आनंद ने कहां, भगवान आपने बताया नहीं उत्तम पुरूष कौन है? कैसे उत्पन्न होते
है? तब भगवान ये सुत्र कहां था। आनंद उत्तम पुरूष सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते। वे मध्य देश में उत्पन्न होते है। और जन्म से ही धनवान होते है। वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होते है
दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सब्बत्थ जायति।
यत्थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमधिति।।
पुरूष श्रेष्ठ दुर्लभ है, सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता,वह धीर जहां उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।
इस गाथा का अर्थ बौद्धो ने अब तक जैसा किया है, वैसा नहीं है। सीधा-सीधा अर्थ तो साफ़ मालूम होता है। कि बुद्ध महा धनवान घर में पैदा होते है। फिर कबीर का क्या होगा।
फिर क्राइस्ट का क्या होगा। फिर मोहम्मद का क्या होगा। ये तो महा धनवान घरों में पैदा नहीं हुए। तो फिर ये बुद्ध पुरूष नहीं है। ये तो बड़ी संक्रीर्णता हो जाएगी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र थे। सही, हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे है, सही, और बुद्ध भी राजपुत्र है सही। इस लिए इस वचन का बौद्धो ने यहीं अर्थ लिया। कि बुद्ध पुरूष राज घरों में पैदा होते है। महा धनवान।
मैं महा धनवान का अर्थ करता हूं—जन्म से ही महा धनवान होते है। इसका अर्थ हुआ कि बुद्ध पुरूष आकस्मिक पैदा नहीं होते, जन्मों-जन्मों की संपदा लेकर पैदा होते है। संपदा भीतर है। संपदा आंतरिक है। महा धनवान ही पैदा होते है। शायद बस आखिरी तिनका रखा जाना है और ऊँट बैठ जाएगा। सब हो चुका है शायद थोड़ी सी कमी रह गयी है। निन्यानवे डिग्री पर उबल रहा है पानी,एक डिग्री ओर, और फिर दुबारा जनम नहीं होगा।
लेकिन बौद्धो ने इसका क्या अर्थ लिया, जानते है? हिंदुओं ने इसका क्या अर्थ लिया? उन्होंने कहा कि बुद्ध पुरूष भारत में ही पैदा होते है—सर्वत्र पैदा नहीं होते। जातीय अहंकार, राष्ट्रीय अहंकार। भारत में ही पैदा होते है। यही है पवित्रतम देश। यही है धर्म भूमि। सदियों से भारत का अहंकार अपने आपकी पूजा करता रहा है। भारत का अहंकार कहता रहा है कि देवता भी यहां पैदा होने को तरसते है, क्योंकि यहां बुद्ध पुरूष पैदा होते है।
फिर क्राइस्ट को क्या कहोगे? फिर जरथुत्त्स को क्या कहोगे? फिर मोहम्मद का क्या करोगे? और फिर बुद्ध के चले जाने के बाद जो बुद्धों की असली परंपरा चली, वह तो चीन में चली और जापान में चली और जापान में चली और बर्मा में चली और लंका में चली। और सैकड़ों व्यक्ति बुद्धत्व को उपल्बध हुए। वे सब भारत के बाहर उपलब्ध हुए। उनको क्या कहोगे?
नहीं, ऐसी संकीर्ण बात इसका अर्थ नहीं हो सकती। भारतीय मन को यह बात सुख देती है। क्योंकि तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। मैं इसके लिए राज़ी नहीं हूं। बुद्ध पुरूष सर्वत्र पैदा नहीं होते,यह सच है। सभी के भीतर यह घटना नहीं घटती इसमें सच्चाई ज्यादा खोजने की जरूरत नहीं है। साफ ही है बात करोड़ों में कभी कोई एक होता है। लेकिन यह एक भारत में ही होता है। ऐसी भ्रांति मत पालना। वह एक कहीं भी हो सकता है। जहां कोई तैयार होगा वहां हो जाएगा।
दूसरी बात—वे मध्यदेश में ही उत्पन्न होते है। यह मध्यदेश ने बड़ी झंझट खड़ी की है। बौद्ध शास्त्रों में। उन्होंने तो हिसाब किताब भी आंककर बता दिया है कि कितना योजन लंबा और कितना योजन चौड़ा मध्यदेश है। तो मध्यदेश में बिहार आ जाता है, उत्तर प्रदेश आ जाता है। थोड़ा सा मध्यप्रदेश का हिस्सा आ जाता है। बस ये मध्य देश है। तो पंजाब में पैदा नहीं हो सकते। सिंध में पैदा नहीं हो सकते। बंगाल में पैदा नहीं हो सकते। ये तो सीमांत देश हो गए। ये मध्यदेश न रहे। यह बात बड़ी ओछी है। ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है।
मैं कुछ इसका अर्थ करता हूं।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा भौतिक शास्त्री है—ली कांत दूनाय। उसने एक अनूठी बात कहीं है। ली कांत दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे लगा कि यह तो मध्यदेश की बात कर रहा है। मगर बुद्ध और ली कांत दूनाय में पच्चीस सौ साल का फासला है। और बिना ली कांत दूनाय के बुद्ध के मध्यदेश की परिभाषा नहीं हो सकती। इसलिए मैं क्षमा करता हूं जिन्होंने दो हजार पाँच सौ साल में मध्यदेश की इस तरह की व्याख्या की है। उन पर मैं नाराज नहीं हूं, क्योंकि वे कुछ कर नहीं सकते थे।
एक अनूठी बात दूनाय ने खोजी है। और वह यह कि मनुष्य अस्तित्व में ठीक मध्य में है। मध्य देश है। छोटे से छोटा है परमाणु, एटम और बड़ से बड़ा है विश्व। और ली कांत दूनाय ने सिद्ध किया है कि मनुष्य इनके,दोनो के ठीक बीच में मध्यदेश में है। मनुष्य ठीक बीच में खड़ा है। एक छोर पर परमाणु है, उतने ही गुना बड़ा विश्व है मनुष्य से। मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है। मनुष्य और परमाणु के बीच जितना फासला है। उतना ही फासला मनुष्य और विश्व की परिधि के बीच है। वे फासले बराबर है। और मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है।
ली कांत दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे लगा। धम्म पद का यह बचन याद आया। शायद ली कांत दूनाय को तो बुद्ध के इस वचन का कोई पता भी न होगा। हो भी नहीं सकता। लेकिन यह मध्यदेश का अर्थ हो सकता है—होना चाहिए—कि मनुष्य में ही बुद्ध पुरूष हो सकता है। मनुष्य चौराहा है। चौराह है। मनुष्य की कुछ खूबी है, वह समझ लेनी चाहिए वह क्यों मध्यदेश है?
मध्यदेश की कुछ खूबी है, कुछ अड़चन भी है। मध्यदेश की। मध्यदेश का मतलब होता है। बीच में खड़ा है। न इस तरफ है, न उस तरफ। चौराहे पर खड़ा है। मनुष्य का अर्थ है, अभी कहीं गए नहीं, खड़े है, सीढ़ी के बीच में है। दोनों तरफ जाने की सुविधा है—निम्नतम होना चाहें तो ज्यादा नीच और कोई भी नहीं हो सकता। मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर जाता है। जब तुम कभी-कभी कहते हो, मनुष्य ने पशुओं जैसा व्यवहार किया, तो तुम कभी सोचना कि पशुओं ने ऐसा व्यवहार कभी किया है।
जानवर तो केवल तभी मारता है जब भूखा होता है। आदमी खेल में, खिलवाड़ में मारता है। हिंसा खिलवाड़ है। दूसरे का जीवन जाता है। तुम्हारे लिए खेल है।
फिर कोई जानवर अपनी ही जाती के जानवरों को नहीं मारता—कोई सिंह किसी सिंह को नहीं मारता। और कोई सांप किसी सांप को नहीं काटता। और कोई बंदर कभी किसी बंदर की गर्दन काटते नहीं देखा गया। आदमी अकेला जानवर है जो आदमियों को काटता है। और एक-दो को नहीं करोड़ों में काट डालता है। इसके पागलपन की कोई सीमा नहीं है।
आदमी जब गिरता है तो पशु से बदतर हो जाता है। और अगर आदमी उठे तो परमात्मा से उपर हो सका है। बुद्धत्व का अर्थ है: उठना पशुत्व का अर्थ है गिरना। और मनुष्य मध्य में है। इस लिए दोनों तरफ की यात्रा बराबर दूरी पर है। जितनी मेहनत करने से आदमी परमात्मा होता है। उतनी ही मेहनत करने से पशु भी हो जाता है। तुम यह मत सोचना कि एडोल्फ हिटलर कोई मेहनत नहीं करता है। मेहनत तो बड़ी करता है तब हो पाता है। यह मेहनत उतनी ही है जितनी मेहनत बुद्ध ने की भगवान होने के लिए,उतनी ही मेहनत से सह पशु हो जाता है।
जितने श्रम से तुम आपने को गंवा दोगे। तुम पर निर्भर है, तुम ठीक मध्य में खड़े हो। उतने कदम उठाकर तुम पशु के पार पहुंच जाओगे।
पुरूष श्रेष्ठ दुर्लभ है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता। वह मध्यदेश में ही उत्पन्न होता है और जन्म से महाधन वान होता है।
तो मनुष्य की महिमा भी अपार है। क्योंकि यहीं से द्वार खुलता है। और मनुष्य का खतरा भी बहुत बड़ा है। क्योंकि यहीं से कोई गिरता है। तो सम्हलकर कदम रखना, एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखना। क्योंकि सीढ़ी यहीं है नीचे भी जाती है, जरा चूके कि चले जाओगे।
सदा ख्याल रखना, गिरना सुगम मालूम पड़ता है। क्योंकि गिरने में लगता है कुछ नहीं करना पड़ता, उठना कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि गिरना कभी सुगम नहीं है। उसमे भी बड़ी कठिनाई है, बड़ी चिंता, बड़ा दुःख बड़ी पीड़ा। लेकिन साधारण: ऐसा लगता है गिरने में आसानी है। उतार है—चढ़ाव पर कठिनाई मालूम पड़ती है। लेकिन चढ़ाव का मजा भी है। क्योंकि शिखर करीब आने लगता है आनंद का, आनंद की हवाएँ बहने लगती है। सुगंध भरने लगती है। रोशनी की दुनिया खुलने लगती है।
तो चढ़ाव की कठिनाई है, चढ़ाव का मजा है। उतार की सरलता है, उतार की अड़चन है। मगर हिसाब अगर पूरा करोगे तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि बराबर आता है। बुरे होने में जितना श्रम करना पड़ता है। उतना ही श्रम भले होने में पड़ता है। इसलिए वे नासमझ है, जो बुरे होने में श्रम लगा रहे है। उतने में ही तो फूल खिल जाते है। जितने श्रम से तुम दूसरों को मार रहे हो, उतने श्रम में तो अपना पुनर्जन्म हो जाता।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
प्रवचन—67
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