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शनिवार, 10 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-34

प्रोफेसर एस. एस. राय

      आज सुबह मैंने मस्‍तो से एकाएक विदा ली और दिन भर मुझे यह बात खटकती रही। कम से कम इस मामले में तो ऐसा नहीं किया जा सकता इससे मुझे उस समय की याद आ गई जब मैं कई बरसों तक नानी के साथ रहने के बाद उनसे विदा लेकर कालेज जा रहा था।
      नानी की मृत्‍यु के बाद जब वे बिलकुल अकेली हो गई तो मेरे सिवाय उनके जीवन में और कोई न था। उनके लिए यह आसान न था और न ही मेरे लिए। मैं सिर्फ नानी के कारण ही उस गांव में रहता था। मुझे अभी तक सर्दी के मौसम की वह सुबह याद है जब गांव के लोग मुझे विदा देने के लिए एकत्रित हुए थे।
      आज भी मध्य भारत के उस भाग में आधुनिक युग का आगमन नहीं हुआ। अभी भी वह  कम से कम दो हजार बरस पिछड़ा हुआ है। किसी से पास कोई खास काम नहीं है। आवारागर्दी करने के लिए सबके पास काफी समय मालूम होता है। सचमुच हर आदमी आवारागर्द है। आवारागर्द से मेरा सीधा शाब्‍दिक अर्थ है जिसके पास कोई खास काम न हो। कोई और अर्थ मत समझना। तो सब आवारागर्द वहां पर जमा हो गए थे।
      मेरा सारा परिवार वहां पर उपस्‍थित था, जो कि अच्‍छी खासी भीड़ थी। वे आए थे, क्‍योंकि उन्‍हें आना पडा था। वैसे उनके आने का कोई मतलब नहीं था। वे केवल नाम मात्र के लिए आए थे। लेकिन मेरे पिता, मेरी मां वहां थी, मेरे सब भाई बहन भी वहां थे और वे सब सचमुच रो रहे थे। मेरे पिता भी रो रहे थे। मेंने उन्‍हें उससे पहले और इसके बाद कभी भी रोते हुए नहीं देखा। और मैं कोई मर नहीं रहा था। केवल सौ मील की दूरी पर जा रहा था। लेकिन सिर्फ यह विचार कि बी. ए. की पढ़ाई के लिए मुझे कम से कम चार बरस तक घर से दूर रहना पड़ेगा। और कोई नहीं जानता, हो सकता है कि एम. ए. की डिग्री के लिए मैं दो बरस और रूक जाऊँ। और फिर पी. एँच. डी.  करने के लिए दो बरस तो कम से कम लगेंगे ही।
      यह जुदाई बहुत लंबी थी और इस बीच कौन जाने इन लोगों में से कौन इस दुनियां में न रहें। लेकिन मुझे तो सिर्फ नानी की चिंता थी, क्‍योंकि मेरे माता-पिता से तो मैं बचपन से ही दूर रहता था। इसलिए उनको मुझसे अलग रहने की आदत थी। अब तो मैं अपनी देखभाल खुद कर सकता हूं। इस लिए अब मुझे किसी दूसरे की सहायता की जरूरत नहीं थी।       लेकिन मेरी नानी के लिए....आज भी मैं देख सकता हूं उस सुबह का सूरज, गरम सूरज, मेरे माता पिता, लोगों की भीड़—मैंने अपनी नानी के पैर छुए और उनसे कहा: कहीं दूर थोड़े ही जा रहा हूं, कुल सौ मील का ही तो फासला है। जब भी तुम बुलाओगी, मैं तुरंत चला आऊँगा। रेलगाड़ी से तो केवल तीन घंटे लगते है।
      उन दिनों तेज गाड़ियाँ उस गांव में नहीं रुकती थी। नहीं तो वह सफर केवल दो घंटे का था। अब रुकती है। लेकिन अब उनके रूकने या न रूकने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
      मैंने उनसे कहा: मैं दौड़ता हुआ चला आऊँगा। अस्‍सी या सौ मील तो कुछ भी नहीं है।
      उन्‍होंने कहा: हां, मैं जानती हूं और मुझे कोई चिंता नहीं है। उन्‍होंने अपने आप को संयत करने की पूरी कोशिश की, लेकिन मैं उनकी आंखों में उमड़ते हुए आंसुओं को देख सकता था। तत्‍क्षण मैं मुड़ा और स्‍टेशन की और चल पडा। सड़क के मोड़ पर पहुच कर भी मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा, क्‍योंकि मुझे मालूम था की अगर मैंने पीछे मूड कर देखा तो या तो उनके आंसुओं का बाँध टूट जाएगा और फिर मैं कभी कालेज नहीं जाउुंगा, या अगर वे फूट कर रो न पड़ी तो उनकी श्‍वास ही रूक जाएगी और उनके प्राण निकल जाएंगे। मैं ही उनके लिए सब कुछ था। उनके अस्‍तित्‍व का केंद्र मैं ही था। उनके समस्‍त जीवन का आधार मैं ही था। दिन भर वे मेरे काम मैं व्‍यस्‍त रहती थी। मेरे कपड़े, मेरे खिलौने, मेरा कमरा, मेरा बिस्‍तर, मेरे बिस्‍तर की चद्दरें। मैं उनसे कहता: नानी आप पागल है। चौबीस घंटे आप सिर्फ मेरे काम में व्‍यस्‍त रहती है। और मैं तो आपके लिए कभी कुछ करने बाला नहीं हूं।
      वे कहती: वह तो तुम पहले ही कर चुक हो।
      मैं नहीं जानता कि इसका अर्थ क्‍या है। और अब तो वे है ही नहीं, तो उनसे पूछा भी नहीं जा सकता। लेकिन उनहोंने ये शब्‍द इतनी दृढ़ता से , इतने जोर से कहे थे कि मैं भावभिभूत हो गया। आज भी जब मुझे उनकी याद आती है तो मैं भावविभोर हो जाता हूं।
      बाद में मुझे पता चला कि जब मैं गली के कोने को पार कर गया तो लोगों ने कहा: ये कैसा लड़का है। एक बार भी इसने पीछे मूड कर नहीं देखा।
      और मेरी नानी काक मेरी इस बात पर बहुत गर्व था। उन्‍होंने उन लोगों से कहा: हां, वह मेरा बेटा है। मैं जानती थी वह पीछे मूड कर नहीं देखेगी—और न सिर्फ इस गली के मोड़ पर, वह अपने जीवन में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखेगी। और मुझे इस बात पर भी गर्व है कि वह अपनी नानी को समझता है। उसे मालूम था कि अगर पीछे मूड कर देखा तो मैं रो पडूंगी। और वह यह कभी नहीं चाहता। उसे अच्‍छी तरह से मालूम था। मुझसे भी ज्‍यादा अच्‍छी तरह कि अगर मैं रो पड़ी तो वह जा न सकेगा। मरे कारण नहीं, बल्‍कि मेरे प्रति आजीवन यहां पर रह सकता है।
      मस्‍तो से एकाएक विदा लेना भी ठीक इसी प्रकार है। नहीं, मैं यह नहीं कर सकता। मुझे एक स्‍वभाविक अंत पर आना होगा, बिना किसी फुल स्‍टाप के। क्‍योंकि मेरा जीवन ऐसा ही है कि अगर मैं अपने जीवन के बारे में बात करता रहु्ं तो उसका न तो आदि है और न अंत है। मेरा जीवन में आरंभ और अंत होगा ही नहीं।
      बाईबिल कम से कम कहती है, आरंभ में....।
      तुम्‍हें इसको बिना किसी आरंभ या अंत के प्रकाशित करना पड़ेगा। इस प्रकार प्रकाशित करना बहुत मुश्‍किल होगा। लेकिन देव गीत समझ सकता है। वह यहूदी है। यहूदी कागजात बिना आरंभ और अंत के हो सकते है। ऐसा लगता है कि आरंभ है, लेकिन ऐसा केवल लगता है। इसीलिए सारी प्राचीन कहानियां शुरू होती है, वन्‍स अपान ए टाइम, एक बार... से और फिर इसके बाद कुछ भी आरंभ किया जा सकता है। और फिर वन्‍स अपान ए टाइम...एक बार.. सब रूक जाता है। अंत में समाप्‍त भी नहीं कहा जाता। मेरी जीवन कथा कोई साधारण कथा नहीं हो सकती।
      वसंत जोशी मेरी जीवनी लिख रहा है। जीवनी तो बहुत उथली होने वाली है, इतनी उथली कि वह पढ़ने लायक भी  नहीं होगी। कोई भी जीवनी गहराई तक नहीं जाती—खासकर मनुष्‍य की मनोवैज्ञानिक पर्तों को भेद कर उसकी गहराई में प्रवेश नहीं कर सकती—विशेषकर अगर व्‍यक्‍ति उस बिंदु पर पहुंच गया हो जहां प्‍याज के भीतर छुपा हुआ केंद्र हैं। जो शून्‍य है, जहां पर मन अप्रासंगिक हो जाता है। प्‍याज की एक-एक पर्त को छोलते जाओ,आंखों से आंसू बहते जाएंगे—अंत में कुछ भी नहीं बचेगा। और वहीं है प्‍याज का केंद्र,वहीं से वह आया है। कोई भी जीवनी कि गहराई तक नहीं पहुंच सकती, खासकर उस आदमी की जाह अमन को जान चुका है। मैं भी  समझ-बुझ कर कह रहा हुं। क्योंकि जब तक मन को नहीं जाप लोगे तब तक अमन को नहीं जान सकते। यही तो संसार को मेरा योगदान है।
      पश्चिम ने मन पर बहुत गहरी खोज की है और उन्‍हें मन की अनेक पर्तों का पता चला है—चेतन, अचेतन,अवचेतन। पूर्व ने तो इस सबको एक और रख दिया है और तालाब में कूद पडा है—और स्‍वरहीन स्‍वर, अमन। इसलिए पूर्व ओर पश्‍चिम परस्‍पर विरोधी है। एक प्रकार से यह विरोध स्‍वाभाविक है। रू यार्ड किपलिंग ने ठीक ही कहा था:  पश्‍चिम पश्‍चिम है और पूरब पूरब है। और ये दोनों कभी मिल नहीं सकते। एक हद तक वह सही है। वह भी उसी बात पर जोर दे रहा है जो मैं कह रहा हूं।
      पश्‍चिम ने मन को देखा है, बिना यह समझे कि मन को कोन देख रहा है। यह बड़ी अजीब बात है। तथाकथित बड़े-बड़े वैज्ञानिक मन को देखने की कोशिश कर रहे है और कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा कि मन को देख कोन रहा है।
      एँच. जी वेल्‍स बुरा आदमी नहीं था, अच्‍छा आदमी था, ठीक-ठाक। मेरे लिए वह कुछ ज्‍यादा ही मीठा है, सफेद चीनी कुछ अधिक है। लेकिन हर आदमी कि अपनी पंसद होती है। इसी लिए मुझे केवल अपनी पसंद का ही ख्‍याल नहीं करना चाहिए। और प्रत्‍येक आदमी डायबिटीज नहीं है। और मुझे सिर्फ डायबिटीज ही नहीं है, मैं चीनी को नापसंद करता हूं। जब मुझे डायबिटीज के बारे में पता चला, उससे पहले भी मैं सफेद चीनी के खिलाफ था। मैं चीनी को सफेद जहर कहता हूं। तो शायद चीनी के प्रति मेरा पूर्वा ग्रह हो।
      यद्यपि एँच. जी. वेल्‍स चीनी से भरे हुए है। फिर भी वे केवल यही नहीं है। कभी-कभी उनकी अंतर्दृष्‍टि आश्‍चर्यजनक होती है। दुर्लभ। जैसे उदाहरण के लिए, टाईम-मशीन की कल्‍पना। उसने कल्‍पना की कि एक दिन ऐसी मशीन की खोज होगी जो समय में पीछे की और जाती है। इसका अर्थ तुम लोगों को समझ में आया, इसका अर्थ यह है कि तुम वापस जा सकते हो अपनी बचपन में, अपने मां के गर्भ में। और अगर तुम हिंदू हो तो शायद अपने पिछले जन्‍मों में—जब तुम  हाथी थे या चींटी थे या कुछ और थे। अर्थात तुम पीछे भी जा सकते हो और आगे भी जा सकते हो।
      यह विचार बहुत गहन अंतर्दृष्टि है। मुझे यह तो नहीं मालूम कि ऐसा मशीन कभी होगी या नहीं,लेकिन कुछ ऐसे लोग हुए है जो बड़ी आसानी से बीते हुए समय में जा सकते थे। क्‍या तुम अपने बीते हुए कल में जाने में को मुश्‍किल होती है। इसी प्रकार कुछ साहसी लोग अपने बीते हुए जन्‍म में जा सकते है। अब इनको बीते हुए जन्‍म कहो या कल के जन्‍म कहो—मुझे तो ये शब्‍द ठीक लगते है। जब मेरे जैसे गलत आदमी को कुछ ठीक लगता है तो यह निश्‍चित समझो कि वह ठीक है। वह ठीक होगा ही।
      मस्‍तो की बात करते-करते मैं अचानक रूक गया। इससे एक तरह से दिन भर मुझे तकलीफ होती रही। तुम्‍हें मालूम है कि यूं तो न मुझे तकलीफ दी जा सकती है और न ही मैं दुःखी हो सकता हूं। लेकिन उस चर्चा को एकाएक बंद कर देने से मुझे ऐसा ऐ प्रसंग याद आ गया जिसका सीधा संबंध मस्‍तो से है।
      वे मुझे इलाहाबाद स्‍टेशन पर पहुंचाने आए थे। वास्‍तव में हम कभी भी खासकर उस दिन अलग नहीं होना चाहते थे। इसका कारण तो बाद में साफ हुआ, लेकिन उसका इससे कोई संबंध नहीं था। अभी तो मैं केवल उसका उल्‍लेख ही करूंगा ओर ब्योरा बाद में दूँगा। वह मुझे विदा देने आए थे। क्‍योंकि उन्‍होंने कहा कि शायद से दो-तीन महीने मुझसे नहीं मिल सकेंगे। इसीलिए वे अधिक से अधिक समय मेरे साथ बिताना चाहते थे।
      मस्‍तो ने कहा: कितना अच्‍छा हो अगर यह गाड़ी लेट हो जाए।
      मैंने कहा: मस्‍तो, क्‍या बात करते हो। क्‍या तुम सचमुच पागल हो गए हो , भारतीय रेल गाड़ियाँ भी कभी समय पर आती है।
      गाड़ी सच मुच छह घंटे देर से आई। भारत की पैसेंजर गाड़ी के लिए तो यह आम बात है। लेकिन हम अलग न हो सके। हम अपनी बातों में इतने मस्‍त थे कि हमें पता ही नहीं लगा कि गाड़ी कब चली गई। हम दोनों खूब हंसे आरे इस बात पर खुश हो गए कि दुसरी गाड़ी के आने तक हम दोनों कुछ घंटे और एक दूसरे के साथ रह सकते है। हमारी बातचीत और हमारे हंसी-मजाक के कारण को सुन कर स्‍टेशन मास्‍टर ने हमसे कहा, आप लोग इस प्‍लेटफार्म पर अपना समय क्‍यों बरबाद कर रहे है। आप लोग सामने वाले प्‍लेट फार्म पर चले जाइए।
      मैंने उनसे पूछा: क्‍यों?
      उसने कहा: वहां पर केवल माल गाड़ियाँ ही रुकती है। वहां पर मजे से आप एक दूसरे के गले लग कर बातचीत कर सकते है। और वहां पर यह चिंता भी नहीं रहेगी कि कहीं तुम गाड़ी पकड़ ही न लो। उस प्‍लेटफार्म पर तुम गाड़ी पकड़ ही नहीं सकते, क्‍योंकि वहां पर कोई सवारी गाड़ी आएगी ही नहीं।
      मैंने मस्‍तो से कहा कि यह विचार तो  बहुत आध्‍यात्‍मिक लगता है। स्‍टेशन मास्‍टर ने सोचा था कि उसकी इस बात से हम नाराज हो जाएंगे। लेकिन जब हम दोनो उन उसको धन्‍यवाद दिया और दूसरे प्‍लेटफार्म पर चले गए, तो वह हमारे पीछे भीगता हुआ आया आरे कहने लगा, मेरी बात को गंभीरता से मत लो, मैं तो मजाक कर रहा था। मेरा विश्‍वास करो, यहां पर तो केवल माल गाड़ियाँ ही रुकती है। इस प्लेटफार्म पर तो आप कभी काई गाड़ी पकड़ नहीं सकेगें।
      मैंने कहा: मैं कोई गाड़ी नहीं पकड़ना चाहता। और मस्‍तो भी नहीं चाहते कि मैं कोई गाड़ी पकडूं। लेकिन किया क्‍या जाए, जिन सज्‍जन के घर पर हम ठहरे हुऐ थे वे इस बात पर बहुत जोर दे रहे थे कि अब मेरा युनिवर्सिटी-हांस्‍टल वापस जाने का समय हो गया और मेरा समय बरबाद नहीं होना चाहिए।
      मेरे मृत मित्र पागल बाबा की इच्‍छानुसार मस्‍तो भी चाहते थे कि मैं कम से कम एम.ए. की डिग्री कर लू। इसलिए मुझे जाना ही पडा। तुम भरोसा नहीं करोगे लेकिन पागल बाबा से किए गए वायदे को पूरा करने के लिए ही मैं युनिवर्सिटी में पढ़ा। युनिवर्सिटी ने आगे और पढ़ने के लिए मुझे स्कौलरशिप भी दी। लेकिन मैंने इनकार कर दिया, क्‍योंकि मैंने पागल बाबा से केवल एम. ए. तक का ही वादा किया था।
      लोगों ने कहां: तुम पागल हो क्‍या? अगर तुम्‍हें सीधे नौकरी भी मिल जाए तो भी तुम्‍हें इससे अधिक पैसे नहीं मिलेंगे। और यह स्कौलरशिप तो दो बरस से बढ़ कर कई बरस तक चल सकती है—जब तक तुम्‍हारा प्रोफेसर तुम्‍हारी सिफारिश करता रहे। इसीलिए यह अवसर खोना नहीं चाहिए।
      मैंने कहा: अगर बाबा मुझे पी एँच. डी. करने को कहते तो मैं अवश्‍य करता। पर मैं क्‍या कर सकता हूं। उन्‍होंने मुझसे नहीं कहा। और वे तो इसे जाने बिना ही मर गए।‘’
      मेरे प्रोफेसर ने भी मुझे समझाने की बहुत कोशिश‍ की, लेकिन मैंने उनसे कहा, इस बात को अब भूल ही जाइए, क्‍योंकि मैं तो यहां पर सिर्फ एक पागल आदमी से किए गए अपने वायदे को पूरा करने आया था।
      लेकिन मुझे न तो एम. ए. की डिग्री से न इसके आगे की किसी डिग्री के किसी प्रकार की कोई आत्मतुष्टि होने वाली है। इसमे मुझे परिपूर्णता का बोध नहीं हो सकता था। पागल बाबा को न जाने कैसे यह ख्‍याल हो गया था कि अगर एम. ए. की डिग्री न हुई तो को ई नौकरी नहीं मिल सकती। मैंने पूछ: बाबा, ,क्‍या आप सोचते है कि मुझे नौकरी करने की कभी इच्‍छा होगी।
      उन्‍होंने हंस कर उत्‍तर दिया: मुझे मालूम है कि तुम्‍हें इच्‍छा नहीं होगी, लेकिन फिर भी कौन जाने किस समय क्‍या हो जाए। मैं बूढा आदमी हूं और मैं हर संभव खराब स्‍थिती के बारे में सोचता हूं।
      तूम लोगों ने कहावत तो सुनी होगी कि अच्‍छे से अच्‍छे की आशा करो और खराब से खराब स्थिति की अपेक्षा रखो। बाबा ने इसमें थोड़ा कुछ और जोड़ दिया, उन्‍होंने कहा कि खराब से खराब स्‍थिति के लिए तैयार रहो—उसका सामना करने के लिए तैयारी पूरी होनी चाहिए। बिना तैयारी के खराब स्‍थिति नहीं आनी चाहिए उसका सामना कैसे करोगे।
      मस्‍तो को इतनी आसानी से विदा नहीं किया जा सकता। इसलिए इस खयाल को ही मैं छोड़ देता हूं। हां, बीच-बीच में उसका उल्‍लेख होता ही रहेगा। सो ठीक है। यह कोई परंपरागत या रूढ़िवादी आत्‍—कथा नहीं है। इसकी आत्‍म–कथा ही नहीं कहा जा सकता। सिर्फ जीवन के अंश हजारों दर्पणों में प्रतिबिंबित हुए है।
      एक बार मैं एक शीशमहल नामक महल में मेहमान था। वह सिर्फ दर्पणों से ही बना हुआ था। उसमें रहना भयानक था, बहुत मुश्‍किल था। लेकिन शायद मैं अकेला ही ऐसा आदमी था जिसको वहां पर बहुत मजा आया। राजा जो उस महल का मालिक था। अचंभित था। उसने कहा: जब भी मैं किसी मेहमान को यहां ठहराता हूं तो कुछ घंटे के बाद ही वह कहता है कि मुझे कहीं और ठहरा दो, यहां रहना बहुत मुश्‍किल है। क्‍योंकि चारों और अपने जैसे लोग ही दिखाई देते है। आरे जो भी हम करते है उसी को वे दोहराते है। अगर किसी लड़की को गले लगाओ तो वे सब उसको गले लगाते है—यह बहुत डरावना है, बहुत ही परेशानी हो जाती है। ऐसा लगता है कि तुम सिर्फ दर्पण हो और कुछ भी नहीं। और ऐसा लगता हे कि सब दर्पण बढ़ कर रहे है।
      मैंने राजा से कहा: मैं तो कुछ भी नहीं बदलना चाहता। हां, आप इस महल को बेचना चाहें तो मैं खरीदने को तैयार हूं। मैं इसे ध्‍यान केंद्र बना दूँगा। बड़ा मजेदार दृश्‍य होगा—लोग बैठे हुए चारो और अपने को देखेंगे, सब जगह उन्‍हें अपनी ही हजारों सूरतें दिखाई देंगी। वे पागल भी हो सकते है। इसे दुर्धटना नहीं कहा जा सकता। क्‍योंकि देर अबेर किसी आरे जन्‍म में वे पागल होने ही वाले है। इसमें कुछ देर लगेगी।  लेकिन इतने सारे लोगों से घिरे रहने पर भी अगर वे शांत और शिथिल हो सकें और चुपचाप इसे स्‍वीकार करते हुए अगर वे कहा सकें कि इतनी देर हमें घेरे रहने के लिए धन्‍यवाद, अगर इसी प्रकार वे स्‍व-केंद्रित रहें तो वे समाधि को उपलब्‍ध हो सकते है। हर प्रकार से उन्‍हें लाभ ही होगा।
      मन से नीचे उतर जाना पागलपन होता है। लेकिन एक पागलपन मन के ऊपर उठ जाने से भी होता है। उस पागलपन को समाधि या संबोधी कहते है। यह भी असामान्‍यता है। इसीलिए तो बेचारे मनोवैज्ञानिक सोचते है कि बुद्ध और जीसस जैसे लोग असमान्य है। लेकिन उन्‍हें सोच-समझ कर अपने शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। अगर वे पागल खाने में भर्ती लोगों को के लिए असमान्‍य शब्द का प्रयोग करते है। तो किस मुहँ से वे बुद्ध के लिए असामान्‍य  शब्‍द का प्रयोग कर सकें ते है। एक तो सामान्‍य से नीचे है और दूसरा सामान्‍य से ऊपर है। दोनों असामान्‍य है, लेकिन उनका वर्गीकरण अलग-अलग हो ना चाहिए। लेकिन जिसे मैं बुद्धो का मनोविज्ञान कहता हूं। उसके लिए मनोविज्ञान में कोई स्‍थान नहीं है।
      मस्‍तो निश्‍चित ही बुद्ध पुरूष थे। उनको मैं सिर्फ, धन्‍यवाद फिर मिलेंगे, नहीं कह सकता। मेरे लिए उन्‍होंने इतना अधिक किया कि उसके लिए धन्‍यवाद शब्‍द बहुत छोटा और अनुपयुक्‍त है। इतना तो कोई किसी के लिए नहीं करता।
      इसीलिए तो इसके लिए कोई शब्‍द नहीं है.....किसी को जरूरत भी नहीं है। और मैं उन्‍हें यह भी नहीं कह सकता कि फिर मिलेंगे। क्‍योंकि न तो वह दुबारा इस दुनिया में आएंगे,और न ही मैं दुबारा इस दुनिया में आऊ्रगा। दुबारा मिलना तो असंभव है। एक ही रास्‍ता है कि इस कहानी में जब भी स्‍वाभाविक ढंग से उनका उल्‍लेख आए, आ जाने दिया जाए। और इस प्रकार इस संसमरणों का स्‍वाद ही अलग होगा—आगमन और प्रस्‍थान, दोनों अचानक और एकाकी होगें।
      तो अब मैं फिर से मस्तो को ले आता हूं। वह पागल बाबा जैसे आदमी नही थे। पागल बाबा तो केवल रहस्‍यदर्शी थे। मस्‍तो दार्शनिक या फिलासफर भी थे। हम दोनों रात को गंगा के किनारे लेट कर कई विषयों की चर्चा करते । हम दोनों को एक दूसरे सा संग-साथ बहुत अच्‍छा लगता। कभी यूं ही बातचीत करते, कभी मौन होकर ऐ दूसरे की उपस्‍थिति का आनंद उठाते। यह वही गंगा है जहाँ पर सबसे पहले उपनिषाद गाए गए थे। जहां पर बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया था। जहां पर महावीर घूम और उपदेश दिया। बिना हिमालय और गंगा के पूर्व का रहस्‍यवाद सोचा ही नहीं जा सकता, ये उसके अनिवार्य अंग है। दोनों का योगदान अद्भुत है।  
      हम वहां पर घंटों बैठते थे। मुझे मौन का सौदर्य अभी तक याद है। कभी-कभी तो हम वहां रेत पर ही सो भी जाते थे, क्‍योंकि मस्‍तो कहते थे, आज की रात इतनी सुंदर है कि विस्‍तर में सोना अपमानजनक होगा। ये तारे इतने नजदीक है। यह उनकी ही शब्‍द है अपमानजनक मैं सिर्फ कोट कर रहा हूं।
      मैने कहा: मस्‍तो, तुम जानते हो कि मुझे तारों से बहुत प्रेम है—विशेषकर ति जब वे नदी में प्रतिबिंबित होते है। तारे तो सुंदर है ही, लेकिन उनका प्रतिबिंब तो चमत्‍कार है चमत्‍कार। पानी जो कमाल करता है उसकी तुलना केवल सपनों से ही की जा सकती है। मुझे ये तारे यह नदी, तारों का प्रतिबिंब, तुम्‍हारा साथ और तुम्‍हारा स्‍नेह—सब बहुत अच्‍छा लगते है। तो यहां रूकने के संबंध में तो कोई प्रश्न ही नहीं है। तुम्‍हारी जरा सी झलक से मेरा मन दुःखी हो जायगा। क्‍योंकि मैं समझूंगा कि मैं तुम्‍हारे लिए एक बोझ बन गया हूं।
      उन्‍होंने कहा: क्‍या, मैंने तो कभी नहीं कहा कि तुम मेरे लिए बोझ हो।
      मैंने कहा: हां, तुमने नहीं कहा। किसी ने नहीं कहा। मैं तो सिर्फ भविष्‍य के बारे में कह रहा था। किसी भी कारण से मेरे बारे में कभी सोच-विचार करो, तो मुझे जरूर बताना। क्‍योंकि अगर कोई सोच विचार करे ,झिझकते तो मैं बहुत नाराज हो जाता हूं।
      उस दिन मैंने उससे यह कहा और आज मैं तुम्‍हें बता रहा हूं। कि गुरजिएफ को एक अनोखा विचार सुझा जो पहले किसी गुरु को नहीं सुझा। अगर सुझा भी हो तो कोई उसे ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं था। गुरजिएफ कहता था। कभी दूसरे का खयाल मत करो। यह एक प्रकार का अपमान है। उसने इन शब्दों को अपने दरवाजे के ऊपर लिख रखा था। यह बहुत ही महत्‍वपूर्ण वक्‍तव्‍य है।
      लोग एक दूसरे का खयाल करने के लिए एक दूसरे को विवश करते है। वे कहते है, कृपया मेरा खयाल करो या मेरा खयाल रखो। किसी से यह कहना कि मेरा खयाल करो बहुत ही लज्‍जाजनक और अपमानजनक है। अपने जीवन में मैंने कभी किसी काक यह नहीं कहा। मुझे ऐसी बहुत सी स्थितियाँ याद है जब ये शब्‍द मेरी सहायता कर सकते थे। लेकिन ये बहुत ही अपमानजनक और शर्मनाक है। यह अंहकार नहीं है, याद रखना। अहंकारी व्‍यक्‍ति तो चाहता है कि सबसे पहले उसका खयाल किया जाए, क्‍योंकि वह कोई साधारण आदमी नहीं है। विनम्र व्‍यक्‍ति तो कभी यह नहीं कहेगा कि उसका खयाल किया जाए अगर किया जाए तो वह मना कर देगा।
      मैं विश्वविद्यालय में था, एक गरीब छात्र। कई तरह के काम करके किसी तरह मैं विश्वविद्यालय में आया था। फिर संयोगवश ही मैंने राष्‍ट्रीय अंतर्विविद्यालय बाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लिया। एक निर्णायक थे एस. एस. राय,जो इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्‍यक्ष हैं। वे तो बस मेरे प्रेम में पड़ गए। और मेरी तरफ से भी ऐसा ही था। वे इस वाद-विवाद प्रतियोगिता के एक निर्णायक थे। उन्‍होंने मुझे सौ में से निन्‍यानवे नंबर दिए। स्‍वभावत: मैं जीत गया। यह बहुत महत्‍वपूर्ण वाद-विवाद प्रतियोगिता था। क्‍योंकि इसके विजेता को सरकारी मेहमान बन कर तीन महीने के लिए मिडिल ईस्‍ट के दौरे पर जाना था। उसे एक प्रकार से करीब-करीब राजदूत के समान ही व्‍यवहार मिलने वाला था। यह बहुत बड़ा अवसर था। प्रोफेसर एस.एस. राय ने मुझे सौ में से निन्यानवे नंबर दिए और दूसरों को शून्‍य दिया ताकि मेरी जीतने में कोई कसर न रह जाए। बाद में मैंने उनसे पूछा: आपने मेरे साथ इतना पक्षपात क्‍यों किया।
      उन्‍होंने कहां: जैसे ही मैंने तुम्‍हारी आंखों में देखा, मैं सम्‍मोहित हो गया। मेरी पत्‍नी भी यही कहती है कि मैं तुमसे सम्‍मोहित हो गया हूं। नहीं तो ऐसा कैसे कर सकता था। कोई भी देखेगा कि मैंने तुम्‍हें सौ में से निन्यानवे नंबर दिए है और दूसरे प्रतियोगियों को शुन्‍य दिया है। तो मेरा पक्षपात स्‍पष्‍ट हो जाएगा।
      मैंने कहा: नहीं,मैं आपसे यह नहीं पूछ रहा कि आपने मुझे निन्यानवे नंबर क्‍यों दिए है। वह आपकी पत्‍नी का प्रश्‍न है। शायद और लोग भी पूँछें। मैं तो यह पूछने आया हूं कि आपने मुझे शत प्रतिशत क्‍यों नहीं दिए।
      एक क्षण के लिए तो वे भौचक्‍के रह गए। फिर वे हंसे और उन्‍होंने कहा कि मैं मस्तो बाबा का शिष्‍य था। उन्‍होंने मुझसे ठीक ही कहा था जब तुम इस व्‍यक्‍ति को देखोगे तो तुम्‍हें मेरी जरूरत न रहेगी। और गायब होने से दो तीन साल पहले मस्‍तो बाबा ने यह कहा था। अब मैं तुमसे सच कह रहा हूं कि मैं तुमसे सम्‍मोहित नहीं हुआ था। हुआ यह था कि तुम्‍हारी आँखो ने मुझे उनकी आँखो की याद दिला दी। मैंने पागल बाबा को भी देखा है। और यह पागल बाबा दोनों की....बड़े आर्श्‍चय की बात है कि तुम्‍हारी आंखें उन दोनों की आंखों जैसी है। कैसे यह होता है,मुझे नहीं मालूम।
      मैंने कहा: यह आंखों कि बात नहीं हैं। यह उनकी पारदर्शिता है जिसके कारण वे एक सी दिखाई देती है।
      मुझे इस बात की खुशी है कि मेरी आंखों में आपको उन दोनों की झलक मिली और इनके कारण आपको उनकी याद आई। इससे बड़ा पुरस्‍कार मुझे क्‍या मिल सकता है। किंतु फिर भी मुझे आप से यह पूछना है कि आपने मुझे शत प्रतिशत नंबर क्‍यों नहीं दिए।
      उन्‍होंने कहा: मैं एक गरीब प्रोफेसर हूं। अगर मैं तुम्‍हें शत प्रतिशत नंबर देता और दूसरे ग्‍यारह प्रतियोगियों को शून्‍य देता तो लोगों को लगता के मैंने न्‍याय नहीं किया। मैंने सच में न्‍याय किया है। लेकिन यह कौन समझेगा। इसे समझने के लिए मुझे मस्‍तो बाबा और पागल  बाबा कहां मिलेंगे। मैंने तो अपनी कायरता के कारण तुम्‍हें निन्यानवे प्रतिशत नंबर दिए है।
      उन्‍होंने इतनी सरलता से अपने आपको कायर कहा कि मैं उनकी दस सरलता और सच्‍चाई के कारण उनके प्रेम में पड़ गया। हालाकि उन्‍हेांने सच में बहुत ही बहादुरी का काम कर दिया था। एक प्रतिशत से क्‍या फर्क पड़ जाता। निन्यानवे प्रतिशत एक व्‍यक्‍ति को और शून्‍य प्रतिशत बाकी सभी को। यह एक ही बात है, उन्‍होंने मुझे सौ प्रतिशत या उससे भी ज्‍यादा दिए होते।
      बस, उस वाद-विवाद प्रतियोगिता के कारण और पागल बाबा और मस्‍तो बाबा की याद के कारण मैं सागर विश्‍वविद्यालय में पढ़ने लगा। उस समय प्रोफेसर एस. एस. राय वहीं थे। मैंने कहा: अगर मुझे एम. ए. करना है तो आपके पथ-प्रदर्शन में ही करूंगा। पागल बाबा और मस्‍तो बाबा दोनों यही चाहते थे कि कभी को ई जरूरत पड़ जाए तो मुझे उसके लिए पहले से ही तैयार रहना चाहिए। लेकिन मुझे कभी कोई जरूरत हुई नहीं, इतना ही नहीं कि मुझे कभी कोई चीज की जरूरत नहीं पड़ी बल्‍कि चारों ओर से लोग मुझ पर चीजें बरसाते रहे है। इसीलिए तो मैं यह कहा है कि आरंभ से ही मेरे साथ कुछ ठीक हो गया है।
      एस. एस. राय मेरे प्रियतम शिक्षकों में से एक थे। पूरी क्‍लास के सामने वे बेझिझक मुझसे कह पाते थे मैं उठ कर उन्‍हें वह बात समझाऊं जो उनकी समझ में नहीं आ रही है। और मुझे ऐसा करना पड़ता। एक दिन मैंने उनसे कहा: राय साहब। यही मैं उन्‍हें बुलाता था—यह तो अच्‍छा नहीं लगता कि आप मुझसे समझाने के लिए कहते है, मैं आपका छात्र हूं।
      उन्‍होंने कहा: अगर पागल बाबा तुम्‍हारे पैर छू सकेत थे और मस्‍तो बाबा तुम्‍हारे पैर छूने के अतिरिक्‍त तुम्‍हारी उचित-अनुचित हर प्रकार की मांग को पूरा कर सकते थे। तो मैं क्लास में तुमसे क्‍यों न पूछ सकता। मैं तो एक छोटा सा आदमी हूं।
      सैकडों शिक्षकों और प्रोफेसरों को मैं जानता हूं, लेकिन प्रोफेसर राय इन सबसे अलग थे। वे अत्‍यंत प्रामाणिक और सच्‍चे व्‍यक्‍ति थे। मैं जो कहता उसे वे इतना पंसद करते थे कि अपने लेक्‍चर में वे मुझे उद्धृत करते थे। और स्‍पष्‍ट कहते थे कि यह मेरा वक्‍तव्‍य है। इसलिए अन्‍य छात्र मुझसे जलते थे। दर्शन शस्‍त्र विभाग के अन्‍य दूसरे प्रोफेसर मुझसे जलते थे। तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा जान कर कि उनकी पत्‍नी को भी मुझसे ईर्ष्‍या होती थी। संयोग से यह मुझे पता चला। एक दिन मैं उनके घर गया, तो उनकी पत्‍नी ने कहा: क्‍या, अब तुम हमारे घर भी आने लगे। वे तो तुम्‍हारे लिए पागल हो गए है। जब से तुम उनके विभाग में पढ़ने लगे हो, हमारे दांपत्‍य जीवन में दरार पड़ गई है।
      मैंने कहा: अब मैं दुबारा इस घर में कभी नहीं आऊँगा, लेकिन याद रखिएगा कि इससे आपकी बात बनेगी नहीं। एक दिन आपको मेरे पास आना पड़ेगा।
      और इसके बाद मैं उनके घर कभी नहीं गया। कोई एक साल के बाद उनकी पत्‍नी को मेरे पास आना पडा और मुझसे क्षमा मांगते हुए उसने कहा, अब तुम ही हम दोनों में सुलह करा सकते हो।
      मैंने कहा: पति-पत्‍नियों को जोड़ने या तोड़ने का काम अभी मैंने शुरू नहीं किया है। आपको इंतजार करना पड़ेगा।
      जब वे बहुत रोई और गिड़गिडाई तो मुझ उनके घर जाना ही पडा। मैंने प्रोफेसर एस. एस. राय से कुछ नहीं कहा, केवल उनका हाथ पकड़ कर उनके पास एक घंटा बैठा रहा और एक घंटे बाद चला आया। एक शब्‍द भी नहीं बोला। और सब ठीक हो गया। यह कीमिया काम कर गई। मौन में अपना जादू है।
      क्‍या समय समाप्‍त हो गया, तो बस करें।

--ओशो             प्रोफेसर-- एस. एस. राय

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