पांचवां प्रवचन—कलाओं की कला है भक्ति
दिनांक 15 जनवरी, 1976; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र :
तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ।।
पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः।।
कथादिष्विति वर्गः।।
आत्मरत्यविरोधेनेति शांडिल्यः।।
नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता
तद्धिस्मरणे परमव्याकुलतेति
यथा वज्रगोपिकानाम्।।
तद्धिहीनं जाराणामिव।।
नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम्।।
विराट का अनुभव--मुश्किल! पर अनुभव से भी ज्यादा मुश्किल है
अभिव्यक्ति। जान लेना बहुत मुश्किल--जान देना और भी ज्यादा मुश्किल! क्योंकि
व्यक्ति मिट सकता है...बूंद खो सकती है सागर में, और अनुभव कर ले सकती
है सागर का; लेकिन दूसरी बूंदों को कैसे कहें, जिन्होंने मिटना नहीं जाना, जो अभी अपनी पुरानी
सीमाओं में आबद्ध हैं...उनको कैसे कहें!
एक पक्षी उड़ सकता है खुले आकाश में अपने पिंजरे में बंद हैं, गहरे में उसकी अनुभूति होती है--लेकिन शब्दों में कैसे उसे कोई बांधे!
शब्द में बंधते ही आकाश आकाश नहीं रह जाता। शब्दर में बंधते ही विराट
नहीं रह जाता। इधर शब्द में बांधा कि उधर अनुभव झूठा हुआ।
इसलिए बहुत हैं जो जानकर चुप रह गये हैं। बहुत हैं जो जानकर गूंगे हो
गये हैं। गूंगे थे नहीं; जानने ने गूंगा बना दिया। बहुत थोड़े-से लोगों
नेहिम्मत की है--दूर की खबर तुम तक पहुंचाने की। वह हिम्मत दाद देने के योग्य हैं।
क्योंकि असंभव है चेष्टा। माध्यम इतने अलग हैं...।
समझें जैसे देखा सौंदर्य आंख से, और फिर किसी को बताना
हो और वह अंधा हो, तो क्या करियेगा, फिर
कोई और माध्यम चुनना पड़ेगा; आंख का माध्यम तो काम न देगा।
तुमने तो आंख से देखा था सौंदर्य सुबह का, या रात का तारों
से भरे आकाश का, अंधे को समझाना है, आंख
का माध्यम तो काम नहीं देगा, तो सितार पर गीत बजाओ! धुन
बजाओ! नाचो! पैरों में घूंघर बांधो! लेकिन माध्यम अलग हो गया: जो देखा था, वह सुनाना पड़ रहा है।
तो जो देखा था, वह कैसे सुनाया जा सकता है? जो
आंख ने जाना, वह कानर कैसे जानेगा? इससे
भी ज्यादा कठिन है बात सत्यस के अनुभव की। क्योंकि अनुभव होता है विर्विचार में और
अभिव्यक्ति देनी पड़ती है विचार में। विचार सब झूठा कर देते हैं।
फिर भी हिम्मतवर लोगों ने चेष्टा की है: करुणा के कारण, शायद किसी के मन में थोड़ी भनक पड़ जाए; न सही पूरी
बात, न सही पूरा आकाश, थोड़ी-सी मुक्ति
की सुगबुगाहट आ जाए, थोड़ी-सी पुलक पैदा हो जाए; न सही पूरा दृश्य स्पष्ट हो, प्यास ही जग जाए;
सत्य न बताया जा सके न सही, लेकिन सत्य की तरफ
जाने के लिए इशारा, इंगित किया जा सके--उतना भी क्या कम है!
हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।'
हजारों साल तक नर्गिस रोती है, कोई उसकी रोशनी को
देखने और दिखानेवाला नहीं। फिर कहीं कोई दीदावर पदा होता है, कहीं कोई एक आंखवाला पैदा होता है।
नर्गिस को तो शायद एक आंखवाला भी, उसकी रोशनी के लिए
बोध दिला देता होगा कि मत रो, तू सुंदर है; लेकिन सत्य के लिए तो और भी कठिनाई है। हजारों साल में कभी कोई दीदावर
वहां भी पैदा होता है। फिर वह जो कहता है, वह कोई गीत जैसा
नहीं है, हकलाने जैसा है; वह नाच जैसा
नहीं है, लंगड़ाने जैसा है। और नाच में और लंगड़े की गति में
जितना अंतर है, किसी के मधुर गीत में और किसी के हकलाने में
जितना अंतर है, उ?तना ही अंतर सत्य को
देखने में और सत्य को कहने में है।
बहुत तो चुप रह गये। उन्होंने यह झंझट न ली। लोगों ने पूछा भी ऐसे चुप
रह जानेवालों से। वे तो द्वोंग कर गये के दीवाने हैं। वे तो पागल गन गये। उन्होंने
तो अपने चारों तरफ एक पागलपन का अभिनय कर लिया। धीरे-धीरे लोग समझ गये के पागल हो
गये हैं, छो,डो भी!
"चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानगी अपनी
वर्ना हम जमाने-भर को समझाने कहां जाते।'
बहुत हैं जिन्होंने सत्य को जानकर अपने को पागल घोषित कर दिया है।
सूफी उनको मस्त कहतेहैं। दुनिया उनको पागल समझ लेती है। झंझट मिटी! अब कोई पूछने
भी नहीं आता कि क्या जाना। पागल से कौन पूछता है!
लेकिन कुछ थोड़े-से लोग इतना आसान रास्ता नहीं लेते। वे लाख तरह की
चेष्टा करते हैं कि तुम्हें किसी तरह जतला दें। तुम्हारा हाथ पकड़कर चलाने की कोशिश
करते हैं। तुम्हारे भीतर तुम्हारे प्रेम की आग को जलाने की कोशिश करते हैं। ईंधन
बन जाते हैं तुम्हारे हृदय में कि लपटें लगें। हजार तरह के झूठ भी बोलेते हैं, सिर्फ इसीलिए कि सत्य की तरफ थोड़ा इशारा हो जाए। तो, यह पाप करने जैसा है।
लाओत्सु ने कहा है: "सत्य बोला नहीं कि झूठ हुआ नहीं। जो भी बोला
जाएगा वह झूठ हो जाएगा।'
इसका यह अर्थ हुआ कि बुद्धपुरुष झूठ बोलते रहे, बोले तो झूठ ही बोले; क्योंकि बोलने में सच तो आता
नहीं, बोलने में ही झूठ हो जाता है।
जैसे तुमने कभी देखा, लकड़ी सीधी, पानी में डाली, तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। झूठ हो
गया। बाहर खींची, सीधी-की-सीधी है। पानी में डालो, फिर तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। क्या हो जाता है? पानी
का माध्यम हवा के माध्यम से भिन्न है। तो हवा के माध्यम में लकेड़ी का जो रुप है,
रंग है, वह पानी में नहीं रह जाता। जानते हो
तुम भलीभांति कि लकड़ी सीधी है; तुमने ही डाली है, लेकिन तुम्हीं को तिरछी दिखायी पड़ने लगती है।
उनकी तो बात ही छोड़
दो--सुननेवालों की--जब सत्य को जाननेवाला सत्य को बोलने की कोशिश करता है, उसको खुद ही तिरछा दिखायी पड़ने लगता है। भाषा का माध्यम, अभिव्यक्ति का माध्यम...!
नारद ने इन सूत्रों में, भक्ति की कितने-कितने
ढंगों से व्याख्या की गयी है, उनके थोड़े-से उदाहरण दिये हैं।
अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण बताते हैं।'
भक्ति तो एक है, मत नाना हैं। क्योंकि जिसको जैसा
सूझा, वैसी उसने अभिव्यक्ति दी है। जिसको जैसी समझ आयी,
जिसका जैसा ढंग था, उसने वैसे रंग भरे। ये
लक्षण भक्ति के नहीं हैं; अगर गौर से समझो तो ये लक्षण,
जिस भक्त ने भक्ति का गीत गाया, उसके हैं:। ये
देखने के ढंग के संबंध में खबर देते हैं; जो देखा गया उस
संबंध में कुछ भी खबर नहीं देते।
बहुत मत हैं। बहुत मत होंगे ही, क्योंकि भक्ति अनंत
है। उसके बहुत किनारे हैं। और कहीं से भी घाट बनाकर तुम अपनी नौका को छोड़ दे सकते
हो सागर में। फिर जब तुम सागर की गहराइयों में पहुंचोगे, मध्य
में पहुंचोगे, उस पार पहुंचोगे, तो
स्वभावतः: तुम उसी घाट की बात करोगे जिससे तुमने नाव छोड़ी थी। और तुम कहोगे कि
जिसको भी नाव छोड़नी हो, वही घाट है। तुम्हें और घाटों का पता
भी नहीं है। एक घाट काफी है। तुम अपनने ही घाट का वर्णन करोगे।-- दूसरा किसी और
घाट से उतरा था सागर में। सागर के घाटों का कोई हिसाब है! कोई हिंदू की तरह उतरा
था; कोई मुसलमान की तरह उतरा था, कोई
ईसाई की तरह उतरा था। से सब घाट हैं, तीर्थ। फिर जो जहां
सेउतरा था, उसी की बात करेगा। दूसरे किनारे पर पहुंचकर भी,
तुमनेक जिस किनारे से नाव छोड़ी थी, तुम्हारे
दूसरे किनारे की अभिव्यक्ति में उस किनारे का हाथ रहेगा।
और निश्चित ही, सभी घाटों से नाव छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है,
एक ही घाट पर्यापपत है। सभी से छोड़ना भी चाहोगे तो कैसे छोड़ोगे?
जब भी छोड़ोगे, एक ही घाट से छोड़ोगे।
किसी घाट पर पत्थर जड़े हैं। किसी घाट पर हीरे जड़े होंगे। किसी घाट पर
आकाश को छूते वृक्ष खड़े हैं। किसी घाट पर मरुस्थल होगा, रेत का विस्तार होगा। किसी घाट पर आदमी ने कुछ व्यवस्था कर ली होगी,
सीढ़ियां लगा ली होंगी। किसी घाट पर कोई व्यवस्था न होगी, अराजक होगा। पर इससे क्या फर्क पड़ता है! नाव छूट जाती हा सभी घाटों से।
"शोरे-नाकूसे-बरहमन हो कि बागे-हरम
छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं।'
जो जानते हैं, व? कहते हैं: यह मंदिर के
पुजारी के घंटों की आवाज हो कि मस्जिद के मुल्ला की, सुबह की
बांग हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
"छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं।'
हर आवाज में, हर ढंग में, हर व्यवस्था में,
खोजनेवाला तो वही चैतन्य है; वही प्राण
है--प्यासे, प्रेम के लिए आतुर!
"अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण बताते
हैं।'
"पाराशर के पु०त्र व्यास के अनुसार भगवान की पूजा
आदि में अनुराग होना भक्ति है।'
पूजा का अर्थ होता है: परमात्मा को प्रतिस्थापित करना; एक पत्थर की मूर्ति है या मिट्टी की मूर्ति है, परमात्मा
को उसमें आमंत्रित करना; परमात्मा को कहना कि "इसमें आओ
और विराजो--क्योंकि तुम हो निराकार: कहां तुम्हारी आरती उतारुं? हाथ मेरे छोटे हैं, तुम छोटे बनो! तुम हो विराट:
कहां धूप-दीप जलाऊं? मैं छोटा हूं, सीमित
हूं, तुम मेरी सीमा के भीतर आओ! तुम्हारा ओर-छोर नहीं: कहां
नाचूं? किसके सामने गीत गाऊं? तुम इस
मूर्ति में बैठो!'
पूजा का अर्थ है: परमात्मा की प्रतिस्थापना सीमा में, आमंत्रण--इसलिए पूजा का प्रारंभ उसके बुलाने से है।
अंगरेजी में शब्द है "गाड' भगवान के लिए। वह
शब्द बड़ा अनूठा है। उसका मूल अर्थ है--जिस मूल धातू से वह पैदा हूुआ है, भाषाशास्त्री कहते हैं, उस मूल धातु का अर्थ
है--"जिसको बुलाया जाता है।' बस इतना ही अर्थ है जिसको
बुलाया जाता है, जिसको पुकारा जाता है--वही भगवान।
दूसरा, जिसने कभी पूजा का रहस्य नहीं जाना, देखेगा तुम्हें बैठे पत्थर की मूर्ति के सामने, समझेगा:
"नासमझ हो! क्या कर रहे हो?' उसे पता नहीं कि पत्थर की
मूर्ति अब पत्थर की नहीं--मृण्मय चिन्मय हो गया है! क्योंकि भक्त ने पुकारा है!
भक्त ने अपनी विशिता जाहिर कर दी है। उसने कह दिया है कि "मैं मजबूर हूं। तुम
जैसा विराट मैं न हो सकूंगा, तुम कृपा करो, तुम तो हो सकते हो मेरे जैसे छोटे! मेरी अड़चनें हैं। मेरी शक्ति नहीं इतनी
बड़ी के तुम जैसा विराट हो सकूं। दया करो! तुम ही मुझ जैसे छोटे हो जाओ ताकि थोड़ा
संवाद हो सके, थोड़ी गुफ्तगू हो सके, दो
बातें हो सकें। मैं फूल चढ़ा सकूं, आरती उतार सकूं, नाच लूं: तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा। सभी रूप तुम्हारे हैं, यह एक और रूप तुम्हारा सही! मुझे बहुत कुछ मिल जाएगा, तुम्हारा कुछ खोएगा नहीं।'
भक्त की आंख से देखना मूर्ति को, नहीं तो तुम मूर्ति
को न देख पाओगे; तुम्हें पत्थर दिखायी पड़ेगा; मिट्टी दिखायी पड़ेगी। भक्त ने वहां भगवान को आरोपित कर लिया है। और जब
परिपूर्ण हृदय से पुकारा जाता है, तो मिट्टी भी उसी की है।
मिट्टी उससे खाली तो नहीं। पत्थर उसके बाहर तो नहीं। वह वहां छिपा ही पड़ा है। जब
कोई हृदय से पुकारता है तो उसका आविर्भाव हो जाता है।
इसलिए भक्त जो देखता है मूर्ति में, तुम जल्दी मत करना,
तुम नहीं देख सकते। देखने के लिए भक्त की आंखें चाहिए।
"बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
इजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है।'
पत्थर रोते हैं हजारों साल, तब कहीं कोई पत्थर
में परमात्मा को देखनेवाला पैदा होता है। आंख चाहिए।
पूजा का प्रारंभ है आमंत्रण में कि आओ, विराजो, प्रतिस्थापना में!
मूर्ति तो झरोखा है, वहां से हम विराट में झांकते
हैं।
तुम अपने घर में ,ड़े हो, झरोखे
से आकाश में झांकते हो। तुम चांदत्तारों की बात करो, दूर
फैले नी-गगन की बात करो, और कोई दूसरा हो जिसको सिर्फ चौखटा
ही दिखायी पड़ता हो खिड़की का, वचह कहे, कहां
की बातें कर रहे हो? पागल हो गये हो? लकड़ी
का चौखटा लगा है, और तो कुछ भी नहीं। कहां के चांदत्तारे?'...
तो, जब तुम्हें मूर्ति में कुछ भी न दिखायी पड़े तो जल्दी
मत करना; तुम्हें चौखटा ही दिखायी पड़ रहा है।
भक्त जब हृदयपूर्वक बुलाता है तो मूर्ति खुल जाती है, उ?सके पट बंद नहीं रहते। भक्त को उस मूर्ति के
माध्यम से कुछ दिखायी पड़ने लगता है। उसके देखने के लिए भक्त की ही आंखें चाहिए।
कहते हैं कि मजनूं जब बिलकुल पागल हो गया लैला के लिए, तो उस देश के सम्राट ने उसे बुलवाया। उसे भी दया आने लगी; द्वार-द्वार, गली-गली, कूचे-कूचे
वह पागल "लैला-लैला' चिल्लाता फिरता है! गांवभार के
हृदय पसीज गये। लोग उसके आसुओं के साथ रोने लगे। सम्राट नेउसु बुलाया और कहा,
"तू मत रो।' उसने अपने महल से बारह
सुदरियां बुलवाईं और उसने कहा, "इस पूरे देश में भी तू
खोजेगा, तो ऐसी सुंदर स्त्रियां तुझे न मिलेंगी। कोई भी तू
चुन ले।'
मजनूं ने आंख खोली। आंसू थमे। एक-एक स्त्री को गौर से देखा, फिर आंसू बहने लगे और उसने कहा कि लैला तो नहीं है। सम्राट ने कहा,
"पागल! तेरी लैला मैंने देखी है, साधारण-सी
स्त्री है। तू नाहक ही बावला हुआ जा रहा है।'
कहते हैं, मजनूं हंसने लगा। उसने कहा, "आप ठीक कहते होंगे; लेकिन लैला को देखना हो तो मजनूं
की आंख चाहिए। आपने देखी नहीं। आप देख ही नहीं सकते, क्योंकि
देखने का एक ही ढंग है लैला को--वह मजनूं की आंख है। वह आपके पास नहीं है।'
भगवान को देखने का एक ही ढंग है, वह भक्त की आंख है।'
तो कोई अगर मंदिर में पूजा करता हो तो नाहक हंसना मत।
मूर्ति-भंजक होना बहुत आसपन है, क्योंकि उसके लिए कोई
संवेदनशील तो नहीं चाहिए। मूर्तियों को तोड़ देनपा बहुत आसान है। क्योंकि उसके लिए
कोई हृदय की गहराई तो नहीं चाहिए।
मूर्ति में अमूर्त को देखना बड़ा कठिन है! वह इस जगत की सबसे बड़ी कला
है। आकार में निराकार को झांक लेना, शब्द में शून्य को
सुन लेना, दृश्य में अदृश्य की पेड़ लेना--उससे बड़ी और कोई
कला नहीं है।
इसलिए प्रेम कलाओं की बला है, सरताज है! उसके पार
फिर कुछ भी नहीं है।
पूजा का अर्थ है: आकार में आमंत्रण निराकार को।
और अगर तुमने कभी पूजा की है तो तुम जानोगे, तुम्हारे बुलाने के पहले मूर्ति साधारण पत्थर का टुकड़ा है।
रामकृष्ण पूजा करते थे। अनेक दिन बीत गये। वे रोज रोते, घंटों पूजा करते, फिर एक दिन गुस्से में आ गये।
तलवार टंगी थी काली के मंदिर में मूर्ति के सामने, तलवार
उतार ली, और कहा, बहुत हो गया! इतने
दिन से बुलाता हूं! अगर तू प्रगट नहीं होती तो मैं अप्रगट हुआ जाता हूं। या तो तू
दिखायी दे, तू हो, या मैं मिटता हूं।
तलवार खींच ली। एक क्षण और, और गर्दन पर मारे लेते थे,
कि सब कुछ बदल गया। मूर्ति जीवंत हो उठी! वहां काली न थी। मातृत्व
साकार हो उठा! ओंठ जो बंद थे, पत्थर के थे, मुस्कराये! आंक्षें जो पत्थर की थीं, और जिनसे कुछ
दिखायी न पड़ता था, उन्होंने रामकृष्ण में झांका। तलवार झनकार
के साथ फर्श पर गिर गयी।
रामकृष्ण छह दिन बेहोश रहे। भक्त घबड़ा गये। मित्र परेशान हुए। डर तो
पहले ही था कि यह आदमी थोड़ा पागल-सा है, यह अब और क्या हो
गया! छह दिन की बेहोशी के बाद जब बेहोशी में भेजती है? इतने
दिन होश में रखा छह दिन--अब क्ाो बेहोशयी में भेजती है? फिर
से बुला ले! जा मत! रुक!'
इतना विराट था, इतना प्रगाढ़ था अनुभव कि अपने को संभाल न सके। डगमगा
गये! बूंद में जब सागर उतरे तो ऐसा होगा ही। तुम्हारे आंगन में जब पूरा आकाश उतर
आये तो तुम्हारे आंगन की दीवारलें कहां तक संभली रहेंगी, गिर
जाएंगी
उन छी दिनों रामकृष्ण ने चिन्मय का जलवा देखा। वे छी दिन सतत परमात्मा
के साक्षसत्कार के दिन थे। वह उनकी पहली समाधि थी।
लेकिन पूजा का अर्थ यही है: पहले परमात्मा को आमंत्रित करो, फिर अपने को उसके चरणों में चढ़ा दो रामक्रष्ण जैसे, कि
कह दो कि तू ही है, अब मैं नहीं!
तुम जितनी दूर तक परमात्मा को बुलाते हो, जितनी गहराई तक बुलाते हो, उतनी दूर तक, उतनी गहराई तक वह आता है। तुम जब अपने को मिटाने को भी तत्पर हो जाते हो
तो तुम्हारे अंतरतम को छू लेता है। तुम्हारी बिना आाा के वह तुम में प्रवेश न
करेगा। वह तुम्हारा सम्मान करता है। वह कभी भी किसी की सीमा में आक्रमण नहीं करता।
बिन कुलाया मेहमान परमात्मा कभी नहीं होता। तुम बुलाते हो, मनाते
हो, समझाते-बुझाते हो, तो मुश्किल से
आता है।
भक्ति खो गयी है जगत से, क्योंकि भक्ति की कला
बड़ी कठिन है--सब कुछ दांव पर लगाने की कला है, जुआ है। बड़ी
हिम्मत चाहिए। आंख के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए।
"पाराशर के पुत्र व्यास के अनुसार भगवान की पूजा
में अनुराग होना भक्ति है।'
पूजा तो बहुत लोग करते हैं, अनुराग होना चाहिए।
संस्कारवशात है तो फिर भक्ति नहीं है। चूंकि चीढ़ी दर पीढ़ी तुम्हारे घर के लोग मंदिर
में जाते रहे तो तुम मंदिर जाते हो; मस्जिद जाते रहे तो
मस्जिद जाते हो; आकार को पूजा तो आकार को पूजते हो; निराकार को पूजा तो निराकार को पूजते हो--औपचारिक, परपंरागत,
लकीर के फकीर, दूसरों के पदचिह्नों पर
चलनेवाले! नहीं, ऐसे न होगा।
उधार कोई परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचता। तुम्हारी प्यास चाहिए, परंपरा नहीं। तुम्हारी आंख चाहिए, लकीर की फकीर और
उसका अंधापन नहीं।
तो शर्त है: पूजा में अनुराग! प्रेम चाहिए! वैसा ही प्रेम चाहिए जैसे
जब तुम किसी के प्रेम में पड़ जाते हो, तो सब औपचारिकता खो
जाती है। सब शिष्टाचार खो जाता है। पहली दफा तुम किसी और ही गहराई से बोलना शुरू
करते हो। इसके पहले भी बोलते रहे थे, लेकिन वह ओठों की बात
थी। अब हृदय बोलता है! पहली दफा तुम किसी और ही हवा में और किसी और ही माहौल में
जीते हो। क्या हो जाता है।
साधारण प्रेम में क्या होता है? दूसरे में तुम्हें
कुछ दिखायी पड़ने लगता है जो अब तक तुम्हें कभी किसी में दिखायी न पड़ा था; तुम्हारी आंख खुलती है!
तुमने कभी खयाल किया, प्रेमी दूसरों को पागल मालूम
पड़ते हैं! अगर कोई दूसरा किसी के प्रेम में पड़ जाए और दीवाना हो जाए, तो तुम हंसोगे, तुम कहोगे, "पागल है, नासमझ है। समझ में आ! होश में आ! क्या कर
रहा है?'
"हम खुदा के भी कभी काइल न थे
उनको देखा तो खुदा याद आया।'
प्रेमी पहली दफा किसी साधारण व्यक्ति में परमात्मा के दर्शन कर लेता
है, कोई झलक पाता है। तुम जिसके प्रेम में पड़ जाते हो, वहीं
तुम्हें परमात्मा की थोड़ी-सी झलक पहली दफा मिलती है; तुम्हारा
आस्तिक होना शुरु हुआ।
प्रेम: आस्तिकता की पहली गंध, पहली लहर। प्रेम:
आस्तिकता की तरफ पहला कदम! क्योंकि कम-से-कम चलो एक में ही सही, परमात्मा दिखा तो! और एक में दिखा तो सब में दिख सकता है; न भी दिखे तो भी इतना तो तुम समझ ही सकते हो कि एक में दिखा तो सब में भी
होगा।
लेकिन जल्दी ही तुम्हारी प्रेम की आंख धुधली हो जाती है: जिसमें
तुम्हें परमात्मा दिखा था, वह भी एक ख्वाब, एक सपना हो
जाता है; जल्दी ही तुम भूल जाते हो, धूल
जम जाती है।
जब प्रेम की घटना घटे तो जल्दी करना उसे पूजा बनाने की, अन्यथा समय ढांक देगा।
इसलिए मैं कहता हूं, जवानी पूजा के दिन हैं। लेकिन
लोग कहते हैं, पूजा बुढ़ापे में करेंगे। वे कहते हैं, जवानी में प्रेम करेंगे। बुढ़ापे में पूजा करेंगे। इतना फासला प्रेम में और
पूजा में होगा तो प्रेम तो मर ही जाएगा, पूजा आ न पाएगी। लोग
यही कह रहे हैं कि प्रेम तो जवानी में करेंगे; जब प्रेम मरने
लगेगा, मर ही जाएगा, तब फिर पूजा कर
लेंगे।
और असलियत यह है िप्रेम ही
पूजा बनता है। प्रेम के मरने सेपूजा नहीं आती; प्रेम के पूरे निखरने
से पूजा बन जाती है। एक में जो दिखायी पड़ा है, अब इस सूत्र
को पकड़ लेना और इसको औरों में भी देखने की कोशिश करना। जब आंख ताजी हो, लहर नयी हो, उमंग अभी जोश-भरी हो, उत्साह युवा हो, तो जल्दी कर लेना। जो तुम्हें अपनी
प्रेयसी में, प्रेमी में दिखा हो, बच्चे
में दिखा हो, अपने बेटे में दिखा हो, मित्र
में दिखा हो, जल्दी करना क्योंकि उस वक्त तुम्हारे पास आंख
है, उस वक्त सारे जगत को गौर से देख लेना; तुम अचानक पाओगे; वह सभी के भीतर छिपा है, क्योंकि उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है।
"पूजा में अनुराग'...।
पूजा करते तुम बहुत लोगों को देखोगे, लेकिन अनुराग नहीं है,
प्रेम नहीं है, पूजा तो है, विधिविधान है। सात दफा आरती उतारनी है तो तुम सात दफा आरती उतारते हो;
गिनती सेउतारते हो, कहीं आठ न हो जाए। वहां भी
कंजूसी है।
रामकृष्ण पूजा करते तो कभी-कभी, दिन-भर-दिन खाना-पीना
भूल जाते। उनकी पत्नी शारदा द्वार पर खड़ी है, वह कहती है कि
परमहंस देव, समय निकला जा रहा है, सूर्यास्त
हुआ जा रहा है, दिन-भर से आप भूखे हैं। मगर वहां कोई परमहंस
देव हैं कि सुनें। वे नाच रहे हैं! भूख की खबर किसको लगे! भूख की याद किसको आये!
जो भगवान का भोग लगा रहा हो, संसार के भोजन उसे क्या याद आए!
गिर पड़ते; तभी उठाकर लाये जाते, अपने
से न आते। बहुत दफे उन्हें कहा गया, "ऐसा न करें! पूजा
ठीक है, घड़ी-दोघड़ी की ठीक है।' पर
रामकृष्ण कहते कि घड़ी-दोघड़ी की याद रह जाए तो पूजा होती ही नहीं।
तुमने कभी अपने को पूजा करते देखा, बीच-बीच में तुम घड़ी
देख लेते हो। घड़ी कोवहें रख आया करें जहां जूते छोड़ आते हो। जूते भी आ जाएं,
मंदिर खराब न होगा, घड़ी नहीं आनी चाहिए।जूतों
में ऐसा कुछ भी नहीं है, घड़ी नहीं आनी चाहिए। क्यों? क्योंकि परमात्मा है शाश्वत्तता। समय को अपने साथ लिये तुम उसे न छू
सकोगे। वह है अनंत, तुम क्षणों को साथ लिये बैठे हो। और
तुम्हारा मन बार-बार देख रहा है कि कब दुकान जाएं, कब दफ्तर
जाएं! तो अच्छा है जाना ही मत। ऐसा समय जो तुमने मंदिर में बिताया, और बाजार के सोच में बिताया, बिकुल व्यर्थ गया,
इसका उपयोग बाजार में ही कर लेना, कुछ भी तो
लाभ होगा। यह तो कुछ भी न लाभ न हुआ।
मैंने देखा है लोगों को पूजा करते, नमाज पढ़ते।
मैं राजस्थान जाता था अकसर, तो चित्तोढ़गढ़ पर गाड़ी
बदलती है। सांझ की नमाज का समय होता, कोई घंटे-भर गाड़ी रुकती,
तोजितने भी मुसलमान होते तो ट्रेन में, वे
उतरकर नमाज करने लगते, बिछा लेते अपनी चादर, बैठ जाते नमाज करने, मगर हर मिनट दो मिनट में पीछे
लौटकर देखते रहते कि कहीं गाड़ी छूट तो नहीं गयी। यह मैंने बहुत बार देखा।
एक मुसलमान मित्र मेरे साथ यात्रा कर रहे थे। वे भी पूजा के लिए गये।
नल के पास प्लेटफार्म पर उन्होंने अपनी चादर बिछा ली, पूजा करने बैठ गये, मैं उनके पीछे खड़ा हो गया। जब
उन्होंने गर्दन पीछे मोड़ी तो मैंने उनकी गर्दन वापस पकड़कर उस तरफ मोड़ दी। बहुत
नाराज हुए। उस वक्त तोकुछबोल न सके। जल्दी-जल्दी उन्होंने नमाज पूरी की। कहा,
"यह क्या मामला है? आपने क्यों मेरी
गर्दन इस तरफ मोड़ी?'
इस तरफ अगर गर्दन रखनी हो तो इसी तरफ रखो, उस तरफ रखनी हो तो उसी तरफ रखो। यह कैसी नमाज हुई? यह
कैसी पूजा हुई कि बीच-बीच में खयाल है कि गाड़ी छूट न जाए? गाड़ी
छूट न जाए, इसमें परमात्मा छूटा जा रहा है, ' मैंने उनसे कहा, "तुम या तो गाड़ी पकड़ लो या
परमात्मा को पकड़ लो। कोई जरूरत नहीं है, मत करोनमाज--झूठी तो
मत करो।कम-से-कम इतने सच्चे तो रहो कि नहीं है हृदय में तो न करेंगे।
रामक्रष्ण बहुत दिन तक मंदिर न जाते। वे कहते, "जब भीतर ही नहीं है तो कैसे जाऊं, कैसे धोखा
दूं--परमात्मा को कैसेधोखा दूं? किस मुंह से भीतर जाऊं?'
द्वार के बाहर से ही, बाहर-बाहर, क्षमा मांगकर लोट आते, मंदिर में भीतर न जाते,
सीढ़ियों पर से क्षमा मां लेते: "माफ कर, भावच
नहीं है। करूंगा तो धोखा होगा, झूठ होगा।'
लेकिन तुम्हारा सब झूठ हो गया है। जिससे तुम्हें प्रेम नहीं है, उसे तुम कहते हो, प्रेम है। जिसे देखकर तुम्हारे
भीतर कोई मुस्कराहट नहीं आती, तुम मुस्कुराते हो। जिसे देखकर
तुम्हारे भीतर अभिशाप देने का भाव उठता है, उसको आर्शिवाद
देते हुए अपने को दिखलाते हो। इन झूठों से घिरे तुम अगर परमात्मा के पास भी जाओगे
तो तुम इन्हीं झूठों का प्रयोग वहां भी करोगे। फिर पूजा वैसी ही हो जाएगी जैसी
सारी दुनिया की हो रही है।
कितने ही लोग हैं, अनगिनित, पूजा
कर रहे हैं, और पूजा की गंध कहीं भी नहीं अनुभव में आती!
कितने ही लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं! अगर सच में ही इतनी प्रार्थनाएं हों तो जैसे
आकाश में भाप उठ-उठ कर बादल बन जाते हैं, ऐसे प्रार्थनाओं के
बादल बन जाएं। सब प्रार्थना बरसने लगे। मेघ घने हो जाएं आकाश में । जल ही न बरसे,
प्रार्थना भी बरसे। नदी-नाले प्रार्थना से भर जाएं!
जितने लोग प्रार्थना करते हैं, अगर ये सच में ही
प्रार्थना करते हों...।
ठीक है व्यास की भी परिभाषा। ठीक है:
"भगवान की पूजा में अनुराग भक्ति है।'
फिर गर्गाचार्य के मत से भगवान की कथा में अनुराग भक्ति है।'
पूजा में कुछ करना होता है। निश्चित ही व्यास सक्रिय वृत्ति के रहे
होंगे। कुछ करना पड़ता है: आरती उतारनी पड़ती है, फूल चढ़ाने पड़ते हैं,
घंटी बजानी पड़ती है--कुछ करना पड़ता है।
इसे समझ लें। व्यास निश्चित ही सक्रिय प्रकृति के रहे होंगे।
गर्गाचार्य निष्क्रिय प्रकृति के रहे होंगे। क्योंकि व्यास जहां कहते हैं, "पूजा आदि मग अनुराग' , वहां गर्गाचार्य कहते हैं, "भगवान की कथा में...,
कोई सुनाये हम सुनें , रस से सुनें, डूबकर सुनें, मिटकर सुनें--पर कोई सुनाए, हम सुनें!'
"भगवान की कथा में अनुराग...!'
तुमने कभी खयाल किया: कथाओं में तो तुम्हें भी अनुराग है, भगवान की कथा में नहीं है! पड़ोसी की पत्नी किसी के साथ भाग गई, इस कथा को तुम कितने रस से सुनते हो! खोद-खोद कर बातें निकलवा लेते हो।
हजार काम हों, रोक देते हो।
छोटे गांव में एकाध स्त्री भाग जाए तो पूरे गांव में काम-धंधा बंद हो
जाता हैउस दिन, पूरा गांव उसी चर्चा में लग जाता है।
किसी के घर चोरी हो जाए...कुछ भी हो जाए...!
अखबार तुम पढ़ते हो, वह कथा का रस है। लेकिन भगवान की
कथा में अब कोई रस नहीं है। और अगर कभी तुम भगवान की कथा में श्रर रस लेते हो तो वह
रस भगवान की कथा का नहीं होता। उसमें भी कारण वहीं होंगे, जिन
कारणों से तुम और कथाओं में रस लेते थे। कोई की स्त्री किसी के साथ भाग गई,
राम की स्त्री को रावण भगा ले गया, तो तुम
उसमें भी रस लेते हो। लेकिन तुम खयाल करना, रस तुम्हारा रावण
सीता को भगा ले गया है, इसमें है, राम
की कथा में नहीं है।
गर्गाचार्य कहते हैं, "भगवान की कथा में
अनुराग...'। ऐसे सुनना जैसे प्यासा जल पीता है। ऐसे सुनना
जैसे तुम बिलकुल खाली हो--कान ही हो गए, तुम्हारा सारा
अस्तित्व बस कान पर ठहर गया। हृदयपूर्वक सुनना! तो परमात्मा का स्मरण अनेक-अनेक
रूपों में तुम्हें भर देगा। कुछ करने की जरूरत नहीं है; तुम
अगर शांत बैठकर सुन भी सको...।
तुम यहां मुझे सुन रहे हो...यह भगवान की कथा है। यहां तुम ऐसे भी सुन
सकते हो, जैसे और साधारण बातें सुनते हो। तुम ऐसे भी सुन सकते
हो, जैसे तुम्हारा पूरा जीवन दाव पर लगा है, जीवन और मृत्यु का सवाल है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी को कहा था कि आज मैं
आराम चाहता हूं, किसी को मिलाना मत; कोई
आ भी जाए तो कह देना घर पर नहीं है। लेकिन वह बैठा ही था आराम करने कुर्सीं पर,
कि पत्नी आई, उसने कहा, "सुनो, एक आदमी दरवाजे पर खड़ा है।'
मुल्ला ने कहा, "अभी मैंने कहा, अभी देर
भी नहीं हुई कि आज दिनभर विश्राम करना है। अभी शुरुआत भी नहीं हुई,मैं कुर्सी पर ठीक से बैठ भी नहीं पाया।'
तो उसकी पत्नी ने कहा, "लेकिन वह आदमी
कहता है, जीवन-मरण का सवाल है।'
तब तो मुल्ला भी उठ आया, जब जीवन-मरण का सवाल
हो तो कैसा विश्राम! बाहर गया तो पाया कि वह इन्श्यारेंस कंपनी का एजेंट है।
जीवन-मरण का सवाल...!
जीवन-मरण का सवाल हो, तभी तुम उठोगे, तभी तुम जागोगे।
भगवान तुम्हारे लिए जीवन-मरण का सवाल है या नहीं? अगर नहीं है, तो फिर बिलकुल मत सुनो, क्योंकि वह समय व्यर्थ ही गया। तुम जो सुनोगे वह किसी सार का नहीं होगा।
क्योंकि सार तो तुम्हारे सुनने में छिपा है। सार कहने में नहीं छिपा है, सार तुम्हारे सुनने में छिपा है।
अगर तुम सुनने के लिए ही परिपूर्ण तैयार होकर नहीं आ गये हो, अगर यह सवाल तुम्हारे जीवन-मरण का नहीं है, अगर तुम
अभी भी परमात्मा को किनारे पर टालकर अपने संसार में लगे रह सकते हो, अच्छा है तुम संसार में ही लगे रहो। कभी-न-कभी ऊबोगे। कभी-न-कभी लौटोगे।
कभी तो वह घड़ी आएगी, जब तुम्हारी अंधेरी रात तुम्हें दिखाई
पड़ेगी और सुबह की पुकार तुम्हारे मन में उठेगी। कभी तो वह घड़ी आएगी, जब तुम्हारी अंधेरी रात तुम्हें दिखाई पड़ेगी और सुबह की पुकार तुम्हारे पन
में उठेगी। कभी तो वह घड़ी आएगी, तुम अपने कूड़ा-करकट से
घिरे-घिरे किसी दिन तो दुर्गंध को अनुभव करोगे; फूलों की गंध
की तलाध शुरू होगी।
लेकिन जल्दी मत करो, अगर दुर्गंध से अभी लगाव बाकी है,
तो भोग ही जो दुर्गंध को अनुभव करोगे; फूलों
की गंध की तलाश शुरू होगी।
लेकिन जल्दी मत करो, अगर दुर्गंध से अभी लगाव बाकी है,
तो भोग ही लो दुर्गंध को। चुक ही जाओ। रिक्त ही हो जाने दो उस अनुभव
से अपने को। नहीं तो तुम सुन न पाओगे।
मैं एक पंजाबियों की सभा में बोलने गया। उस सभा के बाद फिर मेरा किसी
सभा में जाने का मन न रहा। कृष्णाष्टमी थी। और पंजाबी हिंदुओं का मोहल्ला था। मैं
तो चकित हुआ, वहां व्याख्यान देने वाले व्याख्यान दे रहे थे,
और ऐसी भी स्त्रियां थीं उस सभा में--स्त्रियां ही ज्यादा थीं--जो
बोलने वालों की तरफ पीठ किए आपस में गपशप कर रही थीं। वहां झुंड-के-झुंड बने थे।
बड़ी भीड़ थी। मुझसे भी उन्होंने प्रार्थना की। मैंने कहा, "तुम पागल हो! यहां कोई सुननेवाला ही नहीं है। यहां लोग अपनी बातचीत में
लगे हैं और बोलने वाले बोले जा रहे हैं।'
मैंने कहा, "मुझे जाने दो। इनकी कोई तैयारी सुनने की नहीं
है। सुनने कोई इनमें आया भी नहीं है। कृष्ण से इन्हें कुछ लेना-देना नहीं है।'
तुम मंदिरों में जाओ, स्त्रियां जो चर्चा मंदिरों में
कर रही हैं, पुरुष जो बातचीत मंदिरों में कर रहे हैं,
उसका मंदिर से कुछ लेना-देना नहीं है; वही
राजनीति, वही उपद्रव बाहर के, वहां भी
ले आते हैं; वे ही घर के, बाहर के झगड़े
वहां भी ले आते हैं।
परमात्मा की कथा तो तुम तभी सुन सकते हो जब तुम पूरे रिक्त होकर सुनो।
ठीक कहते हैं गर्गाचार्य, "भगवान की कथा
में अनुराग...।' और जिस दिन इस कथा में अनुराग आता है उसी
दिन संसार की कथा में अनुराग खो जाता है।
तुम व्यर्थ की बातें मत सुनो, क्योंकि यह सिर्फ
सुनना ही नहीं, जो तुम सुनते हो वह तुम्हारे भीतर इकट्ठा हो
रहा है।
थोड़ा सोचो, अगर पड़ोसी तुम्हारे घर में कूड़ा फेंक दे तो तुम झगड़ा
करने को तैयार हो जाते हो। और पड़ोसी तुम्हारे मन में हजार कूड़ा फेंकता रहे तो तुम
झगड़ा तो करते नहीं, तुम रोज प्रतीक्षा करते हो कि कब आओ,
कब थोड़ी चर्चा हो! तुम्हें घर में कूड़ा-करकट से भी इतनी समझ है,
उतनी समझ तुम्हें भीतर के कूड़ा-करकट की नहीं है।
रोको अपने को व्यर्थ की बात सुनने से, नहीं तो सार्थक को
सुनने की क्षमता खो जाएगी। अकारण, आवश्यक न हो, ऐसा सब सुनना त्याग दो, ताकि तुम्हारी संवेदनशीलता
तुम्हें फिर से उपलब्ध हो जाए, और भगवान का नाम तुम्हारे कान
में पड़े, तो वह बहुत से विचारों की भीड़ में न पड़े, अकेला पड़े। वह चोट अकेली हो तो तुम्हारे हृदय के झरने फिर से खुल सकते
हैं।
"शांडिल्य के मत से आत्मरति के अविरोधी विषय में
अनुराग होना ही भक्ति है।'
व्यास सक्रिय घाट से उतने होंगे। गर्गाचार्य निष्क्रिय घाट से उतरे
होंग। पर दोनों सरल व्यक्ति रहे होंगे, बड़े विचारक नहीं,
सीधे-सादे, इनीसेंट, निर्दोष,
भोले-भाले! शांडिल्य विचारक मालूम होते हैं। उनकी परिभाषा दार्शनिक
की परिभाषा है। वे कहते हैं, "आत्मरति के अविरोध विषय
में अनुराग होना ही भक्ति है।' दार्शनिक व्याख्या है।
अपने में साधारणतः आदमी को रस होता है। साधारणतः! उसे तुम स्वार्थ
कहते हो। स्वार्थ अपने में रस है, लेकिन बिना समझ का। चाहते हो तुम
हो कि सुख मिले, मिलता नहीं! चाह तो ठीक है; जो तुम करते हो उस चाह के लिए, उसमें कहीं कोई गलती
है।
स्वार्थ और आत्मरति में यही फर्क है। स्वार्थ भी अपने सुख की खोज करता
है, लेकिन गलत ढंग से, परिणाम हाथ में दुख आता है।
आत्मरति भभ अपने सुख की खोज करती है, लेकिन ठीक ढंग से,
परिणाम सुख आता है। तुम भी अपने ही सुख के लिए जी रहे हो, लेकिन अभी तुमने अपने को जो समझा है वह अहंकार है, आत्मा
नहीं। अभी तुम्हारा "स्व' अहंकार है, झूठा है। जिस दिन तुम्हारा "स्व' वास्तविक होगा,
आत्मा होगी, उस दिन तुम पाओगे: स्वार्थ ही
परमार्थ है। उस दिन अपने आनंद की खोज कर लेने में ही तुमने सारी दुनिया के लिए
आनंद के द्वार खोले। उस दिन तुम सुखी हुए तो दूसरों को भी सुखी होने की संभावना
बतायी। उस दिन तुम्हारा दिया जला तो दूसरों के बुझे दीये भी जल सकते हैं, इसका भरोसा उनमें तुमने पैदा किया। और फिर तुम्हारे जले दीये से न मालूम
कितने बुझे दिये भी जल सकते हैं।
आत्मरति का अर्थ है: वस्तुतः सच्चा स्वार्थ। उसमें परार्थ अपने-आप आ
जाता है। जिसे तुम स्वार्थ समझते हो वह परार्थ के विपरीत है। और जिसको आत्मज्ञानियों
ने आत्मरति कहा है, परम स्वार्थ कहा है, वह परार्थ
के विपरीत नहीं है, परार्थ उसमें समाहित है, समाविष्ट है।
"आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग होना भक्ति
है।'
अब इसे समझो।
तुम अपने को प्रेम करते हो--ठीक, स्वाभाविक है। इस
प्रेम के कारण तुम ऐसी चीजों को प्रेम करते हो जो तुम्हारे स्वभाव के विपरीत हैं
उनसे तुम दुख पाते हो। चाहते सुख हो, मिलता दुख है। आकांक्षा
में भूल नहीं है। आकांक्षा को प्रयोग में लाने में तुम ठीक-ठीक समझदारी का प्रयोग
नहीं कर रहे हो।
बुद्ध भी स्वार्थी हैं, कबीर भी, कृष्ण भी--लेकिन वे परम स्वार्थी हैं। वे भी अपना साध रहे हैं आनंद,
लेकिन इस ढंग से साध रहे हैं कि मिलता है। तुम इस ढंग से साध रहे हो
कि मिलता कभी नहीं; साधते सदा हो, मिलता
कभी नहीं।
तुम कुछ ऐसी चीजों से चीजों से अनुराग करने लगते हो जो कि तुम्हारे
स्वभाव के विपरीत है; जैसे समझो, तुम धन को प्रेम
करने लगे, तो तुम अपने स्वभाव के विपरीत जा रहे हो। क्योंकि
धन है जड़, तुम हो चैतन्य। चैतन्य को प्रेम करो, जड़ को मत करो, अन्यथा जड़ता बढ़ेगी। और चैतन्य अगर
जड़ता में फंसने लगे तो कैसे सुखी होगी? धन का उपयोग करो,
प्रेम मत करो। प्रेम तो चैतन्य से करो।
तुम पद की पूजा करते हो। पद तो बाहर है। तुम पद के आकांक्षी हो। लेकिन
पद तो बाहर है, तुम भीतर हो, तो तुम में और
तुम्हारे पद में कभी तालमेल न हो पाएगा; तुम भीतर रहोगे। पद
बाहर रहेगा। कोई उपाय नहीं है, भीतर तो तुम दीनहीन ही बने
रहोगे। कितना ही धन इकट्ठा कर लो अपने चारों तरफ, कितने ही
बड़े पद पर बैठ जाओ, कितना ही बड़ा सिंहासन बना लो--तुम्हारे
भीतर सिंहासन न जा सकेगा; न धन जा सकेगा, न पद जा सकेगा। वहां तो तुम जैसे पहले थे वैसे ही अब भी रहोगे।
भिखारी को राजसिंहासन पर बिठा दो, क्या फर्क पड़ेगा!
बाहर धन होगा, शायद भूल भी जाए बाहर के धन में कि भीतर अभी
भी निर्धन हूं, तो यह तो और आत्मघाती हुआ। यह स्वार्थ न हुआ,
यह तो मूढ़ता हुई।
असली धन खोजो--असली धन भीतर है।
असली पद खोजो--असली पद चैतन्य का है।
चैतन्य की सीढ़ियों पर ऊपर उठो।
उठने दो चैतन्य की उड़ान।
उठने दो ऊर्जा चैतन्य की--परमात्मा तक ले जाना है उसे।
मनुष्य परमात्मा होने की अभीप्सा है। इससे पहले कोई पड़ाव नहीं है, कोई मुकाम नहीं। पहुंचना है उस आखिरी मंजिल तक। लेकिन तुम बीच में बहुत से
पड़ाव बना लेते हो; पड़ाव ही नहीं, उनको
मुकाम बना लेते हो, मंजिल समझ लेते हो। कोई धन को ही इकट्ठा
करना अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है।
शांडिल्य की परिभाषा दार्शनिक है, बहुमूल्य है:
"आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग'...।
तुमने अब तक आत्मरति के विरोधी विषय में अनुराग किया है। आत्मरति के
अविरोध विषय में अनुराग करोगे, तो परमात्मा शब्द को बीच में
लाने की जरूरत भी नहीं है, तुम धीरे-धीरे परमात्म-स्वरूप
होने लगोगे।
जब भी तुम्हारे सामने चुनाव हो तो सदा ध्यान रखना: जड़ को मत चुनना, चैतन्य को चुनना। जब भी दो चीजों में से एक चुननी हो तो उसमें देख लेना,
कौन ज्यादा चैतन्य है। जैसे प्रेम और धन में चुनना हो तो प्रेम
चुनना। फिर प्रेम और भक्ति में चुनना हो तो भक्ति चुनना। संसार और परमात्मा में
चुनना हो तो परमात्मा चुनना।
इसे अगर तुम समझ लो तो शांडिल्य की परिभाषा में ईश्वर का नाम की नहीं
है, जरूरत नहीं है उसको कहने की, वह छिपा है। इस सूत्र
को मानकर अगर तुम चले तो उसे पा लोगे। अब तुम फर्क देख सकते हो। यह तीनों
व्यक्तित्वों का फर्क है। शांडिल्य बुद्ध जैसा व्यक्ति रहा होगा: "परमात्मा
की कोई जरूरत नहीं है।'
बुद्ध ने कहा: ध्यान खोज लो। शांडिल्य कह रहा है:चैतन्य खोज लो, क्योंकि वही अविरोधी है। उससे तुम्हारा तालमेल बैठेगा।
"देवर्षि के मत से' ...फिर
नारद अपना मत देते है।
"नारद के मत से अपने सब कर्मों को भगवान के अर्पण
करना और भगवान का थोड़ा-सा विस्मरण होने से परम व्याकुल होना भक्ति है।'
संस्कृत में, जहां-जहां हिंदी में अनुवाद किया है लोगों ने,
चूक हुई है। सभी ने अनुवाद किया है, क्योंकि
ऐसा लगता है ठीक नहीं कहना, नारद खुद ही शास्त्र लिख रहे हैं,
तो हिंदी में अनुवादों में अनुवादकों ने लिखा है, "देवर्षि के मत से'। लेकिन संस्कृत में
"नारदस्तु' - "नारद के मत से' ...। नारद अपने ही नाम का उपयोग कर रहे हैं। इसमें बड?ी
बात छिपी है। नारद अपने व्यक्तित्व को भभ अपने से उतना ही दूर रख रहे हैं जितना
शांडिल्य, जितना गर्गाचार्य, जितना
व्यास। ऐसा नहीं कहते कि "मेरे मत से'। उसमें तो मत के
प्रति जरा मोह हो जाएगा: "मेरा मत' । "यह नारद का
मत है' - नारद भी ऐसा ही कहते हैं।
स्वामी राम अपने को हमेशा इसी तरह बोलते थे: "राम' को भूख लगी है, "राम' को
प्यास लगी है। एसा न कहते थे: मुझे प्यास लगी है, मुझे भूख
लगी है। अपरीका गये तो लोग वहां बड़े हैरान होते थे। पहले ही दिन जब वे एक बगीचे से
शाम को घूमकर लौटे, तब तो गेरुआ वस्त्र बड़ी अनूठीा चीज थी,
बड़ी भीड़ लग गई वहां। अब तो न लगेगी, कम-से-कम
पंद्रह हजार मेरे संन्यासी हैं सारी दुनिया में...गेरुआ वस्त्र...! जल्दी ही उनको
लाखों तक पहुंचा देना है। लेकिन उस समय बड़ी नयी बात थी, तो
भीड़ लग गई। लोग कंकड़-पत्थर फेंकने लगे कि कोई दिवाना आ गया। राम हंसते रहे। भीड़
में से किसी को दया आई कि यह आदमी हो सकता है, पागल हो,
लेकिन दया-योग्य है। उसने भीड़ को हटाया, उनको
बचाया, उनको ले चला। रास्ते में उसने पूछा कि तुम हंसते
क्यों थे, तो उन्होंने कहा, "राम
की इतनी पीटाई हो रही थी और मैं न हंसू!' तो उसने कहा,
"क्या मतलब?' क्योंकि उसे पता नहीं था
उनकी आदत का। वे कहने लगे, "राम की इतनी हंसाई हो रही
थी! लोग पत्थर मार रहे थे, गालियां दे रहे थे और मैं न हंसू!
मैं खड़ा दूर देख रहा था।'
अपने ही नाम को इस तरह अगर तुम दूर कर लो तो बड़ी मुक्ति अनुभव होती है; तब तुम अपने व्यक्तित्व से अलग हो गए; तब तुम
साक्षी-भाव में प्रविष्ट हो गए।
ठीक किया, नारद ने कहा: "नारदस्तु'।
और नारद का मत है: "सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना, और भगवान का थोड़ा-सा विस्मरण होने से परम व्याकुल होना भक्ति है'।
शांडिल्य दार्शनिक हैं, नारद भक्त हैं।
शांडिल्य विचारक हैं, नारद प्रेमी हैं।
"सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना...!' प्रेमी की यही तो खूबी है कि वह कुछ भी बचाना नहीं चाहता, सब अर्पण करना चाहता है। जितना अर्पण करता है उतना ही उसे लगता है,
कम ही तो किया, और करूं! आखिर में वह अपने को
भी अर्पण कर देता है।
सब अर्पण करना और भगवान का थोड़ा-सा भी विस्मरण होने से परम व्याकुल
होना परम व्याकुलता पकड़ ले, व्याकुलता ही व्याकुलता रह जाए।
ऐसा समझो कि तुम रेगिस्तान में भटक गए, जल चूक गया, दूर-दूर तक कहीं कोई मरूधान नहीं है, हरियाली का कोई
पता नहीं है, सागर है सूखी रेत का। प्यास तो तम्हें पहले भी
लगी थी, लेकिन आज तुम पहली दफे जानोगे कि परम प्यास क्या है।
प्यास तो बहुत दफे लगी थी, लेकिन पानी सदा उपलब्ध था,
जरा लगी थी आर पी लिया था। आज तुम्हारा रोआं-रोआं रोएगा। आज
तुम्हारा रोआं-रोआं तड़फेगा। एक-एक रोएं में तुम प्यास अनुभव करोगे, कण्ठ में नहीं। तुम्हारा सारा व्यक्तित्व, तुम्हारा
सारा होना प्यासमें रूपांतरित हो जाएगा।...तब परम व्याकुलता! जब ऐसे ही नहीं कि
तुम ऐसे ही बुलाते हो परमात्मा को कि आ जाओ तो ठीक, न आए तो
भी कोई बात नहीं...नहीं, ऐसे बुलाते हो जैसे रेगिस्तान में
कोई पानी को खोजता है, तड़पता है। मछली को डाल दो रेत पर पानी
से निकालकर,जैसे तड़पती है, वैसी परम
प्यास!
"सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना और भगवान का
थोड़ा-सा भी विस्मरण होन से परम व्याकुल होना...'।
अभी तो हमने जिसे प्यास समझा वह प्यास नहीं है। अभी तो जिसे धन समझा, धन नहीं है। अभी तो हमारी सारी समझ ही गलत है।
"हम भूल को अपनी इल्मोफन समझे हैं
गुरबत के मुकाम को वतन समझे हैं
मंजिल पे पहुंच के झाड़ देंगे इसको
ये गर्देसफर है जिसको तन समझे हैं।'
अभी तो हमारी सारी समझ उलटी है। अभी तो हम नासमझी को समझदारी समझते
हैं। अभी तो हम अहंकार को आत्मा समझे हैं। अभी तो हमने शरीर को अपना होना समझा है।
"हम भूल को अपनी इल्माफन समझे हैं
गुरबत के मुकाम का वतन समझे
हैं।'
रात-भर का पड़ाव है, ठहर जाने के लिए सराय है कि
धर्मशाला है, उसको हम घर समझे हैं।
"मंजिल पे पंहुच के झाड़ देंगे इसको'...
मंजिल पर पहुंचोगे तब पता चलेगा कि जैसे यात्री राह की धूल झाड़ देता
है, ऐसे ही यह सब जिसे तुम धन समझे हो, जिसे तुम अपना
समझे हो, यह सब झड़ जाएगा।
"ये गर्देसफर है जिसको तन समझे हैं'।
यह राह की धूल है, इससे ज्यादा नहीं। यह तुम नहीं
हो। तुम तो साक्षी हो। शरीर के पीछे जो शरीर को देखने वाला है, मन के पीछे जो मन को भी देखने वाला है--तुम तो वही परम साक्षी हो।
सब छोड़ दो परमात्मा पर। इनमें से कुछ भी अपना मत समझो। शरीर भी उसका
है--उसी पर छोड़ दो। मन भी उसका है--उसी पर छोड़ दो। कर्म भी उसी के हैं--उसी पर छोड़
दो। तुम कर्ता न रह जाओ, साक्षी हो जाओ।
तो नारद के हिसाब से, सब कर्मों को भगवान के अर्पण
करना और भगवान का थोड़ा-सा विस्मरण होने से परम व्याकुल होना...जरा हटे परमात्मा से
तो वही हालत हो जाए जो मछली की हो जाती है सागर से हटकर; जरा
भूले उसे तो तड़प हो जाए!
"ठीक ऐसा ही है'।
नारद कहते हैं, "ये सब जो परिभाषाएं हैं--ठीक ऐसा ही है'। ये सब परिभाषाएं ठीक हैं। इनमें कोई परिभाषा गलत नहीं है। सभी अधूरी हैं,
पूरी कोई भी नहीं । सभी ठीक हैं, गलत कोई भी
नहीं। भाषा का स्वरूप ऐसा है कि अधूरा ही रहेगा।
सत्य के इतने पहलू हैं कि तुम चुका न पाओगे, और एक आदमी एक ही पहलू की बात कर पाता है।
एक महाकवि की मृत्यु हुई, तो उसके मित्रों ने उसके मरने के पहले पूछा कि तुम्हारी कब्र पर क्या
लिखेंगे, तो उसने कहा, "लिख देना
सिर्फ एक शब्द--"अनफिनिश्ड' , अधूरा।'
वे पूछने लगे, "क्यों? क्या तुम सोचते हो,
तुम अधूरे मर रहे हो? क्योंकि तुम्हारे गीत
पूरे हैं। तुम्हारा यश पूरा, सम्मान पूरा। तुम एक सफल जिंदगी
जीए। तुमने खूब आदर पाया। क्या तुम भी अधूरे मर रहे हो?'
तो उस कवि ने कहा, "इससे कुछ भी फर्क नहीं
पड़ता कि कितना हमने किया, कितना गाया; कुछ
भी करो, जीवन का स्वभाव अधूरा है। हारे हुए तो यहां हारे हुए
जाते ही हैं,जीते हुए भी हारे हुए ही जाते हैं। गरीब तो गरीब
मरते हैं, अमीर भी गरीब मरते हैं। जिनके पास नहीं है,
वे तो अधूरे रहते ही हैं, जिनके पास है वे भी
अधूरे रहते हैं। क्योंकि यह जीवन का स्वभाव अधूरा है।
ऐसे ही मैं तुमसे कहूंगा, भाषा का स्वभाव अधूरा
है। कुछ भी कहोगे, वह पूरा चुकता न हो पाएगा। बड़ी बातें छोड़ो,
एक छोटे-से गुलाब के फूल के संबंध में भी पूरी बातें नहीं कही जा
सकतीं। अगर एक छोटे-से गुलाब के फूल के संबंध में तुम पूरी-पूरी बात कहना चाहो तो
तुम्हें पूरे ब्राह्माण्ड के संबंध में जो भी है, सब कुछ वह
कहना पड़ेगा, तभी उस गुलाब के संबंध में पूरी बात होगी,
क्योंकि उसकी जड़ें जमीन से जुड़ी हैं, उसकी
पंखुड़ियां सूरज से जुड़ी हैं, उसकी श्वास हवाओं से जुड़ी है,
उसके भीतर बहती रसधर बादलों से जुड़ी है, सागरों
से जुड़ी है।
तुम अगर एक छोटे-से गुलाब के फूल के संबंध में सब कहना चाहो तो तुम
बड़ी अड़चन में पड़ जाओगे--तुम पाओगे कि यह तो धीरे-धीरे पूरे ब्रह्माण्ड के संबंध
में सब कहना हो जाएगा।
नहीं, पूरा कहना असंभव है। सत्य बहुत बड़ा है, कथनी बड़ी छोटी है।
जीवन में परमात्मा को छोड़कर सब मिल सकता है--और तुम अधूरे रहोगे, उदास रहोगे, दुखी रहोगे, पीड़ित
रहोगे। और कुछ भी न मिले, परमात्मा मिल जाए तो पूरा मिल जाता
है। क्योंकि परमात्मा खंड-खंड नहीं हो सकता; मिलता है तो
पूरा, नहीं मिलता है तो नहीं।
मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते हैं,
"मेरे पास सब है, लेकिन बड़ी उदासी है। अब
क्या करें? जब नहीं थी इतनी व्यवस्था तब तो एक आसरा भी था कि
कभी जब सब होगा तो सब ठीक हो जाएगा, वह आसरा भी छिन गया'।
"मयकदों के भी आसपास रही
गुलरुखों से भी रूसनास रही
जाने क्या बात थी इस पर भी
जिंदगी उम्र-भर उदास रही'।
मधुशालाएं पास थीं, दूर नहीं। सुंदर मुखड़ों वाले लोग
निकट थे, परिचय था उनसे...।
"मयकदों के भी आसपास रही...'
फूल के जैसे सुंदर चेहरे वाले व्यक्त्विो से भी परिचय रहा, मुलाकात रही; मधुशाला में भी विस्मरण किया; प्रेम में भी डूबे--
"जाने क्या बात थी इस पर भी...'
फिर भी कुछ बात--
"जाने क्या बात थी इस पर भी
जिंदगी उम्र भर उदास रही'।
रहेगी ही! उदासी तो उसी की मिटती है जो भक्ति को उपलब्ध हुआ; उसी की मिटती है जो भगवान को उपलब्ध हुआ; उसी की
मिटती है जिसने जाना कि मैं अलग नहीं हूं, जो अनन्यता को
उपलब्ध हुआ!
अन्यथा, तुम जो भी करोगे...। करते लोग बहुत कुछ हैं, अथक श्रम करते हैं, सब व्यर्थ जाता है। इतने श्रम से
तो परमात्मा मिल सकता है जिससे तुम कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर पाते हो। तुम्हें देखकर
रोना भी आता है, हंसी भी आती है। हंसी आती है कि कैसा पागलपन
है! इतने श्रम से तो मंदिर बन जाता, इसे तुमने धर्मशाला
बनाने में गंवाया। इतने श्रम से परमात्मा उतर आता; भिक्षा
पात्र ले कर तुम कंकड़-पत्थर इकट्ठे करते रहे! इतने श्रम से तो अमृत्व को उपलब्ध हो
जाता, इससे तुम गंदे-नालों का पानी ही इकट्ठा करते रहे।
मौत जब आती है तब तुम्हें पता चलेगा, लेकिन तब बहुत देर हो
जाती है।
तुमसे मैं कहता हूं: जागो अभी!
मौत तो जगाती है, पर तब समय नहीं बचता--परमात्मा
का स्मरण करने का भी समय नहीं बचता! मौत आती है तब पता चलता है: "अरे! यह तो
गंवाना हो गया!'
यह सब पड़ा रह जाएगा जो इकट्ठा किया, चले तुम अकेले। अकेले
आये: अकेले चले! पानी पर खींची लकीरें हो गई सारी जिंदगी।
"वाए नादानी कि वक्ते-मर्ग से साबित हुआ'।
ख्वाब था जो कुछ भी देखा, जो सुना अफसाना था।'
मरते वक्त...!
"वाए नादानी कि वक्ते-मर्ग ये साबित हुआ।'
यह मूढ़ता सिद्ध हुई मरते वक्त, यह नादानी पता चली
मरते वक्त, यह नासमझी खयाल में आई मरते वक्त--
"ख्वाब था जो कुछ कि देखा'...
जो देखा, वह सपना था...
..."जो सुना अफसाना था।'
और जो बात सुनते रहे, वह सिर्फ कहानी थी। हाथ खाली रह
गए!
अकसर तो ऐसा है कि लेकर तो तुम कुछ न जाओगे, जो लेकर आये थे, शायद उसे भी गंवा कर जाओ।
बच्चे पैदा होते हैं, मुट्ठी बंधी होती है; मरते वक्त मुट्ठी खाली होती है, खुली होती है। बच्चा
कुछ लेकर आता है--कोई ताजगी, कोई कमल के फूलों जैसा निर्दोष
भाव, कुछ भोलापन--वाह भी गंदा हो जाता है। बच्चा आता है
दर्पण की तरह ताजा-नया, धूल जम जाती है जिंदगी की, वह भी खो जाता है।
हम जिंदगी में कमाते नहीं, गंवाते हैं--बड़ा अजीब सौदा करते हैं!
जो मौत के पहले जग जाए वही धार्मिक हो जाता है। जो मौत तुम्हें
दिखाएगी, वह तुम अपनी समझदारी में देख लो, अपने होश में देख लो, मौत को दिखाने की जरूरत न पड़े,
तो तुम्हारी जिंदगी में एक क्रांति घटित हो जाती है।
"ठीक ऐसा ही है, जैसे ब्रजगोपियों
की भक्ति!'
"इस अवस्था में भी गोपियों में माहात्म्यज्ञान की
विस्मृति का अपवाद नहीं।'
इसे समझना।
"उसके बिना, भगवान को भगवान
जाने बिना किया जाने वाला ऐसा प्रेम जारों के प्रेम के समान है।'
"उसमें, जार के प्रेम में,
प्रियतम के सुख से सुखी होना नहीं है।'
..."जैसे ब्रजगोपियों की भक्ति।'
कृष्ण के प्रेम में, कथा है, सोलह
हजार गोपियों की। संख्या तो सिर्फ असंख्य का प्रतीक है। लेकिन गोपियों के प्रेम को
समझना जरूरी है, क्योंकि भक्त वैसी ही दशा में फिर पहुंच
जाता है। कृष्ण का होना शरीर में आवश्यक नहीं है। यह तो भक्त का भाव है जो कृष्ण
को मौजूद कर लेता है। कृष्ण के होने का सवान नहीं है; ये तो
हजारों गोपियों की प्रार्थनाएं हैं, जो कृष्ण को शरीर में
बांध लेती हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
राधा कृष्ण के साथ ही नाची; मीरा को जरा भी तकलीफ
न हुई, कृष्ण के बिना भी वैसा ही नाच नाची, और कृष्ण के साथ ही नाची। और अगर गौर करो, तो मीरा
की गइराई राधा से भी ज्यादा मालूम पड़ती है, क्योंकि राधा के
लिए तो कृष्ण सहारे के लिए मौजूद थे, मीरा के लिए तो कोई भी
मौजूद न था। मीरा के भगवान तो उसके भाव का ही साकार रूप थे। मीरा के भगवान तो मीरा
ने अपने को ही ढालकर बनाए थे, अपने को ही निछावर करके
निर्मित किए थे।
कृष्ण मौजूद हो और तुम राधा बन जाओ, तुम्हारी कोई खूबी
नहीं, कृष्ण की खूबी होगी। कृष्ण मौजूद न हों और तुम मीरा बन
जाओ, तो तुम्हारी खूबी है, कृष्ण को
आना पड़ेगा।
भक्त खींचता है भगवान को रूप में। भक्त भगवान को गुणों के जगत में, पृथ्वी पर ले आता है।
कैसी थी ब्रजगोपियों की भक्ति?
एक क्षण को भी विस्मरण हो जाए तो रोती हैं। एक क्षण को भी कृष्ण न
दिखाई पड़े तो तड़फती हैं। लेकिन ऐसा तो साधारण प्रेम में भी कभी हो जाता है: प्रेमी
न हो, प्रेयसी तड़फती है;प्रेयसी न हो
तो प्रमी तड़पता है।
फर्क क्या है ब्रज की गोपियों की भक्ति में और साधारण प्रेमियों की
भक्ति में? फर्क इतना है कि ब्रजगोपियां कृष्ण के प्रेम में हैं,
लेकिन परिपूर्ण होशपूर्वक कि कृष्ण भगवान हैं। वह प्रेम किसी
व्यक्ति को प्रेम नहीं, भगवत्ता का प्रेम है। अन्यथा फिर
साधारण प्रेम हो जाएगा।
कृष्ण को भी तुम ऐसे प्रेम कर सकते हो जैसे वे शरीर हैं, तुम्हारे जैसे ही एक व्यक्ति हैं। तब कृष्ण मौजूद भी हों तो भी तुम चूक
गए।
रुक्मणी कृष्ण की पत्नी है, लेकिन रुक्मणी का नाम
कृष्ण के साथ अकसर लिया नहीं जाता--लिया ही नहीं जाता। सीता का नाम राम के साथ
लिया जाता है। पार्वती का नाम शिव के साथ लिया जाता है। कृष्ण का नाम रुक्मणी के
साथ और रुक्मणी का नाम कृष्ण के साथ नहीं लिया जाता। और राधा उनकी पत्नी नहीं है,
याद रखना। राधा का नाम लेना बिलकुल गैरकानूनी है, कृष्ण-राधा कहना, राधा-कृष्ण कहना बिलकुल गैरकानूनी
है, नाजायज है, नियम के बाहर है। वह
उनकी पत्नी नहीं है। पर क्या बात है, रुक्मणी कैसे विस्मृत
हो गई? रुक्मणी कैसे अलग-थलग पड़ गई?
रुक्मणी पत्नी थी और कृष्ण में भगवान को न देख पायी, पुरुष को ही देखती रही--बस ही चूक हो गई। वहीं राधा करीब आ गई जहां
रुक्मणी चूक गई।
सौराष्ट्र में एक जगह है--तुलसीश्याम। वहां ध्यान का एक शिविर हुआ। तो
जब मैं वहां गया तो जिस तलहटी में शिविर हुआ था वहां कृष्ण का मंदिर है। और ऊपर
पहाड़ी की चोटी पर एक छोटा सा मंदिर है, तो मैंने पूछा कि वह
मंदिर किसका है। कहा, "वह रुक्मणी का है'।
"उतने दूर! कृष्ण का मंदिर इधर मील दो मील के
फासले पर!'
पुजारी उत्तर ना दे सके। उन्होंने कहा कि यह तो पता नहीं।
रुक्मणी दूर पड़ती गई। वह कृष्ण को पुरुष ही मानती रही, पुरुषोत्तम न देख पाई, पुरुष ही दिखाई पड़ता रहा,
पति ही दिखाई पड़ता रहा। गहनर् ईष्या में जली रुक्मणी, जैसा पत्नियां अकसर जलती है। वह मंदिर भी इस ढंग से बनाया गया है कि वहां
से वह नजर रख सकती है कृष्ण पर। बिलकुल ठीक ढंग से बनाया है, जिसने भी बनाया है बड़ी होशियारी से बनाया है। पत्नी वहां दूर बैठी है और
देख रही है। राधा और गोपियां और कृष्ण के पास प्रेमियों का और प्रेयसियों का इतना
बड़ा जाल: रुक्मणी जली! बड़े दुख में पड़ी। कृष्ण की भगवत्ता न देख पाई। तो प्रेम
साधारण हो गया--प्रेम रह गया, भक्ति न बन पाई।
प्रेम कब भक्ति बनता है?
जैसे ही प्रेमी में भगवान दिखाई पड़ता है, वैसे ही प्रेम भक्ति बन जाता है। कृष्ण का होना जरूरी थोड़े ही है! क्योंकि
कृष्ण के होने में अगर यह बात होती तो रुक्मणी को भी भक्ति उपलब्ध हो गई होती।
तो, मैं तुमसे कहता हूं, इससे उलटा
भी हो सकता है। तुम अपने प्रेमी में, अपने पति में, अपनी पत्नी में, अपने बेटे में, अपने मित्र में, कहीं वही भूल तो नहीं कर रहे हो तो
रुक्मणी ने की? सोचना। कहीं वही भूल तो नहीं हो रही है?
मैं तुमसे कहता हूं, वही भूल हो रही है, क्योंकि उसके सिवाय कोई भी नहीं है। "वही' सब
में छिपा है। जरा खोदो, जरा गहरे उतरो। जरा दूसरे में डुबकी
लो। जरा अनन्यता के भाव को जगने दो। और तुम अचानक पाओगे: वही भूल, रुक्मणी की भूल, सारे संसार से हो रही है। सभी के
पास कृष्ण खड़ा है--सभी के पास भगवान खड़ा है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। लेकिन बाहर तुम्हारी आंखें देखने की आदी हैं, कम से कम बाहर तो उसे देखो। एक दफा पुरुष खो जाए और परमात्मा दिखाई पड़े;
पुरुष खो जाए, पुरुषोत्तम दिखाई पड़े...!
तो नारद कहते हैं, "जैसे ब्रजगोपियों की भक्ति
इस अवस्था में भी गोपियों मग माहात्म्यज्ञान की विस्मृति का अपवाद नहीं हैं'।
हालांकि वे दीवानी थीं, पागल थीं प्रेम में,
लेकिन एक क्षण को भी भूलीं नहीं कि कृष्ण भगवान हैं; उतनी बेहोशी में भी होश रहा, अपवाद नहीं है; यह बात तो कभी न भूलीं कि कृष्ण भगवान हैं; यह बात
तो याद ही रही; लड़ीं भी, झगड़ी भी,
रूठीं भी, लेकिन यह बात तो याद रही कि कृष्ण
भगवान हैं।
उतनी ही बात प्रेम को भक्ति की ऊंचाई पर उठा देती है।
"उसके बिना, भगवान को भगवान
जाने बिना, किया जाने वाला प्रेम जारों के प्रेम के समान है।
"उसमें जार के प्रेम में प्रियतम के सुख से सुखी
होना नहीं है'।
थोड़ा आगे बढ़ो! थोड़े गहरे जाओ!
"हरम से कुछ आगे बढ़े तो देखा
जबीं के लिए आस्तां और भी हैं
सितारों के आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं'।
प्रेम जब तक भक्ति न बन जाए तब तक जानना "अभी इश्क के इम्तिहां
और भी हैं,' अभी और भी परिक्षाएं पार करनी हैं प्रेम की। प्रेम
पर मत रुक जाना।
प्रेम कली है, भक्ति फूल है। प्रेम मर मत रुक जाना।
"अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं
सितारों के आगे जहां और भी हैं।'
जब तक प्रेम तुम्हारा भक्ति न बन जाए, जब तक प्रेमी में
तुम्हें भगवान न दिखाई पड़ जाए--तब तक रुकना मत; तब तक
मस्जिद-मंदिरों में ठहर मत जाना।
"हरम के आगे बढ़े तो देखा
जबीं के लिए आस्तां और भी हैं।'
मंदिर-मस्जिद से पार जाना है! सीमा से पार जाना है! संप्रदाय से पार
जाना है! मत-मतांतर से पार जाना है!
प्रासंगिक दिखाई पड़ती है बात कि हम कहीं मंदिर-मस्जिदों में, आकारों में, सीमाओं में, गुणों
में उलझे हैं-- और इसलिए वह जो उनके भीतर छिपा है, हमारे हाथ
से चूका जा रहा है, पकड़ में नहीं आता। खोल ही दिखाई पड़ती है।
ऊपर का सांयोगिक असार ही दिखाई पड़ता है, भीतर का सार,
स्वभाव, स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता।
"उसके बिना, भगवान को जाने
बिना, किया जानेवाला ऐसा प्रेम जारों के प्रेम के समाान है'।
"उसमें, जार के प्रेम में,
प्रियतम के सुख से सुखी होना नहीं है'।
फर्क क्या है?
जब तुम प्रेम करते हो--साधारण प्रेम, जिसे हम प्रेम कहते
हैं--तो तुम अपने सुख की फिक्र कर रहे हो; तुम प्रेमी का
उपयोग कर रहे हो। भक्ति प्रेमी के सुख की चिंता करती है, बपने
को समर्पित करती है। प्रेम में तुम प्रेमी का उपयोग करते हो साधन की तरह, अपने सुख के लिए। भक्ति में तुम साधन बन जाते हो प्रेमी के, उसके सुख के लिए।
भक्ति समर्पण है। भक्त फिर भगवान के लिए जीता है।
कबीर ने कहा है, जैसे बांस की पोली पोंगरी खुद
गीत नहीं गाती, फिर परमात्मा के ही गीत उससे बहते हैं। बांस
की पोंगरी तो सिर्फ पोली है, राह देती है, जगह देती है, स्थान देती है, रुकावट
नहीं देती।
तो कबीर ने कहा है, "अगर गीत में कहीं कोई अड़चन
आती हो तो मेरी बांस की पोंगरी की भूल समझना, कहीं कोई गड़बड़
होगी। तुम तो गीत ठीक ही ठीक गाते हो; अड़चन आती होगी,
बाधा पड़ती होगी, मेरे कारण पड़ जाती है। कसूर
हो तो मेरा, भूल-चूक हो तो मेरी; जो भी
ठीक हो, तेरा! दुखी होता हूं तो मैं अपने कारण, सुखी होता हूं तो तेरे कारण। बंधता हूं तो अपने कारण, मुक्त होता हूं तो तेरे कारण। नरक बनता हूं तो मैं, स्वर्ग
तो सब तेरा प्रसाद है!'
प्रेम अपने सुख की तलाश है इसलिए प्रेम दुख में ले जाता है। जो अपने
सुख की तलाश कर रहा है, वह "मैं' को पकड़े हुए है।
और "मैं' सारे दुखों का निचोड़ है। वही तो कांटा है,
चुभता है। जिसने प्रेमी के सुख को सब कुछ माना, जिसने सब प्रेमी के सुख पर निछावर किया, उसके जीवन
में कोई दुख नहीं।
तुम जब तक अपना सुख खोजोगे, दुख पाओगे। जिस दिन
तुम परमात्मा का सुख खोजने लगे कि वह जिसमें सुखी हो, वही
मेरा सुख...।
जीसस को सूली लगी, एक क्षण को कंप गए और उन्होंने
कहा, "हे भगवान यह मुझे क्या दिखला रहा है?' फिर संभल गए और कहा, "तेरी मर्जी पूरी हो!'
उसी क्षण क्रांति घटी। उसी क्षण जीसस का साधारण मनुष्य रूप खो गया,
उधर परमात्मा रूप प्रकट हुआ। सूली स्वीकार हो गई तो सिंहासन हो गई।
जीसस की सूली से ऊंचा सिंहासन तुमन कहीं देखा? जीसस की सूली से बहुमूल्य सिंहासन तुमने कहीं देखा?
...मृत्यु महाजीवन का द्वार बन गई। इधर अहंकार गया,
उसर परमात्मा प्रविष्ट हुआ। अपने सुख को खोजने का अर्थ है: अहंकार
अभी भी खोज रहा है। उसके सुख को खोजना जब शुरू हो जाए, भक्त
तब ऐसे जीने लगता है जैसे बांस की पोंगरी; बांसुरी बन जाता
है: सब स्वर "उसी' के हैं। फिर कोई दुख नहीं है। फिर
कोई नरक नहीं है। फिर अंधेरा भी रोशन है। फिर मौत भी और नये जीवन की शुरूआत है।
फिर कांटों में भी फूल दिखाई पड़ने लगते हैं, कांटे भी फूल हो
जाते हैं। फिर दुख अनुभव में आता ही नहीं। फिर हैरानी होती है यह देखकर कि लोग
दुखी क्यों हो रहे हैं!
सब उपलब्ध है। महोत्सव की तैयारियां हैं और लोग दुखी हो रहे हैं।
परमात्मा गीत गाने को तैयार है। उसके ओंठ फड़क रहे हैं। तुम्हारी बांसुरी तैयार
नहीं है। तुम खाली नहीं हो, तुम भरे हो!
अहंकार से खाली होते ही "उसका' प्रवेश हो जाता है।
आज इतना ही।
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