जब बचपन में मैं अपने नाना के पास रहता था तो यही मेरा तरीका था, और फिर
भी
मैं सज़ा से पूरी
तरह सुरक्षित था। उन्होंने कभी
नहीं
कहा कि यह करो और वह मत करो। इसके विपरीत उन्होंने अपने सबसे आज्ञाकारी नौकर भूरा के मेरी सेवा में मेरी सुरक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। भूरा
अपने साथ सदा एक बहुत पुरानी बंदूक रखता था। और थोड़ी दूरी
पर मेरे साथ- साथ चलता
था। लेकिन गांव
वालों को डराने के
लिए इतना काफी था। मुझे
अपनी मनमानी करने का मौका देने के लिए इतना काफी था।
कुछ जो भी तुम सोच सकते हो.....जैसे भैंस पर
उलटी सवारी करना,
और भूरा पीछे-पीछे चल रहा है। बहुत समय
बाद विश्वविद्यालय के म्यूजियम में मैंने भेस पर उलटे बैठे हुए लाओत्से की मूर्ति
देखी। मैं इतनी जोर से हंसा की
म्यूजियम का निदेशक भागा हुआ आया कि क्या हो गया, क्या कुछ गड़बड़ है, क्योंकि
मैं हंसी के कारण
पेट पकड़ कर जमीन पर बैठा हुआ था। उसने पूछा ‘क्या कोई तकलीफ है।’
विशेष कर मेरे गांव में और पूरे भारत में कोई भी भेस की सवारी नहीं
करता। लेकिन चीनी अद्भुत लोग है, और यह व्यक्ति लाओत्से तो सबसे अद्भुत था। लेकिन
परमात्मा जाने—और परमात्मा ही जानता है, मुझे भी नहीं पता—कि कैसे मुझे बाजार
में भेस पर उलटी सवारी करने की सूझी, मैं सोचता हूं शायद इसलिए क्योंकि मुझे
बेतुकी बातें हमेशा बहुत पसंद रही है।
बचपन के वे दिन—अगर वे फिर से मुझे मिल सकें
तो मैं दुबारा जन्म लेने को तैयार हो जाऊँगा, लेकिन तुम जानते हो और मैं भी जानता
हूं कि कुछ भी पुनरुक्त नहीं होता और न किया जा सकता। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि
मैं दुबारा जन्म लेने को तैयार हो जाऊँगा, अन्यथा कौन चाहता है, चाहे वो दिन
कितने ही सुंदर क्यों ने हो।
मैं गलत-नक्षत्र में पैदा हुआ था। मुझे दुःख
है कि मैं बड़े ज्योतिषी से पूछना भूल गया कि मैं इतना शैतान क्यों था। मैं
शैतानी के बीना जी नहीं सकता। वही मेरा पोषण है।
मैं अपने बूढे नाना को और मेरी शैतानी यों से उन्हें जो परेशानियां हुई उन्हें समझ सकता हूं। दिन भर वे अपनी गद्दी पर बैठे अपने ग्राहकों को
कम और मेरी शिकायत करने बालों की अधिक
सुनते। लेकिन वे उनसे कहते, ‘उसने जो नुकसान किया हो उसका मैं हर्जाना देने को तैयार हूं, लेकिन या रखिए, मैं उसको सज़ा नहीं दूँगा।’
शायद उनका वह धैर्य, मेरे जैसे शैतान बच्चे
के साथ.... यहां तक कि मैं भी सहन नहीं कर सकता। अगर वैसा बच्चा मुझे दिया जाता
और सालों तक...हे भगवान, -- कुछ ही मिनटों के लिए भी, तो मैं उसे हमेशा के लिए घर
से बाहर निकाल देता।
शायद वे वर्ष मेरे नाना के लिए चमत्कार
साबित हुए। उस असीम धैर्य का परिणाम हुआ, वे और-और मौन होते गए। मैंने रोज-रोज इसे
बढ़ते देखा। कभी-कभी मैं कहता, ‘नाना आप मुझे दंड दे सकते है। आपको इतना सहनशील
होने की जरूरत नहीं है।’ और तुम भरोसा कर सकते हो, वे रोने लगते, उनकी आंखों में
आंसू आ जाते, और वे कहते ‘तुम्हें सज़ा दूँ, वह मैं नहीं कर सकता। मैं अपने आप को
सज़ा दे सकता हूं, लेकिन तुम्हें नहीं।’
मैंने कभी एक
क्षण के लिए
भी उनकी आंखों में
मेरे लिए गुस्से की परछाई तक नहीं
देखी। और मेरा भरोसा करो, मैने वह सब किया जो हजार बच्चे कर सकते है। सुबह
से, नाश्ते से भी पहले से लेकर देर रात
ते मुझे शैतानी सूझती। कभी-कभी तो में रात को इतनी देर से घर आता-सुबह तीन बजे।
लेकिन वे भी क्या आदमी थे। उन्होने कभी नहीं कहा, तुमने बहुत देर कर दी। यह एक बच्चे के
घर आने का समय नहीं है। नहीं एक बार भी नहीं। सच तो यह है कि मेरे सामने वे दिवाल
पर लगी हुई घड़ी की तरु भी न देखते।
इस तरह मैंने धार्मिकता सीखी। वे मुझे कभी
मंदिर नहीं नहीं ते गए, जहां वे जाने थे। मैं भी उस मंदिर में जाता था, लेकिन
सिर्फ तब जब वह बंद होता था। केवल
प्रिज्म चुराने के लिए क्योंकि उस मंदिर में प्रिज्म से बने बड़े सुंदर फानूस
लगे हुए थे। मैं सोचता हूं, धीरे-धीरे लगभग मैंने सब प्रिज्म चुरा लिए। जब मेरे
नाना को यह बताया गया तो उन्होंने कहा, तो क्या हुआ, मैंने ये फानूस दान दिए थे।
मैं और दे सकता हूं। वह कोई चोरी नहीं कर रहा है। यह तो उसके नाना की संपत्ति है।
मैंने वह मंदिर बनवाया था।‘’
पुजारी ने शिकायत करनी बंद कर दी। क्या
फायदा था? वह तो सिर्फ
नाना का नौकर था।
नाना रोज सुबह मंदिर जाते थे। फिर भी उन्होंने
कभी नहीं कहा, ‘तुम मेरे साथ चलो। ’उन्होंने कभी कोई सिद्धांत मेरे दिमाग में
नहीं डाला। यह बहुत बड़ी बात है। कोई सिद्धांत न थोपना। एक असहाय बच्चे को जबरदस्ती
अपनी मान्यताए्ं मनवाना बहुत सहज है। लेकिन वे प्रलोभन में नहीं आए.....हां, मैं
इसे सबसे बड़ा प्रलोभन कहता हुं। जैसे ही तुम किसी को अपने पर किसी तरह से निर्भर
देखते हो, वैसे ही शिक्षा देने लगते हो। उनहोंने मुझसे कभी यह तक नहीं कहा, ‘तुम
जैन हो।’
मुझे अच्छी तरह याद है—एक बार जब जनगणना हो
रही थी, जनगणना अधिकारी हमारे घर आया। उसने बहुत तरह की पूछताछ की उसने नाना के
धर्म के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि उनका धर्म जैन है। फिर उसने नानी के
बारे में पूछा, मेरे नाना ने कहा: ‘आप खुद उनसे पूछ सकते है। धर्म व्यक्ति गत
मामला है। मैंने खुद कभी उनसे नहीं पूछा।’ क्या व्यक्ति थे।
मेरी नानी ने उत्तर दिया, ‘मैं किसी भी धर्म
को नहीं मानती, सब धर्म मुझे बचकाने लगते है।’ वह अफसर भौचक्का रह गया। मैं भी
बहुत हैरान हुआ। वे किसी धर्म को में विश्वास नहीं करती। भारत में ऐसी स्त्री
खोजना असंभव है जो किसी धर्म में विश्वास न करती हो। लेकिन वे खजुराहो में जन्मी
थी, शायद तांत्रिकों के परिवार में, जो कभी किसी धर्म में विश्वास नहीं करते। वे
ध्यान करते है, लेकिन वे किसी धर्म में कभी विश्वास नहीं करते।
पश्चिमी मन को यह बहुत असंगत लगता है: बिना
धर्म के ध्यान; हां...सच तो यह है कि अगर तुम किसी धर्म में विश्वास करते हो तो
तुम ध्यान नहीं कर सकते। धर्म तुम्हारे ध्यान में बाधा है। ध्यान के लिए किसी
परमात्मा, किसी स्वर्ग या नरक, किसी दंड के डर या सुख के लोभ की कोई आवश्यकता
नहीं है। ध्यान का मन से कुछ लेना-देना नहीं है, ध्यान मन के पान है। और धर्म
केवल मन के भीतर है।
मैं
जानता हूं कि नानी कभी मंदिर नहीं गई, लेकिन उन्होने मुझे कभी एक मंत्र सिखाया जो
आज मैं पहली बार बताऊगां। वह जैन मंत्र है, लेकिन उसका संबंध केवल जैनियों से नहीं
है। यह तो केवल संयोग है कि यह मंत्र जैन धर्म के साथ संबंधित है......
नमो अरिहंताणं नमो नमो।
नमो सिद्धाणं नमो नमो।
नमो उवज्झायाणं नमो नमो।
नमो लोए सव्वसाहूणं नमो नमो।
एसो पंच नमुक्कारो
ओम् शांति शांति शांति ........
यह मंत्र बहुत सुंदर है। अब मैं अनुवाद करने की
कोशिश करता हूं, ‘मैं अरिहंतों के चरणों में झुकता हूं, जैन धर्म में अरिहंत उसे
कहते है जिसे बौद्ध धर्म में बोद्यिसत्व कहते है—जिसने परम सत्य को पा लिया,
लेकिन किसी और कि चिंता नहीं करता। वह अपने धर पहुंच गया और संसार की और उसने पीठ
कर ली। वह कोई धर्म नहीं बनाता, वह कोई उपदेश भी नहीं देता, वह कोई धोषणा भी नहीं
करता। निश्चित ही सबसे पहले उसको ही याद किया जाना चाहिए। सबसे पहले उन सब लोगों
का स्मरण जिन्होंने स्वयं को जाना और चुप रह गए। पहला आदर शब्दों के लिए नहीं,
वरन मौन के लिए है, दूसरों की सेवा के लिए नहीं, वरन स्वयं को जानने के लिए है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरों की सेवा होती है या नहीं, वह प्राथमिक नहीं
है, गौण है। प्राथमिक है कि उसने स्वयं को जाना और इस दुनिया में स्वयं को जानना
बहुत मुश्किल है।
लाग कल्पनाओं में जी रहे है, वही उनका जीवन
है—एक कल्पना मात्र, जो कही है नहीं, होली घोस्ट, लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता
है कि घोस्ट होली है या अनहोली। असल में वह है ही नहीं। बेवकूफी की हद है कि ईसाई
त्रिमूर्ति में होली घोस्ट को सम्मिलित किया गया है, परमात्मा, बेटा और होली
घोस्ट। सिर्फ स्त्री से बचने के लिए उन्होंने होली घोस्ट को वहां रखा हुआ है।
मां को हटा कर होली घोस्ट को वहीं रखा है। इस होली घोस्ट ने पूरी ईसाइयत को
बरबाद किया है। क्योंकि एकदम शुरूआत से ही, एक दम बुनियाद से ही यह झूठ और भ्रमों
पर आधारित है।
लेकिन इस होली घोस्ट जैसे घिनौना व्यक्ति
को त्रिमूर्ति में सम्मिलित करने के लिए
ईसाइयों को क्षमा नहीं किया जाएगा, और इस पवित्र घोस्ट ने बेचारी मेरी को गर्भवती
बनाने का अपवित्र काम किया। किसने तुम सोचते हो बेचारे बढ़ई की पत्नी को गर्भ वती
बनाया? होली घोस्ट ने, वाह, महान पवित्रता है, तो फिर
अपवित्रता क्या होगी।
एक बात निश्चित है कि ईसाइयत स्त्री से पूरी
तरह बचने की, उसे पूरी तरह से मिटा देने की कोशिश करती रही है। उन्होंने एक
परिवार तक बना दिया। अगर कोई बच्चा परिवार का चित्र बनाए—पिता, बेटा और होली घोस्ट—तो
तुम कहोगे, यह क्या मूर्खता है, मां कहां है।
बिना मां के पिता कैसे हो सकता है, बिना मां
के बेटा कैसे हो सकता है, एक छोटा बच्चा भी तुम्हारे तर्क को समझ सकता है। लेकिन
ईसाई धर्मशास्त्री नहीं वह बच्चा नहीं है, वह मंदबुद्धि बच्चा है। उसके दिमाग
में कुछ गड़बड़ है, विशेषकर बाई और का उसका दिमाग या तो खाली है या उसमें कचरा भरा
हुआ है।
जैन ‘अरिहंत’ उस व्यक्ति को कहते हैं जिसने
स्वयं को उपलब्ध कर लिया है, और उस आत्म-अपलब्धि के सौंदर्य से इतना खोया हुआ
है कि वह समस्त संसार को भूल गया है। अरिहंत शब्द का अर्थ है: जिसने शत्रु को
मार डाला। और शत्रु है अहंकार, मंत्र के पहले भाग का अर्थ है: मैं उसके चरणों में
झुकता हूं जिसने स्वयं को अपलब्ध कर लिया है।
दूसरा भाग है: ‘नमो सिद्धाणं नमो-नमो।‘
यह मंत्र प्राकृत में है, संस्कृत में नहीं।
प्राकृत जैनियों की भाषा है। यह संस्कृत से ज्यादा प्राचीन है। संस्कृत शब्द
का अर्थ होता है परिष्कृत। तुम परिष्कृत शब्द से ही समझ सकते हो कि इसके पहले
अवश्य कुछ रहा होगा, अन्यथा तुम किसे परिष्कृत करोगे? प्राकृत
का अर्थ है बिना परिष्कृत के, स्वाभाविक, अनगढ़। और जैन का यह कहना बिलकुल ठीक
है कि उनकी भाषा दुनियां में सबसे प्राचीन है। उनका धर्म भी अति प्राचीन है।
हिंदुओं के ग्रंथ ऋग्वेद में जैनियों के
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का उल्लेख है। निश्चित ही इसका मतलब हुआ कि वह ऋग्वेद से
बहुत पुराना है। ऋग्वेद दुनिया में सबसे प्राचीन पुस्तक है। और इसमें जैन
तीर्थंकर आदिनाथ का उल्लेख इतने आदर के साथ किया गया है की एक बात निश्चित है कि
वे उन लोगों के समकालीन नहीं हो सकते जिन्होंने ऋग्वेद लिखा है।
समकालीन गुरु को पहचानना बहुत मुश्किल है।
उसकी किस्मत में तो निंदा ही होती है – चारों और से हर प्रकार की निंदा। उसको आदर
नहीं मिलता। वह आदर योग्य व्यक्ति नहीं होता। समय लगता है, उसको क्षमा करने में
लोगों को हजारों साल लगते है। केवल तभी वे उसका आदर दे पाते है। जब वे उसकी निंदा
करने के अपराध-भाव से मुक्त होते है, तो वे उसका आदर करने लगते है, उसकी पूजा
करने लगते है।
मंत्र प्राकृत में है, अपरिष्कृत एवं अनगढ़।
दुसरी पंक्ति है: ‘नमो सिद्धाणं नमो नमो।’
मैं उसके चरणों में झुकता हूं जो अपने स्वभाव
में पहुंच गया है।
तो पहले और दूसरे में क्या अंतर है?
अरिहंत कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखता, कभी
किसी प्रकार की सेवा की चिंता नहीं करता
--क्रिश्चियन सेवा या कोई और सेवा। लेकिन सिद्ध
कभी-कभी डुबती मानवता को बचाने के लिए अपना हाथ बढ़ा देता है। लेकिन कभी-कभी ही,
हमेशा नहीं। यह कोई अनिवार्यता नहीं है, यह कोई जरूरी नहीं है। यह उसका चुनाव है
कि वह ऐसा करे या न करे।
इसलिए तीसरी पंक्ति है: ’नमो आयरियाणं नमो
नमो।’
मैं आचार्यों, गुरूओं के चरणों में झुकता
हूं।
उन्होंने भी उसी को उपलब्ध किया है, लेकिन
वे संसार की और मुख किए हुए हैं। वे संसार की सेवा करते है। वे संसार में रहते हुए
भी नहीं रहते.....फिर भी संसार में है।
चौथी ओम्
शांति शांति शांति ........
यह मंत्र बहुत सुंदर है। अब मैं अनुवाद करने की
कोशिश करता हूं, ‘मैं अरिहंतों के चरणों में झुकता हूं, जैन धर्म में अरिहंत उसे
कहते है जिसे बौद्ध धर्म में बोद्यिसत्व कहते है—जिसने परम सत्य को पा लिया,
लेकिन किसी और कि चिंता नहीं करता। वह अपने धर पहुंच गया और संसार की और उसने पीठ
कर ली। वह कोई धर्म नहीं बनाता, वह कोई उपदेश भी नहीं देता, वह कोई धोषणा भी नहीं
करता। निश्चित ही सबसे पहले उसको ही याद किया जाना चाहिए। सबसे पहले उन सब लोगों
का स्मरण जिन्होंने स्वयं को जाना और चुप रह गए। पहला आदर शब्दों के लिए नहीं,
वरन मौन के लिए है, दूसरों की सेवा के लिए नहीं, वरन स्वयं को जानने के लिए है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरों की सेवा होती है या नहीं, वह प्राथमिक नहीं
है, गौण है। प्राथमिक है कि उसने स्वयं को जाना और इस दुनिया में स्वयं को जानना
बहुत मुश्किल है।
लाग कल्पनाओं में जी रहे है, वही उनका जीवन
है—एक कल्पना मात्र, जो कही है नहीं, होली घोस्ट, लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता
है कि घोस्ट होली है या अन होली। असल में वह है ही नहीं। बेवकूफी की हद है कि
ईसाई त्रिमूर्ति में होली घोस्ट को सम्मिलित किया गया है, परमात्मा, बेटा और
होली घोस्ट। सिर्फ स्त्री से बचने के लिए उन्होंने होली घोस्ट को वहां रखा हुआ
है। मां को हटा कर होली घोस्ट को वहीं रखा है। इस होली घोस्ट ने पूरी ईसाइयत को
बरबाद किया है। क्योंकि एकदम शुरूआत से ही, एक दम बुनियाद से ही यह झूठ और भ्रमों
पर आधारित है।
लेकिन इस होली घोस्ट जैसे घिनौने व्यक्ति
को त्रिमूर्ति में सम्मिलित करने के लिए
ईसाइयों को क्षमा नहीं किया जाएगा, और इस पवित्र घोस्ट ने बेचारी मेरी को गर्भवती
बनाने का अपवित्र काम किया। किसने तुम सोचते हो बेचारे बढ़ई की पत्नी को गर्भ वती
बनाया? होली घोस्ट ने, वाह, महान पवित्रता है, तो फिर
अपवित्रता क्या होगी।
एक बात निश्चित है कि ईसाइयत स्त्री से पूरी
तरह बचने की, उसे पूरी तरह से मिटा देने की कोशिश करती रही है। उन्होंने एक
परिवार तक बना दिया। अगर कोई बच्चा परिवार का चित्र बनाए—पिता, बेटा और होली घोस्ट—तो
तुम कहोगे, यह क्या मूर्खता है, मां कहां है।
बिना मां के पिता कैसे हो सकता है, बिना मां
के बेटा कैसे हो सकता है, एक छोटा बच्चा भी तुम्हारे तर्क को समझ सकता है। लेकिन
ईसाई धर्मशास्त्री नहीं वह बच्चा नहीं है, वह मंदबुद्धि बच्चा है। उसके दिमाग
में कुछ गड़बड़ है, विशेषकर बाई और का उसका दिमाग या तो खाली है या उसमें कचरा भरा
हुआ है।
जैन ‘अरिहंत’ उस व्यक्ति को कहते हैं जिसने
स्वयं को उपलब्ध कर लिया है, और उस आत्म-अपलब्धि के सौंदर्य से इतना खोया हुआ
है कि वह समस्त संसार को भूल गया है। अरिहंत शब्द का अर्थ है: जिसने शत्रु को
मार डाला। और शत्रु है अहंकार, मंत्र के पहले भाग का अर्थ है: मैं उसके चरणों में
झुकता हूं जिसने स्वयं को अपलब्ध कर लिया है।
दूसरा भाग है: ‘नमो सिद्धाणं नमो-नमो।‘
यह मंत्र प्राकृत में है, संस्कृत में नहीं।
प्राकृत जैनियों की भाषा है। यह संस्कृत से ज्यादा प्राचीन है। संस्कृत शब्द
का अर्थ होता है परिष्कृत। तुम परिष्कृत शब्द से ही समझ सकते हो कि इसके पहले
अवश्य कुछ रहा होगा, अन्यथा तुम किसे परिष्कृत करोगे? प्राकृत
का अर्थ है बिना परिष्कृत के, स्वाभाविक, अनगढ़। और जैन का यह कहना बिलकुल ठीक
है कि उनकी भाषा दुनियां में सबसे प्राचीन है। उनका धर्म भी अति प्राचीन है।
हिंदुओं के ग्रंथ ऋग्वेद में जैनियों के
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का उल्लेख है। निश्चित ही इसका मतलब हुआ कि वह ऋग्वेद से
बहुत पुराना है। ऋग्वेद दुनिया में सबसे प्राचीन पुस्तक है। और इसमें जैन
तीर्थंकर आदिनाथ का उल्लेख इतने आदर के साथ किया गया है की एक बात निश्चित है कि
वे उन लोगों के समकालीन नहीं हो सकते जिन्होंने ऋग्वेद लिखा है।
समकालीन गुरु को पहचानना बहुत मुश्किल है।
उसकी किस्मत में तो निंदा ही होती है – चारों और से हर प्रकार की निंदा। उसको आदर
नहीं मिलता। वह आदर योग्य व्यक्ति नहीं होता। समय लगता है, उसको क्षमा करने में
लोगों को हजारों साल लगते है। केवल तभी वे उसका आदर दे पाते है। जब वे उसकी निंदा
करने के अपराध-भाव से मुक्त होते है, तो वे उसका आदर करने लगते है, उसकी पूजा
करने लगते है।
मंत्र प्राकृत में है, अपरिष्कृत एवं अनगढ़।
दुसरी पंक्ति है: ‘नमो सिद्धाणं नमो नमो।’
मैं उसके चरणों में झुकता हूं जो अपने स्वभाव
में पहुंच गया है।
तो पहले और दूसरे में क्या अंतर है?
अरिहंत कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखता, कभी
किसी प्रकार की सेवा की चिंता नहीं करता
--क्रिश्चियन सेवा या कोई और सेवा। लेकिन सिद्ध
कभी-कभी डुबती मानवता को बचाने के लिए अपना हाथ बढ़ा देता है। लेकिन कभी-कभी ही,
हमेशा नहीं। यह कोई अनिवार्यता नहीं है, यह कोई जरूरी नहीं है। यह उसका चुनाव है
कि वह ऐसा करे या न करे।
इसलिए तीसरी पंक्ति है: ’नमो आयरियाणं नमो
नमो।’
मैं आचार्यों, गुरूओं के चरणों में झुकता
हूं।
उन्होंने भी उसी को उपलब्ध किया है, लेकिन
वे संसार की और मुख किए हुए हैं। वे संसार की सेवा करते है। वे संसार में रहते हुए
भी नहीं रहते.....फिर भी संसार में है।
चौथी पंक्ति हैं: ‘नमो उवज्झायाणं नमो नमो।’
मैं उपाध्यायों, शिक्षकों, के चरणों में
झुकता हूं।
शिक्षक और गुरू के सूक्ष्म अंतर को तुम
जानते हो। गुरु ने जाना है, और जो जाना है उसे वह दूसरों को बाँटता है। शिक्षक ने
जानने बाल से प्राप्त किया है। और उसका ज्यों का त्यों संसार को दे देता है। लेकिन उसने स्वंय नहीं
जाना है।
इस मंत्र के रचयिता सचमुच अद्भुत है। वे उनके
चरणों में भी झुकते है। जिन्होंने स्वयं नहीं जाना है। लेकिन कम से कम सद गुरूओं
का संदेश लोगों तक पहुंचा रहे है।
पाँचवीं पंक्ति उन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण
वाक्यों में से जिनसे संपर्क में मैं अपने जीवन में कभी भी आया। यह बड़ी अद्भुत
बात है कि जब मैं छोटा सा बच्चा था तभी मेरी नानी ने इसे मुझे दिया। जब मैं तुम्हें
यह समझाऊंगा तो तुम भी इसके सौदर्य को देखोगे। केवल उनमें ही इसको मुझे देने कि
क्षमता थी। यद्यपि सब जैन इसको अपने मंदिरों में दोहराते है, लेकिन मैं किसी और को
नहीं जानता जिसमें इसकी घोषणा करने का साहस रहा हो। लेकिन दोहराना एक बात है और
अपने किसी प्रिय व्यक्ति के जीवन में इसे उतारना बिलकुल दूसरी बात है।
‘नमो लाए सव्वसाहूणं नमो नमो।’
मैं उन सब लोगों के चरणों में झुकता हूं जिन्होंने
स्वयं को जाना है।
बिना किसी भेद भाव के—चाहे वे हिंदू हो, चाहे
वो जैन हो, चाहे बौद्ध, चाहे ईसाई, चाहे मुसलमान। मंत्र कहता है, मैं उन सबके
चरणों में झुकता हूं जिन्होंने स्वयं को जाना है।
जहां तक मैं जानता हूं, यही एकमात्र मंत्र है
जो पूर्णत: धर्म निरपेक्ष है।
जानने का कोई विषय नहीं है, जानने को कुछ
नहीं है, केवल जानने वाला है।
यह मंत्र एकमात्र धार्मिक बात थी--अगर तुम
इसे धार्मिक कह सको—जो मुझे मेरी नानी द्वारा दी गई। और वह भी मेरे नाना के द्वारा
नहीं, बल्कि मेरी नानी के द्वारा दी गई। क्योंकि एक रात मैंने उनसे पूछा।......एक
रात उन्होंने कहा: ’तुम जागे हुए लगते हो, क्या नींद नहीं आ रही, क्या तुम कल
करने वाली शैतानियों के बारे में सोच रहे हो।’
मैंने कहा: ‘नहीं। लेकिन पता नहीं क्यों एक
प्रश्न मुझमें उठ रहा है। सबका कोई न कोई धर्म होता है। और जब लोग मुझसे पूछते
हैं कि तुम कौन से धर्म के हो। तो मैं कंघे बिचका देता हूं। अब कंधे बिचकाना तो
कोई धर्म नहीं है। तो मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि मुझे क्या करना चाहिए।‘
उन्होंने कहा: ‘मैं स्वयं किसी धर्म को
नहीं मानती, लेकिन मुझे यह मंत्र बहुत प्रिय है और यही मैं तुम्हें दे सकती हूं।
इसलिए नहीं की यह परंपरागत जैन मंत्र है, बल्कि सिर्फ इसलिए कि मैने इसके सौदर्य
को अनुभव किया है। मैंने इसे लाखों बार दोहराया है और हमेशा मुझे बहुत शांति मिली
है। केवल इस भाव से कि उन सबको प्रणाम है जिन्होंने जाना है। यह मंत्र मैं तुम्हें
दे सकती हूं। इसलिए इससे अधिक मेरे लिए संभव नहीं है।’
अब मैं कह सकता हूं कि वे सचमुच महान थी। क्योंकि
जहां तक धर्म का संबंध है, सब झूठ बोल रहे है। ईसाई, यहूदी, जैन, मुसलमान, सब झूठ
बोल रहे है। वे परमात्मा की, स्वर्ग और नरक की देवताओं की और सब तरह की बकवास
करते है। जब कि पता उन्हें कछ नहीं है। वे महान थी। इसलिए नहीं कि वे जानती थी,
बल्कि इसलिए कि वे एक बच्चे से झूठ नहीं बोल सकती थी।
किसी को झूठ नहीं बोलना चाहिए—कम से कम बच्चे
से झूठ बालना तो अक्षम्य है। सदियों से बच्चों का शोषण किया गया है, क्योंकि वे
विश्वास करने को तैयार रहते है। बहुत आसानी से तुम उनसे झूठ बोल सकते हो। और वे
तुम्हारा विश्वास कर लेते है, अगर तुम पिता हो, मां हो, तो वे सोचते हैं कि तुम
सच ही बोलोगे। इसी तरह पूरी मनुष्यता भ्रष्टता में जीती है, झूठ के गहरी कीचड़
में, जो बच्चों से कह रहे है।
अगर हम एक काम कर सकें, एक छोटा सा काम: हम
बच्चों से झूठ न बोले और उनके सामने अपने अज्ञान को स्वीकार कर लें, तो हम
धार्मिक हो जाएंगे और हम उन्हें धर्म के मार्ग पर ले आएंगे। बच्चे तो सरल होते
है। उनके ऊपर अपना तथाकथित ज्ञान मत थोपों। लेकिन पहले तुम्हें स्वयं सत्य और
सरल होना चाहिए, भले ही इससे तुम्हारा अहंकार टूटता हो—और इससे टूटे गा, ये
तोड़ते ही वाला है।
मेरे नाना ने मुझसे मंदिर जाने के लिए या
उनके साथ चलने के लिए कभी नहीं कहा। मैं उनके पीछे बहुत बार जाता था, लेकिन वे
कहते, ‘अगर तुम मंदिर जाना चाहते हो तो अकेले जाओ। मेरे पीछे मत आओ।’
वे कठोर व्यक्ति नहीं थे, लेकिन इस बात पर
वे बहुत सख्त थे। मैंने बहुत बार उनसे पूछा, क्या आप अपने कुछ अनुभव मुझे बता
सकते है। और वे हमेशा टाल जाते। जब बैलगाड़ी में ते मेरी गोद में अंतिम साँसे ले
रहे थे तो उनहोंने अपनी आंखे खोली और पूछा, समय क्या है, मैंने कहा: ‘नौ बज रहे
होंगे, एक क्षण के लिए वे चुप रहे और फिर उनहोंने कहां:’
‘’नमो अरिहंताणं नमो नमो।
नमो सिद्धाणं नमो नमो।
नमो उवज्झायाणं नमो नमो।
नमो लोए सव्वसाहूणं नमो नमो।
ओम् शांति: शांति: शांति:.....।’’
इसका क्या अर्थ हुआ, इसका अर्थ हुआ ‘’ओम्’’—ध्वनि रहित की परम ध्वनि।
और वे सूर्य की पहली किरणों में ओस की बूंद की भांति लुप्त हो गए।
वहां केवल शांति है, शांति है, शांति है.........
अब मैं इसमें प्रवेश कर रहा हूं.......
‘
Marmik, suder
जवाब देंहटाएंOsho gjjb hain, itna gyan!!
जवाब देंहटाएंOsho ko jitna padho km hi hai,
Bhagvan aise manushyo ko lambi umra kyon nhi dete?!!,
Sadar pranam 🙏🙏