अध्याय—15
सूत्र—
श्रीमद्भगवद्गीता अथ पन्चदशोऽध्याय:
श्रीभगवानुवाच:
ऊर्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णीनि यस्तं वेद स वेदवित्।। 1।।
अधश्चोर्थ्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गण्णप्रवृद्धा विषयप्रवाला:।
अधश्च मूलान्यनुसंततनि कर्मानुबन्धीनि मनष्यलोके।। 2।।
गणन्तय— विभाग— योग को समझाने के बाद श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर है, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को
अविनाशी कहते हैं तथा जिसके वेद पत्ते कहे गए है, उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरूष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
उस संसार— वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय—भोगरूप कोंपलां वाले देव मनुष्य और तिर्यक आदि योगरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं।
तथा मनुष्य— योनि में क्रमों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं।
इस सूत्र में प्रवेश के पहले कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात, आधुनिक समय के बहुत—से विचारक, अधिकतम, मानते हैं कि जगत का विकास निम्न से श्रेष्ठ की ओर हो रहा है। डार्विन या मार्क्स, बर्गसन, और भी अन्य। जैसे—जैसे हम पीछे जाते हैं, वैसे—वैसे विकास कम; और जैसे—जैसे हम आगे आते हैं, वैसे—वैसे विकास ज्यादा। अतीत पिछड़ा हुआ था। वर्तमान विकासमान है। भविष्य और भी आगे जाएगा।
इस पूरी विचार—सरणी का मूल—स्रोत, उदगम को छोटा मानना और विकास के अंतिम शिखर को श्रेष्ठ मानना है। लेकिन भारत की मनीषा बिलकुल विपरीत है, और इस सूत्र को समझने के लिए जरूरी होगा।
हम मानते रहे हैं कि मूल श्रेष्ठ है। वह जो स्रोत है, श्रेष्ठ है। बिलकुल ही उलटी तर्क—सरणी है। का आदमी श्रेष्ठ नहीं है, वरन गर्भ में छिपा हुआ जो बीज है, वह श्रेष्ठ है। और जिसे पश्चिम में वे विकास कहते हैं, उसे हम पतन कहते रहे हैं।
अगर विकास की बात सच हो, तो परमात्मा अंत में होगा, प्रथम नहीं हो सकता। तब तो जब सारा जगत विकसित होकर उस जगह पहुंच जाएगा, श्रेष्ठता के अंतिम शिखर पर, तब परमात्मा प्रकट होगा। लेकिन भारतीय दृष्टि कहती रही है कि परमात्मा प्रथम है। तो जिसे हम संसार कह रहे हैं, वह विकास नहीं बल्कि पतन है। और अगर अंतिम को पाना हो, तो प्रथम को पाना होगा। और हम उससे ऊंचे कभी भी नहीं उठ सकते, जहां से हम आए हैं। मूल—स्रोत से ऊपर जाने का कोई भी उपाय नहीं।
इसलिए जब कोई व्यक्ति अपनी जीवन की श्रेष्ठतम समाधिस्थ अवस्था को उपलब्ध होता है, तो एक छोटे बच्चे की भांति हो जाता है। जो परम उपलब्धि है शांति की, निर्वाण की, मोक्ष की, वह वही है, जैसा बच्चा मां के गर्भ में शांत है, निर्वाण को उपलब्ध है, मुक्त है।
प्रथम से ऊपर जाने का कोई भी उपाय नहीं है। या ठीक होगा, हम इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि जितने हम आगे जाते हैं, उतने ही हम पीछे जा रहे हैं। और जो हमारी आखिरी मंजिल होगी, वह हमारा पहला पड़ाव था। या और तरह से कह सकते हैं कि जगत का जो विकास है, वह वर्तुलाकार है, सर्कुलर है। एक वर्तुल हम खींचते हैं; तो जिस बिंदु से शुरू होता है, उसी बिंदु पर पूरा होता है।
जगत का विकास रेखाबद्ध नहीं है, लीनियर नहीं है। एक रेखा की तरह नहीं जाता; एक वर्तुल की भांति है। तो प्रथम अंतिम हो जाता है; और जो अंतिम को पाना चाहते हैं, उन्हें प्रथम जैसी अवस्था पानी होगी।
जगत परमात्मा का पतन है। और जगत में विकास का एक ही उपाय है कि यह पतन खो जाए और हम वापस मूल—स्रोत को उपलब्ध हो जाएं, पहली बात। इसे समझेंगे तो ही उलटे वृक्ष का रूपक समझ में आएगा।
कोई उलटा वृक्ष जगत में होता नहीं। यहां बीज बोना पड़ता है, तब वृक्ष ऊपर की तरफ उठता है और विकासमान होता है। और वृक्ष बीज का विकास है, अभिव्यक्ति है, उसकी चरम प्रसन्नता है। लेकिन गीता ने और उपनिषदों ने जगत को उलटा वृक्ष कहा है। वह परमात्मा का पतन है, विकास नहीं। ऊंचाई का खो जाना है, नीचे उतरना है, ऊंचाई का पाना नहीं है।
जैसे वृक्ष ऊपर की तरफ बढ़ता है, ऐसे हम संसार में ऊपर की तरफ नहीं बढ़ रहे हैं। हम संसार में जितने बढ़ते हैं, उतने नीचे की तरफ बढ़ते हैं। जैसा हम देखते हैं, ठीक उससे उलटी अवस्था है। जिसे हम विकास कहते हैं, वह पतन है।
इसी कारण पूरब का समग्र चिंतन त्यागवादी हो गया। हो जाने के पीछे यही कारण था। त्याग का अर्थ है, संसार जिसे विकास कहता है, उसे हम छोड़ देंगे। संसार जिसे उपलब्धि कहता है, उसे हम तुच्छ समझेंगे। संसार जिसे भोग कहता है, वह त्याग के योग्य है।
एक आदमी धन इकट्ठा करता चला जाता है। वह विकास कर रहा है। पश्चिम में उसे विकासमान कहा जाएगा। पूरब में हमने उन लोगों को विकासमान कहा. बुद्ध ने धन छोड़ दिया, महावीर ने साम्राज्य छोड़ दिया, तो हमने विकासमान कहा।
पश्चिम में इकट्ठा करना विकास है। पूरब में छोड़ना विकास है। पश्चिम में कितना आपके पास है, उससे आपकी ऊंचाई का पता चलता है। पूरब में कितना आप छोड़ सके, कितना कम आपके पास बचा. .जिस दिन आप अकेले ही बच रहते हैं और कुछ भी पास नहीं होता, उस दिन पूरब विकास मानता है।
उलटे वृक्ष की धारणा में ये सारी बातें समाई हुई हैं।
कुछ और बातें, फिर हम सूत्र में प्रवेश करें।
यह वृक्ष कितना ही उलटा हो, लेकिन परमात्मा से जुड़ा है। यह कितनी ही दूर निकल गया हो, लेकिन इस वृक्ष की शाखा—प्रशाखाओं में उसी का ही प्राण प्रवाहित होता है। शाखा कितनी ही दूर हो, जड़ से जुड़ी होगी। जड़ से टूट जाने का कोई उपाय नहीं है।
संसार विपरीत हो सकता है, लेकिन परमात्मा का अभिन्न हिस्सा है। और हम संसार में कितने ही दूर निकल जाएं, हम उससे जुड़े ही रहते हैं। क्षणभर को भी उससे अलग होने का कोई उपाय नहीं। उसका ही प्राण—रस संसार में भी प्रवाहित है।
इसलिए एक दूसरी अनूठी धारणा पूरब में पैदा हुई। वह यह कि पूरब त्यागवादी है, लेकिन संसार को परमात्मा का शत्रु नहीं मानता। संसार भी परमात्मा का अभिन्न भाग है। नीचे की तरफ बहती हुई धारा है, लेकिन धारा उसी की है। धारा का रुख बदलना है। धारा को उसके मूल उदगम की तरफ ले जाना है। लेकिन धारा से कोई शत्रुता और कोई घृणा नहीं है।
परमात्मा अगर उलटा खड़ा हो जाए तो संसार है। संसार अगर सीधा खड़ा हो जाए तो परमात्मा है। पर जैसा हम संसार को देखते हैं, उसे हम मानते हैं कि वह सीधा है। इसलिए समस्त धार्मिक साधनाएं सांसारिक आदमी की दृष्टि में उलटी मालूम पड़ती हैं। सांसारिक मन जो करता है, उसे सीधा मानता है। इसलिए संन्यासी को सांसारिक मन उलटा मानता है। लेकिन जो परमात्मा की दृष्टि को, इस उलटी बहती धारा को ठीक से समझ लें, उनके लिए संसार में उलटे होकर जीना ही एकमात्र सीधे होने का उपाय है।
संसार का गणित जिसको सीधा कहता है, उसे आप थोड़ा सोच—समझकर स्वीकार करना। संसार में जिन्हें लोग बुद्धिमान समझते हैं, उनकी बुद्धिमानी पर थोड़ा शक करना। संसार जिसको सफलता कहता है, उसे आंख बंद करके आलिंगन मत कर लेना। क्योंकि सभी कहते हैं, इसलिए कोई बात सत्य नहीं हो जाती।
अल्वर्ट आइंस्टीन को जर्मनी से निकल जाना पड़ा था। हिटलर, उसके नाजी प्रचार और यहूदियों के विरोध के कारण। और जब आइंस्टीन अमेरिका पहुंचा, तो उसे खबर मिली कि हिटलर ने सौ वैज्ञानिक तैनात किए हैं यह सिद्ध करने को कि आइंस्टीन की सारी खोज गलत है। सौ वैज्ञानिकों ने बड़ी मेहनत भी की।
आइंस्टीन को जब खबर मिली, तो उसने हंसकर कहा कि अगर मैं गलत हूं तो एक वैज्ञानिक उसे सिद्ध करने को काफी है, सौ की कोई जरूरत ही नहीं। और अगर मैं गलत नहीं हूं, तो सारी दुनिया के वैज्ञानिकों को भी हिटलर इकट्ठा करे तो भी—तो भी मैं गलत हो जाने वाला नहीं हूं। और हिटलर को सौ की जरूरत पड़ रही है, वह इसीलिए..।
सत्य तो अकेला भी काफी है। असत्य को भीड़ चाहिए। असत्य की शक्ति भीड़ से पैदा होती है। असत्य के पास अपनी कोई शक्ति नहीं है।
संसार जिसे ठीक कहता है, आप भी उसे ठीक मान लेते हैं। क्योंकि भीड़ की एक शक्ति है। लेकिन उससे वह ठीक नहीं हो जाता। ठीक होने के कोई प्रमाण भी नहीं मिलते।
समझें, एक राजनीतिज्ञ सफल है, क्योंकि बड़े पद पर है। संसार उसे सफलता कहता है। और उस सफलता के भीतर खुशी की एक किरण भी नहीं है। उस सफलता के भीतर आनंद का एक फूल भी कभी नहीं खिलता। और खुद राजनीतिज्ञ से पूछें। उसकी सफलता बिलकुल रेगिस्तान जैसी सूखी है! उसे कुछ भी मिला नहीं है।
दूसरे महायुद्ध में जनरल मैकार्थर का बड़ा नाम था। एक हंसोड़ फिल्म अभिनेता.....मैकार्थर जिस टुकड़ी का मुआयना करने जापान में गया था, वहा सैनिकों को प्रसन्न करने के लिए कुछ हंसी—मजाक करने के लिए एक अभिनेता आया हुआ था। जब वह अभिनेता विदा होने लगा तो मैकार्थर ने कहा कि आओ, मेरे साथ खड़े हो जाओ एक चित्र निकलवाने के लिए।
अभिनेता बहुत ही प्रसन्न हुआ। और उसने मैकार्थर से कहा कि मेरा अहोभाग्य, कि आप जैसे महान जनरल, सेनापति, ख्यातिलब्ध, इतिहास में जिसका नाम रहेगा, ऐसे व्यक्ति के साथ मुझे चित्र उतरवाने का मौका मिला। मैकार्थर ने कहा कि छोड़ो; मेरे छोटे बच्चे ने पत्र लिखा है कि जब तुम यहां आओ, तो तुम्हारे साथ एक चित्र उतरवाऊं। क्योंकि मेरा छोटा बच्चा तुम्हें एक बहुत ख्यातिलब्ध अभिनेता, एक जगत—प्रसिद्ध अभिनेता मानता है। मैं तो कुछ भी नहीं हूं उसके लिए।
जिन्हें हम जगत में सफल कहते हैं, उनकी अवस्था करीब—करीब ऐसी है। उनकी सफलता मान्यता पर निर्भर है। उन्हें आप सफल मानते हैं, तो वे सफल हैं। आप उन्हें असफल मानते हैं, तो वे असफल हैं। और खुद उनसे पूछें, तो आपसे भी ज्यादा अनिर्णय की उनकी अवस्था है।
एक आदमी बहुत धन इकट्ठा कर लेता है, तो सफल है। और जिसने धन इकट्ठा किया है अपने को बेच—बेचकर, उससे पूछें, तो उसे जीवन व्यर्थ खो गया मालूम होता है।
यह संसार का वृक्ष बिलकुल उलटा है। यहां जो सफल दिखाई पड़ते हैं, वे अपनी विफलता को छिपाए बैठे हैं। यहां जो धनी दिखाई पड़ते हैं, वे बिलकुल निर्धन हैं। यहां जो बाहर से मुस्कुराते हुए और आनंदित मालूम पड़ते हैं, भीतर दुख से भरे हैं।
यहां सभी कुछ उलटा है। लेकिन थोड़ी गहरी आंख हो, तो यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। और जिस दिन आपको यह दिखाई पडना शुरू होता है कि संसार का वृक्ष उलटा है, उस दिन आपके जीवन में क्रांति का क्षण आ गया। अब आप बदल सकते हैं।
अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें।
गुणत्रय—विभाग—योग को समझाने के बाद श्रीकृष्ण बोले, हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर हैं, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं, तथा जिसके वेद पत्ते कहे गए हैं, उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
यह बडा क्रांतिकारी वचन है। लेकिन इस गढ़ ढंग से कहा गया है कि बहुत मुश्किल है उसके पूरे अर्थ में प्रवेश कर जाना।
पहली तो बात, जिसका मूल ऊपर की ओर।
मूल सदा नीचे की ओर होता है। इस संसार में तो मूल सदा नीचे की ओर होता है। जरूर कहीं हम भूल कर रहे हैं।
पूरब सदा ही मां को, पिता को आदर देता रहा है। पश्चिम में वैसा आदर नहीं है, क्योंकि मूल को हम ऊपर मानते हैं। बेटा कितना ही बड़ा हो जाए वह बुद्ध हो जाए, तो भी वह मां के चरण छुएगा। क्योंकि मूल से ऊपर जाने का कोई उपाय नहीं है। पश्चिम में वैसा आदरभाव नहीं है। क्योंकि पश्चिम में मूल को ऊपर मानने की वृत्ति नहीं है। देखने में भी यही आता है कि मूल तो नीचे होता है। वृक्ष का मूल तो जमीन में छिपा होता है, शाखाएं ऊपर होती हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह संसार उलटा वृक्ष है। मूल ऊपर है। और ध्यान रहे, अगर माता—पिता ऊपर नहीं हैं, तो परमात्मा भी ऊपर नहीं हो सकता। क्योंकि वह जगत का मूल है।
गुरजिएफ अपने आश्रम में एक पंक्ति लिख छोड़ा था। और पंक्ति यह थी कि जो व्यक्ति अपने मां और पिता को आदर देने में समर्थ हो जाता है, उसे ही मैं मनुष्य मानता हूं।
इससे कोई सीधा संबंध नहीं दिखाई पड़ता। अनेक लोग गुरजिएफ से पूछते भी थे कि ऐसी छोटी—सी बात यहां किसलिए लिख रखी है! गुरजिएफ कहता, बात छोटी नहीं है।
और अगर हम मनोविज्ञान की आधुनिक खोजों को समझें, फ्रायड और उसके अनुयायियों को, तो वे सभी कहते हैं कि हर बेटा अपने मां—बाप को घृणा करता है।
मूल को लोग घृणा करते हैं। मूल से लोग बचना चाहते हैं, छिपाना चाहते हैं। शायद कामवासना के प्रति हमारी निंदा का कारण यही हो कि वह मूल है। उसे हम छिपाना चाहते हैं। आप कभी सोचते भी नहीं कि आप कैसे पैदा हुए हैं! कहां से पैदा हुए हैं! कहां आपका मूल है! आप कभी सोचते भी नहीं कि आपका जन्म, आपका यह जीवन दो व्यक्तियों की गहरी वासना से शुरू होता है।
मूल को हम छिपाते हैं। मूल छोटा मालूम पड़ता है, ओछा मालूम पड़ता है; हम बड़े हैं। लेकिन ध्यान रहे, जहां से आप आए हैं, उससे बड़े होने का कोई उपाय नहीं है। और अगर आप बडे हैं, तो एक ही बात सिद्ध होती है कि मूल बड़ा है।
अगर बुद्ध पैदा हो सकते हैं कामवासना के स्रोत से, तो कामवासना में बुद्ध को पैदा करने की क्षमता है, यही सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त कुछ और सिद्ध होने का उपाय नहीं है। और अगर आप बुद्ध नहीं हो पा रहे हैं, तो कसूर कामवासना का नहीं है। क्षमता तो उतनी ही है उस वासना में, जिससे बुद्ध पैदा हो सके। आप भी बुद्ध हो सकते हैं। लेकिन शायद मूल का ठीक उपयोग नहीं हो पा रहा है। मूल ने जो ऊर्जा दी है, उसको ठीक गति और दिशा नहीं मिल पा रही है।
लेकिन सभी लोग अपने मूल को छिपाते हैं। क्योंकि धारणा है कि मूल कुछ नीची चीज है।
यह सूत्र कहता है, मूल है ऊपर। हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर.।
अगर अंत में आता है श्रेष्ठ, तो मृत्यु श्रेष्ठ होगी। अगर प्रथम आता है श्रेष्ठ, तो जन्म श्रेष्ठ होगा। पश्चिम मृत्यु का विश्वासी है, पूरब जन्म का।
ऊपर की ओर है मूल। और सारी धाराएं नीचे की तरफ बहती हैं। यह बात उचित भी मालूम पड़ती है। क्योंकि बहाव सिर्फ नीचे की तरफ ही हो सकता है। बहाव ऊपर की तरफ हो भी कैसे सकता है! हमें दिखाई पड़ता है, हम बीज बोते हैं, वृक्ष ऊपर की तरफ उठता है। पर हमारी दृष्टि तो बहुत सीमित है। सच में वृक्ष ऊपर की तरफ उठता है? कहना जरा मुश्किल है। क्योंकि इस विराट ब्रह्मांड की दृष्टि से ऊपर और नीचे कुछ भी नहीं है। और फिर बहुत बातें समझने जैसी हैं।
वैज्ञानिकों ने एक नियम खोजा है, उसे वे कहते हैं, ग्रेविटेशन, गुरुत्वाकर्षण। पत्थर को हम फेंकते हैं; पत्थर नीचे गिर जाता है। अगर पृथ्वी सभी चीजों को नीचे की तरफ खींचती है, तो वृक्ष ऊपर की तरफ उठता कैसे है! गुरुत्वाकर्षण के विपरीत कोई नियम होना चाहिए, जो ऊपर की तरफ खींचता हो। एक। या फिर वृक्ष का ऊपर की तरफ उठना हमारी भांति है; वृक्ष भी नीचे की तरफ ही जा रहा है। लेकिन हमारी सीमित दृष्टि में हमें ऊपर की तरफ दिखाई पड़ता है।
मैंने सुना है कि न्यूयार्क के एक सौ मंजिल भवन के ऊपर, आखिरी मंजिल की सीलिंग पर कुछ चींटियां भ्रमण कर रही थीं। और उनमें से एक दार्शनिक चींटी ने अन्य चींटियों को कहा कि आदमी भी बड़ा अजीब जानवर है। इतने—इतने बड़े मकान बनाता है, फिर भी चलता हमेशा नीचे है। जब ऊपर चलना ही नहीं है, सीलिंग पर जब चलना ही नहीं है, हमेशा फ्लोर पर ही चलना है, तो इतना ऊंचा मकान बनाने की जरूरत भी क्या! ऊंचाई पर चलते हम हैं।
चींटियां निश्चित ही सोचती होंगी। उनका अपना एक सापेक्ष जगत है।
वृक्ष वस्तुत: ऊपर की ओर उठ रहे हैं? ऐसा हमें दिखाई पड़ता है। अगर हम दूर चांद पर खड़े होकर देखें, तो सभी वृक्ष नीचे की तरफ लटके हुए दिखाई पड़ेंगे।
गीता यह कह रही है कि सारा विकास—जिसे हम विकास कहते हैं, एवोल्यूशन कहते है—वह सभी कुछ नीचे की ओर है। इस अर्थ में सभी धर्मों की पुराण कथाएं बड़ी मूल्यवान हैं, क्योंकि वे सभी कहती हैं, जगत पतन है। चाहे ईसाइयों की मूल कथाएं, चाहे हिंदुओं कीं? चाहे इस्लाम की, सभी धर्मों की मूल कथाएं यह कहती हैं कि जगत एक पतन है। पतन का इतना ही अर्थ होता है, पतन में कोई पाप नहीं है। पतन का इतना ही अर्थ होता है कि बहाव नीचे की तरफ है। इसलिए अगर ऊंचाई पानी है, तो उदगम की ओर वापस लौट चलना पड़ेगा।
झेन फकीर जापान में कहते हैं कि अगर तुम्हें जानना है परमात्मा क्या है, तो तुम खुद को जान लो उस क्षण में, जब तुम्हारा जन्म नहीं हुआ था। लौट जाओ पीछे।
अभी अमेरिका में एक नई चिकित्सा, मनोचिकित्सा का बड़ा प्रभाव है, प्राइमल थेरेपी का। इस सदी में खोजी गई कीमती से कीमती चिकित्साओं में एक है। और उसका प्रभाव रोज बढ़ता जाएगा, क्योंकि उसमें एक मौलिक सत्य है।
प्राइमल थेरेपी का ऐसा दृष्टिकोण है कि अगर व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ होना हो, तो उसकी चेतना में पीछे की तरफ लौटने की गति शुरू होनी चाहिए। और जिस दिन व्यक्ति अपने बचपन की अवस्थाओं को उपलब्ध करना शुरू कर देता है पुन:, उसी दिन स्वस्थ होना शुरू हो जाता है। और जिस दिन कोई व्यक्ति ठीक अपनी गर्भ की चेतना—दशा को उपलब्ध हो जाता है, उस दिन वह परम शात और परम स्वस्थ हो जाता है। और अनेक बीमारियां अचानक, मानसिक बीमारियां अचानक विलीन हो जाती हैं।
इसमें सत्य है और सैकड़ों लोगों पर इसके परिणाम प्रभावकारी हुए हैं। प्राइमल थेरेपी जिस व्यक्ति ने खोजी है, जेनोव ने, वह अपने मरीजों को एक ही काम करवाता था। उन्हें लिटा देता, आंख बंद करवा देता, कमरे में अंधेरा कर देता। और उनसे कहता है कि तुम पीछे लौटने की कोशिश करो, सिर्फ स्मृति में नहीं, पीछे लौटो और पीछे को जीयो। आखिरी पकडो स्मृति में खयाल, जो तुम्हें आता है; पांच वर्ष के थे तुम, तो उस घड़ी को जीने की कोशिश करो फिर से।
तो बहुत अनूठा अनुभव हुआ। जेनोव एक की महिला की चिकित्सा कर रहा था। उसकी उम्र थी अस्सी वर्ष। उसकी आंखें खराब हुए बीस साल हो गए थे। उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। और जब जेनोव ने उसे याद दिलाया और वह वापस लौटने लगी और उसने याद किया कि जब मैं छ: वर्ष की थी, तब की मुझे एक घटना याद आती है। जैसे ही उस घटना को उसने स्मरण करना शुरू किया, उसकी आंख की शक्ति वापस लौट आई। वह खुद हैरान हो गई, क्योंकि उसे दिखाई पड़ने लगा। उसका चित्त ही छ: वर्ष का नहीं हुआ, उस क्षण में उसका पूरा शरीर भूल गया कि वह अस्सी साल की बुढ़ी स्त्री है। लेकिन चिकित्सा के बाद उसकी आंख फिर अस्सी साल की हो गई। सिर्फ धारणा.....।
जेनोव कहता है कि जैसे—जैसे व्यक्ति पीछे लौटते हैं, उनका चेहरा बदलने लगता है। शांत हो जाता है, निर्दोष हो जाता है, जैसे बीच की सारी धूल हट गई, बीच का सारा कचरा कट गया। और जब कोई व्यक्ति उस क्षण में पहुंचता है, जिसको वह प्राइमल स्कीम कहता है, पहली जो रुदन की आवाज बच्चे को जन्म के समय हुई थी, जब बच्चा पैदा होता है, वह जो चीख की पहली आवाज थी, जो पहली स्कीम थी, उसको जब कोई व्यक्ति फिर से याद कर लेता है, और याद ही नहीं कर लेता, उसको पुन: जीता है, और ठीक उसी तरह की चीख फिर से निकलती है।
इस चीख को लाने में महीनों लग जाते हैं। कोई तीन महीने, छ: महीने निरंतर प्रयोग करने पर वह चीख निकलती है। पर जिस दिन वह चीख निकलती है, उस चीख के साथ ही व्यक्ति के सारे दोष विलीन हो जाते हैं। उस चीख के बाद वह व्यक्ति दूसरा ही हो जाता है—सरल, भोला, निर्दोष, जैसा वह पैदा हुआ था। जैसे उस चीख के साथ सारा जीवन विलीन हो गया, सारा पतन खो गया, मूल फिर उपलब्ध हो गया।
इधर मैं ध्यान में निरंतर अनुभव कर रहा हूं कि जो लोग भी उस गहरी चीख को ध्यान की अवस्था में उपलब्ध हो जाते हैं, उनके जीवन में पहली किरण समाधि की उतर जाती है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि इतना चीखना—चिल्लाना ध्यान में क्यों है? क्योंकि उन्हें खयाल है एक ही ध्यान का कि लोग चुप बैठे हैं। आप चुप भी बैठ जाएं, कुछ भी न होगा। क्योंकि आपका पागल आदमी भीतर दौड़ रहा है; आपके चुप बैठने से कुछ होने वाला नहीं। आप जीवनभर चुप बैठे रहें, आप बिलकुल पत्थर की मूर्ति हो जाएं, तो भी बुद्धत्व फलित नहीं होगा। श्रेष्ठ उपलब्ध होगा प्रथम को उपलब्ध होने से।
मेरी यह पूरी चेष्टा है कि ध्यान में पहली, प्राइमल स्कीम पैदा हो जाए और आपका रोआं—रोआं चीख उठे। और उस चीख में सारा उपद्रव विलीन हो जाए, जैसे तूफान के बाद सब शात हो जाता है, ऐसे पीछे सब शात हो जाए। तो आपको मूल का पहली दफा दर्शन होगा। और वह मूल परमात्मा है।
आगे दौड़ते जाने में नहीं, पीछे, प्रथम जो आप थे, उसे फिर से पा लेने में उपलब्धि है। यह विरोधाभासी लगेगा। जो आप सदा से रहे हैं, उसी को पा लेना गंतव्य है। और कुछ भी पाने की दौड़ व्यर्थ है। और कुछ भी पाने की दौड़ सिवाय संताप और चिंता के कुछ भी न लाएगी। व्यक्ति जो पैदा हुआ है, उसी को पा ले। जो सदा से था, उसको पुन: अनुभव कर ले। जो उसके होने के भीतर छिपा ही है, जिसे पाने को रत्तीभर भी कुछ करने की जरूरत नहीं है, जो वह है ही, उसके पुन: दर्शन, उसकी पुन: उपलब्धि करनी है।
हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर हैं, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं। और यह संसार कभी नष्ट नहीं होता, यह कभी विनष्ट नहीं होता। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि यह प्रतिपल विनष्ट भी होता है। यह विनष्ट होता है और बनता है, मिटता है और बनता है।
परमात्मा सदा है, वह भी अविनाशी है। लेकिन उसका अविनाशी होना और ही अर्थ रखता है। वह कभी बनता नहीं, वह सदा है, वह कभी मिटता नहीं। संसार भी अविनाशी है, लेकिन बिलकुल दूसरे अर्थों में। यह सदा बनता और मिटता रहता है। यह बनने और मिटने की प्रक्रिया का कभी अंत नहीं होता। यह संसार वर्तुलाकार घूमता ही रहता है।
गंगोत्री से गंगा बहती है, सागर में गिरती है। लंबी यात्रा है, हजारों मील का फासला है। सागर में गिरकर फिर सूरज की 'किरणें उसे आकाश में उठा लेती हैं। फिर भाप बनती है। फिर बादल उमड़—घुमड़कर हिमालय की तरफ जाना शुरू हो जाते हैं। फिर हिमालय पर वर्षा हो जाती है। फिर गंगोत्री में पानी आ जाता है। फिर गंगा बहने लगती है। फिर सागर; फिर बादल, फिर गंगोत्री, फिर गंगा; फिर सागर।
वर्तुलाकार संसार घूमता ही रहता है। इसलिए हमने इसे गाड़ी के चाक की भांति कहा है। संसार शब्द का ही अर्थ होता है, चाक, दि व्हील, जो घूमता ही रहता है। यह भी अविनाशी है। यह भी कभी मिटेगा नहीं। यह मिटेगा और बनेगा, बनेगा और मिटेगा, लेकिन प्रक्रिया जारी रहेगी।
संसार की प्रक्रिया अविनाशी है और परमात्मा का सत्व अविनाशी है। परमात्मा का होना अविनाशी है और संसार की गति अविनाशी है। परमात्मा की स्थिति अविनाशी है और संसार की गति अविनाशी है।
संसार घूमता ही रहता है। इस घूमते संसार को बदलने की कोशिश व्यर्थ है। इस घूमते संसार को ठहराने की कोशिश व्यर्थ है। वह उसका स्वभाव नहीं है। इसे थोड़ा समझ लें।
क्योंकि आधुनिक सारा चिंतन इस बात पर जोर देता है कि यह संसार रोका जा सकता है, बदला जा सकता है। मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन, उन सबका खयाल है कि आज नहीं कल समाज में समता आ जाएगी। मार्क्स से लोगों ने पूछा कि समता के बाद फिर क्या होगा? मार्क्स ने कहा, फिर कुछ भी नहीं होगा; समता ठहरेगी। फिर समता के बाद कोई परिवर्तन नहीं होगा।
यहां मार्क्स बिलकुल भ्रांत है। यहां कृष्ण की बात बहुत गहरी है। यहां कुछ भी चीज ठहरती नहीं। यहां समता भी नहीं ठहरेगी। यहां कोई भी स्थिति स्थिर नहीं हो सकती, कभी नहीं हुई, कभी होगी भी नहीं। यहां हर चीज बनेगी और मिटेगी। घूमना इसका स्वभाव है।
मार्क्स जैसा प्रगाढ़ चिंतक भी कमजोर हो जाता है अपने सिद्धात के मामले में। मार्क्स कहता है, हर चीज बदलेगी। पूंजीवाद टिक नहीं सकता; जाएगा; क्रांति होगी। सामंतवाद टिका नहीं; क्रांति हुई; गया। संसार बदलता रहा है।
मार्क्स खुद कहता है, डायनैमिक, डायलेक्टिकल संसार है। गत्यात्मक है और द्वंद्वात्मक है। यहां हर चीज बदल रही है। पूंजीवाद भी बदलेगा। लेकिन तब अपने ही सिद्धात से उसको बड़ा मोह है। फिर जब साम्यवाद आ जाएगा, तब कोई गति नहीं होगी!
गति संसार का स्वभाव है। यहां कोई भी चीज ठहरेगी नहीं। यहां जो आज ऊपर आएगा, कल नीचे जाएगा। जाना ही पड़ेगा। अन्यथा औरों के ऊपर आने का कोई उपाय नहीं होगा। और यह ऊपर आ सका इसीलिए, क्योंकि कोई नीचे चला गया। जो सत्ता में आएगा, वह सत्ता से नीचे जाएगा। जो अमीर होगा, वह गरीब होगा। जो आज सफल है, कल असफल होगा। जो आज जिंदा है, कल मरेगा। लेकिन यह प्रक्रिया जारी रहेगी।
और अगर कोई इस प्रक्रिया को ठहराने की कोशिश में लग जाए तो उसको हम अज्ञानी कहते हैं। जो इस प्रक्रिया की फिक्र ही छोड़ देता है, जो समझ लेता है कि यह चलती ही रहेगी; मेरे ठहराने से ठहरने वाली नहीं; जो अपने को ठहरा लेता है और इस प्रक्रिया की चिंता छोड़ देता है, उसे हम ज्ञानी कहते हैं।
हम सब की कोशिश यही है कि प्रक्रिया ठहर जाए। आप सुख में हैं, तो आप सोचते हैं, सुख ठहर जाए, रुक जाए। आप बिलकुल छाती से लगाकर बैठ जाते हैं कि सुख कहीं छूट न जाए; जो मिला है कहीं खो न जाए।
लेकिन यहां कोई चीज टिकती नहीं। इसमें कोई आपकी कमजोरी नहीं है, यहां वस्तुओं का स्वभाव ऐसा है कि यहां कोई चीज टिकती नहीं। जैसे आग गरम है, इसमें आग का कोई कसूर नहीं है। आग को पकड़ेंगे, तो जलेंगे। इसमें आग का कोई कसूर नहीं है, पकड़ने के मोह में भूल है। संसार का स्वभाव है कि वह बदलेगा। इसलिए यहां जो भी आप पा लेते हैं, उसको ठहराना चाहते हैं।
मेरे पास निरंतर लोग आते हैं। थोड़ा ध्यान करते हैं; मन थोड़ा शात होता है, वे कहते हैं कि यह शांति ठहर जाए।
इस संसार में कुछ भी ठहरेगा नहीं। यह शांति भी नहीं ठहरेगी। यह भी संसार का ही हिस्सा है, यह भी कुछ करने से मिली है। यह खो जाएगी। एक और शांति है, जो ठहरेगी, लेकिन वह संसार का हिस्सा नहीं है। वह शांति इस समझ से पैदा होती है कि जहां सब बदलता है, वहा ठहराने का पागलपन मैं न करूंगा। बदलता जाए। सुख आए दुख आए; शांति हो, अशांति हो, मैं दूर खड़ा देखता ही रहूंगा। मैं इनमें से किसी को भी पकडूगा नहीं और किसी को धकाऊंगा नहीं। मैं सिर्फ द्रष्टा रह जाऊंगा।
ऐसा जो सुख—दुख को देखने में लग जाता है, वह इस संसार के चक्र से बाहर छलांग ले लेता है। संसार तो चलता ही रहता है। वह इसके बाहर हो जाता है।
तो दो बातें हैं। या तो आप संसार को बदलने में लगें, इसको हम मूढ़ता कहे। और या आप अपने को बदल डालें, इसे हम ज्ञान कहे। आधुनिक चिंतन पूरी तरह संसार को बदलने पर जोर देता है और चीजों को ठहरा लेने पर जोर देता है। इसलिए इतना दुख है और दुख रोज बढ़ता जाता है। आज का मन सुखी हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी सारी दृष्टि संसार पर है।
जैसे कोई आदमी नदी के किनारे खड़ा है और सोचता है कि नदी ठहर जाए। और नहीं ठहरती, इसलिए परेशान है। और जब तक न ठहरेगी, तब तक वह दुखी होगा। क्योंकि उसकी धारणा है कि नदी ठहरे, तो ही मैं सुखी हो सकता हूं।
कृष्ण कहते हैं, नदी का स्वभाव बहना है; नदी को तुम बहने दो। रोकने में न शक्ति व्यय करो और न समय खोओ। तुम नदी नहीं हो, इतना जान लेना काफी है। और नदी बहती रहे, न बहती रहे, इससे तुम्हें कुछ लेना—देना नहीं है। तुम नदी को भूल जा सकते हो, नदी विस्मृत की जा सकती है। तुम अपना स्मरण कर सकते हो।
और आदमी पर दोनों का मिलन है, वह जो अविनाशी है परमात्मा, वह; और वह जो अविनाशी संसार है, वह; दोनों आदमी की रेखा पर मिलते हैं। वहां सीमा दोनों की मिलती है। आपके भीतर दोनों अविनाशी हैं। वह जिसकी स्थिति कभी नाश नहीं होती है, वह; और जिसकी प्रक्रिया कभी नाश नहीं होती है, वह; दोनों की बाउंड्री आप हैं। दोनों की सीमा, दोनों का मिलन आप हैं।
सीमा से संसार शुरू होता है, नीचे की तरफ; ऊपर की तरफ परमात्मा शुरू होता है। आगे की तरफ संसार शुरू होता है, पीछे की तरफ परमात्मा शुरू होता है। मूल की तरफ परमात्मा है, शाखाओं की तरफ संसार है।
मूल ऊपर की ओर शाखाएं नीचे की ओर हैं, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं, तथा जिसके वेद पत्ते कहे गए हैं, उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
यह बहुत ही अदभुत वचन है। इस संसार के पत्तों को कृष्ण कह रहे हैं वेद। परमात्मा है मूल, ये शाखाएं हैं संसार, और इन शाखाओं पर लगे हुए पत्ते हैं शान। ज्ञान बहुत दूर है परमात्मा से। यह जरा जटिल लगेगा।
वासना भी परमात्मा के ज्यादा निकट है, ज्ञान उससे भी ज्यादा दूर है। क्योंकि वासना शाखाएं है, ज्ञान तो बहुत ही दूर है; पत्ता तो आखिरी बात है। पत्ते के बाद फिर कुछ भी नहीं है। पत्ता अंत है। जिसको हम वेद कहते हैं, शान कहते हैं, जिसको हम बड़ी उपलब्धि मानते हैं, उसको कृष्ण कह रहे हैं, वह पत्तों की भांति है।
जैसे कोई आदमी पत्तों को गिनता रहे और सोचे कि मूल को उपलब्ध हो गया। ऐसे कोई वेद को कंठस्थ कर ले, उसने पत्ते इकट्ठे कर लिए; मूल से उसका कोई संबंध नहीं। और अगर वासनाओं का दुश्मन हो, तो पत्ते काट ले, तो मुर्दा पत्ते इकट्ठे हुए। वे पत्ते जिंदा भी नहीं हैं।
पुराने शास्त्र वृक्षों के पत्तों पर लिखे गए थे, बड़ी अच्छी बात थी। मुर्दा पत्ते, सूखे पत्ते, उन पर शास्त्र लिखे गए थे। सभी शास्त्र मरे और सूखे पत्ते हैं। उनसे तो वासना भी कहीं ज्यादा जीवंत है।
इसलिए अक्सर यह होता है कि वासनाओं में डूबा हुआ साधारण मनुष्य भी परमात्मा के ज्यादा निकट होता है, बजाय उन लोगों के, जो केवल वेद के पत्तों में ही डूबे रहते हैं। उनका मूल से संबंध बिलकुल ही टूट जाता है।
वासना के पार जाना है, लेकिन वासना के पार जाने के दो उपाय हैं। अगर आप वृक्ष की शाखा पर बैठे हों, तो शाखा से पार जाना है, लेकिन पार जाने के दो उपाय हैं। या तो शाखा के पीछे जाएं, जहां मूल है; और या शाखा की तरफ आगे जाएं, जहां पत्ते हैं। दोनों हालत में आप शाखा से हट जाएंगे।
इसलिए शान को पकड़ लेने वाले लोग भी संसार से एक अर्थ में दूर हो जाते हैं। लेकिन परमात्मा के निकट नहीं हो पाते। परमात्मा के निकट होने के लिए शाखा का छूटना जरूरी है, लेकिन पत्तों की दिशा में नहीं, मूल की दिशा में।
और इस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है, वही वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
तो वेद का तात्पर्य वेद में नहीं छिपा है, इस संसार की पूरी अभिव्यक्ति में छिपा है। और जो व्यक्ति इस वृक्ष को मूल सहित तत्व से जानता है, जो इस वृक्ष के मूल को, शाखा को, पत्तों को, फूलों को, बीजों को, सबको पूरी तरह जान लेता है तत्व से, वही व्यक्ति वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
आप ऋग्वेद कंठस्थ कर सकते हैं। और कंठस्थ करने में यह हो सकता है कि आपको संसार जानने का न समय मिले, न उपाय रहे। मैंने सुना है एक यहूदी फकीर बालशेम के संबंध में। उसका बड़ा आश्रम था और दूर—दूर से खोजी उसके आश्रम में वर्षों आकर रुकते थे। एक युवक वर्षों पहले आया था और अब तो बूढ़ा हो गया था। उसने सारे यहूदी शास्त्र कंठस्थ कर लिए थे। तालमुद उसकी जबान पर बैठा था। उसकी ख्याति काफी फैल गई थी। यहां तक कि लोग आश्रम में आते, तो बालशेम से न मिलकर, उस युवक, उस बूढे—जो कभी युवक था, और शास्त्रों को कंठस्थ करते—करते का हो गया था—उससे जाकर मिलते।
एक दिन एक आदमी ने आकर बालशेम को कहा कि यह व्यक्ति इतना जानता है शास्त्रों को, यह व्यक्ति अनूठा है, आप इसके संबंध में कभी कुछ भी नहीं कहते! बालशेम ने कहा, किसी को कहना मत; वह शास्त्रों के संबंध में इतना जानता है कि मैं सदा चिंतित रहता हूं कि वह संसार को कब जानेगा? और जो संसार को ही नहीं जान सकेगा, वह परमात्मा से कैसे उसका कोई संबंध होगा।
मूल सहित इस पूरे संसार को जो जान लेता है, वह वेद के तात्पर्य को जानता।
यह हो भी सकता है, उसे वेद पता ही न हों, लेकिन तात्पर्य पता होगा। यह हो सकता है, उसे वेदों से कोई परिचय न हो। वह संस्कृत का ज्ञाता न हो, वह व्याकरण का अधिकारी न हो, लेकिन तात्पर्य उसके पास होगा।
तात्पर्य बड़ी अलग बात है। तात्पर्य वैसे है, जैसे फूल में सुगंध होती है। फूल से चाहे मिलना न भी हुआ हो, हवा में तैरती हुई सुगंध से मिलना हो जाता है। और वही सार है। वेद फूल की तरह होंगे। उनकी सुगंध सब तरफ विस्तीर्ण है। संसार के कण—कण से वेद का जन्म हो रहा है, प्रतिपल।
वेद शब्द हिंदुओं का बड़ा अनूठा है। उसका मतलब होता है, ज्ञान, जानना। यहां प्रतिपल शान की संभावना है, लेकिन खुली आंखें चाहिए। अक्सर शास्त्र आंखों को बंद कर देते हैं।
इस संसार को जो मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
उस संसार—वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय— भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योनिरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं। तथा मनुष्य—योनि में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। कुछ और बातें, फिर यह सूत्र का दूसरा हिस्सा खयाल में आ सकेगा।
यह जो वृक्ष है, यह जो संसार है, इसमें वासनाएं नीचे की तरफ ले जाती हैं। लेकिन इससे आप इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि अगर आप ऊपर की तरफ जाना शुरू कर दें, तो वासनाओं से छुटकारा हो जाएगा। क्योंकि यह भी हो सकता है, एक शाखा पहले नीचे की तरफ यात्रा करे—अक्सर हो जाता है, और अगर माली कुशल हो, तो हर शाखा के साथ हो सकता है—शाखा पहले नीचे की तरफ यात्रा करे, फिर मोड़ दी जाए, और शाखा ऊपर की तरफ उठने लगे। शाखा वही रहे, उसका प्राण वही रहे, उसकी दिशा बदल जाए, लेकिन उसका सत्य न बदले।
तो यह हो सकता है, एक आदमी धन के साथ अपने अहंकार को जोड़ रहा हो, फिर धन छोड़ दे और त्याग के साथ अहंकार को बांध ले। कल उसका अहंकार बड़ा होता था धन के साथ, अब बड़ा होने लगे त्याग के साथ। दिशा बदल गई, आयाम बदल गया ढंग—ढांचा बदल गया, लेकिन माली कुशल है और शाखा की मूल धारा नहीं बदली; शाखा अब भी वही है।
आसान है दिशा बदल लेना। स्वयं को बदल देना कठिन है। और यह भी हो सकता है कि अगर आप स्वयं को बदल लें, तो दिशा को बदलने की चिंता करनी भी आवश्यक नहीं है। स्मरण आ जाए मूल का, तो शाखा नीचे की तरफ बढ़ती रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अब आप मूल की तरफ सरकने शुरू हो गए। तो त्याग अपरिहार्य नहीं है। भोग में भी कोई रह सकता है। लेकिन मूल का स्मरण आना शुरू हो जाए।
कृष्ण खुद भी वैसे ही व्यक्ति हैं, जिन्होंने शाखाओं की दिशा नहीं बदली है। शाखाएं जिस तरफ बढ़ रही हैं, बढ़ रही हैं। लेकिन शाखाओं के भीतर जो प्राण की धारा बह रही है, उसका रुख बदल गया है। वह अब मूल की तरफ बह रही है। उसको स्मरण अब उदगम का है, स्रोत का है, प्रथम का है। अंतिम की तरफ यात्रा नहीं हो रही है। शाखाएं बढ़ती रहें, संसार चलता रहे, लेकिन चेतना अब प्रथम की ओर जा रही है।
इससे उलटा अक्सर हो जाता है। लोग शाखाएं भी काट डालते हैं इस डर से कि कहीं नीचे पतन न हो जाए। इंद्रियां काट डालते हैं, आंखें फोड़ लेते हैं, कान फोड़ डालते हैं, इस डर से कि कहीं कोई इंद्रिय भटका न दें। लेकिन चेतना की धारा आंखें फोड़ने से नहीं बदलती। नहीं तो सभी अंधे परम शान को उपलब्ध हो जाते। सारी दुनिया में इस तरह के वर्ग रहे हैं, जिन्होंने शाखाओं को काटने की कोशिश की, इस आशा में कि न होंगी शाखाएं, न होगी शाखाओं की तरफ गति। यह आशा भ्रांत है, यह तर्क भूल भरा है। शाखा न हो, तो भी गति हो सकती है। क्योंकि गति भीतर की धारणा है। शाखा हो, तो भी गति न हो, यह भी हो सकता है।
आप बिलकुल घर में रहकर संन्यस्त हो सकते हैं। और पूरी तरह संन्यासी होकर गृहस्थ हो सकते हैं। इसमें दूसरी बात के प्रतीक आपको जगह—जगह मिल जाएंगे। संन्यासियों को जाकर गौर से देखें, तो आप पाएंगे कि वे नए ढंग के गृहस्थ हैं। दूसरी बात जरा कठिन है। उस गृहस्थ को खोजना जरा कठिन है, जो संन्यस्त हो। लेकिन वह भी मिल जाएगा। अगर आंखें आपके पास खुली हों और आप तीक्ष्णता से जांच—परख कर रहे हों, धारणा पहले से न बना रखी हो, निर्णय पहले से न ले लिया हो, तो आपको ऐसे गृहस्थ भी मिल जाएंगे जो बिलकुल संन्यस्त हैं। चेतना के प्रवाह की बात है।
उस संसार—वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय— भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योनिरूप शाखाएं नीचे की ओर हैं। ऊपर सर्वत्र भी फैली हुई हैं। नीचे—ऊपर दोनों तरफ फैली हुई हैं। तथा मनुष्य—योनि में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं।
वासना नीचे की तरफ भी बह रही है, ऊपर की तरफ भी बह रही है, सभी दिशाओं में बह रही है। इसलिए ज्यादा इस बात का विचार करना जरूरी नहीं है कि वासना कहां बह रही है, ज्यादा विचार करना इस बात का कि वासना उदगम से संबंधित है!
आप अपने संबंध में सोचें, शायद ही आपको कभी खयाल आता हो उदगम का। शायद ही आप कभी बैठकर सोचते हों कि गर्भ की अवस्था में मैं कैसा था! सोचें आप, तो जो भी सुनेगा वह आपको पागल कहेगा। आप खुद भी सोचेंगे, क्या व्यर्थ की बात सोच रहे हैं! शायद कभी—कभार आपको मृत्यु का खयाल आ भी जाता हो, लेकिन जन्म का कभी नहीं आता।
मृत्यु आगे है; वह शाखाओं का अंतिम हिस्सा है। जन्म पीछे है, वह आपके गहन में छिपा है। इस तरफ थोड़ा प्रयोग करें। बड़े प्राचीन समय में एक विशेष ध्यान की पद्धति सिर्फ इसके लिए ही खोजी गई थी, वह मैं आपको कहूं। उसे प्रयोग करें, आप बहुत चकित होंगे।
ऐसी जगह बैठ जाएं जहां बहुत प्रकाश न हो, धुंधलका हो या अंधेरा हो। जगह शात हो, कोई शोरगुल न हो। क्योंकि गर्भ बिलकुल शांत जगह है। वहा कोई शोरगुल प्रवेश नहीं कर सकता, कोई आवाज वहां प्रवेश नहीं कर सकती। सुख से बैठ जाएं। और बैठें इस भांति कि धीरे— धीरे आपका सिर झुकता जाए, और जमीन छूने लगे। दोनों पैर मोड़कर बैठ जाएं, जैसा सूफी फकीर बैठते हैं, या मुसलमान नमाज पढ़ते वक्त बैठते हैं; उनके बैठने का आसन गर्भासन है। दोनों घुटने मोड़ लें और जैसा मुसलमान नमाज पढ़ते हैं, वैसे बैठ जाएं। फिर आंख बंद कर लें और सिर को आहिस्ता—आहिस्ता झुकाते जाएं।
इतने धीमे—धीमे झुकाएं कि आप झुकाव को अनुभव कर सकें। क्योंकि झुकना बड़ी कीमती बात है। एकदम से झुक जाएंगे, तो आपको पता भी नहीं चलेगा कि आप झुके। बहुत धीमे, जितने धीमे कर सकें, उतने धीमे— धीमे सिर को झुकाते जाएं, और झुकने को अनुभव करें कि आप झुक रहे हैं। फिर आपका सिर जमीन को छूने लगे।
तो आप ठीक उस अवस्था में आ गए जिस अवस्था में बच्चा गर्भ में होता है। ऐसा ही बच्चा सिकुड़ा हुआ गर्भ में होता है। घुटने उसके छाती से लगे होते हैं, सिर नीचे झुका होता है, पैर उसके पीछे मुड़े होते हैं।
इसलिए मुसलमानों का नमाज पढ़ने का ढंग बड़ा वैज्ञानिक है। वह पद्यासन और सिद्धासन से भी ज्यादा कीमती है। क्योंकि कोई बच्चा गर्भ में पद्यासन और सिद्धासन लगाकर नहीं बैठता। इसलिए पद्यासन और सिद्धासन में वह सरलता नहीं है, वह स्वाभाविकता नहीं है, वह सहजता नहीं है, जो नमाज की क्रिया में है।
फिर नमाज पढ़ने वाला नमाजी बार—बार झुकता है, और झुकने का अभ्यास करता है। फिर—फिर नीचे झुकता है। फिर उठता है, फिर झुकता है। वह झुकने की कला है। इसलिए मस्जिद से निकलते हुए मुसलमान में जैसी विनम्रता दिखाई पड़ेगी, किसी हिंदू में किसी मंदिर से निकलते वक्त दिखाई नहीं पड़ती। उसकी सारी नमाज ही झुकने की कला है।
कठिन था मोहम्मद को अरब के रेगिस्तान के खूंखार लोगों को धार्मिक बनाना। नमाज की प्रक्रिया ने साथ दिया। हिंदुओं को सहिष्णु बनाना, उदार बनाना बहुत कठिन नहीं है। प्रकृति बड़ी उदार है यहां। सब चीजें उपलब्ध हैं। आज नहीं हैं, तो कल थीं। जिंदगी बहुत बड़ा संघर्ष नहीं है।
लेकिन जहां मोहम्मद ने लोगों को झुकना सिखाया, वहा जीवन बड़ा संघर्ष था, बडा भयंकर संघर्ष था। जीने का मतलब ही दूसरे को मारना, दूसरे को मिटाना था। और विस्तार रेगिस्तान का जलता हुआ, जहां हरियाली दिखाई भी न पड़े, वहा आदमी अगर अकड़ जाए, अहंकारी हो जाए, क्रूर और कठोर हो जाए, तो स्वाभाविक है। वहां नमाज की प्रक्रिया ने और झुकने ने उन खूंखार लोगों को भी बहुत विनम्र बना दिया।
आप देखें प्रयोग करके। कमरा अंधेरा हो, और ठीक इस हालत में हो जाएं, जैसे आप फिर से छोटे बच्चे हो गए हैं और गर्भ में प्रवेश कर गए हैं। श्वास धीरे— धीरे कम हो जाएगी। आसन ही ऐसा है कि श्वास तेज नहीं हो सकती। पेट दबा होगा, छाती दबी होगी, सिर झुका होगा, श्वास तेज नहीं हो सकती, श्वास धीमी होती जाएगी। उसको साथ दें, और धीमा हो जाने दें। ऐसी घडी आएगी जब श्वास बिलकुल लगेगी कि चलती है या नहीं 'चलती। क्योंकि बच्चा कोई श्वास नहीं लेता पेट में।
और जब ऐसी घड़ी आ जाएगी, जब आपको लगेगा कि श्वास चलती है या नहीं चलती, पता नहीं चलता, तब आप समझना कि अब ठीक गर्भासन की अवस्था आ गई। कभी—कभी ऐसा भी होगा क्षणभर को, श्वास बिलकुल रुक जाएगी। उसी क्षण आपको झलक मिलेगी प्रथम मूल की। यह झलक आपको मिलनी शुरू जाए, आप दूसरे ही व्यक्ति होने लगेंगे।
खोजना है उदगम को; खोजना है उस बिंदु को जहां से हम आते हैं। क्योंकि जहां से हम आते हैं, वही हमारी अंतिम मंजिल होने वाली है, और कोई उपाय नहीं। मंजिल को तो हम नहीं खोज सकते, क्योंकि मंजिल बहुत दूर है। लेकिन प्रथम को हम खोज सकते हैं, क्योंकि प्रथम हममें छिपा है। वह मौजूद है अभी भी, उसको आप अपने साथ लेकर चल रहे हैं। आपने जो भी गर्भ में जाना था, वह ज्ञान आपके भीतर पड़ा है। उसे आप अभी भी लिए चल रहे हैं।
जानकर आप चकित होंगे कि गहरे सम्मोहन में, हिम्मोसिस में, लोग अपने गर्भ की घटनाएं भी याद करते हैं। अगर आपकी मां गिर पड़ी हो, और उसको चोट लग गई हो, और उसका धक्का आपको लगा हो जब आप गर्भ में थे, तो सम्मोहन की अवस्था में, बेहोश अवस्था में, आप उसको याद कर सकते हैं। याद लोग करते हैं, कि जब मैं पांच महीने का गर्भ में था, तब मेरी मां गिर पड़ी थी, और मुझे चोट लगी, धक्का लगा। उस धक्के की स्मृति आपको अभी भी है। उन नौ महीने में आपने जो जाना है, वह आपके भीतर पड़ा है। और उस नौ महीने के पहले भी आप थे। उदगम और भी गहराई में है। तब आप बिलकुल आत्मरूप थे, चाहे थोड़े ही क्षणों को। पिछला शरीर छूट गया था, नया शरीर मिलने में देर है, थोड़ा समय लगा। उस बीच आप बिलकुल आत्मरूप थे, कोई देह न थी। उसकी भी स्मृति आ सकती है।
फिर अनेक जन्मों की स्मृति। और फिर सारे जन्मों की स्मृति के साथ ही इस बात का स्मरण, अतिक्रमण का, कि मेरा न तो कोई जन्म है और न कोई मृत्यु। इतने जन्म, इतनी मृत्युएं मेरे पड़ाव थे, मेरी यात्रा के ठहराव थे, और मैं यात्री हूं। जैसे ही यह स्मरण आता है, आप अपने मूल उदगम को उपलब्ध हो गए। और यही अंतिम लक्ष्य है। इसको बुद्ध निर्वाण कहते हैं, पतंजलि समाधि कहते हैं। लेकिन फ्रायड ने बड़ी ही कीमत की बात कही है। किया है उसने कठोर व्यंग्य और आलोचना। उसने कहा है कि यह बुद्ध का निर्वाण और पतंजलि की समाधि, ये गर्भ की आकांक्षाए हैं। गर्भ को पुन: पाने की आकांक्षा है। उसने तो विरोध के हिसाब से कहा है। उसका तो कहना है कि यह मार्बिड स्टेट, रुग्ण अवस्था है कि कोई आदमी अपने गर्भ को फिर से पाना चाहे। लेकिन उसने बात तो, चोट तो ठीक जगह की है। बात तो सच है।
हम सभी किस बात की खोज रहे हैं? एक सोचने जैसी बात है। हम उसी को खोज सकते हैं, जिसे हमने कभी जाना हो। नहीं तो खोजेंगे भी कैसे? खोजेंगे क्यों?
आप कहेंगे, आनंद की खोज करना है। लेकिन आनंद आपने कभी जाना हो तभी। जिसका स्वाद ही न हो, उसकी खोज कैसे होगी? उसकी वासना भी कैसे जगेगी? आपको याद हो या न हो, आनंद आपने कभी जाना है। नहीं तो यह स्वाद कैसा? यह चेष्टा कैसी? यह दौड़ किसलिए? बिलकुल अपरिचित को कोई भी नहीं खोज सकता है।
सूफी फकीर कहते हैं, हम ईश्वर को खोज रहे हैं, क्योंकि हम ईश्वर को जानते हैं।
ठीक कहते हैं। जानना कहीं भीतर होना ही चाहिए, नहीं तो खोज नहीं हो सकती। आपने कभी ऐसे आदमी को सुना है, जो कोई ऐसी चीज को खोजने निकल जाए, जिसे वह जानता ही न हो? तो निकलेगा भी कैसे? शुरुआत कैसे होगी?
आनंद को हम खोजते हैं, क्योंकि आनंद हमने जाना है। वह हमारा प्रथम अनुभव था। और वह इतना गहन था कि उसके बाद हमने उससे श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं जाना। उसके बाद वृक्ष नीचे ही जाता रहा है। इस आनंद को फिर पाना है। वह मूल की ही खोज है।
इस बात को बहुत गहराई से स्मरण में रख लें कि आपकी समाधि आपके पुन: गर्भ में होने का अनुभव होगी। अगर आप पुन: गर्भ में होने का अनुभव कर लें, तो इस अवस्था को जापान के फकीरों ने सतोरी कहा है। यह पहली समाधि का अनुभव है, पहली झलक।
और अगर आप बढ़ते ही जाएं पीछे—पीछे—पीछे, और उस जगह पहुंच जाएं, जहां यह पूरा ब्रह्मांड आपका गर्भ हो जाए और आप इस गर्भ के हिस्से हो जाएं, तो उसे पतंजलि ने परम समाधि कहा है। वह ब्रह्म समाधि, वह अंतिम समाधि है। पहली झलक और वह अंतिम उपलब्धि है। जिस दिन सारा जगत गर्भ हो जाता है और आप उस गर्भ के भीतर लीन हो जाते हैं।
पर यह सूत्र बहुमूल्य है। गीता में भी इतने बहुमूल्य सूत्र कम हैं। और यह सूत्र साधक के लिए है। आगे को भूलें और पीछे को खयाल करें। जो पाना है, उसकी फिक्र छोड़े, जो पाया ही हुआ था और जिसको हमने किसी तरह खोया है, जो विस्मृत हो गया है, उसकी पुन: स्मृति करें।
जितने आप पीछे जाएंगे, उतने ही आप आगे जाएंगे, क्योंकि गति वर्तुलाकार है। और जिस दिन आप पीछे बिंदु पर पहुंच जाएंगे, उस दिन आप अंतिम मंजिल पर भी पहुंच गए।
जहां जडें हैं, वहीं वृक्ष के अंतिम फूल हैं। वृक्ष में जब फूल लगते हैं, तो अंतिम क्या होता है? अंत में वृक्ष के फूल गिरने लगते हैं। वर्तुल पूरा हो गया। बीज हमने बोया था। बीज से वृक्ष बडा हुआ; फिर फूल लगे, फल लगे, बीज फिर आ गए। वर्तुल पूरा हुआ। और जैसे ही बीज फिर आ गए, फल टूटने लगते हैं, फूल टूटने लगते हैं, बीज वापस जमीन में गिरने लगते हैं।
जहां से यात्रा शुरू हुई थी, यात्रा वहीं पूरी हो गई। बीज से प्रारंभ, बीज पर अंत। परमात्मा से प्रारंभ, परमात्मा पर अंत। प्रथम ही अंतिम है।
हमारा मन लेकिन आगे की तरफ दौड़ता है। पीछे की तरफ रास्ता ही नहीं मालूम पड़ता। शायद हम भयभीत हैं। क्योंकि पीछे की तरफ लौटने में जो हमने बहुत—से दुख छिपा रखे हैं, वे उभरेंगे। यही भय है। जो दुख छिपा रखे हैं, वे उभरेंगे। उनसे हमें फिर गुजरना होगा। उनसे गुजरने में पीड़ा है।
मैंने सुना है, एक सांझ मुल्ला नसरुद्दीन अपने मकान के सामने बहुत उदास बैठा है। उसकी पत्नी पूछती है कि नसरुद्दीन, इतने उदास! क्या बात है? नसरुद्दीन ने कहा कि सुबह जब मैं बाजार गया, तो मेरे खीसे में सौ का नोट था। फिर मैंने एक खीसे को छोड्कर सब खीसे देख लिए, नोट का कहीं कोई पता नहीं चल रहा है। तो उसकी पत्नी ने कहा, उस एक को क्यों छोड़ रखा है? नसरुद्दीन ने कहा कि डर लगता है, अगर उसको देखा और वहां भी न पाया तो! एक ही आशा बची है। और हिम्मत नहीं पड़ती उस खीसे में हाथ डालने की।
आप भयभीत हैं खुद के भीतर जाने में। भविष्य में आशाएं बांध रखी हैं। वहां आशाओं की सुविधा है, क्योंकि कल्पना फैलाने का कोई अंत नहीं है; सपने देखने में कोई कठिनाई नहीं है। सपनों को सुंदर बनाना आपके हाथ में है; उनको रंगते जाना, रंगीन करते जाना भी आपकी सुविधा है। अतीत—आप कुछ कर नहीं सकते। अतीत ठोस है, सत्य है, वह हो चुका। और आप उससे गुजर चुके और आप जानते हैं कि पीड़ा थी, बडा दुख था। वह सब दुख वहां भरा है। उसी रास्ते से गुजरने में डर लगता है, फिर से उन्हीं बिंदुओं को छूने में।
और ध्यान रखें, आप पूरी पीड़ा से गुजरेंगे, गुजरना ही पड़ेगा। आपके सारे दुख फिर से पुनजावित होंगे, सब घाव फिर हरे होंगे। क्योंकि कोई घाव मिटता नहीं; वह बना है।
अगर आप दस वर्ष के थे और आपके पिता ने आपको पीटा था, तो वह चोट अब भी वहा बनी है। जब आप पीछे लौटना शुरू करेंगे, गर्भ का प्रयोग करेंगे, आप पुन: दस वर्ष के होंगे, वह चोट फिर हरी होगी। पिता फिर आपको पीटेंगे। फिर वही पीड़ा, फिर वही अहंकार को लगी चोट, असमर्थता, असहाय अवस्था, फिर सब भीतर प्रकट होगा। फिर वही आंसू फिर वही रोना, वह सब फिर पैदा होगा।
लेकिन यह पैदा कर लेना बड़ा कीमती है। क्योंकि अब आप सचेतन रूप से इससे गुजर रहे हैं। और एक बार जिस अनुभव से आप सचेतन गुजर जाएं, वह आपकी स्मृति से मुक्त हो जाता है। संस्कार इसी तरह क्षीण होते हैं, कर्म इसी तरह लय होते हैं। जिस पीड़ा को भी आप छिपाए हैं, उसको फिर से भोग लें, और आप हलके हो जाएंगे।
तो डरें मत। पीछे उतरने का डर छोड़े। थोड़े दुख पीछे के भोगें। और आप पाएंगे, आप हलके होते हैं। एक बार यह खयाल आ गया, तो फिर आप सारे दुख भोगकर वापस गर्भ तक पहुंच सकते हैं।
मूल ऊपर की ओर, पीछे की ओर, प्रथम में छिपा है। लंबी यात्रा की है आपने। और इस यात्रा से बचने का एक सुगम उपाय है कि आप भविष्य में सपने देखते रहें। तो आपका अतीत बड़ा होता जाता है। लौटना उतना ही मुश्किल होगा। जितनी देर करेंगे, उतनी ही कठिनाई होगी
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, अभी हमारी उम्र नहीं, अभी तो जवान हैं। अभी क्या ध्यान, अभी क्या समाधि, अभी क्या सोचना परमात्मा को! आएगा समय, रिटायर होंगे, काम— धंधे से छुटकारा होगा, फुर्सत होगी, तब!
उन्हें पता नहीं; जितनी देर होगी, उतना कठिन होता जाता है। क्योंकि अतीत रोज बड़ा होता जा रहा है। उतना ही बोझ, उतने ही दुख, उतनी ही पीड़ाएं, उतनी ही जलन, ईर्ष्याएं, इकट्ठी होती जाती हैं। पीछे लौटना उतना ही मुश्किल हो जाएगा। दरवाजे उतने ही बंद हो जाएंगे; भय और ज्यादा लगेगा।
जितनी जल्दी हो सके, उतना उचित है। और किसी दिन—अब तक ऐसा हो नहीं पाया पृथ्वी पर, कभी हो पाएगा, इसकी भी संभावना कम है—किसी दिन अगर मां—बाप ज्यादा विचारशील होंगे, वस्तुत: धार्मिक होंगे, ऐसे धार्मिक नहीं जैसे कि सभी मां—बाप अभी हैं, वस्तुत: धार्मिक होंगे, तो वे बच्चे को आगे भी ले जाएंगे और निरंतर पीछे भी ले जाएंगे। वे बच्चे को कभी भी अतीत के बोझ से दबने न देंगे। वे उसके बचपन में लौटने की प्रक्रिया को, बचपन में बार—बार डूबने की प्रक्रिया को जिंदा रखेंगे।
अगर आप अपने छोटे बच्चों को रोज कह सकें कि वे रोज का दिन पुन: जी लें रात सोने के पहले। जब वे रात सोने जाएं, तो पीछे लौटें। सुबह से शुरू न करें, पीछे लौटें। बिस्तर पर लेटना आखिरी काम है, इससे पीछे लौटें। और एक—एक काम जो इसके पहले किया है, उससे शुरू कर सुबह तक वापस जाएं! जब सुबह वे जगे थे बिस्तर से, वहा तक पीछे लौटें।
अगर हर बच्चे को बचपन से सिखाया जा सके रोज पीछे लौटना, तो धूल इकट्ठी न होगी, वह रोज ही अपने कर्म को झाडू रहा है। तो जब जवान होगा, तब सच में ही जवान होगा, ताजा होगा। वह जब बूढा होगा, तब भी ताजा होगा। उसके वार्धक्य में एक गरिमा होगी। उसका वार्धक्य ताजगी से भरा होगा। उसके पीछे कोई अतीत नहीं, कोई धूल नहीं है। वह रोज उसे झाड़ता रहा है। वह रोज साफ करता रहा है।
घर तो हम साफ करते हैं, रोज करते हैं; स्वयं को हम कभी साफ नहीं करते। और धर्म स्वयं को साफ करने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। उसका न कुछ परमात्मा से लेना—देना है, न मोक्ष से। स्वयं को साफ करने से उसका संबंध है। क्योंकि स्वयं अगर आप साफ हैं, तो आप परमात्मा हैं, आप मोक्ष हैं।
आपकी गंदगी, आप संसार हैं। आपका बोझ, आप संसार हैं। आप निबोंझ, आप परमात्मा हैं।
पीछे लौटना सीखें। आगे की दौड़ में ज्यादा शक्ति न गंवाएं। लेकिन सपनों में रस है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनोचिकित्सक के पास एक बार गया। और उसने कहा कि मैं बडा व्यथित हूं और जब बहुत थक गया और परेशान हो गया, तब आपके पास आया हूं। उस मनोचिकित्सक ने पूछा कि क्या तकलीफ है? नसरुद्दीन ने कहा, एक ही स्वप्न बार—बार आता है, रोज आता है। और अब मैं थक गया हूं वर्षों से। अब मैं सो भी नहीं पाता। दिनभर भी लगता है, वह स्वप्न रात आएगा, और रात उस सपने में बीतती है।
चिकित्सक, मनोचिकित्सक भी उत्सुक और आतुर हो गया। उसने पूछा, कौन—सा स्वप्न है? उसने कहा, रोज एक स्वप्न देखता हूं। बैठा हूं अपने मकान के सामने, एक अति सुंदर युवती निकलती है और मैं उसके पीछे भागता हूं। और वह जाती है और अपने मकान में चली जाती है, और दरवाजा बंद कर लेती है। मैं दरवाजे पर खड़ा ठोंक रहा हूं दरवाजा, ठोंक रहा हूं। कई साल हो गए, रोज यही स्वप्न!
तो मनोचिकित्सक ने कहा, इस स्वप्न से आप मुक्त होना चाहते हैं न: नसरुद्दीन ने कहा, आप गलती समझे। मैं चाहता हूं वह दरवाजा बंद न कर पाए।
मन दौड रहा है सपनों में। सपनों में भी महत्वाकांक्षाएं हैं, उनकी पूर्ति की इच्छा है, दरवाजा बंद न हो पाए। सपने से छूटने को कोई तैयार नहीं है। सपने को सुंदर बनाने की चेष्टा है। इसे थोड़ा खयाल रखें।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि छुडाएं इस संसार से। कोई छूटना नहीं चाहता। वे यह कह रहे हैं, बनाएं इस संसार को जरा सुंदर, दरवाजा बंद न हो पाए। उनका मोक्ष, उनका स्वर्ग, सब इसी संसार के सुंदर रूप हैं, जहां दरवाजा सदा खुला है। साधारण आदमी का नहीं, जिनको हम बहुत समझदार, बुद्धिमान कहते हैं, उनका भी। सपने कैसे सफल हो जाएं! कैसे और सुंदर हो जाएं! पर जितने ही सुंदर होंगे सपने और जितने ही सफल होंगे, उतने ही आप खो जाएंगे, उतना ही स्मरण कम रह जाएगा। स्वप्न का अर्थ ही है स्वयं को खोना, विस्मरण कर देना।
सारी प्रक्रियाएं स्वयं को स्मरण करने की प्रक्रियाएं हैं। स्वप्न शुरू नहीं हुए थे गर्भ में। वहीं लौट जाना है, जहां स्वप्न की पहली चोट भी नहीं पड़ी थी।
इसलिए पतंजलि ने योग—सूत्र में कहा है कि समाधि सुषुप्ति की ही अवस्था है, गहरी निद्रा की अवस्था है। जहां एक भी स्वप्न नहीं, एक भी विचार नहीं। पर सुषुप्ति और समाधि में इतना ही फर्क है कि सुषुप्ति में आप बेहोश हैं और समाधि में आप होश से भरे हैं। होशपूर्वक पीछे लौट जाना है और उस बिंदु को पा लेना है, जहां से प्रारंभ है।
इस बात की चिंता मत करें कि संसार कैसे प्रारंभ हुआ! इस बात की फिक्र मत करें कि संसार को किसने बनाया! क्यों बनाया! किसलिए बनाया! इस बात की फिक्र करें कि आप कब प्रारंभ हुए! कैसे प्रारंभ हुए! उस क्षण को पकड़े, जब आप प्रारंभ हुए थे।
सृष्टि के प्रारंभ को पकड़ने की बात व्यर्थ है। वह पकड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि सृष्टि सदा है। यह चक्र घूमता ही रहा है। आप इस चके पर कब सवार हो गए; आपने कब इससे जोर से गठबंधन कर लिया, उस बिंदु को पकड़े।
उस बिंदु के पहले आप परमात्मा थे, उस बिंदु के बाद आप शाखाओं में भटक गए और शाखाएं लंबी हैं और वृक्ष नीचे की तरफ बढ़ता जाता है। और जिस दिन आप यह समझ लेंगे कि एक क्षण ऐसा भी था, जब आप इस चके को नहीं पकड़े थे, बाहर थे, उसी क्षण यह चका छूट भी जाएगा। क्योंकि तब इसे पकड़ने का कोई सार नहीं है।
जिस क्षण उस आनंद की झलक मिल जाएगी, जो इस संसार में उतरने के पहले थी, उसी क्षण संसार की दौड़ बंद हो जाएगी। क्योंकि हम उसी आनंद को इस संसार में खोजने का प्रयास कर रहे हैं। यह जो मैंने ध्यान का छोटा—सा प्रयोग कहा, इसे आप करें, तो कृष्ण का जो तात्पर्य है, वह समझ में आएगा।
कृष्ण के शब्दों के तात्पर्य पर तो बहुत टीकाएं लिखी गई हैं। हजारों टीकाएं हैं। पर उन टीकाओं में से एक भी टीका नहीं है, जिसमें यह सुझाव दिया हो कि आप अपने मूल में लौट जाएं। इसलिए मैं मानता हूं कि वे टीकाएं शाब्दिक हैं। और उनसे सत्य नहीं पकड़ा जा सकता। उनसे जो आप पकड़ेंगे, वह भी शाब्दिक ही होगा।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर में बड़े चूहे थे। और वह परेशान था। और कंजूसी की वजह से चूहादान भी नहीं खरीद सकता था। लेकिन फिर हिम्मत की और खरीद लाया। चूहादान तो खरीद लिया, लेकिन अब मुसीबत यह थी कि उसमें एक रोटी का टुकड़ा भी रखना है। वह भी कंजूसी की वजह से मुश्किल है। तो उसने तरकीब निकाली। होशियार आदमी था, मौलवी था, मुल्ला था, जानता था शास्त्रों को। उसने एक अखबार में से रोटी की फोटो काटकर अंदर रख दी। और रात निश्चित सोया।
सुबह उसने अपना सिर पीट लिया। हुआ कुछ ऐसा कि जब उसने चूहादान खोला, तो रोटी की तस्वीर के पास एक कुतरा हुआ अखबार का टुकड़ा और पड़ा था, जिसमें एक चूहे की तस्वीर थी। अखबार में छपी रोटी ज्यादा से ज्यादा अखबार में छपे हुए चूहे को पकड़ सकती है, और तो कुछ उपाय नहीं। इन शब्दों की शब्दों से व्याख्या हो सकती है, लेकिन तब आप असली चूहे को नहीं पकड़ पाएंगे। इसलिए मैंने इस पहले ही सूत्र में ध्यान की प्रक्रिया की बात कही, क्योंकि उससे ही आपको दिखाई पड़ेगा कि आप एक उलटे वृक्ष हैं।
संसार हो या न हो, आप हैं। और जब आप हैं, तब सारा रहस्य खुल गया। तब आपको लगेगा, आपका मूल ऊपर है, शाखाएं नीचे की तरफ हैं। और जिसको आप विकास कह रहे हैं, वह पतन है। और जिसको आप पीछे कह रहे हैं, वही अंत है, वहीं पहुंच जाना है।
आज इतना ही।
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