भक्ति और स्त्रैण गुण—(प्रवचन—नौवां)
अध्याय—12
सूत्र—
वो न ह्रष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।
शुभाशुभयीरत्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:।। 17।।
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानायमानयो:।
शीतोष्णसुखदुःखेषु सम: संगविवर्जित:।। 18।।
और जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न सोच करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों के कम का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है।
और जो पुरूष शत्रु—मित्र में और मान—अपमान में सम तथा सर्दी—गर्मी और सुख—दुखादिक द्वंद्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है, वह मेरे को प्रिय है।
पहले कुछ प्रश्न।
एक मित्र ने पूछा है, परमात्मा के प्रेमी भक्त के जो बहुत—से गुण और लक्षण इस अध्याय में कहे गए हैं, वे सब के सब स्त्रैण गुण वाले हैं। इसका क्या कारण है? और समझाएं कि केवल स्त्रैण गुणों पर जोर देने में क्या जीवन का असंतुलन निहित नहीं है? जीवन के विराट संतुलन में स्त्रैण व पौरुष गुणों के सम्यक योगदान का महत्व भक्ति—योग के संदर्भ में क्या है?
भक्ति का मार्ग स्त्री का मार्ग है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि पुरुष उस मार्ग पर नहीं जा सकते हैं। लेकिन पुरुष को भी जाना हो, तो उसके मन में परमात्मा के प्रति प्रेयसी वाली भावदशा चाहिए। भक्ति के मार्ग पर पुरुष भी स्त्री होकर ही प्रवेश करता है। इसे थोड़ा गहराई में समझ लेना जरूरी है।
पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि न तो कोई स्त्री पूरी स्त्री है और न कोई पुरुष पूरा पुरुष। दोनों दोनों में मौजूद हैं। होंगे ही। उसके कारण हैं। क्योंकि चाहे आप पुरुष हों और चाहे स्त्री, आपकी बनावट स्त्री और पुरुष दोनों से हुई है। आप अकेले नहीं हो सकते हैं। न तो पुरुष के बिना आप हो सकते हैं और न स्त्री के ' बिना आप हो सकते हैं। दोनों का दान है आप में। आप दोनों का मिलन हैं। दोनों आपके भीतर मौजूद हैं। आपकी मां भी मौजूद है, आपके पिता भी।
आप स्त्री और पुरुष दोनों हैं एक साथ। फिर अंतर क्या है? अंतर केवल अनुपात का है। जो पुरुष है, वह साठ प्रतिशत पुरुष है, चालीस प्रतिशत स्त्री है। जो स्त्री है, वह साठ प्रतिशत स्त्री है, चालीस प्रतिशत पुरुष है। यह अनुपात का भेद होगा। लेकिन आप पुरुष हैं, तो आपके भीतर छिपी हुई स्त्री है। और आप स्त्री हैं, तो आपके भीतर छिपा हुआ पुरुष है।
इस सदी के बहुत बड़े विचारक, बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने पश्चिम में इस विचार को पहली दफा स्थापित किया। पूरब में तो यह विचार बहुत पुराना है। हमने अर्धनारीश्वर की मूर्ति बनाई, जिसमें शंकर आधे स्त्री हैं और आधे पुरुष हैं। वह हजारों साल पुरानी हमारी धारणा है। और वह धारणा सच है। लेकिन कै ने पहली दफा पश्चिम में इस सदी में इस विचार को बल दिया कि कोई पुरुष पुरुष नहीं, कोई स्त्री स्त्री नहीं, दोनों दोनों हैं।
इसके बहुत गहरे अर्थ हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर आप पुरुष हैं, तो आपको स्त्री के प्रति जो आकर्षण मालूम होता है, वह आकर्षण आपके भीतर छिपी हुई स्त्री के लिए है। और इसलिए इस दुनिया में किसी भी स्त्री से आप तृप्त न हो पाएंगे। क्योंकि जब तक। आपको अपने भीतर की स्त्री से मिलना न हो जाए, तब तक कोई तृप्ति उपलब्ध नहीं हो सकती।
और स्त्री हैं अगर आप, तो पुरुष का जो आकर्षण है, और पुरुष की जो तलाश है, वह कोई भी पुरुष आपको संतुष्ट न कर पाएगा। सभी पुरुष असफल हो जाएंगे। क्योंकि जब तक आपके भीतर छिपे। पुरुष से आपका मिलन न हो जाए, तब तक वह खोज जारी रहेगी।।
असल में हर आदमी अपने भीतर छिपी हुई स्त्री या पुरुष को : बाहर खोज रहा है। कभी—कभी किसी—किसी में उसकी झलक मिलती है, तो आप प्रेम में पड़ जाते हैं। प्रेम का एक ही अर्थ है कि आपके भीतर जो स्त्री छिपी है, उसकी झलक अगर आपको किसी स्त्री में मिल जाती है, तो आप प्रेम में पड़ जाते हैं।
इसलिए जब आप प्रेम में पड़ते हैं, तो न तो कोई तर्क होता है, न कोई कारण होता है। आप कहते हैं, बस, मैं प्रेम में पड़ गया। आप कहते हैं, मेरे वश में नहीं है यह बात। आपके भीतर की स्त्री से जब भी बाहर की किसी स्त्री का कोई भी तालमेल हो जाता है।
लेकिन यह तालमेल ज्यादा देर नहीं चल सकता। क्योंकि यह तालमेल पूरा कभी भी नहीं हो सकता। आपके भीतर जैसी स्त्री पृथ्वी पर कहीं है ही नहीं। वह आपके भीतर ही छिपी है। आपके भीतर जैसा पुरुष पृथ्वी पर कहीं है नहीं। किसी में भनक मिल सकती है थोड़ी। लेकिन जैसे ही आप निकट आएंगे, भनक टूटने।? लगेगी। जितना निकट आएंगे, उतना ही डिसइलूजनमेंट, उतना ही भ्रम टूट जाएगा।
इसलिए धन्यभागी वे प्रेमी हैं, जो अपनी प्रेयसियों से कभी नहीं मिल पाते हैं, क्योंकि उनका भ्रम बना रहता है। अभागे वे प्रेमी हैं, जिनको उनकी प्रेयसिया मिल जाती हैं, क्योंकि भ्रम टूट जाता है। मिली हुई प्रेयसी ज्यादा देर तक प्रिय नहीं रह जाती। मिला हुआ प्रेमी ज्यादा देर तक प्रिय नहीं रह जाता। क्योंकि भ्रम टूटेगा ही। तालमेल थोड़ा—बहुत हो सकता है। वह भी आभास है।
जुंग कहता है कि जब तक भीतर आपकी स्त्री और आपके पुरुष का अंतर—मिलन न हो जाए, तब तक आप अतृप्त रहेंगे और तब तक कामवासना आपको पकड़े रहेगी।
इसको हमने युगनद्ध कहा है। तंत्र की भाषा में भीतर जब स्त्री। और पुरुष का मिलन हो जाता है, उसे हमने युगनद्ध कहा है। वह। जो मिलन है, उस मिलन के साथ ही आप अद्वैत हो जाते हैं; एक ' हो जाते हैं, दो नहीं रह जाते। और वह जो एक की घटना भीतर घटती है, वही परमात्मा का मिलन है।
अभी आप दो हैं। इसका मनोवैज्ञानिक यह पहलू भी समझ लेना जरूरी है कि जो आप ऊपर होते हैं, उससे विपरीत आप भीतर होते हैं। ऊपर पुरुष, तो भीतर स्त्री। ऊपर स्त्री, तो भीतर पुरुष।
एक और मजेदार घटना मनोवैज्ञानिकों के खयाल में आती है और वह यह कि जैसे—जैसे उम्र बढ़ती है, आप में विपरीत लक्षण प्रकट होने लगते हैं। जैसे स्त्रियां पचास के करीब पहुंच—पहुंचकर पुरुष जैसी होने लगती हैं। अनेक स्त्रियों को मूंछ के बाल, दाढ़ी के बाल उगने शुरू हो जाते हैं। उनकी आवाज पुरुषों जैसी भर्राई हुई हो जाती है। उनके गुण पुरुषों जैसे हो जाते हैं। उनका शरीर भी धीरे— धीरे पुरुषों के करीब पहुंचने लगता है।
पचास के बाद पुरुषों में स्त्रैणता आनी शुरू हो जाती है। उनमें गुण स्त्रियों जैसे होने शुरू हो जाते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इसका अर्थ यह है कि जो आपके ऊपर—ऊपर था, जिंदगीभर आपने उसका उपयोग करके चुका लिया। और जो भीतर दबा था, वह बिना चुका रह गया। इसलिए आप ऊपर से कमजोर हो गए हैं और भीतर की बात प्रकट होनी शुरू हो गई है।
एक स्त्री पचास साल तक स्त्री के तल पर चुक जाती है, समाप्त हो जाती है। उसने उपयोग कर लिया स्त्री—ऊर्जा का और भीतर का पुरुष बिना उपयोग किया हुआ पड़ा है। और जब ऊपर की स्त्री कमजोर हो जाती है, तो भीतर का पुरुष धक्के मारने लगता है और प्रकट होने लगता है।
पुरुष चुक जाता है पचास साल में अपने पौरुष से। और भीतर की स्त्री अनचुकी, ताजी बनी रहती है। वह प्रकट होनी शुरू हो जाती है।
यह जो पचास साल की उम्र के बाद अंतर पड़ता है, यह बड़ा जटिल है। और इसके कारण हजारों कठिनाइयां पैदा होती हैं। क्योंकि जिंदगीभर आप पुरुष रहे, तो आपने पुरुष के गुणों की तरह अपने को सजाया, संवारा, सुशिक्षित किया। और अचानक आपके भीतर फर्क होता है, नई दुनिया शुरू होती है। उसकी कोई ट्रेनिंग नहीं, उसका कोई प्रशिक्षण नहीं।
कै ने सलाह दी है कि पैंतालीस साल के स्त्री—पुरुषों को हमें फिर से स्कूल भेजना चाहिए, क्योंकि उनके भीतर एक क्रांतिकारी फर्क हो रहा है, जिसकी उनके पास कोई तैयारी नहीं है। और जिसकी उनके पास तैयारी है, वह व्यर्थ हो रहा है और एक नई घटना घट रही है। और जब तक हम इस बात को पूरा न कर पाएं, कं कहता है, लोग ज्यादा मात्रा में विक्षिप्त होते रहेंगे।
पैंतालीस साल की उम्र खतरनाक उम्र है। उसके बाद सारी मानसिक बीमारियां शुरू होती हैं। लेकिन पैंतालीस साल की उम्र ही धार्मिक होने की उम्र भी है।
और जुंग ने कहा है कि मेरे पास जितने मरीज आते हैं मन के, उनमें अधिक की उम्र पैंतालीस के ऊपर है या पैंतालीस के करीब है। और उनमें अधिक की बीमारी यही है कि उनके जीवन में धर्म नहीं है। अगर धर्म होता, तो वे पागल न होते।
यह जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, भक्ति का जो मार्ग, इसमें वे स्त्रैण गुणों की चर्चा कर रहे हैं। और अर्जुन जैसा पुरुष खोजना मुश्किल है। यह विरोधाभासी लगता है। अर्जुन है क्षत्रिय, पुरुषों में पुरुष। हजारों—हजारों साल में वैसा पुरुष होता है। उससे यह स्त्रैण गुणों की बात! निश्चित ही प्रश्न उठाती है।
लेकिन अगर मेरी बात आपके खयाल में आ गई, तो उसका मतलब यह है कि अर्जुन का पुरुष तो चुक ही जाने को है। और जीवन के अंतिम हिस्से में जब अर्जुन का पुरुष चुक जाएगा, तब उसकी स्त्री प्रकट होनी शुरू होगी। वह जो विपरीत दबा पड़ा है, वह बाहर आएगा। और उस विपरीत से ही धर्म का मार्ग बनेगा। एक। दूसरी बात यह भी खयाल में ले लेनी जरूरी है कि स्त्रैण होने का आध्यात्मिक अर्थ होता है, ग्राहक होना, रिसेप्टिव होना। पुरुष है आक्रामक, एग्रेसिव, हमलावर। बायोलाजिकली भी, जैविक व्यवस्था में भी पुरुष हमलावर है। स्त्री ग्राहक है। स्त्री गर्भ है। वह स्वीकार करती है, समा लेती है, आत्मसात कर लेती है। हमला नहीं करती है।
भक्ति का मार्ग ग्राहक, स्वीकार करने का मार्ग है। वह स्त्रैण है। वहां परमात्मा को अपने भीतर स्वीकार करना है। श्रद्धापूर्वक, नत होकर, सिर को झुकाकर उसे अपने भीतर झेल लेना है। भगवान के लिए गर्भ बन जाता है भक्त। वह पुरुष है या स्त्री, इससे कोई सवाल नहीं। लेकिन जो गर्भ नहीं बन सकता भगवान के लिए, वह भक्त नहीं बन सकता।
आपको शायद सुनकर हैरानी हो या कभी आपको पता भी हो, एक ऐसा भी भक्तों का संप्रदाय हुआ है, जिनमें पुरुष भी स्त्रियों के कपडे ही पहनते थे। अब भी बंगाल में उसकी थोड़ी—सी धारा शेष है। वे स्त्री जैसे ही रहते हैं भक्त। और परमात्मा को अपना पति स्वीकार करते हैं। रात सोते भी हैं, तो परमात्मा की मूर्ति साथ लेकर सोते हैं, जैसे कोई प्रेयसी अपने प्रेमी को साथ लेकर सो रही हो। यह बात हमें बड़ी अजीब—सी लगेगी, क्योंकि हमें इसके भीतर के रहस्य का कोई पता नहीं है। और जिस बात के भीतर के रहस्य का हमें कोई पता न हो, बड़ी अड़चन होती है।
राहुल सांकृत्यायन ने, एक बड़े पंडित ने बड़ा विरोध किया है इस बात का, कि यह क्या पागलपन है! ये पुरुष स्त्रियां बन जाएं, यह कैसी बेहूदगी है! यह कैसा नाटक है! और कोई भी ऊपर से देखेगा, तो ऐसा ही लगेगा।
लेकिन राहुल सांकृत्यायन को कुछ भी पता नहीं है कि भीतर, भक्त के भीतर क्या घटित हो रहा है। यह जो उसका स्त्रैण रूप है ऊपर से, यह तो उसके भीतर की घटना की अभिव्यक्ति मात्र है। वह भीतर से भी स्त्रैण हो रहा है। और आप जानकर हैरान होंगे, कभी—कभी भक्त इस जगह पहुंच गए हैं, जब कि उनकी भाव की स्त्रैणता इतनी गहरी हो गई कि उनके शरीर के अंग तक स्त्रैण हो गए।। रामकृष्ण के जीवन में ऐसी घटना घटी। वह अनूठी है। क्योंकि रामकृष्ण एक बड़ा मूल्यवान प्रयोग किए। वह प्रयोग था कि उन्होंने एक मार्ग से तो परमात्मा को जाना। जानने के बाद दूसरे मार्गों से चलकर भी जानने की कोशिश की, कि दूसरे मार्गों से भी वहीं पहुंचा जा सकता है या नहीं! तो उन्होंने आठ—दस मार्गों का प्रयोग किया। उसमें एक यह भक्ति—मार्गियों का पंथ भी था, जिसमें स्त्री
होकर ही साधना करनी है।
तो रामकृष्ण छ: महीने तक स्त्री के कपड़े ही पहनते थे। स्त्री जैसे ही उठते—बैठते थे। स्त्रैण भाव से ही जीते थे। और एक ही धारणा मन में थी कि मैं प्रेयसी हूं और परमात्मा प्रेमी है।
बड़ी हैरानी की घटना घटी, जो हजारों लोगों ने देखी है। वह यह कि रामकृष्ण की चाल थोड़े दिन में बदल गई। वे स्त्रियों जैसे चलने लगे।
बहुत कठिन है चलना स्त्रियों जैसा। क्योंकि स्त्री के शरीर का ढांचा अलग है, पुरुष के शरीर का ढांचा अलग है। चूंकि स्त्री के शरीर में गर्भ है, इसलिए बड़ी खाली जगह है। उस खाली जगह की वजह से उसके पैर और ढंग से घूमते हैं। पुरुष के पैर उस ढंग से नहीं घूम सकते।
लेकिन रामकृष्ण ऐसे चलने लगे, जैसे स्त्रियां चलती हैं। यह भी कुछ बड़ी बात न थी। इससे भी बड़ी घटना घटी कि दो महीने के बाद रामकृष्ण के स्तन बढ़ने लगे। यह भी कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि एक उम्र में पुरुषों के थोड़े स्तन तो बढ़ ही जाते हैं। जो सबसे बड़ी चमत्कारी घटना घटी, वह यह कि चार महीने के बाद रामकृष्ण को मासिक— धर्म शुरू हो गया। यह मनुष्य जाति के इतिहास में घटी थोड़ी—सी मूल्यवान घटनाओं में से एक है, कि भाव का इतना परिणाम शरीर पर हो सकता है!
इतने अंतःकरण पूर्वक उन्होंने मान लिया कि मैं तुम्हारी प्रेयसी हूं और तुम मेरे प्रेमी हो, यह भावना इतनी गहरी हो गई कि शरीर के रोएं—रोएं ने इसको स्वीकार कर लिया और शरीर स्त्रैण हो गया। साधना के छ: महीने के बाद भी रामकृष्ण को छ: महीने लग गए वापस ठीक से पुरुष होने में। ये सारे लक्षण विदा होने में फिर छ: महीने और लगे।
भक्त का अर्थ है, प्रेयसी का भाव। इसलिए कृष्ण जो भी गुण, लक्षण बता रहे हैं, वे सब स्त्रैण हैं।
क्या आपने कभी खयाल किया कि दुनिया के सभी धर्मों ने, चाहे वे भक्त—संप्रदाय हों या न हों, जिन गुणों को मूल्य दिया है, वे स्त्रैण। हैं। चाहे महावीर उसको अहिंसा कहते हों। चाहे बुद्ध उसको करुणा कहते हों। चाहे जीसस उसको प्रेम कहते हों। ये सब स्त्रैण गुण हैं। स्त्री अगर पूरी तरह प्रकट हो, तो ये गुण उसमें होंगे।
इसलिए इस विचार के कारण जर्मनी के गहन विचारक फ्रेडरिक नीत्शे ने तो बुद्ध, क्राइस्ट, इन सबको स्त्रैण कहा है। और कहा है कि इन्हीं लोगों ने सारी दुनिया को बर्बाद कर दिया। क्योंकि ये जो बातें सिखा रहे हैं, वे लोगों को स्त्रैण बनाने वाली हैं।
नीत्शे ने तो विरोध में यह बात कही है कि मनुष्य जाति को स्त्रैण बना दिया, बुद्ध, क्राइस्ट, इस तरह के लोगों ने। क्योंकि जो शिक्षाएं दीं, उसमें पुरुष के गुणों का कोई मूल्य नहीं है। पौरुष का, तेज का, बल का, आक्रमण का, हिंसा का, संघर्ष का, युद्ध का कोई भाव नहीं है। तो इन्होंने स्त्रैण बना दिया जगत को।
उसकी बात में थोड़ी दूर तक सच्चाई है। लेकिन वे लोग सच में ही स्त्रैण बनाने में सफल नहीं हो पाए। नहीं तो पृथ्वी स्वर्ग हो जाती है।
जीवन में जो भी मूल्यवान है, वह कहीं न कहीं मां से जुड़ा हुआ है। जीवन में जो भी मूल्यवान है, कीमती है, कोमल है, फूल की तरह है, वह कहीं न कहीं स्त्री से संबंधित है।
और पुरुष तो एक बेचैनी है। स्त्री एक समता है। जरूरी नहीं; कि स्त्रियां ऐसा न सोच लें कि वे ऐसी हैं। यह तो स्त्री के परम अर्थ की बात है। परम लक्ष्य पर स्त्री अगर हो, तो ऐसा होगा। अभी तो अधिक स्त्रियां भी पुरुष जैसी हैं और वे पूरी कोशिश कर रही हैं कि पुरुष जैसी कैसे हो जाएं। पश्चिम में वे बड़ी लड़ाई लड़ रही हैं कि पुरुष के जैसी कैसे हो जाएं। कपड़े भी पुरुष जैसे पहनने हैं; काम भी पुरुष जैसा करना है, अधिकार भी पुरुष जैसे चाहिए। सब जो पुरुष कर रहे हैं!
अगर पुरुष सिगरेट पी रहे हैं, तो स्त्रियां भी उसी तरह सिगरेट पीना चाहती हैं। क्योंकि यह असमानता खलती है, अखरती है। तो जो पुरुष कर रहा है, अगर वह गलत भी कर रहा है, तो स्त्री को भी वह करना ही चाहिए! सारी दुनिया में एक दौड़ है कि स्त्रियां भी पुरुष जैसी कैसे हो जाएं।
इसलिए स्त्रियां यह न सोचें कि जो मैं कह रहा हूं वह उनके बाबत लागू है। वे सिर्फ यह सोचें कि अगर उनकी स्त्रैणता पूरे रूप में प्रकट हो, तो जो मैं कह रहा हूं वह सही होगा।
स्त्री अगर पूरे रूप में प्रकट हो..। और स्त्री पूरे रूप में प्रकट हो सकती है। और जब पुरुष भी पूरे रूप में प्रकट होता है, तो स्त्री जैसा हो जाता है। इसके कारण बहुत हैं।
पहले तो बायोलाजिकली समझने की कोशिश करें।
जीवशास्त्री कहते हैं कि स्त्री में संतुलन है, पुरुष में संतुलन नहीं है, शरीर के तल पर भी। जिन वीर्यकणों से मिलकर जीवन का जन्म होता है, रज और वीर्य के मिलन से जो व्यक्तित्व का निर्माण होता है, उसमें एक बात समझने जैसी है। पुरुष के वीर्यकण में दो तरह के वीर्यकण होते हैं। एक वीर्यकण होता है, जिसमें चौबीस सेल होते हैं, चौबीस कोष्ठ होते हैं। और एक वीर्यकण होता है, जिसमें तेईस कोष्ठ होते हैं। स्त्री के जो रजकण होते हैं, उन सबमें चौबीस कोष्ठ होते हैं। उनमें तेईस कोष्ठ वाला कोई रजकण नहीं होता। उनमें सबमें चौबीस कोष्ठ वाले रजकण होते हैं।
जब स्त्री का चौबीस कोष्ठ वाला रजकण, पुरुष के चौबीस कोष्ठ वाले वीर्यकण से मिलता है, तो स्त्री का जन्म होता है, चौबीस—चौबीस। और जब स्त्री का चौबीस कोष्ठ वाला रजकण, पुरुष के तेईस कोष्ठ वाले वीर्यकण से मिलता है, तब पुरुष का जन्म होता है, चौबीस—तेईस।
जीवशास्त्री कहते हैं कि स्त्री संतुलित है, उसके दोनों पलड़े बराबर हैं, चौबीस—चौबीस। और पुरुष में एक बेचैनी है, उसका एक पलड़ा थोड़ा नीचे झुका है, एक थोड़ा ऊपर उठा है।
इसलिए अगर आप, छोटी बच्ची भी हो और छोटा लड़का हो, दोनों को देखें, तो लड़के में आपको बेचैनी दिखाई पड़ेगी। लड़की शात दिखाई पड़ेगी। लड़का पैदा होते से ही थोड़ा उपद्रव शुरू करेगा। उपद्रव न करे, तो लोग कहेंगे कि लड़का थोड़ा स्त्रैण है, लड़कियों जैसा है। वह जो बेचैनी है, वह जो असंतुलन है, वह काम शुरू कर देगा।
इस बेचैनी की तकलीफें हैं, इसके फायदे भी हैं। समता का लाभ भी है, नुकसान भी है। दुनिया में कोई लाभ नहीं होता, जिसका नुकसान न हो। कोई नुकसान नहीं होता, जिसका लाभ न हो।
पुरुष में जो बेचैनी है, उसी के कारण उसने इतने बड़े साम्राज्य बनाए। पुरुष में जो बेचैनी है, उसी के कारण उसने विज्ञान निर्मित किया, इतनी खोजें कीं। पुरुष में बेचैनी है, इसलिए वह एवरेस्ट पर चढ़ा और चांद पर पहुंचा।
स्त्री में वह बेचैनी नहीं है, इसलिए स्त्रियों ने कोई खोज नहीं की, कोई आविष्कार नहीं किया। वह तृप्त है। वह अपने होने से पर्याप्त है। उसको कहीं कुछ जाना नहीं है। उसकी समझ के बाहर है कि एवरेस्ट पर चढ़ने की जरूरत क्या है!
हिलेरी से, जो आदमी एवरेस्ट पर पहली दफा चढ़ा, उससे उसकी पत्नी ने पूछा कि आखिर एवरेस्ट पर चढ़ने की जरूरत क्या है? बिलकुल समझ के बाहर है बात कि नाहक, सुख—शांति से घर में रह रहे हो, परेशान हो जाओ, मौत का खतरा लो। जरूरी नहीं कि पहुंचो। अनेक लोग मर चुके हैं। और पहुँचकर भी मिलेगा क्या? अगर पहुंच भी गए तो फायदा क्या है? आखिर एवरेस्ट पर चढ़ने की जरूरत क्या है?
तो पता है, हिलेरी ने क्या कहा? हिलेरी ने कहा, जब तक एवरेस्ट है, तब तक आदमी बेचैन रहेगा; चढ़ना ही पड़ेगा। यह कोई कारण नहीं है और। लेकिन एवरेस्ट का होना, कि अनचढ़ा एक पर्वत है, आदमी के लिए चुनौती है। क्योंकि एवरेस्ट है, इसलिए चढ़ना पड़ेगा। कोई और कारण नहीं है।
पुरुष में एक बेचैनी है। इसलिए पुरुष युद्ध के लिए आतुर है; संघर्ष के लिए आतुर है। नए संघर्ष खोजता है; नए उपद्रव मोल लेता है। नई चुनौतियां स्वीकार करता है।
चांद पर जाने की कोई जरूरत नहीं है। अभी तो कोई भी जरूरत नहीं थी। लेकिन चांद है, तो रुकना बहुत मुश्किल है। जिस वैज्ञानिक ने पहली दफा चांद की यात्रा का खयाल दिया, उसने लिखा है कि अब हमारे पास चांद तक पहुंचने के साधन हैं, तो हमें पहुंचना ही है। अब कोई और वजह की जरूरत नहीं है। अब हम पहुंच सकते हैं, तो हम पहुंचेंगे।
तो फायदा है। फायदा है, संसार के तल पर पुरुष के गुणों का फायदा है १ इसलिए स्त्रियां पिछड़ जाती हैं। संसार की दौड़ में वे कहीं भी टिक नहीं पातीं। लेकिन नुकसान भी उसका है! तो बेचैनी, अशांति, विक्षिप्तता, पागलपन, वह सब पुरुष का हिस्सा है। स्त्रियां शांत हैं।
इसे आप ऐसा समझें कि अगर बाहर के जगत में खोज करनी हो, तो पुरुष के गुण उपयोगी हैं। पुरुष बहिर्गामी है। अगर भीतर के जगत में जाना हो, तो स्त्री के गुण उपयोगी हैं। स्त्री अंतर्गामी है। स्त्री और पुरुष जब प्रेम भी करते हैं, तो पुरुष आंख खोलकर प्रेम करना पसंद करता है, स्त्री आंख बंद करके। पुरुष चाहता है कि प्रकाश जला रहे, जब वह प्रेम करे। स्त्रियां चाहती हैं, बिलकुल अंधेरा हो। पुरुष चाहता है कि वह देखे भी कि स्त्री के चेहरे पर क्या भाव आ रहे हैं, जब वह प्रेम कर रहा है।इ स्त्री बिलकुल आंख बंद कर लेती है। वह पुरुष को भूल जाना चाहती है। वह अपने भीतर डूबना चाहती है। प्रेम के गहरे क्षण में भी वह पुरुष को भूलकर अपने भीतर डूबना चाहती है। उसका जो रस है, वह भीतरी है।
पुरुष देखना चाहता है कि स्त्री प्रसन्न हो रही है, आनंदित हो रही है, तो वह प्रसन्न होता है। वह देखता है कि स्त्री दुखी हो रही है, परेशान हो रही है या उसके मन में कोई भाव नहीं उठ रहा है, तो उसका सारा सुख खो जाता है। पुरुष बहिर्दृष्टि है।
इसका मतलब यह हुआ कि अगर आपको भीतर की तरफ जाना है, तो आपके भीतर छिपी जो स्त्री है, उसके गुणों को आपको विकसित करना होगा। और अगर स्त्रियों को भी बाहर की तरफ जाना है, तो उनके भीतर छिपा हुआ जो पुरुष है, उनको उसे विकसित करना होगा।
बहिर्यात्रा पुरुष के सहारे हो सकती है, अंतर्यात्रा स्त्री के सहारे। इसलिए कृष्ण ने स्त्रैण गुणों को इतनी गहराई से कहा है।
एक मित्र ने पूछा है कि कल आपने कहा कि क्रोध को परा जानने के लिए क्रोध का परा अनुभव जरूरी है। तो कामवासना को पूरा कैसे जाना जाए? क्योंकि अनुभवियों ने कहा है कि कामवासना की तृप्ति कभी भी नहीं हो पाती; जितनी भोगेंगे, उतनी ही बढ़ती जाएगी। तो कामवासना को कैसे पार किया जाए?
पहले तो अनुभवियों से थोड़ा बचना, खुद के अनुभव का भरोसा करना।
इसका यह मतलब नहीं है कि अनुभवियों ने जो कहा है, वह गलत कहा है। इसका कुल मतलब इतना है कि दूसरे के अनुभव को मानकर चलने से आप अनुभव से वंचित रह जाएंगे। और अगर अनुभव से वंचित रह गए, तो अनुभवियों ने जो कहा है, वह आपको कभी सत्य न हो पाएगा।
अनुभवियो ने जो कहा है, वह अनुभव से कहा है। दूसरे अनुभवियों को सुनकर नहीं कहा है। यह फर्क खयाल में रखना। उन्होंने यह नहीं कहा है कि अनुभवियो ने कहा है, इसलिए हम कहते हैं। उन्होंने कहा है कि हम अपने अनुभव से कहते हैं। तुम भी अगर सच में ही मुक्त होना चाहो, तो अपने अनुभव से ही। और यह बात गलत है कि अनुभव से कामवासना बढ़ती है। कोई वासना दुनिया में अनुभव से नहीं बढ़ती। और अगर अनुभव से कामवासना बढ़ती है, तो फिर इस दुनिया में कोई भी आदमी उससे मुक्त नहीं हो सकता।
अनुभव से सभी चीजें क्षीण होती हैं। अनुभव से सभी चीजों में ऊब आ जाती है। एक ही भोजन कितना ही स्वादिष्ट हो, रोज—रोज करें, कितने दिन कर पाएंगे? थोड़े दिन में स्वाद खो जाएगा। फिर थोड़े दिन बाद बेस्वाद हो जाएगा। फिर कुछ दिन बाद आप भाग जाना चाहेंगे कि आत्महत्या कर लूंगा, अगर यही भोजन वापस मिला तो।
अनुभव से ऊब आती है। चित्त रस खो देता है। और अगर अनुभव से ऊब नहीं आती, तो समझना कि अनुभव आप ठीक से नहीं ले रहे हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना।
और अनुभव आप ठीक से ले नहीं सकते, क्योंकि अनुभवियो ने जो कहा है, वह आपकी परेशानी किए दे रहा है। अनुभव के पहले आप छूटना चाहते हैं।
यह मित्र पूछते हैं कि कामवासना से कैसे पार जाया जाए? पहले कामवासना में तो चले जाओ, तो पार भी चले जाना। पार जाने की जल्दी इतनी है कि उसमें भीतर जा ही नहीं पाते, उतर ही नहीं पाते।
एक काम का गहन अनुभव भी पार ले जा सकता है। लेकिन वह कभी गहन हो नहीं पाता। यह पीछे से जान अटकी ही रहती है कि पार कब, कैसे हो जाएं। न पार हो पाते हैं, न अनुभव हो पाता है। और बीच में अटके रह जाते हैं।
जब मैं आपसे कहता हूं कि अनुभव ही मुक्ति है, तो उसका अर्थ ठीक से समझ लें। क्योंकि जो चीज व्यर्थ है, वह अनुभव से दिखाई पड़ेगी कि व्यर्थ है। और किसी तरह दिखाई नहीं पड़ सकती।
जब तक आपको अनुभव नहीं है, आप भला सोचें कि व्यर्थ है, लेकिन सोचने से क्या होगा! रस तो कायम है भीतर। और कितने ही अनुभवी कहते हों कि व्यर्थ है, उनके कहने से क्या व्यर्थ हो जाएगा! और अगर उनके कहने से होता होता, तो अब तक सारी दुनिया की कामवासना तिरोहित हो गई होती।
बाप कितना नहीं समझाता है बेटे को। बेटा सुनता है? लेकिन बाप कहे चला जाता है। और बाप इसकी बिलकुल फिक्र नहीं करता कि वह भी बेटा था, और उसके बाप ने भी यही कहा था, और उसने भी नहीं सुना था। अगर वह ही सुन लेता, तो यह बेटा कहां से आता! और वह घबडाए न। यह बेटा भी बड़ा होकर अपने बेटे को यही शिक्षा देगा। इसमें कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। किसी का अनुभव काम नहीं पड़ता। बाप का अनुभव आपके काम नहीं पड़ सकता है। आपका अनुभव ही काम पड़ेगा।
बाप गलत कहता है, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। बाप अपने अनुभव से कह रहा है कि यह सब पागलपन से वह गुजरा है। लेकिन पागलपन से गुजरकर कह रहा है वह। और बिना गुजरे वह भी नहीं कह सकता था। बिना गुजरे कोई भी नहीं कह सकता है।
और बिना गुजरे कोई किसी की बात भी नहीं मान सकता है। अनुभव के अतिरिक्त इस जगत में कोई अनुभूति नहीं है। अनुभव से ही गुजरना होगा।
फिर घबड़ाहट भी क्या है इतनी? इतना पार होने की जल्दी भी क्या है? अगर परमात्मा एक अवसर देता है, उसका उपयोग क्यों न किया जाए? और उस उपयोग को पूरा क्यों न समझा जाए? जरूर निहित कोई प्रयोजन होगा। परमात्मा आपसे ज्यादा समझदार है। और अगर उसने आपमें कामवासना रची है, तो उसका कोई निहित प्रयोजन होगा।
महात्मा कितना ही कहते हों कि कामवासना बुरी है, लेकिन परमात्मा नहीं कहता कि कामवासना बुरी है। नहीं तो रचता नहीं। नहीं तो उसके होने की कोई जरूरत न थी। परमात्मा तो रचे जाता है, महात्माओं की वह सुनता नहीं!
जरूर कोई निहित प्रयोजन है। और वह निहित प्रयोजन यह है कि ये महात्मा भी पैदा नहीं हो सकते थे, अगर कामवासना न होती। ये महात्मा भी उसी अनुभव से गुजरकर पार गए हैं। इन्होंने भी उसमें पड़कर जाना है कि व्यर्थ है। वह व्यर्थता का बोध बड़ा कीमती है। वह होगा ही तब, जब आपको अनुभव में आ जाए।
तो जल्दी मत करना। उधार अनुभव का भरोसा मत करना। इसका यह मतलब नहीं है कि आप अनुभवियो को कहो कि तुम गलत हो। आपको इतना ही कहना चाहिए कि हमें अभी पता नहीं है। और हम उतरना चाहते हैं, और हम जानना चाहते हैं कि क्या है यह कामवासना। और हम इसे पूरा जान लेंगे। तो अगर यह गलत होगी, तो वह जानना मुक्ति ले आएगा। और अगर यह सही होगी, तो मुक्त होने की कोई जरूरत नहीं है।
एक बात निश्चित है कि अब तक जिन्होंने भी ठीक से जान लिया, वे मुक्त हो गए हैं। और दूसरी बात भी निश्चित है कि जिन्होंने नहीं जाना, वे कितना ही सिर पीटें और अनुभवियो की बातें मानते रहें, वे कभी मुक्त नहीं हुए हैं, न हो सकते हैं।
इतनी घबड़ाहट क्या है? इतना डर क्या है? भीतर जो छिपा है, उसे पहचानना होगा। उपयोगी है कि उससे आप गुजरें।
मैंने सुना है कि एक सम्राट ने अपने बेटे को एक फकीर के पास शिक्षा के लिए भेजा। हर माह खबर आती रही कि शिक्षा ठीक चल रही है। साल पूरा हो गया। और वह दिन भी आ गया, जिस दिन फकीर युवक को लेकर राजदरबार आएगा। और सम्राट बड़ा प्रसन्न था। उसने अपने सारे दरबारियों को बुलाया था कि आज मेरा बेटा उस महान फकीर के पास शिक्षित होकर वापस लौट रहा है।
लेकिन जब फकीर लड़के को लेकर दरवाजे पर राजमहल के पहुंचा, तो राजा की छाती बैठ गई। देखा कि फकीर ने अपना बोरिया—बिस्तर सब राजकुमार के सिर पर रखा हुआ है। और कपड़े उसे ऐसे पहना दिए हैं, जैसे कि कोई कुली कपड़े पहने हो।
सम्राट तो बहुत क्रोध से भर गया। और उसने कहा कि मैंने शिक्षा देने भेजा था, मेरे लड़के का इस तरह अपमान करने नहीं! फकीर ने कहा कि अभी आखिरी सबक बाकी है। अभी बीच में कुछ मत बोलो। और अभी साल पूरा नहीं हुआ है, सूरज ढलने को शेष है। अभी लड़का मेरे जिम्मे है। तब उस फकीर ने अपने सामान में से एक कोड़ा निकाला। सब सामान लड़के से नीचे रखवाकर उसे सात कोड़े लगाए दरबार में।
राजा तो चीख पड़ा, लेकिन अपने वचन से बंधा था कि एक साल के लिए दिया था। और सूरज अभी नहीं डूबा था। लेकिन उसने कहा कि कोई हर्ज नहीं, सूरज डूबेगा; और न तुझे फांसी लगवा दी—उस फकीर से कहा—सूरज डूबेगा; तू घबड़ा मत। कोई फिक्र नहीं; तू कर ले। एक साल का वायदा है।
लेकिन और दरबारियों में के समझदार लोग भी थे। उन्होंने राजा से कहा कि थोड़ा पूछो भी तो उससे कि वह क्या कर रहा है! आखिर उसका प्रयोजन क्या है?
तो किसी ने पूछा, तो फकीर ने कहा, मेरा प्रयोजन है। यह कल राजा बनेगा। और अनेक लोगों को कोड़े लगवाएगा। इसे कोड़े का अनुभव होना चाहिए। इसे पता होना चाहिए कि कोड़े का मतलब क्या है। कल यह राजा बनेगा और न मालूम कितने लोग इसका सामान ढोने में जिंदगी व्यतीत कर देंगे। इसको पता होना चाहिए कि जो आदमी सड़क पर सामान ढोकर आ रहा है, उसके भीतर की गति कैसी है। इसे राजा होने के पहले उन सब अनुभवों से गुजर जाना चाहिए, जो कि राजा होने के बाद इसको कभी न मिल सकेंगे। लेकिन अगर यह उनसे नहीं गुजरता है, तो यह हमेशा अप्रौढ़ रह जाएगा। तो मैंने सालभर में इसकी एक ही शिक्षा पूरी की है पूरे साल में, कि जो इसको राजा होने के बाद कभी भी न होगा, उस सब से मैंने इसे गुजार दिया है।
यह संसार एक विद्यापीठ है। और परमात्मा आपको बहुत—से अनुभव से गुजार रहा है। बहुत तरह की आगों में जला रहा है। वह जरूरी है। उससे निखरकर आप असली कुंदन, असली सोना बनेंगे। सब कचरा जल जाएगा।
लेकिन आपकी हालत ऐसी है कि कचरे से भरा सोना हैं आप, और आग से गुजरकर जो उस तरफ चले गए हैं अनुभवी, उनकी बातें सुन रहे हैं। और वे कहते हैं कि यह आग है, इससे बचना। लेकिन इसी आग से गुजरकर वे शुद्ध हुए हैं। और अगर उनकी बात मानकर तुम इसी तरफ रुक गए, और तुमने कहा, यह आग है, इससे हम, बचेंगे, तो ध्यान रखना कि वह कचरा भी बच जाएगा जो आग में जलता है।
आग से गुजरना। उन अनुभवियों से पूछना कि तुम यह आग से गुजरकर कह रहे हो कि बिना गुजरे! और अगर यह तुम गुजरकर कह रहे हो और मैंने बिना गुजरे यह बात मान ली, तो मैं डूब गया तुम्हारे साथ। उचित है; तुम्हारी बात मैं खयाल रखूंगा। लेकिन मुझे भी अनुभव से गुजर जाने दो। मेरे भी कचरे को जल जाने दो। कामवासना आग है, लेकिन उसमें बहुत—सा कचरा जल जाता है। अगर आप बोधपूर्वक, समझपूर्वक, होशपूर्वक कामवासना में उतर पाए, तो आपका सब कचरा जल जाता है, आप सोना बन जाते हैं। और वह जो सोना है, वही क्रांति है। वह जो सोने की उपलब्धि है, वही क्रांति है।
तो मैं आपसे कहना चाहता हूं जो आपके अनुभव से आए, उसे आने देना। और जल्दी मत करना। उधार अनुभव मत ले लेना। उनसे ज्ञान तो बढ़ जाएगा, आत्मा नहीं बढ़ेगी। उनसे बुद्धि में विचार तो बहुत बढ़ जाएंगे, लेकिन आप वही के वही रह जाएंगे। आग से गुजरे बिना कोई उपाय नहीं है। सस्ते में कुछ भी मिलता नहीं है।
कामवासना एक पीड़ा है। उसमें सुख तो ऊपर—ऊपर है, भीतर दुख ही दुख है। बाहर—बाहर झलक तो बड़ी रंगीन है, बड़ी इंद्रधनुष जैसी है। लेकिन भीतर हाथ कुछ भी नहीं आता। सिर्फ उदासी, सिर्फ विषाद, सिर्फ आंसू हाथ लगते हैं। लेकिन वे आंसू बाहर से बहुत चमकते हैं और मोती मालूम पड़ते हैं। लेकिन पास जाकर ही पता चलता है कि मोती झूठे हैं और आंसू हैं, और पीछे सिर्फ विषाद रह जाता है। लेकिन इससे गुजरना होगा।
इससे जो बच जाता है.. आप बच भी नहीं पाते। बचने का मतलब केवल इतना है कि आप पास ही नहीं जा पाते मोती के पूरे कि पता चल जाए कि वह आंसू की बूंद है, मोती नहीं है। आप जाते भी हैं, क्योंकि भीतर वासना का धक्का है। परमात्मा कह रहा है कि जाओ, क्योंकि अनुभव से गुजरोगे, तो ही निखरोगे। जाओ। परमात्मा बहुत निशंक भेज रहा है। एक—एक बच्चे को भेज रहा
है। इधर हम सुधार—सुधारकर जिंदगीभर परेशान हो जाते हैं। बूढ़े जब तक सुधर पाते हैं, उनको वह हटा लेता है। और फिर बच्चे पैदा कर देता है। वे फिर बिगड़े के बिगड़े। फिर वही उपद्रव शुरू। फिर वही करेंगे जो अनुभवी कह गए हैं कि मत करना।
यह परमात्मा बच्चे क्यों बनाता है? के क्यों नहीं बनाता? आखिर के भी पैदा कर सकता था सीधे के सीधे। कोई झगड़ा—झंझट नहीं होती। अनुभवी पैदा हो जाते। लेकिन बूढ़े भी अगर वह पैदा कर दे, तो बच्चे ही होंगे। क्योंकि अनुभव के बिना कोई वार्धक्य, कोई बोध पैदा नहीं होता।
वह बच्चे पैदा करता है। उसकी हिम्मत बड़ी अनूठी है। वह नासमझ पैदा करता है, समझदारों को हटाता है। हम तो मानते ही ऐसा हैं कि जिसकी समझ पूरी हो जाए, फिर उसका जन्म नहीं होता। उसका मतलब, समझदारों को फौरन हटाता है और नासमझों को भेजता चला जाता है।
विद्यालय में नासमझ ही भेजे जाते हैं। जब बात पूरी :हो जाती है,, विद्यालय के बाहर हो जाते हैं। लेकिन जो बच्चा स्कूल में जा रहा है, वह स्कूल से रिटायर होते हुए प्रोफेसर की बात सुनकर बाहर ही रुक जाए, तो क्या गति होगी?
एक बच्चा अभी स्कूल में प्रवेश कर रहा है। आज पहला दिन है उसके स्कूल में प्रवेश का। उसी दिन कोई बूढ़ा प्रोफेसर रिटायर हो रहा है। वह प्रोफेसर कहता है, कुछ भी नहीं है यहां। जिंदगी हमने ऐसे ही गवाई। सब बेकार गया। तू अंदर मत जा। तू वापस लौट चल।
बस, यह आपकी हालत है। रिटायर होते लोगों से जरा सावधान। उनकी बात तो सच है। बिलकुल ठीक कह रहे हैं, अनुभव से कह रहे हैं। पर आपको भी उस अनुभव से गुजरना ही होगा। आप भी एक दिन वही कहोगे। लेकिन थोड़ा समय पकने के लिए जरूरी है। आग में गुजरना जरूरी है, तो परिपक्वता आती है।
इसलिए डरें मत। परमात्मा ने जो भी जीवन की नैसर्गिक वासनाएं दी हैं, उनमें सहज भाव से उतरें। घबडाएं मत। घबड़ाना क्या है? जब परमात्मा नहीं घबड़ाता, तो आप क्यों घबड़ा रहे हैं? जब वह नहीं डरा हुआ है, तो आप क्यों इतने डरे हुए हैं? उतरें। बस, उतरने में एक ही खयाल रखें कि पूरी तरह उतरें। ये कचरे खयाल दिमाग में न पड़े रहें कि गलत है। क्योंकि गलत है, तो उतर ही नहीं पाते, अधूरे ही रह जाते हैं। हाथ भी बढ़ता है और आग तक पहुंच भी नहीं पाता, रुक जाता है बीच में। तो दोहरे नुकसान होते हैं। न तो अनुभव होता है, और न लौटना होता है। अधकचरे, बीच में लटके रह जाते हैं।
इस जमीन पर जो लोग बीच में लटके हैं, उनकी पीड़ा का अंत नहीं है। इधर पीछे से महात्मा खींचते हैं कि वापस लौट आओ। और उधर भीतर से परमात्मा धक्के देता है कि जाओ, अनुभव से गुजरो। इन दोनों की रस्साकसी में आपकी जान निकल जाती है। मैं कहता हूं कि मत सुनो। निसर्ग की सुनो; स्वभाव की सुनो; वह जो कह रहा है, जाओ। एक ही बात ध्यान रखो कि होशपूर्वक जाओ, समझपूर्वक जाओ। समझते हुए जाओ, क्या है? कामवासना क्या है, इसको किताब से पढ़ने की क्या जरूरत है? इसको उतरकर ही देख लो। और जब उतरो, तो पूरे ध्यानपूर्वक उतरो।
लेकिन मैं जानता हूं लोगों को, वे मेरे पास आते हैं। वे मुझसे कहते हैं, कामवासना से कैसे छूटें? मैं उनसे पूछता हूं? जब तुम कामकृत्य में उतरते हो, तब तुम्हारे दिमाग में कोई और खयाल तो नहीं होता? वे कहते हैं, हजार खयाल होते हैं। कभी दुकान की सोचते हैं, कभी बाजार की सोचते हैं, कभी कुछ और सोचते हैं। कभी यह सोचते हैं कि कैसा पाप कर रहे हैं! इसका क्या प्रायश्चित्त होगा?
तो तुम कामवासना में भी जब उतर रहे हो, तब भी तुम्हारी खोपड़ी कहीं और है, तो तुम जान कैसे पाओगे कि यह क्या है! ध्यान बना लो। हटा दो सब विचारों को। जब काम में उतर रहे हो, तो पूरे उतर जाओ, पूरे मनपूर्वक, पूरे प्राण से, पूरा बोध लेकर। दुबारा उतरने की जरूरत न रहेगी।
एक बार भी अगर यह हो जाए कि कामवासना का और ध्यान का मिलन हो जाए, तो वहीं पहला बोध, पहला होश उपलब्ध हो जाता है। सब चीज व्यर्थ दिखाई पड़ती है, बचकानी हो जाती है। दुबारा जाना भी चाहो, तो नहीं जा सकते। बात ही व्यर्थ हो गई। जब तक यह न हो जाए, तब तक जाना ही पड़ेगा। और प्रकृति कोई अपवाद नहीं मानती। प्रकृति तो उन्हीं को पार करती है, जो पूरी तरह पक जाते हैं। कच्चे लोगों को नहीं निकलने देती। अगर आप कच्चे हैं, तो फिर जन्म देगी। फिर धक्के देगी।
अगर आप कच्चे ही बने रहते हैं, तो अनंत—अनंत जन्मों तक भटकना पड़ेगा। पक्का अगर होना है, तो भय छोड़े। और निसर्ग को बोधपूर्वक अनुभव करें। मुक्ति वहां है।
एक मित्र ने पूछा है कि कृष्ण कहते हैं, सर्व आरंभों को छोड़ने वाला भक्त मुझे प्रिय है। तो क्या परमात्मा की खोज का आरंभ भी छोड़ देना चाहिए?
अगर आरंभ कर दिया हो, तो छोड़ देना चाहिए। मगर अगर आरंभ ही न किया हो, तो छोडिएगा क्या खाक? है क्या छोड़ने को आपके पास? आरंभ कर दिया हो, तो छोड़ना ही पड़ेगा। लेकिन आरंभ कहां किया है, जिसको आप छोड़ दें!
हमारी तकलीफ यह है कि हमें यही पता नहीं है कि हमारे पास क्या है! और अक्सर हम वह छोड़ते हैं, जो हमारे पास नहीं है। और उसको पकड़ते हैं, जो है।
आपने परमात्मा की खोज शुरू की है? आरंभ हुआ? अगर हो गया है, तो कृष्ण कहते हैं, उसे भी छोड़ दो। इसी वक्त उपलब्ध हो जाओगे। लेकिन अगर वह हुआ ही नहीं है तो छोडिएगा कैसे! आदमी अपने को इस—इस तरह से धोखे देता है कि उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है! बहुत मुश्किल है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आप कहते हैं, प्रयत्न छोड़ना पड़ेगा! तो मैं उनसे पूछता हूं प्रयत्न कर रहे हो? कर लिया है प्रयत्न, तो छोड़ना पड़ेगा। अभी प्रयत्न ही नहीं किया है, छोडिएगा क्या?
लोग कहते हैं कि मूर्ति से बंधना ठीक नहीं है, मूर्ति तो छोड़नी है। वे ठीक कहते हैं। लेकिन बंध गए हो, कि छोड़ सको?
आपकी हालत ऐसी है, मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन शादी के दफ्तर में पहुंच गया और उसने जाकर सब पूछताछ की कि तलाक के नियम क्या हैं। सारी बातचीत समझकर वह चलने को हुआ, तो रजिस्ट्रार ने उससे पूछा कि कब तलाक के लिए आना चाहते हो? उसने कहा, अभी शादी कहां की है? अभी तो मैं पक्का कर रहा हूं कि अगर शादी कर लूं र तो तलाक की सुविधा है या नहीं! कोई झंझट में तो नहीं पड़ जाऊंगा!
आप भी तलाक की चिंता में पड़ जाते हैं, इसकी बिना फिक्र किए कि अभी शादी भी हुई या नहीं। आरंभ किया है आपने परमात्मा की खोज का? एक इंच भी चले हैं उस तरफ? एक कदम भी उठाया है? एक आंख भी उस तरफ की है? कभी नहीं की है।
अगर वह आरंभ हो गया है, तो कृष्ण कहते हैं, उसे छोड़ना होगा।
सभी आरंभ छोड़ने होते हैं, तभी तो अंत उपलब्ध होता है। सभी आरंभ छोड़ने होते हैं, तभी तो लक्ष्य उपलब्ध होता है। आरंभ भी एक वासना है। परमात्मा को पाना भी एक वासना है। और कठिनाई यही है कि परमात्मा को पाने के लिए सभी वासनाओं से मन रिक्त होना चाहिए। परमात्मा को पाने की वासना भी बाधा है।
मगर वह आखिरी वासना है, जो जाएगी। अभी मत छोड़ देना; अभी तो वह की ही नहीं है। अभी तो करें। अभी तो मैं कहता हूं परमात्मा को पाने की जितनी वासना कर सकें, करें। इतनी वासना करें कि सभी वासनाएं उसी में लीन हो जाएं। एक ही वासना रह जाए सभी वासनाओं की मिलकर, एक ही धारा बन जाए कि परमात्मा को पाना है। धन पाना था, वह भी इसी में डूब जाए। प्रेम पाना था, वह भी इसी में डूब जाए। यश पाना था, वह भी इसी में डूब जाए। सारी वासनाएं डूब जाएं; एक ही वासना रह जाए कि परमात्मा को पाना है। ताकि आपके जीवन की सभी ऊर्जा एक तरफ दौड़ने लगे।
और जिस दिन यह एकता आपके भीतर घटित हो जाए, उस दिन वह वासना भी छोड़ देना कि परमात्मा को पाना है। उसी वक्त परमात्मा मिल जाता है। क्योंकि परमात्मा कहीं दूर नहीं है कि उसे खोजने जाना पड़े; वह यहीं है। जो दूर हो, उसे पाने के लिए चलना पड़ता है। जो पास हो, उसे पाने के लिए रुकना पड़ता है। जिसे खोया हो, उसे खोजना पड़ता है। जिसे खोया ही न हो, उसके लिए सिर्फ शांत होकर देखना पड़ता है।
तो वह जो परमात्मा को पाने की वासना है आखिरी, वह सिर्फ उपाय है सारी वासनाओं को छोड़ देने का। जब सब छुट जाएं, तो उसे भी छोड़ देना है उसी तरह, जैसे पैर में काटा लग जाए, तो हम एक और कांटा निकाल लाते हैं वृक्ष से, पैर के काटे को निकालने के लिए।
लेकिन फिर आप जब पैर का काटा निकालकर फेंक देते हैं, तो दूसरे काटे का क्या करते हैं जिसने आपकी सहायता की? क्या उसको घाव में रख लेते हैं? कि सम्हालकर रखें, यह काटा बड़ा परोपकारी है। कि इस काटे ने कितनी कृपा की कि पुराने कांटे को निकाल दिया। तो अब इसको सम्हालकर रख लें इसी घाव में, कभी जरूरत पड़े।
तो फिर आप मूढ़ता कर रहे हैं। तो काटा निकालना व्यर्थ गया, क्योंकि दूसरा काटा भी उतना ही काटा है। और हो सकता है, दूसरा काटा पहले काटे से भी मजबूत हो, तभी तो निकाल पाया।
खतरनाक है। यह काटा जान ले लेगा।
परमात्मा का विचार, उसका ध्यान, इस जगत के सारे काटो को निकाल देने के लिए है। लेकिन वह भी काटा है।
पर जल्दी मत करना यह सोचकर कि अगर काटा है, तो फिर हमको क्या मतलब है! हम तो वैसे ही कीटों से परेशान हैं, और एक काटा क्या करेंगे? इतनी जल्दी मत करना। वह कांटा इन सारे काटो को निकालने के काम आ जाता है। और जिस दिन आपका काटा निकल गया, उस दिन दोनों कीटों को साथ—साथ फेंक देना पड़ता है। फिर उस काटे को रखना नहीं पड़ता।
जैसे सब वासनाएं खो जाती हैं, अंत में परमात्मा को पाने की वासना भी छोड़ देनी पड़ती है। वह आखिरी वासना है। उसके छूटते ही आपको पता चलता है कि वह मिला ही हुआ है।
हमारी भाषा में अड़चन है। ऐसा लगता है कि परमात्मा कहीं है, जिसको खोजना है। दूर कहीं छिपा है, जिसका पता लगाना है। कहीं दूर है, जिसका रास्ता होगा, यात्रा होगी।
यह भांति है। परमात्मा आपका अस्तित्व है। आपके होने का नाम ही परमात्मा है। आप हैं इसलिए कि वह है। उसी की श्वास .है, उसी की धड़कन है। यह आपकी भ्रांति है कि श्वास मेरी है और धड़कन मेरी है। बस, यह भांति भर टूट जाए, तो वह प्रकट है। वह कभी छिपा हुआ नहीं है।
और यह भ्रांति तब तक बनी रहेगी, जब तक आप सोचते हैं कि मुझे कुछ पाना है—परमात्मा पाना है—तो आप बने हैं। आपकी वासना के कारण आप बने हुए हैं। और जब तक वासना है, तब तक आप भी भीतर रहेंगे। नहीं तो वासना कौन करेगा!
और जब वासनाएं सभी खो जाती हैं, आखिरी वासना भी खो जाती है, तो आप भी खो जाते हैं। क्योंकि जब वासना नहीं, तो वासना करने वाला भी नहीं बचता है। वह जब मिट जाता है, तत्क्षण दृष्टि बदल जाती है। जैसे अचानक अंधेरे में प्रकाश हो जाए। और जहां कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता था, वहां सब कुछ दिखाई पड़ने लगे। वासना के खोते ही अंधेरा खो जाता है और प्रकाश हो जाता है।
आखिरी सवाल। एक मित्र ने पूछा है कि बुद्ध के शिष्यों में कोई भी उनकी श्रेणी का नहीं हुआ। क्राइस्ट के शिष्यों में भी कोई दूसरा क्राइस्ट नहीं बन सका। महावीर के शिष्य ठीक उनके विपरीत हैं। कृष्ण के शिष्यों में भी कोई कृष्ण नहीं है। क्या फिर भी आप गुरु—शिष्य प्रणाली पर विश्वास करते हैं?
पहली तो बात यह कि आपकी जानकारी बहुत कम है। बुद्ध के शिष्यों में हजारों लोग बुद्ध बने। गौतम बुद्ध नहीं बने। गौतम बुद्ध कोई भी नहीं बन सकता है दूसरा। बुद्ध बने, बुद्धत्व को उपलब्ध हुए।
गौतम बुद्ध, वह जो शुद्धोदन का पुत्र सिद्धार्थ है, उसका जो व्यक्तित्व है, उसका जो ढंग है, वैसा तो किसी का कभी नहीं होने वाला। वैसा तो वह अकेला ही है इस जगत में।
आप भी अकेले हैं, अद्वितीय हैं, बेजोड़ हैं। आप जैसा आदमी न कभी हुआ और न कभी होगा। कोई उपाय नहीं है आप जैसा आदमी होने का। अनरिपीटेबल! आपको पुनरुक्त नहीं किया जा सकता। डिट्टो, आपका कोई आदमी खड़ा नहीं किया जा सकता। आप बिलकुल बेजोड़ हैं।
यह अस्तित्व एक—एक चीज को बेजोड़ बनाता है। परमात्मा बड़ा अदभुत कलाकार है। वह नकल नहीं करता। बड़े से बड़ा कलाकार भी नकल में उतर जाता है।
एक दफा पिकासो के पास एक चित्र लाया गया। पिकासो के चित्रों की कीमत है बड़ी। उस चित्र की कीमत कोई पांच लाख रुपए थी। और जिस आदमी ने खरीदा था, वह पक्का करने आया था कि यह चित्र ओरिजिनल है? आपका ही बनाया हुआ है? किसी ने नकल तो नहीं की है? तो पिकासो ने चित्र देखकर कहा कि यह नकल है, ओरिजिनल नहीं है।
वह आदमी तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, लेकिन जिससे मैंने खरीदा है, उसने कहा है कि उसकी आंख के सामने आपने यह चित्र बनाया है!
तो वह आदमी लाया गया। और उस आदमी ने कहा कि हद कर रहे हो; क्या भूल गए? यह चित्त तो मैं मौजूद था तुम्हारे सामने, जब तुमने इसे बनाया। यह तुम्हारा ही बनाया हुआ है। पिकासो ने कहा, मैंने कब कहा कि मैंने नहीं बनाया! लेकिन यह भी नकल है, क्योंकि पहले मैं ऐसा एक चित्र और बना चुका हूं। उसकी नकल है। मैं भी चुक जाता हूं बना—बनाकर, तो फिर रिपीट करने लगता हूं खुद ही को। इसलिए इसको मैं ओरिजिनल नहीं कहता। इससे क्या फर्क पड़ता है कि नकल मैंने की अपने ही चित्र की या किसी और ने की! नकल तो नकल ही है।
लेकिन परमात्मा ने आज तक नकल त्रहीं की। एक आदमी बस एक ही जैसा है। वैसा दूसरा आदमी फिर दुबारा नहीं होता। इससे मनुष्य बड़ी अदभुत कृति है। मनुष्य को ही क्यों हम कहें, एक बड़े वृक्ष पर एक पत्ते जैसा दूसरा पत्ता भी नहीं खोज सकते आप। इस जमीन पर एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़ भी नहीं खोज सकते। प्रत्येक चीज मौलिक है, ओरिजिनल है।
तो गौतम बुद्ध जैसा तो कोई भी नहीं हो सकता। इसका यह मतलब नहीं है कि और लोग बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुए। बुद्ध के शिष्यों में सैकड़ों लोग उपलब्ध हुए।
एक बार तो बुद्ध से भी किसी ने जाकर पूछा—हो सकता है यही मित्र रहे हों—बुद्ध से जाकर किसी ने पूछा कि आप जैसे आप अकेले ही दिखाई पड़ते हैं। आपके पास दस हजार शिष्य हैं, इनमें से कितने लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं? बुद्ध ने कहा, इनमें से सैकड़ों लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं।
तो उस आदमी ने पूछा, लेकिन इनका कोई पता नहीं चलता! तो बुद्ध ने कहा, मैं बोलता हूं ये चुप हैं। और ये इसलिए चुप हैं कि जब मैं बोलता हूं तो इनको परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। और तुम्हें मैं नहीं दिखाई पड़ता, मैं जो बोलता हूं, वह सुनाई पड़ता है। मैं भी चुप हो जाऊं, तो तुम मेरे प्रति भी अंधे हो जाओगे। ये भी जब बोलेंगे, तब तुम्हें दिखाई पड़ेंगे। ये चुप हैं, क्योंकि मैं बोल रहा हूं; कोई जरूरत नहीं है।
और जो भी उपलब्ध हो जाते हैं, जरूरी नहीं कि बोलें। बोलना अलग बात है। बहुत—से सदगुरु नहीं बोले, चुप रहे हैं। बहुत—से सदगुरु बोले नहीं, नाचे, गाए। उसी से उन्होंने कहा। बहुत—से सदगुरुओं ने चित्र बनाए, पेंटिंग की। उसी से उन्होंने कहा। बहुत—से सदगुरुओं ने गीत गाए, कविताएं लिखीं। उसी से उन्होंने कहा। बहुत—से सदगुरुओं ने उठा लिया एक वाद्य और चल पड़े, और गाते रहे गांव—गांव। और उसी से उन्होंने कहा। जो जैसा कह सकता था, उसने उस तरह कहा। जो मौन ही रह सकता था, वह मौन ही रह गया। उसने अपने मौन से ही कहा।
फिर और भी बहुत कारण हैं। गौतम बुद्ध सम्राट के लड़के थे। सारा देश उनको जानता था। और जब वे ज्ञान को उपलब्ध हुए, तो सारे देश की नजरें उन पर थीं। फिर कोई गरीब का लडका भी बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ होगा। न उसे कोई जानता है, न सबकी उस पर नजरें है।
फिर बुद्ध शिक्षक हैं। सभी शिक्षक नहीं होते। जरूरी भी नहीं है। शिक्षक होना अलग कला है, अलग गुण है। तो बुद्ध समझा सके, कह सके, ढंग से कह सके। इसलिए हमें इतिहास में उनका उल्लेख रह जाता है। इतिहास सभी बुद्धों की खबर नहीं रखता, कुछ बुद्धों की खबर रखता है, जो इतिहास पर स्पष्ट लकीरें छोड़ जाते हैं।
क्राइस्ट को प्रेम करने वाले लोगों में भी लोग उपलब्ध हो गए हैं। लेकिन आपको पता है, क्राइस्ट को प्रेम करने वाले जो उनके बारह शिष्य थे, वे बड़े दीन—हीन थे, बड़े गरीब थे। कोई मछुआ था; कोई लकड़हारा था, कोई बढ़ई था; कोई चमार था। वे सब दीन—हीन गरीब लोग थे, पढ़े—लिखे नहीं थे। फिर भी उपलब्ध हुए; और उन्होंने वह जाना, जो जीसस ने जाना।
लेकिन जीसस को सूली लग गई, यही एक फायदा रहा। सूली लगने की वजह से आपको याद रहे। जीसस की वजह से क्रिश्चियनिटी पैदा नहीं हुई, क्रास की वजह से पैदा हुई। अगर सूली न लगती, तो जीसस कभी के भूल गए होते। वह सूली याददाश्त बन गई। जीसस का सूली पर लटकना एक घटना हो गई; वह घटना इतिहास पर छा गई। इतिहास के अपने ढंग हैं।
लेकिन इस खयाल में मत रहें कि महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, या बुद्ध के शिष्यों में कोई उनको उपलब्ध नहीं हुआ। हुआ; अपने ढंग से हुआ। ठीक उसी जगह पहुंच गया, जहां वे पहुंचे थे। लेकिन अपने ही ढंग से पहुंचा। कोई नाचता हुआ पहुंचा; कोई चुप होकर पहुंचा; कोई बोलकर पहुंचा। अपने—अपने ढंग थे। उन ढंगों में फर्क हैं। लेकिन बुद्ध जैसे व्यक्तित्व के पास जो भी समर्पित होने की सामर्थ्य रखता है, वह जरूर पहुंच जाएगा।
समर्पण कला है, सीखने की। और बुद्ध जैसे व्यक्तित्व के पास जब जाएं, तो वहां तो पूरी तरह झुककर सीखने की सामर्थ्य होनी चाहिए। हम झुकने की कला ही भूल गए हैं। इसलिए दुनिया से धर्म कम होता जाता है।
एक मित्र मेरे पास आए थे। समझदार हैं, पढ़े—लिखे हैं, दर्शन का चिंतन करते हैं, विचार करते हैं। बड़े अच्छे सवाल उन्होंने पूछे थे, बड़े गहरे। लेकिन सब सवालों पर पानी फेर दिया जाते वक्त। जाते वक्त उन्होंने कहा कि एक बात और, आप ऊपर क्यों बैठे हैं, मैं नीचे क्यों बैठा हूं यह और पूछना है!
सीखने आए हैं, लेकिन नीचे भी नहीं बैठ सकते। तो मैंने कहा, पहले ही कहना था। मैं और ऊपर बिठा देता। इसमें कोई अडचन न थी। लेकिन तब मैं आपसे सीखता। तो जिस दिन आपको मुझे कुछ सिखाने का भाव आ जाए; जरूर आ जाना। और आपको काफी ऊंचाई पर बिठा दूंगा और मैं नीचे बैठकर सीखूंगा। लेकिन सीखने आए हों, तो नीचे बैठना तो बात मूल्य की नहीं है, लेकिन झुकने का भाव मूल्य का है।
वह उनको अखरता रहा होगा। बातें तो बड़ी ऊंची कर रहे थे—परमात्मा की, आत्मा की—लेकिन पूरे वक्त जो बात खली रही होगी, वही आखिरी में निकली, कि नीचे बैठा हूं! बैठ तो गए थे, इतना साहस भी नहीं था कि पहले ही कह देते कि मैं खड़ा रहूंगा, बैठूंगा नहीं। या कुछ ऊंची कुर्सी बुलाएं, उस पर बैठूंगा; नीचे नहीं बैठ सकता। कह देते तो कोई अड़चन न थी। ज्यादा ईमानदारी की बात होती; ज्यादा सच्चे साबित होते। वह तो भीतर छिपाए रखे।
तो उनका परमात्मा का प्रश्न और आत्मा का सब झूठा हो गया। क्योंकि भीतर असली प्रश्न यही था, जो चलते वक्त उन्होंने पूछा, कि अब एक बात और पूछ लूं आखिरी कि आप ऊपर क्यों बैठे हैं, मैं नीचे क्यों बैठा हूं!
झुकने की वृत्ति खो गई है। गुरु और शिष्य के संबंध का और कोई मतलब नहीं है। इतना ही मतलब है कि आप जिसके पास सीखने गए हैं, वहा झुकने की तैयारी से जाना। नहीं तो मत जाना। कौन कह रहा है! अगर झुकने की तैयारी न हो, तो मत जाना। हालत हमारी ऐसी है कि नदी में खड़े हैं, लेकिन झुक नहीं सकते और प्यासे हैं। और झुकें न, तो बर्तन में पानी कैसे भरे! मगर अकड़े खड़े हैं। प्यासे मर जाएंगे! लेकिन झुकें कैसे? क्योंकि झुकना, और नदी के सामने!
मत झुकें। नदी बहती रहेगी। नदी को आपके झुकने से कुछ मजा नहीं आने वाला है। नदी आपके झुकने के लिए नहीं बह रही है। न झुकाने में कोई रस है। अगर प्यास हो, तो झुक जाना। अगर प्यास न हो, तो खड़े रहना।
लेकिन हमारा मन ऐसा है कि हम अकड़े खड़े रहें, नदी आए हमारे बर्तन में, झुके और भर दे बर्तन को। और फिर धन्यवाद दे कि बड़ी कृपा तुम्हारी कि तुम प्यासे हुए, नहीं तो मेरा नदी होना अकारथ हो जाता!
गुरु—शिष्य का इतना ही अर्थ है कि गुरु है, जिसने पा लिया है, जो अब बह रहा है परमात्मा की तरफ। जिसकी नदी बही जा रही है। और ज्यादा देर नहीं बहेगी। थोड़े दिन में तिरोहित हो जाएगी और सागर में खो जाएगी।
तो बाहर की नदी जो है, वह तो बहती भी रहेगी। उधर हिमालय पर पानी बरसता ही रहेगा हर साल और नदी बहती रहेगी। ये बुद्ध या कृष्ण या क्राइस्ट की जो नदियां हैं, ये कोई हमेशा नहीं बहती रहेंगी। कभी प्रकट होती हैं; कभी बहती हैं। फिर सागर में खो जाती हैं। फिर हजारों साल लग जाते हैं। नदी का पाट खो जाता है। कहीं पता नहीं चलता कि नदी कहां खो गई। ये नदियां सरस्वती जैसी हैं; गंगा और यमुना जैसी नहीं। ये तिरोहित हो जाती हैं।
तो जब तक मौका हो, तब तक झुक जाना। मगर लोग ऐसे नासमझ हैं कि जब नदी खो जाती है और सिर्फ रेत का पाट रह जाता है, तब वे लाखों साल तक झुकते रहते हैं।
बुद्ध की नदी पर अभी भी झुक रहे हैं! और जब बुद्ध मौजूद थे, तब वे अकड़कर खड़े रहे। अब झुक रहे हैं। अब वहा रेत है। और वह नदी कभी की खो गई है। वहां नदी थी कभी, अब वहां सिर्फ रेत है।
लेकिन अभी और नदियां बह रही हैं। लेकिन वहां आप मत झुकना, क्योंकि वहा झुके तो प्यास भी बुझ सकती है। बचाना वहां अपने को। यह नदी वाली स्थिति है गुरु की। और शिष्य जब तक शिष्य न हो जाए, झुकना न सीख ले, तब तक कुछ भी नहीं सीख पाता है।
अब हम सूत्र लें।
और जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है; न सोच—चिंता करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है। और जो पुरुष शत्रु और मित्र में तथा मान और अपमान में सम है तथा सर्दी—गर्मी और सुख—दुखादिक द्वंद्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है, वह मुझको प्रिय है।
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है; न सोच करता है, न कामना करता है; जो शुभ—अशुभ संपूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है।
क्या है इसका अर्थ? आप सोचकर थोड़े हैरान होंगे कि जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है। क्या प्रसन्न होना भी बाधा है? क्या हर्षित होना भी बाधा है? कृष्ण के वचन से लगता है। थोड़ा इसके मनोविज्ञान में प्रवेश करना पड़े।
आप हंसते क्यों हैं? कभी आपने सोचा? क्या आप इसलिए हंसते हैं कि आप प्रसन्न हैं? या आप इसलिए हंसते हैं कि आप दुखी हैं?
उलटा लगेगा, लेकिन आप हंसते इसलिए हैं, क्योंकि आप दुखी हैं। दुख के कारण आप हंसते हैं। हंसना आपका दुख भुलाने का उपाय है। हंसना एंटीडोट है, उससे दुख विस्मृत होता है। आप दूसरे पहलू पर घूम जाते हैं। आपके भीतर बड़ा तनाव है। हंस लेते हैं, वह तनाव बिखर जाता है और निकल जाता है।
इसलिए आप यह मत समझना कि बहुत हंसने वाले लोग, बहुत प्रसन्न लोग हैं। संभावना उलटी है। संभावना यह है कि वे भीतर बहुत दुखी हैं।
नीत्शे ने कहा है कि मैं हंसता रहता हूं। लोग मुझसे पूछते हैं कि क्यों हंसते रहते हो, तो मैं छिपा जाता हूं। क्योंकि बात बड़ी उलटी है। मैं इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लग। अगर न हंसू तो रोने लगूंगा। वे आंसू न दिख जाएं किसी को, वह दीनता न प्रकट हो जाए, तो मैं हंसता रहता हूं। मेरी हंसी एक आवरण है, जिसमें मैं दुख को छिपाए हुए हूं।
दुखी लोग अक्सर हंसते रहते हैं। कुछ भी मजाक खोज लेंगे, कुछ बात खोज लेंगे और हंस लेंगे। हंसने से थोड़ा हलकापन आ जाता है। लेकिन अगर कोई आदमी भीतर से बिलकुल दुखी न रहा हो, तो फिर हर्षित होने की यह व्यवस्था तो टूट जाएगी। जब भीतर से दुख ही चला गया हो, तो यह जो हंसी थी, यह जो हर्षित होना था, यह तो समाप्त हो जाएगा, यह तो नहीं बचेगा।
इसका यह मतलब नहीं है कि वह अप्रसन्न रहेगा। पर उसकी प्रसन्नता का गुण और होगा। उसकी प्रसन्नता किसी दुख का विरोध न होगी। उसकी प्रसन्नता किसी दुख में आधारित न होगी। उसकी प्रसन्नता सहज होगी, अकारण होगी।
आपकी प्रसन्नता सकारण होती है। भीतर तो दुख रहता है, फिर कोई कारण उपस्थित हो जाता है, तो आप थोड़ा हंस लेते हैं। लेकिन उसकी प्रसन्नता अकारण होगी। वह हंसेगा नहीं। अगर इसे हम ऐसा कहें कि वह हंसता हुआ ही रहेगा, तो शायद बात समझ में आ जाए। वह हंसेगा नहीं, वह हंसता हुआ ही रहेगा। उसे पता ही नहीं चलेगा कि वह कब हर्षित हो रहा है। क्योंकि वह कभी दुखी नहीं होता। इसलिए भेद उसे पता भी नहीं रहेगा।
कृष्ण का चेहरा ऐसा नहीं लगता कि वे उदास हों। उनकी बांसुरी बजती ही रहती है। लेकिन हमारे जैसा हर्ष नहीं है। हमारा हर्ष रुग्ण है। हम हंसते भी हैं, तो वह रोग से भरा हुआ है, पैथालाजिकल है। उसके भीतर दुख छिपा हुआ है, हिंसा छिपी हुई है, तनाव छिपे हुए हैं। वे उसमें प्रकट होते हैं।
कृष्ण का हंसना — सहज आनंद का भाव है। उसे हम ऐसा समझें कि सुबह जब सूरज नहीं निकला होता है, रात चली गई होती है और सूरज अभी नहीं निकला होता है, तो जो प्रकाश होता है। आलोक, सुबह के भोर का आलोक। ठंडा, कोई तेजी नहीं है। अंधेरे के विपरीत भी नहीं है, अभी प्रकाश भी नहीं है। अभी बीच में संध्या में है। कृष्ण जैसे लोग, बुद्ध जैसे लोगों की प्रसन्नता आलोक जैसी है। दुख नहीं है; सुख नहीं है, दोनों, के बीच में संध्या है।
तो कृष्ण कहते हैं, जो न कभी हर्षित होता है.......।
कभी! कभी तो वही हर्षित होगा, जो बीच—बीच में दुखी हो, नहीं तो कभी का कोई मतलब नहीं है।
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है..।
क्योंकि सब दुखों का कारण द्वेष है। और जो द्वेष करता है, वह दुखी होगा।
आपको पता है, आपके दुख का कारण आपके दुख कम और दूसरों के सुख ज्यादा हैं! आपका मकान हो सकता है काफी हो आपके लिए, लेकिन पड़ोस में एक बड़ा मकान बन गया, अब दुख शुरू हो गया।
एक मित्र के घर मैं रुकता था। बड़े प्रसन्न थे वे। और जब जाता था, तो अपना घर दिखाते थे। स्विमिंग मूल दिखाते थे, बगीचा दिखाते थे। बहुत अच्छा, प्यारा घर था। बड़ा बगीचा था। सब शानदार था। खूब संगमरमर लगाया था। जब मैं उनके घर जाता था, तो घर में रहना मुश्किल था, घर की बातें ही सुननी पड़ती थीं, घर के बाबत ही, कि यह बनाया, यह बनाया। मुझे सुबह से वही देखना पड़ता था। जब भी गया, यही था। वे कुछ न कुछ बनाए जाते थे।
फिर एक बार गया। उन्होंने घर की बात न चलाई। तो मैं थोड़ा परेशान हुआ। क्योंकि वे बिलकुल पागल थे। वे घर के पीछे दीवाने थे। जैसे घर बनाने को ही जमीन पर आए थे। उसके सिवाय उनके सपने में भी कुछ नहीं था।
उनकी पत्नी भी परेशान थी। वह भी मुझसे बोली थी कि हम तो सोचे थे कि यह घर मेरे लिए बना रहे हैं, घरवाली के लिए बना रहे हैं। अब तो ऐसा लगता है कि घरवाली को घर के लिए लाए हैं! कि घर खाली—खाली न लगे, इसलिए शादी की है, ऐसा मालूम पड़ता है। पहले तो मैं यह सोचती थी, उनकी पत्नी ने मुझे कहा, कि मुझसे शादी की, इसलिए घर बना रहे हैं। अब लगता है, यह
खयाल मेरा गलत था।
लेकिन जब मैंने पाया कि अब वे चुप हैं, घर के बाबत कुछ नहीं कहते, तो मैंने उनसे दोपहर पूछा कि बात क्या है? बड़ी बेचैनी—सी लगती है घर में। आप घर के संबंध में चुप क्यों हैं? उन्होंने कहा, देखते नहीं कि पड़ोस में एक बड़ा घर बन गया है! अब क्या खाक बात करें इसकी! अब रुको। दो—चार साल बाद करेंगे। जब तक इससे ऊंचा न कर लूं...।
दुखी हैं, उदास हैं। घर उनका वही का वही है। लेकिन पड़ोस में एक बडा घर बन गया है। बड़ी लकीर खींच दी किसी ने। उनकी लकीर छोटी हो गई है!
आपके अधिक दुख आपके दुख नहीं हैं, आपके अधिक दुख दूसरों के सुख हैं। और इससे उलटी बात भी आप समझ लेना। आपके अधिक सुख भी आपके सुख नहीं हैं, दूसरे लोगों के दुख हैं। जब आप किसी का मकान छोटा कर लेते हैं, तब सुखी होते हैं। आपको अपने मकान से सुख नहीं मिलता। और जब कोई आपका मकान छोटा कर देता है, तो दुखी होते हैं। आपको अपने मकान से न दुख मिलता है, न सुख। दूसरों के मकान! द्वेष, ईर्ष्या......।
कृष्ण कहते हैं, न जो द्वेष करता है, न हर्षित होता है, न चिंता करता है..।
चिंता क्या है? क्या है चिंता हमारे भीतर? जो हो चुका है, उसको जुगाली करते रहते हैं। आदमी की खोपड़ी को खोलें, तो वह जुगाली कर रहा है। सालों पुरानी बातें जुगाली कर रहा है, कि कभी ऐसा हुआ, कभी वैसा हुआ।
जो अब नहीं है, उसको आप क्यों ढो रहे हैं? या भविष्य की फिक्र कर रहा है, जो अभी है नहीं। या तो अतीत की फिक्र कर रहा है, जो जा चुका। या भविष्य की फिक्र कर रहा है, जो अभी आया नहीं। और जो अभी, यहीं है, वर्तमान, उसे खो रहा है इस चिंता में। और परमात्मा अभी है, यहां। और आप या तो अतीत में हैं या भविष्य में। यह चिंता प्राण ले लेती है। यही चुका देती है।
तो कृष्ण कहते हैं, जो चिंता नहीं करता...। चिंता का मतलब यह कि जो शात है; यहीं है, न अतीत में उलझा है, न भविष्य में। वर्तमान के क्षण में जो है, निश्चित, चिंतनशून्य, विचारमुक्त।
वर्तमान में कोई विचार नहीं है। सब विचार अतीत के हैं या भविष्य के हैं। और भविष्य कुछ भी नहीं है, अतीत का ही प्रक्षेपण है। और हम इसी में डूबे हुए हैं। या तो आप पीछे की तरफ चले गए हैं या आगे की तरफ। यहां! यहां आप बिलकुल नहीं हैं। और यहीं है परमात्मा, इसलिए आपका मिलन नहीं हो पाता।
कृष्ण कहते हैं, न जो चिंता करता है, न कामना करता है, और शुभ—अशुभ कर्मों के फल का त्यागी है। और जिसने सब शुभ—अशुभ कर्म परमात्मा पर छोड़ दिए कि तू करवाता है। वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है।
जो पुरुष शत्रु और मित्र में, मान—अपमान में सम है, सर्दी—गर्मी में, सुख—दुख में सम है, आसक्ति से रहित है, वह पुरुष मुझे प्रिय है। जो सम है, जो डोलता नहीं है एक से दूसरे पर। हम निरंतर डोलते हैं। जिसको आप प्रेम करते हैं, उसी को घृणा भी करते हैं। सुबह प्रेम करते हैं, सांझ घृणा करते हैं। जिसको आप सुंदर मानते हैं, उसी को कुरूप भी मानते हैं। सांझ सुंदर मानते हैं, सुबह कुरूप मान लेते हैं। जो अच्छा लगता है, वही आपको बुरा भी लगता है। और चौबीस घंटे आप इसी में डोलते रहते हैं द्वंद्व में, घड़ी के पेंडुलम की तरह, बाएं से दाएं दाएं से बाएं। यह जो डोलता हुआ मन है, विषम, यह मन उपलब्ध नहीं हो पाता अस्तित्व की गहराई को।
कृष्ण कहते हैं, जो सम है। सुख आ जाए तो भी विचलित नहीं होता। दुख आ जाए तो भी विचलित नहीं होता।
आप सब हालत में विचलित होते हैं। दुख में तो विचलित होते ही हैं, लाटरी मिल जाए तो भी हार्ट अटैक होता है। तो भी गए! मैंने सुना है कि चर्च का एक पादरी बड़ी मुश्किल में पड़ गया था। एक आदमी को लाटरी मिली लाख रुपए की। उसकी पत्नी को खबर आई। पति तो बाहर गया था। पत्नी घबड़ा गई। घबड़ा गई यह सोचकर कि जैसे ही पति को पता लगेगा कि लाख रुपए की लाटरी मिली है, उनके हृदय के बचने का उपाय नहीं है। वह जानती थी अपने पति को कि एक रुपया मिल जाए तो वे दीवाने हो जाते हैं। लाख रुपया! पागल हो जाएंगे या मर जाएंगे।
तो उसने सोचा कि कुछ जल्दी उपाय करना चाहिए, इसके पहले कि वे घर आएं। तो उसे खयाल आया कि पड़ोस में चर्च का पादरी है; होशियार, बुद्धिमान पुरोहित है। उसको जाकर कहे कि कुछ कर दो। कुछ ऐसा इंतजाम जमाओ।
तो चर्च के पादरी को उसने जाकर बताया कि लाख रुपए की लाटरी मिल गई है मेरे पति के नाम। और अब वे आते ही होंगे बाजार से। आप घर चलें मेरे। और जरा इस ढंग से उनको समझाएं, इस ढंग से बात को प्रकट करें कि उनको कोई सदमा न पहुंच जाए सुख का। और वे बच जाएं; कोई नुकसान न हो।
तो पादरी ने पूछा कि तू मुझे क्या देगी? तो उसने कहा, पाँच हजार आप ले लेना। पादरी ने कहा, क्या कहा? पांच हजार! उसको हार्ट अटैक हो गया। वह वहीं गिर पड़ा। सच, पांच हजार! वह पहली दुर्घटना चर्च के पादरी के साथ हो गई।
आदमी, सुख हो या दुख, जब भी कुछ तीव्र होता है, तो विचलित हो जाता है। सम का अर्थ है, जो विचलित नहीं होता। जो भी आता है, उसे ले लेता है, कि ठीक है, आया, चला जाएगा। सुबह आई, सांझ आई, अंधेरा आया, प्रकाश आया, सुख—दुख आया, मित्र—शत्रु—ले लेता है चुपचाप और अलिप्त दूर खड़ा देखता रहता है।
ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, मुझे प्रिय है।
दो—तीन बातें कल के संबंध में। कल वे ही मित्र यहां आएं, जो सच में ही भक्ति के इस भाव में उतरना चाहते हों, क्योंकि कल प्रयोग का दिन होगा। गीता का एक सूत्र बचा है, वह मैं परसों लूंगा। कल कोई गीता का सूत्र नहीं लूंगा। कल बात नहीं होगी, कुछ कृत्य होगा।
इतने दिन जिन्होंने सुना है, अगर उन्हें लगता हो कि कुछ करने जैसा भी है, सिर्फ सुनने जैसा नहीं है, केवल वे ही लोग आएं। जिनको सुनना है, वे परसों आएं, कल उनके लिए छुट्टी है। जिन्हें कुछ करना है, कल वे ही लोग आएं।
इसे जरा ईमानदारी से खयाल रख लेना, क्योंकि यहां कोई रुकावट नहीं लगाई जा सकती। अगर आपको नहीं करना है, तो भी आप आ गए, तो कोई रुकावट नहीं लग सकती। लेकिन वह आपकी बेईमानी होगी। आप मत आएं। आते हों, तो करने का तय करके आएं कि यहां कुछ प्रयोग होगा, उसमें सम्मिलित होना है। पहली बात।
दूसरी बात, जो लोग यहां आने वाले हैं, वे एक फूल अपने साथ, कोई भी फूल ले आएं। और पूरे रास्ते एक ही बात मन में पुनरुक्त करते रहें बार—बार जप की तरह, कि यह फूल मेरा अहंकार है, यह फूल मेरी अस्मिता है, यही मेरी ईगो है। उस फूल में अपने सारे अहंकार को समाविष्ट कर दें।
एक ही भाव आंख खोलकर भी करें, फूल को देखें, आंख बंद करके भी करें। फूल को सूंघें और समझें कि यह मेरा अहंकार है, जिसको मैं सूंघ रहा हूं। छुए, और समझें कि यह मेरा अहंकार है, जिसको मैं छू रहा हूं। देखें, और समझें कि यह मेरा अहंकार है, जिसको मैं देख रहा हूं।
घर से आते वक्त, पूरे रास्ते फूल में ही अपने ध्यान को रखें और अपने अहंकार को पूरा प्रोजेक्ट कर दें। फूल में डुबा दें अपने अहंकार को।
जैसे—जैसे आपका अहंकार फूल में प्रवेश करने लगेगा, आपको फूल भारी मालूम पड़ने लगेगा। अगर आपने ठीक से प्रयोग किया, तो आपको फूल का भारीपन स्पष्ट अनुभव होगा। न केवल फूल भारी होने लगेगा, जैसे—जैसे आपका अहंकार प्रवेश करेगा, फूल कुम्हलाने और मुरझाने लगेगा।
पूरे प्रायों से अपने को उंडेल दें, कि सारा अहंकार मेरा इस फूल में समा जाए। यह भावना करते और सब विचार छोड्कर..। कोई विचार बीच में आ जाए जैसे ही खयाल आए छोड्कर वापस इसी विचार में लग जाएं कि यह फूल मेरा अहंकार है। आप अगर अपने अहंकार को इस फूल में समाविष्ट कर लाए, तो यहां परिणाम हो सकेगा।
आपको फूल लाकर यहां चुपचाप बैठ जाना है। और कल आप यहां आकर बिलकुल बातचीत न करें। बिलकुल जबान बंद कर लें। क्योंकि आपकी बातचीत आपके प्रयोग में बाधा बनेगी। जैसे ही प्रवेश करें ग्राउंड पर, चुपचाप अपनी जगह जाकर बैठ जाएं। फूल को दोनों हाथों के बीच में ले लें और एक ही भाव करते रहें आंख बंद करके, कि इस फूल में मेरा सारा अहंकार प्रवेश कर रहा है। जब तक मैं न आ जाऊं, आपको यह प्रयोग करते रहना है। फिर आने के बाद मैं आपको कहूंगा कि अब क्या आगे करें।
एक घंटे का हम प्रयोग करेंगे। यह प्रयोग सामूहिक शक्तिपात का प्रयोग है। अगर आप अपने अहंकार को छोड़ने को राजी हो गए, अगर आपने अपने अहंकार को फूल में समाविष्ट कर लिया, तो मैं आऊंगा और कहूंगा कि इस फूल को अब फेंक दें। मैं जब तक न कहूं तब तक आपको रखे बैठे रहना है। उस फूल के गिराते ही आपको लगेगा कि जैसे सिर से पूरा बोझ, एक भार, एक पहाड़ हट गया। और उसके हटने के बाद एक काम हो सकेगा।
बीस मिनट तक पहले चरण में, यहां कुछ संगीत चलता रहेगा और मैं आपकी तरफ देखता रहूंगा। उन बीस मिनट में आपको एकटक मेरी ओर देखते रहना है। चाहे पलक से आंसू बहने लगें, आपको पलक नहीं झपनी है। बीस मिनट आपको एकटक मेरी ओर देखना है। सारी दुनिया मिट गई; मैं हूं और आप हैं। बस, हम दो बचे हैं।
अगर आपको यह खयाल में आ गया कि हम दो बचे हैं—मैं और आप—तो मैं आप पर काम करना शुरू कर दूंगा। और जो आप वर्षों में अकेले नहीं कर सकते, वह क्षणों में हो सकता है। लेकिन हिम्मत की जरूरत है कि आप बीस मिनट आंख एकटक मेरी ओर देखते रहें। और आपको किसी को भी नहीं देखना है। यहां इतने लोग हैं, आपको मतलब नहीं। आपको मुझे देखना है। आपके पड़ोस में कोई चीखने—चिल्लाने लगे, रोने लगे, कुछ करने लगे, आपको आंख नहीं फेरनी है। आपको मेरी तरफ देखना है। यह प्रयोग गुरु—गंभीर है। और इसको अगर आप थोड़ी समझपूर्वक करेंगे, तो बड़े अनुभव को उतर जाएंगे।
बीस मिनट आपको मेरी तरफ देखते रहना है। और जो कुछ आपके भीतर हो, उसे होने देना है। कोई चीखने लगेगा, कोई चिल्लाने लगेगा, कोई रोने लगेगा। किसी ने रोना रोक रखा है सालों से, जन्मों से; घाव भरे हैं, वे बहने लगेंगे। कोई खिलखिला कर हंसने लगेगा। कोई पागल जैसा व्यवहार करने लगेगा। उसकी फिक्र न करें। और आपके भीतर भी कुछ होना चाहे, तो उसे रोकें मत। यह साहस हो, तो ही आना।
पागल होने की हिम्मत हो, तो ही आना। अपने को रोक लिया, तो आपका आना व्यर्थ हुआ और आपके कारण आस—पास की हवा भी व्यर्थ होगी। आप मत आना। आपकी कोई जरूरत नहीं है। बीस मिनट आपकी सारी बीमारी, सारी विक्षिप्तता को मैं खींचने की कोशिश करूंगा आपकी आंखों के जरिए। अगर आपने मेरे साथ सहयोग किया, तो आपके न मालूम कितने मानसिक तनाव, बीमारी, चिंता गिर जाएगी। आप एकदम हलके हो जाएंगे।
फिर बीस मिनट मौन रहेगा। उस मौन में फिर पत्थर की तरह होकर बैठ जाना है। आंख बंद और शरीर मुर्दे की तरह छोड़ देना है। फिर बीस मिनट, आखिरी चरण में, आपको अभिव्यक्ति का मौका होगा कि इस बीस मिनट के मौन में आपको जो आनंद उपलब्ध हुआ हो—और गहन आनंद उपलब्ध होगा—और जो शांति आपने जानी हो, अपरिचित, कभी न जानी, वह आपके भीतर झरने की तरह बहने लगेगी, उसको अभिव्यक्ति देने के लिए बीस मिनट होंगे।
कोई खुशी से नाचेगा, कोई गीत गाएगा, कोई कीर्तन करेगा। लेकिन आपको दूसरे पर ध्यान नहीं देना है। आपको अपने भीतर का ही भाव देखना है, कि अगर मुझे नाचना है, तो नाच लूं शात बैठना है, शात बैठा रहूं; गाना है, तो गा लूं। और किसी की चिंता न करूं।
एक घंटे अगर आप मेरे साथ सहयोग करते हैं, तो मैं आपके भीतर प्रवेश कर सकता हूं। और आपके भीतर से बहुत कुछ बदला जा सकता है।
और यह प्रयोग इसलिए है कि आपको एक झलक मिल जाए। क्योंकि हम उसकी खोज भी कैसे करें, जिसकी हमें झलक ही न हो? जिस परमात्मा का हमें जरा—सा भी स्वाद नहीं है, हम उसकी खोज पर भी कैसे निकलें? थोड़ी—सी झलक हो, थोड़ा—सा उसका स्वर सुनाई पड़ जाए थोड़े—से उसके आनंद का झरना फूट पड़े, थोड़ा—सा उसका प्रकाश दिखाई पड़ जाए, तो फिर हम भी दौड़ पड़ेंगे। फिर हमारे पैरों का सारा आलस्य मिट जाएगा। और फिर हमारे प्राणों की सारी सुस्ती दूर हो जाएगी। लेकिन एक झलक मिल जाए! जरा—सी झलक! फिर हम उसकी खोज कर लेंगे जन्मों—जन्मों में। फिर वह हमसे बच नहीं सकता। फिर वह कहीं भी हो, हम उसका पता लगा लेंगे।
मैंने सुना है कि एक गांव से जिप्सियों का एक समूह निकलता था। और गांव के एक बच्चे को, जो चर्च के पादरी का बच्चा था, उन्होंने चुरा लिया। उसे उन्होंने अपनी बैलगाड़ी में अंदर बंद करके डाल दिया है और उनका समूह आगे बढने लगा।
जिप्सी अक्सर बच्चे चुरा लेते हैं। वह छोटा बच्चा था। उसकी कुछ समझ में न आ रहा था कि क्या हो रहा है। लेकिन गाड़ी में पड़े हुए उसका ध्यान तो अपने गांव की तरफ लगा था, कि गांव दूर होता जा रहा है!
सांझ का वक्त था और चर्च की घंटियां बज रही थीं। वह घंटी को सुनता रहा। जैसे—जैसे गाड़ी दूर होती गई, घंटी की आवाज धीमी होती गई। लेकिन वह और गौर से सुनता रहा। क्योंकि शायद यह आखिरी बार होगा। अब दोबारा यह मौका आए न आए। वह अपने गांव की आवाज सुन सकेगा या नहीं! और इस गांव की एक ही याददाश्त, यह बजती हुई घंटी का धीमा होते जाना, धीमा होते जाना..।
और वह इतने गौर से सुनने लगा कि राह पर चलती हुई गाड़ियों की आवाज, घोड़ों की आवाज, जिप्सियों की बातचीत, सब उसे भूल गई। सिर्फ उसे घंटी की आवाज सुनाई पड़ती रही। बड़े दूर 'तक सन्नाटे में वह सुनता रहा।
फिर वर्षों बीत गए। बड़ा हो गया। उसके गांव की उसे सिर्फ एक ही याद रह गई, वह घंटी की आवाज। अपने बाप का नाम उसे याद न रहा; अपने गांव का नाम याद न रहा; अपने गांव की शक्ल याद न रही। उसका चर्च, उसका घर, कैसा था, वह सब विस्मृत हो गया। वह बहुत छोटा बच्चा था। लेकिन एक बात चित्त में कहीं गहरे उतर गई, वह घंटी की आवाज।
अब घंटी की आवाज से क्या होगा? कैसे वापस खोजे? जवान होकर वह भाग खड़ा हुआ। जिप्सियों को उसने छोड़ दिया। और वह हर गांव के आस—पास सांझ को जाकर खड़ा हो जाता था, जिस भी गांव के पास होता, और घंटी की आवाज सुनता था।
कहते हैं कि पाच साल की निरंतर खोज के बाद आखिर एक दिन एक गांव के पास उसे चर्च की घंटी पहचान में आ गई। यह वही घंटी थी। फिर चर्च से दूर जाकर भी उसने देख लिया। जैसे—जैसे दूर गया, घंटी वैसी ही धीमी होती गई, जैसी पहली बार हुई थी।
फिर वह भागा हुआ चर्च में पहुंच गया। एक स्वर मिल गया। वह चर्च भी पहचान गया। वह पिता के चरणों में गिर पड़ा। पिता बूढ़ा था और मरने के करीब था। और पिता नहीं पहचान पाया। और उसने अपने बेटे से पूछा कि तूने कैसे पहचाना? तू कैसे पहचाना? तू कैसे वापस आया? मैं तक तुझे भूल गया हूं! तो उसने कहा, एक आवाज, इस चर्च की घंटी की आवाज मेरे साथ थी। कल के इस प्रयोग में अगर आपको थोड़ी—सी भी आवाज परमात्मा की सुनाई पड़ जाए तो वह आपके साथ रहेगी। और जन्मों—जन्मों में कहीं भी वह आवाज सुनाई पड़ जाए, आप समझेंगे कि परमात्मा का मंदिर निकट है, खोज हो सकती है।
आज इतना ही।
लेकिन कल केवल वे ही लोग आएं, जो प्रयोग करने की तैयारी रखते हों। बाकी—ईमानदारी से—कोई व्यक्ति न आए।
अब हम कीर्तन करें। पांच मिनट बैठे रहें अपनी जगह पर। उठे न। कीर्तन के बाद जाएं।
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