(ज्योतिष और अध्यात्म)
इजिप्ट
के एक सम्राट ने आज से चार हजार साल पहले अपने वैज्ञानिको को कहा था कि नील नदी
में जब भी जल घटता है, बढ़ता है, उसका पूरा ब्योरा रखा
जाए। अकेली नील एक ऐसी नदी है जिसकी चार हजार वर्ष की बायो ग्राफी है। उसकी जीवन
कथा है पूरी। और किसी नदी की कोई बायो ग्राफी नहीं है। उसकी जीवन कथा है पूरी, कब इसमें इंच भर पानी बढ़ा है, उसका पूरा रिकार्ड
है—चार हजार वर्ष फैरोहों के जमाने से लेकर आज तक।
फैरोहों
का अर्थ होता है—सूर्य, इजिप्ट भाषा में। फैरोहों, जो इजिप्ट
के सम्राटों का नाम था, वह सूर्य के आधार पर है। और इजिप्ट
में ऐसा ख्याल था कि सूर्य और नदी के बीच निरंतर संवाद है। और फैरोहों, जो कि सूर्य का भक्त थे। उन्होंने कहा कि नील का पूरा रिकार्ड रखा जाए।
सूर्य के संबंध में तो हमें अभी कुछ पता नहीं है लेकिन कभी तो सूर्य के संबंध में
पता हो जाएगा, तब यह रिकार्ड काम दे सकता हे। तो चार हजार
साल की पूरी कथा है नील नदी की। उसमें इंच भर पानी कब बढ़ा, इंच
भर कब कम हुआ, कब उसमें पर आया, कब पूर
नहीं आया। कब नदी बहुत तेजी से बही और कब नदी बहुत धीमी बही,
इसका चार हजार वर्ष का लंबा इतिहास इंच-इंच उपलब्ध है।
इजिप्ट
के एक विद्वान तस्मान ने पूरे नील की कथा लिखी और अब सूर्य के संबंध में वे बातें
ज्ञात हो गयीं जो फैरोहों के वक्त ज्ञात नहीं थी। और जिसके लिए फैरोहों ने कहा
था। प्रतीक्षा करना। इन चार हजार साल में जो कुछ भी नील नदी में घटित हुआ है वह
सूरज से संबंधित है। और नब्बे वर्ष की रिद्म का पता चलता है, हर
नब्बे वर्ष में सूर्य पर अभूतपूर्व घटना घटती है। वह घटना ठीक वैसी ही है जिसे हम
मृत्यु कहते हे—या जन्म कह सकते हे।
ऐसा
समझ लें, सूर्य नब्बे वर्ष में पैंतालीस वर्ष तक जवान होता है और
पैंतालिस वर्ष तक बूढा होता हे। उसके भीतर जो ऊर्जा के प्रवाह बहते है वह पैंतालीस
वर्ष तक तो जवानी की तरफ बढते है क्लाइमैक्स की तरफ जाते है। सूरज जैसे जवान होता
चला जाता है। और पैंतालीस साल के बाद ढलना शुरू हो जाता है। उसकी उम्र जैसे नीचे
ढलने-गिरने लगती है और नब्बे वर्ष में सूर्य बिलकुल बूढ़ा हो जाता हे।
नब्बे
वर्ष में जब सूर्य बूढ़ा होता है तब सारी पृथ्वी भूकंपों से भर जाती है। भूकंपों
का संबंध नब्बे वर्ष के वर्तुल से है। सूर्य उसके बाद फिर जवान होना शुरू होता
हे। वह बड़ी भारी घटना है। क्योंकि सूरज पर इतना परिवर्तन होता है कि पृथ्वी
उससे कंपित हो जाए,यह बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन जब पृथ्वी जैसी महाकाय वस्तु
भूकंपों से भर जाती है। तो आदमी जैसी छोटी सी काया में कुछ भी न होता होगा? ज्योतिषी सिर्फ यही पूछते रहे है। वे कहते है, यह
असंभव हे। पता हो तुम्हें या न हो लेकिन आदमी की काया भी अछूती नहीं रह सकती।
पैंतालीस
वर्ष जब सूरज जवान होता है उस वक्त जो बच्चे पैदा होते है, उनका
स्वास्थ अदभुत रूप से अच्छा होगा। और जब पैंतालीस वर्ष सूरज बूढा होता है। उस
वक्त जो बच्चे पैदा होंगे उनका स्वास्थ्य कभी भी अच्छा नहीं हो पता। जब सूरज
खुद ही ढलाव पर होता है तब जो बच्चे पैदा होते है उनकी हालत ठीक वैसी है जैसी
पूरब को नाव ले जानी हो और पश्चिम को हवा बहती हो। तो फिर बहुत डाँड़ चलाने पड़ते
है, फिर पतवार बहुत चलानी पड़ती है और पाल काम नहीं करते।
फिर पाल खोलकर नाव नहीं ले जायी जा सकती, क्योंकि उल्टे बहना पड़ता है।
इस
संबंध में अब वैज्ञानिकों को प्रतीत होने लगा है कि सूरज जब अपनी चरम अवस्था में
आता है तब पृथ्वी पर कम से कम बीमारियां होती है। और जब सूरज अपने उतार पर होता
है तब पृथ्वी पर सर्वाधिक बीमारियां होती है। पृथ्वी पर पैंतालीस साल बीमारियां
के होते है और पैंतालीस साल कम बीमारियों के होते है। नील ठीक चार हजार वर्षों में
हर नब्बे वर्ष में इसी तरह जवान और बूढी होती है। जब सूरज जवान होता है तब
नील में सर्वाधिक पानी होता है। वह
पैंतालीस वर्ष तक उसमें पानी बढ़ता चला जाला है। और जब सूरज ढलने लगता है, बूढा
होने लगता है तो नील का पानी नीचे गिरता चला जाता है, फिर वह
शिथिल होने लगती है और बूढ़ी हो जाती है।
आदमी
इस विराट जगत में कुछ अलग-थलग नहीं है। इस सबका इकट्ठा जोड़ है। अब तक हमने जो भी
श्रेष्ठतम घड़ियाँ बनाई है वह कोई भी उतनी टु द टाइम, इतनी
ठीक से समय नहीं बताती जितनी पृथ्वी बताती है। पृथ्वी अपनी कील पर तेईस घंटे छप्पन
मिनट में एक चक्कर पूरा करती है। उसी के आधार पर हमने चौबीस घंटे का हिसाब तैयार
किया हुआ है। और हमने घड़ी बनायी है। और पृथ्वी काफी बड़ी चीज है। अपनी कील पर वह
ठीक तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्र पूरा करती हे। और अब तक कभी भी ऐसा नहीं
समझा गया था कि पृथ्वी कभी भी भूल करती है एक सेकेंड की भी। लेकिन कारण कुल इतना
था कि हमारे पास जाँचने के ठीक उपाय नहीं थे। और हमने साधारण जांच की थी।
लेकिन
जब नब्बे वर्ष का वर्तुल पूरा होता है। सूर्य का तो पृथ्वी की घड़ी एकदम डगमगा
जाती है। उस क्षण में पृथ्वी ठीक अपना वर्तुल पूरा नहीं कर पाती। ग्यारह वर्ष में
जब सूरज पर उतार होता है—जब भी पृथ्वी अपनी यात्रा में नए-नए प्रभावों के अंतर्गत
आती है तभी उसकी अंतर् घड़ी डगमगा जाती है।
जब
भी कोई नया प्रभाव, कोई नया काज्मिक इन्फ्लुएंस कोई महा तारा करीब हो जाता
है तभी ऐसा हो जाता है। और करीब का मतलब, इस महा-आकाश में
बहुत दूर होने पर भी चीजें बहुत करीब हैं। क्योंकि सब अदृश्य संबंधों से गुँथा
हुआ है। हमारी भाषा बहुत समर्थ नहीं है क्योंकि जब हम कहते हैं, जरा-सा करीब आ जाए तो हम सोचते है जैसे कोई हमारे पास आदमी आ गया। नहीं
फासले बहुत बड़े है। उन फ़ासलों में जरा सा भी अंतर पड़ जाता है। जो कि हमें कहीं
पता भी नहीं चलेगा तो भी पृथ्वी की कील डगमगा जाती है।
पृथ्वी
को हिलाने के लिए बड़ी शक्ति की जरूरत है। इंच भर हिलाने के लिए भी तो महा
शक्तियां जब गुजरती है पृथ्वी के पास से, तभी वह हिल पाली है। लेकिन वह महा
शक्तियां जब पृथ्वी के पास से गुजरती है तो हमारे पास से भी गुजरती है। और ऐसा
नहीं हो सकता है कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर लगे वृक्ष कंपित न हों। और ऐसा
भी नहीं हो सकता है कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर जीता और चलता हुआ मनुष्य
कंपित न हो—सब कंप जाता है।
लेकिन
कंपन इतने सूक्ष्म है कि हमारे पास कोई उपकरण नहीं थे अब तक कि हम जांच करते कि
पृथ्वी कंप जाती है। लेकिन अब तो उपकरण है।
सेकेंड के हजार वें हिस्से में भी कंपन होता है तो हम पकड़ लेते है। लेकिन
आदमी के कंपन को पकड़ने के उपकरण अभी भी हमारे पास नहीं है। वह मामला ओर भी सूक्ष्म
है।
आदमी
इतना सूक्ष्म है, और होना जरूरी है, अन्यथा जीना मुश्किल
हो जाएगा। अगर चौबीस घंटे आपको चारों और के प्रभावों का पता चलता रहे तो आप जी न
पाएंगे। आप जी सकते है तभी, जब कि आपको आस-पास के प्रभावों
के कोई पता नहीं चलता । एक और नियम ये है कि न तो हमें अपनी शक्ति से छोटे
प्रभावों का पता चलता है और न अपनी शक्ति से बड़े प्रभावों का पता चलता है। हमारे
प्रभाव के पता चलने का एक दायरा है।
जैसे
समझ लें कि बुखार चढ़ता है तो 98 डिग्री हमारी एक सीमा है। और 110 डिग्री हमारी
दूसरी सीमा है। 12 डिग्री में हम जीते हे। 90 डिग्री से नीचे गिर जाए तापमान तो हम
समाप्त हो जाते है। उधर 110 डिग्री के बाद जाए तो हम समाप्त हो
जाते है। लेकिन क्या आप समझते है, दुनिया में गर्मी 12
डिग्री की ही होती है?
आदमी
12 डिग्री के भीतर ही जीता है। दोनों सीमा और के इधर-उधर गया कि खो जाएगा। उसका एक
बैलेंस, संतुलन है। 98 और 110 के बीच उसको अपने को सम्हाले रखना
है। ठीक ऐसा ही बैलेंस सब जगह है। मैं आपसे बोल रहा हूं आप सुन रहे है—अगर मैं
बहुत धीमे बो लूं तो ऐसी जगह आ सकती है कि मैं बो लूं और आप न सुन पाएँ। लेकिन यह
आपको यह ख्याल में न आएगा कि इतने जोर से बोला जाए कि आप न सुन पाएँ। आपको कठिन
लगेगा क्योंकि जोर से बोलेंगे तो सुनाई पड़ेगा ही।
नहीं
वैज्ञानिक कहते है हमारे सुनने की भी डिग्री है। उससे नीचे भी नहीं सुन पाते, उससे
ऊपर भी हम नहीं सुन पाते। हमारे आप पास भंयकर आवाजें गुजर रही है। लेकिन हम सुन
नहीं पाते। एक तारा टूटता है आकाश में, कोई नया ग्रह निर्मित
होता है या बिखरता है तो भयंकर गर्जना वाली आवाजें हमारे चारों तरफ से गुजरती है।
अगर हम उनको सुन पाएँ तो हम तत्काल बहरे हो जाएं। लेकिन हम सुरक्षित है क्योंकि
हमारे कान सीमा में ही सुनते है। जो सूक्ष्म है उसको भी नहीं सुनते, जो विराट है उसको भी नहीं सुनते। एक दायरा है बस उतने को सुन लेते है।
देखने
के मामले में भी हमारी वह सीमा है। हमारी सभी इंद्रियाँ एक दायरे के भीतर है, न
उसके ऊपर न उसके नीचे। इसीलिए आपका कुत्ता आपसे ज्यादा सूंघ लेता है। उसका दायरा
सूंघने का आपसे बड़ा है। जो आप नहीं सूंघ पाते,कुत्ता सूंघ
लेता है। जो आप नहीं सुन पाते, आपका घोड़ा सुन पाती है। उसके
सुनने का दायरा आपसे बड़ा है। एक डेढ़ मील दूर सिंह आ जाए तो घोड़ा चौककर खड़ा हो
जाता हे। डेढ़ मील के फासले पर उसे गंध आती है। आपको कुछ पता नहीं चलता। अगर आपको
सारी गंध आने लगें, जितनी गंध आपके चारों तरफ चल रही है तो
आप विक्षिप्त हो जाएंगे। मनुष्य एक कैप्सूल में बंद है,
उसका सीमित है, उसकी बाउंडरी है।
आप
रेडियों लगाते है और आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। क्या आप सोचते है, जब
रेडियों लगाते है तब आवाज आनी शुरू होती है/ आवाज तो पूरे समय बहती ही रहती है। आप
रेडियो लगाएँ या न लगाए। लगाते है तब रेडियों पकड़ लेता है,
बहती तो पूरे वक्त रहती है। दुनिया में जितने रेडियो है,
सबकी आवाजें अभी इस कमरे से गुजर रही है। आप रेडियो लगाएंगे तो पकड़ लेंगे। आप
रेडियों नहीं लगाते है, तब भी गुजर रही है। लेकिन आपको सुनाई
नहीं पड़ रही है। क्रमश:.........अगले अंक में।
ओशो
‘’ज्योतिष अर्थात अध्यात्म’’
प्रश्नोत्तर चर्चा,
वुडलैण्ड, बम्बई, दिनांक 10 जुलाई 1971,
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