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शुक्रवार, 15 जून 2018

अध्‍यात्‍म उपनिषद--(प्रवचन-11)

धर्म—मेध समाधि—ग्‍यारहवां प्रवचन

     सूत्र :


वृत्तयस्तु तदानीमप्यज्ञाता आत्मगोचरह:।
स्मरणादनुम।ईयन्ते व्युइप्प्थतस्य समुइप्प्थता:।। 36।।
अनादाविह संसारे संचिता: कर्मकोटय:।
अनेन विलयं यान्‍ति शुद्धो धर्मोऽभिवर्धते।। 37।।
धर्ममेधमिमं प्राहु: समाधि यप्तोवित्तम।:।
वर्षत्येष यथा धमर्त्मृतधारा: सहसश:।। 38।।
अमुना वासनाजाले निःशेष प्रीवलायिते।
समूलोन्मूलिते. पुण्यपापाख्ये कर्मसंचये।। 39।।
वाक्यस्मृतिबद्धं सत् प्राक् परोक्षावमासते।
करामलकवद्बोधमपरोक्षं      प्रसूयते।। 40।।


इस समाधि के समय वृत्तियां केवल आत्मरूप विषय वाली होती हैं, इससे जान नहीं पड़ती, पर समाधि में से उठे हुए साधक की वे उत्थान पाई हुई वृत्तियां स्मरण से अनुमान की जाती हैं।

इस अनादि संसार में करोड़ों कर्म इकट्ठा कर लिए जाते हैं, पर इस समाधि द्वारा वे नष्ट हो जाते हैं और शुद्ध धर्म बढ़ते हैं।
उत्तम योगवेत्ता इस समाधि को धर्म—मेघ कहते हैं, क्योंकि वह मेघ की तरह धर्मरूप हजार धाराओं की वर्षा करती है।
इस समाधि द्वारा वासनाओं का समूह पूर्णत: लय को प्राप्त होता है और पुण्य—पाप नाम के कर्मों का समूह जड़ से उखड़ जाता है, तब यह तत्त्वमसि वाक्य प्रथम परोक्ष ज्ञानरूप में प्रकाशित होता है, और फिर हाथ में रखे आमला की तरह अपरोक्ष ज्ञान को उत्पन्न करता है।




श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि, इन चार चरणों के संबंध में सुबह हमने बात की। समाधि संसार का अंत और सत्य का प्रारंभ है। समाधि मन की मृत्यु और आत्मा का जन्म है। इस ओर से देखें तो समाधि अंतिम, चरण है, उस ओर से देखें तो समाधि पहला चरण है।
श्रवण, मनन, निदिध्यासन, इनसे मन क्षीण होता चलता है, लीन होता चलता है; समाधि में पूरी तरह लीन हो जाता है। और जहां मन पूरी तरह लीन हो जाता है, वहां उसका अनुभव शुरू होता है, जो वस्तुत: हम हैं। इस समाधि के संबंध में यह सूत्र है। और इस सूत्र में कुछ बहुत गहरी बातें हैं।
'समाधि के समय वृत्तियां केवल आत्मरूप विषय वाली होती हैं, इससे जान नहीं पड़ती, पर समाधि में से उठे हुए साधक की वे उत्थान पाई हुई वृत्तियां स्मरण से अनुमान की जाती हैं।’
यह पहली बात काफी खयाल से समझ लें। जो साधना में लगे हैं, उनके लिए, आज नहीं कल काम की होगी।
समाधि में कोई अनुभव नहीं होता। सुन कर कठिनाई होगी। समाधि में कोई अनुभव हो भी नहीं सकता। और समाधि परम अनुभव भी है। यह विरोधाभासी वक्तव्य है, उलटा दिखाई पडता है। लेकिन कुछ कारण से उलटा दिखाई पड़ता है। समाधि में परम आनंद का अनुभव होता है, लेकिन समाधि में डूबे हुए साधक को कोई भी पता नहीं चलता; क्योंकि साधक और आनंद एक हो गए होते हैं, पता चलने के लिए दूरी नहीं रहती।
हमें पता उन्हीं चीजों का चलता है जिनसे हम भिन्न हैं, अलग हैं, दूर हैं। समाधि में आनंद की जो प्रतीति होती है, जो अनुभव होता है, उसका कोई पता समाधि में नहीं चलता। जब साधक समाधि से वापस लौटता है, तब अनुमान करता है कि आनंद हुआ था; पीछे से स्मरण करता है कि परम आनंद हुआ था, अमृत बरसा था; जीए थे किसी और ढंग में और जीवन की कोई गहन स्थिति अनुभव की थी—यह पीछे से स्मरण आता है, जब मन लौट आता है।
इसे हम ऐसा समझें कि श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि, ये चार सीढ़ियां हैं। इनसे साधक समाधि के द्वार पर जाकर अनुभव करता है। अगर समाधि में ही साधक रह जाए और वापस न लौट सके, तो अपने अनुभव को कभी भी न कह सकेगा। अपने अनुभव को बताने का फिर कोई उपाय नहीं है। लेकिन जो साधक समाधि को उपलब्ध हो जाता है, वह वही का वही वापस कभी नहीं लौटता, नया ही होकर लौटता है। लौट कर सारे संबंध उसके मन से बदल जाते हैं; लेकिन लौटता है मन में।
पहले जब मन में था तो गुलाम था मन का, कोई मालकियत न थी अपनी। मन जो चाहता था, करा लेता था, मन जो बताता था, वही मानना पड़ता था, मन जहां दौड़ाता था, वहीं दौडना पड़ता था। मन की गुलामी थी, मन के हाथ में लगाम थी आत्मा की।
समाधि के द्वार से लौटता है साधक जब वापस मन में, तो मालिक होकर लौटता है। लगाम उसकी अब अपने हाथ में होती है। अब मन को जहां ले जाना चाहता है, वहा ले जाता है। नहीं ले जाना चाहता तो नहीं ले जाता। चलाना चाहता है तो चलाता है, नहीं चलाना चाहता तो नहीं चलाता है। मन की अब अपनी कोई सामर्थ्य नहीं रह जाती। लेकिन समाधि को उपलब्ध साधक जब मन में लौटता है—मालिक होकर—तभी वह स्मरण कर सकता है। क्योंकि स्मरण मन की क्षमता है। तभी वह पीछे लौट कर देख सकता है मन के द्वारा कि क्या हुआ था!
इसका मतलब यह हुआ कि मन केवल संसार की ही घटनाओं को अंकित नहीं करता है, जब साधक समाधि में पहुंचता है, और जो घट रहा होता है, वह भी मन अंकित करता है। मन दोहरा दर्पण है। उसमें बाहर का जगत भी प्रतिबिंबित होता है, उसमें भीतर का जगत भी प्रतिबिंबित होता है। तो जब साधक लौटता है मन में तभी अनुभव कर पाता है कि क्या घटा! तो फिर वह तीन सीढ़ियों से लौटे, तो ही अभिव्यक्ति कर सकता है।
पहली सीढ़ी होगी साधक की समाधि से लौटते वक्त, निदिध्यासन। निदिध्यासन में उसको अनुभव होना शुरू होगा, समाधि में जो उसने जाना था सूक्ष्म में, गहन तल में, अपने आत्यंतिक केंद्र पर, वह निदिध्यासन की सीढी पर आकर उसको अपने आचरण में झलकता हुआ दिखाई पड़ेगा। वह पैर उठाएगा, तो पैर पुराना नहीं मालूम पड़ेगा। इस पैर में कोई नृत्य की ध्वनि समा गई! वह आंख उठा कर देखेगा, तो यह पुरानी आंख नहीं मालूम पड़ेगी, ताजी हो गई, जैसे सुबह की ओस! उठेगा तो निर्भार मालूम पड़ेगा, जैसे आकाश में उड़ सकता है! भोजन करेगा तो दिखाई पड़ेगा कि भोजन शरीर में जा रहा है और मैंने कभी भी भोजन नहीं किया है।
अब वह जो कुछ भी करेगा—समाधि से लौटा हुआ साधक—निदिध्यासन की पहली सीढ़ी पर अपने आचरण में समाधि का प्रतिफलन देखेगा; सब जगह उसका आचरण दूसरा हो जाएगा। वह कल जो आदमी था, मर गया। वह जो समाधि के पहले निदिध्यासन की सीमा में खड़ा आदमी था, यह वही नहीं है। सीडी वही है, आदमी उतरता हुआ दूसरा है। यह कुछ जान कर लौटा है। और ऐसी बात जान कर लौटा है कि इसका पूरा जीवन रूपातरित हो गया है। वह जानने में पुराना मर गया है और नए का जन्म हो गया है।
निदिध्यासन में उसे झलक दिखाई पड़ेगी, जो समाधि में घटा है, रस जो बहा है भीतर, वह अब उसके रोएं—रोएं, व्यवहार में सब तरफ बहता हुआ मालूम पड़ेगा।
महाकाश्यप बुद्ध से बार—बार जाकर पूछता था, कब होगी समाधि? तो बुद्ध कहते थे, तू फिक्र मत कर, मुझसे पूछने न आना पड़ेगा। जब हो जाएगी तो तू पहचान लेगा। और तू ही क्यों पहचान लेगा, जो भी तुझे देखेंगे, वे भी पहचान लेंगे, अगर उनके पास थोड़ी सी भी आंख है। क्योंकि जब भीतर वह क्रांति घटती है, तो उसकी किरणें तन—प्राण, सभी को पार करके बाहर आ जाती हैं।
निदिध्यासन की सीढ़ी पर साधक को पता चलेगा कि मैं दूसरा हो गया; मैं नया हूं मेरा दूसरा जन्म हो गया। साधक को पता चलेगा कि जो मैं गया था समाधि में, वही लौटा नहीं हूं। कोई और गया था कोई और लौटा है।
निदिध्यासन से नीचे है मनन। जब साधक निदिध्यासन से और नीचे उतरेगा मन में, तो मनन का क्षण आएगा। अब साधक सोच सकेगा, क्या हुआ? अब वह लौट कर विचार कर सकेगा, क्या हुआ? क्या मैंने देखा? क्या मैंने जाना? क्या मैं जीया? अब वह विचार में, शब्द में, प्रत्यय में अनुभव को बांधने की कोशिश करेगा।
जो लोग मनन की सीढी पर आकर अनुभव को बांध सके हैं, उनसे ही निकले हैं वेद, उपनिषद बाइबिल, कुरान। बहुत लोग समाधि तक गए हैं, लेकिन जो जाना है, उसे मनन तक वापस लौटाना बड़ा कठिन काम है।
ध्यान रखना, पहली यात्रा इतनी कठिन नहीं थी जो हमें बहुत कठिन मालूम पड़ रही है। इस दूसरी यात्रा से तुलना करें तो पहली यात्रा बहुत सरल थी। यह दूसरी यात्रा अति कठिन है।
लाखों लोग समाधि तक पहुंचते हैं। उनमें से कुछ थोड़े से लोग वापस निदिध्यासन में खड़े हो पाते हैं। उनमें से भी कुछ थोड़े से लोग मनन तक उतर पाते हैं। और उनमें से भी बहुत थोडे लोग पहली सीढी, जिसको हम श्रवण कहते हैं—उसका नाम लौटते वक्त बदल जाता है, वह मैं आपसे बात करूंगा—हजारों लोग पहुंचते हैं समाधि तक, एकाध आदमी बुद्ध हो पाता है। समाधि तो हजारों लोगों को लगती है, एकाध आदमी बुद्ध हो पाता है। बुद्ध का मतलब यह कि जो वापस इन चार सीढ़ियों को उतर कर, जो जाना है उसने, जगत को दे पाता है।
मनन का अर्थ है लौटते वक्त विचार में बांधना उसको जो निर्विचार है।
इस जगत में असंभव से असंभव घटना यही है। जो नहीं बोला जा सकता, नहीं सोचा जा सकता उसे शब्द की सीमा में रखना, बांधना।
आप भी देखते हैं, सुबह का सूरज ऊगता है। कभी कोई चित्रकार, कभी, उस ऊगते सूरज को पकड़ पाता है। सूरज को पकड़ लेना बहुत कठिन नहीं है। बहुत से चित्रकार बना लेंगे सूरज को, लेकिन ऊगते सूरज को पकड़ना कठिन है। वह जो ऊगने की घटना है, वह जो गुण है विकास का, वह जो उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ है, वह भी चित्र में अंकित हो जाए, और चित्र देख कर ऐसा लगे कि सूरज अब बढ़ा आगे अब ऊगा, अब ऊगा।
वृक्ष को पकड़ लेना कठिन नहीं है, लेकिन जीवंतता को पकड़ लेना कठिन है। ऐसा लगे कि पत्ते अब हिल जाएंगे, हवा का जरा सा झोंका और फूल झर जाएंगे। वह बहुत कठिन है। वह बहुत कठिन है। और वही फर्क है फोटोग्राफी में और पेंटिंग में। फोटोग्राफी कितना ही पकड़ ले, मुर्दा ही पकड़ पाती है। कभी कोई पिकासो, कोई वानगॉग, कोई सीजां पकड़ पाता है, वह जो जीवंतता है, उसको।
मगर सूरज, पौधे, फूल आम जीवन के अनुभव हैं, इन्हें पकड़ा जा सकता है। समाधि असाधारण अनुभव है। करोड़ों—करोड़ों में कभी एकाध को होता है। और वहां जो होता है, सारी इंद्रिया असमर्थ हो जाती हैं खबर देने में। कान वहां सुनते नहीं, आंखें वहा देख नहीं सकतीं, हाथ वहा छू नहीं सकते, और अनुभव होता है अपरिसीम। विराट जैसे टूट पड़े आपके छप्पर पर, सारा आकाश आ जाए आपके आयन में, तो जैसी मुसीबत हो जाए और कुछ सूझ—समझ न पड़े, वैसा समाधि के क्षण में होता है। छोटा सा चेतना का अपना घेरा, उसमें सारा सागर उतर जाता है।
कबीर ने कहा है कि पहले तो मैं समझा था कि बूंद सागर में गिर गई। जब होश आया, तब पाया कि बात उलटी हुई है सागर बूंद में गिर गया है। तो कबीर ने कहा है कि पहले तो सोचे थे कि कुछ न कुछ बता ही देंगे लौट कर। वह भी कठिन मालूम पड़ा था। बूंद जब सागर में गिर जाएगी तो लौटेगी कैसे? वह भी कठिन मालूम पडा था। कठिन है ही। कबीर का वचन है.
हेरत—हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बुंद समानी समुद में, सो कत हेरी जाई।।
वह जो गिर गई बूंद समुद्र में, अब उसे कैसे बाहर निकालें? ताकि वह खबर दे सके कि क्या हुआ। यह तो कठिन था ही। लेकिन कबीर ने बाद में दूसरी पंक्तिया लिखीं और पहली पंक्तियों को रह कर दिया। और कहा कि भूल हो गई जल्दी में। अनुभव नया था, ठीक से समझ न पाए क्या हुआ; आदत पुरानी थी, उसकी वजह से उलटा दिखाई पड़ गया। दूसरी पंक्तियां लिखीं हेरत—हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
समुद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।।
वह समुद्र जो है, वह बूंद में समा गया है। बूंद को तो किसी तरह खोज भी लेते समुद्र में गिर गई थी तो। यह उलटा हो गया है समुद्र पूरा का पूरा आकर बूंद में गिर गया है। अब इस बूंद को हम खोजने भी जाएं तो कहां जाएं! इस बूंद का अब कोई पता नहीं चल सकता।
तो समाधि के क्षण में जो जाना गया है, संसार में जो हमने जाना है, उसको पकड़ने के सारे उपकरण व्यर्थ हो जाते हैं। हम ही व्यर्थ हो जाते हैं। हमारा होना ही बिखर जाता है। और कोई बड़ा होना, जिसकी कोई सीमा नहीं, हम पर टूट पड़ता है—आकस्मिक। मर जाते हैं हम।
समाधि महामृत्यु है, मृत्यु से बड़ी। क्योंकि मृत्यु में तो मरती है केवल देह, मन बचा रह जाता है। समाधि में मर जाता है मन। पहली दफे हमारा सारा संबंध मन से टूट जाता है। पहली दफा हम मन के सारे धागों से विच्छिन्न और अलग हो जाते हैं। और हमारा सारा शान मन का था। इसलिए पहली दफा समाधि में हम परम अज्ञानी होकर खड़े होते हैं।
इसे फिर से दोहरा दूं : समाधि में हमारा जान काम नहीं आता; क्योंकि ज्ञान सब सीखा था मन ने। वह मन रह गया बहुत पीछे, बहुत दूर! हम निकल गए मन से आगे। जो जानता था, वह साथी नहीं है वहा। जो सब बातें समझता था, शब्द का, सिद्धात का जिसे बोध था; शास्त्र जिसे रच—पच गए थे, वह बहुत पीछे छूट गया। वस्त्र ही नहीं छूट जाते, शरीर ही नहीं छूट जाता, मन छूट जाता है। जो हमारा गहरे से गहरा अनुभव है, वह सब पीछे पड़ा रह गया। मन से उछाल लगा कर साधक द्वार पर खड़ा हो गया समाधि के। अब जानने का उसके पास कुछ उपाय नहीं।
समाधि के द्वार पर जो भी खड़ा होता है, वह परम अज्ञानी की तरह खड़ा हो जाता है—परम अज्ञानी की तरह! कुछ भी जानने का उपाय नहीं, जानने की व्यवस्था नहीं, जानने के साधन नहीं, सिर्फ जानना मात्र खड़ा रह जाता है। फिर लौट कर खबर देना बड़ी मुश्किल है। कौन खबर दे? कौन खबर लाए?
लेकिन खबर दी गई है। कुछ लोगों ने अथक चेष्टा की है। वे ही परम कारुणिक हैं इस जगत में जिन्होंने समाधि के द्वार से लौट कर खबर दी है। क्यों? क्योंकि समाधि से लौटने का भी भाव नहीं उठता है। समाधि से लौटना ऐसे ही है, जैसे आप, जो चाहते थे वह मिल गया, सब इच्छा पूरी हो गई; हिलने—डुलने का भी कोई कारण न रहा, गति का कोई सवाल न रहा; वहा से लौटना।
कहते हैं बुद्ध को समाधि हुई तो सात दिन तक वे नहीं लौटे। बड़ी मीठी कथा है। कथा है कि सारे देवता उनके चरणों में इकट्ठे हो गए, और इंद्र रोने लगा, और ब्रह्मा ने चरणों पर सिर पटका, और कहा कि ऐसा मत करें! क्योंकि हम देवता भी तरसते हैं उस बात के लिए, जो समाधि को जानने वाला लौट कर देता है। और कितने जन्मों से कितने—कितने लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कोई हो जाए बुद्ध, लौट कर खबर दे, लौट कर बोले, बताए जो जाना हो। आप चुप न रहें, आप बोलें!
लेकिन बुद्ध ने कहा, बोलने वाला नहीं रहा, बोलने की कोई इच्छा नहीं रही। और फिर जो देखा है वह बोला जा सकता है, यह खुद ही भरोसा नहीं आता, तो सुनने वाले क्या समझ सकेंगे!
देवता नहीं माने तो बुद्ध ने कहा कि नहीं मानते हो तो मैं कहूं,  लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि ये बातें जो मैं किसी से कहूंगा, अगर जानने के पहले मुझसे कोई कहता, तो मैं नहीं समझता। तो कोई क्या समझेगा! और फिर बुद्ध ने कहा, इस अनुभव से यह भी अनुभव आ गया है कि जो मेरी बात को समझ सकेंगे, वे मेरे बिना भी वहा पहुंच सकते हैं, और जो मेरी बात नहीं समझ सकेंगे, उनके सामने सिर धुनने से कुछ बहुत प्रयोजन नहीं है।
लेकिन देवताओं ने एक बड़ी मीठी दलील दी। और उन्होंने कहा, हम जानते हैं, यह बात सच है कि जो लोग समझ सकेंगे, वे—वे ही लोग हैं, जो किनारे पर ही खड़े हैं—जो आपकी आवाज सुन लें, एक कदम का फासला है—वे आपके बिना भी किसी न किसी तरह एक कदम पार कर जाएंगे। नहीं, उनके लिए हम नहीं कहते कि आप बोलें। और यह भी हम मानते हैं कि ऐसे भी लोग हैं जो एक कदम भी नहीं चले हैं, उन तक आपकी आवाज भी नहीं पहुंचेगी, वे समझेंगे भी नहीं। उनके लिए भी हम नहीं कहते हैं कि आप बोलें। पर ऐसे भी लोग हैं, जो दोनों के बीच में हैं। जो आप न बोलेंगे तो शायद न समझ सकेंगे जो आप बोलेंगे तो शायद समझ सकते हैं।
शायद ही, देवताओं ने कहा। लेकिन उन्होंने एक बात और बुद्ध को कही कि ये जो शायद हैं—शायद समझ लें, शायद न समझें—अगर आप न बोले और एक भी समझ सकता व्यक्ति, वह अगर इस कारण चूक गया, तो आप सोच लें। पीडा आपकी ही है, पीड़ा आपको ही रहेगी। और ऐसा बुद्धों ने कभी किया है।
समाधि के क्षण में ऐसा लगना बिलकुल स्वाभाविक है कि अब—अब कहीं कुछ कहना, सुनना बताना, व्यर्थ हो गया। किसको बताना है? किसको कहना है? किसको सुनना है? फिर भी कुछ लोग मनन की सीढ़ी पर आकर ऐसे लोगों को बड़ी दुरूह घटना घटती है। और इसलिए महानतम कलाकार वे हैं—वे नहीं जो छंद और गीत रच लेते हैं, कलाकार हैं, वे भी नहीं जो चित्र—मूर्तियां बना लेते हैं, कलाकार हैं—लेकिन महा कलाकार वे हैं, जो समाधि के बिलकुल अगोचर, अदृश्य अनुभव को गोचर और दृश्य शब्दों में मनन की सीढ़ी पर बांधते हैं, चेष्टा करते हैं कि किसी तरह कुछ इशारे पैदा किए जा सकें, कुछ उपाय रचते हैं, कुछ विचार की श्रृंखला निर्मित करते हैं, कुछ विचार की व्यवस्था बनाते हैं जहां से आपको भी थोड़ी सी झलक, कम से कम मन के तल पर ही थोड़ी सी चोट, पुलक का अनुभव हो सके।
लेकिन मनन भी बहुत लोग कर लेते हैं। वह आखिरी सीढ़ी जो है, जिसे हमने पहली दफे जाते वक्त श्रवण कहा था, वही सीढ़ी लौटते वक्त प्रवचन बन जाती है। वही सीडी है। सुनना, बोलना। जाते वक्त जो सुनना था, राइट लिसनिंग थी, ठीक—ठीक सुनना था, श्रवण था, लौटते वक्त वही राइट स्पीकिंग, ठीक—ठीक बोलना बन जाता है।
और ध्यान रहे, पहली सीढ़ी पर होता है शिष्य और इस लौटती हुई आखिरी सीढ़ी पर होता है गुरु, और इन दोनों के बीच जो मिलन है, वह उपनिषद है। जहा सुनने वाला ठीक—ठीक मौजूद है, और जहां बोलने वाला ठीक—ठीक मौजूद है, इन दोनों के बीच जो मिलन की घटना है, वह उपनिषद है।
उपनिषद शब्द का अर्थ है. गुरु के पास रह कर जिसे जाना, गुरु के पास बैठ कर जिसे सुना, पास होकर जो अनुभव में आया, निकटता में जिसकी ध्वनि मिली, सामीप्य में जिसका स्पर्श हुआ।
उपनिषद का अर्थ है पास बैठ कर, पास होकर, निकटता पाकर।
तो शिष्य हो कान, सुनना और गुरु रह जाए सिर्फ वाणी। सुनने वाला न हो, बोलने वाला न हो। यहां हो सिर्फ वाणी, वहा हो सिर्फ सुनने की क्षमता। तब उपनिषद घटता है।
यह सूत्र कहता है ’समाधि में वृत्तियां केवल आत्मरूप विषय वाली होती हैं।’
आनंद का अनुभव हो, मौन का अनुभव हो, शांति का अनुभव हो, शून्य का अनुभव हो, मुक्ति का अनुभव हो, लेकिन ये कोई अनुभव समाधि में सीधे पकड़े नहीं जा सकते।
'इससे जान नहीं पड़ती हैं।’
ये वृत्तियां जान नहीं पड़ती हैं।
'पर समाधि में से उठे हुए साधक की वे उत्थान पाई हुई वृत्तियां स्मरण से अनुमान की जाती हैं।'
तो बुद्ध भी ऐसा नहीं कह सकते कि ऐसा ही है समाधि में। वे भी इतना ही कहते हैं, ऐसा मेरा अनुमान है कि समाधि में ऐसा है। इसलिए महावीर तो अपनी वाणी में स्वात लगा कर ही बोलते हैं। वे कहते हैं, स्वात वहां आनंद है।
इससे कोई यह न समझ ले कि महावीर को पता नहीं है। वाणी से ऐसा ही लगता है कि महावीर भी अगर कहते हैं कि स्वात, तो इनको अभी संदेह है कुछ?
संदेह के कारण नहीं, अत्यंत सत्यनिष्ठा के कारण। महावीर की सत्यनिष्ठा इतनी अछूती और इतनी कुंवारी है कि वैसी सत्यनिष्ठा खोजनी मुश्किल है।
तो महावीर यह कहते हैं कि जिस मन से मैं अब यह जान रहा हूं,  वह मन वहां मौजूद नहीं था। यह दूर से सुनी हुई खबर है मन के लिए। घटना जहा घटी थी, वहां मन मौजूद न था। मन चश्मदीद गवाह नहीं है। दूर था, अनुमान किया है इसने, इनफर किया है, सोचा है; घटना घटी थी दूर। जैसे हम यहां बैठे हों और गौरीशंकर के शिखर पर जमी हुई बर्फ को हम देख सकते हैं यहीं बैठे। मन बहुत दूर था। और गौरीशंकर के शिखर पर जो शीतलता बरसी थी, उसका उसने अनुमान किया है।
इसलिए महावीर स्वात ही का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, स्वात वहा परम आनंद है। यह अत्यधिक सत्यनिष्ठा के कारण। क्योंकि अनुमान ही है यह मन का। मन का! महावीर के लिए अनुमान नहीं है। महावीर ने जाना है। लेकिन जिसने जाना है, जानते क्षण में इतनी एकता हो जाती है कि अनुभव नहीं होता। जान कर जब महावीर वापस लौटते हैं मन में.।
ऐसा समझ लें कि आप जाएं गौरीशंकर के शिखर पर, और शीतलता के साथ एक हो जाएं; आप भी शीतलता हो जाएं। या बर्फ के साथ एक हो जाएं, आप भी बर्फ की तरह जम जाएं। तो वहा कोई अनुभव न हो, क्योंकि अनुभोक्ता अलग न हो। फिर आप उतरें और नीचे जमीन पर आकर अपनी दूरबीन उठा कर फिर गौरीशंकर को देखें।
तो वह जो गूंजता हुआ अनुभव रह गया है भीतर, जो जाना था, लेकिन निकटता इतनी थी कि जानने लायक दूरी न होने से जाना नहीं जा सका था। अब इस दूरी पर पर्सपैक्टिव, परिप्रेक्ष मिल गया। अब अपनी दूरबीन मन की उठा कर वापस देखा है। अब अनुमान होता है कि परम शीतलता थी! कि परम शुभ्र बर्फ का विस्तार था! कि कैसी ऊंचाई थी! कि सारा गुरुत्वाकर्षण खो गया था! कि उड़ जाते आकाश में ऐसे पंख लग गए थे! कि कितना शुद्ध था आकाश! कि कैसी नीलिमा थी! कि बादल भी सब नीचे छूट गए थे! निरभ्र शून्य आकाश रह गया था! लेकिन यह सब जमीन पर खड़े होकर पुनर्विचार है।
इसलिए सूत्र कहता है ’स्मरण से अनुमान की जाती हैं।’
'इस अनादि संसार में करोड़ों कर्म इकट्ठा कर लिए जाते हैं, पर इस समाधि द्वारा वे नष्ट हो जाते हैं, और शुद्ध धर्म बढ़ते हैं।’
इस दूसरे सूत्र में दो शब्द बड़े कीमत के हैं कर्म और धर्म। जो हम करते हैं वह कर्म है, और जो हम हैं वह धर्म है। धर्म का अर्थ है हमारा स्वभाव, और कर्म का अर्थ है जो हम करते हैं। कर्म का अर्थ है हमारा स्वभाव अपने से बाहर जाता है। कर्म का अर्थ है, हम अपने से बाहर जगत में उतरते हैं। कर्म का अर्थ है, हम अपने से अतिरिक्त किसी दूसरे से जुड़ते हैं। स्वभाव का अर्थ है, दूसरे से पृथक, जगत में बिना गए, जो मैं हूं; मेरा जो भीतरी होना है। मेरे करने से उसका कोई संबंध नहीं। मैं क्या करता हूं,  इससे वह निर्मित नहीं होता, वह मेरे सब करने के पहले मौजूद है। वह जो मेरा स्वभाव है।
कर्म में भूल हो सकती है, धर्म में कोई भूल नहीं होती। कर्म में चूक हो सकती है, धर्म में कोई चूक नहीं होती। ध्यान रखना, धर्म का अर्थ यहां मजहब या रिलीजन नहीं है। यहां धर्म का अर्थ है गुण स्वभाव। वह जो हमारा आंतरिक स्वभाव है, हमारा होना है, बीइंग है।
तो हम जितने कर्म करते हैं, उतना ही आच्छादित होता चला जाता है स्वभाव। हम जो—जो करते हैं उससे हमारा होना दबता जाता है। और धीरे—धीरे कर्म की इतनी पर्तें हो जाती हैं कि हम यह भूल ही जाते हैं कि कर्मों के अतिरिक्त भी हमारा कोई होना है।
अगर कोई आपसे पूछे, आप कौन हैं? तो आप जो भी उत्तर देते हैं वह कर्मों के बाबत है, आपके धर्म के बाबत नहीं। आप कहते हैं मैं इंजीनियर हूं, आप कहते हैं मैं डाक्टर हूं, आप कहते हैं मैं व्यापारी हूं। आपने खयाल किया, व्यापार कर्म है। आप व्यापारी नहीं हैं, व्यापार करते हैं। कोई आदमी डाक्टर कैसे हो सकता है? डाक्टरी कर सकता है। कोई आदमी इंजीनियर कैसे होगा? आदमी और इंजीनियर हो जाए! तो आदमी खतम ही हो गया। आदमी इंजीनियरी करता है। वह उसका कर्म है, उसका होना नहीं है।
आप जो भी अपना परिचय देते हैं, अगर गौर से देखेंगे तो पाएंगे आप सदा अपने कर्म का परिचय देते हैं, कभी अपने होने की खबर नहीं देते। दे भी नहीं सकते। उसकी खबर आपको ही नहीं है। आप इतना ही जानते हैं, जो आप करते हैं। करने का आपको पता है कि मैं क्या करता हूं, क्या कर सकता हूं। मैंने पीछे क्या किया है, और आगे मैं क्या करने के योग्य हूं, यही आप खबर देते हैं। जो सर्टिफिकेट लेकर आप घूमते हैं, आप क्या कर सकते हैं, उसकी खबर देते हैं। आप क्या हैं, उसकी नहीं। अगर आप कहते हैं मैं साधु हूं, तो उसका मतलब यह है कि आप साधुता करते हैं। कोई कहता है मैं चोर हूं उसका मतलब वह चोरी करता है। एक का कर्म साधुता है, एक का कर्म चोरी है।
लेकिन होना क्या है? आपके भीतर क्या है? जब आप पैदा नहीं हुए थे मा के पेट से, तब साधु क्या था न: चोर क्या था? इंजीनियर क्या था? डाक्टर क्या था? मां के पेट में अगर इनसे कोई पूछता, कौन हो? तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाते! क्योंकि इंजीनियर थे नहीं तब, डाक्टर थे नहीं तब, व्यापार कुछ किया नहीं था। मां के पेट में अगर कोई पूछता, कौन हो भीतर? तो कोई उत्तर नहीं आ सकता था, कि आ सकता था? कोई उत्तर नहीं आ सकता था। मगर थे आप मां के पेट में। उत्तर नहीं आ सकता था।
आज तो ब्रेनवाश, मस्तिष्क को धो डालने के बहुत उपाय खोज लिए गए हैं। आप कहते हैं मैं इंजीनियर हूं आपका मस्तिष्क धोया जा सकता है, साफ किया जा सकता है। क्लीनिंग ठीक से हो जाए, फिर आपसे पूछें, कौन हो? आप खाली रह जाएंगे। क्योंकि वह जो इंजीनियर होना था, वह स्मृति में था। पढ़े थे, लिखे थे, सर्टिफिकेट पाया था, कुछ किया था। यश पाया था, अपयश पाया था, वह स्मृति में था, वह धो दी गई। अब आप कोई उत्तर नहीं दे सकते कि कौन हैं। लेकिन हैं। होना नष्ट नहीं किया जा सकता है स्मृति के धोने से, लेकिन कर्म की रेखाएं साफ की जा सकती हैं।
यह सूत्र कहता है’ अनादि संसार में करोड़ों कर्म इकट्ठा कर लिए जाते हैं।’
स्वभावत:! प्रतिदिन, प्रतिपल कर्म इकट्ठे किए जा रहे हैं। उठते हैं, बैठते हैं, श्वास लेते हैं—कर्म हो रहा है। सोते हैं, स्वप्न देखते हैं—कर्म हो रहा है। कोई आदमी कर्म छोड़ कर भाग नहीं सकता, क्योंकि भागना भी कर्म है। कहां जाइएगा? जंगल में बैठ जाएंगे जाकर? बैठना भी कर्म है। आंख बंद कर लेंगे? आंख बंद करना भी कर्म है। कुछ भी करिए; जहां करना है, वहां कर्म है।
तो प्रतिपल न मालूम कितने कर्म किए जा रहे हैं! उनकी छाया, उनकी स्मृति, उनकी रेखा, उनका संस्कार, भीतर छूटता जा रहा है। जो भी आप कर रहे हैं, वह आपके होने पर इकट्ठा होता जा रहा है। जैसे कि रिकार्ड पर ग्रव बन जाते हैं। फिर ग्रामोफोन की सुई लगा कर चलाएं, तो जो—जो भर गया है रिकार्ड की रेखाओं में, वह पुनरुज्जीवित होकर प्रकट होने लगता है। ठीक आपका मन आपके सब कर्मों की संगृहीत संहिता है, सब इकट्ठा है। जो—जो आपने किया है, उस सबकी आपके ऊपर रेखाएं खिंच गई हैं। और ये रेखाएं अनंत जन्मों की हैं। यह भार बड़ा है। और आप करीब—करीब उसी—उसी को फिर—फिर दोहराते रहते हैं। करीब—करीब आपकी हालत घिसे रिकार्ड जैसी है, कि सुई फंस गई, चलाए जा रहे हैं! वही लकीर दोहर रही है बार—बार!
क्या कर रहे हैं आप? कल भी वही किया, आज भी वही किया, परसों भी वही किया था, कल भी वही करिएगा। वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही काम, वही सब का सब—घिसे रिकार्ड! फंस गई सुई, निकल नहीं पाती गड्डे से, वही आवाज बार—बार दिए जाती है!
इसलिए तो जिंदगी में इतनी ऊब है, इतनी बोरडम है। होगी ही! क्योंकि नया कुछ होता नहीं। सुई आगे बढ़ती ही नहीं। लौट कर देखें आपकी तीस—चालीस साल की जिंदगी! क्या किया है आपने? एक ही रिकार्ड बजा रहे हैं! वही रोज दोहरता जाता है, पुनरुक्त होता चला जाता है। इसी को भारत के मनीषियों ने आवागमन कहा है। वही फिर, फिर वही। इस जन्म में वही, अगले जन्म में वही, उसके अगले जन्म में वही; अतीत की कथा वही, भविष्य की कथा वही। वही कामवासना है, वही प्रेम, वही क्रोध, वही घृणा, वही मित्रता, वही शत्रुता, वही धन का कमाना, वही मकान बनाना, और फिर सब करके एक दिन पाना कि हवा का झोंका आया, और वह जो ताश का महल बनाया था, हरि गया!
मगर जैसे बच्चे तत्काल फिर से पत्तों को इकट्ठा करके मकान बनाने लगते हैं, वैसे ही हम फिर तत्काल नया जन्म लेकर फिर पत्तों का मकान बनाने में लग जाते हैं। अब की दफे और मजबूत बनाने की कोशिश करते हैं। मगर मकान वही है, ढांचा वही है, मन वही है। फिर हम वही कर लेते हैं और फिर उसी तरह अस्त होते रहते हैं। यह सूरज ही नहीं है जो रोज सांझ डूब कर सुबह फिर ऊग आता है। आप भी ऐसे ही डूबते—ऊगते रहते हैं। एक वर्तुलाकार है, एक व्हील। संसार शब्द का अर्थ होता है चाक, व्हील, जो घूमता रहता है एक ही धुरी पर।
यह जो अनंत— अनंत कर्म इकट्ठे कर लिए जाते हैं, इस समाधि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं।
यह थोड़ा समझने जैसा है। क्योंकि अनेक लोग सोचते हैं कि अगर कर्म बुरे इकट्ठे हो गए हैं तो अच्छे कर्म करके उनको नष्ट कर दें, वे गलती में हैं। बुरे कर्मों को अच्छे कर्म करके नष्ट नहीं किया जा सकता। बुरे कर्म बने रहेंगे और अच्छे कर्म और इकट्ठे हो जाएंगे, बस इतना ही होगा। वे काटते नहीं हैं एक—दूसरे को। काटने का कोई उपाय नहीं है। एक आदमी ने चोरी की, फिर वह पछताया और साधु हो गया। तो साधु होने से वह चोरी का कर्म और उसके जो संस्कार उसके भीतर पड़े थे, वे कटते नहीं हैं। कटने का कोई उपाय नहीं है। साधु होने का अलग कर्म बनता है, अलग रेखा बनती है। चोर की रेखा पर से साधु की रेखा गुजरती ही नहीं है। चोर से साधु का क्या लेना—देना!
आप चोर थे, आपने एक तरह की रेखाएं खींची थीं, आप साधु हुए, ये रेखाएं उसी स्थान पर नहीं खिंचती हैं जहां चोर की रेखाएं खिंची थीं। क्योंकि साधु होना मन के दूसरे कोने से होता है, चोर होना मन के दूसरे कोने से होता है। तो होता क्या है, आपके चोर होने की रेखा पर साधु होने की रेखाएं और आच्छादित हो जाती हैं, कुछ कटता नहीं। तो चोर के ऊपर साधु सवार हो जाता है, बस। उसका मतलब? चोर—साधु, ऐसा आदमी पैदा होता है। साधुता चोरी को नहीं काट सकती। चोर तो बना ही रहता है भीतर। इम्पोजीशन हो जाता है। एक और सवारी उसके ऊपर हो गई।
तो चोर भी ठीक था एक लिहाज से और साधु भी ठीक था एक लिहाज से, यह जो चोर और साधु की खिचड़ी निर्मित होती है, यह भारी उपद्रव है। यह एक सतत आंतरिक कलह है। क्योंकि वह चोर अपनी कोशिश जारी रखता है, और यह साधु अपनी कोशिश जारी रखता है।
और हम इस तरह न मालूम कितने—कितने रूप अपने भीतर इकट्ठे कर लेते हैं, जो एक—दूसरे को काटते नहीं, जो पृथक ही निर्मित होते हैं।
इसलिए यह सूत्र कहता है कि समाधि के द्वारा वे सब कट जाते हैं।
कर्म से कर्म नहीं कटता, अकर्म से कर्म कटता है। इसको ठीक से समझ लें। कर्म से कर्म नहीं कटता, कर्म से कर्म और भी सघन हो जाता है, अकर्म से कर्म कटता है। और अकर्म समाधि में उपलब्ध होता है, जब कि कर्ता रह ही नहीं जाता। जब हम उस चेतना की स्थिति में पहुंचते हैं जहां सिर्फ होना ही है, जहां करना बिलकुल नहीं है, जहा करने की कोई लहर भी नहीं उठी है कभी; जहा मात्र होना, अस्तित्व ही रहा है सदा, जहां बीइंग है, डूइंग नहीं—उस होने के क्षण में अचानक हमें पता चलता है कि कर्म जो हमने किए थे, वे हमने किए ही नहीं थे। कुछ कर्म थे जो शरीर ने किए थे—शरीर जाने। कुछ कर्म थे जो मन ने किए थे—मन जाने। और हमने कोई कर्म किए ही नहीं थे।
इस बोध के साथ ही समस्त कर्मों का जाल कट जाता है। आत्मभाव समस्त कर्मों का कट जाना है। आत्मभाव के खो जाने से ही वहम होता है कि मैंने किया।
एक आदमी चोरी कर रहा है। या तो शरीर करवाता है, या मन करवाता है। कुछ लोगों के शरीर इस हालत में हो जाते हैं कि चोरी करनी पड़ती है। एक भूखा आदमी है, शरीर चोरी करवा देता है। आत्मा कभी कोई चोरी नहीं करती। भूख है, पीड़ा है, परेशानी है, बच्चा मर रहा है और दवा नहीं है, और एक आदमी चोरी कर लेता है। यह शरीर के कारण हुई चोरी है। अभी तक हम फर्क नहीं कर पाए, शरीर के चोर और मन के चोरों में। क्योंकि शरीर का चोर अपराधी नहीं है। शरीर के चोर का मतलब है कि समाज अपराधी है। मन का चोर अपराधी है। मन का चोर अलग चीज है। कोई जरूरत नहीं है, घर में तिजोरी भरी है, लेकिन एक पैसा सड़क पर पड़ा हुआ मिला जाए, तो उठा कर जेब में रख लेता है।
यह जो आदमी है, यह मन का चोर है। मतलब इनकी कोई शारीरिक, शरीर इनसे नहीं कह रहा है चोरी करो, इनका लोभ! इस एक पैसे से इनका कुछ बढ़ेगा भी नहीं, लेकिन फिर भी, कुछ तो बढ़ेगा ही। एक पैसा भी बढ़ेगा। करोड़ों रुपए हों और एक पैसे को भी उठाने की नियत बनी रहे, यह है असली अपराधी। लेकिन यह पकड़ में नहीं आता, पकड़ में वह शरीर का अपराधी आ जाता है। यह है असली अपराधी। क्योंकि कोई कारण नहीं है शरीर के तल पर भी कि यह चोरी करे, लेकिन यह चोरी कर रहा है। चोरी करना इसकी आदत है। चोरी में इसका रस है।
मनोविज्ञान एक बीमारी की बात करता है, क्लेप्टोमैनिया। एक बीमारी होती है मन की, अधिक लोग उसके बीमार हैं। कुछ लोगों को मनोविज्ञान पकड़ता है, जो बहुत ज्यादा बीमार हो जाते हैं।
मैं एक प्रोफेसर को जानता रहा हूं। पैसे वाले थे, सुविधा—संपन्न थे, सब कुछ था। एक ही लड़का था, वह लड़का क्लेप्टोमैनियाक था। उसको चोरी की बीमारी थी। तो वह कुछ भी चुरा लेता था। इससे कोई संबंध नहीं था कि वह क्या है। आपके घर में गया, एक बटन टूटी पड़ी है, फौरन वह खीसे में रख लेगा! उसका कोई उपयोग नहीं है। एक सुई मिल जाए पड़ी, वह मार लेगा। किताब देख रहा है आपकी, एक पन्ना ही फाड़ कर खीसे में रख लेगा! उन्होंने मुझे कहा कि क्या करना इसका? और कोई ऐसी भी चोरी करके नहीं लाता है कि लगे कि भई कोई चोरी कर रहा है! कुछ भी ले आता है! और लड़का एम ए. में पढ़ता था। होशियार लडका था।
तो मैं उस लड़के से थोड़ा संबंध बनाया। तो उसने मुझे ले जाकर अपनी अलमारी दिखाई। उस अलमारी में उसने जो—जो चीजें कभी चुराई, सब रखी हुई थीं। उन पर साथ—साथ चिट्ठियां लगी हुई थीं. कि किसको धोखा दिया, किसके घर से मार कर लाए। इस बात का अभी तक पता नहीं चल सका किसी को। वह इसका रस ले रहा था। बटन उठा लाया आपके घर की, उस पर लिखा हुआ था, कागज पर, कि यह फलां आदमी के घर से बटन लाया हूं। और वह आदमी सामने ही बैठा था, लेकिन अंदाज भी नहीं हुआ कि ले गया। अब यह रस और तरह का है, इसका शरीर से कोई लेना—देना नहीं है।
या तो शरीर की चोरी है या मन की चोरी है, आत्मा की कोई चोरी नहीं है। तो जिस दिन आप आत्मा में प्रवेश करते हैं, उसी दिन अचानक आप पाते हैं कि वह चोरी तो मैंने कभी की ही नहीं थी; वे कर्म मैंने किए नहीं, मैं उन कर्मों में केवल मौजूद था। यह सच है कि मेरे बिना वे कर्म नहीं हो सकते थे। यह भी सच है कि मैंने वे कर्म नहीं किए थे।
तो विज्ञान एक शब्द का प्रयोग करता है, वह कीमती है। विज्ञान में एक शब्द प्रयोग किया जाता है कैटेलेटिक एजेंट। अगर आप पानी को तोड़े, तो उसमें से उदजन और आक्सीजन मिलती है, और कुछ नहीं मिलता। एच टू ओ उसका फार्मूला है। दो परमाणु उदजन के, एक आक्सीजन का, उनसे मिल कर पानी बनता है। तो आप दो अनुपात में उदजन और एक अनुपात में आक्सीजन मिला कर पानी बनाना चाहें, तो भी बनेगा नहीं। यह बड़े मजे की बात है। अगर पानी को तोड़े तो दो अनुपात उदजन, एक अनुपात आक्सीजन मिलती है। स्वभावत:, अगर आप दो अनुपात उदजन और एक अनुपात आक्सीजन को मिलाएं तो पानी बनना चाहिए, लेकिन पानी बनता नहीं।
तो एक और चीज है जिसकी मौजूदगी की जरूरत पड़ती है। वह भीतर प्रवेश नहीं करती, लेकिन सिर्फ उसकी मौजूदगी में घटना घटती है। वह है बिजली। इसलिए आकाश में जब बिजली चमकती है वह कैटेलेटिक एजेंट है। उसकी वजह से पानी बनता है। जो बिजली चमकती है, उसकी मौजूदगी जरूरी है। वह कुछ करती नहीं, वह पानी में प्रवेश नहीं होती।
हाइड्रोजन और आक्सीजन को आप रख दें, और बीच में बिजली कौंधा दें, पानी बन जाएगा। फिर पानी को तोड़े, तो बिजली नहीं निकलेगी, सिर्फ हाइड्रोजन और आक्सीजन निकलेगी। उसका मतलब यह हुआ कि बिजली भीतर प्रवेश नहीं करती पानी के निर्माण में, लेकिन पानी निर्मित नहीं हो सकता बिजली की बिना मौजूदगी के। इस खास घटना को विज्ञान कहता है, कैटेलेटिक एजेंट। ऐसी उपस्थिति जिसके बिना घटना नहीं घटेगी, फिर भी वह वस्तु घटना में भीतर प्रवेश नहीं करती।
तो आप चोरी नहीं कर सकते हैं बिना आत्मा के। आत्मा कैटेलेटिक एजेंट है। उसकी मौजूदगी जरूरी है। शरीर अकेला, लाश कहीं कोई चोरी करने नहीं जाती। लाश के खीसे में भी पैसा रख दें, तो भी हम उसको चोरी नहीं कहेंगे। लाश का चोरी से क्या संबंध! क्योंकि लाश कर्म ही नहीं कर सकती।
अकेला मन भी चोरी करने नहीं जाता। अकेला मन कितना ही सोचे, चोरी नहीं कर सकता। और अगर भीतर आत्मा न हो तो सोच भी नहीं सकता। आत्मा की मौजूदगी जरूरी है, तब चोरी घटती है। लेकिन फिर भी जिस दिन आदमी आत्मा में पहुंचता है, उस दिन पाता है कि मौजूदगी में घटी थी, लेकिन आत्मा चोरी में प्रवेश नहीं थी; आत्मा सिर्फ मौजूद थी। उसकी मौजूदगी इतनी शक्तिशाली है कि घटनाएं घटनी शुरू हो जाती हैं।
एक चुंबक पड़ा है, लोहे के टुकड़े खिंच रहे हैं। आप शायद सोचते होंगे, चुंबक खींच रहा है! तो आप गलती में हैं। चुंबक का होना ही काफी है। चुंबक को खींचना नहीं पड़ता, खींचने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता; कोई अस्थि, मांस—पेशियां सिकोड़नी नहीं पड़ती, कि खींचो। चुंबक को कुछ पता ही नहीं चलता। चुंबक का होना ही, लोहे के टुकड़े खिंचना शुरू हो जाते हैं।
आत्मा की मौजूदगी, और कर्म शुरू हो जाते हैं; शरीर सक्रिय हो जाता है, मन सक्रिय हो जाता है, कर्म की यात्रा शुरू हो जाती है।
जिस दिन आप इस आत्मा में पुन: प्रवेश करते हैं समाधि में, उस दिन सारे कर्म से छुटकारा हो जाता है। इसलिए नहीं कि उन्होंने आपको बांधा था, बल्कि इसलिए कि उन्होंने कभी बांधा ही नहीं था। और आप अपने तक कभी पहुंचे नहीं थे कि समझ पाते कि मैं अनबंधा हूं।
यह जो उपनिषद की दृष्टि है, एक अर्थ में बड़ी नीति—विरुद्ध है। और इसलिए उपनिषदों का बड़ा विरोध भीतर गहरे मन में रहा है। जो भी नीतिवादी है, वह कहेगा कि बुरे कर्म को अच्छे कर्म से काटो; अच्छे कर्म करो, बुरे कर्म मत करो। उपनिषद कहते हैं, कर्म करते हो, यही बुरा है। अच्छा करते हो कि बुरा करते हो, यह तो गौण बात है। कर्म करने का तुम्हें खयाल है, तुम कर्ता हो; बस यही बुराई है।
तो बुराई दो तरह की है. बुरी बुराई, अच्छी बुराई, बाकी दोनों बुराई हैं। क्योंकि तुम कर्म करते हो, यही भ्रांति है। तुम सिर्फ मौजूद हो और कर्म हो रहा है। तुम्हारी मौजूदगी में कर्म हो रहा है। तुम सिर्फ साक्षी हो, कर्ता नहीं हो।
जिस दिन इस मौजूदगी को तुम इसकी मौजूदगी में ही समझ लोगे—कर्ता की तरह नहीं, साक्षी की तरह—उसी दिन तुम पाओगे कि जो भी हुआ, वह मेरे आस—पास हुआ, जो भी हुआ, मैंने नहीं किया, मेरे आस—पास हुआ; वह घटना घटी थी, मेरे आस—पास घटी थी, लेकिन मैं फिर भी अछूता और दूर रह गया।
रात जैसे आप स्वप्न देखते हैं और सुबह जाग कर कहते हैं, स्वप्न घटा और आप अछूते रह जाते हैं। स्वप्न में हो सकता है चोरी की हो, और स्वप्‍न में यह भी हो सकता है कि जेलखाने में चले गए हों; स्वप्न में यह भी हो सकता है रिश्वत देकर बच गए हों, जेलखाने न गए हों। स्वप्न में कुछ भी हो सकता है। लेकिन सुबह जब आप जागते हैं, तो स्वप्न ऐसे ही तिरोहित हो जाता है, जैसे हुआ ही न हो। सुबह उठ कर आप अपने को चोर अनुभव नहीं करते।
लेकिन क्या कभी आपने खयाल किया, आपके बिना स्वप्न हो सकता था? आप थे तो ही स्वप्न हो सका। आप न होते तो मुर्दे को, लाश को सपना नहीं आता। आप थे तो स्वप्न घटा। आपकी मौजूदगी जरूरी थी। फिर भी सुबह उठ कर आप ऐसा अनुभव नहीं करते कि अब क्या करें? रात चोरी कर ली! व्रत करें? उपवास करें? कोई दान, त्याग करें? क्या करें? कुछ भी अनुभव नहीं करते। जागने के बाद दो मिनट से ज्यादा स्वप्न याद भी नहीं रहता, खो जाता है धुएं की रेखा की तरह।
ठीक समाधि की स्थिति में पूरा जीवन स्वप्नवत मालूम होता है। जो—जो जीया—एक जीवन नहीं, अनंत जीवन में जो—जो जीया—समाधि की अवस्था में पहुंचते ही जैसे आप सुबह नींद से जागने में पहुंचते हैं, ऐसे ही इस तथाकथित जागने से जब आप समाधि में पहुंचते हैं, तब पीछे का सारा का सारा वर्तुल, सब धुआं, स्वप्न हो जाता है।
समाधि में पहुंचा हुआ पहली दफा जानता है, मैं सिर्फ हूं; कर्म मेरे पास घटे स्वप्न जैसे। और उनकी जरा भी चिंता और पश्चात्ताप नहीं रह जाता, न उनकी कोई आत्म—प्रशंसा और आत्म—स्तुति रह जाती है कि मैंने कैसे बड़े—बड़े कर्म किए, कि मैंने कैसे छोटे—छोटे कर्म किए। नहीं, वे सब खो जाते हैं।
रात सपने में आप सम्राट थे, कि रात सपने में आप एक परम संन्यासी थे, कि रात सपने में चोर—हत्यारे थे, सुबह चाय पीते वक्त स्वाद में तीनों बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता, तीनों व्यर्थ हो जाते हैं। सुबह ऐसा नहीं कि सम्राट रहे रात तो बड़ी अकड़ से चाय पी रहे हैं! सपने के ही सम्राट थे। कि रात चोर रहे, बेईमान रहे, हत्या की, तो चाय में बिलकुल स्वाद नहीं आ रहा, बड़ा अपराधी मन है, तिक्त—तिक्त मालूम हो रही है! कि रात साधु रहे, तो कैसे चाय पीए, ऐसा भी सुबह नहीं होता। रात भर साधु रहे, और सुबह से चाय पी रहे हैं, कैसा जघन्य कृत्य! नहीं, सुबह आप जब चाय पीते हैं, तब सपने सब खो गए।
सुना है मैंने, बड़ा फकीर था जापान में, रिंझाई। एक सुबह उठा और अपने एक शिष्य से—जैसे ही वह उठा, उसका शिष्य पास खड़ा था—उससे उसने कहा कि रात मैंने एक सपना देखा है, तुम व्याख्या करोगे, तो मैं सपना बोलूं।
उसके शिष्य ने कहा, दो मिनट रुके, जरा मैं हाथ—मुंह धोने के लिए आपके लिए पानी ले आऊं। वह हाथ—मुंह धोने के लिए पानी ले आया। रिंझाई ने हाथ—मुंह धो लिया, मुस्कुराया। तब तक एक दूसरा शिष्य आ गया। रिंझाई ने कहा कि मैंने रात एक सपना देखा, मैं इस नंबर एक के शिष्य को कहने जा रहा था कि बताऊं तुझे सपना, तू व्याख्या करेगा? लेकिन मेरे बिना बताए इसने व्याख्या कर दी। तुझे बताऊं?
उसने कहा, रुके! जरा एक गरम चाय की प्याली ले आऊं, फिर हो जाए।
चाय की प्याली पीकर रिंझाई हंसा और कहा कि मैं खुश हूं,  अब कोई सपना बताने की जरूरत नहीं है। तीसरा एक व्यक्ति मौजूद सब यह देख रहा था। नासमझी की हद हो गई! उसने कहा कि सीमा की भी कोई बातें होती हैं! वह सपना बताया ही नहीं गया है, व्याख्याएं भी हो चुकी हैं, और सब हल भी हो गया है! उसने कहा कि महाराज, कम से कम सपने का तो पता चल जाए, सपना क्या था?
रिंझाई ने कहा कि इनकी परीक्षा कर रहा था। अगर ये आज सपने की व्याख्या करने की तैयारी दिखाते, तो इन्हें मैं बाहर कर देता आश्रम के। सपने की कोई व्याख्या करनी होती है! सपना ही था, बात खतम हो गई। इसने ठीक किया, इसने कहा कि अभी भी कुछ सपने की मदहोशी बाकी है, जरा हाथ—मुंह धो लो। इस दूसरे ने भी ठीक ही किया कि मालूम होता है हाथ—मुंह धोने से भी काम नहीं हुआ, सपना अभी भी कुछ धूमिल—धूमिल सरक रहा है, जरा गरम—गरम चाय पी लो, फिर। जरा जाग जाओ, यही सपने की व्याख्या है। सपने की कोई और व्याख्या हो सकती है? जाग जाओ, सपना व्यर्थ हो जाता है, व्याख्या क्या करनी है! व्यर्थ की तो कोई व्याख्या नहीं करता है।
समाधि में, जिनको हमने बड़े—बड़े कर्म, छोटे कर्म, अच्छे कर्म, बुरे कर्म—कितने—कितने बांटे थे, विभाजन किए थे, नीति और अनीति, सदाचार और अनाचार—सब के सब बेमानी हो जाते हैं, व्यर्थ हो जाते हैं। जाग कर समाधि में पता चलता है कि एक बड़ा स्वप्न था—लंबा, अनंतकालीन, अनादि—लेकिन स्वप्न था, और मैं सिर्फ मौजूद था, मैं प्रविष्ट नहीं हुआ था, बाहर ही खड़ा था।
इसलिए सब कट जाता है कर्म, और धर्म का उदय होता है।
जब कर्म कट जाता है—जो हम करते थे, वह कट जाता है—तब हमें पता चलता है, जो हम हैं, जो हमारा होना है, स्वभाव है। स्वभाव है धर्म।
'उत्तम योगवेत्ता इस समाधि को धर्म—मेघ कहते हैं, क्योंकि वह मेघ की तरह धर्मरूप हजार धाराओं की वर्षा करती है।’
धर्म—मेघ बड़ा प्यारा शब्द है। मेघ तो हमने देखे हैं। आषाढ़ आता है और मेघ घिर जाते हैं आकाश में। लेकिन पूरी घटना का हमें खयाल नहीं है। वे जो आकाश में मेघ घिर जाते हैं आषाढ़ में, और मोर नाचने लगते हैं। और जमीन, जगह—जगह दरारें बन जाती हैं, ओंठ खोल देती है अपने; अपने हृदय तक पानी की बूँदों को पी जाने के लिए अपने द्वार तोड़ देती है सब तरफ से। और प्यासी धरती बहुत दिन से प्रतीक्षा में थी, प्यासे वृक्ष तड़फ रहे थे मछलियों की तरह—जैसे रेत में किसी ने उनको फेंक दिया हो। फिर घिरते हैं बादल, और फिर उन काले मेघों की छाया में वर्षा शुरू हो जाती है, और एक नृत्य सारी प्रकृति पर और एक गीत सारी प्रकृति पर छा जाता है।
धर्म—मेघ ऐसी ही आषाढ़ की भीतर घटी घटना है। ऐसी कि जन्मों—जन्मों से प्राण प्यासे थे, दरारें पड गई थीं, कोई प्यास बुझाने वाला पानी न मिला था। पीते थे पानी, उससे प्यास केवल बढ़ती थी, बुझती नहीं थी। बहुत पानी पीए, और बहुत घाटों की यात्रा की, और न मालूम क्या—क्या खोजा और पकड़ा, लेकिन सब बार आशा निराशा हुई, हाथ कुछ लगा नहीं। वह धरती पूरे प्राणों की फटी—प्यासी, अभीप्सा से भरी, समाधि के क्षण में पहली दफा उसके ऊपर मेघ घिरते हैं, समाधि के क्षण में पहली दफा आषाढ़ आता है भीतर और अमृत की एक वर्षा—सिर्फ प्रतीक है—अमृत की एक वर्षा भीतर होने लगती है, आत्मा नहा जाती है, और अनंत— अनंत धाराओं में उन मेघों से अमृत गिरने लगता है।
यह सिर्फ प्रतीक है। घटना इससे बहुत बड़ी है। न तो अमृत कहने से कुछ पता चलता है उसके बाबत, लेकिन फिर भी थोड़ी सी सूचना मिलती है, कि मेघ घिर गए ऊपर, और उनसे वर्षा होने लगी, और जो प्यासी थी आत्मा जन्मों—जन्मों से वह तृप्त हो गई।
'उत्तम योगवेत्ता इस समाधि को धर्म—मेघ कहते हैं, क्योंकि वह मेघ की तरह धर्मरूप हजार धाराओं की वर्षा करती है।’
लेकिन धर्म—मेघ क्यों कहते हैं?
क्योंकि स्वभाव की वर्षा पहली दफा स्वयं पर होती है। धर्म यानी स्वभाव। अब तक जो भी जाना, पर—भाव था। कभी सौंदर्य दिखा, तो किसी और में; कभी प्रेम पाया, तो किसी और से; सुख मिला, दुख मिला, सदा किसी और से, सब जानकारी किसी और की थी, अपना कोई अनुभव न था। पहली दफा अपनी ही वर्षा अपने ऊपर! अब तक सारी वर्षा दूसरे की थी—कोई और, कोई और, कोई और—हमेशा दि अदर, वह दूसरा ही महत्वपूर्ण था। पहली दफा दूसरा हट गया और स्वयं की ही वर्षा स्वयं पर होने लगी। जैसे अपना ही झरना टूटा, जैसे अपनी ही धारा फूटी, जैसे अपने ही स्रोत को पा लिया, और अपने पर ही अपनी वर्षा होने लगी।
धर्म—मेघ का अर्थ है, स्वभाव बरसने लगा। खुद उसमें नहा गए, डूब गए, ताजे हो गए, नए हो गए। सारे कर्म, सारे कर्मों की धूल, अनंत— अनंत यात्राओं का उपद्रव, सारा कचरा जो ऊपर इकट्ठा हो गया था, सब बह गया। रह गई सहजता, स्पांटेनिटी; रह गए स्वयं, और कुछ भी न बचा।
एक लिहाज से इसे हम कह सकते हैं, परम धन्यता। एक लिहाज से हम कह सकते हैं, यही है परम संपदा। और एक लिहाज से कह सकते हैं, यही है परम दरिद्रता। अगर संसार को सोचें, तो यह आदमी संसार से बिलकुल दरिद्र हो गया। अगर परमात्मा को सोचें, तो यह आदमी परम धन को पा गया।
जीसस ने इसी धर्म—मेघ समाधि के लिए कहा है, पावर्टी ऑफ स्पिरिट। जब कोई इस जगह पहुंचता है तो सब भांति दरिद्र हो जाता है। उसके पास कुछ भी नहीं है अब सिवाय अपने के; सिवाय स्वयं के और कुछ भी न बचा। इसको ही कहेंगे दरिद्रता।
इसी वजह बुद्ध ने अपने संन्यासियों को स्वामी नहीं कहा, भिक्षु कहा। यह धर्म—मेघ समाधि की वजह से। बुद्ध ने कहा कि मैं नहीं कहूंगा अपने संन्यासियों को स्वामी, मैं कहूंगा भिक्षु। पर दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं। अगर संसार की तरफ से देखें तो हो गए भिखारी, भिक्षु, और अगर परमात्मा की तरफ से देखें तो हो गए स्वामी, सम्राट।
हिंदू उपयोग कर रहे थे स्वामी का उस दूसरी तरफ से, कि समाधि पाकर व्यक्ति हो जाता है सम्राट, मालिक—पहली दफा। अब तक भिखारी था। अब तक मांगता फिर रहा था, हाथ जोड़े था, भिक्षापात्र फैलाए था। अब तक उसकी आत्मा सिवाय भिक्षापात्र के और कुछ भी न थी। उसमें जो भी टुकड़े कोई फेंक देता था, वही उसकी संपदा थी। झूठे, उधार, बासे, दूसरों की टेबल से गिरे हुए टुकड़े, वह सब इकट्ठे कर लेता था। उसी को मानता था कि मेरी संपदा है। अब तक भिखारी था।
इसलिए हिंदुओं ने इस धर्म—मेघ समाधि को उपलब्ध करने वाले संन्यासी को कहा स्वामी।
लेकिन बुद्ध ने कहा कि जो भी था अब तक—सारा संसार, साम्राज्य, धन—सब छूट गया, कुछ भी न बचा पराया, खुद ही बचे। दीनता आखिरी आ गई।
जब आप अकेले ही हों, और कुछ भी न हो—कपड़ा—लता भी नहीं, मकान भी अपना नहीं, जमीन भी अपनी नहीं, कुछ भी अपना नहीं, सिर्फ खुद ही बचे। इससे ज्यादा दरिद्र। भिखारी के पास भी खुद से कुछ ज्यादा होता है। थोड़ा होता होगा, लेकिन होता है, खुद से कुछ ज्यादा। एक लंगोटी सही, लेकिन वह भी संपदा होती है। एक भिखारी भी इतना भिखारी नहीं है कि अकेला ही हो, कुछ भी न हो।
बुद्ध ने अपने भिक्षु को कहा कि संसार इस तरह छूट जाए तुमसे कि कुछ भी न बचे, ससार की रेखा भी न बचे; तुम बिलकुल भिखारी हो जाओ संसार की दृष्टि में।
पर ये दोनों बातें एक हैं। संसार की तरफ से जो हो जाए भिखारी, आत्मा की तरफ से हो जाता है स्वामी; आत्मा की तरफ से जो हो जाए स्वामी, संसार की तरफ से हो जाता है भिखारी। इसीलिए भिक्षु को हमने इतना आदर दिया जितना हमने किसी स्वामी को कभी नहीं दिया। हमने भिक्षु को उस सिंहासन पर बिठा दिया जहां हमने किसी सम्राट को कभी नहीं बिठाया। भिक्षु आदृत हो गया शब्द। कभी—कभी भाषा में भी..।
अब भिक्षु शब्द का मतलब तो भिखारी ही होता है। और किसी को भिखारी कह दो, झगड़ा हो जाए। लेकिन बुद्ध ने अपने परम धन्य शिष्यों को भिक्षु कहा। और जिसको भिक्षु कह दिया, वह धन्यभागी हो गया। कभी—कभी भाषा में ऐसे लोग बड़ी अड़चनें डाल जाते हैं। बुद्ध जैसे लोग भाषा को अस्तव्यस्त कर जाते हैं। भिखारी का मतलब साफ था। खराब कर दिया। नया ही अर्थ दे दिया। भिक्षु हो गया सम्राट। सम्राट भिक्षु के पैरों में गिरे हैं। तो यह भिक्षु—परम गरिमा हो गई।
धर्म—मेघ समाधि एक तरफ से बना देगी भिखारी, एक तरफ से बना देगी सम्राट।
'इस समाधि द्वारा वासनाओं का समूह पूर्णत: लय को प्राप्त होता है और पुण्य—पाप नाम के कर्मों का समूह जड़ से उखड़ जाता है।’
ध्यान रखना, पुण्य—पाप दोनों। यहीं उपनिषद की चितना की गहराई है। पुण्य—पाप दोनों का समूह। वह जो अच्छा किया था वह भी, जो बुरा किया था वह भी, दोनों का समूह जड़ से कट जाता है।
यह मत सोचना कि परमात्मा के पास जब पहुंचेंगे, तो अपने पुण्य का बैंक बैलेंस साथ लिए रहेंगे। कि धर्मशाला बनवाई थी एक, क्या हिसाब रखा उसका? कि एक मंदिर बनवा दिया था! कि इतने ब्राह्मणों को भोजन करवा दिया था! उसका हिसाब अगर लेकर पहुंच गए, तो दरवाजे पर भला स्वर्ग लिखा हो, भीतर नर्क ही पाएंगे, कोई स्वर्ग मिलने वाला नहीं है।
पाप और पुण्य इस जगत की भाषा में ऊंच—नीच हैं। पाप बुरा है, पुण्य अच्छा है। समाज की दृष्टि से ठीक है, लेकिन उस परम दृष्टि में पाप—पुण्य दोनों ही व्यर्थ हैं, क्योंकि वहां कर्ता होना पाप है, अकर्ता होना पुण्य है। वहां तो सीधी बात है एक कि वहां जो अकर्ता है, निरहकारी है, वही प्रवेश कर पाएगा। वहा तो वही प्रवेश कर पाएगा जो है ही नहीं; जो मिट गया और शून्य होकर जा रहा है। अगर थोड़े से भी आप हैं, तो रास्ता बहुत संकरा है, आप प्रवेश न कर पाएंगे।
जीसस का वचन है, उसका आध्यात्मिक अर्थ कभी भी नहीं किया गया। असल में पश्चिम के पास आध्यात्मिक अर्थों की खोज करने की क्षमता नहीं है। इसलिए जो भी अर्थ होता है, वह सांसारिक हो जाता है। जीसस का वचन है कि सुई के छेद से ऊंट निकल जाए, लेकिन धनी आदमी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न कर पाएगा।
लेकिन पूरी ईसाइयत के दो हजार साल, और एक बार भी किसी ने इस वाक्य की ठीक व्याख्या नहीं की। दो हजार साल लंबा वक्त है। सारी व्याख्या यह हुई कि धनी आदमी स्वर्ग नहीं जा सकता। ऊंट के निकल जाने की संभावना है सुई के छेद से, जो कि नहीं हो सकता। सुई के छेद से ऊंट कैसे निकलेगा? जो नहीं निकल सकता, वह भी जीसस कहते हैं, हो सकता है निकल जाए; कोई तरकीब खोज ले, कोई रास्ता बन जाए, कि सुई के छेद से ऊंट निकल जाए, लेकिन धनी आदमी स्वर्ग के द्वार में प्रवेश नहीं पा सकेगा। इसका सीधा—सीधा अर्थ जो हो सकता था, वह ईसाइयत ने लिया। वह इसका अर्थ नहीं है। धनी आदमी से अर्थ है उस आदमी का, जिसे थोड़ा भी लगता है कि मेरे पास कुछ है। जिसे लगता है कि मेरे पास कुछ है, वह धनी आदमी है। जिसको खयाल है कि मेरे पास कुछ है, वह धनी आदमी है।
तो अगर किसी को लगता है कि मैंने पुण्य कमाया है, यह धनी आदमी है। किसी को लगता है मैं साधु था, संयमी था, तपस्वी था, यह धनी आदमी है। धनी आदमी का मतलब हुआ कि जो कहता है मेरे अलावा भी मेरे पास कुछ है, वह धनी आदमी है। अगर यह कहता है मैंने इतनी प्रार्थनाएं की, इतने उपवास किए, इतने दिन धूप में खड़ा रहा, पैर पर ही खड़ा रहता था, बैठता भी नहीं था वर्षों तक, मैंने दरिद्रों की इतनी सेवा की, इतने अस्पतालों में गया—यह किया, वह किया—अगर इसके पास कुछ भी कहने को है कि मेरे पास इतना है, तो यह आदमी धनी आदमी है।
अब सूत्र को फिर सुन लें. ऊंट गुजर जाए सुई के छेद से, लेकिन धनी आदमी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकेगा।
निर्धन कौन है? ईश्वर के सामने खड़ा होकर जिसके पास कहने को कुछ भी नहीं है कि मेरे पास कुछ है, कि मेरे पास ध्यान है, कि मेरे पास पुण्य है, कि मेरे पास धर्म है। जो ईश्वर के सामने खड़ा हो जाता है शून्यवत, और कहता है मेरे पास कुछ भी नहीं है, अकेला मैं हूं—या जो कुछ भी हूं,  जो तुमने ही मुझे दिया है, वही मैं हूं उसके अतिरिक्त मेरी कोई भी कमाई नहीं है; मेरा होना ही मेरा सब कुछ है, मेरे पास कर्म का कोई भी लेखा—जोखा नहीं है—ऐसा शून्यवत जो उस द्वार पर खड़ा होता है, वह है दरिद्र आदमी। वह है बुद्ध का भिक्षु, जीसस का दरिद्र आदमी। वही प्रवेश कर पाता है।
तो दरिद्रता का ठीक अर्थ हुआ कि जो बिलकुल शून्य है। जो शून्य है, वही प्रवेश कर पाता है। और इसीलिए ऊंट की बात कही। सुई का छेद बहुत छोटा है, इससे ऊंट के निकलने का कोई उपाय नहीं है। मोक्ष का द्वार सुई के छेद से भी बहुत छोटा है; उसमें से सिर्फ शून्य ही निकल सकता है। अगर जरा सा भी पदार्थ आपके पास है, जरा सा भी मैं—अटक जाएगा। ऊंट लेकर जा रहे हैं आप सुई के छेद में से  निकलने। ऊंट छोड़ दें।
लेकिन सवारियां छोड़नी बडी मुश्किल होती हैं, क्योंकि सवारियों पर हम ऊंचे मालूम पड़ते हैं। ऊंट इसीलिए जीसस को खयाल में आ गया होगा। जो भी अहंकार पर बैठे हैं, ऊंट पर बैठे हैं। और जानते हैं कि ऊंट की सवारी कैसी दुखद है। ऊंट की सवारी है अहंकार की सवारी, काफी दचके खाने पड़ते हैं ऊंचा—नीचा होता रहता है पूरे वक्त। लेकिन फिर भी ऊंचे तो मालूम पड़ते हैं!
ऊंट से नीचे उतरना पड़े। जो भी आपके पास है, वह कर्म से मिला है—जो भी। कर्म से जो भी मिला है, उसकी सीमा मन है। आत्मा तक कर्म से मिला हुआ कुछ भी नहीं पहुंचता।
'समस्त समूह वासना का हो जाता है नष्ट, पुण्य—पाप नाम के कर्म जड़ से उखड़ जाते हैं, तब यह तत्त्वमसि वाक्य परोक्ष ज्ञानरूप में प्रकाशित होता है।’
तब पहली दफा अनुभव होता है कि क्या है यह ऋषि—वचन, तत्त्वमसि—वह तू ही है, दैट आर्ट दाऊ—यह क्या है। इसका पहली दफा परोक्ष अनुभव होता है। परोक्ष! अभी भी यह साफ—साफ दिखाई नहीं पड़ता। अभी भी लगता है, स्पर्श होता है, अनुमान होता है; अभी भी सीधा साक्षात्कार नहीं होता। यह धर्म—मेघ की जब वर्षा हो जाती है ऊपर, जब चित्त बिलकुल शून्य हो जाता है और दरिद्रता परम हो जाती है, और आदमी भीतर एक शून्य हो जाता है, तब पहली दफा इस तत्त्वमसि महावाक्य का, कि तू ब्रह्म ही है, परोक्ष अनुभव होता है।
गजब के लोग हैं उपनिषद के ऋषि! अभी वे कहते हैं, अभी भी सीधा साक्षात्कार नहीं होता। अभी भी ऐसा होता है कि जैसे हम आंख बंद किए बैठे हों और किसी के पैरों की ध्वनि सुनाई पड़े, और हमें लगे कि कोई आता है; यह परोक्ष है। दिखाई न पड़ता हो, अंधेरा हो, और किसी के गीत की कड़ी गज जाए, और हमें लगे कि कोई गाता है—दिखाई न पड़े—तो परोक्ष।
परोक्ष का मतलब है : अभी ठीक आमना—सामना नहीं हुआ, अभी पास ही कहीं प्रतीति हो रही है। धर्म—मेघ की वर्षा के बाद जो पहली घटना होती है, वह है तत्त्वमसि वाक्य की परोक्ष प्रतीति—कि ठीक कहा है ऋषियों ने, कि ठीक कहा है उपनिषद ने। कि वह जो वचन सुना था; वह जो श्रवण में सुना था मौन में सोचा था, निदिध्यासन में साधा था, समाधि में एकता पाई थी, अब धर्म—मेघ की वर्षा पर पता लगता है—ठीक ही कहा था।
ठीक ही कहा था, यह परोक्ष है, किसी ने कहा था। आज पता चलता है, उसका स्वाद आता है, लगता है—ठीक ही कहा था।
'परोक्ष ज्ञानरूप में प्रकाशित होता है, और फिर।’
जब यह परोक्ष जान थिर हो जाता है, और इसमें किसी तरह की कहीं कोई जरा सी भी लहर नहीं रह जाती विपरीत की; बिलकुल निस्संदिग्ध ठहर जाता है, आस्था बन जाती है, तब—
'फिर हाथ में रखे आवले की तरह अपरोक्ष ज्ञान को उत्पन्न करता है।’
और जब यह परोक्ष ज्ञान बिलकुल थिर हो जाता है, प्राणों की पूरी शक्ति कहती है, अनुभव करती है, कि ठीक कहा था ऋषियों ने तत्त्वमसि—वह तू ही है—जब इसमें कहीं भी कोई लहर भी इसके विपरीत नहीं रह जाती, जब पूरा—पूरा यह असंदिग्ध मालूम होने लगता है, लेकिन परोक्ष, तब जैसे हाथ में कोई फल को रख दे आवले के, ऐसा यह तत्त्वमसि वाक्य प्रत्यक्ष हो जाता है; अपरोक्ष हो जाता है। तब फिर ऐसा व्यक्ति यह नहीं कहता कि ऋषियों ने जो कहा, ठीक। ऐसा व्यक्ति तब कहता है, अब मैं कहता हूं,  तत्त्वमसि।
परोक्ष ज्ञान में यह आदमी कहता है कि ऋषियों ने कहा है, इसलिए मैं कहता हूं कि ठीक है; प्रत्यक्ष शान में यह आदमी कहेगा, मैं कहता हूं यह ठीक है, इसलिए ऋषियों ने भी ठीक ही कहा होगा। इस फर्क को ठीक से खयाल में ले लें।
परोक्ष जान में प्रमाण था—वेद, ऋषि, ज्ञान, शास्त्र। उससे ही श्रवण से शुरू की थी यात्रा। गुरु ने कहा था, इसलिए ठीक ही कहा होगा, इस आस्था से खोज चली थी। परोक्ष था तब तक, जब तक गुरु ने कहा है, ठीक ही कहा होगा। और जो गुरु को जानता है, वह निश्चित ही स्वीकार कर लेता है कि ठीक ही कहा होगा।
बुद्ध के पास कोई रहा हो, और बुद्ध कहें, तत्त्वमसि। जिसने बुद्ध को जाना है, वह सोच भी नहीं सकता, उसे कुछ भी पता नहीं है कि यह वाक्य ठीक है या नहीं, लेकिन बुद्ध को जानता है। इसलिए बुद्ध जो कहते हैं, वह प्रमाण हो जाता है। बुद्ध से कुछ अप्रमाण निकल सकता है, इसकी कोई बात ही नहीं बनती, इसका कोई खयाल ही नहीं आता।
जो गुरु के पास रहा है, गुरु को जाना है, गुरु का वचन उसे प्रमाण है। लेकिन गुरु का ही वचन प्रमाण है। यह परोक्ष है। दूसरे के द्वारा आया है। पहली प्रतीति तो यही होगी, जब बुद्ध. का साधक पहुंचेगा समाधि में, तो हाथ जोड़ कर बुद्ध के चरणों में सिर झुकाएगा, कहेगा ठीक कहा था, जो कहा था वह जाना। लेकिन जब यह प्रतीति और गहरी होगी, और डूबेगा, और डूबेगा, तो स्थिति बिलकुल बदल जाएगी। तब वह कहेगा कि मैं जानता हूं कि मैं वही हूं। और अब मैं कहता हूं कि चूंकि मेरा अनुभव कहता है कि ठीक है, इसलिए गुरु ने जो कहा था, वह ठीक है।
अब प्रमाण बन जाता है व्यक्ति स्वयं, और व्यक्ति बन जाता है स्वयं शास्त्र। ऐसे व्यक्तियों को हमने बुद्ध, तीर्थंकर, अवतार कहा है। जो व्यक्ति स्वयं प्रमाण है। जो यह नहीं कहते कि ऐसा वेद में लिखा है, इसलिए सही, जो कहते हैं, ऐसा मैंने जाना, इसलिए सही। और अगर वेद भी ऐसा कहते हों, तो मरे जानने के कारण वेद भी सही; और अगर ऐसा न कहते हों तो वेद गलत। अगर ऐसा न कहते हों तो वेद गलत। अब कसौटी अपना ही अनुभव है। अब अपना ही निकष उपलब्ध हो गया है।
यह सिद्धावस्था है। समाधि जब परोक्ष शान से अपरोक्ष ज्ञान में प्रवेश करती है, तो सिद्धावस्था हो जाती है। ऐसी अवस्था को पाया हुआ व्यक्ति ही अगर लौटे समाधि, निदिध्यासन, मनन, प्रवचन तक, तो हमें खबर मिलती है उस जगत की। इसलिए अगर हमने शास्त्रों को इतना आदर दिया है तो उसका कारण यही है कि वे उन लोगों के वचन हैं, जिनके पास रहने वाले लोगों ने उनसे वचन सुने थे और पाया था कि यह जो आदमी कहता है, गलत कह ही नहीं सकता। फिर भी ऐसे लोग कहते नहीं कि हम जो कहें, मान लो।
बुद्ध कहते हैं, सोचना, विचारना, मनन करना, निदिध्यासन करना, साधना, और फिर तुम्हें अनुभव में आए तो ही मानना। बुद्ध कहते हैं, मैं कहता हूं इसलिए मत मानना, बुद्ध कहते हैं इसलिए मत मानना; शास्त्र कहते हैं इसलिए मत मानना—खोजना। और जब स्वयं का अनुभव बन जाए, तो गवाह बन जाना। समाधि को उपलब्ध व्यक्ति साक्षी हो जाता है समस्त शास्त्रों का। ताता नहीं, साक्षी। पंडित जाता होता है, समाधिस्थ साक्षी होता है। पंडित कहता है कि शास्त्र ठीक कहते हैं, क्योंकि तर्क में जंचती है बात। समाधिस्थ कहता है, शास्त्र ठीक कहते हैं, क्योंकि मेरा भी अनुभव यही है।

आज इतना ही

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