अध्याय—13
सार—सूत्र:
श्रीमद्भगवद्गीता अथ त्रयौदशोऽध्याय:
श्री भगवानुवाच:
ड़दं शरीर कौन्तेय क्षेत्रीमित्यीभधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं पाहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्धिद:।। 1।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्ञनिं यतज्ज्ञानं मतं मम।। 2।।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रेृणु।। 3।।
उसके उपरांत श्रीकृष्ण भगवान बोले है अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसे कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्र ऐसा उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। और हे अर्जुन तू अब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान।
और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात विकार रहित प्रकृति का और पुरूष का जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से मन।
सुबह से सांझ तक न मालूम कितने प्रकार के दुखी लोगों से मेरा मिलना होता है। एक बात की मैं तलाश करता रहा हूं कि कोई ऐसा दुखी आदमी मिल जाए, जिसके दुख का कारण कोई और हो। अब तक वैसा आदमी खोज नहीं पाया। दुख चाहे कोई भी हो, दुख के कारण में आदमी खुद स्वयं ही होता है। दुख के रूप अलग हैं, लेकिन दुख की जिम्मेवारी सदा ही स्वयं की है।
दुख कहीं से भी आता हुआ मालूम होता हो, दुख स्वयं के ही भीतर से आता है। चाहे कोई किसी परिस्थिति पर थोपना चाहे, चाहे किन्हीं व्यक्तियों पर, संबंधों पर, संसार पर, लेकिन दुख के सभी कारण झूठे हैं। जब तक कि असली कारण का पता न चल जाए। ओर वह असली कारण व्यक्ति स्वयं ही है। पर जब तक यह दिखाई न पड़े कि मेरे दुख का कारण मैं हूं तब तक दुख से छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि ठीक कारण का ही पता न हो, ठीक लदान दी न हो सके, तो इलाज के होने का कोई उपाय नहीं है। और जब तक मैं भ्रांत कारण खोजता रहूं, तब तक कारण तो मुझे मिल सकते हैं, लेकिन समाधान, दुख से मुक्ति, दुख से छुटकारा नहीं हो सकता।
और आश्चर्य की बात है कि सभी लोग सुख की खोज करते हैं। और शायद ही कोई कभी सुख को उपलब्ध हो पाता है। इतने लोग खोज करते हैं, इतने लोग श्रम करते हैं, जीवन दाव पर लगाते हैं और परिणाम में दुख के अतिरिक्त हाथ में कुछ भी नहीं आता। जीवन के बीत जाने पर सिर्फ आशाओं की राख ही हाथ में मिलती है। सपने, टूटे हुए; इंद्रधनुष, कुचले हुए; असफलता, विफलता, विषाद! मौत के पहले ही आदमी दुखों से मर जाता है। मौत को मारने की जरूरत नहीं पड़ती; आप बहुत पहले ही मर चुके होते हैं; जिंदगी ही काफी मार देती है। जीवन आनंद का उत्सव तो नहीं बन पाता, दुख का एक तांडव नृत्य जरूर बन जाता है।
और तब स्वाभाविक है कि यह संदेह मन में उठने लगे कि इस दुख से भरे जीवन को क्या परमात्मा ने बनाया होगा? और अगर परमात्मा इस दुख से भरे जीवन को बनाता है, तो परमात्मा कम और शैतान ज्यादा मालूम होता है। और अगर इतना दुख जीवन का फल है, तो परमात्मा सैडिस्ट, दुखवादी मालूम होता है। लोगों को सताने में जैसे उसे कुछ रस आता हो! तो फिर स्वाभाविक ही है कि अधिक लोग दुख के कारण परमात्मा को अस्वीकार कर दें।
जितना ही मैं इस संबंध में लोगों के मनों की छानबीन करता हूं, तो मुझे लगता कि नास्तिक कोई भी तर्क के कारण नहीं होता। नास्तिक लोग दुख के कारण हो जाते हैं। तर्क तो पीछे आदमी इकट्ठे कर लेता है।
लेकिन जीवन में इतनी पीड़ा है कि आस्तिक होना मुश्किल है। इतनी पीड़ा को देखते हुए आस्तिक हो जाना असंभव है। या फिर ऐसी आस्तिकता झूठी होगी, ऊपर-ऊपर होगी, रंग-रोगन की गई होगी। ऐसी आस्तिकता का हृदय नहीं हो सकता। आस्तिकता तो सच्ची सिर्फ आनंद की घटना में ही हो सकती है। जब जीवन एक आनंद का उत्सव दिखाई पड़े, अनुभव में आए तो ही कोई आस्तिक हो सकता है।
आस्तिक शब्द का अर्थ है, समग्र जीवन को हौ कहने की भावना। लेकिन दुख को कोई कैसे ही कह सके? आनंद को ही कोई ही कह सकता है। दुख के साथ तो संदेह बना ही रहता है। शायद आपने कभी सोचा हो या न सोचा हो, कोई भी नहीं पूछता कि आनंद क्यों है? लेकिन दुख होता है, तो आदमी पूछता है, दुःख क्यों है? दुख के साथ प्रश्न उठते हैं। आनंद तो निष्प्रश्न स्वीकार हो जाता है। अगर आपके जीवन में आनंद ही आनंद हो, तो आप यह न पूछेंगे कि आनंद क्यों है? आप आस्तिक होंगे। क्यों का सवाल ही न उठेगा।
लेकिन जहां जीवन में दुख ही दुख है, वहा आस्तिक होना थोथा मालूम होता है। वहा तो नास्तिक ही ठीक मालूम पड़ता है। क्योंकि वह पूछता है कि दुख क्यों है? और दुख क्यों है, यही सवाल गहरे में उतरकर सवाल बन जाता है कि इतने दुख की मौजूदगी में परमात्मा का होना असंभव है। इस दुख को बनाने वाला परमात्मा हो सके, यह मानना कठिन है। और ऐसा परमात्मा अगर हो भी, तो उसे मानना उचित भी नहीं है।
जीवन में जितना दुख बढ़ता जाता है, उतनी नास्तिकता बढ़ती जाती है। नास्तिकता को मैं मानसिक, मनोवैज्ञानिक घटना मानता हूं तार्किक, बौद्धिक नहीं। कोई तर्क के कारण नास्तिक नहीं होता। यद्यपि जब कोई नास्तिक हो जाता है, तो तर्क खोजता है।
सिमॉन वेल ने, एक फ्रेंच विचारक महिला ने लिखा है अपने आत्म-कथ्य में, कि तीस वर्ष की उम्र तक सतत मेरे सिर में दर्द बना रहा, मेरा शरीर अस्वस्थ था। और तब मेरे मन में ईश्वर के प्रति बड़े संदेह उठे। और यह खयाल मुझे कभी भी न आया कि मेरे शरीर का अस्वास्थ्य ही ईश्वर के संबंध में उठने वाले प्रश्नों का कारण है। और फिर मैं स्वस्थ हो गई और शरीर ठीक हुआ और सिर का दर्द खो गया, तो मुझे पता न चला कि मेरे प्रश्न जो ईश्वर के संबंध में उठते थे संदेह के, वे कब गिर गए। और बहुत बाद में ही मुझे होश आया कि मैं किसी क्षण में आस्तिक हो गई हूं।
वह जो जीवन में स्वास्थ्य की धार बहने लगी, वह जो जीवन में थोड़े से रस की झलक आने लगी, वह जो जीवन में थोड़ा अर्थ और अभिप्राय दिखाई पड़ने लगा, फूरल, आकाश के तारे और हवाओं के झोंकों में आनंद की थोड़ी-सी खबर आने लगी, तो सिमॉन वेल का मन नास्तिकता से आस्तिकता की तरफ झुक गया। और तब उसे खयाल आया कि जब वह नास्तिक थी, तो नास्तिकता के पक्ष में तर्क जुटा लिए थे उसने। और अब जब वह आस्तिक हो गई, तो उसने आस्तिकता के पक्ष में तर्क जुटा लिए।
तर्क आप पीछे जुटाते हैं, पहले आप आस्तिक हो जाते हैं या नास्तिक हो जाते हैं। तर्क तो सिर्फ बौद्धिक उपाय है, अपने को समझाने का। क्योंकि मैं जो भी हो जाता हूं, उसके लिए रेशनलाइजेशन, उसके लिए तर्कयुक्त करना जरूरी हो जाता है।
अन्यथा मैं अपने ही सामने अतर्क्य मालूम होऊंगा। मुझे खुद को ही समझाना पड़ेगा कि मैं नास्तिक क्यों हूं। तो एक ही उपाय है कि ईश्वर नहीं है, इसलिए मैं नास्तिक हूं।
लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि अगर आप नास्तिक हैं, तो इसलिए नहीं कि ईश्वर नहीं है, बल्कि इसलिए कि आप दुखी हैं। आपकी नास्तिकता आपके दुख से निकलती है। और अगर आप कहते हैं कि मैं दुखी हूं और फिर भी आस्तिक हूं, तो मैं आपसे कहता हूं आपकी आस्तिकता झूठी और ऊपरी होगी। दुख से सच्ची आस्तिकता का जन्म नहीं हो सकता, क्योंकि दुख के लिए कैसे स्वीकार किया जा सकता है! दुख के प्रति तो गहन अस्वीकार बना ही रहता है। और तब फिर एक उपद्रव की घटना घटती है। टाल्सटाय ने लिखा है कि हे ईश्वर, मैं तुझे तो स्वीकार करता हूं लेकिन तेरे संसार को बिलकुल नहीं। लेकिन बाद में उसे भी खयाल आया कि अगर मैं ईश्वर को सच में ही स्वीकार करता हूं तो उसके संसार को अस्वीकार कैसे कर सकता हूं? और अगर मैं उसके संसार को अस्वीकार करता हूं तो मेरे ईश्वर को स्वीकार करने की बात में कहीं न कहीं धोखा है।
जब कोई ईश्वर को स्वीकार करता है, तो उसकी समग्रता में ही स्वीकार कर सकता है। यह नहीं कह सकता कि तेरे संसार को मैं अस्वीकार करता हूं। यह आधा काटा नहीं जा सकता है ईश्वर को। क्योंकि ईश्वर का संसार ईश्वर ही है। और जो उसने बनाया है, उसमें वह मौजूद है। और वह जो हमें दिखाई पड़ता है, उसमें वह छिपा है। जो आदमी दुखी है, उसकी आस्तिकता झूठी होगी, वह छिपे में नास्तिक ही होगा। और जो आदमी आनंदित है, अगर वह यह भी कहता हो कि मैं नास्तिक हूं तो उसकी नास्तिकता झूठी होगी; वह छिपे में आस्तिक ही होगा।
बुद्ध ने इनकार किया है ईश्वर से। महावीर ने कहा है कि कोई ईश्वर नहीं है। लेकिन फिर भी महावीर और बुद्ध से बड़े आस्तिक खोजना मुश्किल है। और आप कहते हैं कि ईश्वर है, लेकिन आप जैसे नास्तिक खोजना मुश्किल है। बुद्ध ईश्वर को इनकार करके भी आस्तिक ही होंगे, क्योंकि वह जो आनंद, वह जो नृत्य, वह जो भीतर का संगीत गंज रहा है, वही आस्तिकता है।
सुना है मैंने, यहूदी एक कथा है कि परमात्मा ने अपने एक दूत को भेजा इजराइल। यहूदियों के बड़े मंदिर के निकट, और मंदिर का जो बड़ा पुजारी था, उसके पास वह दूत आया और उसने कहा कि मैं परमात्मा का दूत हूं और यहां की खबर लेने आया हूं।
तो उस पुजारी ने पूछा कि यहां की मैं तुम्हें सिर्फ एक ही खबर दे सकता हूं कि यहां जो आस्तिक हैं, उनकी आस्तिकता में मुझे शक है। और इस गांव में दो नास्तिक हैं, उनकी नास्तिकता में भी मुझे शक है। गांव में दो नास्तिक हैं, उन्हें हमने कभी दुखी नहीं देखा। और गांव में इतने आस्तिक हैं, जो मंदिर में रोज प्रार्थना और पूजा करने आते हैं, वे सिवाय दुख की कथा के मंदिर में कुछ भी नहीं लाते, सिवाय शिकायतों के उनकी प्रार्थना में और कुछ भी नहीं है। परमात्मा से अगर वे कुछ मांगते भी हैं, तो दुखों से छुटकारा मांगते हैं।
लेकिन दुख से भरा हुआ हृदय परमात्मा के पास आए कैसे! वह दुख में ही इतना डूबा है, उसकी दृष्टि ही इतने अंधेरे से भरी है! इस जगत में एक तो अंधेरा है, जिसे हम प्रकाश जलाकर मिटा सकते हैं। और एक भीतर का अंधेरा है, उस अंधेरे का नाम दुख है। और जब तक हम भीतर आनंद का चिराग न जला लें, तब तक हम भीतर के अंधेरे को नहीं मिटा सकते।
तो उस पुजारी ने पूछा कि हे ईश्वर के राजदूत, मैं तुमसे यह पूछता हूं कि इस गांव में कौन लोग परमात्मा के राज्य में प्रवेश करेंगे? तो उस राजदूत ने कहा कि तुम्हें धक्का तो लगेगा, लेकिन वे जो दो नास्तिक हैं इस गांव में, वे ही परमात्मा के राज्य में प्रवेश करेंगे। उन्होंने कभी प्रार्थना नहीं की है, पूजा नहीं की है, वे मंदिर में कभी नहीं आए हैं, लेकिन उनका हृदय एक आनंद-उल्लास से भरा है, एक उत्सव से भरा है, जीवन के प्रति उनकी कोई शिकायत नहीं है। और इस जीवन के प्रति जिसकी शिकायत नहीं है, यही आस्तिकता है।
मनुष्य दुखी है, और दुख उसे परमात्मा से तोड़े हुए है। और जब मनुष्य दुखी है, तो उसके सारे मन की एक ही चेष्टा होती है कि दुख के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराए। और जब तक आप दुख के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराते हैं, तब तक यह मानना मुश्किल है कि आप अंतिम रूप से दुख के लिए परमात्मा को जिम्मेवार नहीं ठहराएंगे। अंततः वही जिम्मेवार होगा।
जब तक मैं कहता हूं कि मैं अपनी पत्नी के कारण दुखी हूं कि अपने बेटे के कारण दुखी हूं, कि गांव के कारण दुखी हूं पड़ोसी के कारण दुखी हूं-जब तक मैं कहता हूं मैं किसी के कारण दुखी हूं-तब तक मुझे खोज करूं तो पता चल जाएगा कि अंततः मैं यह भी कहूंगा कि मैं परमात्मा के कारण दुखी हूं।
दूसरे पर जिम्मा ठहराने वाला बच नहीं सकता परमात्मा को जिम्मेवार ठहराने से। आप हिम्मत न करते हों खोज की, और पहले ही रुक जाते हों, यह बात अलग है। लेकिन अगर आप अपने भीतर खोज करेंगे, तो आप आखिर में पाएंगे कि आपकी शिकायत की अंगुली ईश्वर की तरफ उठी हुई है।
सुना है मैंने, एक अरबी कहावत है कि जब परमात्मा ने दुनिया बनाई, तो सबसे पहले वह भी जमीन पर अपना मकान बनाना चाहता था। लेकिन फिर उसके सलाहकारों ने सलाह दी कि यह भूल मत करना। तुम्हारे मकान की एक खिड़की साबित न बचेगी, और तुम भी जिंदा लौट आओ, यह संदिग्ध है। लोग पत्थर मारकर तुम्हारे घर को तोड़ डालेंगे। और तुम एक क्षण को सो भी न पाओगे, क्योंकि लोग इतनी शिकायतें ले आएंगे! रहने की भूल जमीन पर मत करना। तुम वहा से सही-साबित लौट न सकोगे।। कभी अपने मन में आपने सोचा है कि अगर परमात्मा आपको मिल जाए, तो आप क्या निवेदन करेंगे? आप क्या कहेंगे? अपने हृदय में आप खोजेंगे, तो आप पाएंगे कि आप उसको जिम्मेवार ठहराएंगे आपके सारे दुखों के लिए।
धार्मिक व्यक्ति का जन्म ही इस विचार से होता है, इस आत्म- अनुसंधान से कि दुख के लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं, दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं। और जैसे ही यह दृष्टि साफ होने लगती है कि दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं? वैसे ही दुख से मुक्त हुआ जा सकता है। और मुक्त होने का कोई मार्ग भी नहीं है।
अगर मैं ही जिम्मेवार हूं, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। अगर कोई और मुझे दुख दे रहा है, तो मैं दुख से कैसे छूट सकता हूं? क्योंकि जिम्मेवारी दूसरे के हाथ में है। ताकत किसी और के। हाथ में है। मालिक कोई और है। मैं तो केवल झेल रहा हूं। और जब तक यह सारी दुनिया न बदल जाए जो मुझे दुख दे रही है, तब तक मैं सुखी नहीं हो सकता।
इसीलिए कम्युनिज्य और नास्तिकता में एक तालमेल है। और मार्क्स की इस अंतर्दृष्टि में अर्थ है कि मार्क्स मानता है कि जब तक धर्म जमीन पर प्रभावी है, तब तक साम्यवाद प्रभावी न हो सकेगा। इसलिए धर्म की जड़ें काट देनी जरूरी हैं, तो ही साम्यवाद प्रभावी हो सकता है। उसकी बात में मूल्य है, उसकी बात में गहरी दृष्टि है।
क्योंकि धर्म और साम्यवाद का बुनियादी भेद यही है कि साम्यवाद कहता है कि दुख के लिए कोई और जिम्मेवार है। और धर्म कहता है कि दुख के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेवार है। यह बुनियादी विवाद है। यह जड़ है विरोध की।
साम्यवाद कहता है, समाज बदल जाए, तो लोग सुखी हो जाएंगे; परिस्थिति बदल जाए, सुखी जाएंगे; व्यवस्था बदल जाए, तो लोग सुखी हो जाएंगे। व्यक्ति के बदलने की कोई बात साम्यवाद नहीं उठाता। कुछ और बदल जाए, मुझे छोड्कर सब बदल जाए, तो मैं सुखी हो जाऊंगा।
लेकिन धर्म का सारा अनुसंधान यह है कि दूसरा मेरे दुख का कारण है, यही समझ दुख है। दूसरा मुझे दुख दे सकता है, इसलिए मैं दुख पाता हूं इस खयाल से, इस विचार से। और तब मैं अनंत काल तक दुख पा सकता हूं दूसरा बदल जाए तो भी। क्योंकि मेरी जो दृष्टि है दुख पाने की, वह कायम रहेगी।
समाज बदल जाए.. .समाज बहुत बार बदल गया। आर्थिक व्यवस्था बहुत बार बदल गई। कितनी क्रांतिया नहीं हो चुकी हैं! और फिर भी कोई क्रांति नहीं हुई। आदमी वैसा का वैसा दुखी है। सब कुछ बदल गया। अगर आज से दस हजार साल पीछे लौटे, तो क्या बचा है? सब बदल गया है। एक ही चीज बची है, दुख वैसा का वैसा बचा है, शायद और भी ज्यादा बढ़ गया है।
गीता के इस अध्याय में दुख के इस कारण की खोज है। और दुख के इस कारण को मिटाने का उपाय है। और यह अध्याय गहन साधना की तरफ आपको ले जा सकता है। लेकिन इस बुनियादी बात को पहले ही खयाल में ले लें, तो इस अध्याय में प्रवेश बहुत आसान हो जाएगा।
बहुत कठिन मालूम होता है अपने आप को जिम्मेवार ठहराना। क्योंकि तब बचाव नहीं रह जाता कोई। जब मैं यह सोचता हूं कि मैं ही कारण हूं अपने दुखों का, तो फिर शिकायत भी नहीं बचती। किससे शिकायत करूं! किस पर दोष डालूं! और जब मैं ही जिम्मेवार हूं तो फिर यह भी कहना उचित नहीं मालूम होता कि मैं दुखी क्यों हूं? क्योंकि मैं अपने को दुखी बना रहा हूं इसलिए। और मैं न बनाऊं, तो दुनिया की कोई ताकत मुझे दुखी नहीं बना सकती। बहुत कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि तब मैं अकेला खड़ा हो जाता हूं और पलायन का, छिपने का, अपने को धोखा देने का, प्रवंचना का कोई रास्ता नहीं बचता। जैसे ही यह खयाल में आ जाता है कि मैं जिम्मेवार हूं वैसे ही क्रांति शुरू हो जाती है।
ज्ञान क्रांति है। और ज्ञान का पहला सूत्र है कि जो कुछ भी मेरे जीवन में घटित हो रहा है, उसे कोई परमात्मा घटित नहीं कर रहा है, उसे कोई समाज घटित नहीं कर रहा है, उसे मैं घटित कर रहा हूं चाहे मैं जानूं और चाहे मैं न जानूं।
मैं जिस कारागृह में कैद हो जाता हूं वह मेरा ही बनाया हुआ है। और जिन जंजीरों में मैं अपने को पाता हूं वे मैंने ही ढाली हैं। और जिन काटो पर मैं पाता हूं कि मैं पड़ा हूं वे मेरे ही निर्मित किए हुए हैं। जो गड्डे मुझे उलझा लेते हैं, वे मेरे ही खोदे हुए हैं। जो भी मैं काट रहा हूं वह मेरा बोया हुआ है, मुझे दिखाई पड़ता हो या न दिखाई पड़ता हो।
अगर यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो दुख-विसर्जन शुरू हो जाता है। और यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो आनंद की किरण भी फूटनी शुरू हो जाती है। और आनंद की किरण के साथ ही तत्व का बोध, तत्व का ज्ञान; वह जो सत्य है, उसकी प्रतीति के निकट मैं पहुंचता हूं।
अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें।
उसके उपरात कृष्ण बोले, अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उसके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। और हे अर्जुन, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान। और क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का अर्थात विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन।
आपका मन उदास है, दुखी है, पीड़ित है। सुबह आप उठे हैं; मन प्रफुल्लित है, शात है; जीवन भला मालूम होता है। या कि बीमार पड़े हैं और जीवन व्यर्थ मालूम होता है; लगता है, कोई सार नहीं है। जवान हैं और जीवन में गति मालूम पड़ती है, बहुत कुछ करने जैसा लगता है; कोई अभिप्राय दिखाई पड़ता है। फिर के हो गए हैं, थक गए हैं, शक्ति टूट गई है; और सब ऐसा लगता है कि जैसे कोई एक दुखस्वप्न था। न कोई उपलब्धि हुई है, न कहीं पहुंचे हैं, और मौत करीब मालूम होती है।
कोई भी अवस्था हो मन की, एक बात-बच्चे में, जवान में, बूढ़े में, सुख का आभास हो, दुख का आभास हो-उसमें एक बात समान है कि मन पर जो भी अवस्था आती है, आप अपने को उसके साथ तादात्म्य कर लेते हैं।
अगर भूख लगती है, तो आप ऐसा नहीं कहते कि मुझे पता चल रहा है कि शरीर को भूख लग रही है। आप कहते हैं, मुझे भूख लग रही है। यह केवल भाषा का ही भेद नहीं है। यह हमारी भीतर की प्रतीति है। सिर में दर्द है, तो आप ऐसा नहीं कहते, न ऐसा सोचते, न ऐसी प्रतीति करते कि सिर में दर्द हो रहा है, ऐसा मुझे पता चल रहा है। आप कहते हैं, मेरे सिर में दर्द है।
जो भी प्रतीति होती है, आप उसके साथ एक हो जाते हैं। वह जो जानने वाला है, उसको आप अलग नहीं बचा पाते। वह जो जानने वाला है, वह खो जाता है। ज्ञेय में खो जाता है शात।। दृश्य में खो जाता है द्रष्टा। भोग में खो जाता है भोक्ता। कर्म में खो जाता है कर्ता। वह जो भीतर जानने वाला है, वह दूर नहीं रह पाता और एक हो जाता है उससे जिसे जानता है। पैर में दर्द है. और आप दर्द के साथ एक हो जाते हैं।
यही एकमात्र दुर्घटना है। अगर कोई भी मौलिक पतन है, जैसा ईसाइयत कहती है, कोई ओरिजिनल, कोई मूल पाप, अगर कोई एक पतन खोजा जाए, तो एक ही है पतन और वह है तादात्म्य। जानने वाला एक हो जाए उसके साथ, जिसे जा जान रहा है।
दर्द आप नहीं हैं। आप दर्द को जानते हैं। दर्द आप हो भी नहीं सकते। क्योंकि अगर आप दर्द ही हो जाएं, तो फिर दर्द को जानने वाला कोई भी न बचेगा।
सुबह होती है, सूरज निकलता है, तो आप देखते हैं कि सूरज निकला, प्रकाश हो गया। फिर सांझ आती है, सूरज ढल जाता है, अंधेरा आ जाता है। तो आप देखते हैं, रात आ गई। लेकिन वह जो देखने वाला है, न तो सुबह है और न सांझ। वह जो देखने वाला है, न तो सूरज की किरण है, रात का अंधेरा भी नहीं है। वह जो देखने वाला है, वह तो अलग खड़ा है। वह सुबह को भी देखता है उगते, फिर सांझ को भी देखता है। फिर रात का अंधेरा भी देखता है, दिन का प्रकाश भी देखता है। वह जो देखने वाला है, वह अलग है। लेकिन जीवन में हम उसे अलग नहीं रख पाते हैं। वह तल्ला एक हो जाता है। कोई आपको गाली दे देता है, खट से चोट पहुंच जाती है। आप ऐसा नहीं कर पाते कि देख पाएं कि कोई गाली दे रहा है, और देख पाएं कि मन में चोट पहुंच रही है।
दोनों बातें आप देख सकते हैं। आप देख सकते हैं कि गाली दी गई, और आप यह भी देख सकते हैं कि मन में थोड़ी चोट और पीड़ा पहुंची। और आप दोनों से दूर खड़े रह सकते हैं।
यह जो दूर खड़े रहने की कला है, सारा धर्म उस कला का ही नाम है। वह जो जानने वाला है, वह जानी जाने वाली चीज से दूर खड़ा रह जाए; वह जो अनुभोक्ता है, अनुभव के पार खड़ा रह जाए। सब अनुभव का नाम क्षेत्र है। और वह जो जानने वाला है, उसका नाम क्षेत्रज्ञ है।
तो कृष्ण इस सूत्र में इन दोनों के भेद के संबंध में प्राथमिक प्रस्तावना कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उसके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते है।
आप शरीर के साथ अपने को जब तक एक कर रहे हैं, तब तक दुख से कोई छुटकारा नहीं है।
अब यह बहुत मजे की और बहुत चमत्कारिक घटना है। शरीर को कोई दुख नहीं हो सकता। शरीर में दुख होते हैं, लेकिन शरीर को कोई दुख नहीं हो सकता। क्योंकि शरीर को कोई बोध नहीं है। इसलिए आप मुर्दा आदमी को दुख नहीं दे सकते। इसीलिए तो डाक्टर इसके पहले कि आपका आपरेशन करे, आपको बेहोश कर देता है। बेहोश होते से ही शरीर को कोई दुख नहीं होता। लेकिन सब दुख शरीर में होते हैं। और वह जो जानने वाला है, उसमें कोई दुख नहीं होता।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
दुख शरीर में घटते हैं; और जाने जाते हैं उसमें, जो शरीर नहीं है। जानने वाला अलग है, और जहां दुख घटते हैं, वह जगह अलग है। और जहां दुख घटते हैं, वहां जानने की कोई संभावना नहीं है। और जो जानने वाला है, वहा दुख के घटने की कोई संभावना नहीं है।
जब कोई मेरे पैर को काटता है, तो पैर के काटने की घटना तो शरीर में घटती है, और अगर जानने वाला मौजूद न हो, तो कोई दुख घटित नहीं होगा। लेकिन जानने की घटना मुझमें घटती है। कटता है शरीर, जानता हूं मैं। यह जानना और शरीर में घटना का घटना इतना निकट है कि दोनों इकट्ठे हो जाते हैं; हम फासला नहीं कर पाते, दोनों के बीच में जगह नहीं बना पाते। हम एक ही हो जाते हैं।
जब शरीर पर कटना शुरू होता है, तो मुझे लगता है, मैं कट रहा हूं। और यह प्रतीति कि मैं कट रहा हूं दुख बन जाती है। हमारे सारे दुख शरीर से उधार लिए गए हैं। शरीर में कितने ही दुख घटे, अगर आपको पता न चले, तो दुख घटते नहीं। और शरीर में बिलकुल दुख न घटे, अगर आपको पता चल जाए, तो भी दुख घट जाते हैं। दूसरी बात भी खयाल में ले लें। शरीर में कोई दुख न घटे, लेकिन आपको प्रतीति करवा दी जाए कि दुख घट रहा है, तो दुख घट जाएगा।
सम्मोहन में सम्मोहित व्यक्ति को कह दिया जाए कि तेरे पैर में आग लगी है, तो पीड़ा शुरू हो जाती है। वह आदमी चीखने-चिल्लाने लगता है। वह रोने लगता है। प्रतीति शुरू हो गई आदमी का भरोसा बचा लेता है!
सम्मोहित आदमी को कुछ भी कह दिया जाए वह स्वीकार कर लेता है। उसे वैसा दुख होना शुरू हो जाएगा। कोई दुख शरीर में घट नहीं रहा है, लेकिन अगर जानने वाला मान ले कि घट रहा है, तो घटना शुरू हो जाता है।
आपको शायद खयाल न हो, जमीन पर जितने सांप होते हैं, उनमें केवल तीन प्रतिशत सांपों में जहर होता है। बाकी सत्तानबे प्रतिशत तो बिना जहर के होते हैं। लेकिन बिना जहर के सांप के काटे हुए लोग भी मरते हैं।
अब यह बड़ी अजीब घटना है। क्योंकि जिस सांप में जहर ही नहीं है, उससे काटा हुआ आदमी मर कैसे जाता है! और इसीलिए तो सांप को झाडने वाला भी सफल हो जाता है। क्योंक़ि सत्तानबे प्रतिशत मौके पर तो कोई जहर होता नहीं, सिर्फ जहर के खयाल से आदमी मर रहा होता है। इसलिए झाडने वाला अगर खयाल दिला दे कि झाडू दिया, तो बात खतम हो गई।
इसलिए मंत्र सरलता से काम कर जाता है। झाडने वाला सफल हो जाता है। सिर्फ भरोसा दिलाने की बात है, क्योंकि उस सांप ने भी भरोसा दिलाया है कि इसमें जहर है। उसमें जहर तो था नहीं। भरोसे से आदमी मर रहा है, तो भरोसे से आदमी बच भी सकता है।
लेकिन दूसरी घटना भी संभव है। असली जहर वाले सांप का काटा हुआ आदमी भी मंत्रोंपचार से बच सकता है। अगर नकली जहर से मर सकता है, तो असली जहर से भी बचने की संभावना है। अगर यह भांति कि सांप ने मुझे काट लिया है इसलिए मरना जरूरी है मौत बन सकती है, तो यह खयाल कि सांप ने भला मुझे काटा है, लेकिन मंत्र ने मुझे मुक्त कर दिया, असली जहर से भी छुटकारा दिला सकता है।
अभी पश्चिम में मनसविद बहुत प्रयोग करते हैं और बहुत हैरान हुए हैं। दुनिया में हजारों तरह की दवाइयां चलती हैं। सभी तरह की दवाइयां काम करती हैं। होमियोपैथी भी बचाती है, एलोपैथी भी बचाती है, आयुर्वेद भी बचाता है। और भी, यूनानी हकीम भी बचाता है, नेचरोपैथ भी बचा लेता है। मंत्र से बच जाता है आदमी। किसी की कृपा से भी बच जाता है। डिवाइन हीलिंग, प्रभु-चिकित्सा से भी बच जाता है।
तो सवाल यह है कि आदमी इतने ढंगों से बचता है, तो विचारणीय है कि इसमें कोई वैज्ञानिक कारण है बचने का कि सिर्फ आदमी का भरोसा बचा लेता है।
आपको शायद पता न हो, जब भी कोई नवाँ निकलता है, तो मरीजों पर ज्यादा काम करती है। लेकिन साल दो साल में फीकी पड़ जाती है, फिर काम नहीं करती। जब नई दवा निकलती है, तो मरीजों पर क्यों काम करती है? नई दवा से ऐसा लगता है कि बस, अब सब ठीक हो गया। लेकिन साल, छ: महीने में कुछ मरीज फायदा उठा लेते हैं। बाकी इसके बाद फिर फायदा नहीं उठा पाते। एक बहुत विचारशील डाक्टर ने कहा है कि जब भी नई दवा निकले, तब फायदा पूरा उठा लेना चाहिए, क्योंकि थोड़े ही दिन में दवा काम नहीं करेगी।
नई दवा काम क्यों करती है? थोडे दिन पुरानी पड़ जाने के बाद दवा का रहस्य और चमत्कार क्यों चला जाता है? तो उस पर बहुत अध्ययन किया गया और पाया गया कि जब नई दवा निकलती है, तो उसके विरोध में कुछ भी नहीं होता। उसकी असफलता की कोई खबर न मरीज को होती है, न डाक्टर को होती है। डाक्टर भी भरोसे से भरा होता है कि दवा नई है, चमत्कार है।
विज्ञापन, अखबार सब खबरें देते हैं कि चमत्कार की दवा खोज ली गई है। डाक्टर भरोसे से भरा होता है। मरीज को दवा देता है और वह कहता है, बिलकुल घबड़ाओ मत। अब तक तो इस बीमारी का मरीज बच नहीं सकता था। लेकिन अब वह दवा हाथ में आ गई है कि अब इस मरीज को मरने की कोई जरूरत नहीं है। अब तुम बच जाओगे।
वह जो डाक्टर का भरोसा है, वह मंत्र का काम कर रहा है। उसे पता नहीं कि वह पुरोहित का काम कर रहा है इस क्षण में। उसकी आंखों में जो रौनक है, वह जो भरोसे की बात है, वह जो मरीज से कहना है कि बेफिक्र रह, मरीज को भी यह उत्साह पकड़ जाता है। मरीज बच जाता है।
लेकिन साल, छ: महीने में ही अनुसंधान करने वाले दवा में खोज करते हैं कि सच में इसमें ऐसा कुछ है या नहीं है। मेडिकल जरनल्स में खबरें आनी शुरू हो जाती हैं कि इस दवा में ऐसा कोई तत्व नहीं है कि जिस पर इतना भरोसा किया जा सके। खोजबीन शुरू हो जाती है। डाक्टर का भरोसा कम होने लगता है। अब भी वह दवा डाक्टर देता है, लेकिन वह कहता है, शायद काम कर सके, शायद न भी करे। वह जो शायद है, वह मंत्र की हत्या कर देता है। डाक्टर का भरोसा गया, मरीज का भी भरोसा गया।
मैं एक घटना पढ़ रहा था कि एक मरीज पर एक दवा का प्रयोग किया गया। डाक्टर भरोसे से भरा था कि दवा काम करेगी। दवा काम कर गई। वह मरीज सालभर तक ठीक रहा। बीमारी तिरोहित हो गई। लेकिन सालभर बाद अनुसंधानकर्ताओं ने पता लगाया कि उस दवा से इस बीमारी के ठीक होने का कोई संबंध ही नहीं है। उसके डाक्टर ने मरीज को खबर की कि चमत्कार की बात है कि तुम तो ठीक हो गए, लेकिन अभी खबर आई है, रिसर्च काम कर रही है कि इस दवा में उस बीमारी के ठीक होने का कोई कारण ही नहीं है। वह मरीज उसी दिन पुन: बीमार हो गया। वह सालभर बिलकुल ठीक रह चुका था।
और कहानी यहीं खतम नहीं होती। छ: महीने बाद फिर इस पर खोजबीन चली, किसी दूसरे रिसर्च करने वाले ने कुछ और पता लगाया। उसने कहा कि नहीं, यह दवा काम कर सकती है। और वह मरीज फिर ठीक हो गया।
तो अभी डाक्टरों को शक पैदा हो गया है कि दवाएं काम करती हैं या भरोसे काम करते हैं!
सभी चिकित्सा में जादू काम करता है, मंत्र काम करते हैं। अगर एलोपैथी ज्यादा काम करती है, तो उसका कारण यह नहीं है कि एलोपैथी में ज्यादा जान है। उसका कारण यह है कि एलोपैथी के पास ज्यादा प्रचार का साधन है, ज्यादा मेडिकल कालेज हैं, युनिवर्सिटी हैं, ज्यादा सरकारें हैं, अथारिटी, प्रमाण उसके पास हैं, वह काम करती है।
अनेक चिकित्सकों ने प्रयोग किए हैं, उसे वे प्लेस्बो कहते हैं। दस मरीजों को, उसी बीमारी के दस मरीजों को दवा दी जाती है, उसी बीमारी के दस मरीजों को सिर्फ पानी दिया जाता है। बड़ी हैरानी की बात यह है कि अगर सात दवा से ठीक होते हैं, तो सात पानी से भी ठीक हो जाते हैं। वे सात पानी से भी ठीक होते हैं, लेकिन बात इतनी जरूरी है कि कहा जाए कि उनको भी दवा दी जा रही है।
आदमी का मन, बीमारी न हो, तो बीमारी पैदा कर सकता है। और आदमी का मन, बीमारी हो, तो बीमारी से अपने को तोड़ भी सकता है। मन की यह स्वतंत्रता ठीक से समझ लेनी जरूरी है। आप अपने शरीर से अलग होकर भी शरीर को देख सकते हैं, और आप अपने शरीर के साथ एक होकर भी अपने को देख सकते हैं। हम सब अपने को एक होकर ही देख रहे हैं। हमारे दुखों की सारी मूल जड़ वह। है।
शरीर में दुख घटित होते हैं और हम अपने को मानते हैं कि शरीर के साथ एक हैं। बच्चा मानता है कि मैं शरीर हूं। जवान मानता है
कि मैं शरीर हूं। का मानता है कि मैं शरीर हूं। तो का दुखी होता है, क्योंकि उसको लगता है, उसकी आत्मा भी की हो गई है। शरीर का हो गया है। आत्मा तो कुछ की होती नहीं। लेकिन के शरीर के साथ तादात्म्य बंधा हुआ है। तो जिसने माना था कि जवान शरीर मैं हूं मानना मजबूरी है अब उसकी, उसे मानना पड़ेगा कि अब मैं का हो गया हूं। और जिसने माना था शरीर की जिंदगी को अपनी जिंदगी, जब मौत आएगी तो उसे मानना पड़ेगा, अब मैं मर रहा हूं। लेकिन बचपन से ही हम शरीर के साथ अपने को एक मानकर बड़े होते हैं। शरीर के सुख, शरीर के दुख, हम एक मानते हैं। शरीर की भूख, शरीर की प्यास, हम अपनी मानते हैं।
यह कृष्ण का सूत्र कह रहा है, शरीर क्षेत्र है, जहां घटनाएं घटती हैं। और तुम क्षेत्रज्ञ हो, जो घटनाओं को जानता है।
अगर यह एक सूत्र जीवन में फलित हो जाए, तो धर्म की फिर और कुछ जानकारी करने की जरूरत नहीं है। फिर कोई कुरान, बाइबिल, गीता, सब फेंक दिए जा सकते हैं। एक छोटा-सा सूत्र, कि जो भी शरीर में घट रहा है, वह शरीर में घट रहा है, और मुझमें नहीं घट रहा है, मैं देख रहा हूं मैं जान रहा हूं मैं एक द्रष्टा हूं? यह सूत्र समस्त धर्म का सार है। इसे थोड़ा- थोड़ा प्रयोग करना शुरू करें, तो ही खयाल में आएगा।
एक तो रास्ता यह है कि गीता हम समझते रहते हैं। गीता लोग समझाते रहते हैं। वे कहते रहते हैं, क्षेत्र अलग है और क्षेत्रज्ञ अलग है। और हम सुन लेते हैं, और मान लेते हैं कि होगा। लेकिन जब तक यह अनुभव न बन जाए, तब तक इसका कोई अर्थ नहीं है। यह कोई सिद्धांत नहीं है, यह तो प्रयोगजन्य अनुभूति है। इसे थोड़ा प्रयोग करें।
जब भोजन कर रहे हों, तो समझें कि भोजन शरीर में डाल रहे हैं और आप भोजन करने वाले नहीं हैं, देखने वाले हैं। जब रास्ते पर चल रहे हों, तो समझें कि आप चल नहीं रहे हैं; शरीर चल रहा है। आप तो सिर्फ देखने वाले हैं। जब पैर में काटा गड़ जाए, तो बैठ जाएं, दो क्षण ध्यान करें। बाद में काटा निकालें, जल्दी नहीं है। दो क्षण ध्यान करें और समझें कि कांटा गड़ रहा है, दर्द हो रहा है। यह शरीर में घट रहा है, मैं जान रहा हूं।
जो भी मौका मिले क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को अलग करने का, उसे चूके मत, उसका उपयोग कर लें।
जब शरीर बीमार पड़ा हो, तब भी, जब शरीर स्वस्थ हो, तब भी। जब सफलता हाथ लगे, तब भी, और जब असफलता हाथ लगे, तब भी। जब कोई गले में फूलमालाएं डालने 'लगे, तब भी स्मरण रखें कि फूलमालाएं शरीर पर डाली जा रही हैं, मैं सिर्फ देख रहा हूं। और जब कोई जूता फेंक दे, अपमान करे, तब भी जानें कि शरीर पर जूता फेंका गया है, और मैं देख रहा हूं। इसके लिए कोई हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं है। आप जहां हैं, जो हैं, जैसे हैं, वहीं ज्ञाता को और ज्ञेय को अलग कर लेने की सुविधा है।
न कोई मंदिर का सवाल है, न कोई मस्जिद का, आपकी जिंदगी ही मंदिर है और मस्जिद है। वह। छोटा-छोटा प्रयोग करते रहें। और ध्यान रखें, एक-एक ईंट रखने से महल खड़े हो जाते हैं; छोटे-छोटे प्रयोग करने से परम अनुभूतिया हाथ आ जाती हैं। एक-एक बूंद इकट्ठा होकर सागर निर्मित हो जाता है। और छोटा-छोटा अनुभव इकट्ठा होता चला जाए, तो परम साक्षात्कार तक आदमी पहुंच जाता है। एक छोटे-छोटे कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
तो यह मत सोचें कि छोटे-छोटे अनुभव से क्या होगा। सभी अनुभव जुड़ते जाते हैं, उनका सार इकट्ठा हो जाता है। और धीरे- धीरे आपके भीतर वह इंटीग्रेशन, आपके भीतर वह केंद्र पैदा हो जाता है, जहां से आप फिर बिना प्रयास के निरंतर देख पाते हैं कि आप अलग हैं और शरीर अलग है।
बहुत लोग इसकी मंत्र की तरह रटते हैं कि मैं अलग हूं शरीर अलग है। मंत्र की तरह रटने से कोई फायदा नहीं। इसे तो प्रयोग- भूमि बनाना जरूरी है। बहुत लोग बैठकर रोज सुबह अपनी प्रार्थना-पूजा में कह लेते हैं कि मैं आत्मा हूं शरीर नहीं। इस कहने से कुछ लाभ न होगा। और रोज-रोज दोहराने से यह जड़ हो जाएगी बात। इसका कोई मन पर असर भी न होगा। आप इसको मशीन की तरह दोहरा लेंगे। इसका अर्थ भी धीरे- धीरे खो जाएगा। आमतौर से मेरा अनुभव है कि धार्मिक लोग महत्वपूर्ण शब्दों को दोहरा-दोहराकर उनका अर्थ भी नष्ट कर देते हैं। फिर मशीन की तरह दोहराते रहते हैं। पुनरुक्ति करते रहते हैं। तोतों की रटंत हो जाती है। उसका कोई अर्थ नहीं होता।
इसे मंत्र की तरह नहीं, प्रयोग की तरह! इसे चौबीस घंटे में दस, बीस, पच्चीस बार, जितनी बार संभव हो सके, किसी सिचुएशन में, किसी परिस्थिति में तत्क्षण अपने को तोड़कर अलग देखने का प्रयोग करें। स्नान कर रहे हैं और खयाल करें कि स्नान की घटना शरीर में घट रही है और मैं जान रहा हूं। कुछ भी कर रहे हैं! यहां सुन रहे हैं, तो सुनने की घटना आपके शरीर में घट रही है; और सुनने की घटना घट रही है, इसे आप जान रहे हैं।
वह जानने वाले को धीरे- धीरे निखारकर अलग करते जाएं। जैसे कोई मूर्तिकार छेनी से काटता है पत्थर को, ऐसे ही जानने वाले को अलग काटते जाएं; और जो जाना जाता है, उसे अलग काटते जाएं। अनुभव को अलग करते जाएं, अनुभोक्ता को अलग करते जाएं। जरूर एक दिन वह फासला पैदा हो जाएगा, वह दूरी खड़ी हो जाएगी, जहां से चीजें देखी जा सकती हैं।
हे अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उसके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं।
यह खयाल में ले लेना जरूरी है कि पूरब के मुल्कों में और विशेषकर भारत में हमारा जोर विचार पर नहीं है, हमारा जोर ज्ञान पर है। हमारा जोर उस बात पर नहीं है कि हम किन्हीं सिद्धांतों को प्रतिपादित करें। हमारा जोर इस बात पर है कि हम जीवन के अनुभव से कुछ सार निचोड़े। ये दोनों अलग बातें हैं।
इसको आप सिद्धांत की तरह भी प्रतिपादित कर सकते हैं कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है; जानने वाला अलग है, जो जाना जाता है, वह अलग है। इसको आप एक फिलासफी, एक तत्व-विचार की तरह खड़ा कर सकते हैं। और बड़े तर्क उसके पक्ष और विपक्ष में भी जुटा सकते हैं; बड़े शास्त्र भी निर्मित कर सकते हैं।
लेकिन भारत की मनीषा का आग्रह सिद्धांतों पर जरा भी नहीं है। जोर इस बात पर है कि जो आप ऐसा मानते हों, तो ऐसा मानते हैं या जानते हैं? ऐसी आपकी अपनी अनुभूति है या ऐसा आपका विचार है?
विचार धोखा दे सकता है। अनुभूति भर धोखा नहीं देती। विचार में डर है। विचार में अक्सर हम उस बात को मान लेते हैं, जो हम मानना चाहते हैं। इसे थोड़ा समझ लें। विचार में एक तरह का विश फुलफिलमेंट, एक तरह की कामनाओं की तृप्ति होती है।
समझें, एक आदमी मौत से डरता है। सभी डरते हैं। तो जो मृत्यु से डरता है, उसे मानने का मन होता है कि आत्मा अमर हो। यह उसकी भीतरी आकांक्षा होती है कि आत्मा न मरे। जब वह गीता में पढ़ता है कि शरीर अलग और आत्मा अलग, और आत्मा नहीं मरती, वह तक मान लेता है। मानने का कारण यह नहीं है कि गीता सही है। मानने का कारण यह भी नहीं है कि उसको अनुभव हुआ है। मानने का कारण कुल इतना है कि वह मौत से डरा हुआ
है, मृत्यु से भयभीत है। इसलिए कोई भी आसरा देता हो कि आत्मा अमर है, तो वह कहेगा कि बिलकुल ठीक। जब वह बिलकुल ठीक कह रहा है, तो सिर्फ मृत्यु के भय के कारण। वह चाहता है कि आत्मा अमर हो।
लेकिन आपकी चाह से सत्य पैदा नहीं होते। आप क्या चाहते हैं, इससे सत्य का कोई संबंध नहीं है। और आप जब तक चाहते रहेंगे, तब तक आप सत्य को जान भी न पाएंगे। सत्य को जानना पड़ेगा आपको चाह को छोड्कर।
तो विचार अक्सर ही स्वयं की छिपी हुई वासनाओं की पूर्ति होते हैं। और हम अपने को समझा लेते हैं। इसलिए अक्सर मेरा अनुभव यह है कि जो भी मौत से डरे हुए लोग हैं, वे आत्मवादी हो जाते हैं। इसलिए इस मुल्क में दिखाई पड़ेगा।
यह मुल्क इतने दिन तक गुलाम रहा। कोई भी आया और इस मुल्क को गुलाम बनाने में बड़ी आसानी रही। जितनी कम से कम तकलीफ हमने दी गुलाम बनाने वालों को, दुनिया में कोई नहीं देता। और बड़े आश्चर्य की बात है कि हम आत्मवादी लोग हैं! हम मानते हैं, आत्मा अमर है। लेकिन मरने से हम इतने डरते हैं कि हमें कभी भी गुलाम बनाया जा सका। मौत का डर पैदा हुआ कि हम गुलाम हो गए। अगर हमें कोई डरा दे कि मौत करीब है, तो हम कुछ भी करने को राजी हो गए!
यह बड़ा असंगत मालूम पड़ता है। यह होना नहीं चाहिए। आत्मवादी मुल्क को तो गुलाम कोई बना ही नहीं सकता। क्योंकि जिसको यही पता है कि आत्मा नहीं मरती, उसे आप डरा नहीं सकते। और जिसको डरा नहीं सकते, उसे गुलाम कैसे बनाइएगा?
गुलामी का सूत्र तो भय है। जिसको भयभीत किया जा सके, उसको गुलाम बनाया जा सकता है। और जिसको भयभीत न किया जा सके, उसे कैसे गुलाम बनाइएगा? और आत्मवादी को कैसे भयभीत किया जा सकता है?
जो जानता है कि आत्मा मरती ही नहीं, अब उसे भयभीत करने का कोई भी उपाय नहीं है। आप उसका शरीर काट डालें, तो वह हंसता रहेगा। और वह कहेगा कि व्यर्थ मेहनत कर रहे हो, क्योंकि जिसे तुम काट रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और मैं तुम्हारे काटने से कटूंगा नहीं। इसलिए काटने पर भरोसा मत करो। तुम काटने से मुझे डरा न सकोगे। तुम काटकर मेरे शरीर को मिटा दोगे, लेकिन तुम मुझे गुलाम न बना सकोगे।
लेकिन आत्मवादी मुल्क इतनी आसानी से गुलाम बनता रहा है उसके पीछे कुछ कारण होना चाहिए। और कारण मेरी समझ में यह है कि हमारा आत्मवाद अनुभव नहीं है। हमारा आत्मवाद मृत्यु के भय से पैदा होता है। अधिक लोग मरने से डरते हैं, इसलिए मानते हैं कि आत्मा अमर है।
अब यह बड़ी उलटी बात है। मरने से जो डरता है, उसे तो आत्मा की अमरता कभी पता नहीं चलेगी। क्योंकि मृत्यु की घटना घटती है शरीर में, और जो डर रहा है मृत्यु से, वह शरीर को अपने साथ एक मान रहा है। इसलिए वह कितना ही मानता रहे आत्मवाद, कि आत्मा सत्य है, आत्मा शाश्वत सत्य है; और वह कितना ही दोहराता रहे मन में कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूं लेकिन इन सब के पीछे अनुभव नहीं, इन सब के पीछे एक सिद्धांत, एक विचार है; और विचार के पीछे छिपी एक वासना है। विचार वासना से मुक्त नहीं हो पाता। विचार वासना का ही बुद्धिगत रूप है।
भारत का जोर है अनुभव पर, विचार पर नहीं। भारत कहता है, इसकी फिक्र छोड़ो कि वस्तुत: शरीर और आत्मा अलग हैं या नहीं। तुम तो यह प्रयोग करके देखो कि जब तुम्हारे शरीर में कोई घटना घटती है, तो वह घटना शरीर में घटती है या तुममें घटती है? तुम उसे जानते हो? फासले से खड़े होकर देखते हो? या उस घटना के साथ एक हो जाते हो?
कोई भी व्यक्ति थोड़ी-सी सजगता का प्रयोग करे, तो उसे प्रतीति होनी शुरू हो जाएगी कि मैं अलग हूं। और तब दोहराना न पड़ेगा कि मैं शरीर से अलग हूं। यह हमारा अनुभव होगा।
कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा जानता है-स्वयं को क्षेत्रज्ञ, शरीर को क्षेत्र-उस तत्व को जानने वाले को तानी कहते हैं। और हे अर्जुन, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान। और क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का अर्थात विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है।
दूसरी प्रस्तावना। पहली तो बात, विचार से यह प्रतीति कभी न हो पाएगी, अनुभव से प्रतीति होगी। और जिस दिन यह प्रतीति होगी कि मैं शरीर नहीं हूं आत्मा हूं उस दिन यह भी प्रतीति होगी कि वह आत्मा सभी के भीतर एक है।
ऐसा समझें कि बहुत-से घड़े रखे हों पानी भरे, नदी में ही रख दिए हों। हर घड़े में नदी का पानी भर गया हो। घड़े के बाहर भी नदी हो, भीतर भी नदी हो। लेकिन जो घड़ा अपने को समझता हो कि यह मिट्टी की देह ही मैं हूं उसे पड़ोस में रखा हुआ घड़ा दूसरा
मालूम पड़ेगा। लेकिन जो घड़ा इस अनुभव को उपलब्ध हो जाए कि भीतर भरा हुआ जल मैं हूं तत्क्षण पड़ोसी भी मिट जाएगा। उसकी मिट्टी की देह भी व्यर्थ हो जाएगी। उसके भीतर का जल ही सार्थक हो जाएगा। जल तो दोनों के भीतर एक है।
चैतन्य तो सबके भीतर एक है। दीए अलग-अलग हैं मिट्टी के, उनके भीतर ज्योति तो एक है, उनके भीतर सूरज का प्रकाश तो एक है।
सब दीयों के भीतर एक ही सूरज जलता है, बड़े से बड़े दीए के भीतर और छोटे से छोटे दीए के भीतर। जो सूरज में है, वही रात जुगनू में भी चमकता है। जुगनू कितनी ही छोटी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सूरज कितना ही बड़ा हो, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़े-छोटे से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह जो प्रकाश की घटना है, वह जो प्रकाश का तत्व है, वह एक है।
जैसे ही कोई व्यक्ति शरीर से थोड़ा पीछे हटता है, अपने भीतर ही खड़े होकर देखता है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे ही दूसरी बात भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, दूसरा द्वार भी खुल जाता है। तब सभी के भीतर वह जो जानने वाला है, वह एक है।
तो कृष्ण कहते हैं, वह जो सभी के भीतर क्षेत्रज्ञ है, वह तू मुझे ही जान। सबके भीतर से मैं ही जान रहा हूं।
यह एक बहुत नया आयाम है। परमात्मा जगत को बनाने वाला नहीं है, परमात्मा सब तरफ से जगत को जानने वाला है, सबके भीतर से।
एक कबूतर बैठकर देख रहा है, एक छोटा बच्चा देख रहा है; अब तो वे कहते हैं कि फूल भी खिलता है, उसके पास भी बड़ी सूक्ष्म आंखें हैं, वह भी देख रहा है। अब तो वे कहते हैं, वृक्षों के पास भी आंखें हैं, वह भी देख रहा है। अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि सभी चीजें देख रही हैं। सभी चीजें अनुभव कर रही हैं। सभी के भीतर अनुभोक्ता बैठा है।
वह जो सबके भीतर से जान रहा है, कृष्ण कहते हैं, वह मैं हूं। परमात्मा कहीं दूर नहीं है। कहीं फासले पर नहीं है। निकट से भी निकट है।
एक ईसाई फकीर संत लयोला ने एक छोटे-से ध्यान के प्रयोग की बात कही है। वह ध्यान का प्रयोग कीमती है और चाहें तो आप कर सकते हैं और अनूठा है। जिस किसी व्यक्ति को आप बहुत प्रेम करते हों, उसके सामने बैठ जाएं। स्नान कर लें, जैसे मंदिर में प्रवेश करने जा रहे हों। द्वार-दरवाजे बंद कर लें, ताकि कोई आपको बाधा न दे। और एकटक दोनों व्यक्ति एक-दूसरे की आख में झांकना शुरू कर दें। सिर्फ एक-दूसरे की आख में झांकें, और सब भूल जाएं। सब तरफ से ध्यान हटा लें और एक-दूसरे की आख में अपने को उंडेलना शुरू कर दें। चाहे आपका छोटा बच्चा ही हो, जिससे भी आपका लगाव हो।
लगाव हो तो अच्छा, क्योंकि जरा आसानी से आप भीतर प्रवेश कर सकेंगे। क्योंकि जिससे आपका लगाव न हो, उससे हटने का मन होता है। जिससे आपका लगाव हो, उसमें प्रवेश करने का मन होता है। हमारा प्रेम एक-दूसरे में प्रवेश करने की आकांक्षा ही है। तो जिससे थोड़ा प्रेम हो, उसकी आंखों में झांकें, एकटक, और उससे भी कहें कि वह भी आंखों में झाके। और पूरी यह कोशिश करें कि सारी दुनिया मिट जाए। बस, वे दो आंखें रह जाएं और आप उसमें यात्रा पर निकल जाएं।
एक दो-चार दिन के ही प्रयोग से, एक आधा घंटा रोज करने से आप चकित हो जाएंगे। आपके सारे विचार खो जाएंगे। जो विचार आप लाख कोशिश करके बंद नहीं कर सके थे, वे बंद हो जाएंगे। और एक अनूठा अनुभव होगा। जैसे कि आप दूसरे व्यक्ति में सरक रहे हैं, आंखों के द्वारा उतर रहे हैं। आंखें जैसे रास्ता बन गईं। अगर इस प्रयोग को आप जारी रखें, तो एक महीने, पंद्रह दिन के भीतर एक अनूठी प्रतीति किसी दिन होगी। और वह प्रतीति यह होगी कि आपको यह समझ में न आएगा कि वह जो दूसरे के भीतर बैठा है, वह आप हैं; या जो आपके भीतर बैठा है, वह आप हैं। शरीर भूल जाएंगे और दो चेतनाएं, घड़े हट जाएंगे और दो जल की धाराएं मिल जाएंगी।
और एक बार आपको यह खयाल में आ जाए कि दूसरे के भी भीतर जो बैठा है, वह ठीक मेरे ही जैसा चैतन्य है, मैं ही बैठा हूं तब फिर आप हर दरवाजे पर झांक सकते हैं और हर दरवाजे के भीतर आप उसको ही छिपा हुआ पाएंगे।
आपने वह चित्र देखा होगा, जिसमें कृष्ण सब में छिपे हैं, गाय में भी, वृक्ष में भी, पत्ते में भी, सखियों में भी। वह किसी कवि की कल्पना नहीं है, और वह किसी चित्रकार की सूझ नहीं है। वह किन्हीं अनुभवियो का अनुभव है। एक बार आपको अपनी प्रतीति हो जाए शरीर से अलग, तो आपको पता लगेगा कि यही चैतन्य सभी तरफ बैठा हुआ है। इस चैतन्य की मौजूदगी ही परमात्मा की मौजूदगी का अनुभव है।
जिस क्षण आप शरीर से हटते हैं, यह पहला कदम। दूसरे ही क्षण आप अपने से भी हट जाते हैं, वह दूसरा कदम। शरीर के साथ मैं एक हूं इससे अहंकार निर्मित होता है। शरीर के साथ मैं एक नहीं हूं अहंकार टूट जाता है।
ऐसा समझें कि शरीर और आपके बीच जो सेतु है, वह अहंकार है। शरीर और आपके बीच जो तादात्म्य का भाव है, वही मैं हूं। जैसे ही शरीर से मैं अलग हुआ, मैं भी गिर जाता है। फिर जो बच रह जाता है, वही कृष्ण-तत्व है। उसे कोई राम-तत्व कहे, कोई क्राइस्ट-तत्व कहे, जो भी नाम देना चाहे, नाम दे। नाम न देना चाहे, तो भी कोई हर्जा नहीं।
लेकिन शरीर के साथ हटते ही आप भी मिट जाते हैं, आपका मैं होना मिट जाता है। और यह जो न-मैं होने का अनुभव है, कृष्ण कहते हैं, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान।
सब की आंखों से मैं ही झांकता हूं। सभी के हाथों से मैं ही स्पर्श करता हूं। सभी के पैरों से मैं ही चलता हूं। सभी की श्वास भी मैं हूं और सभी के भीतर मैं ही जीता और मैं ही विदा होता हूं। जन्म में भी मैं प्रवेश करता हूं और मृत्यु में भी मैं विदा होता हूं।
व्यक्ति का बोध ही शरीर और चेतना के जोड़ से पैदा होता है। सिर्फ तादात्म्य का खयाल अस्मिता और अहंकार को जन्म देता है। शरीर से अलग होने का खयाल, और अस्मिता खो जाती है, अहंकार खो जाता है।
इसलिए बुद्ध ने तो यहां तक कहा कि जैसे ही यह पता चल जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं वैसे ही यह भी पता चल जाता है कि कोई आत्मा नहीं है।
यह बड़ा कठिन वक्तव्य है। और बहुत जटिल है, और समझने में बड़ी कठिनाई है। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि जैसे ही यह खयाल मिट गया कि शरीर मैं हूं वैसे ही आत्मा भी नहीं होती है। लेकिन बुद्ध नकारात्मक ढंग से उसी बात को कह रहे हैं, जिसे कृष्ण विधायक ढंग से कह रहे हैं।
कृष्ण कहते हैं, तुम नहीं होते, मैं होता हूं। कृष्ण कह रहे हैं, तुम्हारा मिटना हो जाता है और कृष्ण का रहना हो जाता है। बुद्ध कहते हैं, मैं मिट जाता हूं। और उसकी कोई बात नहीं करते, जो बचता है। क्योंकि वे कहते हैं, बचने की बात करनी व्यर्थ है। उसे तो अनुभव ही करना चाहिए। वहां तक कहना ठीक है, जहां तक इलाज है। स्वास्थ्य की हम कोई चर्चा न करेंगे। उसका तुम खुद ही अनुभव कर लेना। निदान हम कर देते हैं, चिकित्सा हम कर देते हैं। चिकित्सा के बाद स्वास्थ्य का कैसा स्वाद होगा, उसके लिए हम कोई शब्द न देंगे। क्योंकि सभी शब्द सीमित हैं और बांध लेते हैं। और वह असीम है, जो घटेगा।
इसलिए बुद्ध ने कहा कि शरीर के साथ तादात्म्य के छूटते ही आत्मा भी मिट जाती है। जो बच रहता है, उसे कृष्ण परमात्मा कहते हैं, बुद्ध अनात्मा कहते हैं। वे कहते हैं, इतना पक्का है स्कइ तुम नहीं बचते। बाकी जो बचता है, उसके लिए कुछ भी कहना उचित नहीं है। उस संबंध में चुप रह जाना उचित है।
क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का, विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से भेद जानता है..।
एक तो आपके भीतर संयोग घटित हो रहा है प्रतिपल, आप एक संगम हैं। आप एक मिलन हैं दो तत्वों का। एक तो प्रकृति है, जो दृश्य है। विज्ञान जिसकी खोज करता है, पदार्थ, जो पकड़ में आ जाता है इंद्रियों के, यंत्रों के और जिसकी खोजबीन की जा सकती है। और एक आपके भीतर तत्व है, जो इंद्रियों से पकड़ में नहीं आता और फिर भी है। और अगर आपको काटें-पीटें, तो तिरोहित हो जाता है। जो हाथ में आता है, वह पदार्थ रह जाता है। लेकिन आपके भीतर एक तत्व है, जो पदार्थ को जानता है।
वह जो जानने की प्रक्रिया है-मेरे हाथ में दर्द हो रहा है, तो मैं जानता हूं-यह जानना क्या है मेरे भीतर? कितना ही मेरे शरीर को काटा जाए, उस जानने वाले तत्व को नहीं पकड़ा जा सकता। शायद काटने-पीटने की प्रक्रिया में वह खो जाता है। शायद उसकी मौजूदगी को अनुभव करने का कोई और उपाय है। विज्ञान का उपाय उसका उपाय नहीं है।
धर्म उसकी ही खोज है। विज्ञान है ज्ञेय की खोज, क्षेत्र की। और धर्म है ज्ञाता की खोज, क्षेत्रज्ञ की।
याद आता है मुझे, आइंस्टीन ने मरने के कुछ दिन पहले कहा कि सब मैंने जानने की कोशिश की। दूर से दूर जो तारा है, उसे जानने की कोशिश की। पदार्थ के भीतर दूर से दूर छिपी हुई जो अणु शक्ति है, उसे जानने की मैंने कोशिश की। लेकिन इधर बाद के दिनों में मैं इस रहस्य से अभिभूत होता चला जा रहा हूं कि यह जो जानने की कोशिश करने वाला मेरे भीतर था, यह कौन था? यह कौन था, जो अणु को तोड़ रहा था और खोज रहा था? यह कौन था, जो दूर के तारे की तलाश में था? यह खोज कौन कर रहा था? आइंस्टीन की पत्नी से निरंतर लोग पूछते थे कि आपके पति ने जो बहुत कठिन और जटिल सिद्धांत प्रस्तावित किया है थिअरी आफ रिलेटिविटी का, सापेक्षता का, उसके संबंध में आप भी कुछ समझती हैं या नहीं?
स्वभावत:, आइंस्टीन की पत्नी को लोग पूछ लेते थे कि आप भी यह सापेक्षता के जटिल सिद्धांत को समझती हैं या नहीं? तो आइंस्टीन की पत्नी निरंतर कहा करती थी कि मुझे इस सिद्धांत का तो कोई पता नहीं। डाक्टर आइंस्टीन ने जो सिद्धांत को जन्म दिया है, उसे तो मैं बिलकुल नहीं समझती, लेकिन डाक्टर आइंस्टीन को मैं भलीभांति समझती हूं।
आइंस्टीन ने यह बात एक दफा किसी से कहते हुए पत्नी को सुन लिया। तो उस पर वह बहुत सोचता रहा। एक तो आइंस्टीन ने जो खोज की है, वह; और एक पत्नी की भी खोज है। वह कहती है कि मैं डाक्टर आइंस्टीन को समझती हूं। उन्होंने क्या खोजा है, उसका मुझे कुछ पता नहीं। उनके सिद्धांत मेरी समझ के बाहर हैं, लेकिन मैं डाक्टर आइंस्टीन को, खोज करने वाला वह जो छिपा है भीतर, उसको मैं थोड़ा समझती हूं।
तो आइंस्टीन तो विज्ञान के रास्ते से खोज कर रहा है, पत्नी प्रेम के रास्ते से खोज कर रही है। आइंस्टीन तो पदार्थ को तोड़कर खोज कर रहा है। पत्नी किन्हीं अदृश्य रास्तों से बिना तोड़े प्रवेश कर रही है और खोज कर रही है। आइंस्टीन तो इंद्रियों के माध्यम से कुछ विश्लेषण में लगा है। पत्नी किसी अतींद्रिय मार्ग से प्रवेश कर रही है।
प्रेम हो, कि प्रार्थना हो, कि ध्यान हो, सभी उस अदृश्य की खोज हैं, जो सभी दृश्य के भीतर छिपा हुआ है। और जब तक व्यक्ति उसे खोजने नहीं चल पड़ा है, तब तक वह क्षेत्र के जगत में कितना ही इकट्ठा कर ले, दरिद्र ही रहेगा। और कितने ही बड़े महल बना ले, और कितनी ही बड़ी सख्त दीवालें सुरक्षा की तैयार कर ले, असुरक्षित ही रहेगा। और कुछ भी पा ले, आखिर में मरेगा, तब वह पाएगा कि गरीब, दीन, दुखी, भिखारी मर रहा है। क्योंकि असली संपदा का स्रोत क्षेत्र में नहीं है। असली संपदा का स्रोत उसमें है, जो इस क्षेत्र के भीतर छिपा है और जानता है।
ज्ञान मनुष्य की गरिमा है। और ज्ञान का जो तत्व है, वह इस बात में, इस विश्लेषण में, इस भेद-विज्ञान में है कि मैं अपने को पृथक करके देख लूं उससे, जिसमें मैं हूं।
जैसे फूल की सुगंध उड़ जाती है दूर, ऐसे ही व्यक्ति को सीखना पड़ता है अपने शरीर से दूर उड़ने की कला। जैसे सुगंध अदृश्य में खो जाती है और दृश्य फूल खड़ा रह जाता है, ऐसे ही स्वयं के ज्ञान के फूल में निचोड़ करना है और धीरे- धीरे उस ज्ञान को ही बचा लेना है, जो शुद्ध है।
महावीर ने उसे केवल-ज्ञान कहा है। जहां ज्ञाता का भी खयाल नहीं रह जाता, सिर्फ जानने की शुद्धतम घटना रह जाती है। जहां मैं सिर्फ जानता हूं और कुछ भी नहीं करता।
एक घडीभर के लिए रोज चौबीस घड़ी में से, इस भीतर की खोज के लिए निकाल लें। तेईस घंटे दे दें शरीर के लिए और एक घंटा बचा लें अपने लिए।
वह आदमी व्यर्थ जी रहा है, जिसके पास एक घंटा भी अपने लिए नहीं है। वह आदमी जी ही नहीं रहा, जो एक घंटा भी अपनी इस भीतर की खोज के लिए नहीं लगा रहा है। क्योंकि आखिर में जब सारा हिसाब होता है, तो जो भी हमने शरीर के तल पर कमाया है, वह तो मौत छीन लेती है; और जो हमने भीतर के तल पर कमाया है, वही केवल मौत नहीं छीन पाती। वही हमारे साथ होता है।
इसे खयाल रखें कि मौत आपसे कुछ छीनेगी, उस समय आपके पास बचाने योग्य है, कुछ भी? अगर नहीं है, तो जल्दी करें। और एक घंटा कम से कम रोज क्षेत्रज्ञ की तलाश में लगा दें।
इतना ही करें, बैठ जाएं घंटेभर। कुछ भी न करें, एक बहुत छोटा-सा प्रयोग करें। इतना ही करें कि तादात्म्य न करूंगा घंटेभर, आइडेंटिफिकेशन न करूंगा घंटेभर। घंटेभर बैठ जाएं। पैर में चींटी काटेगी, तो मैं ऐसा अनुभव करूंगा कि चींटी काटती है, ऐसा मुझे पता चल रहा है। मुझे चींटी काट रही है, ऐसा नहीं।
इसका यह मतलब नहीं कि चींटी काटती रहे और आप अकड़कर बैठे रहें। आप चींटी को हटा दें, लेकिन यह ध्यान रखें कि मैं जान रहा हूं कि शरीर चींटी को हटा रहा है। चींटी काट रही है, यह भी मैं जान रहा हूं। शरीर चींटी को हटा रहा है, यह भी मैं जान रहा हूं। सिर्फ मैं जान रहा हूं।
पैर में दर्द शुरू हो गया बैठे-बैठे, तो मैं जान रहा हूं कि पैर में दर्द आ गया। फिर पैर को फैला लें। कोई जरूरत नहीं है कि उसको अकड़ाकर बैठे रहें और परेशान हों। पैर को फैला लें। लेकिन जानते रहें कि पैर फैल रहा है कष्ट के कारण, मैं जान रहा हूं।
भीतर एक घंटा एक ही काम करें कि किसी भी कृत्य से अपने को न जोड़े, और किसी भी घटना से अपने को न जोड़े। आप एक तीन महीने के भीतर ही गीता के इस सूत्र को अनुभव करने लगेंगे, जो कि आप तीस जन्मों तक भी गीता पढ़ते रहें, तो अनुभव नहीं होगा। एक घंटा, मैं सिर्फ ज्ञाता हूं इसमें डूबे रहें। कुछ भी हो, पत्नी जोर से बर्तन पटक दे...। क्योंकि पति जब ध्यान करे, तो पत्नी बर्तन पटकेगी। या पत्नी ध्यान करे, तो पति रेडिओ जोर से चला देगा, अखबार पढ़ने लगेगा, बच्चे उपद्रव मचाने लगेंगे।
जब बर्तन जोर से गिरे, तो आप यही जानना कि बर्तन गिर रहा है, आवाज हो रही है, मैं जान रहा हूं। अगर आपके भीतर धक्का भी लग जाए, शॉक भी लग जाए, तो भी आप यह जानना कि मेरे भीतर धक्का लगा, शॉक लगा। मेरा मन विक्षुब्ध हुआ, यह मैं जान रहा हूं। आप अपना संबंध जानने वाले से ही जोड़े रखना और किसी चीज से मत जुड्ने देना।
इससे बड़े ध्यान की कोई प्रक्रिया नहीं है। कोई जरूरत नहीं है प्रार्थना की, ध्यान की; फिर कोई जरूरत नहीं है। बस, एक घंटा इतना खयाल कर लें। थोड़े ही दिन में यह कला आपको सध जाएगी। और बताना कठिन है कि कला कैसे सधती है। आप करें, सध जाए, तो ही आपको समझ में आएगा।
करीब-करीब ऐसा, जैसे किसी बच्चे को साइकिल चलाना आप सिखाएं। तो बच्चा यह पूछे कि साइकिल चलाना कैसे आता है, तो आप भला चलाते हों जिंदगीभर से, तो भी नहीं बता सकते कि कैसे आता है। और बच्चा आपसे पूछे कि कोई तरकीब सरल में बता दें, जिससे कि मैं पैर रखूं पैडिल पर, साइकिल पर बैठूं और चल पडूं। तो भी आप कहेंगे कि नहीं, वह तरकीब सरल में नहीं बताई जा सकती। दस-पांच दफा तू गिरेगा ही। उस गिरने में ही वह तरकीब निखरती है। क्योंकि वह एक बैलेंस है, जो बताया नहीं जा सकता। आखिर साइकिल दो चाक पर चल रही है, एक संतुलन है। पूरे वक्त शरीर संतुलित हो रहा है। जरा इधर साइकिल झुकती है, तो शरीर दूसरी तरफ झुक जाता है। और संतुलन गति के साथ ही बन सकता है। अगर गति बहुत धीमी हो जाए, तो संतुलन बिगड़ जाएगा। अगर गति बहुत ज्यादा हो जाए, तो भी संतुलन बिगड़ जाएगा।
तो दो तरह के संतुलन हैं। एक तो गति की एक सीमा, और शरीर के साथ संतुलन, कि बाएं-दाएं कहीं ज्यादा न झुक जाए। आप भी नहीं बता सकते; साइकिल आप चलाते हैं, आप भी नहीं बता सकते कि आप कैसे करते हैं यह संतुलन। आपको पता भी नहीं चलता; यह कला आपको आ जाती है। दों-चार बार आप गिरते हैं, दो-चार बार गिरकर आपको बीच-बीच में ऐसा लगता है कि नहीं गिरे। थोड़ी दूर साइकिल चल भी गई। आपको भीतर संतुलन का अनुभव होना शुरू हो जाता है।
फिर एक दफा आदमी साइकिल चलाना सीख ले, तो फिर जिंदगी में भूलता नहीं। सब चीजें भूल जाती हैं, लेकिन दो चीजें, तैरना और साइकिल चलाना नहीं भूलती हैं। सब चीजें भूल जाती हैं। जो भी आपने सीखी हैं, भूल जाएंगी। फिर से सीखना पड़ेगी। हालांकि दुबारा आप जल्दी सीख लेंगे, लेकिन सीखना पड़ेंगी। लेकिन साइकिल चलाना और तैरना, दो चीजें हैं, जो आपने पचास साल तक भी न की हों, आप एकदम से बैठ जाएं साइकिल पर-चलेगी!
उसका कारण? तैरना और साइकिल चलाना एक ही तरह की घटना है, संतुलन। और वह संतुलन बौद्धिक नहीं है। वह संतुलन बौद्धिक नहीं है, इसलिए आप बता भी नहीं सकते कि आप कैसे करते हैं। आप करके बता सकते हैं, कि मैं साइकिल चलाकर बताए देता हूं लेकिन क्या करता हूं यह मुझे भी पता नहीं है। कुछ करते आप जरूर हैं, लेकिन वह करना इतना सुसंगठित है, इतना इंटिग्रेटेड है, आपका पूरा शरीर, मन सब इतना समाविष्ट है उसमें। और वह आपने सिद्धांत की तरह नहीं सीखा है; वह आपने साइकिल पर गिरकर, चलाकर, उठकर सीखा है। वह आप सीख गए हैं। वह आपकी कला बन गई है।
कला और विज्ञान में यही फर्क है। विज्ञान शास्त्र से भी सीखा जा सकता है। कला सिर्फ अनुभव से सीखी जा सकती है। विज्ञान किताब में लिखकर दिया जा सकता है। कला लिखकर नहीं दी जा सकती है।
इसलिए धर्म में गुरु का इतना स्थान है। उसका स्थान इसीलिए है कि वह कुछ जानता है, जिसको वह भी आपको कह नहीं सकता, वह भी आपको करवा सकता है। आप भी गिरेंगे, उठेंगे, और एक दिन सीख जाएंगे। उसकी छाया में आप भयभीत न होंगे, गिरेंगे तो भी डरेंगे नहीं। उसके भरोसे में, उसकी आस्था में आप आशा बनाए रखेंगे, कि आज गिर रहा हूं तो कल चलने गत।। उसकी छत्र-छाया में आपको आसानी होगी कला सीख लेने की।
ध्यान एक कला है, गहनतम कला है और करने से ही आती है। आप इस छोटे-से प्रयोग को करें, एक घड़ी; चाहे कुछ भी हो जाए। बहुत मुश्किल पड़ेगी, क्योंकि बार-बार मन तादात्म्य कर लेगा। पैर में चींटी काटेगी और आप तत्क्षण समझेंगे कि मुझे चींटी ने काट लिया। और आपको पता भी नहीं चलेगा, आपका हाथ चींटी को फेंक देगा और आप समझेंगे कि मैंने चींटी को हटा दिया। मगर थोड़े दिन कोशिश करने पर-साइकिल जैसा चलाने पर आदमी गिरेगा, उठेगा-बहुत बार तादात्म्य हो जाएगा, उसका मतलब आप गिर गए। कभी-कभी तादात्म्य छूटेगा, उसका मतलब, दो कदम साइकिल चल गई। लेकिन जब पहली दफा दो कदम भी साइकिल चलती है, तो जो आनंद का अनुभव होता है! आप मुक्त हो गए; एक कला आ गई; एक नया अनुभव! आप हवा में तैरने लगे।
जब पहली दफा कोई दो हाथ मारता है, और तैर लेता है, और पानी की ताकत से मुक्त हो जाता है, और पानी अब डुबा नहीं सकता, आप मालिक हो गए तो वह जो आनंद अनुभव होता है तैरने वाले को, वह जिन्होंने तैरा नहीं है, उन्हें कभी अनुभव नहीं हो सकता। पानी पर विजय मिल गई!
जब आप ध्यान में तैरना सीख जाते हैं, तो शरीर पर विजय मिल जाती है। और वह गहनतम कला है। मगर आप करें, तो ही यह हो सकता है।
और यह सूत्र बड़ा कीमती है। यह साधारण मेथड और विधियों जैसा नहीं है, कि कोई किसी को मंत्र दे देता है, कि मंत्र बैठकर घोटते रहो। कोई कुछ और कर देता है। यह बहुत सीधा, सरल, साफ है, लेकिन ज्यादा समय लेगा।
मंत्र इत्यादि का जप करने से जल्दी कुछ घटनाएं घटनी शुरू हो जाती हैं। लेकिन उन घटनाओं का बहुत मूल्य नहीं है। मंत्र की यात्रा से जाने वाले व्यक्ति को भी आखिर में इस सूत्र का उपयोग करना पड़ता है और उसे भीतर यह अनुभव करना पड़ता है कि जो मंत्र बोल रहा है, वह मैं नहीं हूं। और वह जो मंत्र का जपन चल रहा है, वह मैं नहीं हूं। उसे अंत में यह भी अनुभव करना पड़ता है कि वह जो ओम का भीतर पाठ हो रहा है, वह भी मैं देख रहा हूं सुन रहा हूं मैं नहीं हूं।
इस सूत्र का उपयोग तो करना ही पड़ता है। किसी भी विधि का कोई उपयोग करे, अगर इस सूत्र का बिना उपयोग किए कोई किसी विधि का प्रयोग करता हो, तो वह आज नहीं कल, आत्म-मूर्च्छा में पड़ जाएगा। यह सूत्र बुनियादी है। और सभी विधियों के प्रारंभ में, मध्य में, या अंत में कहीं न कहीं यह सूत्र मौजूद रहेगा।
इससे उचित है कि विधियों की फिक्र ही छोड़ दें। सीधे इस सूत्र पर ही काम करें। एक घंटा निकाल लें, और चाहे कितनी ही अड़चन मालूम पड़े...।
बड़ी अड़चन मालूम होगी। भीतर सब पसीना-पसीना हो जाएगा-शरीर नहीं, भीतर-बहुत पसीना-पसीना हो जाएंगे। बड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी। हर मिनट पर चूक हो जाएगी। हर बार एक चीज से बचेंगे और दूसरी चीज में तादात्म्य हो जाएगा। लेकिन जारी रखें। किसी चीज से जुड़े मत। और एक ही खयाल रखें कि मैं जानने वाला, मैं जानने वाला, मैं जानने वाला।
मैं ऐसा कह रहा हूं, इसका मतलब यह नहीं कि आप भीतर दोहराते रहें कि मैं जानने वाला, मैं जानने वाला। अगर आप यह दोहरा रहे हैं, तो आप भूल में पड़ गए, क्योंकि यह दोहराने वाला शरीर ही है। यह अगर आप दोहरा रहे हैं, तो इसको भी जानने वाला मैं हूं। जो जान रहा है कि यह बात दोहराई जा रही है, कि मैं जानने वाला, मैं जानने वाला। इसको भीतर बारीक काटते जाना है और एक ही जगह खड़े होने की कला सीखनी है कि मैं सिर्फ ज्ञान हूं। शब्द मैं नहीं हूं। ऐसा दोहराना नहीं है भीतर। ऐसा भीतर जानना है कि मैं ज्ञान हूं। और तोड़ना है सब तादात्म्य से। तो आपको पता चलेगा कि शरीर क्षेत्र है, शरीर के भीतर छिपे आप क्षेत्रज्ञ हैं।
और यह जो क्षेत्रज्ञ है, यह कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं। इस भेद को जो जान लेता है, वही ज्ञानी है।
इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन।
कृष्ण कहते हैं, अब मैं तुझसे कहूंगा संक्षेप में वह सब, कि यह शरीर कैसे हुआ है, यह क्षेत्र क्या है, इसका गुणधर्म क्या है। और इसके भीतर जो जानने वाला है, वह क्या है, उसका गुणधर्म क्या है। लेकिन कृष्ण से इसे सुना जा सकता है, लेकिन क्या से सुनकर इसे जाना नहीं जा सकता।
एक बात सदा के लिए खयाल में रख लें, और उसे कभी न भूलें, कि ज्ञान कोई भी आपको दे नहीं सकता। यह जितनी गहराई से भीतर बैठ जाए उतना अच्छा है। ज्ञान कोई भी आपको दे नहीं सकता। मार्ग बताया जा सकता है, लेकिन चलना आपको ही पड़ेगा। और मंजिल मार्ग बताने से नहीं मिलती, मार्ग जान लिया इससे भी नहीं मिलती; मार्ग चलने से ही मिलती है।
और आपके लिए कोई दूसरा चल भी नहीं सकता। नहीं तो बुद्ध और कृष्ण की करुणा बहुत है। क्राइस्ट और मोहम्मद की करुणा बहुत है। अगर वे चल सकते होते आपके लिए, तो वे चल लिए होते। और अगर ज्ञान दिया जा सकता होता, तो एक कृष्ण काफी थे; सारा जगत ज्ञान से भर जाता, क्योंकि ज्ञान दिया जा सकता। लेकिन कितने ज्ञानी हो जाते हैं और अज्ञान जरा भी कटता नहीं दिखाई पड़ता!
मेरे पास लोग आते हैं। वे पूछते हैं, कृष्ण हुए महावीर हुए बुद्ध हुए क्या फायदा? आदमी तो वैसा का वैसा है। तो क्या सार हुआ? उनका कहना थोड़ी दूर तक ठीक है। क्योंकि वे सोचते हैं कि अगर एक आइंस्टीन हो जाता है, तो वह जो भी ज्ञान है, फिर सदा के लिए आदमी को मिल जाता है। एक आदमी ने खोज ली कि बिजली क्या है, तो फिर हर आदमी को खोजने की जरूरत नहीं है। आप घर में जब बटन दबाते हैं, तो आपको कोई बिजली का ज्ञाता होने की जरूरत नहीं है, कि आपको पक्का पता हो कि बिजली क्या है और कैसे काम करती है। आप बटन दबाते हैं, खतम हुई बात। अब दुनिया में किसी को जानने की जरूरत नहीं है। बाकी लोग उपयोग कर लेंगे।
विज्ञान का जो ज्ञान है, वह हस्तांतरणीय है। वह एक दूसरे को दे सकता है। वह उधार हो सकता है। क्योंकि बाहर की चीज है, दी जा सकती है।
आपके पिता जब मरेंगे, तो उनकी जो बाह्य संपत्ति है, उसके आप अधिकारी हो जाएंगे। उनका मकान आपको मिल जाएगा। उनकी किताबें आपको मिल जाएंगी। उनकी तिजोड़ी आपको मिल जाएगी। लेकिन उन्होंने जो जाना था अपने अंतरतम में, वह आपको नहीं मिलेगा। उसको देने का कोई उपाय नहीं है। बाप भी बेटे को नहीं दे सकता। उसे दिया ही नहीं जा सकता, जब तक कि आप ही उसे न पा लें।
ज्ञान पाया जा सकता है, दिया नहीं जा सकता। उपलब्ध है; आप पाना चाहें तो पा सकते हैं। लेकिन कोई भी आपको दे नहीं सकता। तो कृष्ण कहेंगे जरूर, लेकिन अर्जुन को खुद ही पाना पड़ेगा। खतरा यह है कि अर्जुन सुनकर कहीं मान ले, कि ठीक, मैंने भी तो जान लिया।
शब्दों के साथ यह उपद्रव है। ज्ञान तो नहीं दिया जा सकता, लेकिन शब्द दिए जा सकते हैं। शब्द तो उधार मिल जाते हैं। और आप शब्दों को इकट्ठा कर ले सकते हैं। और शब्दों के कारण आप सोच सकते हैं, मैंने भी जान लिया।
आखिर अगर आप गीता को कंठस्थ कर लें, तो आपके पास भी वे ही शब्द आ गए, जो कृष्ण के पास थे। और कृष्ण ने जो कहा था, वह आप भी कह सकते हैं। लेकिन आपका कहा हुआ यांत्रिक होगा, कृष्ण का कहा हुआ अनुभवजन्य था।
अर्जुन के लिए खतरा यही है कि कृष्ण की बातें अच्छी लगें...। और लगेंगी अच्छी, प्रीतिकर लगेंगी, क्योंकि मन की कई वासनाओं को पूरा करने वाली हैं, कई अभीप्साओं को पूरा करने वाली हैं। यह कौन नहीं चाहता कि शरीर से छुटकारा हो!
एक युवती मेरे पास आई इटली से। शरीर उसका भारी है, बहुत मोटा, बहुत वजनी। कुरूप हो गया है। मांस ही मांस हो गया है शरीर पर। चरबी ही चरबी है। उसने मुझे एक बड़े मजे की बात कही। उसने यहा कोई तीन महीने ध्यान किया मेरे पास। और एक दिन आकर उसने मुझे कहा कि आज मुझे ध्यान में बड़ा आनंद आया। मैंने पूछा, क्या हुआ तुझे? तो उसने कहा, आज मुझे ध्यान में अनुभव हुआ कि मैं शरीर नहीं हूं। और इस शरीर से मुझे बड़ी पीड़ा है; कोई मुझे प्रेम नहीं करता है। और एक युवक मेरे प्रेम में भी गिर गया था, तो उसने मुझसे कहा कि मैं तेरी सिर्फ आत्मा को प्रेम करता हूं तेरे शरीर को नहीं।
अब किसी स्त्री से आप यह कहिए कि मैं तेरी सिर्फ आत्मा को प्रेम करता हूं तेरे शरीर को नहीं! तो उस युवक ने कहा कि मैं तेरे शरीर को प्रेम नहीं कर सकता। बिलकुल असंभव है। मैं तेरी आत्मा को प्रेम करता हूं। लेकिन इससे कोई तृप्ति तो हो नहीं सकती। उसने कहा, आज मुझे ध्यान में बड़ा आनंद आया, क्योंकि मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मैं शरीर नहीं हूं। तो मेरी जो एक ग्लानि है मेरे शरीर के प्रति, उससे मुझे छुटकारा हुआ।
तो मैंने उससे पूछा कि यह तुझे ध्यान के कारण हुआ या तेरे मन में सदा से यह भाव है कि किसी तरह यह खयाल में आ जाए कि मैं शरीर नहीं हूं तो इस शरीर को दुबला करने की झंझट, इस शरीर को रास्ते पर लाने की झंझट मिट जाए?
तो उसने कहा कि यह भाव तो मेरे मन में पड़ा है। असल में मैं ध्यान करने आपके पास आई ही इसलिए हूं कि मुझे यह पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं मैं आत्मा हूं। तो शरीर के कारण जो मुझे पीड़ा मालूम होती है, और शरीर के कारण जो प्रत्येक व्यक्ति को मेरे प्रति विकर्षण होता है, उससे जो मुझे दंश और चोट लगती है, उस चोट से मेरा छुटकारा हो जाए।
तो मैंने उससे कहा कि पहले तो तू यह फिक्र छोड़ और यह भाव मन से हटा, नहीं तो तू कल्पना ही कर लेगी ध्यान में कि मैं शरीर नहीं हूं। कल्पना आसान है। सिद्धांत मन में बैठ जाएं, हमारी वासनाओं की पूर्ति करते हों, हम कल्पना कर लेते हैं।
शरीर से कौन दुखी नहीं है? ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो शरीर से दुखी न हो। कोई न कोई दुख शरीर में है ही। किसी के पास कुरूप शरीर है। किसी के पास बहुत मोटा शरीर है। किसी के पास बहुत दुबला शरीर है। किसी के पास कोई रुग्ण शरीर है। किसी का कोई अंग ठीक नहीं है। किसी की आंखें जा चुकी हैं। किसी के कान ठीक नहीं हैं। किसी को कुछ है, किसी को कुछ है। शरीर तो हजार तरह की बीमारियों का घर है।
तो शरीर से तृप्त तो कोई भी नहीं है। इसलिए कोई भी मन में वासना रख सकता है कि अच्छा है, पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं। मगर यह वासना खतरनाक हो सकती है। सिद्धांत की आडू में यह वासना छिप जाए, तो आप कल्पना भी कर ले सकते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। लेकिन उससे कोई सार न होगा, कोई हल न होगा। आप कहीं पहुंचेंगे नहीं। कोई मुक्ति हाथ नहीं लगेगी।
अनुभव-वासनारहित, कल्पनारहित और स्वयं का-उधार नहीं।
ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह सुनने योग्य है। ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह समझने योग्य है। ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह करने योग्य है। लेकिन ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह मानने योग्य बिलकुल नहीं है। मानना तो तभी, जब करने से अनुभव में आ जाए।
ज्ञानीजन क्या कहते हैं, उसे सुनना, हृदयपूर्वक सुनना। श्रद्धा से भीतर ले जाना। पूरा उसे आत्मसात कर लेना। उस खोज में भी लग जाना। वे क्या करने को कहते हैं, उसे साहसपूर्वक कर भी लेना। लेकिन मानना तब तक मत, जब तक अपना अनुभव न हो जाए। तब तक समझना कि मैं अज्ञानी हूं, और सिद्धांतों से अपने अज्ञान को मत ढांक लेना। और तब तक समझना कि मुझे कुछ पता नहीं है। ऐसा कृष्ण कहते हैं। कृष्ण से प्रेम है, इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। लेकिन ठीक ही है, ऐसा तब तक मैं कैसे कहूं तब तक मैं न जान लूं।
इसका यह अर्थ नहीं है कि उन पर अश्रद्धा करना। अश्रद्धा की कोई भी जरूरत नहीं है। पूरी श्रद्धा करना। लेकिन मान मत लेना। मेरी बात का फर्क आपको खयाल में आ रहा है?
मानने का एक खतरा है कि आदमी चलना ही बंद कर देता है। वह कहता है, ठीक है। अक्सर मुझे ऐसा लगता है कि जो लोग जल्दी मान लेते हैं, वे वे ही लोग हैं, जो चलना नहीं चाहते; जिनकी सस्ती श्रद्धा हो जाती है। वे असल में यह कह रहे हैं कि ठीक है। कोई हमें अड़चन नहीं है। ठीक ही है। कहीं चलने की कोई जरूरत भी नहीं है। हम मानते ही हैं कि बिलकुल ठीक है।
आदमी इनकार करके भी बच सकता है, है। करके भी बच सकता है। मेरे पास लोग आते हैं, तो मैं अनुभव करता हूं। उनको मैं कहता हूं कि ध्यान करो। वे कहते हैं, आप बिलकुल ठीक कहते हैं। लेकिन जब वे कह रहे हैं कि बिलकुल ठीक कहते हैं, तो वे यह कहते हैं कि अब कोई करने की जरूरत नहीं है। हमें तो मालूम ही है। आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।
दूसरा आदमी आता है, वह कहता है कि नहीं, हमें आपकी बात बिलकुल नहीं जंचती। वह भी यह कह रहा है कि बात जंचती ही नहीं, तो करें कैसे?
बड़े मजे की बात है। आदमी किस तरह की तरकीबें निकालता है! एक आदमी कहता है कि बिलकुल नहीं जंचती। मगर वह जितनी तेजी से कहता है, उससे लगता है कि वह डरा हुआ है कि कहीं जंच न जाए, नहीं तो करना पड़े। भयभीत है। वह एक रुकावट खड़ी कर रहा है कि हमें जंचती ही नहीं, इसलिए करने का कोई सवाल नहीं। एक दूसरा आदमी है, वह कहता है, हमें बिलकुल जंचती है। आपकी बात बिलकुल सौ टका ठीक है। लेकिन यह दूसरा आदमी भी यह कह रहा है कि सौ टका ठीक है। करने की कोई जरूरत ही नहीं, हमें मालूम ही है कि ठीक है। जो बात मालूम ही है, उसको और मालूम करके क्या करना है!
आदमी आस्तिक होकर भी धोखा दे सकता है खुद को, नास्तिक होकर भी धोखा दे सकता है। दोनों धोखे से बचने का एक ही उपाय है, प्रयोग करना, अनुभव करना।
और जो भी इस रास्ते पर चलते हैं, वे खाली हाथ नहीं लौटते हैं। और जो भी इस रास्ते पर जाते हैं, वे जरूर मंजिल तक पहुंच जाते हैं। क्योंकि यह रास्ता खुद के ही भीतर ले जाने वाला है। और यह मंजिल कहीं दूर नहीं, खुद के भीतर ही छिपी है।
आज इतना ही।
पाच मिनट बैठेंगे; कोई बीच से उठे न। पांच मिनट कीर्तन में लीन होकर सुनें, और फिर जाएं। कोई भी व्यक्ति बीच में उठे न। और जो मित्र बैठे हैं, वे भी बैठकर कीर्तन में साथ दें।
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