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गुरुवार, 8 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-30

विजय भैया....मेरे लक्ष्‍मण थे
      मैं पागल बाबा और उन तीन बांसुरी वादकों के बारे में बता रहा था। जिनसे उन्‍होंने मुझे परिचित करवाया था। अभी भी वह याद बड़ी सुंदर और ताजा है। कि वे किस प्रकार से इन लोगों से मेरा परिचय कराते थे—विशेषत: उनसे जो बहुत सम्‍मानित थे, जिनको बहुत आदर दिया जाता था। सबसे पहले वे उनसे कहते,  इस लड़के के पैर छुओ।
      मुझे याद है कैसे विभिन्‍न प्रकार से लोग प्रतिक्रिया करते थे। और बाद में हम दोनों कैसे हंसते थे। पन्‍ना लाल घोष को मुझसे परिचित करवाया गया था। कलकत्ता में, उनके अपने घर में। पागल बाबा उनके मेहमान थे और मैं पागल बाबा का मेहमान था। पन्‍ना लाल घोष बहुत प्रसिद्ध थे। और जब बाबा ने उनसे कहा कि पहले इस लड़के के पैर छुओ, उसके बाद ही मैं तुम्‍हें अपने पैर छूने दूँगा। तो वे एक क्षण के लिए तो झझके, फिर उन्‍होंने मेरे पैरों को छुआ तो जरूर लेकिन उसमें छूने का कोई भाव न था। पैरों को छूकर भी नहीं छुआ।
      ऐसा प्राय: होता है कि बहुत सी चीजों को हम छूते हुए भी नहीं छूते। लोग जब हाथ भी मिलाते है तो बिलकुल  भाव विहीन ढंग से—न उसमें को ई प्रेम होता है, न कोई खुशी, न किसी प्रकार की कोई ग्रहण शीलता। किस लिए ऐसे हाथ मिलाते है। यह व्‍यर्थ की कसरत है। और बेचारे हाथों का क्‍या कसूर है। यूं ही क्‍यों उन्‍हें हिलाते रहते हो।
      मैंने बाबा से कहा:  इन्‍होंने पैर छुए नहीं।
      बाबा ने कहा:  मुझे मालूम है। पन्‍ना लाल, फिर से छुओ।
      उनके अपने ही घर में इतने लोगों के सामने इस सुप्रसिद्ध आदमी के साथ यह कुछ ज्‍यादती थी। उस समय वहां था और अन्‍य उस शहर के गणमान्‍य लोग उपस्‍थित थे। फिर से पैर छुओ। लेकिन इस से सिद्ध होती है उस व्‍यक्‍ति की विशेषता। उन्‍होंने दुबारा मेरे पैर छुए। इस बार तो उनका स्‍पर्श पहले से भी अधिक निर्जीव थे।
                मैं हंस पडा। बाबा ने जोर से ठहाका लगाया। मैंने कहा:  इनको प्रशिक्षण की जरूरत है।
      बाबा ने कहा:  यह सच है, इनका प्रशिक्षण प्राप्‍त करने के लिए उनको कई बार जन्‍म लेना पड़ेगा। इस जीवन में तो ये चूक गए। मैं इन्‍हें अंतिम अवसर दे रहा था, लेकिन ये उससे भी चूक गए।
      और तुमको यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि सिर्फ सात दिन के बाद पन्‍ना लाल इस संसार में नहीं रहे। शायद बाबा ने ठीक ही कहा था कि पन्‍ना लाल को अंतिम अवसर दिया गया था लेकिन वे चूक गए। इतनी याद रखना कि वे बुरे आदमी नहीं थे। नोट कर लो कि मैं यह नहीं कहता कि वे अच्‍छे आदमी थे। मैं तो केवल यह कह रहा हूं कि वे बुरे आदमी नहीं थे। वे सिर्फ साधारण व्‍यक्‍ति थे। अच्‍छा या बुरा होने के लिए थोड़ा से असाधारण होना पड़ता है।
      उन्‍होंने अपनी समस्‍त प्रतिभा अपनी योग्‍यता और आत्‍मा को अपनी बांसुरी में ही उंडेल दिया था। और वे स्‍वयं मरुभूमि जैसे हो गए थे। उनकी बांसुरी तो सुंदर थी। लेकिन एक व्‍यक्‍ति की तरह उनको न जानना ही अच्छा था। अब जब मैं उनकी बांसुरी को रेकार्ड पर सुनता हूं तो मैं कहता हूं, पन्‍ना लाल घोष, तुम बीच में मत आओ, मुझे बांसुरी को रेकार्ड पर सुनने दो।
      लेकिन बाबा उन्‍हें मुझसे परिचित करवाना चाहते थे। मुझे उनसे नहीं। यह मेरे लिए नहीं था क्‍योंकि मेरा तो कोई नाम नहीं था। मैंने कुछ भी नहीं किया था—ठीक या गलत। और कभी कुछ करने बाला भी नहीं था।
      अभी मैं वही बात कह सकता हूं कि मैंने ठीक या गलत कुछ नहीं किया है। मैं तो न करने वाला हूं। और सदा ऐसा ही रहा हूं,  कुछ न करने वाला  लेकिन पन्‍ना लाल घोष महान संगीतज्ञ थे। इतने लोगों के सामने उनको पैर छूने के लिए कहना बहुत ही निरादर वाली बात थी। उनके लिए यह एक अच्‍छी कसरत थी। लेकिन दो बार ऐसा करना तो कुछ ज्‍यादा ही था। लेकिन वे सच्‍चे बंगाली बाबू थे।
      बंगाली बाबू शब्‍द का आविष्‍कार अंग्रेजों ने किया था। क्‍योंकि भारत में उनकी प्रथम राजधानी कलकत्‍ता थी, दिल्‍ली नहीं, और इसलिए बंगाली उनके पहले नौकर थे। सब बंगाली मछली खाते है। इसलिए उनसे मछली की बू आती है। चेतना इस बात को समझ सकती है, क्‍योंकि वह मछुआरे की बेटी है। सौभाग्‍य से वह ठीक-ठाक समझ सकती है। उसमें सूँघने की शक्‍ति भी है। जब मुझे कोई ऐसी महक महसूस होती है जिसको कोई दूसरा सूंघ नहीं सकता तब मैं चेतना की नाम पर भरोसा करता हूं। मैं फिर उससे पूछता हूं, और वह ठीक-ठाक सूंघ लेती है।
      सब बंगाली मछली खाने बाले हैं। इसलिए उनसे मछली की बू आती है। हर बंगाली मकान के साथ एक तालाब होता है। यह बंगाल की विशेषता है। भारत में और कहीं भी ऐसा नहीं होता। बंगाल बहुत सुंदर प्रदेश है। अपनी क्षमता के अनुसार हर मकान का एक छोटा या बड़ा तालाब होता है। जिसमें मछलियाँ पाली जाती है।
      तुम्‍हें यह जान कर हैरानी होगी कि अंग्रेजी शब्‍द बैंगलो असल में बंगाली मकान का नाम है।  बँगला  कहते थे, हर बंगाली अर्थात बंगाली मकान का अपना तालाब होता है। जिसमें वे अपने भोजन को पैदा करने का इंतजाम करते है। चारों और मछली की बदबू फैली रहती है। मेरे जैसे आदमी के लिए किसी बंगाली से बात करना बहुत मुशिकल है। जब मैं बंगाल जाता था तब भी इस बदबू के कारण मैं किसी बंगाली के कभी बात नहीं करता था—वहां पर रहने वाले अन्‍य प्रदेश के लोगों से बात करता था।
      जब पन्ना लाल घोष से मिला तो उसके ठीक सात दिन बाद वे मर गए। बाबा ने उनसे कहा था,  यह तुम्‍हारा अंतिम अवसर है। मैं नहीं समझता कि वे इस बात को समझे। वे थोड़ा बुद्धू से दिखाई दे रहे थे। मैं कहूं या न कहूं,वे बुद्धू दिखाई देते थे। लेकिन जहां तक उनके बांसुरी वादन का प्रश्‍न है, उसमें वे बेजोड़ थे, उसमें उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता था। इसीलिए शायद अन्‍य बातें में वे बुद्धू हो गए थे। इस बांसुरी ने उनकी सारी प्रतिभा को सोख लिया था। बड़ा खतरनाक वाद्य-यंत्र है यह। लेकिन उन्‍होंने मेरे पैरों को छुआ तो न छूने के भाव से ही सही। इसी लिए बाबा ने उनसे कहा:  फिर से छुओ और सचमुच छुओ।
      पन्‍ना लाल घोष ने कहा: मैंने तो दो बार पैर छुए है। इब सचमुच कैसे छुए जाते है। इस पर मालूम है बाबा ने क्‍या कहा। पन्‍ना लाल को दिखाने के लिए कि कैसे पैर छुए जाते है। उन्होंने आंखों में आंसू भर कर मेरे पैर छुए—और बाबा उस समय नब्‍बे बरस के थे।
      बाबा कभी भी मुझे दूसरे लोगों के साथ नहीं बैठने देते थे। मुझे उनके बाव-तकिए पर थोड़ा ऊपर और पीछे बैठना होता था। भारत में यह एक विशेष प्रकार का गोल तकिया—या तो अमीर लोग इस्‍तेमाल करते थे, या विशेष सम्‍मानित लोग। बाबा अपने साथ बहुत कम चीजें रखते थे। लेकिन वे इस तकिये को सदा अपने साथ रखते थे। उन्‍होंने मुझे बताया था, मुझे इसकी जरूरत नहीं है। लेकिन किसी दूसरे के तकिये पर सोना बहुत गंदा लगता है। मेरे पास कुछ और नहीं है, लेकिन कम से कम मेरा अपना तकिया तो मेरे पास होना चाहिए। इसलिए जहां भी जाता हूं, इसे अपने साथ ले जाता हूं।
      तुम्‍हे पता है, जब मैं सफर करता था.....चेतना इसे समझ सकेगी—क्‍योंकि एक तकिया मेरे लिए काफी नहीं है। में तीन तकिया इस्‍तेमाल करता हू। दो को तो मैं अपने दोनों और रखता हूं और एक मेरे सिर के नीचे रहता है। इसका मतलब है कि इन तकियों के लिए मैं एक बड़ा सूटकेस रखता था। और एक दूसरे बड़े सूटकेस में मैं अपने कंबल रखता था। क्‍योंकि मैं किसी दूसरे के कंबल इस्‍तेमाल नहीं कर सकता, उनमें से मुझे बू आती है। और मैं तो बच्‍चे की तरह सोता हूं। तुम्‍हें मुझे सोते देख कर हंसी आएगी। में तो सर से पैर तक कंबल को ओड़ कर उसमें गायब हो जाता हूं। और अगर कंबल में से बदबू आए तो मैं श्‍वास नहीं ले सकता। और मैं अपना सिर बाहर भी रख सकता, क्‍योंकि तब मेरी नींद गड़बड़ा जाती है।
      जब तक मैं अपने शरीर को पूरी तरह से ढंक न लू तब तक मैं अच्‍छी तरह से सो नहीं सकता। अगर कोई बदबू आ रही हो तब तो सोना संभव ही नहीं है। इसलिए मुझे अपना कंबल सदा अपने साथ रखना पड़ता था। और एक सूटकेस मैं मेरे कपड़े रखे जाते थे। इसलिए पच्‍चीस वर्ष तक निरंतर मुझे सफर करते समय तीन सूटकेस अपने साथ रखने पड़ते थे।
      बाबा  मुझसे अधिक भाग्‍यशाली थे। वे अपने तकिये को अपनी बांह के नीचे रख कर ले जाते थे। यह उनकी एक मात्र संपदा थी। उनहोंने मुझ बताया कि यह गंव-तकिया तो मैं खास तौर पर तुम्‍हारे लिए ले जाता हूं। क्‍योंकि जब तुम मेरे साथ आते हो तो मैं तुम्‍हें कहां बिठाउुंगा। मैं दूसरों से अधिक ऊंचे मंच पर बैठता हूं। लेकिन तुम्‍हें तो मुझसे भी ऊंचे बैठना चाहिए।
      मैने कहा: पागल बाबा आप पागल है।
      उन्‍होने कहा: यह बात तो तुम भी जानते हो और दूसरे लोग भी जानते है कि मैं पागल हूं। लेकिन बार-बार इसका जिक्र करने की जरूरत है। बस, यह मेरा निर्णय है कि तुम्‍हें मुझसे ऊंचे आसन पर बैठना है।
      वह गंव-तकिया मेरे लिए रखा गया था। न चाहते हुए भी मुझे उस पर बैठना ही पड़ता। इसके कारण मुझे कभी-कभी गुस्‍सा भी आता, संकोच भी होता और शर्म भी आती, क्‍योंकि उस पर बैठना बड़ा अजीब लगता। लेकिन बाबा न मानते। मेरे गुस्‍से का उन पर कोई असर न होता। मेरे सिर को थपथपाते हुए कहते, अच्‍छा बेटा, अब तो थोड़ा मुस्‍कुरा दो। उस तकिए पर मैंने तुम्‍हें बिठाया सिर्फ इसलिए तुम नाराज हो गए, मत होओ।
      इस आदमी, पन्‍ना लाल घोष को न मैं पसंद करता था, और ना पसंद करता था। इनके प्रति मेरा कोई भाव नहीं था। उनमें कोई नमक नहीं था। वे बिलकुल स्‍वाद-रहित थे। लेकिन उनकी बांसुरी......उन्‍होंने भारत की बांस की बांसुरी को सारे संसार में प्रसिद्ध कर दिया और इसको संगीत का एक महत्‍वपूर्ण वाद्य-यंत्र बना दिया। उनके कारण ही जापान की अधिक सुंदर बांसुरी अब फीकी पड़ गई है। अरबी बांसुरी को तो को पूछता ही नहीं। लेकिन भारतीय बांसुरी को तो सदा इस बंगाली बाबू का आभार मानना पड़ेगा।
      तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा कि भारत में ये बाबू शब्‍द बड़े आदर सूचक बन गया है। जब किसी के प्रति आदर दिखाना होता उसे बाबू कहा जाता है। लेकिन न इसका सही अर्थ होता है—वह जो बदबू दे रहा है। जब अंग्रेज भारत आए तो उन्‍होंने बंगालियों के लिए बाबू शब्‍द का प्रयोग किया। धीरे-धीरे यह शब्‍द सारे भारत में प्रचलित हो गया। सबसे पहले बंगालियों के लिए बाबू शब्‍द बाबू जो मूलत: आदर सूचक नहीं था। अत्‍यंत सम्‍माननीय बन गया। शब्‍दों का भाग्‍य भी बड़ा अजीब होता है। अब कोई नहीं सोचता कि यह गंदा शबद है। अब यह सब लोग समझने लगे कि यह सुंदर शब्‍द है।
      पन्‍ना लाल तो सचमुच बाबू थे अर्थात जिससे मछली की बू आती थी। इसलिए मुझे अपनी नाक पकड़नी पड़ती थी।
      उन्‍होंने बाबा से पूछा:  बाबा, आपका यह लड़का, जिसके पैर मुझे बार-बार छूने पड़त है, अपनी श्‍वास क्‍यों रोके हुए है।
      बाबा ने कहा:  यह एक यौगिक क्रिया कर रहा है। इसका तुम्‍हारी मछली की बू से कोई लेना-देना नहीं है। ये पागल बाबा बड़े प्‍यारे व्‍यक्‍ति थे।
      दूसरा संगीतज्ञ, जिसका मैं नाम भी नहीं लेना चाहता था। लेकिन एक बार ले चूका हूं। और इस अध्‍याय को समाप्‍त करने के लिए एक बार फिर उसका उल्‍लेख करना पड़ेगा—सचदेवा था। उसका बांसुरी वादन पन्‍ना लाल घोष के बांसुरी वादन से बिलकुल भिन्‍न है, हालांकि दोनों एक ही तरह की बांसुरी का उपयोग करते है। तुम दोनों को एक ही बांसुरी दे सकते हो, लेकिन तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा की उनका संगीत कितना अलग-अलग होता है। अपने आप में बांसुरी तो गौण है, बांसुरी वादन महत्‍वपूर्ण है। बांसुरी में से जो स्‍वर निकलते है उनसे उसके संगीत की विशेषता प्रकट होती है।
      सचदेवा के हाथ में तो जादू था। पन्‍ना लाल घोष के बजाने की तकनीक उत्‍तम थी, उसमें संगीत की कला और जादू, दोनों का मिश्रण पाया जाता था। उसका संगीत श्रोताओं को दूसरे ही लोक में पहुंचा देता था। लेकिन मुझे यह आदमी तो कभी अच्‍छा नहीं लगा। पन्‍ना लाल तो मुझे न पसंद थे, न नापंसद थे। इस आदमी से तो मुझे घृणा थी। उससे मुझे इतनी नफरत थी कि शिष्‍टाचार वश भी हम दोनो एक-दूसरे के निकट नहीं आ सकते थे। परिचय की ओपचारिकता को भी नहीं निभा सकते थे। और बाबा को यह मालूम था। सचदेवा को भी मालूम था और फिर भी उसको मेरे पैर छूने पड़ते थे।
      मैने बाबा को कहा:  मैं अपने पैर दुबारा उन्हें नहीं छूने दूँगा। पहली बार तो मुझे मालूम नहीं था कि उनकी तरंगें न सिर्फ खराब है, अब तो मुझे मालूम हो गया।
      और उनकी तरंगें न सिर्फ खराब थी बल्‍कि उबकाई लाने वाली थी। और उनका चेहरा भी ऐसा ही थी। अगला व्‍यक्‍ति बीमार महसूस करने लगे। मैं उनके बारे में बात नहीं करना चाहता था। क्‍योंकि मैं उनको याद नहीं करना चाहता था। क्‍यों? क्‍योंकि तुम्‍हें उनके बारे में बताने के लिए मुझे इस सबको फिर से झेलना पड़ेगा। लेकिन मैंने तय किया है कि मैं अपना सारा भार पूरी तरह उतार दूँगा। तो जो होना हो सो हो। सच में वह पास पोर्ट फोटो से भी अधिक बदसूरत थे।   
      मेरा ख्‍याल था की पासपोर्ट फोटो सबसे अधिक कुरूप चीज है, कोई उससे अधिक बदसूरत नहीं हो  सकता। लेकिन सचदेवा उससे भी कहीं अधिक बदसूरत थे। और उनका नाम कितना सुंदर है—सचदेवा, वाह, सच का देवता। लेकिन कितने बदसूरत थे वे। है भगवान, है जीसस।
      लेकिन जब वह अपनी बांस की बांसुरी को बजाने लगते तो उनकी सारी कुरूपता गायब हो जाती और वे सुनने बाले को किसी दूसरे ही लोक में ले जाते। उनका संगीत अंतर को भेदने वाला है और वह तलवार की धार की तरह तीखा ओर प्रखर है। वह इतनी कुशलता से श्रोताओं  के ह्रदय को भेद कर उनके अंदर पहुंच जाता कि किसी को यह मालूम ही न होता कि सर्जरी हो चुकी है।
      लेकिन यह आदमी बदसूरत था। मैं शारीरिक कुरूपता को कोई महत्‍व नहीं देता। अब उसके शरीर की बनावट या उसके रंग-रूप से मुझे क्‍या लेना-देना। लेकिन मन से भी वह बदसूरत थे। पहली बार जब उन्‍होंने बड़े संकोच से मेरे पैर छुए तो ऐसा लगा जैसे मेरे पैरा से पर कोई रेंगने बाला जंतु रेंग रहा हो, कोई सांप रेंग रहा हो और मैं कूद कर सांप को मार भी नहीं सकता था—वह सांप नहीं,आदमी था।
      मैंने बाबा की और देख कर कहा:  अब इस सांप का मैं क्या करूं।
      बाबा ने कहा:  मुझे मालूम था कि तुम इसे पहचान लोगे। थोड़ा धीरज रखे। पहले उसकी बांसुरी सुनो, फिर हम उसके सांप होने पर सोचेंगे। मुझे यही डर था कि तुम्‍हें इसका पता चल जाएगा। मुझे मालूम था कि वह तुम्‍हें धोखा नहीं दे सकता। लेकिन हम लोग बाद में इसकी बात करेंगे। पहले उसकी बांसुरी सुन लो।
      तो मैंने बांसुरी को सुना ।और वह सच जादूगर था—दूसरे के भीतर की गहराई में प्रवेश कर जाता था। ऐसा लगता था जैसे दूर किसी पहाड़ी पर कोयल बोल रही हो। इस कहावत को केवल भारतीय संदर्भ में ही समझा जा सकता है। भारत मैं कुक्कू से वह नहीं समझा जाता जो पश्‍चिम में समझा जाता है। पश्‍चिम में तो कुक्कू होने का मतलब है पागल होना। लेकिन पूर्व में अच्‍छे गायकों और कवियों को कुक्कू, कोयल की उपाधि दी जाती है। सचदेवा को  बांसुरी के जगत की कोयल कहा जाता था। उनकी बांसुरी इतनी मधुर होती थी की कोयल को भी उससे ईर्ष्‍या हो सकती थी। मेरे कहने का अभी प्राय यह है कि उनका संगीत बहुत अच्‍छा था। केवल संगीत।
      पन्‍ना लाल बड़े सपाट ढंग से बढते है। वे बड़े विश्‍वास से अपना हर कदम आगे बढ़ाते है। इस विश्‍वास का कारण है उनकी मेहनत, उनका अभ्‍यास। तुम कहीं कोई दोष नहीं खोज सकते। सचदेवा के बांसुरी वादन में भी कोई त्रुटि नहीं थी, कोई दोष नहीं था। लेकिन वे सपाट जमीन पर नहीं चलते थे। वे पहाड़ों के पक्षी है। ऐसा पक्षी जो अभी जंगली है। और अपनी मौज में ऊपर-नीचे इधर-उधर उड़ता रहता है। अभी पालतू नहीं बना, लेकिन बहुत कुशल है। पन्‍ना लाल घोष काफी दूर लगते है, कुछ दिमागी वादक एक तकनीशियन लगते है। लेकिन सचदेवा सच्‍चे कलाकार हैं, बड़े प्रतिभाशाली है। कुछ जया करने वाले बहुत थोड़े लोग होते है और वे उनमें से एक है। खासकर बांसुरी के छोटे से क्षेत्र में उन्‍होंने इतनी मौलिक और नई धुनें तैयार की हैं कि आने वाली कई पीढ़ियाँ उनका रेकार्ड नहीं तोड़ सकती। कोई उनको हरा नहीं सकेगा।
      तुम यह भी देख सकते हो जब कि मैंने इस आदमी को कभी पसंद नहीं किया फिर भी मैं उनके बांसुरी वादन के प्रति न्‍याय कर रहा हूं, उसकी उचित सराहना ही कर रहा हूं। और वैसे भी आदमी का उसकी बांसुरी से क्‍या लेना-देना है। न वे मुझे पसंद करते थे, न में उनको पसंद करता था। मुझे वे इतने बुरे लगते थे कि जब वे अगली बार बाबा से मिलने आए और बाबा ने उन्‍हें मेरे पैर छूने के लिए कहा तो मैं पद्मासन लगा कर बैठ गया और अपने पैरों को अपने कुरते से ढाँक लिया। बाबा ने कहा: यह पद्मासन का अभ्‍यास तुमने कहां किया, आज तो तुम बहुत बड़े योगी जैसा व्‍यवहार कर हो। तुमने योग कब सीखा।
      मैंने कहा:  इन साँपों और रेंगते हुए जीव-जंतुओं के कारण मुझे योग सीखना पडा। उदाहरण के लिए यह आदमी, मुझे इनकी बांसुरी बहुत अच्‍छी लगती है, लेकिन उनकी बांसुरी उनके आंतरिक स्‍वभाव से बिलकुल भिन्‍न है, दोनों में कोई साम्‍य नहीं है। मैं नहीं चाहता वे मुझे छुएँ। और मुझे मालूम था कि आप उनसे वही कहेंगे जो आपने अभी कहा। आप मुझे उनके पैर छूने को कहें, वह कहीं ज्‍यादा आसान होगा।
      अब मैं तुम्‍हें कुछ समझाता हूं, जिसके बिना अभी मैंने जो कहा है वह तुम्‍हें समझ न आ पाएगा। जब तुम किसी के पैरों को छूते हो तो तुम अपनी ऊर्जा को उसके चरणों में उँड़ेलते हो। तुम अपने आपको उसके प्रति अर्पित करते हो। जब तक तुम पूरी तरह से योग्‍य न होओ तब तक तुम्‍हें ऐसा करने से रोकना ही बेहतर होगा। मैं तो बिना किसी मुश्‍किल के उनके पैरों को छू सकता था। मेरे भीतर जो कुछ भी था उसे उनके पैरों में डाल सकता था। तुम फूल को पत्‍थर पर फेंक सकते हो, लेकिन पत्‍थर को फूल पर नहीं फेंकना चाहिए।   
      बाबा ने कहा:  मैं समझता हूं, लेकिन उसको भी तो बदलना पड़ेगा।
      इसके बाद उन्‍होंने उनसे मेरे पैर छूने के लिए दुबारा नहीं कहा। इसके बाद कुछ बार फिर हम दोनों मिले तो न सचदेवा ने मेरी और देखा,न मैंने उनकी और देखा। मुझे बाबा का डर था  और सचदेवा को मेरा डर था। जब भी वे आते तो मैं बाबा को कुहनी मार कर याद दिलाता कि वे सचदेवा को मेरे पैर छूने के लिए न कहें। बाबा कहते, हां मुझे मालूम है। मैंने कहा: मुझे मालूम है कहने से काम नहीं चलेगा। जब तक वे यहां से चले न जाएंगे मैं आपको याद दिलाता रहूँगा। या तो वे अपनी बांसुरी बजाए या उन्‍हें चले जाने को कहिए। क्योंकि वे सिर्फ बुरी तरह से पैर छूते है ऐसा ही नहीं, उनका चेहरा और उनकी उपस्‍थिति, कुछ-कुछ आध्‍यात्‍मिक कैंसर जैसे है। तो यह समझोता हो गया कि अगर सचदेवा बाबा से बात करना चाहें तो मुझे किसी काम के बहाने वहां से भेज दिया जाए और इस प्रकार मैं मुक्‍त हो जाता और वहां से टल जाता। या  उनसे बांसुरी बजाने को कहा जाता। तब तो वे तारों को धरती पर उतार देते। तब तो वे पत्‍थरों को भी पिघला देते। वे तो जादूगर थे। लेकिन केवल बांसुरी बजाते समय मुझे उनकी बांसुरी बहुत अच्‍छी लगती है, लेकिन वे स्‍वयं नहीं।
      तीसरे व्‍यक्‍ति, हरि प्रसाद तो दोनों है। जितना उनका संगीत सुंदर है उतना ही उनका अंतर भी सुंदर है। उनका स्‍वभाव बहुत अच्‍छा है। वे पन्‍ना लाल घोष जितने प्रसिद्ध नहीं है। और शायद कभी होंगे भी नहीं, क्‍योंकि उन्‍हें इसकी परवाह नहीं है। न वे राजनेताओं के पीछे भगते है, न वे किसी के आदेश से बजाते है। उनकी बांसुरी का तो स्‍वाद ही कुछ और है। उनकी बांसुरी की विशेषता है—संतुलन, पूर्ण संतुलन, जेसे कि तेज बहते हुए पानी में चल रहे हो। यह उदाहरण मैं लाओत्से से दे रहा हूं। जब तुम बहुत तेज प्रवाह वाली जंगली नदी के साथ ही बह जाओगे। लाओत्से यह भी कहता है कि तुम्‍हें तेजी से जल्‍दी-जल्‍दी चलना होगा। क्‍योंकि नदी का पानी ठंडा है—बर्फ जैसा ठंडा। तेज और संतुलित—यही विशेषता है हरि प्रसाद चौरासिया कि बांसुरी की। उनकी शुरूआत वे अचानक ही कर दे तक है और अंत भी अचानक ही कर देते है। किसी को यह आशा ही नहीं कि वे इस प्रकार अचानक शुरू कर देंगे।
      पन्‍ना लाल घोष तो भूमिका बांधने में आधा घंटा लगा देते है। भारत में शास्‍त्रीय संगीत का यही तरीका है। तबला बजाने वाला अपने तबले को ठोंकता-पीटता है। वह अपनी छोटी से हथौड़ी से तबले पर इधर-उधर चोट करके उसकी आवाज को ठीक करता है। सितार बजाने वाला सितार के तारों को बार-बार खींच कर या ढीला करके देखता है कि सब तार स्‍वर बद्ध हो गए या नहीं। आधे घंटे तक बस यही चलता रहता है, वाद्य यंत्रों को तैयार किया जाता है। भारतीय बहुत धीरज वाले लोग है। इसे तैयारी कहा जाता है। लेकिन लोगों के आने से पहले इसकेा क्‍यों नहीं कर लिया जाता। या पर्दे के पीछे क्‍यों नहीं कहते। जैसा नाटक में करते है। बड़ी अजीब बात है कि भारतीय संगीतज्ञ अपनी तथा अपने यंत्रों की तैयारी श्रोताओं के सामने ही करते है। इसका कोई खास कारण तो होगा। मेरा ख्‍याल है कि पूर्व में शास्‍त्रीय संगीत इतना गहरा है कि अगर तुम आधे घंटे के लिए भी धीरज नहीं रख सकते तो तुम वहां उपस्‍थित रहने के योग्‍य ही नहीं हो।
      मुझे एक बहुत प्रसिद्ध कहानी याद आ गई है। गुरजिएफ अपने शिष्‍यों को बड़े अजीब समय पर बुलाता था। उसकी मीटिंग मेरा मीटिंग कि तरह निश्‍चित समय पर नहीं होती थी। यहां तो तुम लोगों को मेरे आने से पहले एकत्रित होना पड़ता है। अगर मैं पाँच मिनट देर से आऊं तो याद रखना, इसमें मेरा दोष नहीं है। मेरी कार के ड्राइवर मुझे जानबूझ कर थोड़ी देर से लाते थे। ताकि देर से आने वाले लोग भी बैठ जाएं। क्‍योंकि एक बार जब मैं पहुंच जाता हूं तो मुझे लोगों का इधर-उधर होना, भीतर आना जाना पसंद नहीं है। उस समय सब कुछ ठहर जाना चाहिए। जब चारों और सब शांत हो जाता है जब मैं अपनी काम आरंभ कर सकता हूं या जो कुछ भी मुझे बोलना होता है। जो मैं कहने जा रहा हूं वह जरा सी भी गड़बड़ से बदल जाता है। मैं कुछ न कुछ तो कहूंगा ही लेकिन यह वही नहीं होगा और शायद मैं उस बात को दुबारा कभी न कहुं।
      मेरा ढंग तो तुम्‍हें मालुम ही है, लेकिन गुरजिएफ का तरीका इससे बिलकुल उल्‍टा था। वह अपने शिष्‍यों को टेलीफोन से सूचित करता कि मीटिंग तीस मील की दूरी पर रखी गई है और वे लोग वहां पर समय पर पहुंच जाएं। अब बिना किसी पूर्व‍ सूचना के, बिना किसी तैयारी के तीस मील दूर समय पर पहुंचने के लिए गाड़ी की जरूरत तो होती ही है। अपने दूसरे सब कामों को छोड़-छाड़ कर भागे-भागे जब वे मीटिंग के स्‍थान पर पहुंचते तो देखते कि वहां पर नोटिस लगा हुआ है आज की मीटिंग रद्द कर दी  गई है।
      दूसरे दिन शिष्‍यों के टेलीफोन फिर से बजने लगते—मीटिंग की सूचना देने के लिए। पहले दिन अगर दो सो लोगों को बुलाया गया था तो उनमें से केवल सौ आते। दूसरे दिन तो केवल पचास ही आते और उनको भी दरवाजे पर यही नोटिस लिख हुआ मिलता कि मीटिंग रद्द कर दी गर्इ है। वहां पर इसके लिए खेद प्रकट करने के लिए भी कोई न होता। ऐसा कुछ दिन तक चलता रहता और चह चौथे या सातवें दिन आता। वह से मेरा मतलब गुरजिएफ से है। तब होता यह कि आरंभ में जो दो सौ लोग थे उनमें से अब केवल चार ही बचते। उनकी और देख कर वह कहता, जब मैं वह कह सकता हूं जो मैं कहना चाहता था और जिन लोगों को मैं यहां पर नहीं चाहता था वे अपने आप ही नहीं आए। केवल वही लोग बच गए हैं जो मेरी बात को सुनने के योग्‍य थे।
      गुरजिएफ का ढंग अलग ही था। वह भी एक तरीका है, एक उपाय है। लेकिन तरीके तो बहुत से हे। मुझे तो ऐसा कोई भी तरीका पसंद है जो कारगर हो, जिससे लोगों को लाभ हो, जिसको परिणाम अच्‍छा हो। मुझे गौतम बुद्ध की इस परिभाषा से विश्‍वास है कि सत्‍य वह है जो कारगर हो। अब यह बडी अजीब परिभाषा है। क्‍योंकि कभी-कभी झूठ काम कर सकता है। और मुझे मालुम है कि कई बार सच बिलकुल काम नहीं करता और झूठ काम कर देता है। लेकिन मैं बुद्ध से सहमत हूं। अगर बात काम करती है। सही परिणाम लाती है तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आरंभ में वह सच थी या झूठ। अंतिम परिणाम ही महत्‍वपूर्ण होता है। भले ही मैं गुरजिएफ के तरीके का उपयोग करूं,क्‍योंकि मैं दूसरों के तरीकों को नहीं अपनाता, हालाकि लोग समझते है कि मैं ऐसा करता हूं। मैं केवल इसका दिखाव करता हूं। मैं तो जो कारगर है उसी को उपयोग करता हूं। किसका है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सत्‍य तो नमेरा है, न तुम्‍हारा है।
      ये जो तीसरे व्‍यक्‍ति है, ये मुझे बहुत प्रिय है। जिस क्षण से हमने एक दूसरे को देखा हमने एक दूसरे को पहचान लिया। उन तीन बांसुरी वाद को में से एक ऐसे थे जिन्‍होंने बाबा के कहने से पहले ही मेरे पैर छू लिए। जब यह हुआ तब बाबा ने कहा: यह तो बड़ी अजीब बात है। हरि प्रसाद, तुमने एक बच्‍चे के पैर कैसे छू लिए। हरि प्रसाद ने कहा: क्‍या कोई ऐसा कानून है जो इसकी मनाही करता है। बच्‍चे के पैर छूना कोई अपराध है। मुझे यह बहुत अच्‍छा लगा, बहुत प्यार  लगा, इसलिए मैंने इसके पैर छुए।
      बाबा तो बहुत खुश हो गए। ऐसे लोगों से वे बहुत खुश होते थे। अगर पन्‍ना लाल घोष भेड़ जैसे थे, तो हरि प्रसाद तो शेर है। वे बहुत ही अनोखे सुंदर और प्‍यारे व्‍यक्‍ति है। तीसरे व्‍यक्‍ति, मेरा मतलब है सचदेवा, उनका तो  मैं नाम भी नहीं लेना चाहता। लेकिन मेरा कोई नुकसान नहीं किया, लेकिन उनके नाम से ही मेरे सामने उनका कुरूप चेहरा आ जाता है। और तुम्‍हें मालूम है कि मैं सौंदर्य का कितना आदर करता हूं। मैं सब कुछ क्षमा कर सकता हूं लेकिन कुरूपता को नहीं। और वह कुरूपता शरीर की नहीं आत्‍मा की भी हो तब तो उसे सहन नहीं किया जो सकता। वे भीतर और बाहर , दोनों और से कुरूप थे। कुरूपता की कोई सीमा नहीं थी।
                जहां तक इन बांसुरी वादकों का सवाल है उनमें हरि प्रसाद ही मेरी पंसद है। उनकी बांसुरी में उन दोनों की विशेषता तो पाई जाती है। लेकिन व न पन्‍ना लाल घोष की भांति बहुत जोरदार और आडंबर पर्ण है और न इतनी प्रखर और तेज कि वह तुम्‍हें भेद कर काट कर पीडा पहुँचाए। वे तो हवा के समान कोमल है, गर्मी की रात में ठंडी हवा के झोंके के समान है। वे तो चाँद के समान है, प्रकाश तो है पर गरम नहीं, ठंडा है। तूम उसके ठंडे पन को महसूस कर सकते हो।    
      हरि प्रसाद को आज का महानतम बांसुरी वादक माना जाना चाहिए। लेकिन वे बहुत प्रसिद्ध नहीं है। हो भी नहीं सकेत, क्‍योंकि वे बहुत विनम्र है। प्रसिद्ध होने के लिए बहुत आक्रामक होना पड़ता है। वे न संघर्ष कर सकते है, न लड़ाई। अपने नाम के लिए वे किसी प्रकार का कोई संघर्ष नहीं कर सकते। लेकिन हरि प्रसाद को पहचानने वाले पागल बाबा जैसे लोग थे। पागल बाबा ने कुछेक दूसरे लोगों को भी पहचाना था। उनकी बात मैं बाद में  करूंगा। क्‍योंकि वे भी मेरे जीवन में उनके माध्‍यम से ही आए।
      बड़ी अजीब बात है कि हरि प्रसाद को बिलकुल नहीं जानता था। और जब पागल बाबा ने उनका मुझसे परिचय कराया तो उनकी मुझमें दिलचस्‍पी इतनी बढ़ गई कि हवे पागल बाबा के पास इसलिए आते कि वे मुझसे मिल सकें। एक बार पागल बाबा ने मजाक में उनसे कह ही दिया कि  अब तुम मुझसे मिलने नहीं आते—यह तुम भी जानते हो और मैं भी जानता हूं और जिसके लिए तुम आते हो वह भी जानता है।
      मैं हंस पडा: हरि प्रसाद ने हंस कर कहा: बाबा, आप बिलकुल ठीक कहते है।
      मैंने कहा:  मुझे तो मालूम था बाबा देर अबेर, कभी न कभी यक बात जरूर कहेंगे। और यही उस व्‍यक्‍ति का सौंदर्य था। वे अनेक लोगों को मेरे पास लाए, लेकिन मुझे धन्‍यवाद देने से भी रोक दिया। उनहोंने मुझसे केवल यहीं कहा:  मैंने तो सिर्फ अपना कर्तव्‍य निभाया है। मुझ पर तुम केवल एक ही कृपा करना कि जब मैं मरू तो तुम मेरी चिता को आग लगाना।
      मैंने उनको ऐसी मनोदशा में कभी नहीं देखा था। तब मैं जान गया कि उनका अंतिम समय जल्‍दी ही आने वाला है। इसके बारे में बात करके वह अपना समय नष्‍ट नहीं करना चाहते थे।
      मैंने कहा:  अच्‍छा, इसके बारे में कोई बहस नहीं की जाएगी। मैं आपकी चिता को आग दूँगा—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरे पिता आपति करते है। या अपका परिवार आपति करता है। मैं आपके परिवार को नहीं जानता।     
      संयोगवश पागल बाबा की मृत्‍यु मेरे ही गांव में हुई। लेकिन शायद उन्होंने स्‍वंय ऐसी व्‍यवस्‍था की। मेरा खयाल है कि उन्‍होंने स्‍वयं अपनी इच्‍छानुसार ऐसा किया। जब मैं उनकी चिता को आग देने लगा तो मेरे पिता ने कहा:  तुम क्‍या कर रहे हो, यह काम तो सबसे बड़ा बेटा ही करता है। मैंने कहा:  दद्दा, मुझे करने दीजिए। मैंने उनसे वादा किया था। ओर जहां तक आपका सवाल है तो मैं यह नहीं कर सकूंगा। मेरे छोटा भाई करेगा। असल में वही आपका सबसे बड़ा बेटा है। मैं नहीं, मैं तो परिवार के लिए किसी कामा का नहीं हूं। और न ही कभी होऊंगा। मैं तो सदा परिवार के लिए एक उपद्रव ही सिद्ध होऊंगा। मेरे बाद जो मुझसे छोटा भाई है वह आपकी चिता को आग लगाएगा और वही परिवार की देखभाल करेगा।
      मैं अपने भाई विजय का बहुत आभारी हूं। मेरे कारण ही वह विश्‍वविद्यालय में न पढ़ सका। क्‍योंकि मैं तो कुछ कमा नहीं रहा था और किसी न किसी को तो परिवार का उत्‍तर दायित्‍व लेना ही पड़ता,उसकी देख भाल करनी ही पड़ती। मेरे दूसरे भाई विश्‍वविद्यालय में पढ़ने के लिए गए। उनका खर्च भी देना पड़ता था। इसलिए विजय घर पर ही रहा। उसने सचमुच बहुत त्‍याग किया। विजय जैसा प्‍यारा भाई बड़े भाग्‍य से मिलता है। उसने बहुत त्‍याग किया। मैं शादी करने के लिए राज़ी नहीं था। इसके लिए परिवार के लोग मुझ पर दबाव डाल रहे थे।
      विजय ने मुझसे कहा:  भैया, अगर सब लोग आपको शादी के लिए बहुत परेशान कर रहे है तो मैं शादी करने के लिए तैयार हूं, सिर्फ आपकेा मुझसे एक वायदा करना होगा। मेरे लिए लड़की आपको पंसद करनी होगी। यह विवाह परिवार के लोगों की पसंद और उनकी इच्छा अनुसार ही किया जा रहा था। भारत में विवाहा प्राय: परिवार द्वारा ही निश्‍चित किया जाता है।
      मैंने कहा:  हां, यह तो मैं कर सकता हूं। लेकिन उसका त्‍याग मेरे ह्रदय को छू गया। और इससे मुझे बहुत लाभ हुआ। एक बार उसकी शादी हो गई तो मुझे पूरी तरह भुला दिया गया क्‍योंकि मेरे दूसरे भाई-बहिन भी थे। एक बाद शादी हो गई तो उसके बाद मेरे दूसरे भाई बहनेां की शादी का क्रम शुरू हो गया। मैं कोई कारोबार करने को तैयार नहीं था।
      विजय ने कहा:  इसकी भी आप चिंता मत करो। मैं किसी प्रकार का कोई भी काम करने को तैयार हूं। और छोटी सी उम्र से ही उसने परिवार का सारा बोझ उठा लिया आरे काम धंधे में व्‍यस्‍त हो गया। इन सब बातों के लिए मैं उसका बहुत आभारी हूं और उसके प्रति मेरी बहुत सहानुभूति है।
      मैने अपने पिता से कहा:  पागल बाबा ने मुझसे कहा था और मैने उनसे वादा किया था, इसलिए मैं उनकी चिता को आग दूँगा। जहां तक आपकी मृत्‍यु का प्रश्‍न है, चिंता मत करें, मेरा छोटों भाई वहां होगा। मैं भी वहां उपस्‍थित रहूंगा, लेकिन आपके पुत्र की हैसियत से नहीं।
      मुझे नहीं मालुम कि ऐसा मैंने क्‍यों कहा, और उन्‍होंने क्‍या सोचा होगा। लेकिन बाद में यह सच हुआ। जब उनकी मृत्यु हुई तो मैं वहां उपस्‍थित था। मैंने उन्‍हें अपने पास रहने के लिए बुला लिया था ताकि मुझे उस शहर न जाना पड़े जहां वे रहते थे। अपनी नानी की मृत्‍यु के बाद मैं वहां दुबारा नहीं जाना चाहता था। वह दूसरा वादा था। मुझे अनेक वायदे पूरे करने है। लेकिन अभी तक उनमें से अधिकांश सफलता पूर्वक मैं पूरे कर चूका हूं। अब तो थोडे से ही वायदे पूरे करने को रह गए है।
      मैंने अपने पिताजी से कहा था और मैं उनकी मृत्‍यु के समय वहां उपस्‍थित था। लेकिन मैं उनकी चिता को आग नहीं लगा सका। और निश्‍चित ही उस समय मैं उनके पुत्र की तरह उपस्‍थित नहीं था। जब उनकी मृत्‍यु हुई तब वे मेरे शिष्‍य थे। वे मेरे संन्‍यासी थे और मैं उनका गुरु था।
 --ओशो   




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