श्रावस्ती में एक कुलकन्या का विवाह। मां—बाप ने भिक्षु संध के साथ भगवान को भी निमंत्रित किया। भगवान भिक्षु—संध के साथ आकर आसन पर विराजे है। कुलकन्या भगवान के चरणों में झुकी और फिर अन्य भिक्षुओं के चरणों में। उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम— संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था। उसका मन काम की गहन बदलियों और धुओं से ढंका था। उसने भगवान को देखा ही नहीं। न देखा उस विशाल भिक्षुओं के संघ को। उसका मन तो वहां था ही नहीं। वह तो भविष्य में था। उसके भीतर तो सुहागरात चल रही थी। वह तो एक अंधे की भांति था।
भगवान ने उस पर करुणा की और कुछ ऐसा किया कि वह वधू को देखने में अनायास असमर्थ हो गया। जैसे वह नींद से जला ऐसे ही वह चौककर खड़ा हो गया। और तब उसे भगवान दिखायी पड़े और तब दिखायी पड़ा उसे भिक्षु— संघ। और तब दिखायी पड़ा उसे कि अब तक मुझे दिखायी नहीं पड़ रहा था। संसार का धुआ जहां नहीं है वहीं तो सत्य के दर्शन होते हैं। वासना जहां नहीं है वहीं तो भगवत्ता की प्रतीति होती है। उसे चौकन्ना और विस्मय में डूबा देखकर भगवान ने कहा कुमार। रागाग्नि के समान दूसरी कोई अग्नि नहीं है। वही है नर्क वही है निद्रा। जागो प्रिय जागो। और जैसे शरीर उठ बैठा है ऐसे ही तुम भी उत्तिष्ठित हो जाओ। उठो! उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—
नत्थि रागसमो अग्नि नत्थि दोससमो कलि।
'राग के समान आग नहीं है। द्वेष के समान मैल नहीं है। पंचस्कंधों के समान दुख नहीं है। शांति से बढ़कर सुख नहीं है।’
पहले तो इस प्रसंग को ठीक से समझ लें। यह प्रसंग अनूठा है।
साधारणत: भारत में परंपरा रही है कि विवाह के समय किसी संन्यासी को निमंत्रित न किया जाए। हिंदू विवाह में किसी संन्यासी को निमंत्रित नहीं करते। यह बात तर्कयुक्त मालूम होती है। क्योंकि कहा संन्यास और कहां विवाह! इन दोनों का क्या मेल? संन्यासी की मौजूदगी, जो लोग विवाह में बंधने जा रहे हैं, उनके लिए बाधा भी बन सकती है। संन्यासी की उपस्थिति उनके लिए इस बात का स्मरण भी बन सकती है कि संसार व्यर्थ है। जो अभी राग के सपनों में सोने जा रहे हैं, उन्हें यह नींद है, यह आग है, यह वासना व्यर्थ और असार है, ऐसी प्रतीति देने वाले व्यक्ति के करीब ले जाना उचित नहीं है।
तो हिंदू परंपरा रही है कि संन्यासी को विवाह में न बुलाया जाए। और विवाह के बाद, जो लोग विवाह के बंधन में बंधे हैं, वे संन्यासी से आशीर्वाद भी लेने न जाएं। क्योंकि संन्यासी का आशीर्वाद अगर सच में आशीर्वाद है तो विवाह के विपरीत होगा। अगर वह कुछ कहेगा, तो विवाह के विपरीत कहेगा। उसकी आशीष जगाने की होगी, सुलाने की नहीं हो सकती। जो अभी सोने को तत्पर हुआ है, वह जागे हुए लोगों से बचे, यह बात तर्कयुक्त मालूम होती है।
लेकिन बुद्ध ने ये सारी प्रक्रियाएं तोड़ दीं। बुद्ध ने यह सारी परंपरा तोड़ दी। बुद्ध ने कहा, विवाह के क्षण ही संन्यासी को निमंत्रित करना, बुलाना। क्योंकि यह मौका है जब कच्चा मन एक ढांचे में ढल रहा है। जब कच्चा मन एक यात्रा पर निकल रहा है। इस घड़ी में जो भी संस्कार पड़ जाते हैं, गहरे होते हैं।
मनोवैज्ञानिक भी इस बात से सहमत होते हैं कि मनुष्य के जीवन में कुछ घड़ियां होती हैं जो सर्वाधिक संवेदनशील होती हैं। उन घड़ियों में जो संस्कार पड़ जाते हैं, वे गहरे अचेतन तक चले जाते हैं।
जैसे बच्चा पैदा हुआ, तब पहली घड़ी। बच्चा पैदा होकर जो देखता है, जो अनुभव करता है, पहली बार आंख खोलता है, पहली बार मां के गर्भ से निकलकर श्वास लेता है, उन दस—पंद्रह सेकेंड में जो घटता है, वह सदा के लिए उसके मन का आधार बन जाता है। उससे महत्वपूर्ण घटना फिर दुबारा कभी न घटेगी। इसलिए वे दस—पंद्रह सेकेंड अपूर्व मूल्य के हैं। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उनका जितना सदुपयोग हो सके उतना अच्छा है।
अभी तो जो हम उपयोग करते हैं वह सदुपयोग नहीं है, दुरुपयोग है। अभी तो बच्चा पैदा होता है, डाक्टर उसे पैरों से पकड़कर उलटा टल देता है। यह यात्रा शुरू हो गयी उपद्रव की। यह बच्चे को सदमा लगता है। अभी—अभी सब सुखपूर्ण था, अब अचानक एकदम दुखपूर्ण हो गया। ऐसे तो नौ महीने गर्भ में रहने के बाद जब आख खोलता है बच्चा, तो रोशनी तक कष्टकारी है। इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बहुत धीमी रोशनी होनी चाहिए। लेकिन जहा अस्पतालों में बच्चों को जन्म दिया जा रहा है, वहा बड़ी तेज रोशनी होती है। बच्चे की आंखें अभी अति कोमल हैं, गुलाब की पंखुड़ियों जैसी हैं, अभी इतनी तेज रोशनी उनके लिए सदा के लिए चोट से भर देगी, तिलमिला देगी, यह पहला अनुभव संसार का बुरा अनुभव हो जाएगा।
पश्चिम में, जहा मनोविज्ञान के नए आधार रखे जा रहे हैं, फर्क आना शुरू हुआ है। अब बच्चों को ऐसे कमरों में जन्म दिया जा रहा है जहां अत्यंत धीमी रोशनी होती है। और अत्यंत सुकोमल, रंगीन, प्रीतिकर, नीली, धीमी नीली रोशनी होती है। कि बच्चा आख खोले तो उसे कोई चोट न लगे। फिर बच्चे को एकदम ऐसे बिस्तर पर लिटा देना जो सख्त है, खतरनाक है, अभी बच्चे की त्वचा बहुत कोमल है। तो पश्चिम में अब उसे ठीक उसके शरीर के योग्य गरम पानी में लिटाते हैं। क्योंकि मां के पेट में वह अपने शरीर के तापमान वाले गरम पानी में ही तैरता है। उसे गरम पानी में लिटाते हैं। ताकि बाहर आकर वह जगत को प्रीतिकर पाए। ऐसा पाए कि उसमें निश्चित हो सके, विश्रांति को पा सके।
ये जो पहले क्षण हैं, अगर सुखद हों तो यह बच्चा सुखी होगा। सुखी होगा इस अर्थ में, इसका दृष्टिकोण सुख का होगा। अगर पहली ही चोटें ऐसी पड़ गयीं तो इस बच्चे के मन में पहले ही घाव बन गए। अब यह डरा हुआ जीएगा। यह मानकर ही चलेगा कि दुश्मन हैं यहां चारों तरफ, मित्र कोई भी नहीं है। इसका दृष्टिकोण विषाक्त हो। इस घड़ी को वैज्ञानिक कहते हैं, ट्रामेटिक। इस समय जो पैदा हो जाता है, संस्कार पूरे जीवन पीछा करेगा।
फिर दूसरी घड़ी आती है जब तुम्हारा विवाह होता है। तब फिर तुम्हारे जीवन में एक नया सूत्रपात हो रहा है। अब तक तुम अकेले थे, अब तक तुम आधे थे, अब तुम एक स्त्री से जुड़े या एक पुरुष से जुड़े, अब तुम पूरे हुए त्तुम्हारी चाहत, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी वासना अब एक नयी यात्रा पर निकल रही है। अब तक का जीवन एक ढंग का था, अब जीवन एक दूसरे ढंग का होगा।
ये घड़ियां भी बड़ी महत्वपूर्ण हैं। इन घड़ियों को भी हम व्यर्थ गंवा देते हैं। इन घड़ियों में भी जो हम करते हैं, वह सब थोथा है। दूल्हे को घोड़े पर चढ़ा दिया है, बैंड—बाजे बजा रहे हैं। बचकाना है। इस बचकानी प्रवृत्ति से बाहर निकालने की जरूरत है। ये घड़ियां अति बहुमूल्य हैं। ये घड़ियां अत्यंत शात हो गए पुरुषों के निकट बीतनी चाहिए। वातावरण संगीतमय हो। लेकिन धूम—धड़ाक से भरा हुआ फिल्मी संगीत ठीक नहीं। यह वातावरण संगीतमय हो, वीणा बजे, बांसुरी बजे, शहनाई बजे, पर यह संगीत ऐसा हो जो इन घड़ियों को मनुष्य के भीतर सदा के लिए प्रीतिकर बनाकर बिठा दे।
तो बुद्ध ने तो तोड़ दी पुरानी परंपरा। उन्होंने कहा कि संन्यासी आ सकता है। वे स्वयं जाते थे। अगर विवाह हो और निमंत्रित किए जाएं तो वे जाते थे। न केवल अकेले, बल्कि अपने हजारों भिक्षुओं को लेकर। ताकि वहा का सारा वातावरण बदल दें। जहां हजारों भिक्षु आ गए हों, वहां की हवा बदल जाएगी। जहा बुद्ध मौजूद हों, वहां की हवा बदल जाएगी। वहां दूल्हा और दुल्हन तो गौण हो जाएंगे। वहा बुद्ध की मौजूदगी प्रगाढ़ हो जाएगी। वह प्रकाश—स्तंभ इन छोटी सी घड़ियों का, इन बहुमूल्य घड़ियों का उपयोग कर लेगा। वह छाप गहरी पड़ जाएगी। और यह याद मन में बैठ जाएगी कि विवाह ही जीवन का अंत नहीं है। जाओ, लेकिन एक दिन इसके बाहर आना होगा। जाओ जरूर, लेकिन अनुभव से एक दिन पकोगे और इसके बाहर भी आओगे। क्योंकि लोग हैं जो बाहर आ गए हैं। बुद्ध हैं। यह बुद्ध की शांति और यह बुद्ध का आनंद भी याद रह जाएगा।
यह सुगंध पीछा करेगी। कितने ही सपनों में खोए होओ, यह सुगंध कभी—कभी
तुम्हारे सपने को तोड़ देगी। और कभी—कभी जब जीवन का विषाद और जीवन का दुख तुम्हें अतिशय काटने लगेगा तो तुम आत्महत्या की नहीं सोचोगे, तुम आत्म—रूपांतरण की सोचोगे। तुम कहोगे कि ठीक है, अगर यह जीवन दुखपूर्ण है, कष्टपूर्ण है और अगर यहां रस नहीं बह रहा है, तो जीवन समाप्त नहीं हो जाता है, एक और भी जीवन है। बुद्ध जैसा जीवन है।
आधुनिक युग में जब तुम्हारे जीवन में कष्ट होता है, कठिनाई होती है, तो कोई द्वार नहीं मिलता। तब तुम्हें ऐसा लगता है, अब खतम ही कर लो अपने को, अब क्या सार है! यही रोज—रोज उठना, यही रोज—रोज काम करना, यही पत्नी, यही पति, यही झगड़े, यही कलह, यही चिंताएं, यही जिम्मेवारियां, आखिर कार इसमें सार क्या है? और दस साल जीएंगे तो यही—यही दोहरेगा। इससे तो बेहतर अपने को समाप्त कर लो।
दुनिया में आत्महत्या करने वालों की संख्या रोज बढ़ती जाती है। पश्चिम में बहुत बढ़ गयी है। क्योंकि पश्चिम से संन्यासी तो विदा ही हो गया, उसकी तो कहीं झलक ही नहीं मिलती। चर्च में जो पादरी है, या सिनागाग में जो रबाई है, वह भी संन्यासी नहीं है, वह भी तुम जैसा संसारी है, उसके जीवन में भी कुछ नहीं है, उसकी मौजूदगी में भी कुछ नहीं है, उसकी मौजूदगी भी किसी और जीवन की नयी शैली का इंगित नहीं देती, कोई पुकार नहीं है, कोई आह्वान नहीं है।
तो बुद्ध ने यह परंपरा तोड़ दी। बुद्ध ने कहा कि विवाह में तो अगर संन्यासी उपलब्ध हों तो जरूर बुला लेना। ताकि उस समय युवक और युवती जो विवाह में बंध रहे हैं, अभी बड़ी आशाओं से, ये आशाएं कल टूटने ही वाली हैं, क्योंकि इन आशाओं के पूरे होने का कोई उपाय नहीं है। यह जो बड़ी—बड़ी कल्पनाएं संजोकर जा रहे हैं, ये कल्पनाएं आज नहीं कल धूल—धूसरित हो जाएंगी। तब इनके सामने एक बात स्मरण में रहनी चाहिए—एक और भी जीवन की शैली है, यही जीवन सब कुछ नहीं है। तब ये बुद्ध की तरफ मुड़ सकेंगे। संन्यास की तरफ मुड़ सकेंगे।
तो यह जो छोटी सी घटना है, यह समझने जैसी है।
श्रावस्ती में एक कुलकन्या का विवाह है। मां—बाप ने भिक्षु—संघ के साथ शास्ता को भी नियंत्रित किया। भगवान भिक्षु—संघ के साथ आकर आसन पर विराजे। कुलकन्या भगवान के चरणों में झुकी और फिर अन्य भिक्षुओं के चरणों में। उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम—संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था।
यहीं स्त्रियों और पुरुषों में बुनियादी फर्क है। स्त्री का जो काम है, वह निष्क्रिय काम है। वह ठंडी आग है। पुरुष का जो काम है, वह सक्रिय काम है। वह प्रज्वलित अग्नि है। इसलिए स्त्री को धर्म के जगत में यात्रा करना ज्यादा सुगम पड़ता है, बजाय पुरुष के। क्योंकि पुरुष के भीतर की सारी ऊर्जा सक्रिय है, बहिर्गामी है। स्त्री के भीतर की ऊर्जा निक्रिय है और अंतर्गामी है।
इसलिए तुम अगर चर्च में, मंदिर में, गुरुद्वारे में स्त्रियों की संख्या ज्यादा देखो पुरुषों की बजाय, तो कुछ आश्चर्य मत मानना। वह स्वाभाविक है। बुद्ध के भिक्षु—संघ में भी चार भिक्षुओं में तीन स्त्रियां थीं, एक पुरुष। और वही अनुपात था महावीर के साधु और साध्वियों का। चार साधुओं में तीन साध्वियां, एक साधु। और मैंने बहुत गौर से देखा है, करीब—करीब यही अनुपात है, जहा तुम चार धार्मिक व्यक्ति पाओ, तीन स्त्रिया पाओगे, एक पुरुष।
फिर स्त्रिया जब साधना में उतरती हैं तो समग्ररूपेण उतर जाती हैं। पुरुष इतना समग्ररूपेण नहीं उतर पाता। पुरुष का मन बहुत दिशाओं में भागने वाला मन है। स्त्री का मन भागने वाला मन नहीं है। विश्राम स्त्री के लिए स्वाभाविक है।
तो दोनों मौजूद हैं। कन्या भी मौजूद है जिसका विवाह होना है, वर भी मौजूद है। लेकिन वर को तो बुद्ध दिखायी ही नहीं पड़े। कन्या को दिखायी पड़े। गयी, उनके चरणों में झुकी।
इसे भी खयाल रखना, स्त्री के लिए झुकना सरल है। समर्पण सरल। पुरुष के लिए झुकना कठिन है। अति कठिन। बहुत समझ हो तो ही पुरुष झुक पाता है। जरा भी नासमझी हो तो पुरुष अकड़ा रह जाता है। टूट भला जाए झुकना नहीं चाहता। उसमें ही समझता है कि पुरुषत्व है। स्त्री कोमल लता सी है, जरा सा हवा का झोंका और झुक जाती है। पुरुष सख्त मजबूती से खड़े वृक्षों की भांति है। तूफान भी आए तो झुकना नहीं चाहता। फिर अगर कहीं तूफान बड़ा हुआ और पुरुष को झुकना ही पड़ा, तो वे बड़े वृक्ष गिर जाते हैं, फिर उठ नहीं पाते। छोटे—छोटे पौधे जो झुक जाते हैं, तूफान के निकल जाने पर फिर उठ आते हैं। तूफान उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता।
स्त्री कोमल लताओं जैसी है। झुकना उसका आंतरिक अंग है। इसलिए कन्या तो जाकर बुद्ध के चरणों में झुकी। उसे बुद्ध दिखायी पड़ गए। वह क्षणभर को बुद्ध के चरणों में झुकते समय भूल ही गयी होगी कि उसका होने वाला पति भी बैठा है। फिर न केवल वह बुद्ध के चरणों में झुकी, वह भिक्षुओं के चरणों में भी झुकी। लेकिन पुरुष को दिखायी ही न पड़ा। उस युवक को बुद्ध दिखायी ही न पड़े। उसकी आंखों में तो आग छायी हुई है। वह तो उतावला हो रहा है। कब जल्दी यह रस्म—रिवाज पूरा हो। उसकी वासना तो प्रदीप्त है।
उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम—संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था।
उसके भीतर तो अग्नि जल रही है। लपटें। धुआ ही धुआ है। उसे कहां बुद्ध का पता! आए बैठे, इतने भिक्षु आए उसे कुछ दिखायी नहीं पड़ा। तुमने खयाल किया, जब तुम किसी वासना से बहुत भरे होते हो तो तुम्हें वही दिखायी पड़ता है जो तुम्हारी वासना का बिंदु होता है। और कुछ दिखायी नहीं पड़ता।
जब वासना बहुत प्रगाढ़ हो तो तुम्हें वही दिखायी पड़ता है जो तुम्हारी वासना तुम्हें दिखाती है। शेष सब अंधेरे में हो जाता है। शेष सब पर पर्दा पड़ जाता है। उस युवक को' बुद्ध दिखायी नहीं पड़े। उसने भगवान को देखा ही नहीं।
कभी—कभी भगवान तुम्हारे पास से भी गुजर जाएं और हो सकता है तुम्हें दिखायी न पड़े। बहुत बार गुजरे ही होंगे। क्योंकि अनंत काल में ऐसा तो नहीं हो सकता कि तुम कभी बुद्धों के करीब न आए होओ। ऐसा तो नहीं हो सकता कि कभी कोई जिनत्व को उपलब्ध व्यक्ति तुम्हारे पास से न गुजरा हो। ऐसा तो नहीं हो सकता कि कभी कोई कृष्ण, कभी कोई क्राइस्ट, कोई मोहम्मद, कोई जरथुस्त्र तुम्हारे गांव से न गुजरा हो, तुम्हारे पड़ोस में न ठहरा हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। तुम कोई नए तो नहीं हो ( अति प्राचीन हो, सनातन हो। सदा—सदा से यहां रहे हो। जरूर बहुत बार ये मौके आए होंगे। लेकिन तुमने देखा नहीं, यह सच है। अब तो तुम्हें याद भी नहीं। तुम्हें पहचान भी नहीं।
आज भी तुम्हारे पास से बुद्धपुरुष गुजरें तो शायद ही तुम देख पाओ। तुम्हें वही दिखायी पड़ेगा जो तुम देख सकते हो। तुम अगर धन के दीवाने हो तो धन दिखायी पड़ेगा। तुम अगर पद के दीवाने हो, पद दिखायी पड़ेगा। तुम्हारी आंखें बस उसी दिशा में देखती हैं जहां तुम्हारी वासना त्वरा से भागी जा रही है। शेष सब अंधेरा हो जाता है। तो हम करीब—करीब निन्यानबे प्रतिशत अंधे हैं। बस एक प्रतिशत हमें दिखायी पड़ता है। और इसीलिए अक्सर ऐसा हो जाता है, कि शुभ अवसर आते हैं और चूक जाते हैं।
इस युवक की हालत को तुम इस युवक की ही हालत मत समझना। बहुत मौकों पर तुम्हारी भी यही हालत है। ऐसा मत सोचना कि बेचारा! यह कहानी तुम्हारी है। यह आदमी की कहानी है। ये सारी कहानियां आदमी की हैं। इन कहानियों को ऐसा सोचकर मत टाल देना कि ही, किसी को ऐसा हुआ होगा। ऐसा मनुष्य को होता है। ऐसा हर मनुष्य को हो रहा है।
उसने भगवान को देखा ही नहीं।
तुमने कभी इस अनुभव से गुजरकर निरीक्षण किया है? रास्ते से तुम चले जा रहे हो और एक सुंदर स्त्री तुम्हें दिखायी पड़ जाए, फिर तुम्हें कुछ और दिखायी पड़ता है? फिर कुछ दिखायी नहीं पड़ता। फिर कौन गुजर रहा है, कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, सब धूमिल हो जाता है। वह सुंदर रूप आंखों को बांध लेता है। तुम्हें राह पर पड़ा हीरा दिखायी पड़ जाए, फिर तुम्हें कुछ और दिखायी पड़ेगा? फिर कुछ भी दिखायी न पड़ेगा। इस अंधेपन के कारण हम बुद्धों से वंचित हो जाते हैं। और बुद्ध के बुद्ध रह जाते हैं।
उसे भगवान दिखायी ही न पड़े। न देखा उसने इस विशाल भिक्षुओं के संघ को। चलो एक भगवान को न देखा हो, मगर ये हजारों पीत वस्त्रों में आए हुए भिक्षु! ये भी उसे दिखायी न पड़े। उसकी आंखों में कुछ और ही भरा है। उसकी आंखें भरी हैं, खाली नहीं। आंखें जब खाली होती हैं तब कुछ दिखायी पडता है, भरी आंखों में कुछ दिखायी नहीं पड़ता। उसे तो अपनी पत्नी ही दिखायी पड़ रही है। शायद उसे नाराजगी भी आ रही हो कि ये किस तरह के लोग आ गए—कि मेरी पत्नी को इनके पैरों में झुकना पड़ रहा है। मेरी पत्नी और किसी के पैरों में झुक रही है! शायद उसे इससे अड़चन भी हुई हो। ये कौन लोग हैं! इन्होंने समझा क्या है अपने आपको! वह खुद तो उठा नहीं झुकने, उसे तो दिखायी नहीं पड़ रहा है कुछ, शायद पत्नी को झुकते देखकर उसे बेचैनी बढ़ रही हो।
ऐसा मेरे पास लोग आ जाते हैं। एक महिला मेरे पास आती है, उसके पति नाराज हैं। पति कहते हैं कि मेरे होते हुए तुझे कहीं जाने की क्या जरूरत है? तुझे जो पूछना है, मुझसे पूछ। और तुझे जो जानना है, मुझसे जान।
अब यह भी खूब अनूठी बात है। कोई पत्नी कभी अपने पति से कुछ पूछ सकती है! और पत्नी कभी मान सकती है कि पति में भी कोई अकल हो सकती है! अकल ही होती तो उसको तुमने चुना होता! अकल ही होती तो तुम उसके जाल में फंसते! अकल ही होती तो तुम पति होते! दुनिया में कोई और तुम्हें मान ले, लेकिन पत्नी तो नहीं मान सकती कि तुममें कुछ अकल है।
अब पति उससे कह रहा है कि हमसे पूछ लो। जो भी जानना है, हमसे जान लो। और वह पति को भलीभांति जानती है—पत्नी से भलीभांति और कौन पति को जानता है! वह तुम्हारी हर कमजोरी को जानती है। तुम्हारी हर सीमा को जानती है। वह तुम्हारी बटनों को दबाना जानती है। जरा सी बटन दबा दे, तुम क्रोधित हो जाते हो। जरा सी बटन दबा दे, तुम प्रभावित हो जाते हो। तुम उसके हाथ की कठपुतली हो और तुम उससे कह रहे हो कि मुझसे पूछ।
तो मैंने उनकी पत्नी को कहा कि तुम उन्हीं से पूछ क्यों नहीं लेती, तू यहां क्यों परेशान होती है—जब वह इतने उससे कहते हैं! उसने अपना माथा ठोंक लिया, उसने कहा, उनसे पूछकर क्या नरक जाना है! वह खुद तो जा ही रहे हैं, मुझको भी ले जाएंगे। और उनके पास है क्या जो मैं उनसे पूछूं?
मगर पति की तकलीफ भी समझना। पति को इस बात से अड़चन होती है कि उनकी पत्नी किसी के चरणों में झुके। इससे पतिभाव को चोट पहुंचती है। यह बात ही उनको अखरती है कि उनकी पत्नी और किसी के चरणों में झुके! उनकी पत्नी और किसी और के सामने झुके! तो पति तो पत्नियों को समझाते रहे हैं कि हम परमेश्वर हैं। अब और इसके आगे तो कहीं जाने को है नहीं, पति परमात्मा है। आगे खतम हो गयी बात। पत्नियों ने कभी सुना नहीं, यह दूसरी बात है! पति लेकिन यह समझाते रहे हैं, यह तो सच ही है।
उसे तो कठिनाई ही होने लगी होगी। ये कहां के लोग आ गए हैं? और ये लोग उसे बड़े अजीब से लगे होंगे। ये पीत वस्त्रधारी यहां क्या कर रहे हैं? इनकी यहां जरूरत क्या है? इन्हें किसने यहां बुला लिया है? लड़की के मा—बाप को बुद्ध से लगाव रहा होगा। लेकिन लड़के के मा—बाप को या लड़के को बुद्ध से कोई संबंध न रहा होगा। यह अपरिचित सी भीड़, ये अजीब से लोग! अगर थोड़े बहुत उसे समझ में भी आए होंगे कि मौजूद हैं, कहीं धुंधले में खड़े दिखायी भी पड़े होंगे, तो सिर्फ बेचैनी का कारण हुए होंगे। और पत्नी को झुकते देखकर उसकी अड़चन और बढ़ गयी होगी।
वह तो वहां था ही नहीं। वह तो भविष्य में था। उसके भीतर तो सुहागरात चल रही थी। वह तो एक अंधे की भाति था। वह तो झपटकर अपनी पत्नी को पकड़ लेना चाहता था। उसे कुछ और सूझ नहीं रहा था।
भगवान ने उस पर करुणा की।
जो इतनी अग्नि में जल रहा हो, उस पर करुणा करनी ही पड़ेगी। उस पर दया खायी। उसका दुख समझा होगा। उसका पागलपन देखा होगा।
उन्होंने कुछ ऐसा किया कि वह वधू को देखने में अनायास असमर्थ हो गया। कथा कुछ कहती नहीं कि उन्होंने क्या किया। कुछ ऐसा किया। एक दूसरी कहानी से तुम्हें समझाऊं कि क्या किया होगा।
एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया, चरणों में सिर रखा और कहा कि मैंने निश्चय कर लिया है, मैंने पक्का विचार कर लिया है कि आपके चरणों में समर्पण करूंगा। फकीर ने कहा, तूने कहावत सुनी है कि इसके पहले शिष्य गुरु को चुने, गुरु शिष्य को चुन लेता है? युवक ने कहा, सुनी तो है, लेकिन मुझ पर लागू नहीं होती। मैंने ही निश्चय किया है कि आपके चरणों में सिर रखूंगा। फकीर ने कहा, तूने दूसरी कहावत सुनी है कि भगवान जिसको बुलाता है वही भगवान की तरफ जाता है? उस युवक ने कहा, छोड़ो ये कहावतें, सुनीं, न सुनीं, इससे कोई मतलब नहीं है, लेकिन अपने संबंध में मैं जानता हूं कि मैंने महीनों विचार करने के बाद यह तय किया है कि समर्पण करूंगा।
उस फकीर ने कहा, तू मेरे साथ आ। झोपड़ी के बाहर उसे ले गया, पास ही खेत में एक किसान—दोपहरी है, काम से थक गया होगा, बैलों को विश्राम देना होगा, तो वृक्ष के नीचे बैठा है। उसी के पास एक कुत्ता बैठा है। फकीर ने कहा, देखता है वह किसान और कुत्ता वहां? दूर से दिखाया। और फकीर ने कहा कि अब देख! मैं इस किसान को खबर भेजता हूं कि तू तीन पत्थर इस कुत्ते को मार! ऐसा फकीर का कहना था कि किसान ने एक पत्थर उठाया और फेंका; दूसरा उठाया और फेंका; और तीसरा उठाया और फेंका; और कुत्ते को भगा दिया।
युवक ने मन में सोचा, संयोग की बात मालूम पड़ती है। लेकिन फकीर ने जोर से कहा कि नहीं, संयोग की बात नहीं है। तब तो युवक और भी चौंका। क्योंकि उसने यह कहा नहीं था प्रगट में कि संयोग की बात मालूम पड़ती है, ऐसा मन में सोचा था कि संयोग की बात मालूम पड़ती है। लेकिन फकीर ने कहा, नहीं, संयोग नहीं है। उस युवक के मन में फिर हुआ, जिद्दी रहा होगा, कि यह भी संयोग हो सकता है। फकीर ने कहा, कह रहा हूं कि नहीं, यह. भी प्रयोग नहीं है। तब तो चौकन्ना हुआ युवक। जैसे नींद से जागा।
फकीर ने कहा, तो फिर देख! अभी यह बैठा है, तू चाहता है यह खड़ा हो जाए? उसने कहा, दिखाएं। ऐसा कहना ही था फकीर का कि वह किसान खड़ा हो गया। मगर युवक को संदेह उठा कि हो सकता है उसका विश्राम पूरा हो गया हो और वह उठने के ही करीब हो! तो फकीर ने कहा, देख, बायां हाथ ऊपर उठवाऊं कि दायां हाथ ऊपर उठवाऊं? इसका तो कोई कारण नहीं होगा? उसने कहा कि नहीं, इसका कोई कारण नहीं होगा, बायां उठवाएं। ऐसा कहना था कि उस किसान ने बायां हाथ ऊपर उठाया। अब जरा मुश्किल था। अब फकीर ने कहा, तू मेरे साथ आ।
दोनों किसान के पास गए। का किसान, अनुभवी किसान। फकीर ने कहा कि देखें, एक छोटा सा प्रयोग हम किए हैं, उसके संबंध में थोड़ी जानकारी चाहिए। आपने कुत्ते को पत्थर क्यों मारे? बड़ी देर से बैठा था आपके पास, आपने पत्थर न मारे, फिर अचानक पत्थर क्यों मारे? किसान ने कहा कि देखो, मैं विश्राम कर रहा था, मैंने ध्यान ही नहीं दिया था कुत्ते पर, अचानक मैंने देखा कुत्ता, तो मैंने भगाना चाहा। तो फकीर ने पूछा, अच्छा, भगाना चाहा तो एक ही पत्थर से काम हो जाता, तीन क्यों मारे? तो उस किसान ने कहा कि इसलिए ताकि कुत्ते को ठीक सिखावन लग जाए, दुबारा यहां न आए। फकीर ने पूछा, फिर आप अचानक उठकर खड़े क्यों हो गए? तो उस किसान ने कहा, मैं काफी विश्राम कर चुका था, फिर मैंने सोचा कि इतना ज्यादा विश्राम शरीर के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं, तो मैं खड़ा होकर जरा व्यायाम कर लेना चाहता था। तो फिर आपने बायां हाथ ऊपर क्यों उठाया? तो उस किसान ने कहा, हइ हो गयी, हाथ मेरे हैं, मैं बायां हाथ उठाऊं कि दायां, तुम कौन हो? मेरी मर्जी! तुम कोई अदालत हो? और मैंने कोई जुर्म किया है ' और उस युवक से कहा कि देख छोकरे, यह फकीर खतरनाक मालूम होता है, इस तरह के सूफी कच्ची उमर के लोगों को उलटी—सीधी बातें पढ़ाया करते हैं। इससे सावधान रहना। यह तुझे कुछ उलटी—सीधी बातें पढ़ा रहा है।
फकीर युवक को लेकर अपने झोपड़े पर लौट आया। उसने कहा, अब तेरा क्या खयाल है? क्योंकि वह किसान भी जिद्द करता है कि ये मेरे विचार हैं।
एक मन के संबंध में बहुत बुनियादी सत्य समझ लेना—जितने विचार तुम अपने कहते हो, उनमें शायद ही कोई तुम्हारा होता है। तुम अक्सर दूसरों के पकड़ते हो। तुम से बलशाली आदमी जब तुम्हारे करीब होता है, तत्क्षण तुम उसके विचार पकड़ लेते हो। कहने की जरूरत नहीं होती। विचारों की तरंगें प्रतिक्षण ब्राड़कास्ट हो रही हैं, हर एक आदमी से हो रही हैं, जो कमजोर होता है वह बलशाली की पकड़ लेता है। जैसे पानी ऊपर से नीचे की तरफ बहता है, ऐसे बलशाली व्यक्ति से विचार कमजोर व्यक्तियों की तरफ बहते हैं।
इसलिए तो कहा है, बुरे आदमियों के पास मत बैठना। क्योंकि अक्सर ऐसा होता है, तुम्हारे तथाकथित भले आदमियों से बुरे आदमी ज्यादा बलशाली होते हैं। तुम्हारे नपुंसक भले आदमियों की बजाय अपराधी बहुत बलशाली होते हैं। इसलिए कहा कि बुरे आदमियों के पास मत बैठना। बुरे का सत्संग मत करना। वह बुरा है, लेकिन बलशाली तो है ही!
अब जिस आदमी ने दस हत्याएं की होंगी, वह कोई कम बल का आदमी नहीं है! उसने दुरुपयोग किया है बल का, यह दूसरी बात है। उसने ठीक नहीं किया बल का उपयोग, यह दूसरी बात है। लेकिन बलशाली है, इसमें तो कोई संदेह नहीं। उससे जरा सावधान! उसके पास बैठे तो उसके मस्तिष्क से चलती हुई सूक्ष्म तरंगें तुम्हारा मस्तिष्क पकड़ लेगा। और अगर तुम भी हत्या का विचार करने लगो तो कुछ आश्चर्य न होगा। हालांकि तुम यही सोचोगे कि मैं सोच रहा हूं।
इसलिए कहा, सत्संग करना। जहा कोई ज्ञान को उपलब्ध हुआ हो, उसके पास बैठना। वहां तुम्हारी यात्रा सुगम हो जाएगी। जो शुभ विचार कभी तुम्हारे भीतर तरंगें भी नहीं लिए हैं, उसकी मौजूदगी में तरंगें लेने लगेंगे। जो फूल तुम्हारे भीतर कभी खिले ही नहीं, उनकी पखुडियां खिलने लगेंगी। कलियां खिलने लगेंगी, फूल बनने लगेंगी। जो किरण तुम्हारे भीतर कभी उठी ही नहीं, सोयी की सोयी ही पड़ी थी, अचानक किसी के संघात में जगकर खड़ी हो जाएगी। सत्संग का अर्थ ही यही है कि किसी ऐसे बलशाली व्यक्ति के पास पहुंच जाना जो जाग गया है, ताकि उसका जागरण तुम्हें झकोरे देने लगे। ताकि उसका जागरण झंझावात बन जाए। ताकि उसका जागरण अलार्म बन जाए और तुम्हारे चारो तरफ बजने लगे। और तुम्हें सोने न दे। और तुम्हारी नींद को तोड़े। और तुम्हें सपनों से जगाए।
बुद्ध ने क्या किया होगा? कुछ खास नहीं किया होगा, सिर्फ इतना ही किया होगा, उस युवक की तरफ ध्यान दिया होगा। सिर्फ अपनी आंखें उस युवक की तरफ फेरी होंगी। जैसे तुम टार्च लिए होते हो न और किसी के चेहरे की तरफ टार्च को फेर दो, तो सारे टार्च की रोशनी उसके चेहरे पर पड़ने लगे। ऐसा बुद्ध ने अपने भीतर की टार्च को उस युवक की तरफ घुमाया होगा। रोशनी दौड़ी उस युवक की तरफ। उस रोशनी के संघात में उसके भीतर सोयी हुई प्रज्ञा जैसे चौंककर जग गयी।
जैसे वह नींद से जागा, ऐसे चौंककर खड़ा हो गया। और तब उसे भगवान दिखायी पड़े।
भगवान कब दिखायी पड़े? जब वह अपनी होने वाली पत्नी को देखने में असमर्थ हो गया। यह बात बड़ी समझने जैसी है।
तुम्हारी आंखें सीमित हैं। या तो तुम कामना देखो, या आत्मा देखो। या तो तुम काम देखो, या राम देखो। दोनों एक साथ न देख सकोगे। कभी तुमने रुपए का सिक्का हाथ में रखकर देखा? तुम दोनों पहलू एक साथ नहीं देख सकते। या तो उलटा रखो सिक्का, तो उसकी पीठ देखो, या सीधा रखो—सिक्का, तो उसका मुंह देखो। लेकिन तुम दोनों पहलू एक साथ नहीं देख सकते। सिक्का तो छोटी सी चीज है, फिर भी दोनों पहलू एक साथ देखने का कोई उपाय नहीं है। एक ही देख सकते हो। ऐसा ही राम और काम। एक तरफ नजर लगी हो तो दूसरी तरफ नजर बंद हो जाती है। दूसरी तरफ नजर जाए तो इस तरफ बंद हो जाती है।
तो जैसे ही बुद्ध ने कुछ किया—कुछ किया यानी अपने प्रकाश की धारा को उस युवक की तरफ फेंका, एक सेतु बन गया प्रकाश का, नहा गया होगा वह युवक उस प्रकाश में—अचानक उसे अपनी होने वाली पत्नी दिखायी न पड़ी, कहां गयी? जो है वही थोड़े ही तुम्हें दिखायी पड़ता है। जो तुम देखना चाहते हो, वही दिखायी पड़ता है। तुमने खयाल किया, तुम क्या देखना चाहते हो वही दिखायी पड़ता है। तुम्हारा संसार सीमित है। तुम्हारा संसार तुम्हारा चुनाव है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि जितनी घटनाएं तुम्हारे पास घट रही हैं, उसमें से केवल दो प्रतिशत तुम देखते हो, अट्ठानबे प्रतिशत तुम देखते ही नहीं। अब समझो कि एक सुंदर युवती आती है। तुम पूरी युवती देखते हो? नहीं देखते। तुम कुछ देखते हो, कुछ छोड़ देते हो। अगर पीछे कोई तुमसे याद करने को कहे कि तुमने क्या देखा, तो तुम शायद थोड़ा—बहुत स्मरण कर पाओगे। शायद तुमसे कोई पूछे कि उसके बाल का रंग क्या था, तो तुम शायद याद न कर पाओ। उसकी आंखों का रंग क्या था, तो शायद तुम याद न कर पाओ। लेकिन कुछ तुम याद कर पाओगे। जो तुम याद कर पाओगे वही तुमने देखा था।
तुम्हें इस बगीचे में से गुजारा जाए और बाद में तुमसे पूछा जाए, क्या देखा? तो हर आदमी अलग—अलग बातें याद करेगा। जो जिसने देखा होगा वही तो याद करेगा न! बगीचे से सब एक ही गुजरे थे। हो सकता था कोई फूलों का पारखी गुजरा हो। तो वह फूलों को देखेगा। और किसी लकड़हारे को गुजारकर ले गए, तो वह सोचेगा कि कौन—कौन से झाडू काटकर लकड़ी बेची जा सकती है! उसकी याददाश्त उनकी ही होगी। और अगर तुम किसी चित्रकार को ले गए, तो उसने रंगों का अनूठा जमघट देखा होगा। हरे रंग में भी हजार हरे रंग देखे होंगे। एक ही हरा सौ थोड़े ही है, जरा गौर से देखो। हर वृक्ष अलग ढंग से हरा है। लेकिन कोई पेंटर, कोई चित्रकार ही अलग—अलग हरे रंग देख सकता है। उसे शायद कुछ और दिखायी ही न पड़े। अगर तुम किसी वनस्पतिशास्त्री को ले आओ, तो वह नाम ही नाम देखेगा। लैटिन और ग्रीक नाम उसको याद आएंगे। कि कौन सा वृक्ष किस जाति का है, कहां से आता है, किस देश से आता है। अगर गुलाब का पौधा वह देखेगा तो सोचेगा, ईरान से आता है।
यह तुम शायद सोचोगे ही नहीं, क्योंकि तुम्हें ईरान से क्या लेना—देना है! गुलाब का ईरान से क्या लेना—देना! लेकिन वनस्पतिशास्त्री तत्क्षण सोचेगा, ईरान से आता है। इसीलिए तो हिंदुओं के पास गुलाब के लिए कोई नाम नहीं है। गुलाब तो ईरानी नाम है। गुल आब। हिंदी में तो कोई नाम ही नहीं है गुलाब के लिए। हो भी नहीं सकता, क्योंकि यह पौधा ही हमारा नहीं है। यह पौधा ही उधार है। मगर, सबको यह बात दिखायी न पड़ेगी।
हम वही देखते हैं, जो देखने के लिए हम तैयार हैं।
जैसे ही बुद्ध की रोशनी उस युवक पर पड़ी होगी, उसकी चेतना में एक क्रांति घट गयी—क्षणभर को सही, लेकिन उस धक्के में वह घूम गया। उसका चाक पूरा घूम गया। कहां से कहा हो गया। अभी पत्नी ही दिखायी पड़ती थी, अब पत्नी दिखायी न पड़ी। और जब पत्नी न दिखायी पड़ी, तब जैसे नींद से जागा। उसे भगवान दिखायी पड़े। वह अपूर्व रूप भगवान का, वह अपूर्व ज्योति, वह दिव्यता, वह शांति ! क्षणभर को बारात खो गयी होगी, विवाह खो गया होगा, मंडप खो गया होगा। सब खो गया होगा। क्षणभर को वह किसी और ही लोक में प्रविष्ट हो गया। और तब उसे दिखायी पड़ा भिक्षु—संघ।
जब भगवान दिखायी पड़े, तो उसे दिखायी पड़े ये लोग जो उनके दीवाने हैं। तब उसे दिखायी पड़े ये लोग जिनमें भी थोड़ी— थोड़ी किरण उनकी है, भगवान की है। जिनमें थोड़ा— थोड़ा स्वाद उनका है। जब मूलस्रोत दिखायी पड़ा, तो ये दिखायी पड़े। जब सूरज दिखायी पड़ा तो ये छोटे—छोटे दीए भी दिखायी पड़े। जब सूरज ही न दिखता हो तो दीए क्या खाक दिखायी पड़ेंगे। सूरज दिखा, रोशनी पहचान में आयी, तो और भी रोशन दीए समझ में आए। तब उसे भिक्षु—संघ दिखायी पड़ा। संसार का धुआ जहा नहीं है, वहीं तो सत्य के दर्शन होते हैं। और वासना जहां नहीं है, वहीं तो भगवत्ता के शिखर प्रगट होते हैं।
उसे चौकन्ना और विस्मय में डूबा देख भगवान ने कहा, कुमार! रागाग्नि के समान दूसरी कोई अग्नि नहीं।
यह भी खूब उपदेश हुआ किसी के विवाह पर! लेकिन बुद्धपुरुष अटपटी बातें कहते सदा पाए गए हैं। यह भी कोई बात हुई! लेकिन बुद्ध तो वही कहेंगे, जो है, जैसा है। और यह मौका सुंदर है। अभी जल रही हैं लपटें तेज। जब तुम्हारे घर में आग लगी हो प्रखर और सब जल रहा हो, तब तुम्हें जगाना ज्यादा आसान है। जब आग बुझी—बुझी हो जाए, राख ही राख रह जाए, तब जगाना मुश्किल है।
इस घड़ी में तो आग ही आग है। सुहागरात के बाद लपटें इस तरह की न रह जाएंगी। हनीमून के बाद तो अक्सर विवाह समाप्त हो जाते हैं, बचता क्या है? खोल रह जाती, राख रह जाती, बुझे दीए रह जाते। फिर आदमी ढोता है उनको। जब आग प्रगाढ़ता से जल रही है और रोआ—रोआ उसमें जल रहा है, तब जागरण आसान है। तब चोट करनी आसान है। बुद्ध ने ठीक ही अवसर चुना है। कितना ही अटपटा लगे, लेकिन ठीक अवसर चुना है।
रागाग्नि के समान दूसरी कोई अग्नि नहीं, कुमार.! वही है नर्क, वही है निद्रा। जागो, प्रिय जागो! और जैसे शरीर उठ बैठा है, वैसे ही तुम भी उठ जाओ, उत्तिष्ठित हो जाओ।
अभी शरीर चौंककर उठा है। अब ऐसे ही तुम्हारा सूक्ष्म मन भी चौंककर उठे। स्थूल और सूक्ष्म के भीतर छिपा हुआ परम सूक्ष्म भी चौंककर उठे।
उठो। उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है।
जो ऐसा भीतर उत्तिष्ठित नहीं हो गया है, वह मनुष्य जैसा दिखता भर है, मनुष्य है नहीं। अभी मनुष्यता की शुरुआत नहीं हुई।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—
नत्थि रागसमो अग्गि।
'राग के समान आग नहीं।'
नत्थि दोससमो कलि ।
'द्वेष के समान मैल नहीं।'
नत्थि खंधसमा दुक्खा।
'पंचस्कंधों के समान दुख नहीं।'
नत्थि सति परं सुखं।
'और शांति से बढ़कर सुख नहीं।'
तू किस सुख की बात सोच रहा है? हम देखकर कहते हैं कि वहां सुख नहीं है। हम अनुभव से गुजरकर कहते हैं, वहां सुख नहीं है। तू जिस तरफ दौड़ा जा रहा है, हम भी दौड़े और देख इन भिक्षुओं को, ये भी दौड़े हैं और देख अनंतकाल में अनंत लोग दौड़े हैं, लेकिन सभी खाली हाथ लौट आए हैं। सुख चाहता है न! लेकिन दिशा तेरी गलत है।
पंचस्कंध बुद्धों का विशिष्ट शब्द है। बुद्ध कहते हैं, मनुष्य का व्यक्तित्व बना है दो चीजों से—नाम, रूप। रूप यानी देह। नाम यानी मन। रूप यानी स्थूल, नाम यानी सूक्ष्म। देह तो एक है, स्थूल देह तो एक है, मन के चार रूप हैं। उन चार के नाम हैं—वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान। ऐसे सब मिलाकर पाच। इन पांच से मनुष्य का व्यक्तित्व बना है। और इन पांच में ही जो जीता है, बुद्ध कहते हैं, पंचस्कंधों के समान दुख नहीं। स्वाद में जी रहे हैं, धन इकट्ठा करने में जी रहे हैं, पद में जी रहे हैं, राग में जी रहे हैं, आसक्ति में जी रहे हैं; देह को बचाने में लगे हैं कि मर न जाए बुढ़ापा न आ जाए साजने—सवारने में लगे हैं—इस तरह जो जी रहा है पंचस्कंधों में—या तो मन की वासनाएं हैं, पद की, महत्वाकांक्षाओं की, या शरीर की वासनाएं हैं, इन वासनाओं में जो जी रहा है, वह दुख में जीता है। अशांति में जीता है।
'और शांति से बढ़कर कोई सुख नहीं है।’
वह दुख ही दुख में जीता है, इसलिए इस तरह के जीवन की दिशा नर्क की दिशा है।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
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