तीर्थ: अनापान सती योग
एक बौद्ध भिक्षु को सीलोन से किसी ने मेरे पास भेजा।
उसकी तीन साल से नींद खो गई थी। तो उसकी जो हालत हो सकती थे वह हो गयी। पूरे वक्त
हाथ पैर-कंपते रहेंगे, पसीना छूटता रहेगा और घबराहट होती
रहेगी। एक कदम भी उठायेगा तो डरेगा, भरोसा अपने
ऊपर का सब खो गया, नींद आती नहीं है। बिलकुल विक्षिप्त
और अजीब सी हालत है। उसने बहुत इलाज करवाया क्योंकि वह.....वह यहां सब तरह के
इलाज उसने करवा लिए, कुछ फायदा हुआ नहीं कोर्इ
ट्रैंकोलाइजर उसको सुला नहीं सकता था। उसे गहरे से गहरे ट्रैंकोलाइजर दिए गए तो भी
उसने कहा कि मैं बहार से सुस्त होकर पड़ जाता हू लेकिन भीतर तो मुझे पता चलता ही
रहता है कि मैं जगा हुआ हूं।
उसे किसी ने मेरे पास भेजा। मैंने उसको कहा कि तुम्हें
कभी नींद आएगी नहीं, ट्रैंकोलाइजर से या और किसी उपाय
से। तुम बुद्ध का अनापान सती योग तो नहीं कर रहे हो। क्योंकि बौद्ध भिक्षु के लिए
वह अनिवार्य है। उसने कहा वह तो मैं कर ही रहा हूं। उसके बिना तो......मैं फिर
मैंने कहा, तुम नींद का ख्याल
छोड़ दो।
अनापान
सती योग का प्रयोग ऐसा है कि नींद जाएगी। मगर वह प्राथमिक प्रयोग है। और जब नींद
खो जाए तब दूसरा प्रयोग तत्काल जोड़ा जाना चाहिए। अगर उस कोही करते रहे तो पागल
हो जाओगे, मुशिकल में पड़ जाओगे। वह सिर्फ प्राथमिक प्रयोग है वह
सिर्फ नींद को हटाने के लिए। एक दफा भीतर से नींद हट जाए तो आपके भीतर इतना फर्क
पड़ता है चेतना में कि उस क्षण को उपयोग करके आगे गति की जा सकती है।
तो
मैंने कहा—कोई दूसरी प्रक्रिया तुझ मालूम है, उसने कहां—मुझे
दूसरी किसी न तो अनापान सती बतायी नहीं। बस अनापान सती किताब में लिखी हुए है। और
सबको मालुम है। और खतरनाक है उसका किताब में लिखना, क्योंकि उसको
करके कोई भी आदमी नींद से वंचित हो सकता है। और जब नींद से वंचित हो जाएगा। तो
दुसरी प्रक्रिया का कोई पता नहीं हे।
इसलिए
सदा बहुत सी चीजें गुप्त रखी गयी है। गुप्त रखने का और कोई कारण नहीं था, किसी से छिपाने का कोई और कारण नहीं था। जिसको हम लाभ पहुंचाना चाहते है उनको नुकसान पहुंच जाए
तो कोई अर्थ नहीं। तो वास्तविक तीर्थ छिपे हुए और गुप्त है। तीर्थ छिपे हुए और गुप्त है। तीर्थ जरूर है, पर वास्तविक तीर्थ छिपे हुए, गुप्त है। करीब-करीब निकट है उन्हीं तीर्थों के, जहां आपके फाल्स तीर्थ खड़े हुए है। और जो फाल्स
तीर्थ है, वह जो झूठे तीर्थ है, धोखा देने के
लिए खड़े किए गए है। वह इसलिए खड़े किए गए है। ठीक पर की गलत आदमी ने पहुंच जाए।
ठीक आदमी तो ठीक पहुंच ही जाता है। और हरेक तीर्थ की अपनी कुंजियां है।
इसलिए अगर सूफियों का तीर्थ
खोजना हो तो जैनियों के तीर्थ की कुंजी से नहीं खोजा जा सकता। अगर जैनियों का
तीर्थ खोजना है तो सूफियों की कुंजियां हे, और उन
कुंजियों का उपयोग करके तत्काल खोजा जा सकता है। तत्काल...नाम नहीं लेता, किंतु किसी के तीर्थ की एक कुंजी आपको बताता हूं।
एक
विशेष यंत्र जैसे कि तिब्बतियों के होते है, जिसमें खास
तरह की आकृतियां बनी होती है—वे यंत्र कुंजियां है। जैसे हिंदुओं के पास भी यंत्र
है। और हजार यंत्र है। आप घरों में भी शुभ लाभ बनाकर आंकडे लिखकर और यंत्र बनाते
है। बिना जाने कि किस लिए बना रहे है। क्यों लिख रहे है यह, आपको खयाल भी नहीं हो सकता है कि आप अपने मकान में एक
ऐसा यंत्र बनाए हुए है जो किसी तीर्थ की
कुंजी हो सकती है। मगर बाप दादे आपके बनाते रहते है और आप बनाए चले जा रहे है।
एक
विशेष आकृति पर ध्यान करने से आपकी चेतना विशेष आकृति लेती है। हर आकृति आपके
भीतर चेतना को आकृति देती है। जैसे कि अगर आप बहुत देर तक खिड़की पर आँख लगाकर
देखते रहें,फिर आँख बंद करें तो खिड़की का निगेटिव चौखटा आपकी आँख
के भीतर बन जाता है—वह निगेटिव है। अगर किसी यंत्र पर आप ध्यान के बाद आपको भीतर
निर्मित होते है। वह विशेष ध्यान के बाद आपको भीतर दिखायी पड़ना शुरू हो जाता है।
और जब वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाए, तब विशेष आह्वान करने से तत्काल आपकी यात्रा शूर हो
जाती है।
नसीरुद्दीन
के जीवन में एक कहानी है। नसीरुद्दीन का गधा खो गया है। वह उसकी संपति है, सब कुछ। सारा गांव खोज डाला, सारे गांव के लोग खोज-खोजकर परेशान हो गए, कहीं कोई पता नहीं चला। फिर लोगों ने कहा ऐसा मालूम
होता है कि किसी तीर्थ यात्रियों के साथ निकल रहे है, तीर्थ का महीना है। और गधा दिखाता है कि कहीं तीर्थ
यात्रियों के साथ निकल गया, गांव में तो नहीं है। गांव के
आस-पास भी नहीं है, सब जगह खोज डाला गया। नसीरुद्दीन
से लोगों ने कहा, अब तुम माफ करो, समझो की खो गया,अब वह मिलेगा
नहीं।
नसीरुद्दीन
ने कहा कि मैं आखिरी अपाय और कर लू। वह खड़ा हो गया, आँख उसने बंद
कर ली। थोड़ी देर में वह झुक क्या चारों हाथ-पैर से, और उसने चलना शुरू
कर दिया। और वह उस मकान का चक्कर लगाकर, और उस बग़ीचे
का चक्कर लगाकर उस जगह पहुंच गया जहां एक खड्डे में उसका गधा गिर पडा था। लोगों
ने कहा, नसीरुद्दीन हद कर दी तुम्हारी खोज ने, यह तरकीब क्या है। उसने कहा मैंने सोचा कि जब आदमी
नहीं खोज सका, तो मतलब यह है कि गधे की कुंजी आदमी के पास नहीं है।
मैंने
सोचा कि मैं गधा बन जाऊँ। तो मैंने अपने मन में सिर्फ यह भावना की कि मैं गधा हो
गया। अगर मैं गधा होता तो कहां जाता खोजने, गधे को खोजने
कहां जाता। फिर कब मेरे हाथ झुककर जमीन पर लग गए, और कब मैं गधे
की तरह चलने लगा। मुझे पता ही नहीं चला। कैसे मैं चलकर वहां पहुंच गया,वह मुझे पता नहीं। ।जब मैंने आँख खोली तो मैंने देखा, मेरा गधा खड्डे में पडा हुआ है।
नसीरुद्दीन
तो एक सूफी फकीर है। यह कहानी तो कोई भी पढ़ लेगा और मजाक समझकर छोड़ देगा। लेकिन
इसमें एक कि है—इस छोटी सी कहानी में। इसमें की है खोज की। खोजने का एक ढंग वह भी
है। और आत्मिक अर्थों में तो ढंग वही है। तो प्रत्येक तीर्थ की कुंजियां है।
यंत्र है। और तीर्थों का पहला प्रयोजन तो यह है कि आपको उस आविष्ठधारा में खड़ा
कर दें जहां धारा वह रही हो और आप उसमें वह जाएं—एक।
दूसरी
बात—मनुष्य के जीवन में जो भी है वह सब पदार्थ से निर्मित है, सिर्फ पदार्थ से निर्मित है—मनुष्य के जीवन में जो है।
सिर्फ उसकी आंतरिक चेतना को छोड़कर। लेकिन आंतरिक चेतना का तो आपको कोई पता नहीं
है। पता तो आपको सिर्फ शरीर का है, और शरीर के
सारे संबंध पदार्थ से है। थोड़ी-सी अल्केमी समझ लें तो दूसरा तीर्थ का अर्थ ख्याल
में आ जाए।
अल्क मिस्ट की
प्रक्रियाएं है, वह सब गहरी धर्म की प्रक्रियाएं हे। अब अल्क मिस्ट कहते है कि अगर पानी को
एक बार बनाया जाए और फिर पानी बनाया जाए, फिर भाप बनाया जाए उसको, फिर पानी बनाया जाए—ऐसा एक हजार बार किया
जाए तो उस पानी में विशेष गुण आ जाते है। जो साधारण पानी में नहीं है। इस बात को
पहले मजाक समझा जात था। क्योंकि इससे क्या फर्क पड़ेगा, आप एक दफा पानी को
डिस्टिल कर लें फिर दोबारा उस पानी को भाप बनाकर डिस्टिल्ड़ करलें। फिर तीसरी
बार, फिर चौथी बार, क्या फर्क पड़ेगा। लेकिन पानी डिस्टिल्ड़ ही रहेगा। लेकिन अब विज्ञान ने
स्वीकार किया है कि इसमें क्वालिटी बदलती है। अब विज्ञान ने स्वीकार किया कि वह
एक हजार बार प्रयोग करने पर उस पानी में विशिष्टता आ जाती है। अब वह कहां से आती
है अब तक साफ नहीं है। लेकिन वह पानी विशेष
हो जाता है। लाख बार भी उसको करने के प्रयोग है और तब वह और विशेष हो जाता है। अब
आदमी के शरीर में हैरान होंगे जानकर आप, कि पचहत्तर प्रतिशत पानी हे। थोड़ा बहुत
नहीं पचहत्तर प्रतिशत,और जो पानी है उस पानी को कैमिकल
ढंग वहीं है। जो समुद्र के पानी का है। इस लिए नमक के बिना आप मुश्किल में पड़
जाते हे।
आपके शरीर के भीतर जो पानी है उसमें नमक
की मात्रा उतनी ही होनी चाहिए जितनी समुद्र के पानी में है। अगर इस पानी की व्यवस्था
को भीतर बदला जा सके तो आपकी चेतना की व्यवस्था को बदलने में सुविधा होती है। तो
लाख बार डिस्टिल्ड़ किया हुआ पानी अगर पिलाया जा सके तो आपके भीतर बहुत सी वृतियों
में एकदम परिर्वतन होगा। अब यह अल्क मिस्ट हजारों प्रयोग ऐसे कर रहे थे। अब एक लाख
दफा पानी को डिस्टिल्ड़ करने में सालों लग जाते है। और एक आदमी चौबीस
घंटे यही काम कर रहा था।
इसके दोहरे परिणाम होते है। एक तो उस
आदमी का चंचल मन ठहर जाता था। क्योंकि यह ऐसा काम था। जिसमें चंचल होने का उपाय
नहीं था। रोज सुबह से सांझ तक वह यही कर रहा था। थक कर मर जाता था। और दिन भर उसने
किया क्या, हाथ में कुल इतना है कि पानी को उसने पच्चीस दफा डिस्टिल्ड़ कर लिया।
वर्षों बीत जाते,वह आदमी पानी ही
डिस्टिल्ड़ करता रहता। हमें सोचने में कठिनाई होगी, पहले थोड़े दिन में हम ऊब जाएंगे, ऊबेंगे तो हम बंद कर
देंगे। यह मजे की बात है जब जहां भी ऊब आ जाए वहीं टर्निंग प्वाइंट होता है। अगर आपने
बंद कर दिया तो आप अपनी पुरानी स्थिति में लौट जाते है। और अगर जारी रखा तो आप
नयी चेतना को जनम दे लेते हे।......क्रमश: अगले अंक में।
मैं कहता आंखन देखी--ओशो
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