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गुरुवार, 4 जनवरी 2018

आशु प्रज्ञ--प्रकृति दत्‍त या संकल्‍प जन्‍य—ओशो

आशु प्रज्ञ--प्रकृति दत्‍त या संकल्‍प जन्‍य—



आशु प्रज्ञ होना प्रकृति दत्‍त आकस्‍मिक घटना नहीं है। साधना जन्‍य परिणाम है। प्रकृति है अचेतन। आपको भूख लगती है, यह प्रकृति-दत्‍त है। आपको प्‍यास लगती है ये प्रकृति दत्‍त है। आप सोते है रात, आप जागते है सुबह ये प्रकृति दत्‍त घटना है। ये सब अचेतन है। इसमें आपको कुछ भी नहीं करना पडा है। यह आपने पाया है। यह आपके शरीर के साथ जुड़ा है। लेकिन एक आदमी ध्‍यान करता है, यह प्रकृति दत्‍त नहीं है। अगर आदमी न करे तो अपने आप यह कभी भी न होगा। भूख लगेगी अपने आप, प्‍यास लगेगी अपने आप। ध्‍यान अपनेआप नहीं लगेगा। कामवासना जगेंगे अपने आप, मोह के बंधन निर्मित हो जायेंगे अपने आप, लोभ पकड़ेगा अपने आप। धर्म नहीं पकड़ेगा अपने आप। इसे ठीक से समझ लें।

      धर्म निर्णय है, संकल्‍प है, चेष्टा है इस्टेशऩ है। बाकी बस इंस्टिंक्ट है। बाकी सब प्रकृति हे। आपके जीवन में जो अपने आप हो रहा है वह प्रकृति हे। जो आप करेंगे तो ही होगा और तो भी बड़ी मुश्‍किल से होगा। वह धर्म हे। जो आप करेंगे, तभी होगा, बड़ी मुश्‍किल से होगा क्‍योंकि प्रकृति पूरा विरोध करेगी। कि यह क्‍या कर रहे हो, इसकी क्‍या जरूरत है? पेट कहेगा, ध्‍यान की क्‍या जरूरत है? भोजन की जरूरत है। शरीर कहेगा, नींद की जरूरत है, ध्‍यान की क्‍या जरूरत है? काम ग्रंथियां कहेगी कि काम की , प्रेम की जरूरत है। धर्म की क्‍या जरूरत है।
      तो धर्म बिलकुल गैर जरूरी है। इसीलिए तो जो आदमी केवल शरी की भाषा में सोचता है वह कहता है, धर्म पागलपन है। शरीर के लिए कोई जरूरी नहीं है। बिहेवियरिस्‍ट्स है। शरीवादी मनोवैज्ञानिक है; वे कहते है क्‍या पागलपन है? धर्म की कोई जरूरत नहीं है। और जरूरतें है, धर्म की क्‍या जरूरत है। समाजवादी है, कम्‍युनिस्‍ट है, वे कहते है धर्म की क्‍या जरूरत है? और जरूरतें समण्‍ में आती है। क्‍योंकि उनको खोजा जो सकता है। धर्म की जरूरत समझ में नहीं आती। कहीं कोई कारण नहीं है। इसलिए पशुओं में सब है जो आदमी में है। सिर्फ धर्म नहीं है। और जिस आदमी के जीवन में धर्म नहीं है, उसको अपने को आदमी कहने का कोई हक नहीं है। क्‍योंकि पशु के जीवन में सब है जो आदमी के जीवन में है। ऐसे आदमी के जीवन में,जिसके जीवन में धर्म नहीं है वह कहां सक अपने को अलग करेगा पशु से?
      पशु प्रकृति-जन्‍य है। आदमी भी प्रकृति जन्‍य है जब तक धर्म उसके जीवन में प्रवेश नहीं करता। उसी दिन मनुष्‍य प्रकृति से परमात्‍मा की तरफ उठने लगा।
      प्रकृति है निम्‍नतम,अचेतन छोर; परमात्‍मा है अंतिम छोर, आत्यंतिक। जो आने आप हो रहा है। अचेतना में हो रहा है, वह है प्रकृति। जो होगा चेष्टा से, जागरूक प्रयत्‍न से वह है धर्म। और जिस दिन यह प्रश्‍न इतना बड़ा हो जायेगा कि अचेतन कुछ भी नह रह जायेगा। भूख भी लगेगी तो मेरी आज्ञा से प्‍यास भी लगेगी तो मेरी आज्ञा से, चलूंगा तो मेरी आज्ञा से, उठुंगा तो मेरी आज्ञा से,शरीर भी जिस दिन प्रकृति ने रह जायेगा। अनुशासन बन जायेगा। उस दिन व्यक्ति परमात्मा हो जायेगा।
      अभी तो हम जो भी कर रहे है, सोचते भी है तो, मंदिर भी जाते है तो प्रार्थना भी करते है तो ख्‍याल कर लेना, प्रकृति जन्य तो नहीं है। हमारा तो धर्म भी प्रकृति जन्य होता है। इसलिए धर्म नहीं होगा। जिसको हम धर्म कहते है हव धोखा है धर्म का। इसलिए जब आप दुख में होते है। धर्म की याद आती है। सुख में नहीं आती।
      आदमी की असामर्थ्यता उसका धर्म है। आदमी की नपुंसकता उसका धर्म है? उसकी विवशता? जब वह कुछ नहीं कर पाता तब वह परमात्‍मा की तरफ चल पड़ता है। तब तो उसका मतलब यह हुआ कि वह परमात्‍मा की तरफ भी किसी प्रकृति जन्‍य प्‍यास या भूख को पूरा करने जा रहा है। अगर आप परमात्‍मा के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते है कि मेरे लड़के की नौकरी लगा दे। कि मेरी पत्‍नी की बीमारी ठीक कर दे। तो उसके अर्थ क्‍या हुआ? उसका अर्थ हुआ की आपकी भूख तो प्रकृति-जन्‍य है। और आप परमात्‍मा के सामने हाथ जोड़ कर खड़े है। आप परमात्‍मा से भी थोड़ी सेवा लेने की उत्‍सुकता रखते है। थोड़ी अनुगृहीत करना चाहते है। उसको भी कि थोड़ा सेवा का अवसर देना चाहते है। इसका ऐसे धर्म का कोई भी संबंध धर्म से नहीं है।
      यह तो आशु प्रज्ञा होना है, यह प्रकृति दत्‍त नहीं है। यह आपकी इन्‍सटिंक्‍ट आपकी मूल वृतियां से पैदा नहीं होगी। कब होगा पैदा यह। अगर यह प्रकृति से पैदा नहीं होगा तो फिर पैदा कैसे होगा। यह कठिन बात मालूम होती है। यह तब पैदा होता है जब हम प्रकृति से ऊब जाते है। यह तब पैदा होता है जब हम प्रकृति से भर जाते है। यह तब पैदा होता है जब हम देख लेते है कि प्रकृति में कुछ भी पाने को नहीं है। यह दुःख से पैदा नहीं होता। जब हमें सुख भी दुःख जैसा मालूम लगता है, तब पैदा होता है। यह अतृप्‍ति से पैदा नहीं होता है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
      प्रकृति की सब भूख प्‍यास कमी से पैदा होती है। शरीर में पानी की कमी है तो प्यास पैदा होती है। शरीर में भोजन की कमी है तो भूख पैदा होती है। शरीर में वीर्य ऊर्जा ज्‍यादा इकट्ठी हो गयी तो कामवासना पैदा होती है। फेंको उसे बाहर। उलीचो उसे फेंक दो उसे खाली हो जाओ ताकि भर सको।
      शरीर दो तरह की जरूरतें है—भरने की और निकालने की। जो चीज नहीं है उसे भरों जो ज्‍यादा है उसे निकालों। यह शरी की कुल दुनियां है। वीर्य भी एक मल है। जब ज्‍यादा हो जाये तो उसे फेंक दो बाहर,नहीं तो वि बोझिल करेगा। सिर को भारी करेगा।
      ये जो दो जरूरतें है—जब कमी हो तो भरों, जब ज्‍यादा हो तो निकालों। इसलिए दुनिया में इतनी कामवासना दिखाई देती है। उसका कारण यह है कि भरने की जरूरत काफी दूर तक लोगों की पूरी हो गयी है। निकालने की जरूरत बढ़ गई है। भूखा आदमी है, गरीब आदमी है मकान नहीं कपड़ा नहीं है, प्रतिपल भरने की चिंता है, तो निकालने की चिंता का सवाल नहीं उठता। इसलिए आज अगर अमरीका में एकदम कामुकता है तो उसका कारण आप यह मत समझना की अमरीका अनैतिक हो गया है। जिस दिन आप भी इतना समृद्धि में होंगे, इतनी की कामुकता इस देश में भी होगी। क्‍योंकि जब भरने का काम पूरा हो गया तो अब निकलने का ही काम बचा। जब भोजन की कोई जरूरत नहीं रह तो संभोग की ही, सेक्‍स की ही जरूरत रह जाती है। और कोई जरूरत बची नहीं।
      भोजन भरना है संभोग निकलना है। तो भोजन ज्‍यादा होगा तो तकलीफ शुरू होगी। इसलिए सभी सभ्‍यताएं जब भोजन की जरूरत पूरा कर लेती है तब कामुक हो जाती है। इसलिए हम बड़े हैरान होते है कि समृद्ध लोग अनैतिक क्‍यों हो जाते है। गरीब आदमी सोचता है हम बड़े नैतिक है। अपनी पत्‍नी से तृप्‍त है। ये बड़े आदमी समृद्ध आदमी तृप्‍त नहीं होते,शांत क्‍यों नहीं होते, ये क्‍यों भागते रहते है।
      यह जो स्‍थिति है, यह तो प्रकृति गत है। धर्म कहां से शुरू होगा है? धर्म वहां से शुरू होता है जहां भरना भी व्‍यर्थ हो गया। निकालना भी व्‍यर्थ हो गया। जहां दुःख तो व्‍यर्थ हो ही गया। सुख भी व्‍यर्थ हो गया। जहां प्रकृति व्‍यर्थ मालूम होने लगी।
महावीर वाणी-भाग दो
प्रवचन-दूसरा,
दिनांक 14 सितम्‍बर 1972,
पाटकर हाल, बम्‍बई

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