एक दिन भगवान पंचसाला नामक ब्राह्मणों के गांव में भिक्षा टन के लिए गए। मार ने—शैतान ने—पहले ही ग्रामवासियों में आवेश कर ऐसा किय कि भगवान को किसी ने कलछी मात्र भी भिक्षा न दी। ब्राह्मणों का गांव, यह खयाल में रखाना। खतरनाक गांव है। सब पंडित-ज्ञानी है। जब भी बुद्ध पुरूष हुए है तो पंडितों ने उन्हें इनकार किया है। जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे पंडित थे, ब्राह्मण थे, पुरोहित थे। येरूशलम के बड़े मंदिर का प्रधान पुरोहित उसमें सम्मिलित था। पुरोहितों की कौंसिल ने निर्णय किया था। जितने बड़े पंडित थे यहूदियों के, सब ने यह निर्णय दिया था कि यह आदमी मार डालने योग्य है। यह आदमी खतरनाक है।
पंडित ज्ञान के पक्ष में नहीं होता। यह थोड़ा समझना कि क्या बात है। होना तो चाहिए पंडित को ज्ञान के पक्ष में, लेकिन पंडित ज्ञान के पक्ष में नहीं होता। क्यों? क्योंकि अगर बुद्ध सही है तो फिर पंडित का सारा ज्ञान थोथा सिद्ध हो जाता है। वह तो शास्त्र से पाया, वह तो किताब से पाया। और बुद्ध उसे अपने भीतर जगाए है, अपने भीतर उठाए है। बुद्ध का शस्त्र उनकी चेतना में हैं और पंडित का शास्त्र तो बाहर है। किताबी ज्ञान को ही वह अब तक ज्ञान मानता रहा है।
तो जब असली ज्ञान सामने खड़ा होगा तो उसका ज्ञान एकदम फीका पड़ जाता है। असली सिक्के को देखकर नकली सिक्का अगर नाराज होता हो तो आश्चर्य तो नहीं। और फिर नकली सिक्के बहुत है। इसलिए नकली सिक्के अगर इकट्ठे हो जाते हों असली सिक्के के खिलाफ, तो भी कुछ अचरज नहीं। और सभी नकली सिक्के अगर मिलकर असली सिक्के की हत्या कर देते हों तो भी कुछ आश्चर्य नहीं।
तो पहली बात—पंचसाला नामक ब्राह्मणों का गांव। जिसमें ब्राह्मण ही ब्राह्मण बसते थे। अगर कोई एकाध भी ऐसा आदमी होता तो पंडित न होता तो शायद दया खा जाता। पंडित से क्या दया की आशा। और दूसरे मजे की बात है—जीसस ने कहा है कि शैतान भी शास्त्रों के उद्धरण देता है। तो मार ने, जो कि बौद्धो की शैतान की धारणा है, अगर पंडितों को राज़ी कर लिया हो बुद्ध के खिलाफ तो कुछ आश्चर्य नहीं,क्योंकि शैतान खुद भी महा पंडित है।
तुम्हें शायद पता न हो, ईसाइयत की यह धारणा है—शैतान देवता है, लेकिन उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया है। क्योंकि वह ईश्वर से भी वाद-विवाद करने को उत्सुक था। पंडित रहा होगा, ब्राह्मण रहा होगा। तो शैतान बातें तो बड़ी शास्त्रीय बोलता है। इसलिए शास्त्र जानने वालों से उसका तालमेल हो जाता है। इसलिए सारे पुरोहित और पंडित शैतान की सेवा में लग जाते है। मंदिर बनते तो भगवान के नाम पर है। लेकिन करते शैतान की सेवा है। पुरोहित पूजा का थाल तो सजाते है भगवान के लिए, लेकिन उतरती है आरती शैतान की।
तो कथा कहती है कि भिक्षाटन के लिए ब्राह्मणों के इस गांव में गए। मार ने पहले ही ग्राम वासियों में आवेश कर ऐसा किया कि भगवान को किसी के कलछी मात्र भी भिक्षा न दी। ऐसी दुर्घटनाएँ रोज होती है। फिर हजारों साल तक बुद्धों के लिए रोते है। आंसू बहाते है। और कभी हम ऐसा भी कहते है कि एक कलछी भेंट भी, भिक्षा भी उनको नहीं देते। कभी हमसे सिर्फ अपमान ही मिलता है उनको। और फिर हम सदियों तक रोते और सम्मान करते। उस सम्मान से भी वह अपमान पोंछा नहीं जा सकता है। क्योंकि वह अपमान बुद्धों का अपमान नहीं,अंतत: अपना ही अपमान है। क्योंकि वह अपने भीतर ही बुद्धत्व को अस्वीकार करना है। वह अपने भीतर जागने की संभावना को इनकार करना है।
फिर जब भगवान खाली पात्र गांव से बाहर आने लगे तब मार आया होगा। पूछने कि कहो कैसी रहीं। क्या श्रमण, कुछ भी भिक्षा नहीं मिली। इनको तुम भीतर के प्रतीक समझो। ऐसा कोई शैतान आकर खड़ा नहीं हो गया होगा। ऐसा नहीं है? मन के ही शैतान ने भीतर कहा होगा कि अरे। तुमने इतना ज्ञान पाया है, इतनी समाधि लगायी,इतना बुद्धत्व पाया और इन दुष्टों ने भीख भी न दी। इन पापियों ने भीख भी नहीं दी। यह कोई बहार खड़ा हो गया शैतान, ऐसा नहीं है। यह शैतान सबके भीतर सोया पडा है। यह तुमसे भी रोज-रोज इसकी मुलाकात होती है। शैतान ने कहा होगा, अभिशाप दे दो कि नष्ट हो जाए यह गांव। ये आदमी कहलाने योग्य नहीं। भड़काया होगा।
यही शैतान उन आदमियों के भीतर बैठा है। इसी शैतान ने उन्हें भड़काया है। इसी शैतान ने उनसे कहा है, यह बुद्ध आ रहा है। यह अपने को ढोंगी समझता है कि हम ज्ञान को उपलब्ध हो गए है। कि हम भगवान हो गए है। यह पाखंडी है। एक तो क्षत्रिय है। पहली बात तो यह ब्राह्मण नहीं है। दूसरी बात ये वेद को नहीं मानता। तीसरी बात, यह विधि-विधान को नहीं मानता। चौथी बात-यह घोषणा करता है कि मैंने पा लिया जो कभी किसी ने नहीं पाया। अपूर्व समाधि मुझे उपलब्ध हुई है। यह बस अहंकार है। यह बस व्यर्थ की बातें हे। यह लोगों को भरमाता है। भटकाता है। धर्म से भ्रष्ट करता है। ऐसा भीतर के शैतान ने गांव के लोगों को कहा होगा। इसको भिक्षा मत देना। इसको भिक्षा देना पाप है। क्योंकि तुम्हारी भिक्षा से जिएगा और लोगों को भटकाएगा, भरमाएगा, तो तुम भी साझीदार हुए। इसको देना ही मत। इसको साफ पता चल जाए कि इसका यही कोई स्वीकार नहीं है। इसका अपमान पूर्ण है।
और यही शैतान बुद्ध के भीतर बोला होगा। मन शैतान है। मन गलत की तरफ ले जाने की चेष्टाए करता है । मन संसार की तरफ ले जाने की आकांक्षाओं को जगाता है। तो शैतान ने कहा, क्या श्रमण। कुछ भी भिक्षा नहीं मिली? अरे तुम, तुम जो कि बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए और तुम्हें भीख भी नहीं मिल रही। यह बात क्या है।
बुद्ध ने कहा, नहीं, नहीं मिली भीख। तू भी सफल रहा और मैं भी सफल रहा हूं। मार समझा नहीं। मन तर्क तो समझता है। तर्क के पार नहीं समझता। शैतान तर्क तो समझ लेता है, लेकिन तर्कातीत शैतान की सीमा के बाहर है। इसलिए तो सभी धर्म कहते है, जब तक तुम तर्कातीत न हो जाओगे तब तक मन के पार न हो सकोगे। श्रद्धा का अर्थ है, तर्कातीत हो जाना।
बुद्ध ने जब यह कहा कि मैं भी सफल, तू भी सफल; तू भी खुश हो, हम भी खुश है। शैतान की बात में कुछ किसी तरह का व्यवधान बुद्ध को पैदा न हुआ। तो शैतान पूछने लगा,यह कैसे? या तो मैं सफल, या तूम जीते। मन ऐसा तो कभी मानता ही नहीं कि हम दोनों जीत जाएं। लेकिन कुछ ऐसी घड़ियाँ है जब दोनों जीत जाते है। समझ हो ता हार होती ही नहीं। हार में भी हार नहीं होती। इसी समझ का सूत्र है इस कथा में।
बुद्ध ने कहा नहीं यह बात तर्क हीन नहीं है। तर्कातीत भला हो। मगर तर्क स्पष्ट है—तू सफल हुआ लोगों को भ्रष्ट करने मे, भ्रमित करने में। वही तेरा काम है। तेरी सफलता पूरी रही। तू खुश हो, तू जा नाच, गा, आनंद कर। तू सफल हुआ। लोगों ने तेरी मान ली। और मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में। अपमान भारी था। द्वार-द्वार भीख मांगने गया और दो दाने भिक्षा पात्र में न पड़े।
तुम जरा सोचों, एक सम्राट का बेटा, जिसके पास सब था। जो हजारों लाखों भिक्षुओं को भोजन रोज करा सकता था। वह आज भिक्षा पात्र लेकर भिखारियों के गांव में गया है—ब्राह्मण यानी भिखारी। सम्राट भिखारियों के गांव में जा कर भीख मांग रहा है। और देखो उसे भिखारियों ने भी खाली लोटा दिया। चोट तो लगती होगा। पीड़ा तो हुई होगी।
लेकिन बुद्ध ने कहा, मैं अप्रभावित ही रहा। इसलिए सफल हुआ। खूब सफल हुआ। तूने एक सौभाग्य का अवसर जुटा दिया। अपनी सफलता को जानने का एक मौका बना दिया ओर यह भोजन से भी ज्यादा पुष्टि दायी है। भोजन से तो ठीक शरीर भरता है, लेकिन यह अप्रभावित रहना, इससे मेरी आत्मा बड़ी पुलकित हुई है।
इसका मैं कहता हूं, दृष्टि, दर्शन; इसको मैं कहता हूं आँख। असली आँख तो अंधेरे को भी रोशनी में बदल लेती है और कांटे को फूल बना लेती है। जहर को अमृत कर लेती है। बीमारी औषधि बन जाती है। और आँख न हो तो अमृत भी जहर हो जाता है। और फूल भी कांटे हो जाते है। सारी बात आँख की है। सारी बात देखने की है। देखने के ढंग की है, फिर तुम्हारी व्याख्या।
मार ने कहा तो भंते, फिर प्रवेश करें। क्योंकि मार को तो यह बात समझ में आया नहीं। मार ने तो यह बात सुनी नहीं सुनी बराबर हो गयी। उसने तो कहा,तो फिर एक मौका और लेना चाहिए। अगर यह अभी तक क्रोधित नहीं हुआ। नाराज नहीं हुआ। नाराज हो जाता तो मन के प्रभाव में आ जाता। नाराज हो जाता तो मार का प्रभाव शुरू हो जाता। यह नाराज नहीं हुआ, एक दफा और समझा बुझा कर इसको गांव में भेज दें। क्योंकि गांव के ब्राह्मणों पर तो भरोसा है, वे तो फिर इसको इनकार करेंगे। शायद ओर भी जोर से दुत करेंगे कि तू फिर आ गया। और इसको शायद फिर कुछ क्रोध आ जाये।
तो बुद्ध को फुसलाने लगा कि आप ऐसा करें, फिर प्रवेश करें गांव में, शायद भिक्षा मिल ही जाए। दिन भर भूखे रहने में सार क्या है। इन बातों में क्या रखा है। ये तो उसे बातें ही मालूम होती है कि अप्रभावित रहा, या आनंद का रस बरसा। मेरा पूरा पात्र तो रस से भर हुआ है। उसने पात्र को देखा होगा। वह तो खाली दिख रहा था। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। मन को तो आनंद की बात समझ में आती ही नहीं। मन तो एक ही भाषा जानता है। वह दुःख की भाषा।
बुद्ध ने कहा नहीं जो बात गयी सो गयी। बुद्ध लौट कर नहीं देखते। बुद्ध लौटकर नहीं जाते। जो होना था हो गया। जो नहीं होना था नहीं हुआ। यह बात आयी गयी हो गयी। पुनरूक्ति में बुद्धों को कोई रस नहीं है। बुद्ध सदा नए में प्रवेश करते है। फिर आज का सुअवसर हम आभास्वर लोक के ब्रह्माओं की भांति प्रीतिसुख से ही बताएँगे। और तब यह कहीं—
सुसुखं वत। जीवमयेगं नौ नित्थि किज्चिना।
पीतिभक्खा भविस्साय देवा आभस्सरा यथा।।
( जिसके पास कुछ भी नहीं है, अहो, वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे है। आभास्वर के देवताओं की भांति हम भी प्रीति भोजी होंगे।)
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
प्रवचन—69
पूना।
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