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रविवार, 14 जनवरी 2018

चोरों का सरदार बुद्ध को सुन सन्यासी हुआ—(कथायात्रा—021)

(चोरों का सरदार बुद्ध को सुन सन्यासी  हुआ)


गवान के अग्रणी शिष्यों में से एक महाकात्यायन के शिष्य कुटिकण्ण सोण स्थविर कुररघर से जेतवन जा भगवान का दर्शन कर जब वापस आए तब उनकी मां ने एक दिन उनके उपदेश सुनने के लिए जिज्ञासा की और नगर में भेरी बजवाकर सबके साथ उनके पास उपदेश सुनने गयी। जिस समय वह उपदेश सुन रही थी उसी समय चोरों के एक बड़े गिरोह ने उसके घर में सेधं लगाकर सोना— चांदी हीरे— जवाहरात आदि ढोना शुरू कर दिया। एक दासी ने चोरों को घर में प्रवेश किया देख उपासिका को जाकर कहा।
उपासिका हंसी और बोली जा चोरों की जो इच्छा हो सो ले जावें; तू उपदेश सुनने में विध्‍न न डाल

चोरों का सरदार जो कि दासी के पीछे— पीछे उपासिका की प्रतिक्रिया देखने आया था यह सुनकर ठगा रह गया अवाक रह गया। उसने तो खतरे की अपेक्षा की थी।
वह उपासिका बड़ी धनी थी। उस नगर की सबसे धनी व्यक्ति थी। उसके इशारे पर हजारों लोग चोरों को घेर लेते। चोरों का भागना मुश्किल हो जाता। चोरों का सरदार तो डर के कारण ही पीछे—पीछे गया था कि अब देखें, क्या होता है! यह उपासिका क्या प्रतिक्रिया करती है!
और उपासिका ने कहा देख, जा; चोरों की जो इच्छा हो, सो ले जावें। तू उपदेश सुनने में विध्‍न न डाल।
स्वभावत:, चोरों का सरदार अवाक रह गया। उसने तो खतरे की .अपेक्षा की थी। लेकिन उपासिका के वे थोड़े से शब्द उसके जीवन को बदल गए। उन थोड़े से शब्दों से जैसे चिनगारी पड़ गयी; जैसे किसी ने उसे सोते से जगा दिया हो। जैसे एक सपना टूट गया। जैसे पहली बार आंख खुली और सूरज के दर्शन हुए। वह जागा इस सत्य के प्रति कि सोना— चांदी हीरे— जवाहरातों से भी ज्यादा कुछ मूल्यवान जरूर होना चाहिए। अन्यथा हम हीरे— जवाहरात ढो रहे हैं और यह उपासिका कहती है जा चोरों को जो ले जाना हो ले जाने दे; उपदेश में विध्‍न मत डाल। जरूर यह कुछ पा रही है जो हीरे— जवाहरातों और सोना— चांदी से ज्यादा मूल्यवान है। यह तो इतना सीधा गणित है।
उसने लौटकर अपने साथियों को भी यह बात कही— कि हम कूड़ा— कर्कट ढो रहे हैं। सोना वहां लुट रहा है! क्योंकि उपासिका ने कहा. जा ले जाने दे उनको जो ले जाना है। तू उपदेश में विश्व मत कर। वहां कुछ अमृत बरस रहा है मित्रो! हम भी चलें। वहां कुछ मिल रहा है उस स्त्री को जिसकी हमें कोई भी खबर नहीं है। कोई भीतरी संपदा बरसती है। कुछ लुट रहा है वहां और हम कूड़ा— कर्कट.।
उन्हें भी बात जंची। फिर उन्होंने चुराया हुआ सामान पुन: पूर्ववत रखा और सभी धर्म— सभा में आकर उपदेश सुनने बैठ गए। वहां उन्होंने अमृत बरसते देखा। वहां उन्होंने अलौकिक संपदा देखी। उसे फिर उन्होंने जी भरकर लूटा। चोर ही थे! फिर लूटने में उन्होंने कोई कमी नहीं की। कोई दुकानदार नहीं थे कि लूटने में डरते। उन्होंने दिल भरकर लूटा। उन्होंने दिल भरकर पीया। शायद जन्मों— जन्मों से इसी संपदा की तलाश थी इसीलिए चोर बने घूमते थे।
फिर सभा की समाप्ति पर वे सब उपासिका के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगे। चोरों के सरदार ने उपासिका से कहा. आप हमारी गुरु हैं। अब हमें अपने बेटे से प्रव्रज्या दिलवाएं। उपासिका अपने पुत्र से प्रार्थना कर उन्हें दीक्षित करायी। वे चोर अति आनंदित थे और संन्यस्त हो एकांत में वास करने लगे; मौन रहने लगे और ध्यान में डूबने लगे। उन्होंने शीघ्र ही ध्यान की संपदा पायी।

भगवान ने ये सूत्र इन्हीं भूतपूर्व और अभूतपूर्व चोरों से कहे थे।

सिज्‍च भिक्‍खु! इमं नावं सित्‍ता ते लहुमेस्‍सति
छेत्‍वा रागज्‍च दोसज्‍च निब्‍बाणमेहिसि ।।

 'हे भिक्षु, इस नाव को उलीचा, उलीचने पर यह तुम्हारे लिए हलकी हो जाएगी। राग और द्वेष को छिन्न कर फिर तुम निर्वाण को प्राप्त कर लोगे।'
पज्‍च छिन्‍दे पज्‍च जहे पज्‍च चुत्‍तरि भावये
पज्‍च संगातिगो भिक्‍खु ओधतिण्‍णोति वुच्‍चति ।।

 'जो पांच को काट दे, पांच को छोड़े, पांच की भावना करे और पांच के संग का अतिक्रमण कर जाए, उसी को बाढ़ को पार कर गया भिक्षु कहते हैं।'

नत्‍थि झानं अपज्‍जस्‍स पज्‍जानत्‍थि अझायतो
यम्‍हि झानज्‍च पज्‍जा च स वे निब्‍बाणसन्‍तिके ।।

 'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं होता, ध्यान न करने वाले को प्रज्ञा नहीं होती। जिसमें ध्यान और प्रज्ञा हैं, वही निर्वाण के समीप है।
पहले घटना को समझें।

गवान के अग्रणी शिष्यों में से एक महाकात्यायन के शिष्य कुटिकण्ण सोण कुररघर से जेतवन जा भगवान का दर्शन करके जब वापस आए, तब उनकी मां ने एक दिन उनके उपदेश सुनने के लिए जिज्ञासा की और नगर में भेरी बजवाकर सबके साथ उनके पास उपदेश सुनने गयी।
ऐसे थे वे दिन! बुद्ध की तो महिमा थी ही। बुद्ध के दर्शन करके भी कोई अगर लौटता था, तो वह भी महिमावान हो जाता था। ऐसे ही जैसे कोई फूलों से भरे बगीचे से गुजरे, तो उसके वस्त्रों में फूलों की गंध आ जाती है। ऐसे ही कोई बुद्ध के पास से आए, तो उसमें थोड़ी सी तो गंध बुद्ध की समा ही जाती।
तो यह कुटिकण्ण सोण अपने गांव से बुद्ध के दर्शन करने को गए। वहां से जब लौटे वापस, तो उनकी मां ने कहा. तुम धन्यभागी हो। तुम बुद्ध के शिष्य महाकात्यायन के शिष्य हो। तुम महाधन्यभागी हो, तुम बुद्ध के दर्शन करके लौटे। हम इतने धन्यभागी नहीं। चलो, हमें फूल न मिले, तो फूल की पाखुड़ी मिले। तुम जो लेकर आए हो, हमसे कहो। सूरज के दर्शन शायद हमें न हों, तुम जो थोड़ी सी ज्योति लाए हो, उस ज्योति के दर्शन हमें कराओ। तो उसने प्रार्थना की कि तुमने जो सुना हो वहा, वह दोहराओ; हमसे कहो।
और दूसरी बात. वह अकेली सुनने नहीं गयी। उसने सारे गांव में भेरी फिरवा दी और कहा कि कुटिकण्ण बुद्ध के पास होकर आए हैं, थोड़ी सी बुद्धत्व की संपदा लेकर आए हैं। वे बांटेंगे; सब आएं।
ऐसे थे वे दिन! क्योंकि जब परम धन लुटता हो, बटता हो, तो अकेले— अकेले नहीं, भेरी बजाकर, सबको निमंत्रित करके। इस जगत की जो संपदा है, उसमें दूसरों को निमंत्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि वे बांट लेंगे, तो तुम्हारे हाथ कम पड़ेगी। उस जगत की जो संपदा है, अगर तुमने अकेले ही उसको अपने पास रखना चाहा, तो मर जाएगी; मुर्दा हो जाएगी; सड़ जाएगी। तुम्हें मिलेगी ही नहीं। उस जगत की संपदा उसे ही मिलती है, जो मिलने पर बांटता है। जो मिलने पर बांटता चला जाता है। जो जितना बांटता है, उतनी संपदा बढ़ती है।
इस जगत की संपदा बांटने से घटती है। उस जगत की संपदा बांटने से बढ़ती है। इस सूत्र को खयाल रखना।
तो भेरी बजवा दी। सारे गांव को लेकर उपदेश सुनने गयी। स्वभावत:, सारा गांव उपदेश सुनने गया। चोरों की बन आयी। गांव में कोई था ही नहीं। सारा गांव उपदेश सुनने गांव के बाहर इकट्ठा हुआ था। चोरों ने सोचा यह अवसर चूक जाने जैसा नहीं है। वे उपासिका के घर में पहुंच गए बड़ा गिरोह लेकर। ठीक संख्या बौद्ध—ग्रंथों में है—एक हजार चालीस। क्योंकि उपासिका महाधनी थी। उसके पास इतना धन था कि ढोते—ढोते दिन लग जाते, तो ही वे ले जा सकते थे।
तो एक हजार चोर इकट्ठे उसके घर पर हमला बोल दिए। सब तरफ से दीवालें तोड़कर वे अंदर घुस गए। सिर्फ एक दासी घर में छूटी थी। उसने इतना बड़ा गिरोह देखा, तो भागी। वे चोर सोना—चांदी, हीरे—जवाहरात ढो—ढोकर बाहर ले जाने लगे। दासी ने जाकर उपासिका को कहा।
दासी घबडायी होगी। पसीना—पसीना हो रही होगी। सब लुटा जाता है! लेकिन उपासिका हंसी और बोली : जा; चोरों की जो इच्छा हो, सो ले जावें; तू उपदेश सुनने में विध्‍न न डाल।
इस देश ने एक ऐसी संपदा भी जानी है, जिसके सामने और सब संपदाएं फीकी हो जाती हैं। इस देश को ऐसे हीरों का पता है, जिनके सामने तुम्हारे हीरे कंकड़—पत्थर हैं। इस देश ने ध्यान का धन जाना। और जिसने ध्यान जान लिया, उसके लिए फिर और कोई धन नहीं है, सिर्फ ध्यान ही धन है। इस देश ने समाधि जानी। और जिसने समाधि जानी, वह सम्राट हुआ; उसे असली साम्राज्य मिला। तुम सम्राट भी हो जाओ संसार में, तो भिखारी ही रहोगे। और तुम भीतर के जगत में भिखारी भी हो जाओ, तो सम्राट हो जाओगे। ऐसा अदभुत नियम है।
उस क्षण उपासिका रस—विमुग्ध थी। उसका बेटा लौटा था बुद्ध के पास होकर। बुद्ध की थोड़ी सुवास लाया था। बुद्ध का थोड़ा रंग लाया था, बुद्ध का थोड़ा ढंग लाया था। वह जो कह रहा था, उसमें बुद्ध के वचनों की भनक थी। वह लवलीन होकर सुनती थी। वह पूरी डूबी थी। वह किसी और लोक की तरफ आंख खोले बैठी थी। उसे किसी विराट सत्य के दर्शन हो रहे थे। उसे एक—एक शब्द हृदय में जा रहा था और रूपांतरित कर रहा था। उसके भीतर बड़ी रासायनिक प्रक्रिया हो रही थी। वह देह से आत्मा की तरफ मुड़ रही थी। वह बाहर से भीतर की तरफ मुड़ रही थी। उसने कहा जा, चोरों की जो इच्छा हो, सो ले जावें। तू उपदेश सुनने में विध्‍न न डाल। ऐसा तो कोई तभी कह सकता है, जब विराट मिलने लगे।
और मैं तुमसे कहता हूं क्षुद्र को छोड़ना मत, विराट को पहले पाने में लगो, क्षुद्र अपने से छूट जाएगा। तुमसे मैं नहीं कहता कि तुम घर—द्वार छोड़ो। मैं तुमसे मंदिर तलाशने को कहता हूं। मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम धन—दौलत छोड़ो। मैं तुमसे ध्यान खोजने को कहता हूं। जिसको ध्यान मिल जाएगा, धन—दौलत छूट ही गयी। छूटी न छूटी—अर्थहीन है बात। उसका कोई मूल्य ही न रहा।
आमतौर से तुमसे उलटी बात कही जाती है। तुमसे कहा गया है कि तुम पहले संसार छोड़ो, तब तुम परमात्मा को पा सकोगे। मैं तुमसे कहना चाहता हूं : तुम संसार छोड़ोगे, तुम और दुखी हो जाओगे, जितने तुम दुखी अभी हो। परमात्मा नहीं मिलेगा। लेकिन अगर तुम परमात्मा को पा लो, तो संसार छूट जाएगा।
अंधेरे से मत लड़ो, दीए को जलाओ। अंधेरे से लड़ोगे, दीया नहीं जलेगा। अंधेरे से लड़ोगे—हारोगे, थकोगे, बड़े परेशान हो जाओगे। ऐसे ही तो तुम्हारे सौ में से निन्यानबे महात्माओं की दशा है। और परेशान हो गए! तुमसे ज्यादा परेशान हैं।
तुम्हें यह बात दिखायी नहीं पड़ती—कि कभी—कभी साधारण गृहस्थ के चेहरे पर तो कुछ आनंद का भाव भी दिखायी पड़ता है, तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासियों के चेहरे पर तो आनंद का भाव बिलकुल खो गया है। एकदम जड़ता है। एकदम गहरी उदासी। सब जैसे मरुस्थल हो गया। क्या कारण है?
बातें तो करते हैं कि सब छोड़ देने से आनंद मिलेगा। मिला कहां है? तुमने किसी जैन मुनि को नाचते देखा है? प्रसन्न देखा है? आनंदित देखा है? छोड़कर मिला क्या है?
छोड़ने से मिलने का कोई संबंध नहीं है। बात उलटी है मिल जाए तो छूट जाता है। दीया जलाओ और अंधेरा अपने से नष्ट हो जाता है।
ऐसी ही घटना उस उपासिका को घट रही थी। वह तल्लीन थी। उसे धीरे— धीरे— धीरे उस रस का स्वाद आ रहा था। इस घड़ी में यह खबर आयी कि सब धन लुटा जा रहा है। उसने कहा. ले जाने दे उनको सब। अब कोई चिंता की बात नहीं। तू मेरी इस भावदशा में विध्‍न न डाल।
चोरों का सरदार भी पीछे—पीछे चला आया था उपासिका की प्रतिक्रिया देखने। वह तो सुनकर अवाक रह गया। वह तो ठिठक गया।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि पापी तुम्हारे तथाकथित पुण्यात्माओं से जल्दी रूपांतरित हो जाते हैं। वाल्मीकि और अंगुलिमाल! और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अपराधियों में एक तरह की सरलता होती है, जो तुम्हारे प्रतिष्ठित कहे जाने वाले लोगों में नहीं होती। प्रतिष्ठित लोग तो चालाक, चालबाज, कपटी, पाखंड़ी होते हैं। लेकिन जिनको तुम अपराधी कहते हो, उनमें कपट नहीं होता, चालबाजी नहीं होती। कपट और चालबाजी ही होती, तो वे पकड़े ही क्यों जाते! पहली बात। जिनमें कपट और चालबाजी है, वे तो पकड़े नहीं गए। वे तो बड़े स्थानों में बैठे हैं, वे तो दिल्ली में विराजमान हैं।
जो पकड़े जाते हैं, वे सीधे—सादे लोग हैं, इसीलिए पकड़ जाते हैं। दुनिया में छोटे अपराधी पकड़े जाते हैं। बड़े अपराधी तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन जाते हैं। दुनिया में छोटे अपराधी जेलखानों में मिलेंगे, बड़े अपराधियों के नाम पर इतिहास लिखे जाते हैं! नेपोलियन, और सिकंदर, और चंगेज, और नादिर, और स्टैलिन, और हिटलर, और माओ—सब हत्यारे हैं। लेकिन उनके नाम पर इतिहास लिखे जाते हैं। उनकी गुण—गाथाएं गायी जाती हैं।
छोटे—मोटे अपराधी जेलों में सड़ते हैं। बड़े अपराधी इतिहास के निर्माता हो जाते हैं। तुम्हारा सारा इतिहास बड़े अपराधियों की कथाओं का इतिहास है, और कुछ भी नहीं। असली इतिहास नहीं है। असली इतिहास लिखा नहीं गया। असली इतिहास लिखा जा सके, ऐसी अभी मनुष्य की चित्तदशा नहीं है।
अगर असली इतिहास लिखा जा सके, तो बुद्ध होंगे उस इतिहास में, महावीर होंगे, कबीर होंगे, नानक होंगे, दादू होंगे; मीरा होगी, सहजो होगी। क्राइस्ट, जरथुस्त्र, लाओत्सु और च्चागत्सु—ऐसे लोग होंगे। रिंझाई, नारोपा, तिलोपा—ऐसे लोग होंगे। फ्रांसिस, इकहार्ट, थेरेसा—ऐसे लोग होंगे। मोहम्मद, राबिया, बायजीद, मंसूर—ऐसे लोग होंगे।
लेकिन ऐसे लोगों का तो कुछ पता नहीं चलता। फुट नोट भी इतिहास में उनके लिए नहीं लिखे जाते। उनका नाम भी लोगों को शांत नहीं है! इस पृथ्वी पर अनंत संत हुए हैं, उनका नाम भी लोगों को ज्ञात नहीं है। और वे ही असली इतिहास हैं। वे ही असली नमक हैं पृथ्वी के। उनके कारण ही मनुष्य में थोड़ी गरिमा और गौरव है।
चारे आया, प्रधान था चोरों का। उसने यह बात सुनी; वह भरोसा न कर सका! उसने तो सदा जाना कि धन सोना—चांदी, हीरे—जवाहरात में है। तो यहां कोई और धन बंट रहा है! हम इसका सब लूटे लिए जा रहे हैं और यह कहती है, जा—हंसकर—ले जाने दे चोरों को। कूड़ा—कर्कट है। यहां तू विध्‍न मत डाल। मेरे ध्यान में खलल खड़ी न कर। मुझे चुका मत। एक शब्द भी चूक जाएगा, तो मैं पछताऊंगी। वह सारी संपत्ति चली जाए, यह एक शब्द सुनायी पड़ जाए, तो बहुत है। चोर ठिठक गया।
मेरे देखे, अपराधी सदा ही सीधे—सादे लोग होते हैं। उनमें एक तरह की निर्दोषता होती है, एक तरह का बालपन होता है। वह ठिठक गया। तो उसने कहा : फिर हम भी क्यों न लुटें इसी धन को। तो हम कब तक वही हीरे—जवाहरात लूटते रहें! जब इसको उनकी चिंता नहीं है, तो जरूर कुछ मामला है, कुछ राज है। हम कुछ गलत खोज रहे हैं।
वह भागा गया। उसने अपने साथियों को भी कहा—कि मैं तो जाता हूं सुनने, तुम आते हो? क्योंकि वहा कुछ बटता है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है अभी कि क्या बंट रहा है। कुछ सूक्ष्म बरस रहा होगा वहा। अभी मेरी समझ नहीं है कि साफ—साफ क्या हो रहा है, लेकिन एक बात पक्की है कि कुछ हो रहा है। क्योंकि हम यह सब लिए जा रहे हैं और उपासिका कहती है ले जाने दो। लेकिन मेरे ध्यान में बाधा मत डालो। यहां मैं सुनने बैठी हूं। धर्म— श्रवण कर रही हूं। इसमें खलल नहीं चाहिए। तो जरूर उसके भीतर कोई संगीत बज रहा है, जो बाहर से दिखायी नहीं पड़ता। और भीतर कोई रसधार बह रही है, जो बाहर से पकड़ में नहीं आती। हम भी चलें, तुम भी चलो। हम कब तक यह कूड़ा—कर्कट इकट्ठा करते रहेंगे! तो हमें अब तक ठीक धन का पता नहीं था।
शायद चोर भी ठीक धन की तलाश में ही गलत धन को इकट्ठा करता रहता है। यही मेरा कहना है। इस दुनिया में सभी लोग असली धन को ही खोजने में लगे हैं, लेकिन कुछ लोग गलत चीजों को असली धन समझ रहे हैं, तो उन्हीं को पकड़ते हैं। जिस दिन उनको पता चल जाएगा कि यह असली धन नहीं है, उसी दिन उनके जीवन में रूपांतरण, क्रांति, नए का आविर्भाव हो जाएगा। उस दिन उन चोरों के जीवन में हुआ।
उन्होंने सब, जो ले गए थे बाहर, जल्दी से भीतर पूर्ववत रख दिया। भागे धर्म —सभा की ओर। सुना। पहली बार सुना। कभी धर्म—सभा में गए ही नहीं थे। धर्म—सभा में जाने की फुर्सत कैसे मिलती! जब लोग धर्म —सभा में जाते, तब वे चोरी करते। तो धर्म—सभा में कभी गए नहीं थे। पहली बार ये अमृत—वचन सुने।
खयाल रखना, अगर पंडित होते, शास्त्रों के जानकार होते, तो शायद कुछ पता न चलता। तुमसे मैं फिर कहता हूं : पापी पहुंच जाते हैं और पंडित चूक जाते हैं। क्योंकि पापी सुन सकते हैं। उनके पास बोझ नहीं है ज्ञान का। उनके पास शब्दों की भीड़ नहीं है। उनके पास सिद्धांतों का जाल नहीं है।
पापी इस बात को जानता है कि मैं अज्ञानी हूं, इस कारण सुन सकता है। पंडित सोचता है मैं ज्ञानी हूं। मैं जानता ही हूं इसलिए क्या नया होगा यहां! क्या नया मुझे बताया जा सकता है? मैंने वेद पढे। मैंने उपनिषद पढ़े। गीता मुझे कंठस्थ है। यहां मुझे क्या नया बताया जा सकता है? इसलिए पंडित चूक जाता है।
धन्यभागी थे कि वे लोग पंडित नहीं थे और चोर थे। जाकर बैठ गए। अवाक होकर सुना होगा। पहले सुना नहीं था। कुछ पूर्व —शान नहीं था, जिसके कारण मन खलल डाले।
उन्होंने वहां अमृत बरसते देखा। वहां उन्होंने अलौकिक संपदा बंटते देखी। उन्होंने जी भरकर उसे लूटा। चोर थे! शायद इसी को लूटने की सदा कोशिश करते रहे थे। बहुत बार लूटी थी संपत्ति, लेकिन मिली नहीं थी। इसलिए चोरी जारी रही थी। आज पहली दफे संपत्ति के दर्शन हुए।
फिर सभा की समाप्ति पर वे सब उपासिका के पैरों पर गिर पड़े। क्षमा मांगी। धन्यवाद दिया। और चोरों के सरदार ने उपासिका से कहा आप हमारी गुरु हैं। आपके वे थोड़े से शब्द—कि जा, चोरों को ले जाने दे जो ले जाना हो। आपकी वह हंसी, और आपका वह निर्मल भाव, और आपकी वह निर्वासना की दशा, और आपका यह कहना कि मेरे धर्म—श्रवण में बाधा न डाल—हमारे जीवन को बदल गयी। आप हमारी गुरु हैं। अब हमें अपने बेटे से प्रव्रज्या दिलाएं। हम सीधे न मांगेंगे संन्यास। हम आपके द्वारा मांगेंगे। आप हमारी गुरु हैं।
उपासिका अपने पुत्र से प्रार्थना कर उन्हें दीक्षित करायी। वे चोर अति आनंदित थे। उनके जीवन में इतना बड़ा रूपांतरण हुआ—आनंद की बात थी। जैसे कोई अंधेरे गर्त से एकदम आकाश में उठ जाए। जैसे कोई अंधेरे खाई—खड्डों से एकदम सूर्य से मंडित शिखर पर बैठ जाए। जैसे कोई जमीन पर सरकता—सरकता अचानक पंख पा जाए और आकाश में उड़े
उनके आनंद की कोई सीमा नहीं थी। क्योंकि कोई चोरी करता रहे—कितनी ही चोरी करे, और कितना ही कुशल हो, और कितना ही सफल हो, और कितना ही धन इकट्ठा करे—चोरी काटती है भीतर। चोरी दंश देती है। कुछ मैं बुरा कर रहा हूं यह पीड़ा तो घनी होती है। पत्थर की तरह छाती पर बैठी रहती है।
चोर जानता है—चोर नहीं जानेगा, तो कौन जानेगा—कि कुछ गलत मैं कर रहा हूं। करता है; करता चला जाता है। जितना करता है, उतना ही गलत का बोझ भी बढ़ता जाता है। आज सब बोझ उतर गया।
संन्यस्त हुए वे; दीक्षित हुए वे। वे अति आनंदित थे। वे प्रव्रजित हो एकांत में वास करने लगे, मौन रहने लगे; ध्यान में डूबने लगे। संसार उन्होंने पूरी तरह देख लिया था, सब तरह देख लिया था। बुरा करके, भला करके, सब देख लिया था। अब करने को कुछ बचा नहीं था। अब वे न—करने में उतरने लगे।
स्वात का अर्थ है न—करना। मौन का अर्थ है न—करना। ध्यान का अर्थ है न—करना। अब वे शांत शून्य में डूबने लगे।
उन्होंने शीघ्र ही ध्यान की शाश्वत संपदा पायी। बौद्ध कथा तो ऐसा कहती है कि बुद्ध को आकाश से उड़कर जाना पड़ा। मैंने छोड़ दिया उस बात को। तुम्हें भरोसा न आएगा। नाहक तुम्हें शंका के लिए क्यों कारण देने। लेकिन कहानी मीठी है। इसलिए एकदम छोड़ भी नहीं सकता, याद दिलाऊगा ही।
कहानी तो यही है कि उन चोरों ने जंगल में बैठकर..। उन्होंने बुद्ध को देखा ही नहीं। उन्होंने तो उपासिका को गुरु मान लिया। उपासिका के माध्यम से उसके बेटे सोण से दीक्षित हो गए। उन्होंने बुद्ध को देखा नहीं है। लेकिन उनकी प्रगाढ़ ध्यान की दशा—बुद्ध को जाना पड़ा हो आकाश—मार्ग से तो कुछ आश्चर्य नहीं। करोगे क्या, जाना ही पड़ेगा।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आकाश—मार्ग से गए ही होंगे। मगर जो मैं कह रहा हूं? वह यह कि बुद्ध को जाना ही पड़ेगा। इतने ध्यान की गहराई और ऐसे साधारणजनों में, ऐसे पापियों में! बुद्ध खिंचे चले आए होंगे। आना ही पडा होगा। आकाश—मार्ग से आने की कथा इतना ही बताती है कि बुद्ध को उड़कर आना पड़ा। इतनी जल्दी आना पड़ा कि शायद पैदल चलकर आने में देर लगेगी, उतनी देर नहीं की जा सकती। और। ये चोर—इसलिए कहता हूं इनको, भूतपूर्व और अभूतपूर्व—ये चोर ऐसी महान गहराई में उतरने लगे कि बुद्ध को लगा कि और थोड़ी देर हो गयी, तो लांछन होगा। इसलिए जाना पड़ा होगा।
उन्होंने जाकर ये सूत्र इन चोरों से कहे थे।

सिज्‍च भिक्‍खु! इमं नावं सित्‍ता ते लहुमेस्‍सति

'हे भिक्षु! इस नाव को उलीचो; उलीचने पर यह तुम्हारे लिए हलकी हो जाएगी।'
किस नाव की बात कर रहे हैं? यह जो मन की नाव है, इसको उलीचो। इसमें कुछ न रह जाए। इसमें कामना न हो, वासना न हो, महत्वाकांक्षा न हो। इसमें खोज न हो, इसमें मांग न हो, इसमें प्रार्थना न हो। इसमें विचार न हों, इसमें भाव न हों। इसमें कुछ भी न बचे। उलीचो भिक्षुओ सिन्च भिक्‍खू! इस नाव से सब उलीच दो। इस नाव को बिलकुल खाली कर लो, शून्य कर लो। यह तुम्हारे लिए हलकी हो जाएगी।
'राग और द्वेष को छिन्न कर फिर तुम निर्वाण को प्राप्त हो जाओगे।
यह नाव हलकी हो जाए, इतनी हलकी कि इसमें कोई वजन न रह जाए, तो इसी क्षण निर्वाण उपलब्ध हो जाता है। शून्य मन का ही दूसरा नाम है—निर्वाण। जहां मन शून्य है, वहां सब पूर्ण है। जहां मन भरा है, वहा सब अधूरा है।
ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो

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