आज से पच्चीस सौ साल पहले, जब भगवान बुद्ध का जन्म हुआ, घर में उत्सव मनाया जा रहा था। सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ था, पूरी राजधानी को सजाया गया था। रात भर लोगों दीए जलाएं, नाचे। उत्सव मनाया। बूढ़े सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ था। बड़े दिन की अभिलाषा पूरी हुई। पूरा राज्य खुशीया मना रहा था, उनके राज्य का वारीश आया है। मालिक बूढ़ा होता जाता था और नये मालिक की कोई खबर नहीं। इस लिए भगवान बुद्ध को नाम दिया सिद्धार्थ। सिद्धार्थ का अर्थ होता है। अभिलाषा का पुरा हो जाना।
पहले ही दिन, जब द्वार पर बैंड बाजे बहते थे। शहनाई बजती थी। फूल बरसाए जाते थे। महल में चारों और खुशीया छाई हुई थी। प्रसाद बांटा जा रहा था। हिमालय से भागा हुआ एक वृद्ध तपस्वी द्वार पर आकर खड़ा हो गया। उसका नाम था असिता। सम्राट भी उसका सम्मान करता था। लेकिन कभी असिता इससे पहले राजधानी बुलाने पर भी नहीं आया था। राजा को भी घोर आसचर्य हो रहा था। खुद सम्राट शुद्घोदन ही उनसे मिलने हिमालय में जोत थे।
वैसे वो बचपन से ही एक दूसरे के साथी थे। साथ गुरूकुल में विद्या अध्ययन की थी, खेले थे, पर ये सब बहुत पुरानी बात है। बाद में असिता तपस्या करने के लिए हिमालय चला और शुद्घोदन सम्राट हो गये, और इस बाजार की दुनियां में उलझ गया। असिता बाद में महा तपस्वी हो गया। उसकी ख्याति दूर-दिगंत तक फैल गयी। असिता को द्वार पर आए देख कर शुद्घोदन ने कहां, आप और यहां। ये क्या हुआ। कैसे आना हुआ सब ठीक तो है। कोई मुसीबत, कोई परेशानी आप बस इतला भर करवा देते। नाहक कष्ट उठाया मीलों पैदल चल कर। कहते तो रथ भिजवा देता। असिता ने कहां, नहीं, नहीं सब ठीक है। कोई किसी किस्म की परेशानी नहीं है। काम ही कुछ ऐसा है मेरे आये बिना गुजारा नहीं हो सकता था। तुम्हारे घर बैटा पैदा हुआ है। बस उसी के दर्शन करने के लिए आया हूं।
शुद्घोदन तो समझ न सका। सौभाग्य की घड़ी थी यह कि असिता जैसा तपस्वी और बेटे के दर्शन को आया। भागा गया अंत: गृह में। नवजात शुश को लेकर बाहर आ गया। असिता झुका,और शिशु के चरणों में सर रख दिया। और कहते है, और कहते है शिशु ने आपने पैर उसकी जटाओं में उलझा दिए। फिर तब से आदमी की जटाओं में बुद्ध के पैर उलझे है। फिर आदमी छुटकारा नहीं पा सका है। और असिता हंसने लगा, और रोने लगा। और शुद्घोदन ने पूछा कि इस शुभ घड़ी में आप रोते क्यों है।
असिता ने कहा,यह तुम्हारे घर जो बेटा आया है। यह कोई साधारण आत्मा नहीं है। असाधारण है। कई सदिया बीत जाती है। यह तुम्हारे लिए ही सिद्धार्थ नहीं है; यह अनंत-अनंत लोगों के लिए सिद्धार्थ है। अनेकों की अभिलाषाएं इससे पूरी होंगी। हंसता हूं,कि इसके दर्शन मिल गए। हंसता हूं, प्रसन्न हूं, कि इसने मुझ बूढ़े की जटाओं में अपने पैर उलझा दिये। यह सौभाग्य का क्षण है। रोता इसलिए हूं कि जब यह कली खिलेगा फूल बनेगी जब दिग्दिगंत में इसकी सुवास उठेगी, और इसकी सुवास की छाया में करोड़ों लोग राहत लेंगे, तब में न रहूंगा। यह मेरा शरीर छूटने के करीब आ गया है।
और एक बड़ी अनूठी बात असिता ने कहीं। वह यह कि अब तक आवागमन से छूटने की आकांशा थी, वह पूरी भी हो गई। आज पछतावा होता है। एक जन्म अगर और मिलता तो इस बुद्ध पुरूष के चरणों में बैठने की, इसकी वाणी सुनने की, इसकी सुगंध को पीने की, इसके नशे में डूबने की सुविधा हो जाती। आज पछताता हूं, लेकिन मैं मुक्त हो चूका हूं। यह मेरा आखिरी अवतरण है। अब इसके बाद देह न धर सकूंगा। अब तक सदा ही चेष्टा की थी कि कब छुटकारा हो इस शरीर से। कब आवागमन से....आज पछताता हूं। कि अगर थोड़ी देर और रूक गया होता....।
इसे तुम थोड़ा समझो।
बुद्ध के फूल के खिलनें के समय, असिता चाहता है, कि अगर मोक्ष भी दांव पर लगाया हो तो कोई हर्जा नहीं। तब से पच्चीस सौ साल बीत गए। बहुत प्रज्ञा पुरूष हुए। लेकिन बुद्ध अतुलनीय है। और उसकी अतुलनीयता इसमें है कि उन्होंने इस सदी के लिए धर्म दिया। और आने वाले भविष्य के लिए धर्म दिया। कृष्ण की बात ही समझाकर कही जाएं,इस सदी के लिए मौजूं नहीं बैठती। फासला बड़ा हो गया है। बड़ा अंतराल पड़ गया है। कृष्ण ने जिनसे कहा था उनको मनों में और जिनके मन आज उसे सुनेंगे। बड़ा अंतर आ गया है। बुद्ध की कुछ बात ऐसी हे। कि ऐसा लगता है अभी-अभी उन्होंने कही। बुद्ध की बात समय सामायिक बनाने की जरूरत नहीं है।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो,
प्रवचन—1, भाग—1,
ओशो आश्रम, पूना।
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