एक बार भगवान कपिलवस्तु गए। उनके एक शिष्य थे अनिरुद्ध, जिनकी बहन थी रोहणी। वह बहुत सुंदर थी पर बहुत अहंकारी भी थी। अहंकार स्त्री को होता है रूप का। दो ही अहंकार होते है एक नाम और एक रूप। नाम यानि सूक्ष्म मन जिसके पीछे चले आते है। पद, प्रतिष्ठा, यश, धन, त्याग…….
और नारी को रूप का, कुरूप से कुरूप स्त्री को भी आप जब सुंदर कहोगे तो वह मान जायेगी की वह सच में ही सुन्दर है। तो रोहणी सुन्दर थी, रूप का दंभ था उसे रूप के दंभ के कारण मनुष्य को बहुत चोट पहुँचती है। अगर उसे कोई सुन्दर नहीं कहे या उस के सामने आप किसी दूसरे के रूप गुणों की तारीफ करों तो उसके अहं को बहुत ठेस लगती है। अगर हमें क्रोध आता है तो इसका एक सीधा सा लक्षण है की हमारे अंदर अहंकार है। जहां अहंकार होगा वहां प्रेम नहीं हो सकता।
जिसके जीवन में प्रेम नहीं आप उसके चेहरे को गोर से देखिये आपको उसका चेहरा कैसा रूखा सुखा और धुल धमास ज़मीं हुई पाओगे। ओर जिस के जीवन में प्रेम की सरिता बहती है, उसके चेहरे पर आप ताजगी, त्वरा कैसे खिली-खिली महसूस होगी, कैसे आभा खिली हुई दिखाई दे जायेगी । जैसे एक खिल फूल के पास। एक खिली गति पाओगे, गत्यात्मक एक तेजस्विता।
रोहिणी को अंहकार और क्रोध के कारण, चेहरे पर छवि रोग हो गया। उसके चेहरे पर। फफोले उठ गये। जगह-जगह से त्वचा काली हो गई। चेहरे पर सौन्दर्य तो नहीं रहा अब वहाँ फैल गई एक कुरूपता। अभिमानी रही होगी। अनिरूद्घ स्थविर बुद्ध के खास शिष्यों में से एक था। उसका भाई बुद्ध का भिक्षु हो गया। किस भाई की बहन है, ऐसे भाई की बहन है। अनिरूद्घ जब कपिलवस्तु आया तो सारा गांव उससे मिलने उसके चरण छूने के लिए गया। पर नहीं गई तो रोहणी। अनिरूद्घ जानता था अपनी बहन को खेला होगा बचपन में संग साथ। कि वह कितनी दंभी है, बात-बात में कैसे नाराज हो जाती थी। दुसरी किसी लड़की को अगर खेल में रानी बना दिया जाता तो वह किसी से बात नहीं करती थी। की मेरे होते हुए और कोई रानी नहीं बन सकती में ही रानी जैसे लगती हूं। सब लोगों को खेल आगे चलाने के लिए उसे रानी बनना ही पड़ता।
अनिरूद्घ ने पता भिजवाया की सब देखने आये मिलने के लिए आये पर तू क्यों नहीं आई। तब रोहिणी आई भी तो घूंघट निकाल कर आई अनिरूद्घ को बड़ा अजीब लगा, एक तो वह संन्यासी दूसरा वह उसका भाई। उस से कैसा घूंघट। उसने रोहिणी से पूछा एक तू मिलने के लिए नहीं आई जब मैंने बुलाया तब आई आरे अब घूंघट निकाल लिया ये कैसा व्यवहार। मेरी तो समझ के परे है बात। रोहिणी की आँखो में आंसू आ गए वह भाई के चरण पकड़कर कहने लगी। भैया बुरा मत मानना, मुझे छवि रोग हो गया है। मेरा सारा सौंदर्य मुझसे छीन गया है। चेहरे पर फफोले हो गये है। मैं तुम्हें कैसे ये चेहरा दिखाती।
लज्जा भी एक प्रकार से अहंकार का सूक्ष्म रूप है। कि ये जो हो रहा है ये मुझे अंगीकार नहीं है। मुझे ये सब नहीं अच्छा लग रहा। लज्जा में एक प्रकार का विरोध है। अपने देखा पर्व की स्त्रीयां ज्यादा अहंकारी होती है। लज्जा साधु को होती कहां है। मीरी ने कहां है-- लोक लाज खोई......हम ठीक इस का उलटा समझते है। की लज्जा औरत का गहना होती हे। पश्चिम की स्त्री को लज्जा नहीं वह निर्लज्ज होती है। इसमें लज्जा नहीं होती। ठीक इसके उल्टी बात है। वह थोड़ी मदद गार मिलन सार होगी।
भाई जानता था, रोहिणी को उसके स्वभाव को उसने उससे एक शब्द नहीं पूछा कि यह कैसे हो गया इस का क्या कारण है। उस बात को उसने पूर्ण विराम कर दिया। कहां छोड़ इस बात को तू अभी तो तुझे बहुत काम है। भगवान पहली बार हमारे घर आये है तैर भाई के घर आये है। उस के साथ दस हजार भिक्षु भी है। ये तेरे सम्मान की बात है। हमारे कपिलवस्तु के सम्मान की बात है। उनके रहने के लिए एक भवन बनवाना है, वर्षा वास आने वाला है। छप्पर ओर लकड़ियों से तू जल्दी से महीने भर के अंदर एक भवन बनवा दे ताकी सभी भिक्षु वर्षा से पहले उस में रह सके। इस खुले में रहेगें तो लोग तेरे भाई को क्या सम्मान देंगे। गये थे कपिल वस्तु अनिरूद्घ के गांव वहां सर छिपाने को जगह भी नहीं है। बस सब काम को छोड़-छाड़ कर तू इस काम में लग जा।
रोहिणी के पास पैसा भी नहीं था। लेकिन भाई ने उसे कुछ कहने को मौका ही नहीं दिया। अब रोहिणी ने सोचा अनिरूद्घ स्थविर हो गया है। उसके पाँच सौ भिक्षु उसके चरण छूते है जिन्हें वो गुरूवर तुल्य मानते है। उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। अब वही एक मात्र घड़ी थी जब रोहिणी को अपने उधेड़ बुन वाले जीवन के तार सुनियोजित करने थे।
तुम्हारे जीवन के श्रेष्ठ तम क्षण वहीं होते है जब तुम केवल होते हो। विचारों के उस रेले में तुम स्वय में स्थापित हो जाते हो। भूल जाते हो अपने शरीर का भाष, चाहे, कोई लेखक, चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ हो जब वह अपने को भूल जाता तब रचा जाता है नया कुछ। भूल जाता है आपने होने को।
गर्मी के दिन थे। जेष्ठ तप रहा था। घुप इतनी की शरीर को जलाये दे रही थी। शायद ही रोहिणी इससे पहले कभी इस मौसम में दोपहर को घर से निकली हो। अगर घुप में उसका चेहरा खराब हो गया तो। पर अब शायद समय नहीं था ये सब सोचने का। लग गई काम पर भूल गई घुप, लू, पसीना,....। और सबसे बड़ा काम जो उसने किया वह यह कि उस के पास पैसे तो थे नहीं उसने अपने जेवर बेच दिये। एक स्त्री अपने जेवर बेच दे, अपनी आखरी पकड़ से निकल गई। काफी पैसा लगना था। शायद उसने अपनी कीमती साँड़ियाँ भी बेच दि होंगी। और न जाने क्या-क्या घर का कीमती सामन जो उस का प्रिय था सब बेचा होगा। काम बहुत बड़ा था। खुद खड़ी रही होगी घण्टों धूप में मजदूरों के साथ। उनके साथ छप्पर को भी हाथ लगवा देती होगी उठाने के लिए जब कम मजदूर पड़ जाते होंगे। उनके बहते पसीने को देख उसे लगता होगा ये लोग पैसा कमाने के लिए कितनी मेहनत करते है, नंगे बदन, धूप में सारा-सारा दिन कितनी जी तोड़ मेहनत करते है। तब कहीं जाकर आपने परिवार को पेट पालते होगें। और एक हम है की अपने रूप के गुमान में धूप में निकलने से भी घबराते है। फिर भी कहां बचा रूप वह भी उस से छिन गया। छोड़ा दिया अंहकार,छोटे बड़े का भेद, कोन मजदूर है और कोन मालिक।
काम की गति देख उसे संतोष होता की अषाढ़ के मेघों की उमड़-घुमड़ से पहले उसका भवन बन जायेगा। बादल अभी भी आसमान में दौड़ते जा रहे थे। पर ये सफेद उजले थे। बचपन में मां कहती थी। ये अभी समुन्दर की और जा रहे है। पानी भरने के लिए। पानी भर कर जब अषाढ़ महीने में जब यहाँ से गुजरेंगे तो काले शाह होंगे। पानी के बोझ लदे हुऐ जी भर कर इस प्यासी धरती को तृप्ति देंगे। अभी भी बादलों को देख रोहिणी यही सोच रही थी। कैसे रूई की तरह सफेद मुलायम बादल हाव के साथ दौड़ रहे थे। तपती धूप में क्षण को छांव कर शरीर को कैसी सीतलता देते थे। ।देखते ही देखते एक चमत्कार हुआ।
एक सुबह जब रोहिणी ने अपनी छवि देखी तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ की उसका चेहरा तो एक दम साफ हो गया। उसका छवि रोग लगभग खत्म हो गया है। कितनी ओषधि लगाई, कितना जतन किया दो चार दिन बाद फिर वहीं हो जाता। कोई जड़ी बूटी काम नहीं कर रही थी। पर यह क्या बिना किसी जड़ी बूटी के उसका चेहरा, दाग रहित सुकोमल, वही पुराना हो गया है।
अनिरूद्घ ने ठीक ही किया कि रोहिणी को कहा की तू जा यह काम बहुत जरूरी है। इसे कर उसे कुछ सोचने समझने का मौका ही नहीं दिया। मन अपना जाल बुने, वह सतर्क हो अपना काम करे, अपनी दुकान दारी चलाये उससे पहले अनिरूद्घ रोहिणी को मन के पार ले गया। जहां देह गोण हो जाती हे। काम में ऐसा लगा दिया भल ही गई, सब प्रसाधान, इतना थक जाती की रात बिस्तरे पर गिरते ही सो जाती होगी।
हमारे नब्बे प्रतिशत रोग हमने ही पैदा किये है। और फिर हम ही उन का इलाज करेने चलते है। खुद ही रहा में रोड़े बिखरते चलो और खुद ही उन्हें उठाओ अजीब दुश चक्र है। रोग को पैदा करते है फिर उसके ठीक करने कि फिक्र भी करते है। निन्यानवे प्रतिशत रोग रोहिणी का ठीक हो गया। फिर भी वह भगवान से मिलने के लिए नहीं गई।
तब एक दिन उसे भगवान ने बुलाया और पूछा जानती है रोहिणी यह रोग तुझे किस कारण हुआ।
रोहिणी: ‘’ नहीं भंते।‘’
भगवान: ‘’ यह तेरे अति क्रोध के कारण से हुआ है। और करूणा से यह अपने आप दुर हो गया। क्रोध तो अंहकार का ही परिणाम है। तुझे अपने रूप पर इतना अहं था, गुमान था, दंभ था की तू उस पर पड़ी जरा सी चोट के कारण क्रोधित हो जाती थी। तेरा अंहकार आ जाता था सामने। अनिरूद्घ ने ठीक ही किया। तेरा भाई तो वेद्य है, इस शरीर का ही नहीं इस के पास के रोगों को भी वह छुड़ा लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखा रहा है। वे तेरे मन के विज्ञान को भली भाती जानता था। पहचान गया हो सब बात तेरा चेहरा देख कर। नहीं कहा एक शब्द भी तुझे कि इस के लिए ये दवा कर ले। वो दवा कर ले। भवन बनाना तेरी पूजा हो गई समर्पण हो गया। बह गया अंहकार गर्ल हो गया सारा मान अपमान, तब कहां क्रोध। और प्रेम बरसने लगो तेरे आस पास। करूण की धारा बह चली, तेरी मन गंगा से। फूट पडा अंदर का सौंदर्य अंदर से लाव बन प्रेम के हिमालय को ढक दिया करूणा रूपी सौंदर्य नें छा गई हिमाछिद धवलता शांति की। कहां खड़ा होता अंहकार वहां। बह गया उस प्रेम की गंगा में विलीन हो गया। आज तू देख रही है ये सब करूणा का ही फल है।
लेकिन देखा तूने अभी भी पूरा ठीक नहीं हुआ है। क्या करण है। क्यों रह गया यह एक प्रतिशत। शत प्रतिशत क्यों न ठीक हुआ। तेरा अंहकार छुटा तो पर बोध पूर्व नहीं छुटा, तू भूल गई पर तूने उसे जान कर नहीं छोड़ा। तेरा होश नहीं था तेरी सजगता नहीं थी। जहां कार्य में होश और सजगता जूड़ जायेगी। वही ध्यान बन जायेगा। जब कोई कलाकार होश को उस नृत्य, गायन, या मूर्ति घड़ते हुए अपने होश को जोड़ देगा। तब ही उसका कार्य ध्यान बन जायेगा। वरना तो वह कृत्य ही रहेगा। तुम्हें अपने होने का पता है, चलते , खाते नहाते,लड़ते रोते हंसते, तुम जब होश में होते हो तो शरीर से भिन्न हो जाते है। शरीर से निर्भार हो जाते है। तुम्हारी पकड़ शरीर से कुछ कम हो जाती है। वहीं बहता है आनंद क्यों? क्योंकि शरीर और मन में दुरी बढ़ जाती मन को उर्जा नहीं मिलती शरीर अपनी पूरी उर्जा को चहा कर किसी कार्य में लगा देता है। मन मौन हो जाता है। दुर वह इंतजार कर रहा है। तुम्हारी बेहोशी को ताकी फिर उसे प्राण मिल जाये। बुद्ध उसी मन का प्रयोग करते है। पर होश के साथ। हमें पता ही नहीं चलता। हमें मन चलता है, बुद्ध खुद मन को चलते हे।
करूणा तो तूने की पर बिना जाने हुए, अपनी इच्छा के बिना भाई के प्यार ओर सम्मान के वजह से। तैर खुद के भीतर से सहज स्फूर्त नहीं हुई। इस लिए ये एक प्रतिशत रोग तेरा बचा रह गया। जब अभी और होश से देख, और जो कर रही उसके लिए सजग हो। और जो अहंकार तूने काम में भूल कर छोटा है उसे जाग कर देख क्या वो तेरे भीतर अभी खड़ा रहा न तक रहा है। जरा सा करूणा में मुहँ फेरा नहीं आ जड़ें जमा लेगा। इसे अपनी इच्छा से त्याग और करूणा को जागने दे अपने अंदर,छोड़ दे उस रोग को उस क्रोध को, अहंकार को पल भर में तेरा सारा रोग खत्म हो जायेगा। नहीं तो ये अषाढ़ के बादलों की तरह की छांव है बादल हटे नहीं की सूर्य की तीव्र उष्णता फिर आजायेगी। इसे स्थाई न समझ।
जो चढ़े हुए क्रोध को भटक गए रथ की भांति रोक लेता है,
उसी को मैं सारथी कहता हूं।
छोड़ क्रोध को, अभिमान को त्याग, सारे संयोजनों के पा हो जा।
इस तरह नाम रूप मैं आसक्त न होने वाले तथा
अकिंचन पुरूष को दु:ख संतप्त नहीं करता।
अक्रोध से क्रोध को जीते।
असाधु को साधु से जीते।
कृपण को दान से जीते।
और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीते।
सच बोले, क्रोध न करे, मांगने पर थोड़ा अवश्य ही दे।
इन तीन बातों से मनुष्य देवताओं के पास पहुंच जाता है।
मनसा आंनद ''मानस''
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