है, सब जगह प्रश्नवाचक चिह्न खड़े हो जाते हैं, कहीं कोई सुरक्षा नहीं मालूम होती है, तो फिर प्राणों की जो बहुत रिजर्व फोर्स है, वह जो बहुत संरक्षित और केवल खतरे के लिए जरूरी है, वह शक्ति जागनी शुरू होती है और भीतर विवेक पैदा होता है।
विवेक के अतिरिक्त ईश्वर-प्रणीत कुछ भी नहीं है, बाकी सब शास्त्र मनुष्य के बनाए हुए हैं। और बाकी सब शास्त्र में वैसी ही कमियां और भूलें हैं जैसी मनुष्य में होनी स्वाभाविक है।
एक भर शक्ति मनुष्य की बनाई हुई नहीं है, वह है विवेक। वह है प्राणों में सोई हुई विवेक की जानने की ज्ञान की क्षमता, वह मनुष्य की बनाई हुई नहीं है। वह है ज्ञान की क्षमता मात्र, तो परमात्मा की हो सकती है, बाकी कुछ परमात्मा का नहीं हो सकता। बाकी सब मनुष्य का निर्माण है, सोच-विचार, खोज-बीन है। और इसीलिए तो मनुष्य के सोच-विचार और खोज-बीन में बहुत विरोध और बहुत झगड़ा है।
यह जो भीतर सोई हुई प्राणों की विवेक-शक्ति है, इसे जागने के लिए पहला सूत्र है: सम्यक रूप से संदेह। सम्यक रूप से संदेह मैं क्यों कह रहा हूं? अकेला संदेह भी कह सकता हूं, लेकिन मैं कह रहा हूं, राइट डाउट। मैं कह रहा हूं, सम्यक रूप से संदेह। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि कहीं संदेह अविश्वास न बन जाए। संदेह और अविश्वास में भेद है। बुनियादी भेद है। विश्वास के विरोध में होता है अविश्वास। संदेह विश्वास का विरोधी नहीं है, संदेह अविश्वास और विश्वास दोनों का विरोधी है। तीसरी बात है संदेह। अगर हम एक ट्राएंगल खींचे, एक त्रिभुज बनाएं; तो दो भुजाओं पर होंगे विश्वास और अविश्वास, तीसरे कोण पर होगा संदेह। संदेह बड़ी अलग बात है। संदेह अत्यंत वैज्ञानिक चित्त की प्राथमिक अवस्था है। अविश्वास नहीं, अविश्वास विश्वास का ही रूपांतरण है। अविश्वास विश्वास की ही प्रतिक्रिया, रिएक्शन है।
एक कोई मानता है, ईश्वर है; कोई मानता, नहीं है। कोई मानता है, आत्मा है; कोई मानता है, नहीं है। कोई कहता है कि मोक्ष है; कोई कहता है, नहीं है। कोई कहता है, जन्म, मृत्यु के बाद फिर जन्म है, फिर मृत्यु है; कोई कहता है, नहीं है। ये दोनों ही स्थितियां एक ही तरह की हैं, इनमें शुद्ध संदेह नहीं है। शुद्ध संदेह का अर्थ यह है कि न मैं विश्वास पर पडूं और न अविश्वास में, मैं अपने चित्त को मुक्त रखूं, खोजूं, पूछूं, चेष्टा करूं जानने की और जब तक मेरे विवेक के समक्ष कोई चीज सत्य की भांति स्पष्ट न हो जाए, तब तक उसे न तो मानूं और न न मानूं, दोनों से अपने को मुक्त रखूं। संदेह का अर्थ है: अविश्वास और विश्वास से मुक्ति। संदेह पहली, पहली स्थिति है। संदेह के बिना विवेक नहीं जगेगा।
दूसरा तत्व है विवेक के जागरण में, आत्म-निरीक्षण। संदेह की भूमि हो, आत्म-निरीक्षण की खाद देनी पड़े। आत्म-निरीक्षण का क्या अर्थ है? हम सारे लोग दूसरों का तो बहुत निरीक्षण करते हैं, स्वयं का निरीक्षण कभी कोई मुश्किल से करता होगा। हम प्रशंसा भी करते हैं और निंदा भी करते हैं, लेकिन प्रशंसा भी दूसरों की होती है और निंदा भी दूसरों की। आत्म-निरीक्षण हम करते नहीं, हमारा चित्त निरंतर दूसरों के संबंध में सोचने में संलग्न होता है। स्वयं के संबंध में विचार, स्वयं के संबंध में ऑब्जर्वेशन, निरीक्षण, स्वयं के बाबत भी तटस्थ खड़े होकर सोचने की वृत्ति, मुश्किल से होती है। और जिसमें नहीं है ऐसी वृत्ति, वह करीब-करीब जिन बातों को दूसरों में निंदा करता है, करीब-करीब उन्हीं बातों को स्वयं में जीता है। जिन बातों के लिए दूसरों को कोसता है, कंडेमनेशन करता है, उन्हीं बातों को स्वयं में पालता है और पोसता है। और उसे पता भी नहीं चलता कि यह क्या हो रहा है? पता इसलिए नहीं चलता कि वह कभी खुद की तरफ लौट कर नहीं देखता, देखता रहता है दूसरों की तरफ, खुद की तरफ लौट कर नहीं देखता। और जो व्यक्ति खुद की तरफ लौट कर नहीं देखता, उसका विवेक कैसे जगेगा? विवेक दूसरों की तरफ देखने से नहीं जगता। क्योंकि पहली तो बात यह है कि जो व्यक्ति अभी खुद को ही देखने में समर्थ नहीं है, वह दूसरों को देखने में कैसे समर्थ हो सकेगा? जो व्यक्ति अभी अपने ही संबंध में निर्णय नहीं ले सकता, वह दूसरे के संबंध में निर्णय कैसे ले सकेगा? खुद के भीतर के प्राणों से भी जो परिचित नहीं हो सका है, वह दूसरे के बाहर से देख कर उसके भीतर से कैसे परिचित हो सकेगा।
दूसरे के बाहर जो दिखाई पड़ रहा है, वह दूसरे का अंतस्तल नहीं है। क्योंकि खुद हम अपने बाबत समझ लें, अपने बाबत हम अपने बाहर जो दिखला रहे हैं, वह क्या हमारा अंतःकरण है? वह क्या हमारा अंतस्तल है? जिससे हम कह रहे हैं, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, जिससे हम कह रहे हैं कि मैं तुम्हारा आदर करता हूं, क्या सच में हमारे भीतर भी वही भाव है? वही आदर और प्रेम है? या कि हम धोखा दे रहे हैं? या कि हम चारों तरफ एक पाखंड का व्यक्तित्व खड़ा कर रहे हैं? एक अभिनय कर रहे हैं?
हमारे बाहर तो जो है, वह झूठा है, भीतर कुछ सच्चा है। लेकिन दूसरे के बाहर को हम सच्चा मान कर विचार करने लगते हैं और दूसरे के भीतर को तो हम देख नहीं सकते, झांक नहीं सकते हैं। इसलिए दूसरे को जानने के पहले खुद को जानना बहुत जरूरी है। और बड़े मजे की बात है, दूसरे के संबंध में जानने की हमारी इतनी उत्सुकता क्यों हैं? दूसरों के दीवालों के छेद में से हम झांकने की कोशिश क्यों करते हैं? दूसरों के वस्त्र उठा कर देखने का हमारा प्रयोजन क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि अपने को देखने से बचने के लिए हम ये सब उपाय करते हों? ऐसा ही है। अपने को देखने से बचना चाहते हैं, इसलिए दूसरों को उखाड़ते हैं और देखते हैं। और अपने को देखने से क्यों बचना चाहते हैं? बहुत पीड़ा होगी अपने को देखने से। इसलिए अपने को तो कभी नहीं देखते, अपने बाबत तो एक भ्रम खड़ा कर लेते हैं कि हम ऐसे हैं और दूसरे को देखते हैं। और दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं निरंतर अपने चित्त में, अपनी वाणी में, अपने विचार में। क्यों? ताकि इस भांति हम खुद ऊंचे हो सकें। जब हम सारी दुनिया को नीचा देखने लगते हैं, तो अनजाने खुद ऊंचे हो जाते हैं। जो आदमी सब लोगों की बुराई देखने लगता है, वह एक बात में निश्चिंत हो जाता है कि वह खुद बुरा नहीं है।
बर्ट्रेंड रसल ने कभी एक दफा कहा कि अगर किसी घर में चोरी हो जाए, और सबसे पहले जो जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि चोरी बहुत बुरी चीज है, पक्का समझ लेना कि उसके भीतर गहरा चोर है। तो सच है बात। अगर यहां चोरी हो जाए तो जो आदमी चोरी की सबसे ज्यादा निंदा करने लगे, और जो चोरों को गाली देने लगे और बहुत शोरगुल मचाने लगे और दौड़-धूप करने लगे चोर को पकड़ने की, पक्का समझना कि वह आदमी चोर है। क्योंकि इस भांति वह अपने चारों तरफ एक हवा पैदा करता है कि आप एक भ्रम में आ जाएं, एक बात तो पक्की समझ लें कि इसने चोरी नहीं की, जो चोरी की इतनी निंदा कर रहा है वह चोरी कैसे करेगा? जो चोरी के इतने विरोध में है वह चोर नहीं हो सकता।
हम जो भीतर होते हैं उससे बिलकुल उलटा वातावरण चारों तरफ खड़ा करने की कोशिश करते हैं। यह स्थिति खुद के संबंध में अत्यंत आत्मवंचक हो जाती है। जिसे विवेक को जगाना हो, वह आत्मवंचना नहीं कर सकता, वह अपने से धोखा नहीं कर सकता। वह इसके पहले कि दूसरों के द्वार पर झांके, अपने द्वार की खोज करेगा।
मैंने सुना है, एक सुबह एक मनोचिकित्सक के द्वार पर एक आदमी भागा हुआ पहुंचा। उस आदमी की उम्र को पचास वर्ष होगी। उसने जाकर अंदर बहुत घबड़ाहट में कहा कि ऐसा मालूम होता है कि मेरे पिता का दिमाग खराब हो गया। मनोचिकित्सक ने कहा:  क्या? कैसे तुम्हें पता चला? उसने कहा:  उनकी उम्र अस्सी वर्ष हो गई, वे दिन भर टब में बैठे रहते हैं, पानी में बैठे रहते हैं घंटों और गुड्डे-गुड्डियों से खेलते रहते हैं। अस्सी वर्ष की उम्र में क्या यह पागलपन का लक्षण नहीं है? कि कोई आदमी बाथरूम में बैठा रहे, टब में बैठा रहे, गुड्डे-गुड्डियों से खेलता रहे। यह तो निश्चित ही पागलपन का लक्षण है। उस मनोचिकित्सक ने कहा कि फिर भी यह कोई बहुत खतरनाक पागलपन नहीं है। इससे नुकसान क्या है? उनका दिल बहलता होगा, अस्सी वर्ष के आदमी को दिल बहलाने दो, तुम्हारा कोई हर्जा तो करते नहीं, किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते, कोई तोड़-फोड़ नहीं करते, किसी को वे मार-पीट नहीं करते, चुपचाप बाथरूम में बैठे रहते हैं, गुड्डियों से खेलते रहते हैं, खेलने दो। वह बोला, आप कहते हैं, हर्जा नहीं है। उस आदमी की आंखों में आंसू आ गए और उसने कहा:  गुड्डियां मेरी हैं और उनकी वजह से मैं बिलकुल भी नहीं बैठ पाता हूं टब में, वे सब गुड्डे-गुड्डी मेरे हैं और सब खराब किए दे रहे हैं बिलकुल। जरूर उनका दिमाग खराब हो गया है।
इस आदमी को यह तो दिखाई पड़ा कि उनके पिता का दिमाग खराब हो गया है, लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ा कि गुड्डे-गुड्डी मेरी हैं तो मेरा दिमाग भी कोई बहुत अच्छा नहीं हो सकता। इसे यह तो बहुत जल्दी दिखाई पड़ गया कि कौन पागल है।
दुनिया में दूसरों का पागलपन देख लेना बहुत आसान है। और केवल वही आदमी पागल नहीं है जो अपना पागलपन देखने में समर्थ हो जाता है, इसे मैं फिर दोहराता हूं, केवल वही आदमी पागल नहीं है जो अपना पागलपन देखने में समर्थ हो जाता है। बाकी शेष सारे लोग पागल हैं जो दूसरों का पागलपन देखने में बड़े कुशल हैं।
गैर-पागल आदमी की, स्वस्थ आदमी की पहली पहचान यह है कि वह सबसे पहले अपने पागलपनों को पहचानता है, अपनी भूलों को पहचानता है, अपने जीवन के दोषों को देखता-पहचानता है। जो आदमी अपनी भूलों, अपने दोषों, अपनी विक्षिप्तताओं को पहचानने में समर्थ हो जाता है, उसने पहला कदम उठा लिया मुक्ति की ओर। वह उनसे कल मुक्त भी हो सकेगा।
आत्म-निरीक्षण जितना गहरा होता है, उतना ही भीतर चेतना विकसित होने लगती है। क्यों? क्योंकि आत्म-निरीक्षण अत्यंत दुरूह, अत्यंत आरडुअस बात है, बहुत तप की बात है, तपश्चर्या की बात है। खुद की भूलों को देखना बड़ी तपश्चर्या है। क्योंकि खुद की भूलों को देखने के लिए स्वयं से ही थोड़े दूर खड़े होने की साधना करनी होती है। स्वयं से थोड़ी दूर खड़े होने की साधना करनी पड़ती है। तभी तो हम देख सकते हैं, ऑब्जर्व कर सकते हैं, निरीक्षण कर सकते हैं। खुद से अपने को थोड़ा दूर करके देखने की जरूरत है। जैसे हम दूसरे लोगों को देखते हैं, ठीक उसी भांति खुद को भी देखने की जरूरत है। जब कोई व्यक्ति अपने भीतर स्वयं को इस भांति दूर से खड़े होकर देखने लगता है, तो वह जो देखने वाली शक्ति है, उसके निरंतर अभ्यास से वह विकसित होती है, उसी का नाम विवेक है। वह जो साक्षी होने की शक्ति है, वह जो विटनेस होने की शक्ति है, वह जो ऑब्जर्वेशन की शक्ति है, निरीक्षण की शक्ति है, वही तो विवेक है।
जब कोई अपने से दूर खड़े होकर देखने लगता है कि कहां-कहां मुझमें पागलपन, कहां-कहां मुझमें दोष, कहां-कहां मेरा जीवन भ्रांतियों से भरा, कहां-कहां मेरे जीवन में पाखंड, कहां-कहां मेरे जीवन में असत्य, कहां-कहां मेरे जीवन में हिंसा, जब कोई कहां-कहां मेरे चित्त में अहंकार, जब कोई निरंतर इनके प्रति जागता है, देखता है, समझता है, तो उसके भीतर विवेक जगना शुरू होता है। इसी क्रम में उसके भीतर विवेक की शक्ति जागने लगती है। और बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि जैसे-जैसे विवेक जागता है, वैसे-वैसे उसके दोष अपने आप क्षीण होने लगते हैं। क्योंकि जहां विवेक का प्रकाश है, वहां दोषों का अंधकार बहुत दिन नहीं टिक सकता है, वह हट जाएगा, वह टूट जाएगा, वह मिट जाएगा।
गुरजिएफ एक फकीर हुआ, यूनान में। उसने अपनी आत्म-कथा में लिखा कि मेरा पिता मृत्यु-शय्या पर था, उसने मुझे अपने पास बुलाया, तब चौदह वर्ष की मेरी उम्र थी, मुझसे कान में उसने कहा:  कि अगर मैं कोई सलाह दूं तो तुम बुरा नहीं मानोगे? बहुत समझदार आदमी रहा होगा वह, क्योंकि सलाह देने वाले यह कभी पूछते नहीं कि बुरा मानोगे कि नहीं मानोगे? सलाह देने वाले मुफ्त सलाह बांटते हैं। और दुनिया में जो चीज सबसे ज्यादा दी जाती है और सबसे कम ली जाती है, वह सलाह ही है। उस बूढ़े आदमी ने जिसकी नब्बे वर्ष उम्र थी, चौदह वर्ष के बच्चे से पूछा कि क्या मैं तुम्हें सलाह दूं तो तुम बुरा नहीं मानोगे? और अगर मैं तुम्हें सलाह दूं तो कभी तुम जीवन में मेरे प्रति रुष्ट तो नहीं रहोगे? उस युवक ने कहा कि आप कैसी बात करते हैं? आप कहें, आपको मुझे क्या कहना है? उस बूढ़े आदमी ने कहा:  मेरे पास न तो संपत्ति है तुम्हें देने को, न मेरे पास और किसी तरह की यश और प्रतिष्ठा है, लेकिन जीवन भर अनुभव से मैंने एक बात पहचानी और जानी, वह मैं तुम्हें देना चाहता हूं। और वह यह है कि तुम खुद को खुद से जरा दूर रख कर देखना सीखना। अगर रास्ते पर तुम्हें कोई मिल जाए और तुम्हें गाली दे, तो जल्दी से उसकी गाली का उत्तर मत देना, घर लौट आना, दूर खड़े होकर देखना कि उसने जो गाली दी वह कहीं ठीक ही तो नहीं है? अगर वह ठीक हो, तो उसको जाकर धन्यवाद दे आना कि तुमने मुझ पर बड़ी कृपा की और एक बात मुझे बताई जिसका मुझे पता नहीं था। अगर वह ठीक न हो, तो उसकी चिंता छोड़ देना। क्योंकि जो बात ठीक नहीं है उससे तुम्हें प्रयोजन ही क्या?
गुरजिएफ ने लिखा है: फिर मैंने जीवन भर--उसी रात पिता उसका मर गया--इस बात की फिकर की, उसने लिखा है कि मेरे जीवन में फिर लड़ने का कोई मौका नहीं आया। गालियां तो मुझे लोगों ने बहुत बार दीं, लेकिन पहले मैंने उनसे कहा कि मित्र रुको, मैं जरा घर जाऊं, सोच-समझ कर आऊं, और फिर मैं आकर तुम्हें बताऊं। जब मैं घर गया और मैंने सोचा-समझा, तो मैंने पाया, कोई गाली इतनी बुरी नहीं हो सकती जितना बुरा मैं हूं। मैंने जाकर धन्यवाद दिया और कहा कि मित्र बहुत-बहुत धन्यवाद, और सदा स्मरण रखना, और जब भी जरूरत पड़े और तुम्हारे मन में कोई गाली आ जाए, तो छिपाना मत, मुझे दे देना।
जैसे-जैसे व्यक्ति का आत्म-निरीक्षण गहरा होगा, वह कुछ और ही दिशा में अपने विवेक को जगता हुआ पाएगा।
लेकिन आत्म-निरीक्षण है बिलकुल सोया हुआ हमारा। हम कभी देखते नहीं--हम क्या कर रहे हैं, क्या हो रहे हैं, क्या चल रहा है। अगर कोई हमको बताए भी, तो हम लड़ने को खड़े हो जाते हैं। स्मरण रखना, अगर किसी गाली पर आप लड़ने को खड़े हो गए, तो पक्का समझ लेना कि आप उस गाली के योग्य थे, नहीं तो आप लड़ने को तैयार नहीं होते। आप लड़ने को तैयार नहीं होते। आपको यह फिकर पड़ गई फौरन की मैं सिद्ध कर दूं कि यह गाली गलत है, इसीलिए कि आप बहुत भीतर जानते हैं कि यह गाली सही है। और अगर मैंने सिद्ध न किया कि गलत है, तो दुनिया को पता चल जाएगा। तो जब भी आप यह सिद्ध करने की कोशिश में लगे हैं कि फलां दोष मुझमें नहीं है, तो बहुत शांति से समझ लेना, वह दोष जरूर आपमें होगा। नहीं तो आप उसे गलत सिद्ध करने की फिकर न करते। कोई फिक्र आपमें पैदा न होती।
भिक्षु भीखण राजस्थान के एक गांव में थे, वहां कोई चार माह रुके, चतुर्मास होगा। रोज ही आसोजी नाम का एक आदमी उनको सुनने आता था। लेकिन रोज ही दिन भर की दुकान के बाद लौटता था, सांझ को उनको सुनता था, तो सो जाता था। बहुत कम लोग हैं जो सुनते वक्त जागते रहते हों, बहुत कठिन है। आंख खुली रखना एक बात है, जागना बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन वह आदमी आंखें भी बंद कर लेता था, सीधा-सादा आदमी होगा। आंखें खुली रख कर धोखा नहीं देता था कि हम सुन ही रहे हैं। बहुत दिन भीखण ने देखा कि यह तो सोता है निरंतर, सामने ही बैठता था, और गांव का सबसे बड़ा धनपति था, इसलिए पीछे तो बैठ ही नहीं सकता था। सबसे ज्यादा धन उसी के पास था, इसलिए बैठता आगे ही था। पीछे तो कौन बैठता, आगे ही बैठता था और सामने ही सोता था। और भी साधु आए थे गांव में, लेकिन धनपति सोता है यह साधु कैसे कहे? इसलिए साधु बर्दाश्त करते थे। ये भीखण कुछ गड़बड़ रहे होंगे। इन्होंने टोका। और भी साधु आते थे, उनको भी सुनने जाता था, क्योंकि जो साधुओं को सुनने जाते हैं वे किसी भी साधु को सुनने जाते हैं। वह वैसे ही है, जैसे जो फिल्म देखने जाते हैं वे किसी भी फिल्म को देखने जाते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे कोई बहुत भेद नहीं करते, वहां तीन घंटा गुजरता है, वापस लौट आते हैं। मैं तो अपने गांव में एक ऐसे आदमी को भी जानता था, क्योंकि मेरा गांव बहुत छोटा, उसमें मुश्किल से एक ही कहे जाने को टाकीज। वे एक ही फिल्म को रोज ही देखते थे, उसी फिल्म को। वहां उनका तीन घंटा गुजर जाता था। ऐसे ही लोग मंदिरों में जाते हैं, ऐसे ही लोग मस्जिदों में जाते हैं। पुराने जमानों में मंदिरों-मस्जिदों में जाते थे, वही अब सिनेमाओं में जाने लगे हैं, उनमें कोई बहुत फर्क नहीं है। वह भी बेचारा उनके सामने बैठा-बैठा सोता था। ऐसे फिल्म में सो जाओ तो कोई टोकने वाला नहीं होता, न तो मैनेजर आकर कहता है कि क्यों सो रहे हो? लेकिन ये साधु थोड़े गड़बड़ होते हैं, ये टोक देते हैं।
भीखण ने उसको कहा:  आसोजी सोते हो? उसने जल्दी से आंख खोली, उसने कहा कि नहीं, कौन मानता है कि मैं सोता हूं? फिर थोड़ी देर बात चली, फिर वह सो गया, क्योंकि सोने वाला आदमी जबरदस्ती कितनी देर जगा रहेगा। फिर भीखण ने बीच में कहा:  आसोजी सो गए? उसने आंख खोली, उसने कहा कि नहीं, आप यह क्या बार-बार बीच-बीच में लगाते हैं कि सो गए? उसे गुस्सा आना स्वाभाविक था। क्योंकि कोई आदमी सोता हो और कोई उसको बार-बार बताए कि आप सो गए, तो गुस्सा आना बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन फिर थोड़ी देर में सो गया, फिर भीखण ने कहा:  लेकिन अब की बार दूसरी बात कही, भीखण ने कहा आसोजी जीते हो? आसोजी तो नींद में थे, उन्होंने समझा, ये फिर पूछ रहे हैं, आसोजी सोते हो। उसने कहा कि नहीं, कौन कहता है? भीखण ने कहा:  अब तो पकड़ गए कि निश्चित सोते थे। क्योंकि मैंने पूछा, आसोजी जीते हो और तुम कहते हो, कौन कहता है, बिलकुल नहीं।
हम मानने को राजी नहीं होते। दूसरा बताए तब तो बहुत कठिन हो जाता है मानना। लेकिन जो आत्म-निरीक्षण करेगा, जो निरंतर अपने पर विचार करेगा, वह अनुगृहीत होएगा; उसका जो बता दे कि तुम सोए हो, वह धन्यवाद करेगा उसका कि जरूर मैं सोया था। और तुम्हारी कृपा कि तुमने जगाया, अन्यथा कौन किसको जगाता है? किसको क्या प्रयोजन है? और न केवल वह दूसरों के द्वारा दोष दिए जाने पर, दिखाए जाने पर उनको पहचानेगा, बल्कि खुद निरंतर उनकी खोज करेगा, खुद निरंतर खोजेगा।
स्मरण रखिए, जो दोष हम छिपा लेते हैं। वह दोष धीरे-धीरे भीतर बड़ा होने लगता है। जैसे बीज को हम जमीन में दबा देते हैं, तो फिर बड़ा होता है, अंकुर आते हैं और पौधा निकलता है। और एक बीज से पौधा निकल कर फिर वह पौधा हजारों बीजों को पैदा कर देता है। ऐसे ही चित्त की भूमिजन्य दोषों को हम छिपा लेते हैं, वे बीज की तरह भीतर बढ़ने लगते हैं, बड़े होने लगते हैं, फिर उनमें अंकुर निकलने लगते हैं, और हम उनकी रक्षा करते हैं। अगर कोई बताए कि देखो, तुम्हारे भीतर फलां-फलां बीज अंकुरित हो रहा है, हम कहते हैं, क्या झूठ बात कह रहे हो? हम उसकी रक्षा करते हैं, बागुड़ लगाते हैं, व्यवस्था करते हैं, सब तरफ से दीवालें उठाते हैं, सुरक्षा करते हैं, फिर वह बड़ा होता है, एक बीज के हजार बीज हो जाते हैं।
जीवन से जिस चीज को नष्ट करना हो, उसे छिपाना सबसे खतरनाक बात है। उसे खोल देना सरलता से, सहजता से। उसे अपने सामने तो खोल ही लेना जरूरी है।
आत्म-निरीक्षण का अर्थ है: जैसा मैं हूं, वैसा ही स्वयं को जानने की सतत चेष्टा।
आत्म-मर्ूच्छा का अर्थ है: जैसा मैं नहीं हूं, वैसा स्वयं को बताने की चेष्टा।
आत्म-निरीक्षण का अर्थ है: जैसा मैं हूं, वैसा ही स्वयं को जानने की सतत चेष्टा।
हममें से कोई भी हम अपने आपको वैसा ही जानना नहीं चाहता है, हम कुछ और भांति अपने को दिखाना चाहते हैं, और भांति बताना चाहते हैं जैसे हम नहीं हैं। और हमारी संस्कृति और सभ्यता ने इस धोखे के लिए खूब पोषण दिया है, बहुत पोषण दिया है।
लंदन में एक फोटोग्राफर ने अपनी दुकान पर एक तख्ती लगा रखी थी और लिख रखा था उसमें कि यहां तीन तरह के चित्र उतारे जाते हैं। एक तो जैसे आप हैं, लेकिन उसके पांच ही रुपये लगते हैं। दूसरे, जैसे आप सोचते हैं कि आप हैं, उसके दस रुपये लगते हैं। तीसरा, जैसा आप सोचते हैं कि भगवान को आपको बनाना चाहिए था, उसके पंद्रह रुपये लगते हैं। एक गांव का आदमी पहली दफा पहुंचा, वह भी फोटो उतरवाना चाहता था। और गांव के आदमियों के सिवाय, गंवारों के सिवाय कोई फोटो उतरवाना चाहता है? वह भी उतरवाना चाहता था। वह गया, उस फोटोग्राफर की दुकान पर गया, उसने जाकर देखा कि वहां तीन तरह के फोटो उतरते हैं। वह बहुत हैरान हुआ।
उसने कहा:  हम तो सोचते थे फोटो एक ही तरह का होता है। क्योंकि हम तो एक ही तरह के हैं, तीन तरह के फोटो कैसे हो सकते हैं? उस गांव के सीधे-साधे आदमी ने उस फोटोग्राफर से पूछा कि मित्र, क्या पहले फोटो के अलावा दूसरे फोटो उतरवाने वाले भी यहां आते हैं? उसने कहा:  तुम पहले आदमी हो जो पहली फोटो को उतरवाने का विचार कर रहा है, अब तक तो यहां जो भी आता है, वह दूसरा उतरवाता है या तीसरा, दूसरा मजबूरी में उतरवाता है, पैसे कम हो तो, ऐसे तो तीसरा ही उतरवाता है। पहला फोटो तो कोई कहता ही नहीं कि उतारो, कि जैसा मैं हूं वैसा ही उतार दो, ऐसा तो कोई उतरवाना ही नहीं चाहता। और अगर कभी किसी का भूल-चूक से उतर जाए, तो वह नाराज होता है कि यह तो बिलकुल मेरे जैसा नहीं मालूम होता, यह फोटो तो बिलकुल गड़बड़ है। यह क्या आप बताए, यह फोटो तो मेरे जैसा है ही नहीं बिलकुल। तो उसने कहा कि अगर कोई उतरवाना भी चाहता है तो भी हम पांच रुपये में ही दूसरा वाला फोटो उतार देते हैं। तभी वह खुश होता है।
तो उस आदमी ने कहा:  लेकिन मैं तो अपनी फोटो उतरवाने आया हूं किसी और का नहीं; मुझे तो वही फोटो चाहिए जैसा मैं हूं, बुरा या भला, जैसा मैं हूं वही मेरा चित्र है।
आत्म-निरीक्षण का अर्थ है: पहले तरह के चित्र को उतरवाने की सतत चेष्टा। हम जैसे हैं, वैसा हमको स्वयं को जानना चाहिए। क्यों? इसलिए कि जीवन, जीवन के विज्ञान का यह अत्यंत रहस्यमय सूत्र है कि जो व्यक्ति जैसा है अगर वैसा ही अपने को जानने लगे तो उसके वैसे हो जाने में बहुत देर नहीं रह जाती जैसा वह होना चाहता है। नहीं रह जाती देर, क्योंकि जब हमें दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं, तो हम उनसे मुक्त होने लगते हैं। और जब बीमारियां हमारे आंखों में आती हैं, तो हम स्वस्थ होने की चेष्टा करने लगते हैं। और जब अंधकार-खंड हमें अपने चित्त में मालूम होने लगते हैं, तो हम वहां दीये जलाने लगते हैं।
लेकिन कोई भी क्रांति के लिए और कोई भी विवेक जागरण के लिए अत्यंत अनिवार्य और जरूरी है कि मैं जैसा हूं वैसा अपने को जानने में लग जाऊं। इसलिए मैंने कहा: आत्म-निरीक्षण। आत्म-निरीक्षण दूसरा सूत्र है, तो ही विवेक जगेगा, नहीं तो नहीं जगेगा।
और तीसरा सूत्र है: मर्ूच्छा-परित्याग। बहुत कुछ हम छोड़ते हैं जिंदगी में, लोग कहते हैं, त्याग करें--धन छोड़ें; कोई कहता है, लोभ छोड़ें; कोई कहता है, क्रोध छोड़ें। मैं कहता हूं, छोड़ ही नहीं सकेंगे, कितना ही छोड़ें। धन छोड़ दें कितना ही, छोड़ ही नहीं सकेंगे।
एक संन्यासी के पास में था, वे मुझसे कहे कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मारी। मैंने उनसे पूछा, यह लात कब मारी? उन्होंने कहा:  कोई बीस साल हुए। मैंने कहा:  लात ठीक से लग नहीं पाई, नहीं तो बीस साल तक स्मृति कैसे बनी रहती? लात थोड़ी दूर पड़ी, धन वहीं का वहीं रखा हुआ है। जब उन पर लाखों रुपये थे, तो वे अकड़ कर चलते रहे होंगे कि मेरे पास लाखों रुपये हैं, अब भी अकड़ कर चल रहे हैं कि मैंने लाखों पर लात मार दी! वह रुपये से जो भ्रम पैदा होता था, वह मौजूद है। कोई रुपया नहीं छोड़ सकता। मर्ूच्छित चित्त धन छोड़ देगा तो धन के छोड़ने को पकड़ लेगा; भोग छोड़ देगा तो त्याग को पकड़ लेगा; गृहस्थी छोड़ देगा तो संन्यास को पकड़ लेगा, लेकिन पकड़ जारी रहेगी। क्योंकि मर्ूच्छित चित्त मर्ूच्छित है, उसके छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता। मर्ूच्छित चित्त लोभ नहीं छोड़ सकता।
एक गांव मैं गया, एक संन्यासी वहां बोलते थे। उन्होंने लोगों को समझाया कि जब तक तुम लोभ न छोड़ोगे, तब तक तुमको मोक्ष नहीं मिल सकता। मैंने उनसे पूछा कि अगर इन्होंने इस आशा से लोभ छोड़ भी दिया कि मोक्ष पाना है, तो यह लोभ का विस्तार हुआ या लोभ का अंत हुआ? इस आशा से लोभ छोड़ देना कि लोभ छोड़ने से मोक्ष मिल जाएगा, यह तो लोभ का विस्तार हुआ, यह लोभ का छोड़ना नहीं हुआ। मोक्ष पाने को, ईश्वर पाने को या स्वर्ग पाने को अगर कोई लोभ छोड़ता है, तो यह तो लोभ का विस्तार है। यह तो लोभ के लिए ही लोभ छोड़ता है, इससे लोभ मिटता नहीं है।
हमारा चित्त जो है वह अगर मर्ूच्छित है, तो कुछ भी नहीं छोड़ सकता। और अगर मर्ूच्छित नहीं है, तो कुछ भी पकड़ नहीं सकता। इसलिए बहुत केंद्रीय सूत्र कुछ और छोड़ने का नहीं, केंद्रीय सूत्र है: मर्ूच्छा-परित्याग। चित्त से बेहोशी और मर्ूच्छा छूटनी चाहिए, अमर्च्छित जीवन व्यवहार होना चाहिए, जागा हुआ जीवन व्यवहार होना चाहिए। आप कहेंगे, हम जागे हुए तो जीवन व्यवहार करते हैं, मैं कहूंगा, नहीं, हम बिलकुल मर्ूच्छित जीवन व्यवहार करते हैं। अगर मैं जोर से आपको धक्का दे दूं, आप क्रोध से भर जाएंगे और मैं आपसे पूछूं कि यह क्रोध आप होशपूर्वक कर रहे हैं या बेहोशी में कर रहे हैं? क्योंकि क्रोध करने के घड़ी भर बाद पश्चात्ताप शुरू होता है, घड़ी भर बाद आपको लगता है कि यह मैंने कैसे किया, घड़ी भर बाद आपको लगता है कि यह तो मुझे नहीं करना था, घड़ी भर बाद आपको लगता है कि यह कैसी भूल मुझसे हो गई, तो आप घड़ी भर पहले कहां थे, जब भूल हुई थी? जब घड़ी भर बाद पछताते हैं, तो घड़ी भर पहले कहां थे? जरूर आप अनुपस्थित रहे होंगे, एब्सेंट थे, आप मौजूद नहीं थे। जब क्रोध आपको पकड़ता है, आप अनुपस्थित होते हैं, आप मौजूद ही नहीं होते। मैं आपको निवेदन करता हूं, अगर आप मौजूद हो जाएं, तो क्रोध उसी क्षण विलीन हो जाएगा, दोनों चीजें एक साथ नहीं खड़ी हो सकतीं। आप और क्रोध दोनों साथ नहीं हो सकते। कभी नहीं हुआ ऐसा, न हो सकता है। जैसे ही आप होश से भरेंगे, आप पाएंगे क्रोध गया।
मेरे एक मित्र हैं उन्हें बड़ा क्रोध आता था, वे बड़े परेशान थे, मुझसे पूछे, इसके लिए क्या करूं? मैंने कहा:  कुछ करें न। खीसे में एक कागज पर लिख कर रख लें कि अब मुझे क्रोध आ रहा है, और जब भी क्रोध आए, उसे फौरन निकाल कर पढ़ लें और वापस खीसे में रख दें, और कुछ भी न करें। वे बोले इससे क्या होगा? मैंने कहा:  मुझसे यह मत पूछें, दोत्तीन महीने बाद आएं। वे दोत्तीन महीने बाद आए, वे बोले, बड़ी हैरानी की बात है। खीसे की तरफ हाथ ही जाता है कि क्रोध क्षीण होने लगता है। क्योंकि मुझे तत्क्षण खयाल आ जाता है कि क्रोध आ रहा है। जिस क्रोध के लिए मैं पछताया हूं बहुत बार, दुखी हुआ हूं, पीड़ित हुआ हूं, इस बात का होश आते ही कि मुझे आ रहा है, वह क्षीण होने लगता है।
अगर हम जीवन के प्रति सतत जागरूक हो जाएं और जो भी हो रहा है उसके प्रति पूरे होश से भर जाएं, तो जीवन में जो भी बुरा है, वह असंभव हो जाएगा। क्योंकि बुरे के आगमन का द्वार मर्ूच्छा है, बेहोशी है। बुरे को छोड़ा नहीं जा सकता, कोई छोड़ नहीं सकता बुरी बातों को, लेकिन अगर होश आ जाए, तो बुरे को पकड़ा नहीं जा सकता, कोई पकड़ नहीं सकता बुरी बात को।
इसलिए केंद्रीय जीवन की जो क्रांति है, वह मर्ूच्छा के आस-पास घूमती है, मर्ूच्छा या अमर्ूच्छा। दो ही तरह के लोग होते हैं, मर्ूच्छित या अमर्च्छित, सोये हुए या जागे हुए। तो जागने की कोशिश करें निरंतर, जीवन चौबीस घंटे मौका देता है, जब आप सोते हैं, उस वक्त जागें। आज से ही इसे शुरू करें, क्योंकि कल के लिए जो छोड़ता है वह फिर सोने का एक काम कर रहा है। तो वह कहता है, कल से शुरू करेंगे। वह फिर नींद की बातें कर रहा है। क्योंकि कल का कोई पक्का भरोसा नहीं। वह नींद में है फिर। अगर वह मानता है कि कल भी होगा, अगर वह मानता है कि मैं कल भी रहूंगा, तो वह नींद में है, सपना देख रहा है। कल का कोई पक्का नहीं है कि आप रहेंगे या नहीं रहेंगे।
इसलिए जिसे जागरण शुरू करना है, उसे इसी क्षण शुरू करना पड़ेगा। छोटी-छोटी चीजों में जागरूक होकर देखें, होशपूर्वक करके देखें उन्हीं चीजों को। जरा कोशिश करें, कभी क्रोध को होशपूर्वक करके देखें। और अगर आप सफल हो जाएं, तो आप बड़े अदभुत आदमी हैं। अब तक दुनिया में कोई सफल नहीं हो सका है। होशपूर्वक क्रोध नहीं किया जा सकता, होशपूर्वक किसी को दुख नहीं पहुंचाया जा सकता, होशपूर्वक हिंसा नहीं की जा सकती। होशपूर्वक जिन-जिन चीजों को हम पाप कहते हैं, वह कोई भी नहीं किया जा सकता, इसलिए मैं तो पाप की ही यह परिभाषा करता हूं कि जो बेहोशी में किया जा सके, वह पाप है और जो बेहोशी में न किया जा सके, वह पुण्य है। तीसरा सूत्र है: अमर्च्छित जीवन व्यवहार।
(यह क्या मामला है?)
अमर्च्छित जीवन व्यवहार तीसरा सूत्र है। पहले दो सूत्र मैंने कहे: संदेह की भूमि, आत्म-निरीक्षण की खाद और अमर्च्छित जीवन व्यवहार की वर्षा। अगर ये तीन बातें जीवन में हों, तो विवेक के बीज सबके भीतर मौजूद है, वे अंकुरित हो जाएंगे। और विवेक जाग्रत हो जाए, तो एक आत्मानुशासन पैदा होता है, एक डिसिप्लिन पैदा होती है, एक अनुशासन पैदा होता है जो स्वयं के भीतर से आता है, बाहर से नहीं। एक अनुशासन है जो बाहर से आता है, वह झूठा है। एक अनुशासन है जो भीतर से जगता है, एक आचरण है जो भीतर से जगता है, वह अदभुत है, उसका सौंदर्य अदभुत है, जो अनुशासन बाहर से आता है, वह कुरूप कर देता है व्यक्तित्व को, क्रिपिल्ड कर देता है, पंगु कर देता है। उससे ज्यादा अग्लीनेस और कुछ भी नहीं है, उससे ज्यादा कुरूप स्थिति और कोई भी नहीं है। लेकिन जो अनुशासन भीतर से आता है! इन तीन सूत्रों के आधार पर जो विवेक जागता है और अनुशासन आता है, वह व्यक्तित्व को सुंदर कर जाता है, प्राणों को सौंदर्य से भर देता है, संगीत से भर देता है। और फिर जीवन में एक सहज चर्या उत्पन्न होती है, अत्यंत सहज चर्या उत्पन्न होती है, हम क्षण-क्षण जीए जाते हैं होशपूर्वक, विवेकपूर्वक, और जो ठीक है वही हमसे होता है, जो ठीक नहीं है, वह होता ही नहीं। अशुभ को रोकना नहीं पड़ता, शुभ को लाना नहीं पड़ता। शुभ आता है, अशुभ आता ही नहीं।
एक छोटी सी कहानी और फिर मैं चर्चा पूरी करूं। और फिर हम ध्यान के लिए बैठें।
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हो गया, दीक्षा के दूसरे ही दिन किसी श्राविका के घर उसे भिक्षा लेने बुद्ध ने भेज दिया। वह वहां गया। रास्ते में दोत्तीन घटनाएं घटीं लौटते आते में, उनसे बहुत परेशान हो गया। रास्ते में उसके मन में खयाल आया कि मुझे जो भोजन प्रिय हैं, वे तो अब नहीं मिलेंगे। लेकिन श्राविका के घर जाकर पाया कि वही भोजन थाली हैं जो उसे बहुत प्रीतिकर हैं। वह बहुत हैरान हुआ। फिर सोचा संयोग होगा, को-इनसीडेंस है एक, जो मुझे पसंद है वही आज बना होगा। वह भोजन करता है तभी उसे खयाल आया कि रोज तो भोजन के बाद में विश्राम करता था दो घड़ी, आज तो फिर धूप में वापस लौटना है। लेकिन तभी उस श्राविका ने कहा कि भिक्षु बड़ी अनुकंपा होगी अगर भोजन के बाद दो घड़ी विश्राम करो। बहुत हैरान हुआ। जब वह सोचता था यह तभी उसने यह कहा था, फिर भी सोचा संयोग कि ही बात होगी कि मेरे मन भी बात आई और उसके मन में भी सहज बात आई कि भोजन के बाद भिक्षु विश्राम कर ले।
चटाई बिछा दी गई, वह लेट गया, लेटते ही उसे खयाल आया कि आज न तो अपना कोई साया है, न कोई छप्पर है अपना, न अपना कोई बिछौना है, अब तो आकाश छप्पर है, जमीन बिछौना है। यह सोचता था, वह श्राविका लौटती थी, उसने पीछे से कहा:  भंते! ऐसा क्यों सोचते हैं? न तो किसी की शय्या है, न किसी का साया है। अब संयोग मानना कठिन था, अब तो बात स्पष्ट थी। वह उठ कर बैठ गया और उसने कहा कि मैं बड़ी हैरानी में हूं, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरा अंतःकरण तुम पढ़ लेती हो? उस श्राविका ने कहा:  निश्चित ही। पहले तो, सबसे पहले स्वयं के विचारों का निरीक्षण शुरू किया था, अब तो हालत उलटी हो गई, स्वयं के विचार तो निरीक्षण करते-करते क्षीण हो गए और विलीन हो गए, मन हो गया निर्विचार, अब तो जो निकट होता है उसके विचार भी निरीक्षण में आ जाते हैं। वह भिक्षु घबड़ा कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मुझे आज्ञा दें, मैं जाऊं, उसके हाथ-पैर कंपने लगे। उस श्राविका ने कहा:  इतने घबड़ाते क्यों हैं? इसमें घबड़ाने की क्या बात है? लेकिन भिक्षु फिर रुका नहीं। वह वापस लौटा, उसने बुद्ध से कहा:  क्षमा करें, उस द्वार पर दुबारा भिक्षा मांगने मैं न जा सकूंगा।
बुद्ध ने कहा:  कुछ गलती हुई? वहां कोई भूल हुई?
उस भिक्षु ने कहा:  न तो भूल हुई, न कोई गलती, बहुत आदर-सम्मान और जो भोजन मुझे प्रिय था वह मिला, लेकिन वह श्राविका, वह युवती दूसरे के मन के विचारों को पढ़ लेती है, यह तो बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो कामवासना भी उठी, विकार भी उठा था, वह भी पढ़ लिया गया होगा? अब मैं कैसे वहां जाऊं? कैसे उसके सामने खड़ा होऊंगा? मैं नहीं जा सकूंगा, मुझे क्षमा करें!
बुद्ध ने कहा:  वहीं जाना पड़ेगा। अगर ऐसी क्षमा मांगनी थी तो भिक्षु नहीं होना था। जान कर वहां भेजा है। और जब तक मैं न रोकूंगा, तब तक वहीं जाना पड़ेगा, महीने दो महीने, वर्ष दो वर्ष, निरंतर यही तुम्हारी साधना होगी। लेकिन होशपूर्वक जाना, भीतर जागे हुए जाना और देखते हुए जाना कि कौनसे विचार उठते हैं, कौन सी वासनाएं उठती हैं, और कुछ भी मत करना, लड़ना मत जागे हुए जाना, देखते हुए जाना भीतर कि क्या उठता है, क्या नहीं उठता।
वह दूसरे दिन भी वहीं गया। सोच लें उसकी जगह आप ही जा रहे हैं, और वह श्राविका आपका मन पढ़ लेती है, और वह बहुत सुंदर है, बहुत आकर्षक है, बहुत सम्मोहक है, और वह मन पढ़ लेती है आपका। हां, मन न पढ़ती होती, यह आपको पता न होता, तो फिर मन में आप कुछ भी करते, आज क्या करेंगे? आज आप ही जा रहे हैं उसकी जगह भिक्षा मांगने, रास्ते पर आप हैं। वह भिक्षु बहुत खतरे में है, अपने मन को देख रहा है, जागा हुआ है, आज पहली दफा जिंदगी में वह जागा हुआ चल रहा है सड़क पर, जैसे-जैसे उस श्राविका का घर करीब आने लगा, उसका होश बढ़ने लगा, भीतर जैसे एक दीया जलने लगा और चीजें साफ दिखाई पड़ने लगीं और विचार घूमते हुए मालूम होने लगे। जैसे उसकी सीढ़ियां चढ़ा, एक सन्नाटा छा गया भीतर, होश परिपूर्ण जग गया। अपना पैर भी उठाता है तो उसे मालूम पड़ रहा है, श्वास भी आती-जाती है तो उसके बोध में है। जरा सा भी कंपन विचार का भीतर होता है, लहर उठती है कोई वासना की, वह उसको दिखाई पड़ रही है। वह घर के भीतर प्रविष्ट हुआ, मन में और भी गहरा शांत हो गया, वह बिलकुल जागा हुआ है। जैसे किसी घर में दीया जल रहा हो और एक-एक चीज, कोना-कोना प्रकाशित हो रहा हो।
वह भोजन को बैठा, उसने भोजन किया, वह उठा, वह वापस लौटा, वह उस दिन नाचता हुआ वापस लौटा। बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा:  अदभुत हुई बात। जैसे-जैसे मैं उसके निकट पहुंचा और जैसे-जैसे मैं जागा हुआ हो गया, वैसे-वैसे मैंने पाया कि विचार तो विलीन हो गए, कामनाएं तो क्षीण हो गईं, और मैं जब उसके घर में गया तो मेरे भीतर पूर्ण सन्नाटा था, वहां कोई विचार नहीं था, कोई वासना नहीं थी, वहां कुछ भी नहीं था, मन बिलकुल शांत और निर्मल दर्पण की भांति था।
बुद्ध ने कहा:  इसी बात के लिए वहां भेजा था, कल से वहां जाने की जरूरत नहीं। अब जीवन में इसी भांति जीओ, जैसे तुम्हारे विचार सारे लोग पढ़ रहे हों। अब जीवन में इसी भांति चलो, जैसे जो भी तुम्हारे सामने है, वह जानता है, तुम्हारे भीतर देख रहा है। इस भांति भीतर चलो और भीतर जागे रहो। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे विचार, वासनाएं क्षीण होती चली जाएंगी। जिस दिन जागरण पूर्ण होगा उस दिन तुम्हारे जीवन में कोई कालिमा, कोई कलुष रह जाने वाला नहीं है। उस दिन एक आत्म-क्रांति हो जाती है। इस स्थिति के जागने को, इस चैतन्य के जागने को मैं कह रहा हूं--विवेक का जागरण।
तीन सूत्र मैंने कहें, उन पर विचार करें। संदेह को आने दें, संदेह से भयभीत न हों, सम्यक संदेह की भूमि बनने दें। आत्म-निरीक्षण करें, खुद के जीवन में आंखों को गड़ाएं, खुद के जीवन में खोजें, कुछ छिपाएं न खुद के जीवन में, सब उघाड़ लें, अपने सामने पूरी तरह नग्न हो जाएं। और तीसरी बात अमर्च्छित जीवन व्यवहार की दिशा में कुछ प्रयोग करें। होश साधें और मर्ूच्छा छोड़ें। फिर जागेगा विवेक। और जिस दिन विवेक जागेगा, उस दिन जानना कि जीवन के सबसे बड़े सौभाग्य का क्षण निकट आ गया है।
कल हम तीसरी बात करेंगे सुबह। दो बातें हमने कीं: श्रद्धा से मुक्ति और विवेक का जागरण। और कल हम बात करेंगे: समाधि का अवतरण, समाधि कैसे उतर आए, उसकी चर्चा कल होगी।
ये दो बातें जो अभी हुई हैं, इन पर जो भी प्रश्न होंगे, उनकी हम रात चर्चा कर लेंगे।
अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।

थोड़े-थोड़े फासले पर हो जाएं।


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