समस्त विपरीतताओं का विलय—परमात्मा में—(प्रवचन—पांचवां)
अध्याय—13
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यजज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।। 12।।
सर्वत: पाणियादं तत्सर्वतोउक्षिशिरोमखम्।
सर्वत: श्रुतिमल्लेके सर्वमावृत्य तिष्ठति।। 13।।
सर्वोन्द्रयगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभक्तृ च।। 14।।
और हे अर्जुन, जो जानने योग्य है तथा जिसकी जानकर मनुष्य अमृत और परमानंद को प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूंगा। वह आदिरहित परम बह्म अकथनीय होने से न सत कहा जाता है और न असत ही कहा जाता है। परंतु वह सब ओर से हाथ—पैर वाला एवं सब ओर नैत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर से श्रोत बाला हे, क्योंकि वह संसार में सब को व्याप्त करके स्थित है। और संपूर्ण इंद्रिंयों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है। तथा आसक्तिरीहत है और गुणों से अतीत हुआ भी अपनी योगमाया से सब को धारण—पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला है।
पहले कुछ प्रश्न।
एक मित्र ने पूछा है कि श्रद्धा क्या है और अंध— श्रद्धा क्या है?
गीता के इस अध्याय को समझने में यह प्रश्न भी अंध—श्रद्धा से अर्थ है, वस्तुत: जिसमें श्रद्धा न हो, सिर्फ ऊपर—ऊपर से श्रद्धा कर ली गई हो। भीतर से आप भी जानते हों कि श्रद्धा नहीं है, लेकिन किसी भय के कारण या किसी लोभ के कारण या मात्र संस्कार के कारण, समाज की शिक्षा के कारण स्वीकार कर लिया हो।
ऐसी श्रद्धा के पास आंखें नहीं हो सकतीं। क्योंकि आंखें तो तभी उपलब्ध होती हैं श्रद्धा को, जब हृदय उसके साथ हो। तो अंध—श्रद्धा बुद्धि की ही बात है। यह थोड़ा समझना पड़ेगा।
क्यौंकि आमतौर से लोग समझते हैं कि अंध—श्रद्धा हृदय की बात है, बुद्धि की नहीं। अंध—श्रद्धा बुद्धि की ही बात है; श्रद्धा हृदय की बात है। बुद्धि सोचती है लाभ—हानि, हित—अहित, परिणाम, और उनके हिसाब से श्रद्धा को निर्मित करती है।
आप भगवान में श्रद्धा रखते हैं। इसलिए नहीं कि आपके हृदय का कोई तालमेल परमात्मा से हो गया है, बल्कि इसलिए कि भय मालूम पड़ता है। बचपन से डराए गए हैं कि अगर परमात्मा को न माना, तो कुछ अहित हो जाएगा। यह भी समझाया गया है कि परमात्मा को माना, तो स्वर्ग मिलेगा, पुण्य होगा, भविष्य में सुख पाएंगे।
मन डरता है। मन भयभीत होता है। मन लोभ के पीछे दौड़ता है। लेकिन भीतर गहरे में आप जानते हैं कि आपका परमात्मा से कोई संबंध नहीं है।
यह जो ऊपर की श्रद्धा है, जबरदस्ती आरोपित श्रद्धा है, यह अंधी होगी। क्योंकि हृदय का तालमेल न हो, तो आंख नहीं हो सकती। और ऐसी श्रद्धा सदा ही तर्क से डरेगी, यह उसकी पहचान होगी। ऐसी श्रद्धा सदा ही तर्क से डरेगी, क्योंकि भीतर तो पता ही है कि परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। वह है या नहीं, यह भी पता नहीं है। ऊपर—ऊपर से माना है। अगर कोई खंडन करने लगे, तर्क देने लगे, तो भीतर भय होगा। भय दूसरे से नहीं होता, भीतर अपने ही छिपा होता है।
अगर मेरी श्रद्धा ऊपर—ऊपर है, अंधी है, तो मैं डरूंगा कि कोई मेरी श्रद्धा न काट दे। कोई विपरीत बातें न कह दे। विपरीत बातों से डर नहीं आता। क्योंकि मेरी श्रद्धा कमजोर है, इसलिए डर है कि टूट न जाए। और मेरी श्रद्धा ऊपर—ऊपर है, फट सकती है, छिद्र हो सकते हैं। और छिद्र हो जाएं, तो मेरे भीतर जो अश्रद्धा छिपी है, उसका मुझे दर्शन हो जाएगा।
ध्यान रहे, दुनिया में कोई आदमी आपको संदेह में नहीं डाल सकता। संदेह में डाल ही तब सकता है, जब संदेह आपके भीतर भरा हो। और श्रद्धा की पर्त भर हो ऊपर। पर्त तोड़ी जा सकती है, तो संदेह आपका बाहर आ जाएगा।
जो आस्तिक नास्तिक से भयभीत होता है, वह आस्तिक नहीं है। और जो आस्तिक डरता है कि कहीं ईश्वर के विपरीत कोई बात सुन ली, तो कुछ खतरा हो जाएगा, वह आस्तिक नहीं है, उसे अभी आस्था उपलब्ध नहीं हुई; वह अपने से ही डरा हुआ है। वह जानता है कि कोई भी जरा—सा कुरेद दे, तो मेरे भीतर का संदेह बाहर आ जाएगा। वह संदेह बाहर न आए, इसलिए वह पागल की तरह अपने भरोसे के लिए लड़ता है।
अंधे लोग लड़ते हैं, उद्विग्न हो जाते हैं, उत्तेजित हो जाते हैं। वे आपका सिर तोड्ने को राजी हो जाएंगे, लेकिन आपकी बात सुनने को राजी नहीं होंगे। वे केवल एक ही बात की खबर दे रहे हैं, वे आपसे नहीं डरे हुए हैं, वे खुद अपने से डरे हुए हैं। और कहीं आप उनकी उनसे ही मुलाकात न करवा दें, इससे आपसे डरे हुए हैं। अंध— श्रद्धा लोभ और भय से जन्मती है, श्रद्धा अनुभव से जन्मती है। और जो आदमी अंध— श्रद्धा में पड़ जाएगा, उसकी श्रद्धा सदा के लिए बांझ हो जाएगी, उसे श्रद्धालु होने का मौका ही नहीं मिलेगा। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि नास्तिक होना बेहतर है, बजाय झूठे आस्तिक होने के। क्योंकि नास्तिक होने में एक सच्चाई तो है कि आप कहते हैं, मुझे पता नहीं है। जिस बात का मुझे पता नहीं है, मैं भरोसा नहीं करूंगा। और एक संभावना है नास्तिक के लिए कि अगर उसे कभी पता चलना शुरू हो जाए, तो वह भरोसा करेगा। लेकिन जिसने झूठा भरोसा कर रखा है, वह सच्चे भरोसे तक कैसे पहुंचेगा? झूठा भरोसा उसे यह खयाल दिला देता है कि मुझे तो श्रद्धा उपलब्ध हो गई है।
इस जमीन पर धर्म का न होना इसी कारण है, क्योंकि लोग झूठे आस्तिक हैं, इसलिए सच्ची आस्तिकता उपलब्ध नहीं हो पाती। और जब तक हम झूठी आस्तिकता का भरोसा रखेंगे, तब तक जमीन अधार्मिक रहेगी। आप अपने से ही पूछें, सच में आपको ईश्वर में कोई भरोसा है?
मेरे एक शिक्षक थे, नास्तिक थे। उनकी मरण—तिथि पर मैं उनके घर मौजूद था। बहुत बीमार थे, उनको देखने गया था। फिर उनके चिकित्सक ने कहा कि एक—दो दिन से ज्यादा बचने की उम्मीद नहीं है, तो रुक गया था। नास्तिक थे सदा के, कभी मंदिर नहीं गए। ईश्वर की बात से ही चिढ़ जाते थे। धर्म का नाम किसी ने लिया कि वे विवाद में उतर जाते थे। लेकिन मरने की थोड़ी ही घडीभर पहले मैंने देखा कि वे राम—राम, राम—राम जप रहे हैं। धीमे— धीमे उनके होंठ हिल रहे हैं।
तो मैंने उन्हें हिलाया और मैंने पूछा, यह क्या कर रहे हैं आखिरी वक्त? तो उन्होंने बड़ी दयनीयता से मेरी तरफ देखा और उनके आखिरी शब्द ये थे कि आखिरी वक्त भय पकड़ रहा है। पता नहीं, ईश्वर हो, तो हर्ज क्या है राम—राम कर लेने में! नहीं हुआ तो कोई बात नहीं; अगर हुआ तो आखिरी क्षण स्मरण कर लिया।
यह भयभीत चित्त है। इसलिए अक्सर बूढ़े लोग आस्तिक हो जाते हैं। मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में बूढ़े स्त्री—पुरुष दिखाई पड़ते हैं। और पुरुषों की बजाय स्त्रियां ज्यादा दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि स्त्रियां ज्यादा भयभीत होती हैं। और का होते—होते हर आदमी स्त्रैण हो जाता है और भयभीत होने लगता है, डरने लगता है। हाथ—पैर कैंपने लगते हैं। जवानी का भरोसा चला जाता है। मौत करीब आने लगती है। जैसे—जैसे मौत करीब आती है, भय की छाया बढ़ती है। भय की छाया बढ़ती है, तो भगवान का भरोसा बढ़ता है।
यह भरोसा झूठा है। इस भरोसे का असलियत से कोई संबंध नहीं है। यह तो डर से पैदा हो रहा है। और डर से जो पैदा हो रहा है, उससे कोई क्रांति नहीं हो सकती जीवन में।
बच्चों को हम डराकर धार्मिक बना लेते हैं। और सदा के लिए इंतजाम कर देते हैं कि वे कभी धार्मिक न हो पाएंगे। बच्चों को डराया जा सकता है। मां—बाप शक्तिशाली हैं; समाज शक्तिशाली है, शिक्षक शक्तिशाली है। हम बच्चों को डर के आधार पर मंदिरों में झुका देते हैं, मस्जिदों में नमाज पढूवा देते हैं, प्रार्थना करवा देते हैं। बच्चे मजबूरी में, डर की वजह से झुक जाते हैं, प्रार्थना कर लेते हैं। और फिर यह भय ही उन्हें सदा झुकाए रखता है।
लेकिन इस कारण कभी सच्ची श्रद्धा का जन्म नहीं होता। जिस आदमी को नकली हीरे—मोती असली मालूम पड़ गए, वह असली की खोज ही नहीं करेगा।
धार्मिक व्यक्ति भय से प्रभावित नहीं होता, न लोभ से आंदोलित होता है। धार्मिक व्यक्ति तो सत्य की तलाश में होता है। और उस तलाश के लिए कोई दूसरी प्रक्रिया है। उस तलाश के लिए ऊपर—ऊपर से थोपने का कोई उपाय नहीं है, न कोई लाभ है। उस तलाश के लिए भीतर उतरने की जरूरत है। आप जिस दिन अपने भीतर उतरना सीख जाएंगे, उसी दिन आपको सम्यक श्रद्धा भी उपलब्ध होने लगेगी।
जो व्यक्ति अपने भीतर जितना गहरा जाएगा, परमात्मा में उसकी उतनी ही श्रद्धा हो जाएगी। जो व्यक्ति अपने से बाहर जितना भटकेगा, वह कितनी ही परमात्मा की बातें करे, उसकी श्रद्धा झूठी और अंधी होगी।
परमात्मा तक पहुंचने की एक ही सीढ़ी है, वह आप स्वयं हैं। न तो किसी मंदिर में जाने से उसकी श्रद्धा पैदा होगी? न किसी मस्जिद में जाने से पैदा होगी। उसका मंदिर, उसकी मस्जिद, उसका गुरुद्वारा आप हैं। वह आपके भीतर छिपा है। आप जैसे—जैसे अपने भीतर उतरेंगे, वैसे—वैसे उसका स्वाद, उसका रस, उसका अनुभव आने लगेगा। और उस अनुभव के पीछे जो श्रद्धा जन्मती है, वही
श्रद्धा है। लेकिन नकली सिक्कों से जो राजी हो गया, वह भीतर कभी जाता नहीं।
झूठी श्रद्धा की कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि जिस पर हम भरोसा कर रहे हैं, वह भीतर बैठा है। उस पर भरोसा करने की कोई जरूरत नहीं है, उसका तो अनुभव ही किया जा सकता है। और जिसका अनुभव किया जा सकता है, उसका भरोसा क्या करना? क्या जरूरत?
आप सूरज पर विश्वास नहीं करते। कोई आपसे पूछे कि आपकी सूरज में श्रद्धा है? तो आप हंसेंगे कि आप कैसा व्यर्थ का सवाल पूछते हैं! सूरज है; श्रद्धा का क्या सवाल? श्रद्धा का सवाल तो तभी उठता है उन चीजों के संबंध में, जिनका आपको पता नहीं है।
आपसे कोई नहीं पूछता कि आपकी पृथ्वी में श्रद्धा है? पृथ्वी है, श्रद्धा का क्या सवाल है। लेकिन लोग पूछते हैं, ईश्वर में श्रद्धा है? आत्मा में श्रद्धा है? और आप कभी नहीं सोचते कि ये भी असंगत सवाल हैं। लेकिन आप कहते हैं, श्रद्धा है या नहीं है। क्योंकि जिन चीजों के संबंध में पूछा जा रहा है, वे आपको अनुभव की नहीं मालूम होतीं।
लेकिन धर्म का यही आग्रह है कि वे भी उतने ही अनुभव की है, जितना पृथ्वी और सूरज; शायद इससे भी ज्यादा अनुभव की हैं। क्योंकि यह तो हो भी सकता है कि सूरज का हमें भ्रम हो रहा हो। क्योंकि सूरज बाहर है और हमारा उससे सीधा मिलना कभी नहीं होता।
वैज्ञानिक कहते हैं कि हम किसी भी चीज को सीधा नहीं देख सकते। सूरज को आपने कभी देखा नहीं है आज तक। क्योंकि सूरज को आप देखेंगे कैसे सीधा? सूरज की किरणें आती हैं, वे आपकी आंख पर पड़ती हैं। वे किरणें आपकी आंख में रासायनिक परिवर्तन पैदा करती हैं। वे रासायनिक परिवर्तन आपके भीतर विद्युत—प्रवाह पैदा करते हैं। वे विद्युत—प्रवाह आप तक पहुंचते हैं, उनकी चोट। वह चोट आपको अनुभव होती है।
आज तक सूरज कभी आपने देखा नहीं। सूरज को देखने का कोई उपाय नहीं है। अभी आप मुझे देख रहे हैं। लेकिन मैं आपको दिखाई नहीं पड़ रहा। आपको दिखाई तो भीतर रासायनिक परिवर्तन हो रहे हैं। सीधा पदार्थ को अनुभव करने का कोई उपाय नहीं है। बीच में इंद्रियों की मध्यस्थता है।
इसलिए यह तो हो भी सकता है कि सूरज न हो। सूरज के संबंध में जो श्रद्धा है, वह कामचलाऊ है। लेकिन स्वयं का अनुभव अगर हो जाए तो जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह कामचलाऊ नहीं है। वह आत्यंतिक, अल्टिमेट है। उसमें फिर कोई संदेह नहीं हो सकता। सिर्फ एक अनुभव है स्वयं की आत्मा का, जो असंदिग्ध कहा जा सकता है; बाकी सब अनुभव संदिग्ध हैं। सब में धोखा हो सकता है।
पिछले महायुद्ध में एक सैनिक फ्रास के एक अस्पताल में भरती हुआ। उसके पैर में भयंकर चोट पहुंची थी और असह्य पीड़ा थी और पीड़ा के कारण वह बेहोश हो गया था। चिकित्सकों ने देखा कि उसका पैर बचाना असंभव है, और अगर पैर नहीं काट दिया गया, तो पूरे शरीर में भी जहर फैल सकता है। इसलिए घुटने के नीचे का हिस्सा उन्होंने काट दिया। वह बेहोश था।
सुबह जब उसे होश आया, तो उसके पास खड़ी नर्स से उसने पहली बात यही कही कि मेरे पैर में बहुत तकलीफ हो रही है, मेरे पंजे में असह्य पीड़ा है। पंजा तो था नहीं। इसलिए पीड़ा तो हो नहीं सकती पंजे में। पैर तो काट दिया था। लेकिन उसे तो पता नहीं था, वह तो बेहोशी में था। होश आते ही उसने जो पहली बात कही, उसने कहा कि मेरे पंजे में बहुत पीड़ा है। वह तो बंधा कंबल में पड़ा हुआ है। उसे कुछ पता नहीं है।
नर्स हंसने लगी। उसने कहा कि फिर से थोड़ा सोचो। सच में पंजे में पीड़ा है? उस आदमी ने कहा, इसमें भी कोई झूठ होने का सवाल है? असह्य पीड़ा हो रही है मुझे। उस नर्स ने कहा, लेकिन तुम्हारा पैर तो काट दिया गया है, इसलिए यह तो माना नहीं जा सकता कि तुम्हारे पंजे में पीड़ा हो रही है। जो पंजा अब है ही नहीं, उसमें पीड़ा कैसे हो सकती है?
नर्स ने कंबल उघाड़ दिया। उस आदमी ने देखा, उसके घुटने के नीचे का पैर तो कट गया है। लेकिन उसने कहा कि मैं देख रहा हूं कि मेरे घुटने के नीचे का पैर कट गया है, लेकिन फिर भी मुझे पंजे में ही पीड़ा हो रही है; मैं क्या कर सकता हूं!
डाक्टर बुलाए गए। उन्होंने बड़ी खोजबीन की। यह पहला मौका था कि कोई आदमी ऐसी पीड़ा की बात कर रहा है, जो अंग ही न बचा हो! आपका सिर किसी ने काट दिया और आप कह रहे हैं, सिर में दर्द हो रहा है! पैर बचा ही नहीं, तो पंजे में दर्द नहीं हो सकता। घुटने में दर्द हो सकता है, क्योंकि वहां से काटा गया है। लेकिन वह आदमी कहता है, घुटने में मुझे दर्द नहीं, मुझे दर्द तो पंजे में है।
तो उसका बहुत अन्वेषण किया गया। और पाया गया कि दर्द जब आपके पंजे में होता है, तो उससे सीधा तो आपकी मुलाकात होती नहीं। पंजे से स्नायुओं का जाल फैला हुआ है मस्तिष्क तक। वे स्नायु कंपते हैं, उनके कंपन से आपको दर्द का पता चलता है। पंजा तो काट दिया गया। लेकिन जो स्नायु पंजे के दर्द में कंपना शुरू हुए थे, वे अब भी कैप रहे हैं। इसलिए उनके कारण उस आदमी को खबर मिल रही है कि पंजे में दर्द हो रहा है। पंजा नहीं है, और पंजे में दर्द हो रहा है!
उस आदमी के अन्वेषण से यह तय हुआ कि बाहर से जो भी घटनाएं आपको मिल रही हैं, उनके बाबत पक्का नहीं हुआ जा सकता। निश्चित नहीं है; संदिग्ध है। बिना पंजे के दर्द हो सकता है। बिना आदमी के मौजूद आपको आदमी दिखाई पड़ सकता है। अगर आपके भीतर वे ही स्नायु कंपित कर दिए जाएं, जो आदमी के मौजूद होने पर कंपित होते हैं, तो आपको आदमी दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा।
अभी उन्होंने चूहों पर बहुत—से प्रयोग किए। स्लेटर ने एक यंत्र छोटा—सा बनाया है। जब कोई व्यक्ति, पुरुष—स्त्री, पशु—पक्षी, कोई भी संभोग करता है, तो संभोग में जो रस आता है वह रस कहां आता है? क्योंकि संभोग तो घटित होता है यौन—केंद्र के पास और रस आता है मस्तिष्क में, तो जरूर मस्तिष्क में कोई तंतु कंपते होंगे जिनके कारण रस आता है।
तो स्लेटर ने उन तंतुओं की खोज की चूहों में। और उसने एक छोटा—सा यंत्र बनाया। और मस्तिष्क से इलेक्ट्रोड जोड़ दिए बिजली के तार जोड़ दिए। और जैसे ही वह बटन दबाता, चूहा वैसे ही आनंदित होने लगता, जैसा संभोग में होता है। फिर तो उसने एक ऐसा यंत्र बनाया कि बटन चूहे के सामने ही लगा दी। और चूहे को ही अनुभव हो गया। जब चूहे ने बार—बार बटन स्लेटर को दबाते देखा और उसे आनंद आया भीतर, तो चूहा खुद बटन दबाने लगा। फिर तो स्लेटर ने लिखा है कि चूहे ने खाना—पीना सब बंद कर दिया। वह एकदम बटन दबाता ही चला जाता, जब तक कि बेहोश न हो जाता। एक चूहे ने छ: हजार बार बटन दबाया। दबाता ही गया। दबाएगा, आनंदित होगा, फिर दबाएगा, फिर आनंदित होगा। छ: हजार बार उसने संभोग का रस लिया। और संभोग तो हो नहीं रहा; मस्तिष्क में तंतु हिल रहे हैं।
स्लेटर का कहना है कि यह यंत्र अगर कभी विकसित हुआ, तो मनुष्य संभोग से मुक्त भी हो सकता है। लेकिन यह खतरनाक यंत्र है। अगर चूहा छ: हजार बार दबाता है, तो आप साठ हजार बार दबाके। चूहे को इतना रस आ रहा है, तो चूहों की कामुकता के बाबत कोई बहुत ज्यादा खबर नहीं है, लेकिन आदमी तो बहुत कामुक मालूम होता है। वह तो फिर दबाता ही रहेगा। चूहा भी जब तक बेहोश होकर नहीं गिर गया, एक्सास्टेड, तब तक वह दबाता ही रहा।
जो कुछ भी बाहर घटित हो रहा है, वह आपके मस्तिष्क में पहुंचता है तंतुओं के द्वारा। इसलिए उसके बाबत सचाई नहीं है कि बाहर सच में घटित हो रहा है या सिर्फ तंतु खबर दे रहे हैं। आपको धोखे में डाला जा सकता है।
सिर्फ अनुभव तो एक है असंदिग्ध, जिस पर श्रद्धा हो सकती है। और वह अनुभव है भीतर का, जो इंद्रियों के माध्यम से घटित नहीं होता। जिसका सीधा साक्षात्कार होता है।
तो जितना कोई व्यक्ति अपने भीतर उतरता है, उतना ही परमात्मा में श्रद्धा बढ़ती है। इसलिए महावीर ने तो कहा है, परमात्मा की बात ही मत करो। सिर्फ आत्मा को जान लो और तुम परमात्मा हो जाओगे। इसलिए महावीर ने परमात्मा की बात के लिए भी मना कर दिया। न तो उसकी बात करो, न उस पर श्रद्धा करो। तुम सिर्फ आत्मा को जान लो और तुम परमात्मा हो जाओगे। क्योंकि उसके जानने में ही वह अनुभव तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा, जो परम और आत्यंतिक है।
श्रद्धा का अर्थ है, अनुभव पर आधारित। अंध— श्रद्धा का अर्थ है, लोभ, भय पर आधारित। आप अपने भीतर खोज करें कि आपकी श्रद्धाएं लोभ पर आधारित हैं, भय पर आधारित हैं या अनुभव पर आधारित हैं। अगर लोभ और भय पर आधारित हैं, तो आप अंध— श्रद्धा में जी रहे हैं।
और जो अंध—श्रद्धा में जी रहा है वह धार्मिक नहीं है, और वह बड़े खतरे में है। वह अपने जीवन को ऐसे ही नष्ट कर देगा। श्रद्धा में जीने की शुरुआत ही धार्मिक होने की शुरुआत है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि कल आपने कहा कि एक के प्रति अनन्य प्रेम व श्रद्धा को अव्यभिचारिणी की संज्ञा दी तथा अनेक के प्रति प्रेम व श्रद्धा को व्यभिचारिणी कहा। साधारणत: स्थिति उलटी लगती है। अर्थात एक के प्रति प्रेम मोह व आसक्ति बन जाती है और अनेक के प्रति प्रेम मुक्ति व प्रेम का विस्तार तथा प्रार्थना बन जाती है। दूसरी बात यह कि अनेक को प्रेम कर पाना प्रेम का विस्तार व विकास लगता है, व्यभिचारी भाव नहीं। इस विरोधाभास के संबंध में कुछ कहें।
दो बातें हैं। एक तो एक और अनंत, और इन दोनों के बीच में है अनेक। या तो अनंत को प्रेम करें, तो मुक्त हो जाएंगे। और या एक को प्रेम करें, तो मुक्त हो जाएंगे। अनेक उलझा देगा। अनेक व्यभिचार है, अनंत नहीं। या तो एक को प्रेम करें कि सारा प्रेम एक पर आ जाए। इसलिए नहीं कि एक का प्रेम मुक्त करेगा। कल भी मैंने कहा, एक पर अगर प्रेम करेंगे, तो आप भीतर एक हो जाएंगे।
प्रेम तो कला है स्वयं को रूपांतरित करने की। अगर एक को प्रेम किया, तो आप एक हो जाएंगे। और या फिर अनंत को प्रेम करें, तो आप अनंत हो जाएंगे।
लेकिन अनेक को प्रेम मत करें, नहीं तो आप खंड—खंड हो जाएंगे।
एक का प्रेम मोह बन सकता है, अनेक का प्रेम भी मोह बनेगा; सिर्फ जरा बदलता हुआ मोह रहेगा। एक का प्रेम आसक्ति बन सकता है, तो अनेक का प्रेम भी आसक्ति बनेगा। और एक का प्रेम जब इतनी आसक्ति और इतना कष्ट देता है, तो अनेक का प्रेम और आसक्ति और भी ज्यादा कष्ट देगा।
लोग सोचते हैं कि अनेक को प्रेम करने से प्रेम मुक्त होगा, गलत खयाल में हैं। और जो भी वैसा सोचते हैं, वे असल में रुग्ण हैं। जैसे लार्ड बायरन, इस तरह के लोग, डान जुआन टाइप के लोग, जो एक को प्रेम, दो को प्रेम, तीन को प्रेम, इसी चक्कर में भटकते रहते हैं।
पहले तो लोग सोचते थे, मनोवैज्ञानिक भी सोचते थे कि जो डान जुआन टाइप का आदमी जो है, यह बड़ा प्रेमी है। इसके पास इतना प्रेम है कि एक व्यक्ति पर नहीं चुकता, इसलिए बहुत—से व्यक्तियों को प्रेम करता फिरता है। लेकिन अब मनसविद मानते हैं कि यह रुग्ण है। बहुत प्रेम नहीं है, प्रेम है ही नहीं। इसको प्रेम करना ही नहीं आता। और इसलिए केवल व्यक्तियों को बदलता चला जाता है। और जितना आप व्यक्तियों को बदलेंगे, उतना छिछला हो जाएगा प्रेम। क्योंकि गहराई के लिए समय चाहिए। और गहराई के लिए आत्मीयता चाहिए। और गहराई के लिए निकट साहचर्य चाहिए।
अगर एक व्यक्ति रोज एक स्त्री बदल लेता है और प्रेम करता चला जाता है, तो उसका प्रेम शरीर से गहरा कभी भी नहीं हो पाएगा। क्योंकि शरीर से ज्यादा संबंध ही नहीं हो पाएगा। मन तो तब संबंधित होता है, जब दो व्यक्ति सुख—दुख में साथ रहते हैं। और आत्मा तो तब संबंधित होती है, जब धीरे— धीरे, धीरे— धीरे दूसरे की मौजूदगी भी पता नहीं चलती कि दूसरा मौजूद है। जब दो व्यक्ति एक कमरे में इस भाति होते हैं, जैसे एक ही व्यक्ति हो, दो हैं ही नहीं, तब कहीं भीतर की आत्मा का संबंध स्थापित होता है। एक का प्रेम आसक्ति बन सकता है। जरूरी नहीं है कि बने। बनाने वाले पर निर्भर करता है। और जो एक के साथ आसक्ति बना लेगा, वह अनेक के साथ भी आसक्ति बना लेगा। एक के साथ प्रेम प्रार्थना भी बन सकता है। वह बनाने वाले पर निर्भर है।
जिस व्यक्ति को आप प्रेम करते हैं, अगर वह प्रेम केवल शरीर का ही प्रेम न हो, अगर उसके भीतर के मनुष्यत्व का और उसके भीतर की आत्मा का भी प्रेम हो, और धीरे— धीरे बाहर गौण हो जाए और भीतर प्रमुख हो जाए; और धीरे— धीरे उसका आकार और रूप भूल जाए और उसका निराकार और निर्गुण स्मरण में रहने लगे, तो वह प्रेम प्रार्थना बन गया।
और अच्छा है कि एक के साथ ही यह प्रेम प्रार्थना बने। क्योंकि एक के साथ गहराई आसान है; अनेक के साथ गहराई आसान नहीं है। अनेक के साथ प्रेम ऐसा ही है, जैसे एक आदमी एक हाथ जमीन यहां खोदे, दो हाथ जमीन कहीं और खोदे, तीन हाथ जमीन कहीं और खोदे, और जिंदगीभर इस तरह खोदता रहे और कुआं कभी भी न बने। क्योंकि कुआं बनाने के लिए एक ही जगह खोदते जाना जरूरी है। साठ हाथ, सौ हाथ एक ही जगह खोदे, तो शायद जल—स्रोत उपलब्ध हो पाए।
दो व्यक्तियों के बीच अगर गहरा प्रेम हो, तो वे एक ही जगह खोदते चले जाते हैं। खोदते—खोदते एक दिन शरीर की पर्त टूट जाती है, मन की पर्त भी टूट जाती है और एक—दूसरे के भीतर के चैतन्य का संस्पर्श शुरू होता है। पति—पत्नी अगर गहरे प्रेम में हों, तो एक—दूसरे में परमात्मा को खोज ले सकते हैं। दो प्रेमी परमात्मा को खोज ले सकते हैं। उनका प्रेम धीरे— धीरे प्रार्थना बन जाएगा। लेकिन अगर यह लगता हो कि इसमें खतरा है, तो खतरा इस कारण नहीं लगता कि एक व्यक्ति के प्रति प्रेम में खतरा है। खतरा अपने ही किसी दोष के कारण लगता है।
तो दूसरा उपाय है। और वह दूसरा उपाय है, अनंत के प्रति प्रेम। तब फिर एक का खयाल ही छोड़ दें; अनेक का भी खयाल छोड़ दें। फिर रूप का खयाल ही छोड़ दें, शरीर का खयाल ही छोड़ दें। फिर तो अनंत का, शाश्वत का, जो चारों तरफ मौजूद निराकार है, उसके प्रेम में लीन हों। फिर पत्थर से भी प्रेम हो, वृक्ष से भी प्रेम हो, आकाश में घूमते हुए बादल के टुकड़े से भी प्रेम हो। फिर व्यक्तियों का सवाल न रहे; फिर अनंत के साथ प्रेम हो। तो भी व्यभिचार पैदा न होगा।
एक के साथ अव्यभिचार हो सकता है और अनंत के साथ अव्यभिचार हो सकता है। दोनों के बीच में व्यभिचार पैदा होगा। और आदमी बहुत बेईमान है। और अपने को धोखा देने में बहुत कुशल है। अभी पश्चिम में इसकी बहुत तेज हवा है। क्योंकि पश्चिम में मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि एक के साथ प्रेम जड़ता बन जाता है, कुंठा बन जाता है, अवरोध हो जाता है; प्रेम तो मुक्त होना चाहिए। और मुक्त प्रेम मुक्ति लाएगा। तो उसका परिणाम केवल गहरी अनैतिकता है। न तो कोई मुक्ति आ रही है, न कोई प्रेम आ रहा है, न कोई प्रार्थना आ रही है। लोग व्यक्तियों को बदलते जा रहे हैं और व्यक्तियों के साथ एक तरह का खिलवाड़ शुरू हो गया है। वह जो पवित्रता है, वह जो आत्मीयता है, उसका उपाय ही नहीं रहा। आज एक स्त्री है, कल दूसरी स्त्री है। आज एक पति है, कल दूसरा पति है। पति—पत्नी का भाव ही गिरता जा रहा है। दो व्यक्तियों के बीच जैसे क्षणभर का संबंध है। न कोई दायित्व है, न कोई गहरा लगाव है, न कोई कमिटमेंट। नहीं, कुछ भी नहीं है। एक ऊपर के तल पर मिलना—जुलना है। यह मिलना—जुलना खतरनाक है। और इसके परिणाम पश्चिम में प्रकट होने शुरू हो गए हैं।
आज पश्चिम में प्रेम की इतनी चर्चा है, और प्रेम बिलकुल नहीं है। क्योंकि प्रेम के लिए अनिवार्य बात थी कि एक व्यक्ति के साथ गहरी संगति हो। और एक व्यक्ति के प्रति ऐसा भाव हो कि जैसे उस व्यक्ति के अतिरिक्त अब तुम्हारे लिए जगत में और कोई नहीं है, तो ही उस व्यक्ति में गहरे उतरना संभव हो पाएगा।
कृष्ण ने जो कहा है, अव्यभिचारिणी भक्ति, उसका प्रयोजन यही है।
एक मित्र को मैं जानता हूं। वे कहते हैं, कुरान भी ठीक, गीता भी ठीक, बाइबिल भी ठीक, सभी ठीक। मस्जिद भी ठीक, मंदिर भी ठीक। लेकिन न तो उन्हें मंदिर में रस है और न मस्जिद में; न गीता में, न कुरान में। सबको ठीक कहने का मतलब ऐसा नहीं है कि वे जानते हैं कि सब ठीक है। सबको ठीक कहने का मतलब यह है कि हमें कोई मतलब ही नहीं है। सभी ठीक है। उपेक्षा का भाव है। कोई रस नहीं है, कोइ लगाव नहीं है। एक इनडिफरेंस है। इस उपेक्षा से कोई आस्तिकता तो पैदा होगी नहीं। क्योंकि इस उपेक्षा से कोई काम ही नहीं हो सकता। न मंदिर में झुकते हैं वे, न मस्जिद में झुकते हैं।
यह भी हो सकता है, ऐसे लोग भी हैं, जो मंदिर के सामने भी झुक जाते हैं, मस्जिद के सामने भी झुक जाते हैं। लेकिन उनका झुकना औपचारिक है। लेकिन एक अनन्य भाव नहीं है।
वह जो आदमी कहता है कि नहीं, मस्जिद में ही भगवान हैं; भला हमें उसकी बात जिद्दपूर्ण मालूम पड़े, और परम ज्ञान की दृष्टि से जिद्दपूर्ण है। परम ज्ञान की दृष्टि से मंदिर में भी है, मस्जिद में भी है, गुरुद्वारा में भी है। लेकिन परम ज्ञान की दृष्टि से! वह अभी परम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ है। अभी तो उचित है कि उसका एक के प्रति ही पूरा भाव हो। वह अभी मंदिर में ही पूरा डूब जाए या मस्जिद में ही पूरा डूब जाए।
जिस दिन वह मस्जिद में पूरा डूब जाएगा, उस दिन मस्जिद में ही मंदिर भी प्रकट हो जाएगा। लेकिन वह बाद की बात है। अभी मस्जिद में भी डूबा नहीं, मंदिर में भी डूबा नहीं। और वह कहता है, सब ठीक है। मंदिर में भी सिर झुका लेता हूं मस्जिद में भी सिर झुका लेता हूं। उसका हृदय कहीं भी नहीं झुकेगा।
यह ऐसा है, जैसे आपका किसी स्त्री से प्रेम हो जाए। जब आपका किसी स्त्री से प्रेम हो जाता है,. तो आपको लगता है, ऐसी सुंदर स्त्री जगत में दूसरी नहीं है। यह कोई सच्ची बात नहीं है। क्योंकि न तो आपने सारी जगत की स्त्रियां देखी हैं, न जांच—परख की है, न तौला है। यह वक्तव्य गलत है। और यह आप कैसे कह सकते हैं बिना दुनियाभर की स्त्रियों को जाने हुए कि तुझसे सुंदर कोई भी नहीं है!
लेकिन आपकी भाव—दशा यह है। अगर आज सारी दुनिया की स्त्रियां भी खड़ी हों, तो भी आपको यही लगेगा कि यही स्त्री सबसे ज्यादा सुंदर है। सौंदर्य स्त्री में नहीं होता, आपके प्रेम के भाव में होता है। और जब किसी स्त्री पर आपका प्रेम— भाव आरोपित हो जाता है, तो वही सुंदर है। सारा जगत फीका हो जाता है। इस क्षण में, इस भाव—दशा में, यही सत्य है।
और आप ज्ञान की बातें मत करें, कि आप कहें कि नहीं, दूसरी स्त्री भी सुंदर है; यह भी सुंदर है और सभी सुंदर हैं। सुंदर तो सभी हैं। और यह बात कहनी ठीक नहीं है, क्योंकि गणित के हिसाब से ठीक नहीं बैठती। तो आप कभी प्रेम में ही न पड़ पाएंगे। और अगर सच में आप प्रेम में पड़ जाएं, तो उस क्षण में एक स्त्री, एक पुरुष आपको परम सुंदर मालूम पड़ेगा।
उसमें अगर आप लीन हो सकें, तो धीरे— धीरे स्त्री का व्यक्तित्व खो जाएगा। और स्त्रैण तत्व का सौंदर्य दिखाई पड़ने लगेगा। और गहरे उतरेंगे, तो स्त्रैण तत्व भी खो जाएगा, सिर्फ चैतन्य का सौंदर्य अनुभव में आने लगेगा। जितने गहरे उतरेंगे, सीमा टूटती जाएगी और असीम प्रकट होने लगेगा। लेकिन प्राथमिक क्षण में तो यही भाव पैदा होगा कि इससे ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं है।
बहुत बार धार्मिक, सामाजिक सुधार करने वाले लोग, बहुत तरह के नुकसान पहुंचा देते हैं। वे समझा देते हैं, अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। वे बिलकुल ठीक कह रहे हैं। और फिर भी गलत कह रहे हैं। क्योंकि जिस आदमी को ऐसा लग गया, अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, न तो अल्लाह के प्रति डूबने की क्षमता आएगी और न राम के प्रति डूबने की क्षमता आएगी।
प्राथमिक क्षण में तो ऐसा मालूम होना चाहिए कि अल्लाह ही सत्य है, राम वगैरह सब व्यर्थ। या राम ही सत्य है, अल्लाह वगैरह सब व्यर्थ। प्राथमिक क्षण में तो यह प्रेम का ही भाव होना चाहिए। अंतिम अनुभव में पता चल जाएगा, शिखर पर पहुंचकर, कि सभी रास्ते यहीं आते हैं।
लेकिन जमीन पर बैठा हुआ आदमी, जो पहाड़ पर चढ़ा नहीं, वह कहता है, सभी रास्ते वहीं जाते हैं। फिर वह चलेगा कैसे! चलना तो एक रास्ते पर होता है। सभी रास्तों पर कोई भी नहीं चल सकता। चलने के लिए तो यह भाव होना चाहिए कि यही रास्ता जाता है, बाकी कोई रास्ता नहीं जाता। तो ही हिम्मत, उत्साह पैदा होता है। लेकिन जो चला नहीं है, बैठा है अभी दरवाजे पर ही यात्रा के, वह कहता है, सभी रास्ते वहां जाते हैं। वह चल ही नहीं पाएगा, पहला कदम ही नहीं उठेगा।
तो जो अंतिम रूप से सत्य है, वह प्रथम रूप से सत्य हो, यह जरूरी नहीं है। और जो प्रथम रूप से सत्य मालूम होता है, वह अंत में भी बचेगा, यह भी जरूरी नहीं है।
आखिर में तो न अल्लाह उसका नाम है और न राम उसका नाम है। उसका कोई नाम ही नहीं है। लेकिन प्राथमिक रूप से तो कोई एक नाम को ही पकड़कर चलना, अगर चलना हो। अगर बैठना हो, तो सभी नाम बराबर हैं। जिस आदमी को चलना नहीं है, वह आदमी इस तरह की बातें कर सकता है। लेकिन जिसको चलना है, उसका सिर तो एक जगह झुकना चाहिए। क्योंकि झुकने के लिए जो अनन्य भाव न हो, तो पूरा समर्पण नहीं हो सकता।
मस्जिद में गया हुआ आदमी सोचता है, मंदिर भी ठीक, गिरजा भी ठीक, गुरुद्वारा भी ठीक, तो झुक नहीं सकता। वह जो झुकने की दशा चाहिए कि डूब जाए पूरा, वह नहीं हो सकता। वह तो होगा अनन्य भाव से।
तो कृष्ण जो कहते हैं अव्यभिचारिणी भक्ति, उसका अर्थ है, एक के प्रति। फिर सवाल यह नहीं है कि वह अल्लाह के प्रति हो, कि राम के प्रति हो, कि बुद्ध के प्रति हो, कि महावीर के प्रति हो, यह सवाल नहीं है। किसी के प्रति हो, वह एक के प्रति हो।
इस संबंध में यह बात समझ लेनी जरूरी है कि दुनिया के जो पुराने दो धर्म हैं, यहूदी और हिंदू बाकी सब धर्म उनकी ही शाखाएं हैं। इस्लाम, ईसाइयत यहूदी धर्म की शाखाएं हैं। जैन, बौद्ध हिंदू धर्म की शाखाएं हैं। लेकिन मौलिक धर्म दो हैं, हिंदू और यहूदी। और दोनों के संबंध में एक बात सच है कि दोनों ही नान—कनवर्टिग हैं। न तो यहूदी पसंद करते हैं कि किसी को यहूदी बनाया जाए समझा—बुझाकर। और न हिंदू पसंद करते रहे हैं कि किसी को समझा—बुझाकर हिंदू बनाया जाए। दोनों की मान्यता यह रही है कि किसी की भी जो अनन्य श्रद्धा हो, उससे उसे जरा भी हिलाया न जाए। उसकी जो श्रद्धा हो, वह उसी श्रद्धा से आगे बढ़े। और अगर कोई व्यक्ति आधे जीवन में परिवर्तित कर लिया जाए, तो उसकी श्रद्धा कभी भी अनन्य न हो पाएगी।
एक बच्चा हिंदू की तरह पैदा हुआ और तीस साल तक हिंदू भाव में बड़ा हुआ। और फिर तीस साल के बाद उसे यहूदी बना दिया जाए। वह यहूदी भला बन जाए, लेकिन भीतर हिंदू रहेगा, ऊपर यहूदी रहेगा। और ये दो परतें उसके भीतर रहेंगी। इन दो परतों के कारण वह कभी भी एक भाव को और एक समर्पण को उपलब्ध नहीं हो पाएगा।
इसलिए दुनिया के ये पुराने दो धर्म नान—कनवर्टिंग थे। इन्होंने कहा, हम किसी को बदलेंगे नहीं। अगर कोई बदलने को भी आएगा, तो भी बहुत विचार करेंगे, बहुत सोचेंगे, समझेंगे—तब। जहां तक तो कोशिश यह करेंगे उसको समझाने की कि वह बदलने की चेष्टा छोड़ दे। वह जहां है, जिस तरफ चल रहा है, वहीं अनन्य भाव से चले। वहीं से पहुंच जाए।
इसमें बड़ी समझने की बात है, बहुत विचारने की बात है। क्योंकि व्यक्ति को हम जितनी ज्यादा दिशाएं दे दें, उतना ही ज्यादा चलना मुश्किल कर देते हैं।
कृष्ण का यह कहना कि तू अनन्य भाव से एक के प्रति समर्पित हो जा, इसका प्रयोजन है। क्योंकि तब तू भीतर भी एक और इंटिग्रेटेड हो जाएगा। और वह जो तेरे भीतर एकत्व घटित होगा, वही तुझे परमात्मा की तरफ ले जाने वाला है।
अगर यह बात ठीक न लगती हो, तो अनेक विकल्प नहीं है। विकल्प है फिर, अनंत। तो फिर अनंत के प्रति समर्पित हो जाएं। दो के बीच चुनाव कर लें। लेकिन अनेक खतरनाक है। अनेक दोनों के बीच में है, और उससे व्यभिचार पैदा होता है। और आप खंड—खंड हो जाते हैं, टूट जाते हैं। और आपका टूटा हुआ व्यक्तित्व किसी भी गहरी यात्रा में सफल नहीं हो सकता।
अब हम सूत्र लें।
और हे अर्जुन, जो जानने के योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य अमृत और परम आनंद को प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूंगा।
जो जानने के योग्य है..।
इसे थोड़ा हम खयाल में ले लें। बहुत—सी बातें जानने की इच्छा पैदा होती है, जिज्ञासा पैदा होती है, कुतूहल पैदा होता है। लेकिन हम यह कभी नहीं सोचते कि सच में वे बातें जानने योग्य भी हैं या नहीं। कुतूहल काफी नहीं है। क्योंकि कुतूहल से कुछ हल न होगा, समय और शक्ति व्यय होगी।
बहुत—सी बातें हम जानने की कोशिश करते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि जानकर क्या करेंगे। बच्चों जैसी उत्सुकता है। अगर बच्चों को साथ ले जाएं, तो वे कुछ भी पूछेंगे, कुछ भी सवाल उठाते जाएंगे। और ऐसा भी नहीं है कि सवालों से उन्हें कुछ मतलब है। अगर आप जवाब न दें, तो एक—दो क्षण बाद वे दूसरा सवाल उठाएंगे। पहले सवाल को फिर न उठाएंगे।
बच्चों की तो बात छोड़ दें। मेरे पास बड़े—बूढ़े आते हैं, उनसे भी मैं चकित होता हूं। आते हैं सवाल उठाने। कहते हैं कि बड़ी जिज्ञासा है। और मैं दो मिनट कुछ और बातें करता हूं फिर वे घंटेभर बैठते हैं, लेकिन दुबारा वह सवाल नहीं उठाते। फिर वे चले जाते हैं। वह सवाल कुछ मूल्य का नहीं था। वह सिर्फ कुतूहल था, क्यूरिआसिटी थी।
अभी तो पश्चिम के वैज्ञानिक भी यह सोचने लगे हैं कि हमें विज्ञान के कुतूहल पर भी रोक लगानी चाहिए। क्योंकि विज्ञान कुछ भी पूछे चला जाता है, कुछ भी खोजे चला जाता है, बिना इसकी फिक्र किए कि इसका परिणाम क्या है? इससे होगा क्या? इसको जान भी लेंगे, तो क्या होगा?
जानने को तो बहुत है, और आदमी के पास समय तो थोड़ा है। जानने को तो अनंत है, और आदमी की तो सीमा है। जानने के तो कितने आयाम हैं, और अगर आदमी ऐसा ही जानता रहे सभी रास्तों पर, तो खुद समाप्त हो जाएगा और कुछ भी जान न पाएगा। तो कृष्ण कहते हैं, जो जानने योग्य है..।
जिसको जानने का मन होता है, वह जानने योग्य है, जरूरी नहीं है। फिर जानने योग्य क्या है? क्या है परिभाषा जानने योग्य की? जानने की जिज्ञासा तो बहुत चीजों की पैदा होती है—यह भी जान लें, यह भी जान लें, यह भी जान लें।
कृष्ण कहते हैं—और भारत की पूरी परंपरा कहती है—कि जानने योग्य वह है, जिसको जानने पर फिर कुछ जानने को शेष न रह जाए। अगर फिर भी जानने को शेष रहे, तो वह जानने योग्य नहीं था। उससे तो प्रश्न थोड़ा आगे हट गया और कुछ हल न हुआ। बर्ट्रेड रसेल ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि जब मैं बच्चा था और मेरी पहली दफा उत्सुकता दर्शन में बढ़ी, तो मैं सोचता था, दर्शनशास्त्र में सभी प्रश्नों के उत्तर हैं। नब्बे वर्ष का का होकर अब मैं यह कह सकता हूं कि मेरी धारणा बिलकुल गलत थी और परिणाम बिलकुल दूसरा निकला है। दर्शनशास्त्र के पास उत्तर तो हैं ही नहीं, सिवाय प्रश्नों के। और पहले मैं सोचता था कि खोज करने से प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे, और नब्बे वर्ष तक मेहनत करके अब मैं पाता हूं कि खोज करने से एक प्रश्न में से' दस प्रश्न निकल आते हैं, उत्तर वगैरह कुछ भी मिलता नहीं है।
पूरे दर्शनशास्त्र का इतिहास पुराने प्रश्नों में से नए प्रश्न निकालने का इतिहास है। उत्तर कुछ भी नहीं है। और जो लोग उत्तर देने की कोशिश भी करते हैं, उनका उत्तर भी कोई मानता नहीं है। उन उत्तर में से भी दस प्रश्न लोग खड़े करके पूछने लगते हैं। एक प्रश्न दूसरे प्रश्न को जन्म देता है, उत्तर कहीं दिखाई नहीं पड़ते। कारण कुछ होगा। और कारण यही है।
धर्म पूछता है उसी प्रश्न को, जो पूछने योग्य है। और जानना चाहता है वही, जो जानने योग्य है। और दर्शनशास्त्र जानना चाहता है कुछ भी, जो भी जानने योग्य लगता है; जिसमें भी कुतूहल पैदा हो जाता है।
दर्शनशास्त्र खुजली की तरह है। खुजाने का मन होता है, इसकी बिना फिक्र किए कि परिणाम क्या होगा। खुजाते वक्त अच्छा भी लगता है। लेकिन फिर लहू निकल आता है और पीड़ा होती है! धर्म कहता है, खुजाने के पहले पूछ लेना जरूरी है कि परिणाम क्या होगा। जिस जानने से और जानने के सवाल उठ जाएंगे, वह जानना व्यर्थ है। पर एक ऐसा जानना भी है, जिसको जानकर सब जानने की दौड़ समाप्त हो जाती है। वह कब होगी? उस बात को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। आखिर आदमी जानना ही क्यों चाहता है?
इसे हम ऐसा समझें कि अगर कोई मृत्यु न हो, तो दुनिया में दर्शनशास्त्र होगा ही नहीं। मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, जीवन क्या है? मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, शरीर ही सब कुछ तो नहीं है, आत्मा भीतर है या नहीं? मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, जब शरीर गिर जाएगा तो क्या होगा? मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, परमात्मा है या नहीं है?
थोड़ी कल्पना करें एक ऐसे जगत की, जहां मृत्यु नहीं है, जीवन शाश्वत है। वहां न तो आप पूछेंगे आत्मा के संबंध में, न परमात्मा के संबंध में। वहा दर्शनशास्त्र का जन्म ही नहीं होगा।
सारा दर्शनशास्त्र मृत्यु से जन्मता है।
इसलिए धर्म कहता है, जब तक अमृत का पता न चल जाए, तब तक तुम्हारे प्रश्नों का कोई अंत न होगा, क्योंकि तुम मृत्यु के कारण पूछ रहे हो। जब तक तुम्हें अमृत का पता न चल जाए, तब तक तुम पूछते ही रहोगे, पूछते ही रहोगे। और कोई भी उत्तर दिया जाए, हल न होगा, जब तक कि अमृत का अनुभव न मिल जाए। इसलिए बुद्ध अक्सर कहते थे उनके पास आए लोगों से, कि तुम प्रश्नों के उत्तर चाहते हो या समाधान? जो भी आदमी आता उसको तो एकदम से समझ में भी न पड़ता कि फर्क क्या है? कोई आदमी आकर पूछता कि ईश्वर है या नहीं? तो बुद्ध कहते, तू उत्तर चाहता है कि समाधान? तो वह आदमी तो पहले चौंकता ही कि दोनों में फर्क क्या है? तो बुद्ध कहते, उत्तर अगर चाहिए, तो उत्तर तो हां या न में दिया जा सकता है, कि ईश्वर है या ईश्वर नहीं है। लेकिन तुझे उत्तर मिलेगा नहीं। क्योंकि मेरे कहने से क्या होगा! उत्तर तो मैं दे सकता हूं; समाधान तुझे खोजना पड़ेगा। उत्तर तो ऐसे मुफ्त मिल सकता है, समाधान साधना से मिलेगा। उत्तर तो ऊपरी होगा, समाधान आंतरिक होगा। तो तू ईश्वर है या नहीं, इसका उत्तर चाहता है कि समाधान? उत्तर चाहिए, तो शास्त्र में भी मिल जाएगा। और अगर समाधान चाहिए, तो फिर साधना की तैयारी करनी पड़ेगी। समाधान तो तेरे रूपांतरण से होगा।
तो कृष्ण कहते हैं, जो जानने योग्य है और जिसको जानकर मनुष्य अमृत को प्राप्त होता है..।
वही जानने योग्य है, जिसको जानकर आदमी अमृत को प्राप्त होता है। और अमृत परमानंद है, मृत्यु दुख है।
हमारे सभी दुखों के पीछे मृत्यु छिपी है। अगर आप खोज करेंगे, तो आप जिन बातों को भी दुख मानते हैं, उन सबके पीछे मृत्यु की छाया मिलेगी। चाहे ऊपर से दिखाई भी न पड़े, थोड़ा खोज करेंगे, तो पाएंगे, सभी दुखों के भीतर मृत्यु छिपी है। जहां भी मृत्यु की झलक मिलती है, वहीं दुख आ जाता है।
बुढ़ापे का दुख है, बीमारी का दुख है, असफलता का दुख है, सब मृत्यु का ही दुख है। धन छिन जाए, तो दुख है; वह भी मृत्यु का ही दुख है। क्योंकि धन से लगता है, इस जीवन को सुरक्षित करेंगे। धन छिन गया, असुरक्षित हो गए।
मकान जल जाए, तो दुख होता है। वह भी मकान के जलने का दुख नहीं है। मकान की दीवारों के भीतर मालूम होता था, सब ठीक है, सुरक्षित है। मकान के बाहर आकाश के नीचे खड़े होकर मौत ज्यादा करीब मालूम पड़ती है।
धन पास में न हो, तो मौत पास मालूम पड़ती है। धन पास में हो, तो मौत जरा दूर मालूम पड़ती है। धन की दीवार बीच में खड़ी हो, तो हम मौत को टाल सकते हैं, कि अभी कोई फिक्र नहीं; देखेंगे। और फिर धन हमारे पास है, कुछ न कुछ इंतजाम कर लेंगे। चिकित्सा हो सकती है, डाक्टर हो सकता है। कुछ होगा। हम मृत्यु को पोस्टपोन कर सकते हैं। वह हो या न, यह दूसरी बात है। लेकिन हम अपने मन में सोच सकते हैं कि इतनी जल्दी नहीं है कुछ, कुछ उपाय किया जा सकता है। धन पास में न हो, प्रियजन पास में न हों, अकेले आप खड़े हों आकाश के नीचे, मकान जल गया हो, मौत एकदम पास मालूम पड़ेगी।
सफल होता है आदमी, तो मौत बहुत दूर मालूम पड़ती है। असफल होता है आदमी, तो खयाल आने लगते हैं उदासी के, मरने का भाव होने लगता है।
जहां भी दुख है, समझ लेना कि वहां मौत कहीं न कहीं से झांक रही है।
तो हम मृत्यु को जानते हुए और मृत्यु में जीते हुए कभी भी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकते। हम भुला सकते हैं अपने को, कि मौत दूर है, लेकिन दूर से भी उसकी काली छाया पड़ती ही रहती है। हमारे सभी सुखों में मौत की छाया आकर जहर घोल देती है, कितने ही सुखी हों। बल्कि सच तो यह है कि सुख के क्षण में भी मौत की झलक बहुत साफ होती है, क्योंकि सुख के क्षण में भी तत्क्षण दिखाई पड़ता है कि क्षणभर का ही है यह सुख। वह जो क्षणभर का दिखाई पड़ रहा है, वह मौत की छाया है।
पढ़ रहा था मैं हरमन हेस के बाबत। जिस दिन उसे नोबल प्राइज मिली, उसने अपने मित्र को एक पत्र में लिखा है कि एक क्षण को मैं परम आनंदित मालूम हुआ। लेकिन एक क्षण को! और तत्क्षण उदासी छा गई, अब क्या होगा? अभी तक एक आशा थी कि नोबल प्राइज। वह मिल गई; अब? घनघोर अंधेरा घेर लिया। अब जीवन व्यर्थ मालूम पड़ा, क्योंकि अब कुछ पाने योग्य भी नहीं। मौत करीब दिखाई पड़ने लगी।
आदमी दौड़ता रहता है, जब तक सुख नहीं मिलता। जब मिलता है, तब अचानक दिखाई पड़ता है, अब? अब क्या होगा? जिस स्त्री को पाना था, वह मिल गई। जिस मकान को बनाना था, वह मिल गया। बेटा चाहिए था, बेटा पैदा हो गया। अब?
सुख के क्षण में सुख क्षणभंगुर है, तत्क्षण दिखाई पड़ जाता है। सुख के क्षण में सुख जा चुका, यह अनुभव में आ जाता है। सुख के क्षण में दुःख मौजुद हो जाता है।
मौत सब तरफ से घेरे हुए है, इसलिए कृष्ण कहते हैं, अमृत और परमानंद को जिससे प्राप्त हो जाए, वही ज्ञान है। और ऐसी जानने योग्य बातें मैं तुझसे अच्छी प्रकार कहूंगा।
वह आदिरहित परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सत कहा जाता है और न असत ही कहा जाता है।
यह बहुत सूक्ष्म बात है। थोड़ा ध्यानपूर्वक समझ लेंगे।
वह आदिरहित परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सत कहा जाता है और न असत ही कहा जाता है।
परमात्मा को हम न तो कह सकते कि वह है, और न कह सकते कि वह नहीं है। कठिन बात है। क्योंकि हमें तो लगता है, दोनों बातों में से कुछ भी कहिए तो ठीक है, समझ में आता है। या तो कहिए कि है, या कहिए कि नहीं है। दुनिया में जो आस्तिक और नास्तिक हैं, वे इसी विवाद में होते हैं।
इसलिए अगर कोई पूछे कि गीता आस्तिक है या नास्तिक? तो मैं कहूंगा, दोनों नहीं है। कोई पूछे कि वेद आस्तिक हैं या नास्तिक? तो मैं कहूंगा, दोनों नहीं हैं। धार्मिक हैं, आस्तिक—नास्तिक नहीं हैं।
क्योंकि आस्तिकता—नास्तिकता तो जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लेती हैं। आस्तिक कहता है, ईश्वर है। नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है। लेकिन दोनों एक ही भाषा का उपयोग कर रहे हैं। आस्तिक कहता है, है में हमने ईश्वर को पूरा कह दिया। और नास्तिक कहता है कि नहीं है में हमने पूरा कह दिया। उनमें फर्क शब्दों का है। लेकिन दोनों दावा करते हैं कि हमने पूरे ईश्वर को कह दिया।
गीता कहती है कि कोई भी शब्द उसे पूरा नहीं कह सकता। क्योंकि शब्द छोटे हैं और वह बहुत बड़ा है। हम कहेंगे है, तो भी आधा कहेंगे, क्योंकि नहीं होना भी जगत में घटित होता है। वह भी तो परमात्मा में ही घटित हो रहा है। नहीं है अगर परमात्मा के बाहर हो, तो इसका अर्थ हुआ कि जगत के दो हिस्से हो गए। कुछ परमात्मा के भीतर है, और कुछ परमात्मा के बाहर है। तब तो परमात्मा दो हो गए; तब तो जगत विभाजित हो गया।
अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ जीवन है, तो फिर मौत किस में होगी? और अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ सुख है, तो दुख किस में होगा? और अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ स्वर्ग है, तो फिर नर्क कहां होगा? फिर हमें नर्क को अलग बनाना पड़ेगा परमात्मा से। उसका अर्थ हुआ कि हमने अस्तित्व को दो हिस्सों में तोड़ दिया। और अस्तित्व दो हिस्सों में टूटा हुआ नहीं है, अस्तित्व एक है।
परमात्मा ही जीवन है और परमात्मा ही मृत्यु। दोनों है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, वह अकथनीय है। क्योंकि जब कोई चीज दोनों हो, तो अकथनीय हो जाती है। कथन में तो तभी तक होती है, जब तक एक हो और विपरीत न हो।
अरस्तु ने कहा है कि आप दोनों विपरीत बातें एक साथ कहें, तो वक्तव्य व्यर्थ हो जाता है।
जैसे कि अगर आप मुझसे पूछें कि आप यहां हैं या नहीं हैं 7 मैं कहूं कि मैं यहां हूं भी और नहीं भी हूं तो वक्तव्य व्यर्थ हो गया। अदालत आपसे पूछे कि आपने हत्या की या नहीं की? और आप
कहें, हत्या मैंने की भी है और मैंने नहीं भी की है, तो आपका वक्तव्य व्यर्थ हो गया। क्योंकि दोनों विपरीत बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
अरस्तु का तर्क कहता है, एक ही बात सही हो सकती है। और यही बुनियादी फर्क है, भारतीय चितना में और यूनानी चितना में, पश्चिम और पूरब के विचार में।
पश्चिम कहता है कि विपरीत बातें साथ नहीं हो सकती हैं, कंट्राडिक्टरीज साथ नहीं हो सकते। या तो ऐसा होगा, या वैसा होगा; दोनों एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए पश्चिम कहता है, या तो कहो गॉड इज, ईश्वर है; या कहो गॉड इज नाट, ईश्वर नहीं है। लेकिन गीता कहती है, गॉड इज एंड इज नाट, बोथ, ईश्वर है भी, नहीं भी है।
वह सत भी है, असत भी है, या तो यह उपाय है कहने का। और या दूसरा उपाय यह है कि न तो वह सत है, और न वह असत है। और चूंकि दोनों को एक साथ उपयोग करना पड़ता है, इसलिए अकथनीय है; कहा नहीं जा सकता। कहने में आधे को ही कहना पड़ता है। क्योंकि भाषा द्वंद्व पर निर्भर है, भाषा द्वैत पर निर्भर है, भाषा विरोध पर निर्भर है। भाषा में अगर दोनों विरोध एक साथ रख दिए जाएं, तो व्यर्थ हो जाता है, अर्थ खो जाता है। इसलिए अकथनीय है। लेकिन क्यों नहीं कहा जा सकता ईश्वर को कि है?
थोड़ा समझें। हम कह सकते हैं, टेबल है, कुर्सी है, मकान है। इसी तरह हम कह नहीं सकते कि ईश्वर है। क्योंकि मकान कल नहीं हो जाएगा। कुर्सी कल जलकर राख हो जाएगी, मिट जाएगी। टेबल परसों नहीं होगी। मकान आज है, कल नहीं था। जब हम कहते हैं, मकान है, तो इसमें कई बातें सम्मिलित हैं। कल मकान नहीं था, और कल मकान फिर नहीं हो जाएगा। और जब हम कहते हैं, ईश्वर है, तो क्या हम ऐसा भी कह सकते हैं कि कल ईश्वर नहीं था और कल ईश्वर नहीं हो जाएगा?
हर है के दोनों तरफ नहीं होता है। मकान कल नहीं था, कल फिर नहीं होगा, बीच में है। हर है के दोनों तरफ नहीं होता है। इसलिए ईश्वर है, यह कहना गलत है। क्योंकि उसके दोनों तरफ नहीं नहीं है। वह कल भी था, परसों भी था। कल भी होगा, परसों भी होगा। वह सदा है।
तो जो सदा है, उसको है कहना उचित नहीं। क्योंकि हम है उन चीजों के लिए कहते हैं, जो सदा नहीं हैं। और जिसके लिए है कहना ही उचित न हो, उसके लिए नहीं है कहने का तो कोई अर्थ नहीं रह जाता।
ईश्वर अस्तित्व ही है। नहीं और है, दोनों उसमें समाविष्ट हैं। उसका ही एक रूप है है; और उसका ही एक रूप नहीं है। कभी वह प्रकट होता है, तब है मालूम होता है। और कभी अप्रकट हो जाता है, तब नहीं है मालूम होता है।
एक बीज है। अगर मैं आपसे पूछूं कि बीज में वृक्ष है या नहीं? तो आपको कहना पड़ेगा कि दोनों बातें हैं। क्योंकि बीज में वृक्ष है, इस अर्थ में, कि वृक्ष हो सकता है, अगर हम बो दें, तो वृक्ष हो जाएगा। जो कल हो सकता है, वह आज भी कहीं न कहीं छिपा होना चाहिए, नहीं तो कल होगा कैसे। फिर कोई बीज बो देने से हर कोई वृक्ष नहीं हो जाएगा। जो वृक्ष छिपा है, वही होगा। नहीं तो हम आम बो दें और नीम पैदा हो जाए। नीम बी दें और आम पैदा हो जाए। लेकिन नीम से नीम पैदा होगी। इसका एक मतलब साफ है कि नीम में नीम का ही वृक्ष छिपा था। जो बीज है आज, वह कल वृक्ष हो सकता है, इसलिए वृक्ष उसमें है—अव्यक्त, अप्रकट, अनमैनिफेस्ट।
फिर कल वृक्ष हो गया। अगर मैं आपसे पूछूं कि बीज कहां है? कल बीज था, वृक्ष छिपा था। आज वृक्ष है, बीज छिप गया। बीज अब भी है, लेकिन अब छिप गया। अप्रकट है। लेकिन हम कहेंगे, बीज नहीं है।
नहीं अप्रकट रूप है, और है प्रकट रूप है। ईश्वर दोनों है, कभी प्रकट है, कभी अप्रकट है। जगत उसका है रूप है, पदार्थ उसका है रूप है, और आत्मा उसका नहीं रूप है।
यह थोड़ा जटिल है। इसलिए बुद्ध ने आत्मा को नथिंगनेस कहा है, नहीं। यह जो दिखाई पड़ता है, यह परमात्मा का है रूप है। और जो भीतर नहीं दिखाई पड़ता है, वह उसका नहीं रूप है। और जब तक दोनों को हम न जान लें, तब तक हम मुक्त नहीं हो सकते। है को तो हम जानते हैं, नहीं है को भी जानना होगा। इसलिए ध्यान मिटने का उपाय है, नहीं होने का उपाय है। प्रेम मिटने का उपाय है, नहीं होने का उपाय है। समर्पण, भक्ति, श्रद्धा, सब मिटने के उपाय हैं, ताकि नहीं रूप को भी आप जान लें।
जो न सत है, जो न असत है, या जो दोनों है, वह अकथनीय है। उसे कहा नहीं जा सकता। इसलिए सभी शास्त्र उस संबंध में बहुत कुछ कहकर भी यह कहते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता। हमारा सब कहना बच्चों की चेष्टा है। हमारा सब कहना प्रयास है आदमी का, कमजोर आदमी का, सीमित आदमी का। जैसे कोई आकाश को मुट्ठी में बांधने की कोशिश कर रहा हो।
निश्चित ही, मुट्ठी में भी आकाश ही होता है। जब आप मुट्ठी बांधते हैं, तो जो आपके भीतर है मुट्ठी के, वह भी आकाश ही है। लेकिन फिर भी क्या आप उसको आकाश कहेंगे? क्योंकि आकाश तो यह विराट है।
आपकी मुट्ठी में भी आकाश ही होता है, लेकिन पूरा आकाश नहीं होता। क्योंकि आपकी मुट्ठी भी आकाश में ही है, पूरे आकाश को मुट्ठी नहीं घेर सकती। मुट्ठी आकाश से बड़ी नहीं हो सकती। मनुष्य की चेतना परमात्मा को पूरा अपनी मुट्ठी में नहीं ले पाती, क्योंकि मनुष्य की चेतना स्वयं ही परमात्मा के भीतर है। फिर भी हम कोशिश करते हैं। उस कोशिश में थोड़ी—सी झलकें मिल सकती हैं। लेकिन झलक भी तभी मिल सकती है, जब कोई सहानुभूति से समझने की कोशिश कर रहा हो। अगर जरा भी सहानुभूति की कमी हो, तो झलक भी नहीं मिलेगी, झलक भी खो जाएगी।
शब्द असमर्थ हैं। लेकिन अगर सहानुभूति हो, तो शब्दों में से कुछ सार—सूचना मिल सकती है।
परंतु वह सब ओर से हाथ—पैर वाला एवं सब ओर से नेत्र, सिर और मुख वाला है तथा सब ओर से श्रोत वाला है, क्योंकि वह संसार में सब को व्याप्त करके स्थित है।
लेकिन इसका यह मतलब मत समझना कि वह अकथनीय है, निराकार है, निर्गुण है, न कहा जा सकता सत, न असत, तो हमसे सारा संबंध ही छूट गया। फिर आदमी को लगता है कि ऐसी चीज, शून्य जैसी, उससे हमारा क्या लेना—देना! फिर हम किसके सामने रो रहे हैं? और किससे प्रार्थना कर रहे हैं? और किसकी पूजा कर रहे हैं? और किसके प्रति समर्पण करें? जो न है, न नहीं है, जो अकथनीय है। कृष्ण खुद जिसको कहने में समर्थ न हों, उसके बाबत बात ही क्या करनी है! फिर बेहतर है, हम अपने काम—काज की दुनिया में लगे रहें। ऐसे अकथनीय के उपद्रव में हम न पड़ेंगे। क्योंकि जिसे कहा नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, उससे संबंध भी क्या निर्मित होगा!
तो तत्क्षण दूसरे वचन में ही कृष्ण कहते हैं, परंतु वह सब ओर से हाथ—पैर वाला, सब ओर से नेत्र, सिर, मुख वाला, कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त कर के स्थित है।
जैसे उसका प्रकट और अप्रकट रूप है, वैसे ही उसका आकार और निराकार रूप है। जैसा उसका निराकार और आकार रूप है, वैसा ही उसका सगुण और निर्गुण रूप है। वह दोनों है, दोनों विपरीतताएं एक साथ। इसलिए अगर कोई चाहे तो उससे बात कर सकता है। कोई चाहे तो उसके कान में बात डाल सकता है। कोई कान आपके सामने नहीं आएगा। लेकिन अगर आप पूरे हृदयपूर्वक उससे कुछ कहें, तो उस तक पहुंच जाएगा, क्योंकि सभी तरफ उसके कान हैं।
कृष्ण यह कह रहे हैं, सब ओर से कान वाला, सब ओर से हाथ वाला......।
अगर आप हृदयपूर्वक अपने हाथ को उसके हाथ में दे दें, असंदिग्ध मन से, तो शून्य आकाश भी उसका हाथ बन जाएगा। और आपके हाथ को वह सम्हाल लेगा। लेकिन यह निर्भर आप पर है। क्योंकि अगर यह हृदय पूरा हो, तो यह घटना घट जाएगी, क्योंकि सब कुछ वही है। हर जगह उसका हाथ उठ सकता है। हर हवा की लहर उसका हाथ बन सकती है। लेकिन वह बनाने की कला आपके भीतर है। अगर यह श्रद्धा पूरी हो, तो यह घटना घट जाएगी। लेकिन अगर जरा—सा भी संदेह हो, तो यह घटना नहीं घटेगी।
लोग कहते हैं कि हमारा संदेह तो तब मिटेगा, जब घटना घट जाए। वे भी ठीक ही कहते हैं। संदेह तभी मिटेगा, जब घटना घट जाए। लेकिन तब बड़ी कठिनाई है। कठिनाई यह है कि जब तक संदेह न मिटे, घटना भी नहीं घटती। यह बड़ी उलझन की बात है। मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक बार नदी में तैरना सीखने गया। लेकिन पहली दफा पानी में उतरा और गोता खा गया, और मुंह में पानी चला गया, और नाक में पानी उतर गया। तो घबड़ाकर बाहर निकल आया। उसने कहा, कसम खाता हूं भगवान की, अब जब तक तैरना न सीख लूं पानी में न उतरूंगा।
लेकिन जो उसे सिखाने ले गया था, उसने कहा, नसरुद्दीन, अगर यह कसम तुम्हारी पक्की है, तो तुम तैरना सीखोगे कैसे? क्योंकि जब तक तुम पानी में न उतरो, तैरना न सीख पाओगे। और तुमने खा ली कसम कि जब तक तैरना न सीख लूं पानी में न उतरूंगा। अब बड़ी मुश्किल हो गई। पानी में उतरोगे, तभी तैरना भी सीख सकते हो।
थोड़ा डूबने की, गोता खाने की तैयारी चाहिए। थोड़ा जीवन को संकट में डालने की तैयारी चाहिए, तो ही कोई तैरना सीख सकता है। अब कोई घाट पर बैठकर तैरना नहीं सीख सकता।
अगर आपको लगता हो कि संदेह तो हम तभी छोड़ेंगे, जब उसका हाथ हमारे हाथ को पकड़ ले, तो बड़ी कठिनाई में हैं आप। क्योंकि उसका हाथ तो सब तरफ मौजूद है। लेकिन जिसका संदेह छूट गया, उसी के लिए हाथ उसकी पकड़ में आता है। आप तभी पकड़ पाएंगे—उसका हाथ तो मौजूद है—आप तभी पकड़ पाएंगे, जब आपका संदेह छूट जाए।
तो कुछ प्रयोग करने पड़ेंगे, जिनसे संदेह छूटे। कुछ प्रयोग करने पड़ेंगे, जिनसे श्रद्धा बढ़े। कुछ प्रयोग करने पड़ेंगे, जिनसे वह खुला आकाश उसके हाथ, उसके कान, उसकी आंखों में रूपांतरित हो जाए।
एक ही बात मेरे खयाल में आती है। खुद पर विश्वास करने की कोई भी जरूरत नहीं है, हमें खुद पर विश्वास होता ही है। आप हैं, इतना पक्का है। ऐसा कोई भी आदमी नहीं है, जिसको यह शक हो कि मैं नहीं हूं।
क्या आपको कभी कोई ऐसा आदमी मिला, जिसको शक हो कि मैं नहीं हूं। इस शक के लिए भी तो खुद का होना जरूरी है। कौन करेगा शक? एक बात असंदिग्ध है कि मैं हूं। इसलिए इस मैं हूं के साथ कुछ प्रयोग करने चाहिए, जो असंदिग्ध है।
और जैसे—जैसे इस मैं हूं में प्रवेश होता जाएगा, वैसे—वैसे ही संदेह बिलकुल समाप्त हो जाएंगे। और जिस दिन मैं हूं की पूरी प्रतीति होती है, हाथ फैला दें, और परमात्मा का हाथ हाथ में आ जाएगा। आंख खोलें, और उसकी आंख आपकी आंख के सामने होंगी। बोलें, और उसके कान आपके होंठों से लग जाएंगे।
कृष्ण कहते हैं, वह सब ओर से हाथ—पैर वाला है, क्योंकि सब को व्याप्त करके वही स्थित है। और संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है।
वह आपके बाहर ही है, ऐसा नहीं है; वह आपके भीतर भी है। हमारा और उसका संबंध ऐसे है, जैसे मछली और सागर का संबंध।
सुना है मैंने, एक दफा एक मछली बड़ी मुसीबत में पड़ गई थी। कुछ मछुए नदी के किनारे बैठकर बात कर रहे थे कि जल जीवन के लिए बिलकुल जरूरी है, जल के बिना जीवन नहीं हो सकता। मछली ने भी सुन लिया। मछली ने सोचा, लेकिन मैं तो बिना जल के ही जी रही हूं। यह जल क्या है? ये मछुए किस चीज की बात कर रहे हैं? तो इसका अर्थ यह हुआ कि अभी तक मुझे जीवन का कोई पता ही नहीं चला! क्योंकि मछुए कहते हैं कि जल के बिना जीवन नहीं हो सकता। जल तो जीवन के लिए अनिवार्य है।
तो मछली पूछती फिरने लगी जानकार मछलियों की तलाश में। उसने बड़ी—बड़ी मछलियों से जाकर पूछा कि यह जल क्या है? उन्होंने कहा, हमने कभी सुना नहीं। हमें कुछ पता नहीं। अगर तुझे पता ही करना है, तो तू नदी की धार में बहती जा। सागर में सुनते हैं कि और बड़ी—बड़ी ज्ञानी मछलियां हैं, वे शायद कुछ बता सकें।
तो मछली यात्रा करती हुई सागर तक पहुंच गई। वहां भी उसने मछलियों से पूछा। एक मछली ने उसे कहा कि ही, पूछने से कुछ सार नहीं है। और एक दफा यह पागलपन मुझे भी सवार हो गया था, कि जल क्या है? सुना था कथाओं में, शास्त्रों में पढ़ा था, कि जल क्या है? लेकिन उसका कोई पता नहीं था। पता तो तब चला जब एक दफे मैं मछुए के जाल में पकड़ गई, और मछुए ने मुझे बाहर खींच लिया। बाहर खिंचते ही पता चला कि जिसमें मैं जी रही थी, वह जल था। तड़पने लगी प्यास से।
तो तुझे अगर जल का पता करना है, तो पूछने से पता नहीं चलेगा। तू छलाग लगाकर किनारे पर थोड़ी देर तड़प ले। क्योंकि जल में ही हम पैदा हुए हैं। जल ही बाहर है और जल ही भीतर है। इसलिए कुछ पता नहीं चलता। दोनों तरफ जल है।
मछली जल ही है; और जल में ही पैदा हुई है; और जल में ही कल क्षीण होकर लीन हो जाएगी। आदमी और परमात्मा के बीच जल और मछली का संबंध है। हम उसी में हैं। इसलिए हम पूछते फिरते हैं, परमात्मा कहां है? खोजते फिरते हैं, परमात्मा कहां है? और वह कहीं नहीं मिलता।
मछली को तो सुविधा है किनारे उतर जाने की, तड़प ले। हम को वह भी सुविधा नहीं है। ऐसा कोई किनारा नहीं है, जहां परमात्मा न हो। इसलिए परमात्मा के बीच रहकर हम परमात्मा से प्यासे रह जाते हैं। वही भीतर है, वही बाहर है।
कृष्ण कहते हैं, संपूर्ण इंद्रियों को जानने वाला भी वही है। भीतर से वही आंख में से देख रहा है। बाहर वही दिखाई पड़ रहा है फूल में। भीतर आंख से वही देख रहा है। और सब इंद्रियों के भीतर से जानते हुए भी सब इंद्रियों से रहित है।
इसका थोड़ा प्रयोग करें, तो खयाल में आ जाए। क्योंकि यह कोई तर्क—निष्पत्ति नहीं है। यह कोई तर्क का वक्तव्य होता, तो हम गणित और तर्क से इसको समझ लेते। ये सभी वक्तव्य अनुभूति—निष्पन्न हैं।
थोड़ा प्रयोग कर के देखें। थोड़ा आंख बंद कर लें और भीतर देखने की कोशिश करें। आप चकित होंगे, थोड़े ही दिन में आपको भीतर देखने की कला आ जाएगी। इसका मतलब यह हुआ कि आंख जब नहीं है, बंद है, तब भी आप भीतर देख सकते हैं।
कान बंद कर लें और थोड़े दिन भीतर सुनने की कोशिश करें। एक घंटेभर कान बंद करके बैठ जाएं और सुनने की कोशिश करें भीतर। पहले तो आपको बाहर की ही बकवास सुनाई पड़ेगी। पहले तो जो आपने इकट्ठा कर रखा है कानों में संग्रह, कान उसी को मुक्त कर देंगे और वही कोलाहल सुनाई पड़ेगा। लेकिन धीरे—धीरे, धीरे— धीरे— धीरे कोलाहल शांत होता जाएगा और एक ऐसी घड़ी आएगी कि आपको भीतर का नाद सुनाई पड़ने लगेगा। वह नाद बिना कान के सुनाई पड़ता है। फिर अगर कोई आपके कान बिलकुल भी नष्ट कर दे, तो भी वह नाद सुनाई पड़ता रहेगा।
अंधा भी आत्मा को देख सकता है। अंधा भी भीतर के अनुभव में उतर सकता है। और बहरा भी ओंकार के नाद को सुन सकता है। लेकिन हम उस दिशा में मेहनत नहीं करते। हम तो बहरे को निंदित कर देते हैं कि तुम बहरे हो, तुम्हारा जीवन व्यर्थ है।
अगर दुनिया कभी ज्यादा समझदार होगी, तो हम बहरे को सिखाएंगे वह कला, जिसमें वह भीतर का नाद सुन ले। क्योंकि बहरा हमसे ज्यादा आसानी से सुन सकता है। क्योंकि हम तो बाहर के कोलाहल में बुरी तरह उलझे होते हैं। बहरे को भीतर का नाद जल्दी सुनाई पड़ सकता है।
और अंधे को भीतर का दर्शन जल्दी हो सकता है। लेकिन हम तो निंदित कर देते र्हैं। क्योंकि हमारी बाहर आंखों की दुनिया है, जो बाहर नहीं देख सकता, वह अंधा है, वह जीवन से व्यर्थ है। जो बाहर नहीं सुन सकता, वह व्यर्थ है। जो बोल नहीं सकता, वह बेकार है। लेकिन भीतर के प्रवेश के लिए मूक होना पड़ता है, बहरा होना पड़ता है और अंधा होना पड़ता है।
और जब कोई अंधा होकर भी भीतर देख लेता है, बहरा होकर भी भीतर सुन लेता है, तब हमें पता चल जाता है कि वह जो भीतर छिपा है, वह इंद्रियों से जानता है, लेकिन इंद्रियों से रहित है। वह इंद्रियों के बिना भी जान सकता है।
तथा आसक्तिरहित और गुणों से अतीत हुआ निर्गुण भी है, अपनी योगमाया से सब का धारण—पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला भी है।
इन सारे वक्तव्यों में विरोधों को जोड्ने की कोशिश की गई है। वह कोशिश यह है कि हम परमात्मा को विभाजित न करें। और हम यह न कहें कि वह ऐसा है और ऐसा नहीं है। वह दोनों है। निर्गुण भी है, और गुणों को भोगने वाला भी है।
मनुष्य के मन को सबसे बड़ी कठिनाई यही है, विपरीत को जोड़ना। हमें तोड़ना तो आता है, जोड़ना बिलकुल नहीं आता। हम तो किसी भी चीज को बड़ी आसानी से तोड़ लेते हैं। तोड्ने में हमें जरा अड़चन नहीं होती। क्योंकि बुद्धि की व्यवस्था ही तोड्ने की है। बुद्धि खडक है। जैसे कि कोई आपने अगर कांच का प्रिज्य देखा हो; तो प्रिज्म से किरण को गुजारें प्रकाश की, वह सात टुकड़ों में टूट जाती है।
इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है वर्षा में, वह इसीलिए दिखाई पड़ता है। वर्षा में कुछ पानी के कण हवा में टंगे रह जाते हैं। सूरज की किरण उन कणों से निकलती है; वे कण प्रिज्य का काम करते हैं। वे किरण को सात टुकड़ों में तोड़ देते हैं। सूरज की किरण तो सफेद है। लेकिन पानी के लटके कणों में से गुजरकर सात टुकड़ों में टूट जाती है। इसलिए आपको इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है।
मनुष्य की बुद्धि भी प्रिज्य का काम करती है और चीजों को तोड़ती है। जब तक आप बुद्धि को हटाकर देखने की कला न पा जाएं, तब तक आपको इंद्रधनुष दिखाई पड़ेगा, चीजें टूटी हुई अनेक रंगों में दिखाई पड़ेगी। अगर आप इस प्रिज्य को हटा लें, तो चीज एक रंग की हो जाती है, सफेद हो जाती है।
सफेद कोई रंग नहीं है। सफेद सब रंगों का जोड़ है। सफेद में सब रंग छिपे हैं। इसलिए स्कूल में बच्चों को सिखाया जाता है, तो एक छोटा—सा चाक बना लेते हैं। चाक में सात रंग की पंखुड़ियां लगा देते हैं। और फिर चाक को जोर से घुमाते हैं। चाक जब जोर से घूमता है, तो सात रंग नहीं दिखाई पड़ते, चाक सफेद रंग का दिखाई पड़ने लगता है। सफेद सातों रंगों का जोड़ है। सातों रंग सफेद के टूटे हुए हिस्से हैं।
जगत इंद्रधनुष है। इंद्रियों से टूटकर जगत का इंद्रधनुष निर्मित होता है। इंद्रियों को हटा दें, मन को हटा दें, बुद्धि को हटा दें, तो सारा जगत शुभ्र, एक रंग का हो जाता है। वहां सभी विरोध मिल जाते हैं। वहां काला और हरा और लाल और पीला, सब रंग एक हो जाते हैं।
यह जो कृष्ण कह रहे हैं, यह इंद्रधनुष मिटाने वाली बातें हैं। वे कह रहे हैं, निर्गुण भी वही, सगुण भी वही, सब गुण उसी के हैं; और फिर भी कोई गुण उसका नहीं है।
इस तरह की बातों को पढ़कर पश्चिम में तो लोग समझने लगे कि ये भारत के ऋषि—महर्षि, अवतार, ये थोड़े—से विक्षिप्त मालूम होते हैं। ये इस तरह के वक्तव्य देते हैं, जिनमें कोई अर्थ ही नहीं है।
क्योंकि अरस्तु ने कहा है कि ए इज़ ए, एंड कैन नेवर बी नाट ए—अ अ है और न—अ कभी नहीं हो सकता। इस आधार पर आज की सारी शिक्षण—पद्धति विकसित हुई है कि विरोध इकट्ठे नहीं हो सकते। और यह क्या बात है, वेद, उपनिषद, गीता एक ही बात कहे चले जाते हैं कि वह दोनों है!
इसे हम समझ लें ठीक से। इसे कहने का कारण है।
आपकी बुद्धि को तोड़ने के लिए यह कहा जा रहा है, आपकी बुद्धि को समझाने के लिए नहीं। यह कृष्ण अर्जुन की बुद्धि को समझाने की कोशिश नहीं कर रहे है यह अर्जुन की बुद्धि को तोड़ने
की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि बुद्धि समझ भी ले, तो भी बुद्धि के पार न जाएगी। बुद्धि तो टूट जाए, तो ही अर्जुन पार जा सकता है। यह वक्तव्य बुद्धि विनाशक है। वह जो खंड—खंड करने वाली बुद्धि है, उसको तोड्ने का उपाय है, उसे व्यर्थ करने का उपाय है। और जब दोनों विरोध एक साथ दे दिए जाएं, तो बुद्धि व्यर्थ हो जाती है। फिर सोचने को कुछ भी नहीं बचता।
थोड़ा सोचें, निर्गुण भी वही, सगुण भी वही, क्या सोचिएगा? इसलिए दो पंथ हमने निर्मित कर लिए हैं। निर्गुणवादियो ने अलग पथ निर्मित कर लिया है। उन्होंने कहा कि नहीं, वह निर्गुण है। सगुणवादियो ने अलग पंथ निर्मित कर लिया। उन्होंने कहा कि नहीं, वह सगुण है; निर्गुण कभी नहीं है।
ये दोनों बातें बुद्धिगत हैं। अगर निर्गुण है, तो सगुण नहीं हो सकता। सगुण है, तो निर्गुण नहीं हो सकता। हमने दो पंथ निर्मित कर लिए। ये दोनों पंथ अधार्मिक हैं, क्योंकि दोनों पंथ बुद्धिगत बात को मानते हैं। बुद्धि के पार नहीं जाते।
धर्म विरोध को जोड्ने वाला है। वह कहता है, वह दोनों है और दोनों नहीं है। जो व्यक्ति इस बात को समझने में राजी हो जाएगा कि दोनों है, उसको समझने की कोशिश में अपनी समझ ही छोड़ देनी पड़ेगी
एक घटना मुझे याद आती है। झेन फकीर हुआ रिंझाई, वह खड़ा था अपने मंदिर के द्वार पर। मंदिर के ऊपर लगी हुई पताका हवा में हिल रही थी। रिंझाई के दो शिष्य मंदिर के सामने से गुजर रहे थे। उन्होंने खड़े होकर पताका की तरफ देखा। सुबह का सूरज था, हवाएं थीं, और पताका कैप रही थी, और जोर से आवाज कर रही थी। रिंझाई के एक शिष्य ने कहा कि मैं पूछता हूं हवा हिल रही है या पताका हिल रही है? हिल कौन रहा है? दूसरे शिष्य ने कहा, हवा हिल रही है। पहले शिष्य ने कहा कि गलत, पताका हिल रही है। बड़ा विवाद हो गया।
अब हवा और पताका जब हिलते हैं, तो कौन हिल रहा है? आसान है एक के पक्ष में वक्तव्य देना। लेकिन सच में कौन हिल रहा है? रिंझाई खड़ा सुन रहा था, वह बाहर आया। और उसने कहा कि न तो पताका हिल रही है और न हवा हिल रही है, तुम्हारे मन हिल रहे हैं।
लेकिन रिंझाई के शिष्यों को बात जमी नहीं। तो रिंझाई का बूढ़ा गुरु मौजूद था, जिंदा था। तो उन्होंने कहा, यह बात हमें जमती नहीं है। यह तो और उपद्रव हो गया। हमारा तो दो ही का विवाद था।
और अब एक तीसरा वक्तव्य और हो गया कि मन हिल रहा है। पताका हिल रही है; हवा हिल रही है, मन हिल रहा है। हम बूढ़े गुरु के पास जाएंगे।
वे तीनों के गुरु के पास गए। बूढ़े गुरु ने कहा कि जब तक तुम देखते हो, हवा हिल रही है, पताका हिल रही है, मन हिल रहा है—जब तक तुम विभाजित करते हो तीन में—तब तक तुम न समझ पाओगे। संसार हिलने का नाम है। यहां सभी कुछ हिल रहा है। और सभी चीजें अलग— अलग नहीं हिल रही हैं, सब चीजें जुड़ी हैं। हवा भी हिल रही है, पताका भी हिल रही है, मन भी हिल रहा है। तीनों जुड़े हैं। तीनों हिल रहे हैं। संसार कंपन है।
लेकिन गुरु ने कहा कि रिंझाई थोड़ा ठीक कहता है तुम दोनों से, क्योंकि न तो तुम पताका का हिलना रोक सकते हो और न हवा का हिलना रोक सकते हो, लेकिन मन का हिलना तुम रोक सकते हो। और अगर मन का हिलना रुक जाए, तो पताका भी नहीं हिलेगी, हवा भी नहीं हिलेगी; सब हिलना बंद हो जाएगा। तुम्हारा मन हिलता है, इसलिए तुम हिलने को अनुभव कर पाते हो।
हमारी जो बुद्धि है, वह विरोधों में बंटी है। वह चीजों को बाटती है, एनालाइज करती है, विश्लिष्ट करती है। वह कहती है, यह जन्म है, यह मौत है। वह कहती है, यह मित्र है, यह शत्रु है। वह कहती है, यह जहर है, यह अमृत है। वह कहती है, यह अच्छा है, और यह बुरा है। हर चीज को बांटती है।
यह कृष्ण का पूरा प्रयास यही है कि बांटो मत। जगत को, अस्तित्व को एक की तरह देखो। बांटी मत। निर्गुण भी वही, गुणों वाला भी वही है।
इस पर अगर थोड़े प्रयास करेंगे, इस तरह की विपरीत बातों को अगर एक साथ आंख बंद करके ध्यान करेंगे, तो बहुत आनंद आएगा। मन तो कहेगा कि एक कुछ भी तय कर लो जल्दी, या तो निर्गुण या सगुण।
इसे जरा प्रयोग करके देखें। आंख बंद करके कभी बैठ जाएं अपने मंदिर में, अपनी मस्जिद में और कहें कि वह दोनों है। और फिर अपने से पूछें कि क्या राजी हैं? मन कहेगा कि नहीं, दोनों नहीं हो सकते। एक कुछ भी हो सकता है। मन फौरन कहेगा कि या तो मान लो कि सगुण है, या मान लो कि निर्गुण है।
तो मुसलमान मान लिए कि निर्गुण है। तो मूर्तियां तोड़ते फिरे, क्योंकि सगुण को नहीं बचने देना है। उनको लगा कि जब निर्गुण है, तो फिर सगुण को तोड़ देना है।
एक आदमी मूर्ति—पूजा कर रहा है। वह कहता है, भगवान सगुण है, इसलिए हम मूर्ति बनाते हैं। एक आदमी कहता है, वह निर्गुण है, इसलिए हम मूर्ति तोड़ते हैं। लेकिन दोनों मूर्ति की तरफ ध्यान लगाए हुए हैं, एक तोड्ने के लिए, एक बनाने के लिए। मुसलमानों से ज्यादा मूर्ति—पूजक खोजना बहुत मुश्किल है, क्योंकि मूर्ति को तोड़ना भी उसके ही साथ संबंधित हो जाना है। आखिर मूर्ति पर इतना ध्यान देने की जरूरत क्या है! अगर वह निर्गुण है और सगुण नहीं है, तो मूर्ति को तोड्ने से क्या फायदा है? कोई अर्थ नहीं है।
लेकिन आदमी का मन ऐसा है कि वह एक पक्ष में हो जाए तो दूसरे पक्ष के खिलाफ कोशिश करता है, तो ही एक पक्ष में रह सकता है। डर लगता है कि कहीं दूसरा पक्ष ठीक न हो; तो मिटा दो दूसरे पक्ष को।
लेकिन कुछ मिट सकता नहीं। पत्थर की मूर्तियां टूट सकती हैं। ये आदमी भी सब मूर्तियां हैं। इनको कैसे तोडिएगा? वृक्ष भी एक मूर्ति है। पत्थर को भी तोड़ दो, तो वह जो टूटा हुआ पत्थर है, वह भी मूर्ति है, वह भी एक मूर्त रूप है; वह भी आकार है। आकार कैसे मिटाइएगा?
अस्तित्व में दोनों समाविष्ट हैं, निराकार भी, आकार भी। न तो बनाने की कोई जरूरत है, न मिटाने की कोई जरूरत है। बनाने और मिटाने का अगर कोई काम ही करना हो, तो भीतर करना जरूरी है कि भीतर इस मन को इस हालत में लाना जरूरी है कि जहां यह दोनों विरोधों को एक साथ स्वीकार कर ले।
जैसे ही दोनों विरोध एक साथ स्वीकार होते हैं, मन तीर जाता है और समाप्त हो जाता है। और अमन की स्थिति पैदा हो जाती है। वह अमनी स्थिति ही समाधि है।
यह सारा प्रयोजन कृष्ण का इतना ही है कि आप दोनों को एक साथ स्वीकार करने को राजी हो जाएं। राजी होते ही आप रूपांतरित हो जाएंगे। और जब तक आप राजी न होंगे और एक पक्ष में झुकेंगे, तब तक आप बदल नहीं सकते हैं, तब तक आप द्वंद्व में ही घिरे रहेंगे।
दो में से एक को चुनना द्वैत को समर्थन करना है। दोनों को एक साथ स्वीकार कर लेना, अद्वैत की उपलब्धि है।
पांच मिनट रुकेंगे। कोई उठे न बीच से। कीर्तन पूरा हो जाए, फिर जाएं। कीर्तन के बाद दो मिनट सिर्फ संगीत चलता है, उस वक्त भी न उठें। एक पांच मिनट पूरा बैठे रहें।
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