नभ तुन तो देखा होगा, अनन्त सृष्टियों
का संघ हार।
है धीर-दृष्टा तुझे कभी तो आता होगा
इस पर प्यार।
तू कैसे इतना अडिग खड़ा,
थिरता का मंदिर सा बनकर।
मेरे दीपक की क्षणिक ज्योति,
कंप जाती है नित रह-रह कर।।
बुझने और मिटने से पहले,
अहसास चाहता विलीन लहर सा।
नहीं चाहता मैं रह जाऊं।
जब तक पूर्णता न पाऊँ।
क्या तू परितोषित कर देगा मुझको?
या तू भर देगा अपने से मुझको,
जो मिटा सकूँ मैं आपने अहं को
फैल सकूँ संपूर्ण जगत में
एक प्रीत प्यार की सरिता बन कर........
एक साध छलती, नहीं थमती।
सांस-सांस पर आकर कहती।
कैसे मैं तुझ सा हो जाऊँ
या तुझ में ही मैं खो जाऊँ।
जब आये संध्या सी भोर
क्यों न नाच उठे मन मौर,
पंख पसारे तार मंडल
पुकार रही नित मुझको भोर,
फैल-फैल कर नहीं फैलता
ये जग लगता मुझको ठोर।
पुछूगां में इक दिन उत आकर
मैं झूठा हूं, या तू चित चोर..........
कितना आशाएं छलती लुटती,
बहरे कानों में आकर कहती।
कि क्यो जीवन बनने से पहले
साथ-साथ ही मिटता जाता।
कौन कहेगा तुझको श्रेष्ठता
तू दुर नदी तट खड़ा देखता।
फिर भी जीवन अविरल है बहता
बे बूझा क्यों बना हुआ है
झांक रहा परदों के पीछे
तू हंसता है और रिझाता।
इक दिन मैं भी मिट कर तुझमे
पा लूं गा विस्तार प्यार सा......
स्वामी आनंद प्रसाद
‘मानस’
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