कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

ज्‍योतिष और अध्‍यात्‍म-भाग-05



ज्‍योतिष  अर्थात  अध्‍यात्‍म—भाग-05


      बहुत पुराना संघर्ष है आदमी के चिन्‍तन का। अगर आदमी पूरी तरह स्‍वतंत्र है जैसा ज्‍योतिषी साधारणत: कहते हुए मालूम पड़ते है, कि सब सुनिश्‍चित है, जो विधि ने लिखा है वह होकर रहेगा तो फिर सारा धर्म व्‍यर्थ हो जाता है। और या फिर जैसा कि तथाकथित तर्कवादी और बुद्धिवादी गुरु कहते है कि सब स्‍वच्‍छन्‍द है, कुछ बंधा हुआ नहीं है। कुछ होने का निश्‍चित नहीं है, कुछ अनिश्‍चित है—तो जिन्‍दगी एक के ऑफ और एक अराजकता और एक स्‍वच्‍छन्‍दता हो जाती है। फिर तो यह भी हो सकता है कि मैं चोरी करुँ और मोक्ष पा जाऊँ, हत्‍या करुँ और परमात्‍मा मिल जाए। क्‍योंकि जब कुछ भी बन्‍धा हुआ नहीं है। और किसी भी कदम से कोई दूसरा कदम बँधता नहीं है और अब कहीं भी कोई नियम और सीमा नहीं है......।
      फिर मुझे ख्याल आता है मुल्‍ला नसरूदीन का। मुल्‍ला एक मस्‍जिद के नीचे से गुजर रहा है और एक आदमी मस्‍जिद के ऊपर से गिर पडा। अजान पढने चढ़ा था। मीनार पर, ऊपर से गिर पडा। मुल्‍ला के कंधे पर गिरा। मुल्‍ला की कमर टूट गई। अस्‍पताल में मुल्‍ला भर्ती है, उसके शिष्‍य उसको मिलने गए और शिष्‍यों ने कहा, मुल्‍ला इस दुर्घटना से क्‍या मतलब निकलता हे। आऊ डू इन्‍टरप्रीट इट इस घटना की व्‍याख्‍या क्‍या है? क्‍योंकि मुल्‍ला हर घटना की व्‍याख्‍या निकालता था।

      मुल्‍ला ने कहा, इससे साफ जाहिर होता है कि कर्म का और फल का कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी गिरता है, किसी की कमर टूट जाती है। इसलिए अब तुम कभी कर्मफल के सैद्धान्‍तिक विवाद में मत पड़ना। यह बात सिद्ध होती है कि गिरे कोई,कमर किसी की टूट सकती है। वह आदमी तो मजे में है, वह मेरे ऊपर सवार हो गया था, फंसा मैं। न मैं अजान पढ़ने चढ़ा, मैं अपने घर लौट रहा था हमारा कोई संबंध ही न था—फिर भी मैं फंसा।
      इसलिए आज से कर्मफल के सिद्धांत की बातचीत बंद कुछ भी हो सकता है...कुछ भी हो सकता है। कोई कानून नहीं है। अराजकता है—नाराज था स्‍वाभाविक है उसकी कमर जो टूट गई थी।   
      दो विकल्‍प सीधे रहे है—एक विकल्‍प तो यह है कि ज्‍योतिषी, साधारणत: जैसे सड़क पर बैठने वाला ज्‍योतिषी कहता है। वह चाहे गरीब आदमी का ज्‍योतिषी हो चाहे मोरारजी देसाई का ज्‍योतिषी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सड़क का है ज्‍योतिषी जिससे कोई नान एसेंशियल बातें पूछने जाता है। कि इलैक्शन में जीतेंगे कि हार जाएंगे—जैसे कि आपके इलैक्शन से चाँद तारों का कोई लेना देना है। वह कहता है सब बंधा हुआ है। कुछ इंच भर यहां से वहां नहीं हो सकता। वह भी गलत कहता है।   
      और दूसरी तरफ तर्कवादी है। वह कहता है, किसी चीज का कोई संबंध नहीं है। कुछ भी घट रहा है। सांयोगिक है, चांस है—को इन्‍सीडेंट है, संयोग है। यहां कोई नियम नहीं है। सब अराजकता है। वह भी गलत कहता है। यहां कोई नियम है। क्‍योंकि वह बुद्धिवादी कभी बुद्ध की तरफ आनंद से भरा हुआ नहीं मिलता। वह बुद्धिवादी ही धर्म और ईश्‍वर को और आत्‍मा को तर्क से इनकार कर लेता है। लेकिन कभी महावीर की प्रसन्‍नता को उपलब्‍ध नहीं होता। जरूर महावीर कुछ करते है। जिससे उनकी प्रसन्‍नता फलित होती है। और बुद्ध कुछ करते है जिससे उनकी समाधि निकलती है। कृष्‍ण कुछ करते है जिससे उनकी बांसुरी के स्‍वर अलग है।
      स्‍थिति तीसरी है और तीसरी स्‍थिति यह है, जो बिलकुल सारभूत है, जो बिलकुल अंतरतम है वह बिलकुल सुनिश्‍चित है। जितना हम अपनी केंद्र की तरफ आते है उतना निश्‍चय के करीब आते है। जितना हम अपनी परिधि की तरफ सरकमफेरेंस की तरफ जाते है। उतना संयोग की तरफ जाते है। जितनी ही बहार की घटना की बात करते है उतनी ही सांयोगिक बात है। जितनी ही भीतर की बात करते है उतनी ही नियम और विज्ञान पर, उतनी ही सुनिश्‍चित बात हो जाती है। दोनों के में भी जगह है जहां बहुत रूपांतरण होते है। जहां जाननेवाला आदमी विकल्‍प चुन लेता है। नहीं जानने वाला अंधेरे में वही चुन लेता है जो भाग्‍य है। जो अंधेरे में है, वह जो संयोग है, उसको पकड़ लेता है।
      तीन बातें हुई। ऐसा क्षेत्र है जहां सब सुनिश्‍चित है। उसे जानना सारभूत ज्‍योतिष को जानना है। ऐसा क्षेत्र है, जहां सब अनिश्‍चित है। उसे जानना अनिश्‍चित हे। उसे जानना व्‍यावहारिक जगत को जानना है। और ऐसा क्षेत्र जो दोनों के बीच में है, उसे जानकार आदमी जो नहीं होना चाहिए उससे बच जाता है। जो होना चाहिए उसे कर लेता है। और अगर परिधि पर या केंद्र के मध्‍य में आदमी इस भांति जिए कि केंद्र पर पहुंच जाए तो उसकी जीवन की यात्रा धार्मिक हो जाती है। और अगर इस भांति जिए कि केंद्र पर कभी न पहुंच जाए तो उसके जीवन की यात्रा अधार्मिक हो जाती है।
      जैसे, एक आदमी चोरी करने खड़ा है। चोरी करना कोई नियति नहीं है। चोरी करनी ही पड़ेगी ऐसा कोई सवाल नहीं है। स्‍वतंत्रता पूरी मौजूद है। हां, करने के बाद एक पैर उठ जाएगा। दूसरा पैर फंस जाएगा। करने के बाद न करना मुशिकल हो जाएगा। किए हुए का सारा का सारा प्रभाव व्‍यक्‍तित्‍व को ग्रसित कर लेगा। लेकिन जब तक नहीं किया है तब तक विकल्‍प मौजूद है। हां और न के बीच में आदमी का चित डोलता है। अगर वह न करे तो केंद्र की तरफ आ जाएगा। अगर वह हां कर दे तो परिधि पर चला जाएगा। वह जो मध्‍य में है चुनाव, वहां अगर वह गलत को चुन ले तो परिधि पर फेंक दिया जाता है। और अगर सही को चुन ले तो केंद्र की तरफ आ जाता है—उस ज्‍योतिष की तरफ जो हमारे जीवन का सारभूत है।
      कुछ बातें मैंने कही। आज मैंने एक बात आपसे कहीं और वह यह कि सूर्य के हम फैले हुए हाथ है। सूर्य से जनमती है पृथ्‍वी, पृथ्‍वी से जन्‍मते है हम। हम अलग नहीं है हम जुड़े है। हम सूर्य की ही दूर तक फैली हुई शाखाएं और पत्‍ते हे। सूर्य की जड़ों में जो होता है वह मारे पत्‍ते के रोंए-रोंए, रेशे-रेशे तक फैल जाता है। और कंपित  कर जाता है। यदि यह ख्‍याल में हो तो  हम जगत के बीच एक पारिवारिक बोध को उपलब्‍ध हो सकते है। जब हमें स्‍वयं की अस्‍मिता और अंहकार में जीने का कोई प्रयोजन नहीं है।
      और ज्‍योतिष की सबसे बड़ी चोट अहंकार पर है। अगर ज्‍योतिष सही है तो अहंकार गलत है, ऐसा समझें। और अगर ज्‍योतिष गलत है। तो फिर अहंकार के अतिरिक्‍त कुछ सही होने को नहीं बचता। अगर ज्‍योतिष सही है जा जगत सही है। और गलत हूं अकेले की तरह। जगत का एक टुकड़ा ही हूं मैं, एक हिस्‍सा ही, और वह भी कितना नाचीज टुकड़ा हूं, जिसकी कोई गणना भी नहीं हो सकती।
अकारण दु:ख ले लेता हूं कि मिट रहा हूं। क्‍योंकि अकारण मैंने सुख लिया था कि मैं हूं। अगर उसी वक्‍त देख लेता कि मैं नहीं हूं, बड़ी लहर है, बड़ा सागर है। की मर्जी की उठता हूं सागर की मर्जी कि खो जाता हूं। अगर ऐसी भाव दशा बन जाती है कि अनंत की मर्जी का मैं एक हिस्‍सा हूं तो कोई दुःख न था। हां, वह तथाकथित सुख फिर नहीं हो सकता जो हम लेते रहते है। मैंने जीता मैंने कमाया, वह सुख भी नहीं रह जाएगा। वह दुःख भी नहीं रह जाएगा कि मैं मिटा, मैं बर्बाद हुआ। मैं डूब गया।  नष्‍ट हो गया, हार गया पराजित हुआ, यह दुःख ही नहीं रह जाएगा।
      और जब यह दोनों सुख और दुःख नहीं रह जाते तब हम उस सारभूत जगत में प्रवेश करते है, वहां आनंद है। ज्‍योतिष आनंद का द्वार बन जाता है। अगर हम ऐसा देखें कि वह हमारी अस्‍मिता को गलाता है, हमारा अहंकार बिखेरता है। हमारी ईगो को हटा देता है। तो ज्‍योतिष धर्म है। लेकिन यदि हम बाजार में सड़क ज्‍योतिषी के पास जाते है तो अपने अहंकार की सुरक्षा के लिए पूछते है, कि घाटा तो नहीं लगेगा? वह लाटरी तो मिल जाएगी, यह धंधा हाथ में लेते है, सफलता निश्‍चित है न? अहंकार के लिए हम पूछने जाते है और मजा यह है कि ज्‍योतिष पूरा का पूरा अहंकार के विपरीत है।
      ज्‍योतिष का अर्थ यह है, आप नहीं हो, जगत है। आप नहीं हो ब्रह्मांड है। विराट शक्‍तियों का प्रभाव है। आप कुछ भी नहीं है। इस ज्‍योतिष की तरफ ख्‍याल आए, और तभी आ सकता है जब हम इस विराट जगत के बीच अपने को एक हिस्‍से की तरह देखें। इसलिए मैंने कहा कि सूर्य से किस भांति सारा विस्‍तार संयुक्‍त है अर जुड़ा हुआ है। अगर सूर्य से हमें पता चल जाए कि हम जुड़े हुए है तो फिर हमें पता चलेगा कि सूर्य और महा सूर्य से जुड़ा हुआ है।
      कोई चार अरब सूर्य है और वैज्ञानिक कहते है, इन सभी सूर्यों का अन्‍य किसी महा सूर्य से जन्‍म हुआ है। अब तक हमें  उसका कोई अंदाज नहीं है। वह कहां होगा। कैसे पृथ्‍वी अपनी कील पर घूमती है और साथ सूर्य का चक्‍कर लगाती है।
      ऐसे ही सूरज अपनी कील पर घूमता है और किसी बिंदु का चक्‍कर लगा रहा है। उस बिंदु का ठीक-ठीक पता नहीं है कि वह बिंदु क्‍या है। जिसका सूरज चक्‍कर लगा रहा है। विराट चक्‍कर जारी है। जिस बिंदु का सूरज चक्‍कर लगा रहा है वह बिंदु और सूरज का पूरा सौर परिवार भी किसी और एक महा बिंदु के चक्‍कर में संलग्न है।
      मंदिरों में परिक्रमा बनी है। वह परिक्रमा इसका प्रतीक है कि जगत में सारी चीजें किसी की परिक्रमा कर रही है। प्रत्‍येक अपने में घूम रहा है और फिर किसी की परिक्रमा कर रहा है। फिर वे दोनों मिलकर किसी और बड़ी की परिक्रमा करते है। फिर वे तीनों मिलकर और किसी की परिक्रमा करते है। वह जो अल्‍टीमेट है, परम है, परात्‍पर है, जिसकी सभी परिक्रमा कर रहे है, उसको ज्ञानियों ने ब्रह्म कहा है। उस अंतिम को, जो किसी की परिक्रमा नहीं कर रहा है, जो अपने में भी नहीं घूम रहा है। और किसी की परिक्रमा भी नहीं कर रहा है।
      ध्‍यान रखें, जो अपने में घूमेगा वह किसी की परिक्रमा जरूर करेगा। जो अपने में भी नहीं घूमेगा वह फिर किसी की परिक्रमा नहीं करता। वह शून्‍य और शांत है। वह है धुरी,यह है वह कील जिस पर सारा ब्रह्मांड घूम रहा है। जिससे सारा ब्रह्मांड फैलता है और सिकुड़ता है। हिंदुओं ने तो सोचा है कि जैसे कली फूल बनती है, फिर बिसर जाती है ऐसे ही पूरा जगत खिलता है, एक्‍सपेंड होता है। और फिर प्रलय को उपलब्‍ध हो जाता है। जैसे दिन होता है और रात होती है ऐसे ही सारा जगत का दिन और फिर सारे जगत की रात हो जीती है।
      जैसा मैंने कहा कि ग्यारह वर्ष का एक है, नब्‍बे वर्ष का एक क्रम है। ऐसा हिंदू विचारकों का ख्‍याल है कि अरबों-खरबों वर्ष का भी एक क्रम है। उस क्रम में जगत उठता है, जवान होता है। पृथ्‍वीयां पैदा होती है, चाँद तारे फैलते है। बस्‍तियां बसती है। लोग जन्‍मते है, करोड़ों-करोड़ो प्राणी पैदा होते है—और कोई एक अकेली पृथ्‍वी पर हो जाते है—ऐसा नहीं।
      अब वैज्ञानिक कहते है कि कम-से-कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन होना चाहिए, कम से कम, यह मिनीमम है, न्यूनतम है—इतना तो होगा ही। इससे ज्‍यादा हो सकता है। इतने बड़े विराट जगत में अकेली पृथ्‍वी पर जीवन हो, यह संभव नहीं मालूम होता। पचास हजार-हजार पृथ्वीयां पर जीवन है। अनंत फैलाव है, फिर सब सिकुड़ जाता है।
      यह पृथ्‍वी सदा नहीं थी, सदा नहीं होगी। जैसे मैं सदा नहीं था। नहीं होऊंगा। वैसे यह पृथ्‍वी सदा नहीं थी, सदा नहीं होगी। यह सूरज भी सदा नहीं था। सदा नहीं होगा ये चाँद तारे भी सदा नहीं थे, सदा नहीं होंगें। इनके होने और न होने का वर्तुल घूमता रहता है। उस विराट पहिए में हम भी किसी एक पहिए की धुरी पर न होने जैसे कहीं है, और हम सोचते हों कि हम अलग हैं तो हमारी स्‍थिति वैसी ही है जैसी कि मुल्‍ला नसरूदीन की थी जबकि वह पहली ही बार हवाई जहाज में सवार हुआ था।
      मुल्‍ला नसरूदीन एक हवाई जहाज में सवार हुआ। ओ जल्‍दी पहुंच जाए इसलिए हवाई जहाज के भीतर चलने लगा—जल्‍दी पहुंच जाने के ख्‍याल से स्‍वाभाविक तर्क है कि अगर जल्‍दी चलिएगा तो जल्‍दी पहुंच जाइएगा। यात्रियों ने उसे पकड़ा और कहा कि आप क्‍या कर रहे है।  उसने कहा कि मैं थोड़ा जल्‍दी में हूं। जमीन पर जा उसका तर्क था, वहीं उसका यहां भी था।
      वह पहली ही बार हवाई जहाज में सवार हुआ था। जमीन पर वह जानता था कि जल्‍दी चलिए तो जल्‍दी पहुंच जाते है। हवाई जहाज पर भी वह जल्‍दी चल रहा था—इसका बिना ख्‍याल किए कि उसका चलना अब असंगत है। अब तो हवाई जहाज पर भी वह जल्‍दी चल रहा है। वह चलकर सिर्फ अपने को थका ले सकता है—जल्‍दी नहीं पहुँचेगा। यह हो सकता है कि पहुंचते-पहुंचते इतना थक जाए कि उठ भी न पाए। उसे विश्राम कर लेना चाहिए। उसे आँख बंद करके लेट जाना चाहिए। लेकिन नहीं, नसरूदीन ऐसी बातों में आनेवाला नहीं है; और न ही हमारे अन्‍य बुद्धिमान ही आनेवाले है।
      धार्मिक व्‍यक्‍ति मैं उसे कहता हूं जो इसे जगत की विराट गति के भीतर विश्राम को उपलब्‍ध है। जो जानता है कि विराट चल रहा है। जल्‍दी नहीं है। मेरी जल्‍दी से कुछ होगा नहीं। अगर मैं विराट की लयबद्धता में एक बना रहूँ तो वहीं काफी है, वहीं आनंद पूर्ण है। ज्‍योतिष पर इसीलिए आपसे मैंने इतनी बातें कहीं है कि वह ख्‍याल में आ जाए जो ज्‍योतिष आपके लिए अध्‍यात्‍म का द्वार सिद्ध हो सकता है।

--ओशो
ज्‍योतिष अर्थात अध्‍यात्‍म,
वुडलैण्‍ड, बम्‍बई, दिनांक: 10 जुलाई 1971   

1 टिप्पणी: