लेकिन दुर्भाग्य से ‘सैड’ शब्द से
फिर उस जर्मन आदमी एकिड़ सैड कि याद आ गइ, है भगवान, उसे मैं जीवन में फिर कभी कुछ
कहने वाला नहीं था। मैं उसकी पुस्तक से यह जानने की कोशिश कर रहा था कि उसको
मुझमें ऐसा क्या गलत दिखाई दिया कि जिसके आधार पर वह यह कह रहा है कि मैं एनलाइटेंड
नहीं हूं। उत्सुकता वश मैं यह देखना चाहता था कि उसने क्यों इस तरह का निष्कर्ष
निकाला। और जो मुझे मालूम हुआ वह सचमुच हंसने जैसा है। मैं इल्युमिनटेड हूं, ऐसा
मानने का उसका कारण यह है कि मैं जो कह रहा हूं वह निश्चित ही समस्त मानवता के
लिए बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन मैं एनलाइटेंड नहीं हूं, ऐसा मानने का उसका कारण
है मेरे बोलने का ढंग से मैं बोलता है।
क्योंकि ऐसा लगता है जैसे कि यह व्यक्ति
अनेक एनलाइटेंड लोगों से मिल चुका है। अनेक एनलाइटेंड लोगों को जानता है। मेरे
बोलने के ढंग इसे उन लोगों जैसा नहीं लगता है।
मैं उसके लिए एक अमरीकन शब्द का प्रयोग करना
चाहता हूं: यह सन-ऑफ-ए-बिच, सिर्फ जड़बुद्धि है। वोधिधर्म को अगर यह अभिव्यक्ति
मालूम होती तो वह चीन के सम्राट वू से जरूर कहता, ‘यू सन-ऑफ-ए-बिच’, जहन्नुम में
जाओ और मुझे अकेला छोड़ दो।‘’ लेकिन उन दिनों यह अमरीकन अभिव्यक्ति थी ही नहीं।
नहीं की अमरीका नहीं था। यह तो यूरोपियन मान्यता है कि कोलंबस ने अमरीका की खोज
की, कई बार उसे खोजा जा चूका है, लेकिन हमेशा उसे दबा दिया गया।
क्या मैं तुम्हें याद दिलाऊ कि मैक्सिको
शब्द संस्कृत के मक्षिका शब्द से आता है। और मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण
मिलते है जिनसे सिद्ध होता है। जिसस क्राइस्ट से बहुत पहले वहां पर हिंदू धर्म
प्रचलित था—कोलंबस तो बहुत बाद में आया। सच तो यह है कि अमरीका, विशेषकर दक्षिण
अमरीका एक ऐसे महाद्वीप का हिस्सा था जिसमें अफ्रीका भी सम्मिलित था। भारत ठीक
मध्य में था। अफ्रीका नीचे था और अमेरिका ऊपर था वे। एक बहुत ही उथले सागर से
विभक्त थे। तुम उसे पैदल चल कर पार कर सकते थे। पुराने भारतीय शास्त्रों में
इसके उल्लेख है। वे कहते है कि लोग एशिया से अमरीका पैदल ही चले जाते थे। यहां तक
कि शादियाँ भी होती थी। कृष्ण के प्रमुख शिष्य और महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा
अर्जुन ने मैक्सिको की एक लड़की से शादी की थी। निश्चित ही वे मैक्सिको को मक्षिका
कहते थे। लेकिन उसका वर्णन बिलकुल मैक्सिको जैसा ही है।
मैक्सिको में हिंदुओं के देवता गणेश की
मूर्तियां है, इंग्लैड में गणेश की मूर्ति का मिलना असंभव है। कहीं भी मिलना
असंभव है, जब वक कि वह देश हिंदू धर्म के संपर्क में न आया हो। जैसे सुमात्रा,
बाली, और मैक्सिको में संभव है—लेकिन और कहीं नहीं, जब तक वहां हिंदू धर्म न रहा
हो। मैं तो यह कुछ उल्लेख कर हरा हूं, अगर तुम इसके बारे में और अधिक जानकारी
पाना चाहते हो तो तुम्हें भिक्षु चमन लाल की पुस्तक ‘’हिंदू अमरीका’’ देखनी
पड़ेगी, जो कि उनके जीवन भर का शोधकार्य है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई भी
उनकी पुस्तक पर ध्यान नहीं देता। ईसाई तो निश्चित ही ध्यान नहीं द सकते, लेकिन
प्रतिभाशाली लोगों को कोई पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए।
लेकिन एनलाइटेंड या इल्युमिनटेड व्यक्ति को
कैसे बोलना चाहिए, इसका निर्णय करने बाले ये कोन है। क्या इन्होंने वोधिधर्म को
जाना है, क्या इन्होंने उनके चित्र को देखा है? ये तो तुरंत इस नतीजे पर पहुंच
जाएंगे कि एनलाइटेंड व्यक्ति ऐसा दिखार्इ नहीं दे सकता। वह बहुत ही डरावना दिखता
है। उसकी आंखें जंगली शेर जैसी है। और वह तुम्हारी तरफ देखता है तो ऐसा लगता है
मानो अभी यह चित्र में से कूदेगा और तुम्हारे उपर झपटेगा और तुम्हे मार डालगा।
ऐसा वह था। लेकिन छोड़ो वोधिधर्म को, क्योंकि अब चौदह सदियां बीत गई है।
मैं वोधिधर्म को व्यक्तिगत रूप से जानता था।
मैंने उसके साथ कम से कम तीन महीने यात्रा की थी। जैसे मैं उसे प्रेम करता था वैसे
ही वह मुझसे प्रेम करता था। तुम्हें यह जानने की उत्सुकता होगी कि यह मुझे क्यों
प्रेम करता था। यह मुझे इसलिए प्रेम करता था क्योंकि मैंने उससे कभी कोई प्रश्न
नहीं पूछा। उसने मुझसे कहां, ‘’मुझे मिलने वालों में तुम ऐसे पहले व्यक्ति हो जो
कोई प्रश्न नहीं पूछता। और मैं प्रश्नों से सिर्फ ऊबता हूं। तुम एकमात्र व्यक्ति
हो जो मुझे बोर नहीं करते।‘’
मैंने कहा: ‘’इसका एक कारण है।‘’
उसने
पूछा: ‘’क्या कारण
है?’’
मैने कहा: ‘’मैं केवल उत्तर देता हूं, मैं कभी प्रश्न नहीं पूछता। अगर तुम्हारे पास कोई प्रश्न हो तो तुम मुझसे पूछ सकते हो। अगर तुम्हारे पास
प्रश्न नहीं है तो अपना मुहँ बंध रखो।‘’
हम दोनों हंसे, क्योंकि हम दोनों एक जैसे पागल थे। उसने मुझे अपने साथ यात्रा जारी रखने को कहां, लेकिन मैंने
कहा, ‘’मुझे माफ करो।
मुझे अपने रास्ते जाना
है। और अब वह तुम्हारे रास्ते से अलग होता है।‘’
वह भरोसा न कर सका। उसने इससे पहले अपने साथ चलने के लिए कभी किसी को नहीं कहा
था। वह वही आदमी था जिसने अस जमाने के सबसे बड़े साम्राज्य से महान चीनी सम्राट बू को भी ऐसे इनकार कर दिया था जैसेकि वह कोर्इ भिखारी हो। वोधिधर्म को भरोसा
नहीं आया कि मैंने उसके साथ निमंत्रण को अस्वीकृत कर दिया है।‘’
मैंने कहा: ‘’अब तुम्हें मालूम हुआ कि अस्वीकृत
होने पर कैसा लगता है। मैं तुम्हें इसका स्वाद देना चाहता था। अलविदा’’ लेकिन वह
चौदह सौ साल पहले कि बात है।
या अगर उसे सिर्फ भारतीय बुद्धत्व से
प्रयोजन है, जो एक मूर्खों को प्रभावित करता लगता है, अन्यथा भारत का इससे क्या
लेना-देना है। बुद्धत्व तो सभी जगह घटा है। लेकिन अगर उसे केबल भारतीय बुद्धत्व
से प्रयोजन है, तो रामकृष्ण हमारे बहुत निकट है। उनके शब्दों को भी ज्यों का त्यों
प्रस्तुत नहीं किया गया है। क्योंकि वे देहाती थे और देहाती भाषा का ही प्रयोग
करते थे। लोगों के अनुसार जिन शब्दों को प्रयोग समाधिस्थ व्यक्ति को नहीं करना
चाहिए, वे सब निकाल दिए गए थे। मैंने बंगाल में धूम-धूम कर ऐसे लोगों से पूछा है
जो अभी जीवित है कि रामकृष्ण कैसे बोलते थे। उन सब ने बताया कि वे भयंकर थे। वे
ऐसे बोलते थे जैसे आदमी बोलना चाहिए—सीधा साफ, बिना लाग-लपटे के।
मैं अपने नाना की मृत्यु के बारे में बसत कर
रहा था।
वह हमेशा के लिए बिछुड़ना था। हम दुबारा नहीं
मिलेंगे। फिर भी इसमें एक सौंदर्य था। और उनहोंने मंत्र जाप से इसे सुंदर, और प्रार्थना
पूर्ण बना दिया—इसमें सुगंध आ गई। वे बूढे थे और मर रहे थे, शायद जबरदस्त
हार्ट-अटैक से। हमे इसके बारे में कुछ पता न था। क्योंकि गांव में कोई डाक्टर
नहीं था, कोई दवा की दुकान तक नहीं थी। तो हमें उनकी मृत्यु का कारण नहीं मालूम।
लेकिन मैं सोचता हूं कि वह जबरदस्त हार्ट-अटैक था।
मैंने उनके कान में पूछा: ‘’नाना, विदा होने
से पहले क्या आप मुझे कुछ कहना चाहते है। कोई अंतिम शब्द, या आप मुझे कुछ देना
चाहते है। जो सदा आपकी याद दिलाता रहे।‘’
़ उन्होंने अपनी अंगूठी निकाल कर मेरे हाथ में
रख दी। वह अंगूठी अब किसी संन्यासी के पास है। मैंने वह किसी को दे दी।
लेकिन वह अंगूठी हमेशा एक रहस्य थी। वे
बार-बार उस अंगूठी के भीतर देखते रहते थे। लेकिन अपने पूरे जीवन में उन्होंने
कभी-कभी किसी को नहीं देखने दिया कि उसके भीतर क्या है। उस अंगूठी के दोनों और
कांच की खिड़की थी जिसमें से देखा ज सकता था। ऊपर ऐ हीरा लगा हुआ था और दोनों और
कांच की खिड़की थी। भीतर जैन तीर्थ कर महावीर की एक बहुत छोटी लेकिन बहुत सुंदर
मूर्ति थी। और दोनों खिड़कियों में मैग्नीफ़ाइंग ग्लासेस थी। जिसके कारण वह बहुत
बड़ी दिखाई देती थी। वह मेरे काम की न थी, क्योंकि पूरी कोशिश की लेकिन मुझे अफसोस
है कि कभी महावीर से उतना प्रेम नहीं कर सका जितना मैं बुद्ध से करता हूं। यद्यपि
वे दोनों समकालीन थे।
महावीर में कमी है, और उसके बिना मेरा ह्रदय
उनके लिए नहीं धड़क सकता। वे बिलकुल पत्थर
की मूर्ति जैसे दिखाई देते है। बुद्ध अधिक जीवंत दिखाई देते है, लेकिन मेरे स्तर
की जीवंतता तक नहीं। इसीलिए मैं चाहता हूं कि वे जो़रबा भी बने। अगर कभी वे मुझे
परलोक में कहीं मिले तो बडी मुश्किल होने बाली है। वे मुझ पर जोर से चिल्लाएंगे,
तुम चाहते हो कि मैं जो़रबा बन जाऊँ।
न तो जो़रबा अकेले बच सकता है—वह हिरोशिमा
में समाप्त हो जाएगा—न ही बुद्ध मनुष्य के भावी मनोविज्ञान को अध्यात्म और
भौतिकवाद, पूर्व और पश्चिम के बीच एक सेतु होने की जरूरत है। किसी दिन संसार मेरा
आभार मानेगा कि मेरा संदेश पश्चिम पहुंच रहा है। अन्यथा आज तक तो मुमुक्षु पूर्व
जाते रहे है। लेकिन इस बार एक जीवित बुद्ध का संदेश पश्चिम में पहुंच रहा है।
पश्चिम नहीं जानता की बुद्धो को कैसे पहचाना
जाए, क्योंकि उसने कभी किसी बुद्ध को जाना ही नहीं। उसने आंशिक बुद्धो को जाना
है। जीसस को, पाइथागोरस को, डायोजनीज को। उन्होंने कभी समग्र बुद्ध को नहीं जाना।
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि वे मेरे बारे में वाद-विवाद
कर रहे है।
क्या
तुम्हें मालूम है कि भारतीय समाचार-पत्रों में वे क्या छाप रहे है। वे एक कहानी
छाप रहे है कि शायद दुश्मनों ने मेरा अपहरण कर लिया है और मेरा जीवन खतरे में है। अब मैं यहां पर हूं और उनको मुझसे कोई मतलब नहीं है। भारत सड़ा-गला देश है। लगभग दो हजार वर्षो से यह सड़ा गला देश, दुर्गंध आती है इससे। भारतीय
आध्यात्मिकता से अधिक दुर्गंध
और किसी चीज से
नहीं आती। यह लाश
है और बहुत पुरानी लाश है—दो हजार वर्ष
पुरानी।
लोग भी कैसी कहानियां गढ़ लेते है कि दुश्मनों
ने मेरा अपहरण कर लिया है और अब मेरा जीवन खतरे में है। सच तो यह है कि पिछले पच्चीस
वर्षो से लगातार मेरा जीवन खतरे में है। यह चमत्कार ही है कि मैं अभी तक जीवित
हूं।
मैं तुम्हें कह रहा था मेरे नाना ने मृत्यु
से पहले अपनी सर्वाधिक प्रिय वस्तु मुझे दी—महावीर की मूर्ति, जो अंगूठी में हीरे
के पीछे छिपी हुई थी। आंखों में आंसू भर कर उन्होंने कहा, तुम्हें देने के लिए
मेरे पास और कुछ नहीं है। क्योंकि जो कुछ भी मेरे पास है। तुमसे भी ऐसे ही छीन
लिया जाएगा जैसे मुझसे छीन लिया गया है। जिसने स्वयं को जाना है, उसके प्रति अपना
प्रेम ही मैं तुम्हें दे सकता हूं।
यद्यपि मैंने उनकी अंगूठी अपने पास नहीं रखी,
फिर भी मैंने उनकी इच्छा को पूरा कर दिया है। मैंने उस एक को जाना है, और मैंने
उसे अपने भीतर जाना है। एक अंगूठी में होने से क्या फर्क पड़ता है। लेकिन बेचारे
वृद्ध आदमी, उनहोंने अपने गुरु महावीर को प्रेम किया, और उन्होंने अपना प्रेम
मुझे दिया। अपने गुरु के प्रति उनके प्रेम का मैं आदर करता हूं। नाना के होठों पर
अंतिम शब्द थे: ‘’चिंता मत करो, क्योंकि मैं मर नहीं रहा हूं।‘’
हम सबने इंतजार किया कि शायद वे और कुछ कहेंगे,
लेकिन वे अंतिम शब्द थे। उनकी आंखें बंद हुई और वे नहीं रहे।
अभी भी मुझे वह मौन याद है। बैलगाड़ी एक नदी
के पाट में से गुजर रही थी। मुझे सब विस्तार से याद है। मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि
मैं अपनी नानी को परेशान नहीं करना चाहता था। वे कुछ न बोली। कुछ क्षण बित गये,
फिर मुझे उनकी कुछ चिंता हुई और मैंने कहा: ‘कुछ बोलों, इतनी चुप मत रहो, यह
असहनीय है।’
क्या तुम भरोसा कर सकते हो, उनहोंने एक गीत
गाय, ऐसे मैंने सीखा कि मृत्यु का भी उत्सव मनाया जा सकता है, उन्होंने वो गीत
गया जो मेरे नाना से पहली बार प्रेम हुआ था उस समय गया था।
यह भी उल्लेखनीय है कि नब्बे वर्ष पहले,
भारत में नानी में प्रेम करने का साहस था। वे चौबीस साल की उम्र तक अविवाहित रहीं।
यह विरली बात थी। एक बार मैंने उनसे पूछा कि आप इतनी उम्र तक अविवाहित क्यों
रहीं। वे इतनी सुंदर थी.......मैंने मजाक में उनसे कहा कि छतर पुर का राजा भी शायद
आपके प्रेम में पड़ गया होता।
वे बोली: ‘आश्चर्य है, तुमने यह बात कैसे
कही, क्येांकि वह मेरे प्रेम में पड़ गया था। लेकिन मैंने उसे इनकार कर दिया। और
केवल उसको ही नहीं और बहुतों को भी।
उन दिनों भारत में लड़कियों की शादी सात साल
की उम्र में या ज्यादा से ज्यादा नौ साल की उम्र में कर दी जाती थी। प्रेम का
भय....अगर वे बड़ी हुई तो शायद वे प्रेम में पड़ सकती है, लेकिन नानी के पिता कवि
थे। उनके गीत अभी भी खजुराहो तथा आस-पास क गांवों में गाए जाते है। उन्होंने जोर
दिया कि जब तक वह राज़ी नहीं होती तक वे उसकी किसी से शादी नहीं करेंगे। संयोग से
नानी का प्रेम मेरे नाना से हो गया। मैंने उनसे पूछा, ‘यह और आश्चर्य की बात है
कि आपने छतर पुर के राजा को इनकार कर दिया और इस गरीब आदमी के प्रेम में पड़ गई।
किस लिए, निश्चित ही वे कोई बहुत सुंदर नहीं थे, और न किन्हीं और अर्थों में
असाधारण थे। तुम उनके प्रेम में क्यों पड़ी?’
उन्होंने कहा: ‘तुम गलत सवाल
पूछ रहे हो, प्रेम में ‘क्यों’ नहीं होता। मैंने सिर्फ उनको देखा, और बस कुछ हो
गया। मैंने उनकी आंखों देखी और मुझे गहन विश्वास पैदा हो गया—एक अटूट विश्वास जो
आज तक डांवाडोल नहीं हुआ।’
मैंने अपने नाना से पूछा था, ‘’नानी कहती है
कि उनको आपसे प्रेम हो गया था। उनकी तरफ से तो ठीक है, लेकिन आप क्यों विवाह के
लिए राज़ी हो गए।‘’
उनहोंने कहां: ‘मैं कवि या विचारक नहीं हूं,
लेकिन मैं सौंदर्य को देखूं तो उसे पहचान सकता हूं।’
मैंने अपनी नानी से अघिक सुंदर स्त्री कभी
नहीं देखी। मैं स्वयं उनके प्रेम में था, और उनके पूरे जीवन उनसे बहुत प्रेम करता
रहा। अस्सी साल की अवस्था में जब उनकी मृत्यु हुई तो मैं तुरंत घर पहुंचा। वहां
वे लेटी हुई थी—मृत। सब लोग मेरा इंतजार कर रहे थे। क्योंकि नानी ने उनसे कहा था
कि जब तक मैं न पहुंच जांऊ तब तक उनका अंतिम संस्कार न किया जाए। और उन्होंने
जोर देकर कहा था कि उनकी चिता को मैं ही अग्नि दूँ। तो वे मेरा इंतजार कर रहे थे।
मैं अंदर गया और उनके चेहरे से कपड़ा हटाया.......और में अभी भी सुंदर थी। असल में
पहले से भी सुंदर, क्योंकि सब बिलकुल शांत था—जीवन की भाग दौड़ समाप्त हो गई थी।
श्वास की हलन-चलन भी बंद हो गई थी। वे केवल उपस्थिति मात्र थी।
उनकी चिता को आग देना मेरे जीवन को सबसे कठिन
काम था। यह वैसे ही था जैसे कि मैं लियोनार्डो या विन सेंट वान गॉग के सबसे सुंदर
चित्र को आग लगा रहा होऊं। निश्चित ही, मेरे लिए वे मोना लिसा से भी अधिक मूल्यवान
थी। क्लियोपैट्रा से भी अधिक सुंदर थी। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
सौंदर्य की जो परख जो मेरे भीतर है यह उन्हीं
की देन है। मैं जो हूं, वैसा होने में उन्होंने सब तरह से मेरी मदद की है। उनके
बिना मैं शायद एक दुकानदार होता, या डाक्टर, या इंजीनियर होता। क्योंकि जब मैंने
अपनी मैट्रिक की परीक्षा पास की तो मेरे पिता इतने गरीब थे कि मुझे विश्वविद्यालय
भेजने के लिए कर्ज तक लेने को तैयार थे। उनका पूरा आग्रह था कि मैं विश्वविद्यालय
जाऊँ। मैं जाना चाहता था, लेकिन मेडिकल कालेज नहीं जाना चाहता था और इंजीनियरिंग
कालेज भी नहीं जाना चाहता था। मैंने डाक्टर या इंजीनियर बनने से साफ मना कर दिया।
मैंने उनसे कहा, ‘अगर आप सच जानना चाहते है तो सच यह है कि मैं संन्यासी बनना
चाहता हूं, एक घुमक्कड़।’
उन्होंने कहा: ‘क्या, एक घुमक्कड़?’
मैंने कहा: ‘हां, में विश्वविद्यालय
दर्शनशास्त्र, ये फिलासफी पढ़ना चाहता हूं, ताकि मैं एक दार्शनिक घुमक्कड़ बन
सकूँ।’
वे मना करते हुए बोले: ‘इसके लिए तो मैं कर्ज
के झंझट नहीं लूँगा।’
मेरी नानी ने कहा: ‘बेटा, तुम फ़िकर न करो,
तुम जाओ और जो करना चाहते हो करो। मैं जिंदा हूं। मैं अपना सब कुछ बेच-बाच कर भी
तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगी। मैं तुमसे कभी नहीं पूछूंगी कि तुम कहां जाना चाहते
हो और क्या पढ़ना चाहते हो।’
उनहोंने कभी नहीं पूछा, और वे बराबर मुझे
पैसे भेजती रही, तब भी जग मैं प्रोफेसर बन गया। मुझे उन्हें कहना पडा कि अब तो
मैं स्वयं कमा रहा हूं और अब तो मुझे उनको पैसे भेजने चाहिए।
लोग आश्चर्य करते थे, कि इतनी पुस्तकें
खरीदने के लिए मेरे पास इतना पैसा कहां से
आता है क्योंकि मेरे पास हजारों पुस्तकें थी। जब मैं हाईस्कूल में पढ़ता था उस
समय भी मेरे घर में हजारों पुस्तकें थी। मेरा सारा घर पुस्तकों से भरा हुआ था।
और सब आश्चर्य करते थे कि मेरे पास पैसा कहां से आता है। मेरी नानी ने मुझसे कहा
हुआ था, कभी किसी को मत बताना कि तुमको मुझसे पैसा मिलता है। वे मुझे बराबर पैसे
भेजती रही। तुम्हें जान कर आश्चर्य होगा कि जिस महीने उनकी मृत्यु हुई उस महीने
भी उन्होंने हमेशा की तरह मुझे पैसे भेजे। जिस दिन उनकी मृत्यु हुई उस सुबह उन्होंने
चेक पर हस्ताक्षर किए थे। और तुम्हें यह जान कर और भी आश्चर्य होगा कि वही
अंतिम रकम थी उनके बैंक में। शायद किसी तरह उन्हें मालूम था कि अब कोई कल नहीं
होगा।
मैं अनेक प्रकार से भाग्यवान हूं, लेकिन ऐसे
नाना-नानी पाने के लिए विशेष भाग्यवान हूं ...... और वे सुनहरे आरंभिक वर्ष।
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