मैं तुम्हें बता रहा था एक विशेष संबंध के बारे में जो एक करीब नौ साल के बच्चे और शायद पचास वर्ष के प्रौढ़ व्यक्ति में घटा। दानों की आयु में अंतर था, लेकिन प्रेम सब प्रकार की रुकावटों को पार कर जाता है। अगर चह पुरूष और स्त्री के बीच घट सकता है तो दूसरी इससे बड़ी क्या रूकावट और क्या हो सकती है। लेकिन इस संबंध को ‘प्रेम’ नहीं कहा जा सकता और यह था भी नहीं। मुझे अपना बेटा या पोता समझ कर भी प्रेम कर सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं था।
जो घटा वह फ्रेंडलीनेस, मैत्री थी। और इस बात को रिकार्ड कर लो, मैं फ्रेंडलीनेस, मैत्री को प्रेम से कहीं अधिक मूल्य देता हूं। मैत्री, फ्रेंडलीनेस से ऊँचा और कुछ नहीं है। तूम लोगों ने देखा होगा कि मैंने फ्रेंडशिप मित्रता शबद का प्रयोग नहीं किया। कल तक तो इसका प्रयोग कर रहा था। लेकिन अब समय आ गया है जब मैं तुमको फ्रेंडशिप, मित्रता से भी कहीं महान फ्रेंडलीनेस, मैत्री के बारे में बताऊ।
प्रेम की भांति मित्रता भी अपने तरीके से ऐ बंधन बन सकती है। मित्रता में भी ईर्ष्या, जलन, एकाधिकार का भाव, अपने प्रिय को खो देने का डर और इस डर के कारण ही इतना संघर्ष, झगड़ा, और दुःख होता है। सच तो यह है कि लोग सदा अपने प्रेमियों से झगड़ते रहते है। बड़े आश्चर्य की बात है, विश्वास नहीं होता इस पर, लेकिन ऐसा होता है।
मनुष्य जो भी महसूस करता है या जानता है, उससे मैत्री कहीं उँची जाती है। यह तो अपने होने की सुगंध है। या तुम उसे होने की खिला वट कह सकते हो। दो आत्माओें के बीच कुछ घटता है। मैत्री तो इन सब तुच्छ, नगण्य और निरर्थक बातों से मुक्ति है, उस सबसे जिसे हम परिचित है, बहुत अच्छे से परिचित हैं।
मैं समझ सकता हूं कि मेरी नानी ने शंभु बाबू से मेरी मित्रता होने पर क्यों आंसू बहाए। वे सही थी, जब उन्होंने कहा कि मुझे शंभु बाबू की चिंता है, वे बूढ़े है और अधिक समय तक जीवित नहीं रहेंगे। और आश्चर्य तो यह है कि शंभु बाबू मेरी नानी के मरने के पहले ही मर गए—ठीक दस साल पहले, जब कि मेरी नानी उम्र में उनसे बड़ी थी। अभी भी मुझे उस महीना की अंतर्दृष्टि पर आश्चर्य होता है। उन्होंने कहा था, वे तो जल्दी मर जाएंगे, फिर तुम्हारा क्या होगा? मेरा ह्रदय तो तुम्हारे लिए रोता है। तुम्हें अभी बहुत समय तक जीना है। तुम्हें शंभु बाबू जैसे गुणों वाले लोग बहुत नहीं मिलेंगे। उनकी मित्रता को तुम अपना मापदंड मत बनाओ—नहीं तो तुम्हें बहुत एकाकी जीवन जीना पड़ेगा।
मैंने कहा: ‘नानी शंभु बाबू भी मेरे मापदंड से नीचे हैं। इसलिए आप चिंता मत करों, मैं तो अपनी दृष्टि के अनुसार अपने ही ढंग से रहूंगा—जहां भी जीवन ले जाए—शायद कहीं भी नहीं।‘ फिर मैंने कहा: ‘लेकिन एक बात निश्चित है और मैं आपसे सहमत हूं’ कि मुझे बहुत मित्र नहीं मिलेंगे।
और यह बात बिलकुल सच थी। स्कूल के दिनों में मेरा कोई दोस्त नहीं था। कालेज के दिनों में मुझे अजीब समझा जाता था। और विश्वविद्यालय में हां, लोगों ने सदा मेरा बहुत आदर किया है। लेकिन वह मित्रता नहीं है। मैत्री तो बहुत दूर की बात है। बड़ा विचित्र भाग्य है मेरा, बचपन से ही मुझे बहुत आदर मिला है। पर अगर आज मेरी नानी जीवित होती तो वे मेरे मित्रों को देखती, मेरे इन संन्यासियों को देखती। हजारों लोगों को देखती जिनके साथ मेरे ह्रदय के तार जुड़े हुए है। जिनके साथ मेरी सिन्क्रॉनिसिटी है। लेकिन नानी जीवित नहीं है। शंभु बाबू भी नहीं है। पूर्ण खिला वट ऐसे समय हुई जब वे सब जो मेरे सच्चे हितैषी और शुभचिंतक थे, इस दुनिया में नहीं रहे।
नानी ने मुझसे ठीक ही कहा था कि मुझे अकेले ही जीवन बिताना होगा। लेकिन उनकी यह बात एक प्रकार से गलत भी थी। क्योंकि दूसरों की तरह वे भी यही समझती थीं की लोनलिनेस, एकाकीपन और अलोननेस पर्यायवाची है। ये पर्यायवाची नहीं है। दोनों में बहुत अंतर है।
एकाकीपन तो निषेधात्मक स्थिति है। जब तुम अपने साथ नहीं रह सकते और दूसरे की संगत की, दूसरे के साथ होने की मांग करते हो तब यह एकाकीपन है। दूसरे का साथ मिले या न मिले—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम एकाकी ही रहोगे। मैं जो कह रहा हूं उसकी सचाई तुम सारी दुनिया के हर मकान में देख सकते हो। मैं ‘हर घर’ नहीं कह रहा हूं, मैं डरता हूं ‘हर मकान’।वास्तविक अर्थ में तो ‘घर’ बहुत कम मिलेंगे। ‘घर’ नहीं कहां जा सकता,जहां एकाकीपन संपरिवर्तित होकर ‘अकेलापन’ बन जाता है—इकट्ठा पन नहीं।
लोग समझते है कि जब दो लोग इकट्ठे होते है तो एकाकीपन मिट जाता है। यह इतना आसान नहीं है। याद रखना, यह इतना आसान बात नहीं है—सच तो यह है कि कठिनाई और भी बढ़ जाती है। जब दो एकाकी लोग मिलते है तो एकाकीपन और भी अधिक बढ़ जाता है। सिर्फ दो गुना ही नहीं,कई गुणा बढ़ जाता है। जो की बहुत की कुरूप है। यह एक अष्टभुज की तरह है। अलग-अलग कारणों से, अलग-अलग नामों से यह झगड़ा निरंतर चलता हहर रहता है। पर तुम अगर सब आवरणों को हटा दो तो नीचे सिवाय एकाकीपन के और कुछ भी दिखाई नहीं देगा। यह अकेलापन नहीं है। अकेलापन तो स्वयं की खोज है।
मेरी नानी से बहुत बार कहा कि अकेले होने की स्थिति बहुत सुंदर है। वे हंस कर कहती, बकवास बंद करो। एकाकी जीवन क्या होता है। ये मैं अच्छी तरह से जानती हूं,मैं एकाकी जीवन जी रही हूं। तुम्हारे नाना चले गए, उन्होंने मुझे धोखा दिया। यह भी नहीं बताया कि वे कहां जा रहे है। जीवन के इस कडुवे अनुभव की शिकायत करते हुए उनहोंने कहा: ‘तूम भी मुझे छोड़ कर विश्विद्यालय चले गए और तुम साल भर में एक या दो बार ही आते हो। महीनों इंतजार करती हूं। तब तुम कहीं एक या दो दिन के लिए आते हो, और वे दो दिन भी पलक झपकते बीत जाते है। तुम्हें क्या मालूम एकाकीपन क्या होता है। मुझे मालूम है।
यद्यपि वे रो रही थीं। मैं हंसा। मैं भी उनके साथ रोना चाहता था। लेकिन रो न सका। रोने की बजाए हंस दिया।
उन्होंने कहा: ‘तुम मुझे बिलकुल नहीं समझते।‘
मैंने कहा: ‘मैं समझता हूं। इसीलिए तो हंस रहा हूं। आप बार-बार कहती है कि एकाकीपन और अकेलापन एक ही बात है और मैं पक्का, निश्चित रूप से कहता हूं कि ये दोनों एक नहीं है। और अगर आपको अपने एकाकीपन से छुटकारा पाना है तो आपको अकेलापन समझना होगा। सिर्फ अपने प्रति खेद प्रकट करके आप इससे छुटकारा नहीं पा सकतीं और मेरे नाना से नाराज मत होओ...।
यह एकमात्र अवसर है जब मैंने नानी के विरूद्ध नाना का पक्ष लिया। मैंने कहा: ‘वे करते भी क्या। उन्होंने आपको धोखा नहीं दिया, हालांकि आपको लग सकता है कि धोखा दिया गया, वे अलग बात है। जीवन और मृत्यु किसी के हाथ में नहीं है। जितने विवश वे पैदा हुए, उतने ही विवश मृत्यु में भी गए....ओर क्या आपको याद नहीं आ रहा कि वे कितने विवश थे। वे बार-बार पुकार रहे थे। ‘इस चक्र को रोको, राजा आखिर वे चाहते क्या थे। स्वतंत्र होना चाहते थे। वे कह रह थे कि मैं अपनी इच्छा के विरूद्ध जन्म नहीं लेना चाहता और मैं अपनी इच्छा के विरूद्ध मरना भी नहीं चाहता। बस वे केवल ‘होना’ चाहते थे। वे शायद ठीक तरह से अपने भाव भी प्रकट नहीं कर सके। लेकिन उनके शब्द का ठीक अर्थ यही कहता हूं। वे न तो जन्म लेना चाहते थे। न जबरन मरना चाहते थे। वे इसके खिलाफ थे। वे सिर्फ होना चाहते थे।
और क्या तुम्हें मालूम है कि उस ‘चरम’ के लिए भारतीय शब्द मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है: पूर्ण स्वतंत्रता। किसी भी भाषा में मोक्ष जैसा शबद नहीं है। विशेषित: अंग्रेजी में, क्योंकि अंग्रेजी ईसाइयत से बहुत प्रभावित है।
अभी उस दिन मुझे जर्मनी के एक केंद्र से एक फोटो एलबम मिला। उस एलबम में उस सुंदर स्थान की और उसके उदघाटन समारोह की तस्वीरें है। उसके नजदीक के चर्च के पादरी ने भी उस समारोह में भाग लिया। उसने जो कहा वह मुझे बहुत पसंद आया। उसने कहा: ‘ये लोग बहुत सुंदर है, अच्छे है, मैंने देखा है कि ये आजकल के लोगों से कहीं अधिक काम करते हे। और इतने खुशी-खुशी से काम करते हे कि इनको देखने वाला भी प्रसन्न हो जाए। लेकिन से लोग थोड़े पागल है।
उसने जो कहा यह ठीक ही कहा, लेकिन उसने यह क्यों कहा,ये लोग थोड़े पागल है। यह ठीक नहीं है। हां, पागल है—वह जितना सोच भी नहीं सकता उससे ज्यादा पागल। लेकिन उसने उन्हें पागल कहा, क्योंकि वे अनेक जन्मों में विश्वास करते है। उन्हें पागल कहने का कारण यही था।
सच तो यह है कि अगर कोई पागल है तो मेरे लोग नहीं, उनको पागल समझने वाले लोग असल में पागल है। प्यार से मैं अपने लोगों को पागल कहता हूं। यह अधिकार मेरा है। मेरे लिए यह निंदा का शब्द नहीं है। सब कवि पागल होते है, सब चित्रकार पागल होते है। सब संगीतकार पागल होते है। नहीं तो वे कवि, संगीतज्ञ, और चित्रकार बन ही नहीं सकते। अगर चित्रकारों, संगीतज्ञों, और नर्तकों के बारे में यह सच है तो रहस्यदर्शियों के बारे में क्यों नहीं सच होगा। वह एन सबसे कहीं अधिक पागल होगें। और मेरे संन्यासी तो पागल होने की राह पर ही है। क्योंकि इस पागल दुनियां में स्वस्थ होने का और कोई दूसरा तरीका मुझे मालूम नहीं है।
मेरी नानी बिलकुल ठीक कहा था। कि न मुझे मित्र मिलेंगे और न शंभु बाबू को मित्र मिलेंगे। शंभु बाबू के बारे में तो बिलकुल सही थीं,लेकिन मेरे बारे तो वह उस समय तक ठीक था जब तक मैंने लोगों को संन्यास देना आरंभ नहीं किया था। जब मैंने हिमालय में संन्यासियों के पहले ग्रुप को संन्यास दिया तो उसके कुछ दिन बाद तक नानी जीवित थी। मैंने इसके लिए हिमालय के सबसे सुंदर भाग कुल्लू-मनाली को चुना था। इसे कहा जाता है: ‘दि वैली ऑफ दि गॉड़स’ और निश्चित ही यह परमात्मा की घाटी है। जब घाटी में खड़े हों तब भी यह इतनी सुंदर जगह हे कि भरोसा ही नहीं आता। यह अविश्वसनीय सच है। मैंने पहले इक्कीस लो्ंगो की संन्यास दीक्षा के लिए कुल्लू-मनाली को चुना था। इसके कुछ दिन बाद ही मेरी मां अर्थात नानी की मृत्यु हुई। माफ करना, मैं बार-बार उन्हें मां कहता हूं और फिर सुधारता हुं। मैं क्या कर सकता हूं। असल में नानी को ही मैंने अपनी मां के रूप में देखा था। जीवन भर मैंने इस गलती को सुधारने की कोशिश की, लेकिन सुधार न सका। अभी भी मैं अपनी मां को मां नहीं कहता। मैं अभी भी उनको भाभी कहता हूं। मां नहीं। और भाभी का अर्थ होता है बड़े भाई कि पत्नी। मेरे सब भाई मुझ पर हंसते है। वे पूछते है कि मैं मां को भाभी क्यों कहता हूं। और निश्चित ही पिताजी जी मेरे बड़े भाई नहीं है। लेकिन में क्या कर सकता हूं,आरंभिक वर्षो में ही मैंने नानी को अपनी मां समझा। और जीवन से ये आंरभिक वर्ष बहुत महत्वपूर्ण होते है। शायद इसी को वैज्ञानिक ‘इम प्रिंट’ छाप कहते है।
जब पक्षी अपने अंडे से बहार आता है और अपनी मां को देखता है। तो उस पहली बार के देखने में ही एक छाप बन जाती है। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि जब पक्षी अंडे के बाहर आए और आपने उसकी मां की जगह कुछ और रख दिया है तो उस पर दूसरी प्रकार का इम प्रिंट बैठ जाता है।
ठीक ऐसा ही हुआ था जब इम प्रिंट शब्द का प्रयोग आरंभ हुआ। एक वैज्ञानिक इसी काम पर कार्य कर रहा था, कि पहली बार अंडे के बाहर जब पक्षी आता है तो क्या होता है। उसने अंडे के आस पास से सब कुछ हटा दिया, लेकिन वह भूल गया कि वह स्वंय तो वहां पर है। पक्षी बाहर निकला, उसने चारों और देखा और उसने उस वैज्ञानिक के जूते देखे। जो वहां पर खेड़े हो कर पक्षी का अंडे से बाहर निकलते हुए देख रहा था। वह पक्षी उन जूतों को पास देख कर, उनके पास आया और बड़े प्रेम से उनके साथ खेलना आरंभ कर दिया। उस वैज्ञानिक को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। लेकिन बाद में उसके लिए मुसीबत खड़ी हो गई क्योंकि वह पक्षी निरंतर उसके दरवाजे को खटखटाता रहता—उसके लिए नहीं, उसके जूतों के लिए। उसको अपने जूते पक्षी के घोंसले के पास रखने पड़े। और विचित्र बात तो यह हुई कि जब वह पक्षी बड़ा हुआ तो उसने उन जूतों से प्रेम किया। वहां पर बहुत से मादा-पक्षी थे, लेकिन उसने प्रेम नहीं किया। उस पर एक विशेष इम प्रिंट बन गया था। कि उसके प्रेम का लक्ष्य कैसा होगा। वह तो केवल उन जूतों से ही प्रेम कह सकता है।
मैं अपनी नानी के पास बरस रहा और उन्हीं को ही अपनी मां समझता रहा। और इसके कारण मैं घाटे में नहीं रहा। मैं तो यही चाहता था। कि वे मेरी मां हों। अब तो मेरे दूसरे जन्म की संभावना नहीं है। अगर होती तो मैं उन्हीं को अपनी मां चुनता। मैं इस बात पर जोर देने के लिए ऐसा कह रहा हूं। मेरे दूसरे जन्म की अब कोई संभावना नहीं है। मेरा चक्र तो बहुत पहले ही रूक गया है। लेकिन मेरी नानी को यह कहना ठीक नहीं था। कि मुझे कोई दोस्त नहीं मिलेंगे। हाई स्कूल कालेज या विश्वविद्यालय में मेरा कोई मित्र नहीं था। यद्यपि बहुत से लोग समझते थे कि वे मेरे मित्र है। तथापि वे केवल मेरे प्रशंसक थे। ज्यादा से ज्यादा परिचित थे या बहुत ही ज्यादा अनुयायी थे। लेकिन वे मित्र नहीं थे।
जिस दिन मैंने दीक्षा देना शुरू किया उस दिन मुझे सिर्फ एक डर था। कि क्या मैं अपने अनुयायियों को कभी अपने मित्रों में बदल सकूंगा। संन्यास देनेवाले दिन से पहले में रात भर सो नहीं सका। बार-बार यही सोचता रहा कि मैं यह कैसे करुंगा। अनुयायी को तो मित्र नहीं माना जा सकता। हिमालय में कुल्लू-मनाली में उस रात मैंने अपने आप से कहा, चिंतित या गंभीर होने की कोई जरूरत नहीं है। यद्यपि तुम प्रबंध-विज्ञान का क ख ग भी नहीं जानते, फिर भी तुम सब कुछ कर सकते हो।
मुझे याद आ रही है की पुस्तक: ‘दि मैनेजीरियल रेवोल्यूशन।‘ मैं इसके रेवोल्यूशन शब्द से आकर्षित नहीं हुआ था। मैंने इसे पढ़ा क्योंकि इसके शीर्षक में मैनेजीरियल शब्द था। यह पुस्तक तो मुझे पसंद नहीं आई, लेकिन इसे पढ़ कर थोड़ा निराशा हुई क्योंकि इसमें मुझे वह
नहीं बताऊंगा, क्योंकि उसने मुझसे विश्वासघात किया था। और जिसने मेरे साथ विश्वासघात किया और वह अभी कुछ भी न मिला जिसको मैं खोज रहा था। मैं तो कभी कोई इंतजार नहीं कर सका, कोई प्रबंध नहीं कर सका। सो कुलू-मनाली की उस रात मैं हंस पडा।
एक आदमी—मैं उस का नाम जीवित है। उसका नाम न लेना ही अच्छा है—मेरे कमरे मैं सो रहा था। मेरी हंसीसे वह जाग गया था।
मैंने उससे कहा: ‘तुम सो जाओ। चिंता की कोई बात नहीं है। मैं जितना पागल हूं उससे ज्यादा पागल नहीं हो सकूँगा।‘
उसने कहा: ‘ सिर्फ एक सवाल, अन्यथा मैं सो नहीं पाऊगा। आप क्यों हंसे।
मैंने कहा: ‘ मैं अपने आपको एक चुटकुला सुना रहा था। वह भी हंसा और बिना यह पूछे कि वह चुटकना क्या था, वह सो गया। उसी क्षण मुझे मालूम हो गया कि वह किस प्रकार का खोजी है। सच तो यह है कि बिजली की कौंध की तरह मुझे यह दिखाई दिया कि यह आदमी मेरे साथ बहुत दिन तक नहीं रहेगा। इसलिए मैंने उसको संन्यास में दीक्षित नहीं किया, हालांकि वह इसके लिए आग्रह कर रहा था। दूसरे लोगों को यह देख कर आश्चर्य हो रहा था, क्योंकि मैं दूसरों को संन्यास में छलांग लेने के लिए प्रोत्साहित कर रहा था। और यह व्यक्ति छलांग लेना चाहता था, लेकिन मैं इसे थोड़ा देर और प्रतीक्षा करने के लिए कह रहा था।
दो महीनों के अंदर ही सबको साफ हो गया कि मैंने उसे संन्यास क्यों नहीं दिया, दो महीनों में ही वह छोड़ कर चला गया। छोड़ कर चले जाना कोई समस्या नहीं है, लेकिन वह तो मेरा दुश्मन गया। मैं सोच भी नहीं सकत कि कोई मरे दुश्मन हो सकता है। मैने तो अपने जीवन मे कभी किसी का कोई नुकसान नहीं किया। मुझसे अधिक निरीह और असहाय जीव तुम नहीं खोज सकते। फिर कोई मेरा दुश्मन कैसे बन सकता है। जरूर उसके भीतर ही उसका कारण होगा वह मेरा उपयोग पर्दे की तरह कर रहा होगा।
मैं नानी को संन्यास देना पंसद करता, लेकिन वे गाडर वारा गांव में थी। मैंने उनसे संपर्क करने की कोशिश भी की, लेकिन कुल्लू-मनाली तो गाडर वारा से करीब दो हजार मील दूर है।
गाडर वारा भी अजीब नाम है। मैं इससे बचना चाहता था। लेकिन किसी न किसी तरह इसका नाम आना ही था। जब आ ही गया तो इस पर दो शब्द कह देना ही ठीक है इसका अर्थ है: ‘गडरियों का गांव’ आश्चर्य की बसत तो यह है कि कश्मीर में जिस जगह पर जीसस दफनाएं गए है उसे पहल गाम कहते है। इसका भी अर्थ है: ‘ गडरिया का गांव’ पहल गाम के बारे ते तो यह अर्थ ठीक है, लेकिन मेरा गांव क्यो? यहां पर तो मैंने न कभी भेड़ें देखी है,न कभी गडरिये देखे है। फिर क्यों इसको गडरियों का गांव कहा जाता है? वहां पर ईसाई भी बहुत नहीं थे, केवल एक ही है। और तुम्हें आश्चर्य होगा, वह छोटे से चर्च को पादरी था और उसे सुनने वाली केवल मैं होता था।
एक बार उसने मुझसे पूछा, बड़ी अजीब बात है कि तुम ईसाई नहीं हो, फिर तुम हर रविवार को नियमित रूप से ठीक समय पा क्यों आते हो? चाहे पानी बरसता हो, चाहे ओले पड़ते हों,मुझे यह सोच कर यहां आना पड़ता है कि तुम मेरा इंतजार कर रहे होओ गे—और तुम यहां पर अवश्य होते हो। क्यों?’ मैंने कहा: ‘ आप मुझे नहीं जानते हो। मुझे लोगो को सताने में बड़ा मजा आता है। आपको सुनने का अर्थ है कि आप घंटे भर तक अपने आप को परेशान करते हो। आपको ऐसी बातें कहनी पड़ती है जिनमें आपको कोई विश्वास नहीं, और जिसमें विश्वास है वह आप कह नहीं सकते। यह देख कर मुझे बड़ा मजा आता है। मैं तो यहां आऊँगा ही, चाहे सारा गांव जल रहा हो। ठीक समय पर पहुंच जाऊँगा। आप मुझ पर भरोसा रख सकते है।
तो निश्चित ही ईसाइयों का उस गांव से कोई संबंध नहीं है। केवल एक ही ईसाई वहां पर रहता था। और उसका चर्च भी कोई खास नही था। एक छोटा सा मकान था। आक ऊपर एक क्रास लगा दिया गया था। और उसके नीचे लिख दिया गया था। यह ईसाई चर्च है।
मैं सद इस पर आश्चर्य करता था कि इस गांव को गडरियों का गांव क्यों कहा जाता है?
और जब मैं कश्मीर के पहल गाम मैं जीसस की कब्र को देखने गया तो यह प्रश्न प्रासंगिक हो गया।
बडी अजीब बात है कि पहल गाम का नक्शा ठीक मेरे गांव जैसा है। हो सकता है कि यह सिर्फ संयोगवश हो। जब कुछ समझ में नहीं आता तो हम कह देते है कि ऐसा संयोगवश है। लेकि मैं इतनी आसानी से किसी चीज का पीछा छोडने वाला नहीं हूं। मैंने इसकी अच्छी तरह से खोज-बीन की।
जीसस गाडर वारा भी आए थे। और गांव के बाहर वह स्थान है जहां पर वे ठहरे थे। इसके खंडहरों की अभी भी पूजा की जाती है। किसी को नहीं मालूम की ये क्यों पूजे जाते है। उसके एक पत्थर पर लिखा हुआ है कि ईशु नामक एक आदमी यहां आया था और यहां ठहरा था। उसने इस गांव के और आस पास के लोगो का परिवर्तन किया था। और इसके बाद वह पहल गाम वापस चला गया। भारत के पुरातत्व विभाग ने उस पत्थर को यहां लगाया था। इसलिए वह बहुत पुराना नहीं है।
मुझे उस पत्थर को साफ करने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी। यह कठिन था क्योंकि इससे पहले उसकी और किसी का ध्यान नहीं गया था, यह पत्थर एक छोटे से किले के भीतर था। उस किले के भीतर जाना भी खतरनाक था। वहां कोई रहता नहीं था। मेरी नानी मुझे वहां पर जाने नहीं देती थी। क्योंकि वह कभी भी गिर सकता है। वे ठीक कहती थी क्योंकि जब थोड़ी सी हवा तेज चलती थी तो उसकी दीवालें हिलने लगती थी। जब अंतिम बार में उसे देखने गया वे वह गिर गया था। में उस जगह भी गया था जहां पर जीसस नामक एक आदमी ठहरा था।
हिब्रू भाषा का ‘जोशुआ’ ऐर मैक भाषा में ‘येशु’ बन गया और उससे ‘ईश’ बना। हिंदी में जीसस को ‘ईशा’ कहते है और प्रेम से उनको ‘ईशु’ कहा जाता है। शायद जिस आदमी से मैं बहुत प्रेम करता हूं वह वहां आया था—उस गांव में। इस विचार से ही में आनंदित हो जाता हूं कि जीसस उन गलियों में घूम थे। ऐसा हुआ या नहीं, इसको ऐतिहासिकता को सिद्ध करने के लिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है। अगर आप मुझसे पूछे गे, तो में आपके कान में कहूंगा—‘हां’ यह सच है। इससे अधिक मुझसे मत पूछो.......’
--ओशो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें