अध्याय—11
सूत्र—(135)
श्रीभगवागुवाच:
कालोउस्थि
लोकक्षयकृत्यवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह
प्रवृत्त:।
ऋतेउयि
त्वां न
भविष्यन्ति
सर्वे
येउवस्थिता
प्राचनीकेषु
।। 32।।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ
यशो लभस्व
जित्वा शत्रून्भुड्क्ष्व
राज्यं
समृद्धम्।
मयैवैते
निहता:
पूर्वमेव
निमित्तमात्रं
भव सव्यसाचिन्।।
33।।
द्रोणं
च भीष्म च
जयद्रथ च कर्ण
तथान्यानयि योधवीरान्।
मया
हतांस्त्वं
जहि मा
व्यथिष्ठा
युध्यस्व
जेतासि रणे सपत्नान्।।
34।।
इस
प्रकार
अर्जुन के
क्रहने पर श्रीकृष्ण
भगवान बोले हे
अर्जुन मैं
लोकों का नाश
करने वाला बडा
हुआ महाकाल
हूं। इस समय हन
लोकों को नष्ट
करने के लिए
प्रवृत्त हुआ
हूं। इसलिए जो
प्रतियक्षियों
की सेना में
स्थित हुए
योद्धा लोग
हैं वे सब
तेरे बिना भी
नहीं रहेंगे
अर्थात तेरे
युद्ध न करने
मे भी सबका नाश हो
जाएगा।
इससे
तू खड़ा हो और
यश को प्राप्त
कर तथा शत्रुओं
को जीतकर
धनधान्य से
संपन्न
राज्य को भोग।
और ये सब
शूरवीर पहले
से ही मेरे
द्वारा मारे
हुए हैं। हे
सव्यसाचिन— तू
तो केवल
निमित्तमात्र
ही हो जा।
तथा
इन
द्रोणाचार्य
और भीष्म
पितामह तथा
जयद्रथ और कर्ण
तथा और भी
बहुत— से मेरे
द्वारा मारे
हुए सूरवीर
योद्धाओं को तू
मार और भय मत
कर निस्संदेह
तू युद्ध में
वैरियों को
जीतेगा इसलिए
युद्ध कर!
एक
मित्र ने पूछा
है :
ओशो, दिव्य—दृष्टि
को पाकर भी
अर्जुन
परमात्मा को
उसकी समग्रता
में स्वीकार
करने में
क्यों असफल हो
रहा है? क्यों
भयभीत है?
परमात्मा के
साक्षात्कार
में, उसकी
पूर्ण
स्वीकृति में,
स्वयं को
पूरा खोने की
तैयारी
चाहिए।
परमात्मा का
अनुभव अपनी
पूर्ण मृत्यु
का अनुभव है।
जो मिटने को
राजी है, वही
उसे पूरी तरह
स्वीकार कर
पाता है। अगर
मिटने में जरा—सा
भी संकोच है, तो अस्वीकार
शुरू हो जाता
है और भय भी।
भय एक
ही है कि कहीं
मैं मिट न
जाऊं। और यह
भय अंतिम बाधा
है। इसलिए जो
जानते रहे हैं, उन्होंने
कहा है, जैसे
जीसस ने, कि
जो अपने को
बचाएगा, वह
खो देगा। और
जो अपने को
खोने को तैयार
है, वह
प्रभु को पा
लेगा। अपने को
बचाना ही धर्म
के मार्ग पर
पाप है। अपने
को बचाने की
चेष्टा ही
एकमात्र
रुकावट है।
तो
अर्जुन सामने
खड़ा है; विराट के
द्वार खुल गए
हैं। लेकिन
कहीं मैं मिट
न जाऊं— इसकी
वह बात कर
नहीं रहा है, यह भी समझ
लेने जैसा है।
वह कह रहा है
कि आपके दांतों
में दबे हुए, पिसते हुए
द्रोण को
देखता हूं
भीष्म को
देखता हूं
कर्ण को देखता
हूं। आपका
मुंह मृत्यु,
महाकाल बन
गया है। आपके
मुंह से लपटें
निकल रही हैं
और विनाश की
लीला हो रही
है। और मैं
बड़े—बड़े
योद्धाओं को
भी इस विनाश
के मुंह की
तरफ भागते हुए
देखता हूं
जैसे पतंगे
दीप—शिखा की
तरफ भागते हों,
अपनी ही मौत
की तरफ। कहीं
भी वह अपनी
बात नहीं कह
रहा है।
लेकिन
ध्यान रहे, जब भी कोई
दूसरा मरता है,
तो हमें
अपने मरने की
खबर मिलती है।
और जब भी कहीं
मृत्यु घटित
होती है, तो
किसी एक अर्थ
में तत्काल
हमें चोट भी
लगती है कि
मैं भी
मरूंगा।
जब अर्जुन
यह देख रहा
होगा सबको
मिटते हुए कृष्ण
के मुंह में, तो यह
असंभव है कि
यह छाया की
तरह चारों तरफ
यह बात उसको न
घेर ली हो कि
मैं भी मिटूगा,
मैं भी ऐसे
ही मरूंगा। और
मैं भी पतंगे
की तरह किसी
ज्योति में
जलने को इसी
तरह भागा जा
रहा हूं जैसे
यह सारा लोक।
मैं भी इस लोक
से अलग नहीं
हूं। वह कह तो
दूसरों की बात
रहा है, लेकिन
उसमें खुद
स्वयं की बात
भी गहरे में
सम्मिलित है।
वह भय पकड़ता
है।
बुद्ध
अपने साधकों
को कहते थे, इसके
पहले कि तुम
परम सत्य को
जानने जाओ, तुम ऐसे हो
जाओ जैसे मर
गए हो, जीते
जी मृत। अगर
तुम जीते जी मृत
नहीं हो गए हो,
तो उस परम
सत्य को तुम न
झेल पाओगे। जो
जीते जी मृत
हो गया है, उसे
फिर कोई भी भय
नहीं है। फिर
परमात्मा के सामने
खड़े होकर
मिटने की उसकी
पहले से ही
तैयारी है। यह
तैयारी न हो, तो अड़चन
होगी।
और जो
लोग भी
परमात्मा की
खोज में जाते
हैं, वे
जीवन की खोज
में जाते हैं,
मृत्यु की
खोज में नहीं।
जो जीवन के
पिपासु हैं
अभी, वे
उसे न पा
सकेंगे। जो
मिटने को राजी
हैं, वे
उसे पा लेंगे,
परम जीवन भी
उन्हें
मिलेगा।
लेकिन परम
जीवन मिलता है
पूर्ण मृत्यु
की स्वीकृति
से।
अपने
को मिटाने को
जो तैयार है, उसे इस
जगत में फिर
कोई भी नहीं
मिटा सकता। और
अपने को बचाने
को जो पागल है,
वह मिटेगा
ही। क्योंकि
जो हमारे भीतर
भयभीत है कि
मिट न जाऊं, वह है
अहंकार। वह
मिटेगा ही, वह बनाई हुई
चीज है। जो
बनाई हुई चीज
है, वह
मिटती ही है।
हमारे
भीतर जो
मृत्यु से भी
नहीं मिटती, वह है
आत्मा। और जब
तक हमें
मृत्यु का भय
है, उसका
अर्थ हुआ कि
हमें आत्मा का
कोई भी पता नहीं।
हमें सिर्फ
अपने अहंकार
का, अस्मिता
का, मैं
भाव का पता
है। हमारे
भीतर
मरणधर्मा है
अहंकार, और
अमृत है
आत्मा। हम
सबको अपने मैं
का पता है, आत्मा
का कोई पता
नहीं है।
इस मैं
को ही हम लिए
जाते हैं
परमात्मा के
द्वार पर भी।
यह भीतर
प्रवेश न कर
सकेगा। इसे
मिटना होगा, इसे बाहर
दरवाजे पर ही
छोड़ना होगा।
अर्जुन
का भय भी उन
सभी साधकों का
भय है, जो
आखिरी किनारे
पर खड़े हो
जाते हैं और
जहां सवाल
उठता है कि
क्या अब मैं
अपने को खोने
को राजी हूं?
हम परमात्मा
को भी पाना
चाहते हैं
अपने में
जोड्ने को, ध्यान
रखना। वह भी
हमारी
संपत्ति हो।
वह भी हमारी
मुट्ठी में
हो। वह भी
हमारे बैंक
बैलेंस में
लिखा हो, कि
इस आदमी को
भगवान मिल
गया! वह भी
हमारे हाथ में
हो। हमारा
अहंकार उसके
होने से और
प्रगाढ़ होता
हो, कि
मैंने परमात्मा
को पा लिया।
इसलिए हम उसकी
भी खोज करते
हैं।
और
धर्म बड़ी उलटी
व्यवस्था है।
धर्म कहता है, जब तक तुम
हो, तब तक
तुम उसे न पा
सकोगे।
कबीर
ने कहा है, जब तक मैं
था, खोज—खोज
कर, परेशान
हो— हो कर मिट
गया, उसे न
पाया। और जब
मैं मिट गया, तो मैंने
देखा कि वह सामने
खड़ा हुआ है!
वह दूर नहीं
था। मैं था, इसीलिए दूर
था। मेरा होना
ही एकमात्र
अड़चन, बाधा,
अवरोध है।
अर्जुन
भी उसी अंतिम, आखिरी...।
शानियों ने
कहा है, अहंकार
अंतिम बाधा
है। सब छूट
जाता है। धन
छोड़ना आसान
है। परिवार
छोड़ना आसान
है। शरीर छोड़ना
आसान है।
अहंकार छोड़ना
सबसे कठिन है
कि मैं हूं।
और जब तक मैं हूं, तब तक मैं
हूं केंद्र।
और अगर
परमात्मा भी
सामने खड़ा हो,
तो वह भी
नंबर दो है।
जब तक मैं हूं, तब तक वह भी
नंबर दो है, नंबर एक तो
मैं ही हूं! और
जब तक
परमात्मा को
नंबर एक पर
रखने की
तैयारी न हो, तब तक बाधा
रहेगी। जिस
क्षण मैं कह
सकता हूं कि
अब तू ही है, अब मैं नहीं
हूं —..।
जार्ज
गुरजिएफ ने
आदमी की साधना
के चार चरण कहे
हैं। उसने कहा
है, पहली
स्थिति तो
आदमी की है, बहुत मैं; मल्टी आइज।
आपके भीतर एक
मैं भी नहीं
है अभी, बहुत
मैं हैं।
आपको
खयाल भी नहीं
होगा कि आप एक
आदमी नहीं हैं।
आपके भीतर कई
ईगो, कई
मैं हैं।
इसलिए सुबह
कुछ, दोपहर
कुछ, सांझ
कुछ हो जाता
है। सुबह एक
बात का वचन
देते हैं, दोपहर
भूल जाते हैं।
सांझ एक बात
तय करते हैं, सुबह
विस्मृत हो
जाती है। आज
तय किया था
क्रोध नहीं
करेंगे और
क्रोध हो गया।
गुरजिएफ कहता
है, जिस
मैं ने तय
किया था कि
क्रोध नहीं
करूंगा, वह
मैं और है। और
जिस मैं ने
क्रोध किया, वह मैं और
है। आपके भीतर
भीड़ है, आपके
भीतर एक मैं
नहीं है।
इसलिए आपकी
बात का कोई
भरोसा नहीं
है।
गुरजिएफ
के पास कोई
आता और वह
कहता कि मैं
आया हूं साधना
करने, तो
गुरजिएफ कहता,
तुम्हारी
बात का भरोसा
कर सकता हूं? तुम अभी
साधना करने आए
हो, सुबह, कल सुबह भी
साधना करने के
लिए तत्पर
रहोगे? तुम्हें
पक्का है कि
तुमने तय किया
था कि क्रोध
नहीं करूंगा,
तो फिर नहीं
ही किया? तब
वह आदमी डगमगा
जाएगा। वह
कहेगा, तय
तो बहुत बार
किया कि क्रोध
न करूंगा, लेकिन
हो नहीं पाता।
एक
बूढ़े आदमी ने
मुझे कलकत्ते
में कहा—बड़े
प्रतिष्ठित
आदमी थे मुल्क
के— कि मैं
ब्रह्मचर्य
का व्रत जीवन
में चार बार ले
चुका हूं! अब
ब्रह्मचर्य
का व्रत एक ही
बार लिया जा
सकता है। चार
बार
ब्रह्मचर्य
के व्रत का
क्या मतलब
होता है? जो मेरे साथ
सज्जन थे, वे
बहुत
प्रभावित
हुए। उनके
खयाल में ही न
आया, उनकी
बुद्धि में
प्रवेश न हुआ
कि चार बार
ब्रह्मचर्य
के व्रत का
क्या मतलब
होता है!
मैंने उन
के सज्जन से
पूछा कि फिर
पांचवीं बार
आपने क्यों
नहीं लिया? तो
उन्होंने कहा,
मैं हार गया
चार बार और
फिर मैंने
लेना ही छोड़ दिया,
व्रत लेना
छोड़ दिया!
आप
व्रत लेते हैं, लेकिन
आपका व्रत टिक
नहीं सकता।
गुरजिएफ
कहता है, आपके भीतर
कई मैं हैं।
एक मैं नहीं
है आपके भीतर,
मल्टी आइज,
पोलीसाइकिक।
महावीर ने ठीक
शब्द उपयोग
किया है, बहुचित्तवान।
एक आदमी के
भीतर बहुत—से
चित्त हैं। और
महावीर के इस
बहुचित्तवान
की स्वीकृति
अभी पश्चिम के
मनोविज्ञान ने
देनी शुरू की
है।
मनोविज्ञान
भी कहता है, मल्टीसाइकिक,
बहुत मन हैं
आदमी के पास; एक मन नहीं
है।
यह
पहली अवस्था
है, भीड़।
इस आदमी का
कोई भरोसा
नहीं ' है।
इसका भरोसा
करने का कोई
सवाल नहीं है।
इससे वचन भी
लेने का कोई
मतलब नहीं है।
इसके वचन की
कोई पूर्ति
नहीं होने
वाली है।
दूसरी
अवस्था
गुरजिएफ ने
कही है, एक मैं। यह
सारी भीड़ को
नष्ट करके जो
व्यक्ति अपने
भीतर एक स्वर
पैदा कर लेता
है; जिसके
वचन का अर्थ
है; जो कुछ
कहेगा, तो
पूरा करेगा; जो टिकेगा, अपनी बात पर,
अपने व्रत
पर। उसके भीतर
एक मैं है।
सुबह हो कि
सांझ, फर्क
नहीं पड़ेगा।
उसने प्रेम
किया है तो
प्रेम ही
करेगा, फिर
घृणा नहीं कर
सकेगा।
आपके प्रेम
का कोई भरोसा
नहीं है। अभी
प्रेम है, क्षणभर
में घृणा हो
जाए। फिर घृणा
प्रेम हो जाए।
अभी क्रोध है,
फिर शांति
हो जाए। फिर
क्रोध हो जाए।
अभी पछता रहे
थे, और अभी
फिर हत्या
करने को राजी
हो जाएं। आपकी
बात का कोई भी
भरोसा नहीं
है। आपको दोष
देने का भी
कोई कारण नहीं
है। आपके भीतर
एक! आदमी नहीं,
कई आदमी
हैं। जैसे एक
मकान के कई
मालिक हों और किसी
की बात का कोई
भरोसा न हो।
कैसे हो सकता
है?
गुरजिएफ
कहता है, दूसरी
स्थिति है एक
मैं की, यूनिटरी
आई। एक स्वर
रह जाए। साधना
आपकी भीड़ को
काटती है और
एक का निर्माण
करती है। लेकिन
वह दूसरी
अवस्था है।
तीसरी अवस्था
गुरजिएफ कहता
है, न—मैं
की, नो— आई।
जब कि मैं न रह
जाए। अनुभव
होने लगे कि
मैं नहीं हूं।
यह तीसरी
अवस्था है।
दूसरी
अवस्था वाले
आदमी को ही
तीसरी मिल
सकती है।
जिसके पास
पक्का है कि
मैं हूं वही
हिम्मत कर
सकता है मैं
को खोने की।
जो आपके पास
नहीं है, उसको खोइएगा
कैसे? जो
आपके पास है, उसे आप छोड़
सकते हैं। जो
आपके पास है
ही नहीं, उसे
छोडिएगा कैसे?
आपके पास
अभी मैं भी
नहीं है, अहंकार
भी नहीं है
पूरा, मजबूत,
एक, जिसको
आप त्याग कर
दें। और त्याग
कौन करेगा? एक त्याग
करेगा, दूसरा
पकड़े रहेगा, फिर आप क्या
करिएगा! आप एक
भीड़ हैं।
गुरजिएफ
कहता है, जिसको दूसरी
अवस्था
प्राप्त हो
जाए, एक
मैं की, वह
फिर तीसरी
अवस्था में भी
छलांग लगा
सकता है। वह
कहता है, छोड़ता
हूं इसे! तब वह
न—मैं, मैं
नहीं हूं इस
भाव को और
गुरजिएफ कहता
है, इस
तीसरे के पार
चौथी अवस्था
है, जब कि
मैं नहीं हूं
इसका भी पता
नहीं चलता। क्योंकि
इसका भी पता
चलना थोड़े—से
मैं का पता
चलना है। मैं
नहीं हूं तो
भी लगता तो है
कि मैं हूं।
कौन कह रहा है
कि मैं नहीं हूं?
किसको पता
चल रहा है कि
मैं नहीं हूं?
यह कौन है, जो बोलता है
कि मैं नहीं
हूं? यह
है। तो
गुरजिएफ कहता
है, चौथी
अवस्था इसका
भी विसर्जन
है।
पहले एक
भीड़ है मैं
कि, एक
क्राउड; फिर
एक का जन्म; फिर एक मैं
का त्याग है, न—मैं का
जन्म है; फिर
न—मैं का भी
विसर्जन है।
इस शून्य
अवस्था में जो
आदमी खड़ा होगा,
वह
परमात्मा को
पूरा का पूरा
स्वीकार करता
है। इसके पहले
परमात्मा को
पूरा स्वीकार
नहीं किया जा
सकता। हम
उसमें भी
चुनाव
करेंगे। हमें
अभी डर है
मिटने का। अभी
मैं हूं तो
मुझे भय है।
यही तकलीफ
अर्जुन की है,
यही तकलीफ
सभी साधकों की
है।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा कि
आपके समझाया
कि परमात्मा
के विराट स्वरूप
के
साक्षात्कार
के लिए मनुष्य
की इंद्रियां
सक्षम नहीं
हैं।
अपरिपक्र
साधक यदि किसी
प्रकार विराट
स्वरूप की झलक
पा ले, तो पागल भी
हो सकता है।
तो समझाएं कि
परमात्म—ऊर्जा
की झलक या
साक्षात तक
पहुंचने के
लिए साधक क्या
तैयारी करे?
मरने की
तैयारी करे।
मिटने की
तैयारी करे, न होने कि
तैयारी करे।
नहीं हूं ऐसा
जीने लगे। कर
सकते हैं। गहन
से गहन साधना वही
है।
मगर हम तो
सभी तरफ से मैं
को मजबूत करने
की साधना करते
हैं। अगर आप
मंदिर भी जा
रहे है, आप देखते है कि
लोग देख रहे
हैं कि नहीं, कि मैं
मंदिर जा रहा
हूं। मंदिर
में भी हाथ जोड़कार
प्रार्थना
करते हैं, तो
भगवान की तरफ
ध्यान कम रहता
है। फुट रहता
है कि आस—पास
के लोग ठीक से
देख रहे हैं? कोई
फोटोग्राफर
आया कि नहीं? कोई अखबार
खबर छापेगा कि
नहीं कि आज
मैं
प्रार्थना कर
रहा था, लीन
हो गया था?
मन में
लगा है, कोई देख ले कि
मैं
प्रार्थना कर
रहा हूं। कोई
जान ले कि मैं
प्रार्थना
करने वाला
हूं। कि मैं
रोज मंदिर
जाता हूं कि
मैं धार्मिक
हूं। धार्मिक
होने की उतनी
चिंता नहीं
है। लोगों को
पता हो कि मैं
धार्मिक हूं
इसकी ज्यादा
चिंता है। क्यों?
वह मंदिर से
भी अहंकार ही
भर रहा है। उससे
भी मैं कुछ
हूं—मैं पापी
नहीं हूं
पुण्यात्मा
हूं; अधार्मिक
नहीं हूं
धार्मिक हूं—
यह मजा मैं
इकट्ठा कर रहा
है।
आदमी
उपवास करता है, तो
चुपचाप नहीं
करता। करना
चाहिए
चुपचाप। क्योंकि
किसी को बताने
की क्या जरूरत
कि आपने उपवास
किया है? लेकिन
ढोल—मंजीरा
पीटकर खबर
करनी पड़ती है
कि उपवास पर
हो गए हैं।
फिर उपवास
पूरा हो, तो
जुलूस
निकालना पड़ता
है कि उपवास
पूरा हो गया
है! कि दस दिन
उपवास किया, कि अठारह
दिन उपवास
किया।
उपवास
का शोरगुल
करने की क्या
जरूरत है? यह तो
आपकी निजी बात
थी। आपके और
परमात्मा के बीच
इसकी खबर काफी
थी। और उसको
खबर मिल
जाएगी। आपके
बैंड—बाजे की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
कबीर
ने कहा है, वह
तुम्हारा
परमात्मा
क्या बहरा है
जो तुम इतना
शोरगुल मचा
रहे हो?
लेकिन
परमात्मा से
किसी को
प्रयोजन भी
नहीं। और उसका
पक्का पता भी
नहीं कि वह है
भी या नहीं।
और यह भी
पक्का नहीं कि
आपके उपवास से
प्रसन्न हो
रहा है कि
दुखी हो रहा
है, यह
कुछ पता नहीं
है। आपके
उपवास की उसको
खबर भी हो रही
है, यह भी
पता नहीं है।
लेकिन लोगों
को तो कम से कम खबर
हो जाए! वह जो
अठारह दिन
आदमी उपवास
में तड़पता रहा
है, ये लोग
उसका जुलूस
निकालें, इसमें
उसका रस है।
आदमी
जरा—सा तप करे, साधना
करे, तो
उत्सुकता
होती है कि
दूसरों को खबर
हो जाए। हम
छोटे बच्चों
की तरह हैं।
अनुभव से हमें
संबंध नहीं है,
खबर से
संबंध है। और
यह सारा हमारा
जगत खबर से जी
रहा है।
आप
मानते हैं, फलां
आदमी बहुत बड़ा
महात्मा है।
मानने का कारण?
क्योंकि वह
आदमी ठीक से
आपको खबर
पहुंचा सका
है। कोई छिपा
हो, न हो
उसका पता, तो
आपको पता चलने
वाला नहीं है।
आपके सामने अगर
कृष्ण भी आकर
खड़े हो जाएं
और पहले से
ठीक से आपको
खबर न की गई हो,
तो आप
पहचानने वाले
नहीं हैं। या
हो सकता है आप
समझें कि कोई
नाटक का पात्र
आ गया है। यह
क्या कलगी, बांसुरी
वगैरह लिए
आदमी चला आ
रहा है! या हो
सकता है कि
पुलिस को खबर
करें कि यहां
एक गड़बड़ आदमी
दिखाई पड़ रहा
है, इसको
पकड़कर ले
जाएं।
आप
जीते ही हैं
शब्दों से, खबर से, प्रचार से।
तो आदमी, धार्मिक
आदमी भी अगर
प्रचार करके
ही जी रहा हो, कि कितना रस
मिल रहा है
उसको
तपश्चर्या से—
तपश्चर्या से
नहीं, तपश्चर्या
की खबर से; लोगों
की आंखों में
कितनी
प्रशंसा मिल
रही है— तो
अहंकार ही भर
रहा है।
हम सब
तरह से अपने
अहंकार को
भरते हैं।
बुरे अहंकार
भी हैं। अगर
आप जेलखाने
में जाएं, तो वहां
भी जो बड़ा
हत्यारा है, उसकी ज्यादा
इज्जत होती है
कैदियों में।
जो दस—पांच
दफा जेल में आ
चुका है, उसकी
ज्यादा
प्रतिष्ठा
होती है। वह
नेता है। जो
नया—नया आया
है, उसको
लोग कहते हैं,
अभी सिक्खड
है। क्या, किया
क्या था? वह
कहता है, जेब
काट ली थी। वे
कहते हैं, चुप
भी रह। इसका
भी कोई मतलब
है! कोई मूल्य
है! अभी सीख।
मैंने
सुना है कि एक
जेलखाने में
ऐसा हुआ। एक कोठरी
में एक आदमी
पहले से था।
फिर दूसरा
आदमी भी
जेलखाने में
आया और उसको
भी उसी कोठरी
में डाला गया।
तो उस दूसरे
आदमी ने पूछा, कितने
दिन की सजा
हुई है? तो
उसने कहा, चालीस
साल की। उसने
कहा, सिर्फ
चालीस साल की!
तो दरवाजे के
किनारे अपना
बिस्तर लगा।
मुझे सत्तर
साल की हुई
है। तुझे पहले
निकलना
पड़ेगा।
दरवाजे के पास
ही अपना बिस्तर
रख। सिर्फ
चालीस साल की
ही सजा हुई है,
तो दरवाजे
के पास ही टिक!
तुझे पहले
निकलने का मौका
आएगा। उसको
सत्तर साल की हुई
है! सत्तर साल
का मजा और है।
वह भीतर जमकर
बैठा है।
आदमी
पाप में भी
अहंकार को
भरता है, छोटे—बड़े
पापी होते
हैं। आदमी
पुण्य में भी
अहंकार को
भरता है, छोटे—बड़े
पुण्यात्मा
होते हैं। अगर
आप साधु—महात्माओं
के पास जाएं, तो भी इस पर
निर्भर करता
है कि वे आपसे कहेंगे,
आइए बैठिए
या कुछ भी न
कहेंगे, इस
पर निर्भर
करता है कि
आपकी कितनी
प्रतिष्ठा
उनकी आंखों
में है। दान
किया हो, उपवास
किया हो, तप
किया हो, इस
पर निर्भर
करेगा।
मैं एक
महात्मा का
प्रवचन सुन
रहा था। मैं
बहुत हैरान
हुआ। वे कुछ
कहते, दो
वचन मुश्किल
से बोलते, फिर
पूछते, सेठ
कालीदास, समझ
में आया? बहुत
लोग बैठे थे।
कौन सेठ
कालीदास है? सेठ कालीदास
एक बिलकुल
बुद्ध की शक्ल
के एक आदमी
सामने बैठे
हुए थे। वे
सिर हिलाते कि
जी महाराज!
फिर वे पूछते,
सेठ
माणिकलाल, समझ
में आया? फिर
एक दूसरे सेठ
वहीं सामने
पगडी बांधे
बैठे थे। वे
भी सिर हिलाते
कि समझ में
आया।
मैंने
बाद में पूछा
कि बात क्या
है? क्या
ये दो ही आदमी
यहां समझने
वाले हैं इतने
लोगों में? और यह नाम ले—लेकर
पूछने की बात
क्या है? तो
पता चला कि
दोनों ने काफी
दान किया है।
तो जिसने दान
किया, उसी
के पास समझ भी
हो सकती है! और
फिर कालीदास
को जो मजा आ
रहा है कि
महात्मा बार—बार
पूछते हैं, कालीदास, समझ में आया!
तो इतने लाखों
लोगों में
समझते हैं कि
एक कालीदास
समझदार है!
हमारा
सारा ढंग
अहंकार के आस—पास
चलता है, उसी के पास
जीता है। तो
अच्छे पापी
हैं, बुरे
पापी हैं।
बुरे पापी वे
हैं, जो
बुराई से
अहंकार को भर
रहे हैं।
अच्छे पापी वे
हैं, जो
अच्छाई से
अहंकार को भर
रहे हैं।
अहंकार पाप
है। धर्म की
गहन दृष्टि
में अहंकार
पाप है।
साधक
का एक ही काम
है कि वह ऐसे
जीए जैसे है
नहीं। क्या
करे? जहां
भी उसे लगे, मेरा मैं उठ
रहा है, वहीं
साक्षी हो जाए
और उसे कोई
सहयोग न दे।
रास्ते से चले,
उठे, बैठे,
गुजरे, ऐसे
जैसे कि हवा
आती हो, जाती
हो। भीतर कहीं
भी मौका न दे
कि मैं निर्मित
हो रहा हूं
मैं बन रहा
हूं मजबूत हो
रहा हूं।
इसकी
सतत स्थिति
बनी रहे जागरण
की, तो
ही एक घड़ी आती
है, जब मैं
मिट जाता है
और साधक शून्य
हो जाता है।
उसी शून्य में
अवतरण होता है।
उसी ना—कुछ
में, जब सब
जगह खाली हो
जाती है, तो
साधक
अतिथिगृह बन
जाता है, प्रभु
के निवास का।
फिर प्रभु उतर
सकता है।
प्रभु
उतर आए, फिर कोई
ध्यान रखने की
जरूरत नहीं
है। फिर तो ध्यान
रखना भी बाधा
है। फिर तो
इसकी भी फिक्र
करने की कोई
जरूरत नहीं कि
मैं हूं या नहीं
हूं। वह उतर
आया, उसके
बाद वह जाने।
लेकिन जब तक
वह नहीं उतरा
है, तब तक
साधक को
अत्यंत
सचेष्ट भाव से
जीने की जरूरत
है कि उसके
भीतर कहीं भी
मैं मजबूत न
होता हो।
बस, यह एक बात
खयाल में रहे
और आदमी अपने
को सिफर करता
जाए, शून्य
करता जाए। एक
घड़ी आ जाए कि
भीतर कोई मैं का
भाव न उठता
हो। उसी घड़ी
में मिलन हो
जाएगा। उसी
क्षण आप नहीं,
और
परमात्मा हो
जाता है।
एक और
मित्र ने पूछा
है कि फूल
खिलते हैं
मौसम में, चांद
उगता है समय
से, पानी
भाप बनता है
सौ डिग्री पर ।
अगर सारा जगत प्रयोजनहीन
है, तो इतनी नियमितता
कैसे? सारी
किया, गतिशीलता
अगर ही है, आनंद
ही है, तो
इतनी प्रगाढ़
नियमबद्धता
क्यों है?
ध्यान रहे,
जहां खेल हो,
वहां नियम का
बहुत ध्यान
रखना पड़ता है।
खेल टिकता ही
नियम पर है।
क्योंकि और तो
टिकने की कोई
जगह नहीं होती, सिर्फ नियम
ही होता है।
दो
आदमी ताश खेल
रहे हैं। तो
रूल्स होते
हैं, नियम
होते हैं, जिनसे
चलना पड़ता है।
क्योंकि खेल
में और तो कुछ
है ही नहीं, सिर्फ नियम
के ही आधार पर
तो सारा मामला
है। अगर दो
ताश के खेलने
वाले एक नियम
को न मानते हों,
खेल बंद हो
जाएगा। खेल टिकता
ही नियम पर
है।
इसलिए
आप खयाल रखें, अगर आप
अपने काम—
धंधे में
बेईमानी करते
हैं, तो
कोई आपकी इतनी
निंदा नहीं
करेगा। लेकिन
अगर आप ताश
खेलते वक्त
बेईमानी करें
और नियम का उल्लंघन
करें, तो
सभी आपकी
निंदा
करेंगे। खेल
में अगर कोई
बेईमानी करे,
तो बहुत
निंदित हो
जाता है, क्योंकि
वह तो खेल का
आधार ही खींच
रहा है। खेल
का आधार ही
नियम है।
इस जगत
में इतनी
नियमबद्धता
इसीलिए है कि
यह परमात्मा
का खेल है। और
चूंकि उसी का
खेल है, उसी को नियम
पालने हैं।
अपना खेल वह
बंद भी कर सकता
है। अगर वह
नियम नहीं
मानता है, तो
खेल अभी बंद
हो जाता है।
मगर
उसके अलावा
कोई है भी
नहीं, अपने
ही नियम हैं, अपना ही
मानना है।
इसीलिए इतनी
नियमबद्धता है।
इस
नियमबद्धता
का कारण यह
नहीं है कि
जगत में कोई
प्रयोजन है।
जहां प्रयोजन
हो, वहां
तो बिना नियम
के भी चल सकता
है। क्योंकि प्रयोजन
ही काम करवा
लेगा। लेकिन
जहां प्रयोजन
न हो, वहां
तो नियम ही सब
कुछ है।
क्योंकि
भविष्य तो कुछ
भी नहीं है, आगे तो कुछ
भी नहीं है
पाने को। नियम
ही एकमात्र
आधार है।
छोटे
बच्चे भी खेल
खेलते हैं, तो नियम
बना लेते हैं।
सारे खेल नियम
पर खड़े होते
हैं। नियम के
बिना खेल
असंभव है। ये
सारे खेल जो
हम चारों तरफ
देख रहे हैं, नियम पर खड़े
हैं। इसलिए
विज्ञान नियम
की खोज कर
पाता है। इसे
थोड़ा समझ लें।
विज्ञान
तो खड़ा ही
नियम पर है।
अगर जगत में
नियम न हो, तो
विज्ञान
बिलकुल खड़ा
नहीं हो सकता।
विज्ञान नियम
की खोज कर
लेता है कि सौ
डिग्री पर
पानी भाप बनता
है। यह नियम
की खोज है।
अगर कभी
निन्यानबे पर
बनता हो और
कभी डेढ़ सौ पर
बनता हो और
कभी बनता ही न
हो, तो फिर
वितान खड़ा
नहीं हो सकता।
विज्ञान नियम
का तो पता लगा
लिया है, लेकिन
वैज्ञानिक से
पूछो कि
प्रयोजन क्या
है? तो
वैज्ञानिक
कहता है, प्रयोजन
का तो कोई पता
नहीं चलता।
इसलिए
विज्ञान कहता
है, प्रयोजन
का हमें कोई
भी पता नहीं
है। हम इतना ही
बता सकते हैं
कि ऐसा है।
क्यों है? किस
लिए है? इसका
कोई उत्तर
नहीं है। हम
से यह मत
पूछो। हमसे
व्हाई, क्यों
मत पूछो। हमसे
सिर्फ व्हाट,
क्या है, इतना ही
पूछो।
हम बता
सकते हैं, सौ
डिग्री पर
पानी गर्म
होता है।
लेकिन क्यों सौ
डिग्री पर
गर्म होता है?
निन्यानबे
पर होने में
क्या अड़चन थी?
और
निन्यानबे पर
होता, तो
दुनिया में
कौन—सी खराबी
हो जाती? या
एक सौ एक
डिग्री पर
होता, तो
दुनिया में
कौन—सी विकृति
आने वाली थी? और सौ
डिग्री पर ही
होता है, इसका
क्या लक्ष्य
है? यह भी विज्ञान
कहता है, हम
कुछ नहीं कह
सकते। कोई
लक्ष्य नहीं
दिखाई पड़ता, कोई प्रयोजन
नहीं दिखाई
पड़ता। एक नियम—
वर्तुलता
दिखाई पड़ती है,
कि नियम
आवर्तित होता
रहता है।
धर्म
कहता है, कोई प्रयोजन
नहीं है। हमें
बहुत घबड़ाहट
लगती है इस बात
से कि कोई
प्रयोजन नहीं
है। क्योंकि
तब सब बातें
फिजूल मालूम
पड़ती हैं। अगर
कोई प्रयोजन
नहीं, तो
सब बात फिजूल
मालूम पड़ती
है। लेकिन आप
समझें थोडा।
आपको
फिजूल इसीलिए
मालूम पड़ती है
कि आप अब तक प्रयोजन
से ही जीते
रहे हैं।
प्रयोजन के
कारण ही, प्रयोजन की
धारणा के कारण
ही फिजूल
मालूम पड़ती
है। अगर कोई
प्रयोजन है ही
नहीं, तो
कोई चीज फिजूल
भी नहीं है।
प्रयोजन हो, तो कोई चीज
फिजूल हो सकती
है। प्रयोजन
हो ही न जगत
में, तो
फिर कोई चीज
यूजलेस नहीं
है, कोई
चीज फिजूल
नहीं है।
क्योंकि
फिजूल को जाचिएगा
कैसे?
अगर
सभी प्रयोजनरहित
है, तो
फिर कोई चीज
व्यर्थ नहीं
है। न कोई चीज
सार्थक है, न कोई चीज
व्यर्थ है। बस,
चीजें हैं।
ऐसा जो
स्वीकार कर
लेता है, उसके जीवन
से अशांति के
सारे कारण
विदा हो जाते
हैं। ऐसा जो
मान लेता है, समझ लेता है,
गहरे में
इसकी प्रतीति
हो जाती है, उसके जीवन
में कोई
बेचैनी नहीं
रह जाती। कोई
बेचैनी नहीं
रह जाती।
बेचैनी का उपाय
ही नहीं रह
जाता। परम
शांति और परम
विश्राम में
उतरने का
मार्ग इस
अनुभव को पा
लेना है कि सब
खेल है।
आप रात
सपना देखते
हैं। कोई आपकी
चोरी करके ले
जा रहा है।
किसी ने आपकी
पत्नी की
हत्या कर दी है।
आप बड़े बेचैन
होते हैं, बड़े
परेशान होते
हैं। रोते हैं
सपने में। घबड़ाहट
में नींद खुल
जाती है। तो
देखते हैं कि आंख
से आंसू बह
रहे हैं। छाती
जोर से धड़क
रही है। ब्लड—प्रेशर
बढ़ गया होगा।
लेकिन
नींद खुलते ही
आप हंसने लगते
हैं। क्योंकि
आपको पता चलता
है, जो
था, वह स्वप्न
था। तब फिर आप
यह नहीं पूछते
कि यह आदमी
मेरी पत्नी की
हत्या क्यों
किया? फिर
आप यह नहीं
पूछते कि वह
एक आदमी चोरी
करके ले गया
है, उसने
पाप किया? फिर
आप यह सवाल ही
नहीं पूछते।
आप
इतना ही जानकर
कि वह स्वप्न
था, एक
खेल था मन का, शांत हो
जाते हैं। फिर
हृदय की धड़कन
अपनी जगह लौट
आती है। खून
ठीक चलने लगता
है। पसीना बंद
हो जाता है। आंसू
सूख जाते हैं।
आप फिर
विश्राम में,
नींद में
प्रवेश कर
जाते हैं।
स्वप्न
में क्या
तकलीफ आ गई थी? क्योंकि
तब स्वप्न
वास्तविक
मालूम पड़ता था,
इसलिए घबड़ा
गए थे। जैसे
ही पता चला
स्वप्न है, घबड़ाहट खो
गई, शांत
हो गए।
जब तक
जगत में आपको
प्रयोजन
मालूम पड़ता है, तब तक आप
परेशान
रहेंगे। जिस
क्षण आपको
लगेगा, जगत
लीला है, स्वप्नवत,
एक खेल, कोई
प्रयोजन नहीं,
उसी क्षण आप
स्वप्न के
बाहर हो
जाएंगे।
यह
गहनतम
आधारभूमि है, जिसके
सहारे आदमी
विराट को अपने
में उतार पा
सकता है। जब
तक आपको लग
रहा है, सब
तरफ
वास्तविकता
है, रियलिटी
है; जब तक
आपको लग रहा
है, ऐसा
होना ही चाहिए,
इसके बिना
जीवन बेकार हो
जाएगा, तब
तक आप बेचैन
और परेशान
होंगे और जीवन
को बेकार कर
लेंगे।
क्योंकि
परेशानी और
बेचैनी में ही
नष्ट हो जाएगी
ऊर्जा। यह
ऊर्जा अगर ठहर
जाए, शांत
हो जाए, तो
इस शांत ऊर्जा
से जो झील बन
जाती है मौन
की, तरंगरहित,
उसी झील में
संपर्क हो
जाता है अनंत
से, विराट
से प्रभु से।
एक और
मित्र ने पूछा
है कि अगर
आपकी बात हम
मान लें और
समझ लें कि सब
नियति का खेल
है, तो
जगत में आलस्य
छा जाएगा।
तो
छा जाने दें।
ऐसे आपको क्या
तकलीफ हो रही
है? आपको
पता है, आलसियों
ने क्या बुरा
किया है जगत
का? हिटलर
कोई आलसी नहीं
है, चंगेज
खां कोई आलसी
नहीं है, तैमूरलंग
कोई आलसी नहीं
है। दुनिया के
जितने उपद्रवी
हैं, कोई
भी आलसी नहीं
है। आप एकाध
आलसी का नाम
बता सकते हैं,
जिसने
दुनिया को कोई
नुकसान
पहुंचाया हो?
नुकसान
पहुंचाने के
लिए भी तो
आलस्य नहीं
चाहिए न!
दुनिया
के पूरे
इतिहास में एक
आदमी नहीं है, जिसको हम
दोष दे सकें, जो आलसी रहा
हो, जिसने
किसी को कोई
हानि पहुंचाई
हो। आलसी न चोर
हो सकता है, न राजनीतिज्ञ
हो सकता है। न
गुंडा हो सकता
है, न
हत्यारा हो
सकता है।
आलसी
से क्या तकलीफ
है आपको? आलसी के ऊपर
दोष ही क्या
हैं? सब
दोष तो कर्मठ
लोगों के ऊपर
हैं। सब
उपद्रव का जाल
तो कर्मठ
लोगों के ऊपर
है। दुनिया
में थोड़ा कर्म
कम हो, तो
हानि नहीं
होगी।
फिर
आपको पता नहीं
है। जो आलसी
हो सकता है, वह आलसी
होता ही है।
जो नहीं हो
सकता, उसके
होने का कोई
उपाय नहीं है।
नियति का अर्थ
यह है कि जो जो
हो सकता है, वही हो सकता
है। जो कर्मठ
हो सकता है, वह कर्मठ
रहेगा ही।
उसको आप अगर
कोठरी में भी बंद
कर दें, तो
भी वह कुछ न
कुछ कर्म
करेगा। वह बच
नहीं सकता।
तिलक, लोकमान्य
तिलक बंद थे
कारागृह में।
तो लिखने का
कोई सामान
नहीं था, तो
कोयले से
दीवाल पर
लिखते रहते
थे। गीता—रहस्य
उन्होंने
कोयले से लिख—लिखकर
शुरू किया।
आपके सामने
कोई सब कलम—कागज,
एअरकंडीशंड
दफ्तर भी रख
दे, तो भी
आप कुछ लिखेंगे
जरूरी नहीं
है। जो लिख
सकता है, वह
जेलखाने में
कोयले से भी
लिखेगा। जो
नहीं लिख सकता
है, उसको
लिखने का सब
सामान भी हो, तो सामान ही
देखकर उनके
प्राण और शांत
हो जाएंगे। वह
कुछ नहीं लिख
सकेगा।
आप जो
कर सकते हैं, वह करते
हैं। आपको एक
कहानी कहूं।
जापान के एक राजा
को मौज थी। वह
आलसियो का बड़ा
प्रेमी था। वह
कहता था, आलसी
बड़ा अनूठा
आदमी है। और
फिर आलसी का
कोई कसूर नहीं
है। भगवान ने
किसी को आलसी
पैदा किया, तो उसका
क्या कसूर है!
वह राजा खुद
भी आलसी था। आलसियो
का बड़ा प्रेमी
था। उसने सारे
जापान में एक
डुंडी
पिटवाई। और उसने
कहा कि जितने
भी आलसी हों, उनको सरकार
की तरफ से
पेंशन
मिलेगी।
क्योंकि भगवान
ने उनको आलसी
बनाया, वे
कर भी क्या
सकते हैं! और
भगवान की वजह
से वे परेशान
हों!
उसके
मंत्री बहुत
हैरान हुए कि
यह तो बड़ा
उपद्रव का काम
है। इसमें तो
पूरा मुल्क
आलसी हो जाएगा
और यह खजाना
लुट जाएगा
अलग। खजाना
आलसी तो भरते
नहीं, कर्मठ
भरते हैं। और आलसी
पेंशन पाने
लगें मुफ्त, तो सभी आलसी
हो जाएंगे। पर
राजा का हुक्म
था, तो
उन्होंने कोई
तरकीब निकाली
फिर।
उन्होंने
राजा से कहा, यह तो ठीक
है। लेकिन
असली आलसी कौन
है, इसका
कैसे पता
चलेगा? राजा
ने कहा, यह
भी कोई पता
लगाना है! यह
तो पता चल
जाएगा। तुम
खबर कर दो कि
जो लोग भी
पेंशन लेने को
उत्सुक हैं, राजमहल में
इकट्ठे हो
जाएं।
राजधानी
से कोई दस
हजार आदमी
इकट्ठे हो गए।
सम्राट ने
सबके लिए घास
की झोपड़ियां
बनवाई थीं। उन
सबको ठहरा
दिया। रात
सम्राट ने कहा, झोपड़ियों
में आग लगा
दो। जो आदमी
झोपड़ी से बाहर
न भागें, उनको
पेंशन देंगे।
चार
आदमी नहीं
भागे। जब
झोपड़ी में आग
लग गई तो उन्होंने
अपने कंबल ओढ़
लिए। उनके
पड़ोस के लोगों
ने कहा भी कि
आग लगी है!
उन्होंने कहा
कि अगर कोई
हमें ले जाए
बाहर, तो
ले जाए। बाकी
यह अपने बस की
बात नहीं है।
जो
आलसी है, उसको आप
कर्मठ बना भी
कहां पाते
हैं! जो कर्मठ है,
उसे आलसी
बनाने का कोई
उपाय नहीं है।
जिंदगी में हर
आदमी जैसा है,
वैसा है, यह नियति की
धारणा है।
इससे आप
परेशान न हों
कि लोग आलसी
हो जाएंगे।
जिन
मित्र ने पूछा
है, लगता
है, आलसी
टाइप हैं। लोग
हो जाएंगे, इसका तो
क्या डर है।
उनको डर होगा
अपना। वे होंगे
आलसी। समझा—बुझाकर
कर्म में लगे
होंगे। धक्का
दे रहा होगा
पिता, पत्नी,
कोई धक्का
दे रहा होगा
कि लगो कर्म
में। तो वे लगे
होगे अपने को
समझाकर।
सुनकर उन्हें
घबड़ाहट हुई
होगी कि यह तो
बात गड़बड़ है।
संसार आलसी हो
जाएगा! संसार
नहीं हो जाएगा।
लेकिन
अगर आप आलसी
हो सकते हैं, तो देर मत
करें, हो
जाएं। किसी की
मत सुनें, चुपचाप
हो जाएं।
क्योंकि वही
आपका स्वभाव
है, वही
आपका स्वधर्म
है। फिर डरें
मत। ध्यान रहे,
इसका मतलब
क्या होता है?
इसका मतलब
यह होता है कि
फिर आलसी होने
से जो परिणाम
भोगना पड़े, वे भोगें।
पत्नी गाली
देगी। पिता
डंडा लेकर खड़ा
हो जाएगा। पास—पड़ोसी
निंदा
करेंगे। सब
जगह बदनामी
होगी। उसको
शांति से
सुनना कि वे
लोग बदनामी
करने में बंधे
हैं, बदनामी
कर रहे हैं।
मैं आलसी हूं
मैं आलसी हूं।
अगर आप
इतना भी कर
पाएं, तो
आपका आलस्य ही
आपकी साधना हो
जाएगी। कर्म भी
साधना बन जाता
है, अगर हम
उसे स्वीकार
कर लें। आलस्य
भी साधना बन
जाता है, अगर
हम उसे
स्वीकार कर
लें। अपने
स्वभाव को स्वीकार
करके जो
निष्ठापूर्वक
जीता है, परमात्मा
उससे दूर नहीं
है। वह स्वभाव
कुछ भी हो।
एक
दूसरे मित्र
ने भी यही
पूछा है। उनको
डर यह है कि
अगर यह बात
मान ली जाए कि
नियति ठीक है, तो फिर
चोर चोरी करता
रहेगा, पापी
पाप करेगा, हत्या करने
वाला हत्या
करेगा, फिर
तो दुनिया
बिलकुल विकृत
हो जाएगी। फिर
दुनिया का
क्या होगा?
दुनिया का
इतना डर क्या है? आपसे
दुनिया चल रही
है? डर सदा
अपना है। अगर
हत्यारा
सुनेगा कि
नियति
है; सब भगवान
ने पहले से
किया हुआ है, जिनको मारना
है, अर्जुन
से वे कह रहे
हैं, उनको
मैं पहले मार
चुका; तो
हत्यारा
सोचेगा, बिलकुल
ठीक। जिसको
मुझे मारना है,
भगवान उसको
पहले से मार
चुके हैं। मैं
तो निमित्त
मात्र हूं। यह
हत्यारे का ही
डर है उसके
भीतर।
लेकिन
अच्छा है, अगर
नियति की बात
सोचकर आपके
भीतर की
असलियत बाहर
आती हो, तो
यह आत्म—निरीक्षण
के लिए बड़ी
कीमती है। अगर
आपको ऐसा लगता
हो कि स्वीकार
कर लो सब और
पहला खयाल यह
आता हो कि
लेकर तिजोड़ी
पड़ोसी की
नदारद हो जाओ,
तो यह आत्म—निरीक्षण
के लिए बड़ा
उपयोगी है।
इससे आपके भीतर
जो छिपा है, वह प्रकट
होता है।
आप अभी
तक अपने को
समझ रहे हों
कि साधु हैं, आप हैं
चोर, नियति
के विचार ने
आपको जाहिर कर
दिया, उजागर
कर दिया आपके
सामने, नग्न
रख दिया। आप
अब तक सोचते हों,
बड़ा
शांतिवादी
हूं; और अब
पता चला कि दो—चार
की हत्या करने
में हर्ज क्या
है! वे कृष्ण तो
पहले ही हत्या
कर चुके हैं, मैं तो
अर्जुन हूं
निमित्त
मात्र! तो मैं
कर दूं? तो
आपको पता चला
कि साधुता
वगैरह सब ओछी,
थोथी, ऊपर—ऊपर
थी। भीतर यह
असली खूनी
छिपा है।
नियति
का विचार भी
आपको आत्म—निरीक्षण
का कारण बन
जाएगा, एक। और
दूसरी बात, नियति के
विचार की पूरी
श्रृंखला को
समझ लेना जरूरी
है। आप सोचते
हों कि मैं
किसी का सिर
खोल दूं
क्योंकि यह तो
नियति है।
लेकिन वह भी
आपका सिर
खोलेगा, तब?
तब भी नियति
ही मानना। तब
नाराज मत हो
जाना। तब
चिंतित मत
होना। जब आप
किसी की तिजोड़ी
लेकर जाएं, वह तो ठीक
है। लेकिन जब
कोई आपकी
तिजोड़ी लेकर चला
जाए, या
चार आदमी
रास्ते में
मिलकर आपकी
तिजोड़ी छीन
लें...।
मैंने
सुना है, एक चोर पर
मुकदमा चला।
तीसरी बार
मुकदमा चला। और
मजिस्ट्रेट
ने उससे पूछा
कि तुम तीसरी
बार पकड़े गए
हो। दो बार भी
तुम्हारे खिलाफ
कोई गवाही
नहीं मिल सकी,
कोई
चश्मदीद गवाह
नहीं मिला, जिसने
तुम्हें चोरी
करते देखा हो।
अब तुम तीसरी
दफे भी पकड़े
गए हो, लेकिन
कोई गवाह नहीं
है। तुम क्या
अकेले ही चोरी
करते हो? कोई
साझीदार, कोई
पार्टनर नहीं
रखते? उस
चोर ने कहा कि
दुनिया इतनी
बेईमान हो गई
कि किसी से
साझेदारी
करना ठीक नहीं
है।
चोर भी
सोचते हैं कि
ईमानदार से
साझेदारी करो, कि
दुनिया इतनी
बेईमान हो गई
कि साझेदारी
चलती ही नहीं!
अकेले ही करना
है, जो
करना है। किसी
का भरोसा नहीं
है। चोर भी चाहता
है कि कोई भरोसे
वाला आदमी
मिले।
ध्यान
रखना, आप
जब किसी का
सिर खोल दें, तभी नियति
नहीं है। जब
वह लौटकर आपका
सिर खोल दे, तब भी नियति
है। अगर दोनों
की स्वीकृति
हो, तो आप
जाएं और सिर
खोल दें; देर
मत करें। अगर
ये दोनों की
स्वीकृति हो
कि जब आप किसी
की चोरी करें,
तब भी; और
जब कोई आपका
सब छीनकर ले
जाए, तब
भी। नियति का
मतलब यह नहीं
है कि आपके
पक्ष में जो
है वह नियति।
नियति के
दोनों पहलू
हैं।
ध्यान
रहे, जो
आदमी नियति को
स्वीकार कर
लेता है, उसका
जीवन इतना
शांत, इतना
मौन हो जाता
है कि अगर
परमात्मा ही
चाहे, तो
ही उससे चोरी
होगी। इसे समझ
लें ठीक से।
वह
इतना मौन और
शांत हो जाता
है सब स्वीकार
करके कि अगर
परमात्मा ही
चाहे, तो
ही उससे हत्या
होगी। आप, परमात्मा
चाहे कि न हो
हत्या, तो
भी कर रहे
हैं। आप, परमात्मा
चाहे कि न हो
चोरी, तो
भी कर रहे
हैं। आप अपना
ही हिसाब
लगाकर जी रहे।
हैं। इस जगत
की विराट
योजना में
आपकी अलग ही
दुनिया है।
आपका अलग अपना
ढांचा है। अलग
पटरियां हैं,
उन पर आप
दौड़ रहे हैं।
नियति
मानने वाले का
अर्थ यह है कि
जो भी है, उसे समग्रता
में स्वीकार
है, जो भी
परिणाम हो। वह
यह नहीं कहेगा
कि यह बुरा हुआ
मेरे साथ। अगर
कल आप पकड़ गए चोरी
में और अदालत
ने आपको सजा
दी, तो आप
क्या कहेंगे
फिर? क्या
आप यह कहेंगे।
कि मेरे साथ
बुरा हुआ, मैं
तो नियति का
ही काम कर रहा
था? मजिस्ट्रेट
भी नियति का
ही काम कर रहा
है। और वह जो
पुलिस वाला
आपको
हथकड़ियां
डाले हुए खड़ा है,
वह भी नियति
का ही काम कर
रहा है। नियति
की स्वीकृति
का अर्थ है, इस जगत में
अब मुझे कोई
भी शिकायत
नहीं।
इसे
ठीक से समझ
लें।
नियति
की स्वीकृति
का अर्थ है कि
कोई शिकायत नहीं
मुझे जगत में।
जो भी हो रहा
है, उसकी
मर्जी। फिर
मैं आपसे कहता
हूं कि _ अगर
इतनी हिम्मत
हो आपकी, सब
स्वीकार करने
की, तो मैं
आपको हक देता
हूं कि चोरी, हत्या, जो
भी करना हो, करना। लेकिन
इतनी
स्वीकृति
पहले आ जाए।
अब तक
ऐसा हुआ नहीं।
जब इतनी
स्वीकृति आ
जाती है, तो आदमी
अपने को तो
छोड़ ही देता
है। आप हत्या
करते हैं
इसलिए कि आप
अहंकार से
जीते हैं।
किसी ने जरा—सी
चोट पहुंचा दी,
मिटा
डालूंगा उसको!
किसी ने जरा—सी
गाली दे दी, तो आप आग से
भर जाते हैं।
वह आग आपके
अहंकार से आती
है।
जो
आदमी नियति को
मान लेता है, उसका
अहंकार तो
समाप्त हो
गया। वह कहता
है, मैं तो
हूं ही नहीं।
अब जो भी हो।
इस हालत में जो
भी होगा, उसका
जिम्मा
परमात्मा का
है, आपका
जिम्मा नहीं
है। और यह
दुनिया, हमें
डर लगता है कि
कहीं बिगड़ न
जाए। जैसे कि
दुनिया बहुत
अच्छी हालत
में है और
बिगड़ने का और
कोई उपाय भी
है!
लोग
मेरे पास
निरंतर आते
हैं, वे
इसी फिक्र में
रहते हैं कि
दुनिया बिगड़
जाएगी! जैसे
कि अभी कुछ
बचा है बिगड़ने
को! क्या बचा।
है बिगड़ने को?
क्या डर है
अब खोने के
लिए? हमारी
हालत ऐसी है
कि जैसे नंगा
नहा रहा है और सोच
रहा है कि
कपड़े कहां
सुखाएंगे? कपड़े
भी तो हों! तो
वह चिंता में
ही पड़ा है। वे
नहा भी नहीं
रहे हैं इसी
डर से कि कपड़े
कहां सुखाएंगे?
दुनिया
इससे बुरी
हालत में और
क्या हो सकती
है, जिस
हालत में है!
और इतनी बुरी
हालत में किस
कारण से है? इसलिए नहीं
कि हमने नियति
को मान लिया
है, इसलिए
इतनी बुरी
हालत में है।
इसीलिए कि हम
सब कोशिश में
लगे हैं इसे
और अच्छा
बनाने की। हमने
इसे स्वीकार
नहीं किया है।
हम सब कोशिश
में लगे हैं
इसे बनाने की।
हम सब इसे
अच्छा करने की
कोशिश में लगे
हैं, अपने—
अपने ढंग से, अपने—अपने
इरादे से।
अपनी— अपनी
छोटी—छोटी
दुनिया सबने
बांट रखी है, उसको अच्छा
कर रहे हैं।
एक चोर
भी अगर चोरी
कर रहा है, तो किस
लिए? कि
बच्चों के लिए
शिक्षा दे सके;
कि उसकी
पत्नी के पास
भी एक हीरे का
हार हो जाए; कि उसके पास
भी एक छोटा
मकान हो, अपनी
बगिया हो, कि
अपनी एक गाड़ी
हो। वह भी
अपने कोने में
अपनी दुनिया
को अच्छा
बनाने में, हीरे से
जड़ने में, बगीचे
से बसाने में
लगा हुआ है।
जो भी
हम इस दुनिया
में कर रहे
हैं, उस
सबमें हम कुछ
अपनी नजर से अच्छा
करने की कोशिश
में लगे हैं।
अच्छा करने के
लिए हम सोचते
हैं, थोड़ा
बुरा भी करना
पड़े, तो
हर्ज क्या है,
कर लो! हम
सोचते हैं, इतना अच्छा
करेंगे, इसमें
थोड़ी—सी बुराई
भी हुई, तो
क्षम्य है।
नियति
का अर्थ है कि
हम दुनिया को
बनाने की चिंता
में नहीं लगे
हैं। दुनिया
जैसी है, उसको उसके
हाल पर छोड्कर,
हम जहां हैं,
वहां
चुपचाप जी रहे
हैं। हम
दुनिया को छू
भी नहीं रहे
हैं कि इसको
अच्छा
बनाएंगे। ऐसी
अगर संभावना
बढ़ जाए जगत
में, तो
दुनिया इससे
लाख गुना
बेहतर होगी।
दुनिया
को सुधारने
वाले लोगों ने
जितना उपद्रव
खड़ा किया है, उतना
किसी ने भी
खड़ा नहीं
किया। वे
मिस्वीफ मेकर्स
हैं। उनकी
बातों से ऐसा
लगता है कि
सारी दुनिया
अच्छी करने
में वे लगे
हैं, लेकिन
वे चीजों को
विकृत करते
चले जाते हैं।
क्यों? क्योंकि
वे परमात्मा
के हाथ से, नियति
के हाथ से, यंत्र
अपने हाथ में
ले लेते हैं, कर्ता स्वयं
हो जाते हैं।
यह
हमें बहुत
उलटा लगेगा, क्योंकि
हमारे सोचने
का सारा ढांचा
इस पर निर्भर
है कि हम कुछ
करें, कुछ
करके दिखाएं।
बाप अपने।
बेटे को समझा
रहा है?
कुछ करके
दिखाओ, दुनिया
में आए हो तो।
इतना
ही काफी होगा
कि दुनिया को
तुम्हारे होने
का पता ही न चले।
इससे बड़ी और
कोई बात तुम
नहीं कर सकते
हो। तुम ऐसे
रह जाओ कि पता
ही न चले कि
तुम थे। तुम्हारे
जाने पर कहीं
कोई शोर—शराबा
न हो, कहीं
कोई पत्ता भी
न हिले। तो
तुम, परमात्मा
जैसा चाहता है,
उस ढंग से
जीए।
लेकिन
कुछ करके
दिखाओ, उसका मतलब
है, अहंकार
को कुछ प्रकट
करके दिखाओ।
यह जो हमारे
सोचने का ढंग
है, कर्मवादी,
वह नियति के
बिलकुल
प्रतिकूल है।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है
कि जो नियति
को स्वीकार कर
लेगा, वह
कुछ करेगा ही
नहीं। इसका यह
मतलब नहीं है
कि कुछ करेगा
ही नहीं।
हमारे
तर्क बडे अजीब
हैं। एक मित्र
कहता है कि वह कुछ
करेगा ही नहीं, और एक
मित्र कहता है,
वह हत्या
करेगा, चोरी
करेगा। या तो
करेगा तो बुरा
करेगा, नियति
को करने वाला,
और या फिर
कुछ करेगा ही
नहीं। ये दो
हमारी धारणाएं
हैं।
नहीं, नियति को
स्वीकार करने
वाला कर्ता
नहीं रहेगा।
परमात्मा जो
करवा रहा है, करता रहेगा।
अपनी तरफ से
कुछ करना नहीं
जोड़ेगा।
बहेगा, तैरेगा
नहीं। उसकी
धारा में बहता
चला जाएगा। और
बुरा! बुरा तो
हम करते ही तब
हैं, जब
अहंकार हममें
गहन होता है।
सब बुराई की
जड में मैं
है। जिसके पास
मैं नहीं है, उससे कुछ
बुरा नहीं
होने वाला है।
और अगर बुरा
हमें दिखाई भी
पड़े, तो
परमात्मा की
कोई मर्जी
होगी, उस
बुरे से कुछ
भला होता
होगा। अब हम
सूत्र को लें।
इस
प्रकार
अर्जुन के
पूछने पर कृष्ण
बोले, हे
अर्जुन! मैं
लोकों का नाश
करने वाला बढ़ा
हुआ महाकाल
हूं। इस समय
इन लोकों को
नष्ट करने के
लिए प्रवृत्त
हुआ हूं।
इसलिए जो प्रतिपक्षियों
की सेना में
स्थित हुए
योद्धा लोग हैं,
वे सब तेरे
बिना भी नहीं
रहेंगे। इससे
तू खड़ा हो और
यश को प्राप्त
कर तथा
शत्रुओं को
जीत, धनधान्य
से संपन्न हो।
ये सब शूरवीर
पहले से ही
मेरे द्वारा
मारे हुए हैं।
हे
सव्यसाचिन्।
तू तो केवल
निमित्त
मात्र हो जा। तथा
इन
द्रोणाचार्य
और भीष्म
पितामह, जयद्रथ और
कर्ण और भी बहुत—से
मेरे द्वारा
मारे हुए शूरवीर
योद्धाओं को
तू मार और भय
मत कर, निस्संदेह
तू युद्ध में
वैरियों को
जीतेगा, इसलिए
युद्ध कर।
यह
नियति की
धारणा की पूरी
व्याख्या इस
सूत्र में है।
हे
अर्जुन! इस
क्षण तू जो
मेरा भयंकर
रूप देख रहा
है, विकराल,
इस क्षण तू
जो देख रहा
मेरे मुंह से
मृत्यु, इस
क्षण तू जो
देख रहा है अग्नि
की लपटें मेरे
मुंह से
निकलती हुई, योद्धाओं को
दौड़ता हुआ
मृत्यु में, मेरे मुंह
में, उसका
कारण है। मैं
लोकों का नाश
करने वाला बढ़ा
हुआ महाकाल
हूं। इस क्षण
मैं एक महानाश
के लिए
उपस्थित हुआ
हूं। इस क्षण
एक विराट
विनाश होने को
है। और उस विराट
विनाश के लिए
मेरा मुंह
मृत्यु बन गया
है। मैं इस
समय महाकाल
हूं। यह मेरा
एक पहलू है विध्वंस
का। यह मेरा
एक रूप है।
एक रूप
है मेरे सृजन
का, एक
रूप है मेरे
विध्वंस का।
अभी मैं
विध्वंस के
लिए उपस्थित
हूं। यह तेरे
सामने जो
युद्ध के लिए
तत्पर शूरवीर
खड़े हैं, मैं
इन्हें लेने
आया हूं। ये
मेरी तरफ दौड़
रहे हैं, ऐसा
ही नहीं। मैं
इन्हें लेने
आया हूं। ये
पतंगों की तरह
दौड़ते दीये की
तरफ जो योद्धा
हैं, ये
अपने आप दौड़
रहे हैं, ऐसा
नहीं। मैं
इन्हें
निमंत्रण
दिया हूं। ये
थोड़ी ही देर
में मेरे मुंह
में समा
जाएंगे। तूने भविष्य
में झांककर
देख लिया है।
मेरे मुंह में
तू अभी जो देख
रहा है, वह
थोड़ी देर बाद
हो जाने वाली
घटना है।
इस
संबंध में
थोड़ी—सी समय
की बात समझ
लें।
भविष्य
वही है, जो हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
नहीं दिखाई
पड़ता, इसलिए
हम सोचते हैं,
नहीं है।
क्योंकि जो
हमें दिखाई
पड़ता है, सोचते
हैं, है।
जो नहीं दिखाई
पड़ता है, सोचते
हैं, नहीं
है। भविष्य
हमें दिखाई
नहीं पडता, इसलिए सोचते
हैं, नहीं
है।
लेकिन
जो नहीं है, वह हो
कैसे जाएगा? जो नहीं है, वह आ कैसे
जाएगा? शून्य
से तो कुछ आता
नहीं। जो किसी
गहरे अर्थ में
आ ही न गया हो, वह आएगा भी
कैसे?
एक
बहुत बड़ा
वैज्ञानिक
डेलाबार
प्रयोगशाला में, आक्सफोर्ड
में, फूलों
के चित्र ले
रहा था। और एक
दिन बहुत चकित
हुआ। उसने एक
बहुत ही
संवेदनशील नई
खोजी गई फिल्म
पर एक गुलाब
की कली का
चित्र लिया।
लेकिन वह चकित
हो गया। कली
तो थी बाहर और
चित्र आया फूल
का। तो घबड़ा
गया कि यह हुआ
कैसे! पर उसने
प्रतीक्षा की।
और हैरानी तो
तब उसकी बढ़ गई
कि जब वह कली
खिलकर फूल बनी,
तो वह ठीक
वही फूल थी, जिसका चित्र
आ गया था।
डेलाबार
प्रयोगशाला एक
अनूठी
प्रयोगशाला
है दुनिया
में। और वहां वे
प्रयोग करते
हैं इस बात के
कि अगर फूल
थोड़ी देर बाद
खिलने वाला है, तो किसी
गहरे सूक्ष्म
तल पर अभी भी
पंखुड़ियां खिल
गई होंगी। तब
तक, जब यह
घटना घटी थी, आज से कोई दस
साल पहले, तब
तक
वैज्ञानिकों
के पास कोई
व्याख्या नहीं
थी कि यह फूल
का फोटो कैसे
आया? जो
फूल अभी है
नहीं, थोड़ी
देर बाद होगा;
अभी तो कली
है, तो फूल
का चित्र आने
का अर्थ क्या
हुआ?
लेकिन
फिर रूस में
एक दूसरे
विचारक और
वैज्ञानिक ने, जो कि
फोटोग्राफी
पर काम कर रहा
है गहन पिछले तीस
वर्षों से, उसने राज
खोजा निकाला।
उसने हजारों
चित्र लिए हैं
भविष्य के, थोड़ी देर
बाद के। और
उसने जो आधार
खोज निकाला है,
वह यह है कि
जब फूल की कली
खिलती है, तो
खिलने के पहले—
अभी फूल तो
बंद है— खिलने
के पहले फूल
के आस—पास का
जो प्रकाश—आभा
है, प्रकाश—वर्तुल
है, फूल की
पत्तियों से
जो किरणें
निकल रही हैं,
वे खिल जाती
हैं पहले। वे
रास्ता बनाती
हैं पंखुड़ियों
के खिलने का; वे पहले खिल
जाती हैं।
प्रकाश की
सूक्ष्म किरणें
पहले खिल जाती
हैं, ताकि
रास्ता बन
जाए। फिर
उन्हीं के
आधार पर, उन्हीं
प्रकाश की
किरणों के
आधार पर फूल
की पंखुड़ियां
खिलती हैं।
तो वह
जो चित्र आया
था धुंधला, वह उन
प्रकाश की
पत्तियों का
था, जो
असली हमारी आंख
में दिखाई
पड़ने वाली
पत्तियों के
पहली खिलती हैं।
इस
रूसी वैज्ञानिक
का कहना है कि
हम बहुत शीघ्र
आदमी की
मृत्यु का
चित्र ले
सकेंगे।
क्योंकि मरने
के पहले प्रकाश
के जगत में
उसकी मृत्यु
घट जाती है।
हम तो बहुत
दिन से मानते
हैं कि छह
महीने पहले, मरने के
छह महीने पहले
आदमी की जो
आभा है, उसका
जो ऑरा है, उसका
जो
प्रकाशमंडल
है, वह धूमिल
हो जाता है।
और
प्रकाशमंडल
की किरणें जो
बाहर जा रही
थीं, वे
लौटकर वापस
अपने में
गिरने लगती
हैं, जैसे
पंखुड़ी बंद हो
जाती है।
इस
रूसी
वैज्ञानिक का
कहना है कि अब
हम चित्र ले
सकते हैं। एक
और अनूठी घटना
उसको खुद घटी।
वह प्रयोग कर
रहा था, कुछ फूलों
के चित्र ले
रहा था। वह
चकित हुआ कि
हाथ में फूल
लिए हुए उसने
एक चित्र लिया,
तो उसके हाथ
का जो चित्र
आया, वह
बहुत अजीब था।
ऐसा कभी नहीं
आया था। हाथ
का उसका चित्र
कई बार आया था
फूल के साथ।
लेकिन इस बार
इस हाथ की
हालत बड़ी अजीब
थी, जैसे
हाथ
अस्तव्यस्त
था। और हाथ
में जो किरणें
दिखाई पड़ रही
थीं, वे एक—दूसरे
से लड़ रही
थीं। लेकिन
हाथ ठीक वैसा
ही था। कोई
तकलीफ न थी।
कोई अड़चन न
थी। कोई
बीमारी न थी।
तीन
महीने बाद
बीमार पड़ा वह
और उसके हाथ
में फोड़े—फुसी
आए। और उसके
हाथ की चमड़ी
पर रोग फैल
गया। तब उसने
जो चित्र लिया
हाथ का, तब उसे पता
चला कि वह ठीक
जो तीन
महीने
पहले झलक मिली
थी, वही
झलक गहरी हो
गई है। फिर
उसने स्वस्थ
हाथों के
चित्र लिए।
उनमें किरणों
की झलक अलग है;
हारमोनियस
है। सब किरणें
लयबद्ध हैं।
बीमार— लय टूट
जाती है।
उसका
कहना है कि
अगर हाथ में
कोई बीमारी आ
रही हो, तो तीन महीने
पहले हाथ की
किरणों की लय
टूट जाती है।
उसका कहना यह
भी है कि बहुत
शीघ्र हम
अस्पतालों
में इसकी
व्यवस्था कर
सकेंगे कि
आदमी बीमार
होने के पहले
सूचित किया जा
सके कि तुम
फलां बीमारी
से इतने महीने
बाद परेशान हो
जाओगे। अभी
इलाज कर लो, ताकि वह
बीमारी न आ
सके।
भविष्य
का अर्थ है कि
हमें दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। ऐसा समझें
कि मैं एक
बहुत लंबे
वृक्ष के नीचे
बैठा हूं आप
वृक्ष के ऊपर
बैठे हैं। एक
बैलगाड़ी
रास्ते से आती
है, मुझे
दिखाई नहीं पड़
रही है।
रास्ता लंबा
है, मुझे
दिखाई नहीं पड़
रही। मेरे लिए
बैलगाड़ी अभी
नहीं है; भविष्य
में है। आप
झाडू के ऊपर
बैठे हैं, आपको
बैलगाड़ी
दिखाई पड़ती
है। आप कहते
हैं, एक
बैलगाड़ी
रास्ते पर आ
रही है। मैं
कहता हूं झूठ।
बैलगाड़ी
रास्ते पर
नहीं है। आप
कहते हैं, थोड़ी
देर में दिखाई
पड़ेगी।
तुम्हारे लिए
अभी भविष्य
में है, मेरे
लिए वर्तमान
में है, क्योंकि
मुझे दूर तक
दिखाई पड़ रहा
है।
फिर
बैलगाड़ी आती
है और मैं
कहता हूं आपकी
भविष्यवाणी
सच थी। कोई
भविष्यवाणी न
थी, सिर्फ
दूर तक दिखाई
पड़ रहा था।
फिर बैलगाड़ी
चलती हुई आगे
निकल जाती है।
थोड़ी देर बाद
मुझे दिखाई
नहीं पड़ती।
मैं कहता हूं
बैलगाड़ी फिर
खो गई। आप
वृक्ष के ऊपर
से कहते हैं, अभी भी नहीं
खोई बैलगाड़ी।
अभी भी रास्ते
पर है, क्योंकि
मुझे दिखाई पड़
रही है।
जैसे
जमीन पर बैठकर
अलग दिखाई
पड़ता है, वृक्ष पर
बैठकर ज्यादा
दिखाई पड़ता
है। ठीक चेतना
की भी
अवस्थाएं
हैं। जहां हम
खड़े हैं..।
जैसे
मैंने चार
अवस्थाएं
कहीं आपसे।
पहली, जहां
मैं की भीड़
है। वहां से
हमें कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता। जब तक
ठीक हमारी आंख
के सामने न आ
जाए, हमें
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता।
फिर एक मैं रह
जाए; हमारी
दृष्टि बढ़
जाती है। हम
ऊंचे तल पर आ
गए; भीड़ से
ऊपर उठ गए। एक
बड़े वृक्ष पर
बैठे हुए हैं।
हमें दूर तक
दिखाई पड़ने
लगता है। कोई
चीज आती है, उसके पहले
दिखाई पड़ने
लगती है। फिर
तीसरा और ऊंचा
तल है, जहां
कि मुझे पता
चल गया कि मैं
नहीं हूं। यह
बड़ी ऊंचाई आ
गई। इस ऊंचाई
से वे चीजें
दिखाई पड़ने
लगती है,
जो बहुत दूर
है; कभी
होंगी। फिर एक
और ऊंचाई है, जहां कि मैं
नहीं हूं यह भी
नहीं बचा। यह
आखिरी ऊंचाई
है। इससे ऊपर
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
यहां से सब
दिखाई पड़ने लगता
है। ऐसी
अवस्था के
व्यक्ति को
हमने सर्वज्ञ कहा
है। इसके लिए
फिर कुछ भी
भविष्य नहीं
रह जाता है।
इसके लिए सभी
कुछ वर्तमान
हो जाता है।
यह जो कृष्ण
में अर्जुन को
दिखाई पड़ा
योद्धाओं का
समा जाना और
वह घबड़ाकर
पूछने लगा।
कृष्ण उससे कह
रहे हैं कि तू
भयभीत न हो अर्जुन।
मैं इन युद्ध
के लिए इकट्ठे
हुए वीरों का
अंत करने के
लिए आया हूं।
मैं इस समय
महाकाल हूं।
उसकी ही झलक
तूने देख ली, जो थोड़ी
देर बाद होने
वाला है। उसका
प्रि—व्यू उसकी
पूर्व—झलक
तुझे दिखाई पड़
गई है।
इससे
तू खड़ा हो, यश को
प्राप्त कर, शत्रुओं को
जीत। ये शूरवीर
पहले से ही
मेरे द्वारा
मारे जा चुके
हैं। तू यह
चिंता भी मत
कर कि तू
इन्हें
मारेगा। तू यह
ध्यान भी मत
रख कि तू इनके
मारने का कारण
है। तू कारण
नहीं है, तू
निमित्त है।
निमित्त
और कारण में
थोड़ा फर्क
हमें समझ लेना
चाहिए। कारण
का तो अर्थ
होता है, जिसके बिना
घटना न घट
सकेगी।
निमित्त का
अर्थ होता है,
जिसके बिना
भी घटना घट
सकेगी।
आप
पानी गर्म
करते हैं।
गर्म करना, आग कारण
है। अगर आग न
हो, तो फिर
पानी गर्म
नहीं हो
सकेगा। कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन जिस
बर्तन में
रखकर आप गर्म
कर रहे हैं, वह कारण
नहीं है, वह
निमित्त है।
इस बर्तन के न
होने पर कोई
दूसरा बर्तन
होगा, कोई
तीसरा' बर्तन
होगा। बर्तन न
होगा, तो
कोई और उपाय
भी हो सकता
है। जिस
चूल्हे पर आप
गर्म कर रहे
हैं, यह
चूल्हा न होगा,
तो कुछ और
होगा। कोई
सिगड़ी होगी।
कोई स्टोव होगा।
कोई बिजली का
यंत्र होगा।
कोई और उपाय
हो सकता है।
गर्मी तो कारण
है। लेकिन ये
सब निमित्त
हैं।
आप
गर्म कर रहे
हैं, यह
भी निमित्त
है। कोई और
गर्म कर सकता
है—कोई पुरुष,
कोई स्त्री,
कोई बच्चा,
कोई का, कोई
जवान। आप भी
नहीं होंगे, तो कोई गर्म
नहीं होगा
पानी, ऐसा
नहीं है। एक
बात, आग
चाहिए, वह
कारण है। बाकी
सब निमित्त
है। निमित्त
बदले जा सकते
हैं, कारण
नहीं बदला जा
सकता।
कृष्य
यह कह रहे हैं, कारण तो
मैं हूं तू
निमित्त है।
अगर तू नहीं मारेगा,
कोई और
मारेगा। इनकी
मृत्यु होने
वाली है। इनकी
मृत्यु आ चुकी
है। इनकी मृत्यु
एक अर्थ में
घटित हो चुकी
है। मैं
इन्हें मार ही
चुका हू?
अर्जुन अब तू
तो सिर्फ
मुर्दो को
मारने का काम
में लगाया जा
रहा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
मुझे एक घटना
याद आती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
गांव में एक
योद्धा आया।
और वह योद्धा
काफी हाउस में
बैठकर अपनी
बहादुरी की
बड़ी चर्चा
करने लगा। और
उसने कहा, आज युद्ध
बड़ा घमासान
था। और मैंने
न मालूम कितने
लोगों की
गर्दनें साफ
कर दीं। गिनती
भी नहीं है।
कितने लोगों
को मैंने
काटकर गिरा
दिया, जैसे
कोई घास काट
रहा हो।
नसरुद्दीन
भी बैठा था, उससे
नहीं रहा गया।
उसने कहा, यह
कुछ भी नहीं।
एक दफा मेरे
जीवन में भी
ऐसा मौका आया
था। युद्ध में
मैं भी गया
था। और गिनती
तो नहीं की, लेकिन फिर
भी अंदाज से
कहता हूं कम
से कम पचास आदमियों
की टांगें
मैंने ऐसे काट
डालीं, जैसे
घास काटा हो।
उस
योद्धा ने कहा, टांगें!
हमने कभी सुना
नहीं कि
टांगें भी
युद्ध में
काटी जाती
हैं! सिर
काटने चाहिए
थे। नसरुद्दीन
ने कहा, सिर
तो कोई पहले
ही काट चुका
था। वह मौका
मुझे नहीं
मिला। मैं तो
गया तो देखा
कि सिर तो कटे
पड़े थे, मैंने
कहा, क्यों
चूकना। मैंने
टांगें काट
डालीं। कोई गिनती
नहीं है।
यह
कृष्ण अर्जुन
से यही कह रहे
हैं कि तू
बहुत परेशान
मत हो, जिनको
तू मारने की
सोच रहा है, उनको मैं
पहले ही काट
चुका हूं।
टांगें ही काटने
का तेरे ऊपर
जिम्मा है, सिर कट चुके
हैं। और ये
टांगें काटने
के कारण, अकारण
ही तू यश को
प्राप्त हो
जाएगा, धन
को, राज्य
को। वह तेरी
मुफ्त
उपलब्धि होगी,
सिर्फ
निमित्त होने
के कारण।
जिन्हें तू
सोचता है कि
इन्हें मारने
से हिंसा
लगेगी, वे
मर चुके हैं, वे मृत हैं।
तू सिर्फ
मुर्दों को
आखिरी धक्का दे
रहा है। जैसे
ऊंट पर कोई
आखिरी तिनका
रखे और ऊंट
बैठ जाए। बस, तू आखिरी
तिनका रख रहा
है। और ऊंट
बैठने के ही
करीब है। तू
नहीं सहारा
देगा, तो
कोई और यह
तिनका रख
देगा। यह पैर
काटने का काम
दूसरा भी कर
सकता है, क्योंकि
गर्दन काटने
का असली काम
हो चुका है। नियति
उन्हें काट
चुकी है।
इसका
क्या अर्थ है? इसका
अर्थ है कि
दुर्योधन
जहां खड़ा है, उसके साथी
जहां खड़े हैं,
उसके
मित्रों की
फौज जहां खड़ी
है, वे जो
कुछ भी कर
चुके हैं, घड़ा
भर चुका है, फूटने के
करीब है। तू
मुफ्त ही यश
का भागी हो जाएगा।
तू यह मौका मत
छोड़। और
ध्यान रखना कि
तू निमित्त ही
था, इसलिए
किसी अहंकार
को बनाने की
चेष्टा मत करना,
कि मैं जीत
गया, कि
मैंने मार
डाला।
इसमें
दोहरी बातें
हैं। एक तो
कृष्ण यह कह
रहे हैं, तू नियति को
स्वीकार कर
ले। जो हो रहा
है, उसे हो
जाने दे। और
दूसरा, उससे
भी
महत्वपूर्ण
जो बात है, वह
यह कह रहे हैं
कि अगर तू जीत
जाएगा..। और
जीत जाएगा, क्योंकि मैं
तुझसे कहता
हूं जीत
निश्चित है।
जीत हो ही गई
है। तू जैसा
है, उसके
कारण तू जीत
गया है। तू जो
करेगा, उसके
कारण नहीं। तू
जैसा है, उसके
कारण तू जीत
गया है।
राम और
रावण को युद्ध
पर खड़े देखकर
कहा जा सकता
है कि राम जीत
जाएंगे।
जिसको जीवन की
गहराइयों का
पता है, जिसे सूत्र
पढ़ने आते हैं,
वह कह सकता
है कि राम जीत
जाएंगे। राम
जीत ही गए
हैं। क्योंकि
रावण जो भी कर
रहा है, वे
हारने के ही
उपाय हैं।
बुराई हारने
का उपाय है।
राम कुछ भी
बुरा नहीं कर
रहे हैं। वे
जीतते जा रहे
हैं। वह जो
अच्छा करना है,
वह जीतने का
उपाय है। तो
हारने के पहले
भी कहा जा
सकता है कि
रावण हार
जाएगा।
हारने
के पहले कहा
जा सकता है कि
दुर्योधन और उसके
साथी हार
जाएंगे।
उन्होंने जो
भी किया है, वह पाप
पूर्ण है।
उन्होंने जो
भी किया है, वह बुरा है।
सबसे बड़ी
बुराई
उन्होंने
क्या की है? सबसे बड़ी
बुराई
उन्होंने यह
की है कि जगत
की सत्ता से
अपने को तोडकर
वे निरे अहंकारी
हो गए हैं।
उन्होंने
प्रवाह से
अपने को तोड़
लिया है।
ऐसा
समझें। हमें
दिखाई नहीं
पड़ता, इसलिए
समझना
मुश्किल होता
है। एक नदी
में हम दो
लकडी के छोटे—छोटे
टुकड़े डाल
दें। और एक
टुकड़ा चेष्टा
करने लगे नदी
के विपरीत
धारा में बहने
की। करेगा
नहीं, क्योंकि
लकड़ी के टुकड़े
इतने नासमझ
नहीं होते, जितने आदमी
होते हैं! मगर
मान लें कि
आदमियों जैसे
लकड़ी के टुकड़े
हैं। आदमियों
की बीमारी उनको
लग गई।
आदमियों के
साथ रहने से
इनफेक्यान हो
गया। और एक
टुकड़ा नदी की
तरफ ऊपर बहने
लगा।
क्योंकि
आदमी को हमेशा
धारा के
विपरीत बहने
में मजा आता है।
धारा में बहने
में क्या रखा
है? कोई
भी बह जाता
है। कुछ उलटा
करो। चौगड्डे
पर आप
शीर्षासन
लगाकर खड़े हो
जाएं, भीड़
लग जाएगी। पैर
पर खड़े रहें, कोई देखने
नहीं आएगा!
क्या, मामला
क्या है? सिर
के बल जो आदमी
खड़ा है, उलटा
कुछ कर रहा
है। यह
आकर्षित करता
है।
आदमी
उलटा करने में
उत्सुक है।
क्यों? क्योंकि
उलटे से
अहंकार सिद्ध
होता है। सीधे
से कोई अहंकार
सिद्ध होता
नहीं। अगर आप
किसी को
रास्ते में से
चलते में से
गिर रहा हो
कोई, सम्हाल
लें; अखबार
में कोई खबर
नहीं छपेगी।
रास्ते में
कोई चल रहा हो,
धक्का देकर
गिरा दें, दूसरे
दिन खबर छप
जाएगी। कुछ
अच्छा करिए, दुनिया में
किसी को पता
नहीं चलेगा।
कुछ बुरा करिए,
फौरन पता चल
जाएगा।
अखबार
उठाकर देखते
हैं आप! पहली
लकीर से लेकर आखिरी
लकीर तक, सारी लकीर
उन लोगों के
बाबत है, जो
कुछ उलटा कर
रहे हैं। कहीं
कोई दंगा—फसाद
हो रहा हो, कहीं
कोई हड़ताल हो
रही हो, कहीं
कोई चोरी, कहीं
डाका, कहीं
कोई ट्रेन
उलटाई हो, कहीं
कुछ उपद्रव
हुआ हो, तो
अखबार में खबर
बनती है।
आदमी
उलटे में
उत्सुक है, तो हो
सकता है, लकड़ी
का टुकड़ा उलटा
बहे। जो टुकड़ा
उलटा बहेगा, हम पहले से
ही कह सकते
हैं किनारे
खड़े हुए कि यह
हारेगा।
इसमें कोई बड़ी
बुद्धिमत्ता
की जरूरत नहीं
है। क्योंकि
धारा के
विपरीत लकड़ी
का टुकड़ा बहने
की कोशिश कर
रहा है। यह
हारेगा, अर्जुन!
कृष्ण कह सकते
हैं कि यह
हारेगा।
और जो
नदी की धारा
के साथ बह रहा
है, हम
कह सकते हैं, इसको हराने
का कोई उपाय
नहीं है। इसको
हराइएगा कैसे?
इसने कभी
जीतने की कोई
कोशिश ही नहीं
की। इसको
हराइएगा कैसे?
यह तो नदी
की धारा में
पहले से ही बह
रहा है, स्वीकार
करके। यह तो
कहता है, धारा
ही मेरा जीवन
है। जहां ले
जाए, जाऊंगा।
कहीं और मुझे
जाना नहीं है।
राम नदी
की धारा में
बहते हुए हैं।
इसलिए पहले से
ही कहा जा
सकता है, वे जीतेंगे।
रावण हारेगा,
वह धारा के
विपरीत बह रहा
है।
यह
कृष्ण अर्जुन
से जो कह रहे
हैं, यह
किसी पक्षपात
के कारण नहीं
कि मैं तेरे
पक्ष में हूं
तेरा मित्र
हूं इसलिए तू
जीतेगा। इसका
गहन कारण यह
है कि कृष्ण
देख सकते हैं
कि अर्जुन जिस
पक्ष में खड़ा
है, वह
धारा के
अनुकूल बहता
रहा है। और
अर्जुन के विपरीत
जो लोग खड़े
हैं, वे
धारा के
प्रतिकूल
बहते रहे हैं।
उनकी हार निश्चित
है। वे
हारेंगे, पराजित
होंगे।
इसलिए
तू नाहक ही
अड़चन में पड़
रहा है। और
तेरी अड़चन
तुझे धारा के
विपरीत बहने
की संभावना
जुटाए दे रही
है। तू है
क्षत्रिय।
तेरी सहज धारा, तेरा
स्वधर्म यही
है कि तू लड़।
और लड़ने में
निमित्त
मात्र हो जा।
तू संन्यास की
बातें कर रहा
है, वे
उलटी बातें
हैं।
अर्जुन
अगर संन्यासी
हो जाए, तो प्रभावित
बहुत लोगों को
करेगा। प्रभावशाली
व्यक्ति था।
लेकिन हो नहीं
पाएगा संन्यासी।
और अगर
संन्यास लेकर
बैठ भी जाए
कहीं जंगल में
ध्यान वगैरह
करने, तो
ज्यादा देर
नहीं चलेगा
ध्यान वगैरह
उसका! एक हरिण
दिखाई पड़
जाएगा और उसके
हाथ धनुष—बाण
खोजने
लगेंगे। और एक
कौआ ऊपर से
बीट कर देगा, तो पत्थर उठाकर
उसका वह वहीं
फैसला कर
देगा। वह जो
उसका होना है,
जो स्वधर्म
है उसका, वह
योद्धा है।
उसमें कहीं भी
कोई व्यवस्था
नहीं है, जिससे
कि वह
संन्यासी हो
सके।
तो कृष्ण
उससे कह रहे
हैं कि तू नदी
में उलटे बहने
की कोशिश कर
रहा है। अगर
तू सोचता है
कि मैं ऐसा
करूं, वैसा
करूं; यह
ठीक नहीं है, वह ठीक है...। कृष्ण
उससे कह रहे
हैं, तू
सिर्फ बह जा, नियति के
हाथ में छोड़
दे। तू
निमित्त हो
जा। उनकी हार
निश्चित है।
और विपक्ष में
खड़े योद्धा
मेरे मुंह में
जा रहे हैं, मृत्यु में,
यह निश्चित
है। वे पहले
ही मारे जा
चुके हैं। ये
द्रोणाचार्य,
भीष्म
पितामह, ये
जयद्रथ और
कर्ण, जो
महाप्रतापी
हैं, महावीर
हैं, इनसे
भी तू भय मत
कर। क्योंकि
जिनके साथ ये
खड़े हैं, वे
गलत लोग हैं।
उनके साथ ये
पहले ही डूब
चुके।
भीष्म
पितामह भले
आदमी हैं।
लेकिन गलत
लोगों के साथ
खड़े हैं।
अक्सर भले
आदमी कमजोर
होते हैं। और
अक्सर भले
आदमी कई दफा
चुपचाप बुराई
को सह लेते
हैं और बुराई
के साथ खड़े हो
जाते हैं। ये
जो खड़े हैं
बुराई के साथ, ये कितने
ही भले हों, और इनके पास
कितनी ही
शक्ति हो, तेरी
शक्ति से ये
नहीं कटेंगे,
विराट की
शक्ति के
विपरीत होने
से ये कट गए
हैं।
इस
अर्थ को ठीक
से समझ लें।
तू
इन्हें नहीं
मार पाएगा।
अर्जुन और
कर्ण में सीधा
मुकाबला हो
सकता था। और
कुछ तय करना
मुश्किल है कि
कौन जीतेगा।
वे एक ही मां
के बेटे हैं।
और कर्ण
रत्तीभर भी कम
नहीं है। डर
तो यह है कि वह
ज्यादा भी
साबित हो सकता
है। लेकिन हारेगा।
कोई ताकत के
कारण ही नहीं, हारेगा
इसलिए कि
विराट की
शक्ति के
विपरीत खड़ा
है। जो विराट
चाहता है, उसके
विपरीत खड़ा
है। विराट के
विपरीत खड़ा
होना खतरनाक
है। फिर कभी
छोटा आदमी भी
हरा सकता है।
जापान
में जुजुत्सु, खे की कला
होती है।
उसमें छोटा
बच्चा भी
पहलवान को हरा
देता है।
स्त्री भी
पुरुष को हरा
देती है। अभी
तो पश्चिम में
चूंकि
स्त्रियों का आंदोलन
चलता है, लिब
मूवमेंट,
स्वतंत्रता
का, तो
सभी
स्त्रियां
जुजुत्सु सीख
रही हैं। क्योंकि
पुरुषों से
अगर टक्कर
लेनी पड़े, तो
क्या उपाय है?
क्योंकि
पुरुष शरीर से
तो ज्यादा
ताकतवर है। इसलिए
अमेरिका में
नगर—नगर में
जुजुत्सु के
स्कूल खुलते
जा रहे हैं। स्त्रियां
ट्रेनिंग ले
रही हैं। और
थोड़े सावधान
रहना, आज
नहीं कल यहां
भी लेंगी ही।
अगर
जुजुत्सु की
ट्रेनिंग ठीक
से ले ली हो, तो बड़े से
बड़ा ताकतवर
पुरुष साधारण
कमनीय स्त्री
से हार जाता
है। कला क्या
है? कला
यही है, जो कृष्ण
कह रहे हैं।
जुजुत्सु
की कला यह है
कि विराट के
साथ रहना। इस
आदमी की फिक्र
मत करना, विराट की
फिक्र करना।
इस आदमी से
सीधे मत लड़ना।
तुम तो विराट
के साथ सहयोग
करना। फिर यह
आदमी नहीं जीत
सकेगा। उसके
सहयोग का पूरे
का पूरा
प्रशिक्षण है,
पूरी साधना
है कि विराट
से कैसे सहयोग
करना।
तो
जुजुत्सु का
पहला नियम है
कि जुजुत्सु
का साधक जब
खड़ा होगा, तो वह यह
नहीं कहता कि
मैं लड़ रहा
हूं। वह अपने को
पहले समर्पित
कर देता है
विराट को, कि
अब मैं
परमात्मा को
समर्पित हूं।
अगर तेरी मर्जी
हो, तो जो
हो। फिर वह
लड़ता है। फिर
लड़ने में वह
हमला नहीं
करता। जुजुत्सु
का साधक हमला
नहीं करता, सिर्फ हमला
सहता है। वह
कहता है, तुम
मुझे मारो, मैं सहूंगा,
क्योंकि
परमात्मा
मेरे साथ है।
आप
जानकर हैरान
होंगे कि अगर
कोई व्यक्ति
बिलकुल शांत
सहने को राजी
हो और आप
घूंसा मार दें
उसको और वह
जरा भी विरोध
न करे, अचेतन
विरोध भी न
करे..,।
साधना यही है।
क्योंकि अगर
कोई घूंसा
आपको मारने
आता है, तो
अचेतन आप कड़े
हो जाते हैं।
आपने विरोध
शुरू कर दिया,
आपकी
हड्डियां कड़ी
हो जाती है।
जुजुत्सु की
कला कहती है
कि आपकी
हड्डियां अगर
कड़ी हो गईं और
उसने चोट मारी,
तो कड़े होने
की वजह से टूट
जाती हैं, उसकी
चोट से नहीं
टूटतीं। अगर
आप नर्म रहे
और आपने जरा
भी रेसिस्ट
नहीं किया, आप सहने को
राजी रहे, कि
तुम घूंसा
मारो, हम
तुम्हारे
घूंसे को पी
जाएंगे, क्योंकि
विराट हमारे
साथ खड़ा है—
उसका हाथ टूट
जाएगा; हाथ
में फ्रैक्चर
हो जाएगा।
और यह
वैज्ञानिक
है। इसको आप
ऐसा भी देख
सकते हैं कि
एक बैलगाड़ी
में आप बैठे
हैं और एक
शराबी बैठा
है। बैलगाड़ी
उलट जाए, आपको
फ्रैक्यर हो
जाएंगे, शराबी
को बिलकुल
नहीं होंगे।
शराबी रोज गिर
रहा है सड़क
पर। कम से कम
इतना तो सीखो
उससे! कि चोट
नहीं खाता।
रोज सुबह देखो,
फिर ताजे
हैं!
नहा—
धोकर फिर चले
जा रहे हैं! और
रोज गिर रहे
हैं, इनको
चोट क्यों
नहीं लगती?
शराबी
अपने को अलग
नहीं रखता। जब
शराब पी लेता
है, तो
बेहोश हो गया,
वह प्रकृति
का हिस्सा हो
गया। अब उसको
कोई होश नहीं
कि मैं हूं।
अब वह गिरता
है, तो कड़ा
नहीं हो पाता।
बैलगाड़ी उलट
रही है, आप
भी उलट रहे
हैं, वह भी
उलट रहा है
आपके साथ। आप
सम्हल गए, बचने
लगे। आपका
अहंकार आ गया
कि मैं बचूं।
और शराबी का
कोई अहंकार
नहीं आया, वे
लुढ़क गए। जैसे
ही बैलगाड़ी
लुढकी, उसी
के साथ लुढ़क
गए। उनका कोई
विरोध नहीं है,
कोई प्रतिरोध
नहीं है; को—आपरेशन
है, सहयोग
है। उनको चोट
नहीं लगेगी।
छोटे
बच्चे गिरते
हैं, उनको
चोट नहीं
लगती। जैसे—जैसे
बड़े होने लगते
हैं, चोट
लगने लगती है।
जिस दिन से
आपके बच्चे को
चोट लगने लगे,
समझना कि
अहंकार
निर्मित हो
गया। जब तक
उसको चोट नहीं
लग रही, तब
तक अहंकार
नहीं है। वह
गिरता है, तो
गिरने के साथ
होता है।
रोकता नहीं कि
अरे, मैं
गिर रहा हूं।
अभी कोई है
नहीं, जो
गिरने से रोके
अपने को। वह
गिर जाता है।
गिरकर वह उठ
जाता है। कहीं
कोई चोट घटती
नहीं।
यह जो कृष्ण
का कहना है कि
तू जीता ही
हुआ है, वह इसीलिए
कि तू उस पक्ष
में है, जो
बुराई के साथ
नहीं है। तू
विपरीत नहीं
बह रहा है, तू
साथ बह रहा
है। और ये
हारे ही हुए
हैं। ये विपरीत
बह रहे हैं।
यह नियति तय
हो गई है
अर्जुन, इसलिए
तू व्यर्थ
चिंतित न हो, निस्संदेह
तू जीतेगा; युद्ध कर।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट रुके, कीर्तन के
बाद जाएं।
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