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गुरुवार, 4 जनवरी 2018

दोस्‍तोव्‍सकी और फांसी—ओशो

दोस्‍तोव्‍सकी और फांसी—

     दोस्तोव्सकी को फांसी की सज़ा दी गई थी—रूस के एक चिंतक, विचारक और लेखक को। ठीक छह बजे उसका जीवन नष्‍ट हो ने वाला था, और छह बजने के पाँच मिनट पहले खबर आई , जार की कि वह क्षमा कर दिया गया है। एन वक्‍त पर उसकी फांसी की सज़ा माफ हो गई। दोस्‍तोव्‍सकी ने बाद में अपने संस्‍मरणों में लिखा है। कि उस क्षण जब छह बजने के करीब आ रहे थे तक मेरे मन में न कोई वासना थी और न कोई इच्‍छा थी। न कोई जीवन में रस था। न ही सपने बचे थे। क्‍योंकि सपनों के लिए समय चाहिए था। अभिलाषाओं के, इच्‍छा और के समय चाहिए था। वो मेरे पास नहीं था। उस समय मैं इतना शांत हो गया था। और मैं इतना शून्‍य हो गया था। कि मैंने उस क्षण में जाना कि साधु, संत जिस समाधि की बात करते है वह क्‍या है। लेकिन जैसे ही जार का आदेश पहुंचा और मुझे सुनाया गया कि मैं छोड़ दिया जा रहा  हूं।
मेरी फांसी की सज़ा माफ कर दी गई है। अचानक जैसे मैं किसी शिखर से नीचे गिर गया। बस वापस लौट आय धरातल पर। सब इच्‍छाएं; सब क्षुद्र तम इच्‍छाएं, जिनका कोई मुल्‍य नहीं था, क्षण भर पहले, वह सब वापस लौट आयी। पैर तक मैं जूता काट रहा था। उसका फिर पता चलने लगा। जूता काट रहा था पैर में उसको में क्षण भर पहले कैसे भूल गया था। जैसे की वो भी कोई दर्द है। उस जूते का ख्‍याल आ गया की ये जूता तो पुराना हो गया है। अब जाकर नया जूता लेना है। कैसा जूता लूगा। रंग कैसा होगा। ये सारे विचार पल में आंधी की तरह मेरे मन पर छा गये। पल के हिस्‍से में और न जाने कितनी योजनाएं तैयार हो गई। दोस्तोव्सकी कहता था—उस शिखर को मैं दुबारा नहीं छू पाया। वो मेरे जीवन का दुर्लभ अनुभव था। जो उस क्षण आसन्‍न मृत्‍यु के निकट अचानक घटित हुआ था।
      हुआ क्‍या था? उस क्षण दोस्तोव्सकी को, अब मृत्‍यु इतनी सुनिश्चित हो तो चेतना सब संबंध छोड़ देती है। इसलिए समस्‍त साधकों ने मृत्‍यु के सुनिश्‍चित के अनुभव पर बहुत जोर दिया है। बुद्ध तो भिक्षुओं को मरघट में भेज देते थे कि तुम तीन महीने लोगों को मरते, जलते, मिटते, राख होते देखो। और देखो जो प्रिय उन्‍हें कल तक सीने से लगाये थे। किस तरह से अपने ही हाथ उसे जला देते है। ताकि तुम्‍हें अपनी मृत्‍यु बहुत सुनिश्‍चित हो जाये। और जब तीन महीने बाद कोई साधक मृत्‍यु पर ध्‍यान करके लौटता था तो जो पहली घटना उसके मित्रों को दिखाई पड़ती थी, वह थी रस परित्याग। रस चला गया। रस के जाने का सूत्र है—चेतना और मन का संबंध टुट जाएं। वह संबंध कैसे टूटेगा। और संबंध कैसे निर्मित हुआ है। जब तक मैं सोचता हूं। मैं मन हूं—तब तक संबंध है। यह आइडेंटिटी, तादात्म्य कि मैं मन हूं, तब तक संबंध है। यह संबंध का टूट जाना यह जानना कि मैं मन नहीं हूं।
ओशो
बारहवां प्रवचन
दिनांक 29अगस्‍त,1971;
पाटकर हाल, बम्‍बई

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