पारस नाम अमोल है—(प्रवचन—सातवां)
प्रातः, 7 अक्टूबर, 1975;
श्री ओशो आश्रम, पूना.
सारसूत्र :
मोह
मिरग काया बसै, कैसे उबरै खेत।
जो
बावै सोई चरै, लगैं न हरि सू हेत।।
प्रभुताई
कूं चहत है, प्रभु को चहै न कोइ।
अभिमानी
घट नीच है, सहजो ऊंच न होइ।।
सदा
रहै चितभंग ही, हरिदै थिरता नाहिं।
रामनाम
के फल जिते, काम लहर बहि जाहिं।।
पारस
नाम अमोल है, धनवंते घर होय।
परख
नहीं कंगाल हूं, सहजो डारे खोय।।
सहजो
सुमिरन कीजिये, हरिदै माहिं दुराय।
होठ
होठ सूं ना हिलै, सकै नहीं कोइ पाय।।
रामनाम
यूं लीजिये, जानै सुमिरनहार।
सहजो
कै करतार ही, जानै ना संसार।।
पारस
नाम अमोल है
एक
अति प्राचीन कथा है।
एक महानगर था। बड़ा उसका विस्तार था।
दूर क्षितिज तब फैली हुई उसकी सीमाएं थीं। लेकिन कहते हैं, हाथ की हथेली में समा जाए इतना बड़ा ही था वह। ऊंचे उसके भवन थे। आकाश को
छूती गगनचुंबी इमारतें थीं। लेकिन, प्याज की गांठ से ज्यादा
उसकी ऊंचाई न थी। करोड़ों लोगों का वास था उसमें। लेकिन, जो
ठीक से गिनती कर सकते थे, उन्होंने सदा उसकी गिनती तीन मानी।
तीन से ज्यादा लोग कहां नहीं थे।
संकट के क्षण थे। अफवाह थी कि दुश्मन
हमला कर रहा है। तो सारी जनता इकट्ठी हुई, नगर के मध्य के विशाल
मैदान में, निर्णय करने को। क्या करना है। लेकिन जिनके पास
आंखें थीं उन्होंने देखा, तीन लोग ही आए। और वे तीन लोग थे
बड़े अजीब से थे। भिखमंगे मालूम पड़ते थे। चेहरे उनके विक्षिप्त जैसे लगते थे,
जैसे वर्षों से नहाये-धोये न हों।
और उन तीनों ने विचार-विमर्श किया।
पहला बड़ा दूरदृष्टि था। एक महाविचारक
की तरफ उसकी ख्याति थी। उसे चांदत्तारों पर चलती चींटियों के पैर भी दिखायी पड़ते
थे, यद्यपि आंख के सामने खड़ा हिमालय दिखायी नहीं पड़ता था। कहते हैं, वह जो दूरदृष्टि व्यक्ति था, वह निपट अंधा था। उसने दूरदृष्टि
के नाम से अपने अंधेपन को छिपा लिया था। पास का तो दिखायी नहीं पड़ता, इसलिए वह दूर का दावा करता था। दूर का किसी को भी दिखायी नहीं पड़ता था,
इसलिए कोई विवाद खड़ा नहीं होता था। छोटी-मोटी बातों में वह न पड़ता
था। बड़े सिद्धांतों की उसकी चर्चा थी। जीवन के काम आ सके, ऐसी
उसने कोई बात कभी कही ही नहीं। परमात्मा, स्वर्ग, मोक्ष, इनसे नीचे वह उतरा ही न था। था परिपूर्ण अंधा,
लेकिन ख्याति थी दूरदृष्टि दार्शनिक की।
उनमें जो दूसरा व्यक्ति था, उसे चांदत्तारों का संगीत सुनायी पड़ता था; यद्यपि
सिर के ऊपर गरजते बादलों की उसे कोई खबर न होती थी। वह महाबधिर था। उसे सुनायी
पड़ता ही नहीं था। और, अपने बहरेपन को छिपाने के लिए उसे
सूक्ष्म-संगीत के शास्त्र खोज लिए थे, जो किसी को भी सुनायी
नहीं पड़ते थे, बस उसे ही सुनायी पड़ते थे।
और उनमें जो तीसरा आदमी था, वह बिलकुल नंगा था। कहने को उसके पास एक लंगोटी भी न थी। लेकिन वह सदा एक
नंगी तलवार अपने हाथ में लिए रहता था, क्योंकि उसे डर था,
कोई उसकी संपत्ति न छीन ले। चारों से वह सदा भयभीत था।
इन तीनों ने विचार-विमर्श किया।
पहले ने अपनी अंधी आंखें दूर आकाश की
तरफ लगायी। उन आंखों में प्रकाश की कोई एक किरण भी न झलकती थी। पर, उसने कहा कि मैं देख रहा हूं, दूर पहाड़ों में छिपा
हुआ दुश्मन बढ़ रहा है, संकट करीब है। न केवल मैं यह देख रहा
हूं कि किसी जाति के लोग हमला करने आ रहे हैं, मैं उनकी
संख्या भी बता सकता हूं। खतरा बहुत करीब है और जल्दी कुछ व्याख्या करनी आवश्यक है।
बहरे ने अपने कान उस तरफ लगाए, जहां अंधे ने अपनी आंखें लगा दी थीं। न अंधे के पास आंखें थीं, न बहरे के पास कान थे। और उसने कहा कि मुझे उनकी आवाज सुनायी पड़ती है,
पैरों की पगध्वनि सुनायी पड़ती है। इतना ही नहीं, वे क्या बात कर रहे हैं वह भी मुझे सुनायी पड़ रहा है। और इतना ही नहीं,
कौन-सी बातें हृदय में छिपा रखीं हैं और किसी से भी नहीं कहीं,
उन्हें भी मैं सुन पा रहा हूं। प्रगट तो मुझे सुनायी पड़ रहा है,
अप्रकट भी मुझे सुनायी पड़ रहा है। खतरा भयंकर है।
नंगा आदमी उछलकर खड़ा हो गया। उसने
अपनी तलवार घुमानी शुरू कर दी। उसने कहा कि मैं निश्चित जानता हूं दुश्मन किसलिए आ
रहा है। हमारी संपत्ति पर उनकी नजर लगी है। चाहे प्राण रहें कि जाए, लेकिन संपत्ति की रक्षा करनी होगी। और तुम बेफिकर रहो, यह मेरी तलवार, ये तलवार किसलिए है।
ऐसी एक बड़ी प्राचीन कथा है। इसे जब भी
मैंने पढ़ा है बड़ी मधुर और प्रीतिकर लगी है। बड़े इंगित छिपे हैं, बड़ी अर्थपूर्ण है।
ये तीन आदमी तुम हर एक आदमी के भीतर
पाओगे। मनुष्य को हमने पुरुष कहा है। पुरुष का अर्थ होता है: महानगर। पुर से बना
है पुरुष। पुर का अर्थ होता है: नगर। मनुष्य एक नगर है। बड़ी वासनाएं हैं उसकी, बड़ी कामनाएं हैं, तृष्णाओं का जाल क्षितिज के आगे
निकल जाता है। लेकिन एक हथेली में समा जाए, इतना ही उसका
विस्तार है। और बड़े ऊंचे स्वप्न उठते हैं उसमें--आकाश को छू लें--लेकिन आज प्याज
की गांठ से ऊंचाई ज्यादा नहीं जाती। और इस नगर में करोड़ों-करोड़ों जीवन है--एक
व्यक्ति में कोई सात करोड़ जीवित अणु हैं। लेकिन, अगर तुम
गिनती करने जाओगे, तो तुम तीन ही पाओगे। उन तीन के नाम
तुम्हें परिचित हैं। एक का नाम है काम, एक का नाम है लोभ,
एक का नाम है मोह। और अगर इन तीन में भी तुम और गहरे झांकोगे,
तो जैसे त्रिमूर्ति तो विदा हो जाती है और सिर्फ परमात्मा रह जाता
है, ऐसा काम, लोभ, मोह इन तीनों में गौर से झांकोगे, तो ये सब भय की ही
त्रिमूर्तियां हैं। इनके भीतर तुम भय को छिपा पाओगे।
भय ही लोभ बन जाता है। भय की काम बन
जाता है। भय ही मोह बन जाता है। क्योंकि भयभीत आदमी अकेले होने में डरता है, इसलिए मोह के संबंध निर्मित करता है। पत्नी, पति,
भाई, मित्र, बंधु,
बेटा, मां, जाति,
वर्ण, समाज, देश ऐसे
बनाता जाता है। ये मोह के फैलाव हैं। अकेले में डर लगता है। अकेले में भीतर का भय
प्रकट होता है। किसी के साथ होते हैं, साथ-संग में फूल जाता
है, डूब जाते हैं।
इसी भीतर के भय के कारण कामवासना का
जन्म होता है। कामवासना का अर्थ है, भय चेष्टा कर रहा है
कुछ पाने की, जिससे कि भय से साक्षात्कार न हो। धन पाने की,
पद पाने की, प्रतिष्ठा पाने की, प्रेम पाने की चेष्टा कर रहा है ताकि भीतर का खालीपन जो भयभीत कर देता है,
वह भर जाए। बाहर भरने की कोशिश मोह, भीतर भरने
की कोशिश काम। और, लोभ पैदा होता है भय से। जो है यह छूटे न,
जो नहीं है वह मिल जाए। जो है उसे पकड़े रहूं, उसमें
से रतीं भर खो न जाए; और जो नहीं है वह सब मिल जाए, उसमें से रत्ती भर छूट न जाए।
इस त्रिमूर्ति के पीछे--काम, मोह, लोभ के पीछे तुम भय का छिपा पाओगे। और बड़े
आश्चर्य की बात यह है, जब तुम जनमते हो कुछ लेकर नहीं आते,
जब तुम मरोगे कुछ लेकर न जाओगे--नग्न आते हो तुम, नग्न जाते हो तुम--और में नाहक ही तलवार घुमाते हो। पास कुछ भी नहीं है,
लेकिन चोर से बड़े भयभीत हो। कोई छीन न ले।
जो तुम्हारे पास है ही नहीं, उसके छीनने का तुम्हें डर क्यों पैदा होता है? इसके
पीछे बड़ी गहरी बात छिपी है। उस डर का पैदा करके तुम यह मान लेते हो, तुम्हारे पास जरूर कुछ है। अन्यथा, लोग छीनने को
उत्सुक क्यों हैं? इस जटिल तर्क को समझने की कोशिश करो।
पहले तुम सोचते हो कि दूसरा छीनने आ
रहा है, बिना यह सोचे कि मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो कोई
छीन ले। खाली हाथ हूं। है क्या तुम्हारे पास? किसके पास क्या
है? और जो है, वह कभी छीना जा सकता है?
तुम ही हो वह। उसे छीनने का कोई उपाय नहीं। जो नहीं है वही छीना जा
सकता है? तुम ही हो वह। उसे छीनने का कोई उपाय नहीं। जो नहीं
है वही छीना जा सकता है, क्योंकि वह भांति है। लेकिन दूसरा
पास आता है, तुम डरते हो कि शायद कुछ छीनने आ रहा है;
ऐसे ही डर के कारण तुम्हें एक एहसास, एक
भ्रांति पैदा होती है कि जरूर मेरे पास कुछ होना चाहिए, अन्यथा
वह छीनने क्यों आ रहा है? तुम बचने में लग जाते हो। तुम
बचाने में लगते हो तो दूसरा आदमी भी सोचता है, वही जैसा तुम
सोचते हो कि जरूर तुम छीनने का इंतजाम कर रहे हो।
बड़ी पुरानी मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
है। गुजर रहा था एक गांव के पास से कि
उधार से एक बारात आते देखी--बैंड-बाजे, नंगी तलवारें चमकती
हुई, लोग गाते-नाचते--डरा। समझा कि दुश्मन आ गया। तलवारें
बैंड-बाजे! और फिर जब भय होता है तो आंखें वह नहीं देखती जो है। उसे फिर युद्ध के
ही सब साज-समान दिखायी पड़े।
वैसे भी दूल्हा जाता है तो साज-समान
सब युद्ध का ही होता है। छुरा लटका देते हैं दूल्हे के पास, क्योंकि पुराने दिनों में दुल्हन को लाना एक तरह का बलात्कार था। वह कोई
प्रेम तो नहीं था, वह तो जबरदस्ती थी। घोड़े पर बैठकर,
छुरीत्तलवार लटका कर, पागल दुल्हन को लेने
जाएंगे। ये कोई समझ की बात है? तो बैंड-बाजे--युद्ध का सबूत,
और बाराती जो थे सब लफंगे गांव के। तो अभी भी बाराती में लफंगापन
होता है; भला आदमी भी आता है बारात में तो लफंगापन आ जाता
है। क्योंकि बारात में प्राचीन समय से लफंगे ही जाते रहे। कोई सज्जन आदमी बारात
में किसलिए जाएगा? और जाएगा तो उसमें लफंगापन उभर आएगा।
अच्छे से भले लोग, भले से भले आदमियों को ले जाओ बारात
में--मिनिस्टर हों, डाक्टर हों, इंजीनियर
हों--अचानक तुम पाओगे कि बारात कुछ बदल देती है, बारात में
सम्मिलित होते से बाराती में कुछ बड़बड़ हो जाती है। वह बाराती लिया ही इसलिए जाता
था कि वह दूल्हे के साथ लड़ने को तैयार था। लड़की को छीनना था। इसलिए लड़की का बाप
झुकता है। वह पुराना हिसाब है। वह झुकने के पीछे इतना ही कारण है कि छीनने की कोई
जरूरत नहीं, हम वैसे ही झुकने को राजी है। हम हार गए। इसलिए
लड़कीवाला नीचे, और लड़केवाला ऊपर। वे विजेता, और लड़कीवाला हारा हुआ।
आ रही थी बारात। नसरुद्दीन अकेला था।
शांत, एकांत क्षण। गांव के मरघट के पास था, घबड़ा गया। एक तो मरघट। वैसे ही डर रहा था, और दूसरे
ये दुश्मन चले आ रहे हैं। उचका, छलांग लगाकर मरघट की दीवाल
से एक नयी ताजी खोदी कब्र में लेट कर सो गया मरे को कौन मारता है। वे लोग निकल
जाएंगे, पता भी नहीं चलेगा। जहां इतने मुर्दे सो रहे हैं,
एक और पड़ा है; कौन फिकर करता है? और दीवाल भी है।
लेकिन, उन्होंने भी इस आदमी
को देख लिया कि एकदम से ये चौंका, छलांग लगायी, दीवाल के पार गया--वे भी शंकित हो गए कि कोई दुश्मन है। मालूम होता है
छिपा है। बम फेंक दे, कुछ भी कर दे! बैंड-बाजे उन्होंने बंद
कर लिए। जब उन्होंने बैंड-बाजे बंद किए जब तो नसरुद्दीन को पक्का भरोसा आ गया कि
बात ठीक थी, इन्होंने देख लिया मालूम होता है। वह सांस रोककर
पड़ रहा। बाराती सब आ गए, दीवाल पर चढ़कर देखने लगे कि आदमी
कहां गया। नसरुद्दीन के प्राण में और संकट पड़ गया कि जरूर मेरे ही पीछे पड़े हैं।
अब तो बिलकुल पक्का है। अपने रास्ते से जाओ! तुम्हें दीवाल पर चढ़ने की क्या जरूरत
है! और जब उन्होंने देखा कि ये आदमी एक ताजी कब्र में, जिंदा
आदमी, लेटा है--पेट हिल रहा है, सांस
चल रही है--उन्होंने कहा कोई शरारती है। पता नहीं इसका क्या इरादा है! घेर ली कब्र,
नीचे झुक गए चारों तरफ से। अब नसरुद्दीन कब तक सांस रोके? आखिर, उसने भी आंख खोली। तो उन्होंने पूछा, यहां क्या कर रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा, यही हम पूछना चाहते हैं। आप यहां क्या कर रहे हो?
उन्होंने पूछा, तुम ठीक-ठीक जवाब दो, तुम यहां आए कैसे?
नसरुद्दीन ने कहा, वही मैं भी पूछना चाहता हूं। तुम अपने रास्ते से जा रहे थे। तुम यहां आए
कैसे?
तब तक नसरुद्दीन को भीत बात साफ हो
गयी कि न तो ये मारनेवाले हैं, न मैं मारनेवाला हूं, हम एक-दूसरे से भयभीत हो गए हैं।
नसरुद्दीन ने कहा, मैं अब तुम्हें बता देता हूं। अपनी तरफ से भी जवाब दे देता हूं, तुम्हारी तरफ से भी। तुम मेरे कारण यहां हो, मैं
तुम्हारे कारण यहां हूं।
जीवन ऐसे ही चल रहा है। तुम दूसरे से
डरते हो, दूसरा तुमसे डरा है। और ऐसा डर पे डर बढ़ता चला जाता
है
अमरीका रूस से डरता रहता है, रूस अमरीका से डरता है। भारत पाकिस्तान से डरता रहता है, पाकिस्तान भारत से डरता है। रोज नेतागण वक्तव्य देते रहते हैं कि तुमने
हथियार खरीद लिए, तुमने यह कर लिया, तुमने
वह कर लिया, तुम्हें यह सहायता वहां से कैसे मिली? जैसे कि प्राण कंप रहे हैं। जैसे भय के अतिरिक्त जीवन में कुछ अर्थ नहीं
है और।
और इस भय के पीछे वे तीन चीजें छिपी
हैं। जो नहीं है उसे मान लिया है, है। जो है--ना कुछ, नंगापन, उसको जोर से पकड़ते हो कि कहीं कोई छीन न ले।
एक तो वह है ही नहीं, हो भी तो दो कौड़ी का है। उसको इतने जोर
से पकड़ते हो कि कहीं कोई छीन न ले! तुम्हारी पकड़ के कारण ही दूसरे को लगता है,
कोहनूर हीरा होगा हाथ में। कोई कौड़ियों को इस तरह मुट्ठी बांधता है?
कौड़ियां तो आदमी ऐसे ही छोड़ देता है।
दूसरा छीनने आता है, तुम्हें और भरोसा बढ़ता जाता है कि कोहनूर के पीछे पड़ा है नहीं तो इतनी जान
कोई जोखिम में डालता है? तुम खुद ही भूल जाते हो कि तुम्हारे
हाथ में कौड़ियों के सिवाय कुछ भी नहीं है।
फिर लोभ है, जो ऐसी बातें सुन लेता है जो कही ही नहीं गयी। धारणाएं बना लेता है जिनके
लिए तथ्य में कोई सहारा नहीं है।
मेरे पास लोग आते हैं। यद्यपि ध्यान
करने आते हैं, लेकिन आते तो बाजार से ही हैं। तो उनका लोभ तो भीतर
होता ही है। वस्तुतः ध्यान में भी लोभ के कारण ही उत्सुक होते हैं। धन से नहीं
मिला, शायद ध्यान से मिल जाए। घर बनाने से नहीं मिला,
शायद मंदिर बनाने से मिल जाए। रुपये गिनने से नहीं मिला, शायद के मनके गिनने से मिल जाए। मगर गिनती वही है। तो कभी-कभी ऐसा हो जाता
है कि मैं किसी को कहता हूं कि मिल जो, लेकिन ये मिलने की
आकांक्षा बाधा है। परमात्मा से मिलने में बड़ी आकांक्षा जो बाधा बन सकती है,
वह उसे पाने की। जरूरत से ज्यादा अधैर्य--कि मिल जाए, अभी मिल जाए। योग्यता के बिना शोरगुल मचाते हो। योग्यता होगी, उस दिन मिल जाएगा। ऐसे लोभियों को मैं एक कहानी कहता हूं--
मैं कहता हूं एक फकीर परमात्मा को
उपलब्ध हुआ। जब वह उपलब्ध हुआ, लोगों ने पूछा, कैसे पाया? उसने कहा, मैं तुम्हें
अपनी कहानी कह देता हूं--
मेरे पास बहुत धन था, बहुत संपदा थी। और मैं परमात्मा को पाने की आकांक्षा करता था। एक रात
मैंने देखा, एक देवदूत उतरा मेरे स्वप्न में और कहने लगा,
तुम किस चेष्टा में लगे हो? तो मैंने कहा,
मैं परमात्मा को खोज रहा हूं, बस, उसीकी तरफ जा रहा हूं।
तो उस देवदूत ने कहा, इतना बोझ-सामान लेकर तुम न पहुंच पाओगे। ये तो बहुत भारी है। तुम आकाश में
उड़ न सकोगे इसके कारण। ये सब छोड़ दो, तब तुम्हारी यात्रा हो
सकती है। ऊंचाई पर चढ़ना हो तो बोझ लेकर नहीं जाया जाता। और परमात्मा से तो ऊंची
कोई ऊंचाई नहीं। छोड़ो बोझ।
सुबह जागा तो, उस फकीर ने अपने शिष्यों को कहा कि मैं सुबह जागा तो मैंने सब धन छोड़ दिया,
सिर्फ एक लंगोटी बचा ली। रात फिर सपना आया, फिर
वही देवदूत। उसने पूछा, अब क्या इरादे हैं? तो मैंने कहा, जो तुमने कहा वह मैंने पूरा किया। सब
छोड़ दिया। उस देवदूत ने कहा, लेकिन यह लंगोटी तुमने कैसे बचा
ली?
सब में लंगोटी न आयी।
तो मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारा सब लंगोटी में बज जाएगा। तुम्हारी जीतनी पकड़ थी धन पर, मकान पर, वह सारी की सारी पकड़ अब लंगोटी में आ
जाएगी। मुट्ठी तो तुम्हारी वही रहेगी। तुमने हीरे छोड़ दिए, लंगोटी
पकड़ ली। इससे न चलेगा। लंगोटी की क्या जरूरत परमात्मा के पास ले जाने की? नग्न उसने तुम्हें भेजा, नग्न वह तुम्हें स्वीकार कर
लेगा। वह कोई जमीन के कानून थोड़े ही मानता है कि कहां नंगे चले आ रहे हो? नहीं तो महावीर को प्रवेश ही नहीं करने देता। डायोजनीज को बाहर से निकाल
देता।
उसने तुम्हें पैदा किया है, उससे क्या छिपाना है? लंगोटी किसलिए? या तो तुम कुछ छिपाना चाहते हो, या अपने मोह को छोड़
नहीं पाते, चलो लंगोटी पर ही लटका लेंगे।
इतनी खूंटी भी काफी है। यह भी छोड़ो।
जिसको उसकी यात्रा करनी है, उसे परिपूर्ण शून्य होकर जाना होता है।
दूसरे दिन सुबह फकीर ने लंगोटी भी छोड़
दी। रात सोया, फिर स्वप्न पाया, देवदूत दिखायी
पड़ा। उसने पूछा,अब क्या इरादे हैं? फकीर
ने कहा, अब क्या इरादा है! वहीं जा रहा हूं, परमात्मा को खोजने को। उसने कहा, अब जाने की कोई
जरूरत नहीं। अब तुम जहां हो वहीं रहो, परमात्मा खुद आ जाएगा।
अब तक जाने की जरूरत थी, क्योंकि तुम बोझ से लदे थे। इसलिए
मैंने तुमसे कहा, बोझ छोड़ो अगर जाना है। और अब तुमने सभी छोड़
दिया। अब जाने का कोई सवाल ही नहीं है। अब उसे जब आना होगा, आ
जाएगा?
जिस दिन तुम्हारी पात्रता पूरी होती
है, वह आ जाता है। उसमें क्षण भर देर नहीं होती। देर का कोई उपाय नहीं है।
तो मेरे पास जाते हैं ध्यान करने, वे कहते हैं, जल्दी है। कितने दिन में हो जाएगा?
मूर्च्छा तुमने जन्मों-जन्मों तक साधी, ध्यान
तुम पूछते हो कितनी देर में हो जाएगा? उनको मैं कहता हूं कि
मत घबड़ाओ, थोड़ा धैर्य रखो, ये जल्दी मत
करो। दो-चार दिन के बाद वे फिर पूछते हैं, अभी तक हुआ नहीं।
मैं उनको कहता हूं, यही जल्दी बाधा है। चार दिन में परमात्मा
को पाना चाहते हो, कुछ तो थोड़ा सोचो। कुछ हिसाब तो रखो। मांग
की कोई सीमा तो हो। उनकी बात समझ में आ जाती है। समझ में आ जाती यानि उनके लोभ की
समझ में आ जाती तो वे कहते हैं, याने, अगर
हम बिलकुल ही खयाल छोड़ दें पाने का, तो मिल जाएगा। मैं कहता
हूं, निश्चित मिल जाएगा। तो वे कहता हैं, अच्छा छोड़ा।
लेकिन छोड़ रहे हैं वे पाने के लिए ही।
फिर दो-चार आठ दिन बाद कहते हैं, कि छोड़कर भी नहीं मिला। आपने कहा
था छोड़कर...छोड़ दिया फिर भी नहीं मिला।
अगर छोड़ ही दिया, तो अब मिलने का सवाल कहां से आता है। छोड़ा है ही नहीं। वह छोड़ा भी था लोभ
के ही एक अंग की तरह कि चलो, अगर यही शर्त पूरी करनी है ये
भी पूरी किए देते हैं, लेकिन पा कर रहेंगे।
तुम्हारे त्यागी, तुम्हारे संन्यासी-साधु बाजार के ही दुकानदार हैं। जैन-मुनियों के नाम
बदलते नहीं वे। मुझे पसंद है ये बात एक लिहाज से। मैं अपने संन्यासियों के नाम
बदलता हूं, किसी और कारण से। लेकिन जैन-मुनियों की बात भी
मुझे जंचती है। दुकानदार का नाम था छोटेलाल जैन, फिर वे हो
जाते हैं, मुनि छोटेलाल जी महाराज साहब--मगर रहते दुकानदार
ही हैं। ये बात मुझे जंचती है। कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा है, वही छोटेलाल जी महाराज साहब। दूकान से उठ गए हैं। कुछ जुड़ भला गया हो,
घटा कुछ भी नहीं। छोटेलाल जी थे पहले, अब
छोटेलाल जी महाराज साहब। कुछ जुड़ भला गया हो। घटा कुछ भी नहीं, छूटा कुछ भी नहीं, कुछ और भला पकड़ लिया हो। वही लोभ
है, उसी लोभ की आकांक्षा है। तप करते हैं, उपवास करते हैं, व्रत करते हैं, लेकिन ये सब सौदा है। वे ये कह रहे हैं, देखो कितना
कष्ट उठा रहा हूं, अब तो देर मत करो, अब
और क्या चाहिए? इतना जला रहा हूं अपने को, अब कैसी देर हो रही है? वे दांव लगा रहे हैं। वे
सौदा पटा रहे हैं। वे मोल-भाव कर रहे हैं कि सौ उपवास कर लिया, अब तक नहीं मिले; अच्छा, अगले
वर्ष दो सौ करेंगे। ये सौदा चल रहा है। ये मन का हिसाब और गणित चल रहा है।
लोभ बड़े देर तक पकड़ता है।
तो, या तो तुम भयभीत हो
उस चीज के खो जाने से जो तुम्हारे पास नहीं, या तुम लोभ से
भरे हो उसे पाने को, जिसे पाया नहीं जा सकता, और, या तुम मोह के संसार खड़ेकर रहे हो, जिसको सहजो कहती है--मृगमरीचिका खड़ी कर रहे हो। एक झूठे सपने बना रहे हो,
जो है नहीं। किसी को कहते हो मेरा। कौन किसका है? यहां अपना ही कोई अपना नहीं। लेकिन तुम भरोसा कर लेते हो, मेरा है। ऐसा मेरे के भरोसे से मैं को बल मिल जाता है कि मैं भी हूं। तुम्हारा
मेरा मैं का ही भोजन और सहारा है।
इसलिए कहानी मुझे प्रीतिकर लगती है।
ये तीन आदमियों की कहानी है। नंगे का तलवार लेकर खड़े हो जाना, अंधे का दूर से आती सेनाओं को देख लेना, बहरे का न
केवल वे जो कह रहे हैं वह सुन लेना, बल्कि वह भी सुन लेना जो
उनमें से किसीने अभी कहा नहीं है--ये आदमी की कथा है।
सहजो के वचन इस पृष्ठभूमि में समझने
की कोशिश करें।
मोह गरिमा काया बसै--मोह का मृग मेरे
शरीर में बसा है। आदमी के शरीर में बसा है। शरीर मात्र में मोह का मृग बसा
है--झूठा है। है नहीं, प्रतीत होता है। और तुम दौड़ाए चले जाते हो अपने को।
राम की कथा तुमने सुनी है। राम जंगल
गए हैं। झोपड़े के बाहर खड़े हैं, और देखा एक स्वर्णमृग। वह कहानी
तुमने सुनी है। लेकिन, शायद उस कहानी के प्राणों के साथ
तुम्हारा कभी कोई संबंध न हुआ हो। स्वर्णमृग होते नहीं। कहीं सोने का कोई हरिण
होता है? लेकिन सीता पीछे पड़ गयी। वह राम से कहने लगी,
मैं तो इसे लेकर रहूंगी। वह इतना आग्रह करने लगी कि राम ने कहा,
अच्छा। राम है तुम्हारे भीतर का साक्षीभाव, राम
है तुम्हार आत्मा। सीता है तुम्हारा मन। सीता ने कहा, नहीं,
लाकर रहो। पीछे पड़ गयी। स्त्री ने हठ किया होगा। राम भी उसके मोह
में पड़ गए और सोने के मृग को लेने चले गए। ऐसे ही सीता गंवायी। ऐसे ही सीता रावण
के हाथ में पड़ गयी। ये तो जाल था।
जो नहीं है उसे अगर तुम खोजने जाओगे, तो जो है वह खो जाएगा। इतना ही सार है उस कथा का। जो नहीं है उसे तुम
खोजने जाओगे, तो जो है वह खो जाएगा। स्वर्णमृग तो न मिला,
हाथ से सीता भी खो गयी।
मोह मिरग काया बसै--वह मोह का हरिण
भीतर बसा है, शरीर के रोएं-रोएं में बसा है। कैसे उबरै खेत--इससे
पार कैसे होना होगा? वह बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है, क्योंकि इसके भीतर पूरे जीवन का गणित छिपा है।
जो बावै सोई चरै लगै न हरि सूं
हेत--कठिनाई यह है कि जो हम बोते हैं उसी को चरते हैं। जब उसी को हम चरते हैं, तो फिर हम उसी को बोने के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर उसे बोते हैं,
फिर उसी को चरते हैं। तो जिस हम बोते हैं, वह
हमारे भीतर फिर आ जाते हैं भोजन से। फिर हम उसे बो देते हैं, फिर वह तैयार हो जाता है, फिर हम फसल काट लेते
हैं--ऐसा कार्य-कारण की एक शृंखला बन जाती है। एक विसियस सर्कल, एक दुष्ट-चक्र बन जाता है।
तुमने किसी को गाली दी। तुमने बोयी
गाली, वह आदमी नाराज हुआ। वह क्रोध से भर गया, उसने तुम्हें दुगुने वजन से गाली दी। जो तुमने बोया, अब चरना पड़ेगा। अब क्या करोगे? गाली दी तो गाली लेनी
भी पड़ेगी। जब तुम गाली लोगे, फिर क्या करोगे? तुम फिर उपाय करोगे कि और वजनी गाली दें। इसका अंत कहां होगा? तुम क्रोध करोगे, क्रोध पाओगे। क्रोध पाओगे, और क्रोध करोगे। तुम लोभ करोगे, लोभ से भरोगे,
लोभ बढ़ता चला जाएगा।
मोह मिरग काया बसै, उबरै खेत--सहजो पूछती है, इससे पार कैसे होंगे?
इस युद्ध का अंत कैसे होगा? क्योंकि इसके भीतर
बड़ा गहरा जाल है--जो बावै सोई चरै। तो अनंतकाल में जो बोया है उसको चर रहे हैं। और
चर-चर के फिर उसे बोने के योग्य होने चले जाते हैं। तो इस दुष्ट-चक्र को तोड़ेंगे
कैसे? यह शृंखला कहां से कटेगी? हम
इसके बाहर कैसे जाएंगे? अगर यही चलता रहा--और चलता रहा
है--लगै न हरि सूं हेत, तो हरि से हेत कैसे लगे?
हरि तो कभी बाया नहीं, कभी चरा भी नहीं तो वह बात तो आकाश में रह जाती है, उससे
हमारा कोई संबंध नहीं जुड़ता। बोया हमने मोह, चरा हमने मोह।
बोया हमने लोभ, चरा हमने लोभ। बोया हमने भय, चरा हमने भय। इससे तो हमारा संबंध है। संसार तो हमारे भीतर-बाहर हो रहा
है। श्वास के साथ भीतर जाता है, श्वास के साथ बाहर जाता है।
परमात्मा का स्मरण कहां होगा, जगह कहां खाली है।
सहजो ने बड़ा गहरा सवाल उठाया है। इन
सवालों को मैं असली सवाल कहता हूं। ईश्वर ने दुनिया बनायी या नहीं, यह तुम पागलों पर छोड़ दो। ये सवाल व्यर्थ हैं। दो कौड़ी के हैं। बनायी हो
तो, न बनायी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। असली सवाल तो जीवन के
हैं, जीवंत हैं।
जो बावै सोई चरै, लगै न हरि सूं हेत--बड़ी मुसीबत है, सहजो कहती है,
करें क्या? बाहर जाने का रास्ता नहीं दिखायी
पड़ता क्योंकि हम जो कर सकते हैं, वही गलत है। और, गलत करके हमारा गलत होना और भी मजबूत होता है; फिर
हम गलत करते हैं, फिर हम और गलत करने को राजी हो गए, कुशल हो गए। ऐसे ही जीवन कथा चली जाती है। इसमें से कहां से छलांग लगे?
इसमें हम कहां से बाहर आए? लगै न हरि सूं हेत।
कार्य-कारण की शृंखला को समझें।
और, तब ये पूरी
प्रवचनमाला खयाल में आ जाएगी। इसे मैंने नाम दिया है--बिन धन परत फुहार। जब भी
आकाश में बादल होते हैं, तभी फुहार पड़ती है। बिन धन परत
फुहार? आकाश में बादल न हों तो फुहार कैसे पड़ेगी? लेकिन ऐसी भी फुहार है, जो बिना बादलों के पड़ती है।
इसका मतलब हुआ, संसार में कार्य और कारण की शृंखला चलती
है--बादल होते हैं तो पानी बरसता है। और भीतर एक परम लोक भी है चैतन्य का--वहां बिना
बाद के के भी फुहार पड़ती है। वहां बिना कारण के भी कार्य घटित होता है। वहां अकारण
भी घटनाएं घटती हैं।
तो बाहर के जगत में तो हर चीज का
कार्य-कारण है। भीतर के जगत में सभी कुछ अकारण है। जिस दिन तुम अकारण में प्रवेश
करोगे, उसी दिन तुम परमात्मा में प्रवेश करोगे। जब तक कारण
की खोज करते रहोगे, तुम संसार में रहोगे। इसलिए विज्ञान कभी
संसार के पार न जा सकेगा, क्योंकि विज्ञान कारण की खोज करता
है। धर्म कभी विज्ञान न बन सकेगा, क्योंकि धर्म अकारण की खोज
करता है। उनकी दिशाएं अलग, आयाम अलग--अलग ही नहीं बिलकुल
विपरीत।
तुमने कभी सोचा, कोई तुम्हारे जीवन में ऐसी घटना कभी घटी है, जो
अकारण घटी हो, जिसके लिए तुम कोई कारण न बता पाओ। नहीं,
तुमने करीब-करीब सब चीजों के कारण सोच लिए हैं, जहां नहीं थे वहां भी सोच लिए हैं, क्योंकि आदमी का
मन बिना कारण के बड़ा बेचैन होता है। अगर तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए हो,
और मैं पूछूं, क्यों तो तुम कहते हो, उसकी आंखें सुंदर हैं। तुम यह कह रहे हो कि पहले हमने आंखें जांची,
सुंदर पायीं, इसलिए प्रेम में पड़ गए। क्या यह
सही है? या बात इससे उलटी है? तुम
प्रेम में पड़ गए, इसलिए अचानक तुमने देखा, आंखें सुंदर हैं। दूसरे को हो सकता है तुम्हारी प्रेयसी की आंखें सुंदर न
मालूम पड़े। नहीं तो दूसरे लोग भी प्रेम में पड़ चुके होते। हो सकता है दूसरों को
तुम्हारी प्रेयसी अति साधारण मालूम पड़े। पर तुम्हारे लिए महिमा-आविष्ट है। तुम
प्रेम में पड़े तो महिमा-आविष्ट होने के कारण, या तुम्हारे
प्रेम में पड़ जाने के कारण महिमा आविर्भूत हुई है?
लेकिन, आदमी का मन चूंकि
हिसाब लगाना चाहता है, वह हिसाब बताता है। वह कहता है,
इसलिए प्रेम में पड़ गए कि इसका चेहरा सुंदर है, आंख अच्छी है; देखो, इसकी वाणी
में कितना माधुर्य है; इसके शरीर में कैसा लावण्य है,
अनुपात है। इसलिए प्रेम में पड़ गए। तुम यह कह रहे हो कि तुमने प्रेम
भी कोई गणित के सवाल की तरह हल किया। सब कारण लिखे--इतने-इतने कारण, फिर निष्कर्ष निकाला, एक तर्क की निष्पत्ति ली कि
इतने कारण हैं, ठीक, तो प्रेम करना
चाहिए। क्या तुम सोचते हो, इतने कारण जिस स्त्री में भी
होंगे उसको तुम प्रेम करोगे ही। बहुत और स्त्रियों में भी यही कारण हैं। इनसे भी
बेहतर कारण हो सकते हैं, लेकिन प्रेम का आर्विभाव नहीं होता।
प्रेम अकारण है। अकारण को तुम स्वीकार
नहीं करते क्योंकि तुम डरते हो; अकारण के साथ संसार के बाहर चले।
प्रेम का कोई कारण नहीं है, घटता है। बाकी सब कारण पीछे सोचे
जाते हैं। तुम किसी व्यक्ति को देखते ही, प्रथम क्षण में ही
प्रीतिकर हो उठते हो, या वह तुम्हें प्रीतिकर हो उठता है। न
इसके पहले कभी देखा?
चार-छह दिन पहले एक मित्र मेरे पास आए, और उन्होंने कहा कि बड़ी अजीब-सी हालत हो रही है। एक सज्जन से मिलन हो गया
है। मिलते ही ऐसा लगा जैसा सदा के संगी-साथी हैं। जरूर पिछले किसी जन्म में
संग-साथ रहा होगा। जब ये कारण खोजना है। इस जन्म में न मिले, तो भी कारण की खोज बंद नहीं होती। पिछले जन्म में खोजेंगे। लेकिन कारण खोज
लेंगे तभी मन को तृप्ति होगी। मैंने उनसे कहां, अकारण
स्वीकार करने में कोई अड़चन है? वे कहने लगे, बड़ी बेचैनी होती है। कोई तो कारण होगा ही। ऐसा सभी के साथ नहीं होता।
इन्हीं के साथ हुआ है। कोई पिछले जन्म का संबंध होना चाहिए।
इतना मैं कह दूं कि हां, पिछले जन्म का संबंध है, फिर शांति हो गयी! वे इतना
ही पूछने आए हैं। वे कहते हैं, आप कह दें तो निश्चित हो
जाऊं। एक बेचैनी की तरह अटकी है बात भीतर।
मन को जब तक कारण न मिले जब तक मन
बेचन रहता है। क्योंकि मन कहता है, बिना कारण कहीं कुछ
हो सकता है? बिन धन परत फुहार? नहीं।
हो सकता है तुमने बादल देखे न हों, हो सकता है बादल ओट में
हों। लेकिन गिरेगी तो फुहार जब भी, तो बादल से ही गिरेगी। हो
सकता है हवा का झोंका कुछ बूंदों को उड़ा लाया हो, लेकिन
गिरेंगी तो वे मेघ से ही। तुम यह तो मत कहो कि बिना ही मेघ के और वर्षा होती है,
हो ही कैसे सकती है?
और यही धार्मिक और अधार्मिक मन का भेद
है। अधार्मिक मन बिना कारण के राजी ही नहीं होता।
तो मैंने उन मित्र को कहा कि ये
तुम्हारी अधार्मिक आकांक्षा है कि पिछले जन्म में...लेकिन कहीं न कहीं...लेकिन, मैं तुमसे पूछता हूं कि पिछले जन्म में भी तो तुम इनसे पहली दफे मिले
होओगे। तब? तब उसके पीछे जाना पड़े। फिर इसका कहां अंत होगा?
कभी तो तुम पहली दफा मिले होओगे। कभी। अनंत-अनंत जन्मों के पीछे
जा-जाकर भी, कभी तो एक दिन पहली मुलाकात हुई होगी, और उस पहली पहली मुलाकात में प्रेम का जन्म हुआ होगा--अन्यथा जन्म होता ही
कैसे? तो इतना उपद्रव क्यों करते हो, इसी
जन्म को पहला क्यों नहीं मान पाते?
बेचैनी मालूम होती है। संसार है, तो परमात्मा ने बनाया होगा। बिना कारण के परमात्मा को भी स्वीकार नहीं
करते। तुम सोचते हो तुम धार्मिक आदमी हो। तुम कहते हो हम परमात्मा को मानते हैं,
क्योंकि संसार है तो किसी ने तो बनाया होगा। घड़ा होता है तो कुम्हार
बनाता है। तुमने परमात्मा को कुम्हार बना दिया। तुम धार्मिक वगैरह कुछ भी नहीं हो!
अगर परमात्मा के बिना बनाये संसार
नहीं बनता, कारण चाहिए, परमात्मा महाकारण
है। फिर परमात्मा कैसे बनेगा? फिर तुम्हें बेचैनी शुरू होगी,
तुम कहोगे परमात्मा की बात और। मगर तुम्हें बेचैनी रहेगी कि बात और
हो नहीं सकती, नियम तो एक ही है। तुम्हारे भीतर सवाल तो
उठेगा, कितना ही दबाओ। उठ-उठकर आएगा कि परमात्मा को किसने
बनाया? भय के कारण न पूछो, पंडित-पुरोहित
नाराज हो जाते हैं, नर्क भेजने की धमकी देने लगते हैं;
कोई नर्क नहीं जाना चाहता, स्वीकार कर लेते हो
कि ठीक है, होगा, हमें क्या लेना-देना,
बनाया होगा। लेकिन, अगर तुम संसार को बिना
कारण के नहीं मान सकते तो तुम परमात्मा को कैसे मान सकोगे? और,
जो परमात्मा को बिना कारण मान सकता है वह फिर किसी भी चीज को बिना
कारण मान सकता है।
बिना कारण मान लेना धार्मिक चित्त का
लक्षण है। बिन धन परत फुहार--वह धार्मिक चित्त की आत्यंतिक दशा है। वह यह नहीं
कहता कि कारण की फिकर करनी। कारण का क्या लेना-देना हो रहा है। होना अपने-आप में
पूर्ण है। जिस दिन तुम्हें यह समझ में आएगा उस दिन तुम पाओगे, जिन-जिन चीजों का कारण से किया जा सकता है वे चीजें तुम्हें संसार के बाहर
न ले जाएगी। जो चीजें अकारण की जाती है वे ही तुम्हें बाहर ले जाएगी। कारण से बाहर
जाना है, अकारण में प्रवेश करना है।
तुम मेरे पास हो, तुम्हारा संबंध कारण का हो सकता है। तुम्हें मेरी बात तर्कयुक्त मालूम
पड़ती है इसलिए तुम मेरे पास हो, तो तुम्हारा मेरा संबंध
सांसारिक है। इसमें बहुत मूल्य नहीं है। तुम विद्यार्थी होओगे, मैं शिक्षक। लेकिन गुरु-शिष्य की घटना नहीं घटी। तुम्हारा संबंध अगर अकारण
है, कोई पूछे कि क्यों तुम मेरे पास हो और तुम कंधे हिलाओ,
तुम कहो कि हमें खुद ही पता नहीं; कोई कारण
नहीं सूझता, पर होना आनंदपूर्ण है; तब
तुम्हारे मेरे बीच एक धार्मिक संबंध स्थापित हुआ। हालांकि लोग तुम्हें पागल कहेंगे,
वे कहेंगे कुछ तो कारण दो, बुद्धि खो दी क्या
बिलकुल? बात अच्छी लगती होगी इसलिए पास हो, कोई और कारण ठीक लगता होगा इसलिए पास हो, चिंतन की
वैज्ञानिकता मालूम पड़ती होगी इसलिए पास हो, या इस आदमी ने
तुम्हें हिप्नोटाइज कर लिया होगा इसलिए पास हो। कुछ न कुछ कारण तो दो। अगर तुम
कारण न दे सको तो लोग कहेंगे, तुम पगला गए हो। और, इसलिए यहां कारण भी नहीं होते वहां भी तुम कारण देते हो, क्योंकि अपना पागलपन जो जाहिर नहीं करना है। जहां कारण बिलकुल नहीं होते
वहां तुम अति आतुरता से कारण देते हो, ताकि किसी को पता न चल
जाए कि कोई कारण नहीं है। श्रद्धा अकारण है। प्रेम अकारण है। परमात्मा अकारण है।
क्षुद्र चीजों के कारण होते हैं, विराट का कहीं कारण होता है! क्षुद्र चीजें एक-दूसरे की शृंखला से बंधी
होती हैं, विराट अकेला है। किसी शृंखला से बंधा नहीं है।
अपने में काफी है। कारण मतलब है, तुम अपने में काफी नहीं हो।
तुम्हारे पिता, तुम्हारी मां अगर न मिले होते प्रेम के एक गहन क्षण में, तो तुम्हारा शरीर पैदा न होता। शरीर का कारण है। शरीर संसार है। लेकिन,
तुम्हारे मां वे पिता के मिलने से तुम्हारी आत्मा पैदा नहीं हुई। वह
उनके मिलने के पहले भी थी। वह सदा थी।
बुद्ध घर लौटे, ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद। बाप नाराज थे। बाप को तृप्त करना असंभव है।
बाप यानी महत्वाकांक्षा। बाप ने सोचा था बड़ा सम्राट बनेगा, ये
भिखारी बन गया। बुद्ध तक बाप को राजी नहीं कर पाते, तो दूसरा
तो कोई क्या राजी कर पाएगा? बाप की आंखों में आग थी। इकलौता
लड़का वह भी बुढ़ापे का--वह भी घर छोड़कर भाग गया। धोखा दिया। दगाबाज है। ये बुढ़ापे
के क्षण में हाथ की लकड़ी बनना था; आंखें धुंधली हो गयी हैं,
अब मेरी आंख देख नहीं सकती है, तुझे मेरी आंख
से देखना था; अब मेरे पैर चलते नहीं, तुझे
चलना था। अब मैं जाने के करीब आ गया, ये सब इतना बड़ा साम्राज्य
फैलाया, बनाया, इसे किसके लिए छोड़ जाऊं?
आदमी मर के भी जाता है तो भी छोड़ नहीं पाता। अपने लड़के के लिए छोड़
जाता है, जैसे लकड़ के के माध्यम से मालकियत करेगा। छूट सब
रहा है--लड़के को मिले कि न मिले; किसी को मिले न मिले;
लुट जाए; कोई फर्क नहीं पड़ता--मरते हुए आदमी
के हाथ से सब छुट रहा है, किसको मिलेगा ये बात बेकार है,
लेकिन वो भी अपनी वसीयत लिख जाता है। मरते दम तक चेष्टा रहती है कि
कुछ कब्जा मरकर भी कायम रहेगा। कम से कम अपना खून, अपना ही
एक विस्तार--एक्सटेंशन--वह मालकियत करेगा।
और तू घर छोड़कर भाग गया, बीच में अटका दिया। जब हम क्या करें? बुद्ध के पिता
ने कहा, देख, मैं बाप हूं। इस छाती में
बाप का हृदय है। तुमने कितनी ही बड़ी भूल की हो--ये भूल है--फिर भी मैं तुझे क्षमा
करने को तैयार हूं। मेरे द्वार बंद नहीं हैं, तू वापस लौट आ,
छोड़ ये नासमझी। मेरे हृदय में कितनी पीड़ा होती है तुझे रास्ते पर
भीख मांगते देखकर। तू सम्राट होने का हुआ, ये कैसा पागलपन
तुझे छा गया। हमारे परिवार में, बाप ने कहा, कभी कोई भिखमंगा नहीं हुआ। सदियों का इतिहास है। हम सदा सम्राट रहे।
बुद्ध हंसने लगे। उन्होंने कहा, आपको चोट लगेगी; लेकिन मैं आपसे कहूं, आपके परिवार का मुझे पता नहीं, मेरे परिवार का मुझे
पता है, हम सदा के भिखारी।
बाप ने कहा, बढ़-चढ़कर बात मत कर! मेरे सामने तू छेकार है। मैंने ही तुझे बड़ा किया है,
मेरा ही खून तेरे शरीर में दौड़ता है। मेरी हड्डियों ने तेरी
हड्डियां बनायी हैं। तू मुझे समझाने की कोशिश मत कर। क्या तेरा मतलब है? तू कहां से आया? कौन-सा तेरा परिवार? कैसी तू बातें कर रहा है?
बुद्ध ने कहा, हम आपसे पैदा हुए, लेकिन आपसे आए नहीं। आपने शरीर
दिया, आत्मा नहीं। आपने शरीर का संयोग निर्मित किया, हम प्रविष्ट हुए। आप एक चौराहा हैं जिससे हम गुजरे। लेकिन हम उसके पहले भी
थे। आपके होने से हमारे का कोई संबंध नहीं है।
आत्मा तो पैदा नहीं होती, शरीर ही पैदा होता है। इसलिए शरीर मरेगा, आत्मा
मरेगी नहीं। आत्मा अकारण है। वह सिर्फ है। इस जगत में वही शाश्वत है जो अकारण है।
वही जल अमृत है जो बिना मेघ के झरा हो। जिस का भी कारण है वह खो जाएगा। क्योंकि
कारण जितनी शक्ति देता है उतना ही चलेगा। तुमने एक पत्थर उठाया और फेंका। तुमने
जितनी ताकत से फेंका उतनी दूर तक टिक जाएगा--दो सौ कदम, तीन
सौ कदम, फिर गिर जाएगा। तुमने एक कारण दिया तुम्हारे हाथ से
शक्ति मिली। वह शक्ति चुक जाएगी, पत्थर गिर जाएगा। बच्चा
पैदा हुआ, सत्तर साल चलेगा--मां-बाप ने अपनी जीवन की ऊर्जा
दी, सत्तर साल में चुक जाएगी, समाप्त
हो जाएगा।
लेकिन, यह जगत तो चलता ही
रहेगा। अनंत सृष्टियां होती हैं, मिटती हैं, बनती हैं, अस्तित्व बना रहता है। पृथ्वियां आती हैं,
उजड़ जाती हैं। चांदत्तारे बसते हैं, खो जाते
हैं। प्रतिपल, वैज्ञानिक कहते हैं, नये
सूरज पैदा हो रहे हैं, पुराने सूरज खो रहे हैं। यह चलता ही
रहता है। अस्तित्व कभी मिटता नहीं। ये अस्तित्व अकारण है; अन्यथा
सनातन न हो सकेगा।
जो भी महत्वपूर्ण है, वह अकारण है।
तो मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम सोचना
कि परमात्मा ने संसार बनाया, इसलिए हम परमात्मा को स्वीकार
करते हैं। मैं तुमसे कहता हूं--तुम इस तरह सोचना कि जो नहीं बनाया गया है--वही
परमात्मा है। ये संसार भी उसी का हिस्सा है, कभी बनाया नहीं
गया। ये लहरें जो दिखाई पड़ती हैं उसी सागर के हिस्से हैं, जो
सनातन है। और, यहां सभी कुछ अकारण घट रहा है। इसलिए धर्म एक
रहस्य है। और विज्ञान रहस्य नहीं है। विज्ञान व्याख्या है, कारण
की खोज है। और इसलिए विज्ञान कहता है, हम परमात्मा को
स्वीकार न करेंगे, क्योंकि अगर परमात्मा भी मिल जाए तो हम
उसके भी कारण की खोज करेंगे, तभी मान सकेंगे। बिना कारण कुछ
हो ही नहीं सकता, ये विज्ञान की मान्यता है। और जो भी हुआ है
बिना कारण, यह धर्म की अनुभूति है।
जो बावै सोई चरै, लगै न हरि सूं हेत--बड़ी मुश्किल हो गयी है, सहजो
कहती है। कारण में फंसे हैं। बो दी काटनी पड़ती है। तुम बोओगे, काटेगा कौन? तुम्हीं काटोगे। जब काट ली, फिर बोना पड़ती है--करोगे क्या इस फसल का?
इसमें कहां से निकल भागें? कोई ऐसा छिद्र है, जिससे हम बाहर हो जाए? कोई ऐसा द्वार है, चोर दरवाजा सामने के दरवाजे से
निकलते हैं, फंस-फंस जाते हैं। कोई चोर दरवाजा है जीवन की
व्यवस्था में, जहां से हम बाहर हो जाए, कार्य-कारण की शृंखला हमें पकड़े नहीं? उसको ही सहजो
प्रेम कहती है। भक्ति है। भक्ति अकारण है। तुम कह न पाओगे, किसी
के प्रति अगर भक्ति हो गयी तो क्यों हो गयी। जब सब क्यों गिर जाते हैं, तब भक्ति होती है। जब कोई कारण नहीं रह जाते, तब
प्रेम-आविर्भाव होता है। जहां बुद्धि का कोई हिसाब नहीं रह जाता, वहां हृदय धड़कता है।
बेबूझ है। पहेली जैसी है। पर यही उसका
स्वभाव है। जो बोवै सोई चरे, लगै न हरि सूं हेत
प्रभुताई कूं चहत है, प्रभु को चहै न कोई। अभिमानी घट नीचे, है, सहजो ऊंच न होइ।।
ये वचन तो महाकाव्य है। इस एक वचन से
तुम्हारे पूरे जीवन के ताले खुल सकते हैं। प्रभुताई कूं चहत है, प्रभु को चहै न कोई--प्रभुता को सभी लोग चाहते हैं, प्रभु
को कोई भी नहीं चाहता। और इतना ही फर्क है धार्मिक-अधार्मिक में। अधार्मिक प्रभुता
चाहता है--शक्ति, सता। धार्मिक प्रभु को चाहता है--प्रभुताई
नहीं। और क्रांतिकारी अंतर हो जाता है दोनों दिशाओं में। जब तुम प्रभुता चाहो हो,
तब तुम अहंकारी की आकांक्षा कर रहे हो। और जब तुम प्रभु को चाहते हो,
तब तुम निरहंकार होने की यात्रा पर चल पड़े। प्रभुताई पानी हो तो
अहंकार को मजबूत करना पड़ेगा--सिंहासन चाहिए। और प्रभु को चाहना हो तो झुकना
पड़ेगा--समर्पण चाहिए।
दोनों शब्द एक ही धातु से बने
हैं--प्रभुता और प्रभु। ऐश्वर्य और ईश्वर--एक ही चीज से बने हैं। पर कितना अंतर
है। ऐश्वर्य सभी चाहते हैं, ईश्वर को कोई नहीं चाहता। प्रभुताई सभी चाहते हैं,
प्रभु को कोई भी नहीं चाहता। प्रभुताई कूं कहत है, प्रभु को चहै न कोइ। अभिमानी घट नीच है, सहजो ऊंच न
होइ।।
जिसको मनोवैज्ञानिक इनफिरिआरिटी
काम्प्लेक्स कहते हैं, हीनता-ग्रंथि कहते हैं, सहजो
उसकी तरफ इशारा कर रही है। अभिमानी घट नीच है--जितनी भीतर हीनता हो, उतनी प्रभुता की आकांक्षा होती है, उसी मात्रा में।
पश्चिम के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक एडलर ने इस सदी की एक बड़ी से बड़ी खोज जो की है,
वह यही है--हीनता की ग्रंथि। एडलर कहता है कि जो लोग पद चाहते हैं,
उनके भीतर बड़ी हीनता है। अपने-आप में वे खुद को कोरा और खाली पाते
हैं। अगर उन्हें पद न मिले, तो वे कभी अपने को पूरे अर्थों
में स्वीकार न कर सकेंगे। उनको लगता ही रहेगा--हम निम्न हैं, दो कौड़ी के हैं। वे सिंहासन पर बैठकर ही, सिंहासन की
आभा में ढांककर ही, अपने भीतर की निम्नता को भूल पाएंगे।
राजनीतिज्ञ, राजनीति की दौड़ हीनता
की दौड़ है।
श्रेष्ठ व्यक्ति राजनीति में उत्सुक
नहीं हो सकता, क्योंकि प्रभुता में ही उत्सुक नहीं होगा। श्रेष्ठ
व्यक्ति का अर्थ है, जिसने भीतर प्रभु को पा ही लिया,
अब प्रभुता को क्या पाना है! और प्रभुता को पाने की दौड़ का अर्थ है,
जिसका प्रभु से कोई संबंध नहीं जुड़ा है, वह
प्रभुता पाने की कोशिश में लगा है। प्रभुता प्रभु का खोटा सिक्का है।
और, अगर तुम दुनिया के
राजनीतिज्ञों का जीवन समझने की कोशिश करो, तो एडलर सहीं
सिद्ध होता है। लेकिन के पैर छोटे थे, बाकी शरीर से। कुर्सी
पर बैठता था तो पैर जमीन पर नहीं लगते थे। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं, यही उसकी बेचैनी थी। साधारण कुर्सियों पर बैठता था, पैर
नीचे नहीं लगते थे, लोग हंसने लगते थे। उसने रूस की सबसे बड़ी
कुर्सी पर बैठकर दिखा दिया के तुम्हारे पैर भला नीचे लग जाते हैं, लेकिन कुर्सी तुम्हारी कितनी ऊंची? उसने विपरीत करके
दिखा दिया। उसने दिखा दिया कि देखो, बड़े से बड़े सिंहासन पर
मैं बैठ सकता हूं; तुम्हारे पैर जमीन से लगते होंगे, मेरा सिर आकाश से लग सकता है।
हिटलर एक असफल आदमी था। कहीं भी सफल
नहीं हुआ। जो भी किया, वहीं हारा। सेना। से भी निकाला गया। चित्रकार होना
चाहता था, तीन दफे परीक्षा दी, प्रवेश-परीक्षा
ही पास न हो सका--प्रवेश न मिला। आत्महत्या करने की चेष्टा की, उसमें भी सफल हुआ। फिर ये आदमी इतने जोर सफल हुआ, सारी
दुनिया को डगमगा दिया। एकबारगी तो लगा कि हिटलर जीत ही जाएगा। सारी दुनिया की कथा
बदल देगा। क्या हुआ? वह जो हीनता की ग्रंथि थी, उसने इतना बल मारा कि अब कुछ करके दिखाना ही होगा। अगर थोड़ी भी श्रेष्ठता
हो तो आदमी पागल नहीं हो पाता, किसी भी दौड़ में। क्योंकि दौड़
से मिलना क्या है? अगर तुम बुद्ध के साथ दौड़ने लगो, तो बुद्ध अपनी ही चाल से चलते रहेंगे। तुम्हीं दौड़ोगे। क्योंकि बुद्ध
कहेंगे, जाना कहां है? जो पाना है वह
मिला ही हुआ है। बैठे भी रहे तो भी मिला हुआ है। धीमे भी चले तो भी खो न जाएगा।
कहीं न पहुंचे तो कोई अंतर नहीं पड़ता, पहुंच ही गए हैं।
लेकिन तुम दौड़ोगे। तुम पागल की तरह दौड़ोगे। क्योंकि जीवन जा रहा है हाथ से और सब
खाली है, कहीं कुछ भरा नहीं है।
जितनी रिक्तता भीतर मालूम होती है, उतना ही बाहर भरने की दौड़ शुरू होती है। जिसके जीवन में अंतर्प्रकाश नहीं,
वह आचरण से भरेगा। जिसका भीतर खाली है, वह
बाहर सजावट करेगा, ताकि दूसरों की आंखों को तो कम से कम धोखा
दे दे; अपनी आंख को तो धोखा देना मुश्किल है। लेकिन दूसरे की
आंख को अगर धोखा हो जाए, तो धीरे-धीरे अपनी आंख को भी धोखा
हो जाता है। जो दूसरे कहते हैं, उसका आदमी खुद भी भरोसा कर
लेता है।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन जा रहा है एक गली से महल की तरफ, राजमहल
की तरफ। कुछ आवारा छोकरों ने उसे घेर लिया। कोई कंकड़-पत्थर मारने लगा, कोई मजा करने लगा। वह गांव भर के लिए मजाक था। सो सोचा कि इनसे कैसे
छुटकारा हो! उसने कहा कि सुनो, तुम्हें कुछ पता है, आज राजमहल में सारे नगर को निमंत्रण मिला है। मैं वही जा रहा हूं। कोई
रोक-टोक नहीं है, जो भी जाएगा सभी के लिए है। छप्पन प्रकार
के भोजन बनाये गए हैं। और उसने ऐसा वर्णन किया भोजन का कि वे लड़के भागे उसको छोड़कर
कहीं। उन्होंने कहा इसकी बकवास सुनने से क्या फायदा, महल
जाना सार है। लड़के भागे, और उनकी धूल उड़ती देखी, तो उस एक क्षण तो वह ठिठका, फिर वह उनके पीछे दौड़ा।
उसने अपने मन में सोचा, कौन जाने बात सही हो! जाने में हर्जा
क्या है?
जब दूसरों को तुम भरोसा दिला देते हो, यद्यपि तुमने झूठ किया था, जब दूसरों को भरोसा आ
जाता है, तो तुमको शक पैदा होता है, कौन
जाने बात सही ही हो! इतने लोग जब मानते हैं कि तुम महापुरुष हो तो कौन जाने तुम
महापुरुष हो ही! वैसे भीतर तुम जानते हो कि ये बात नहीं। नहीं थी, इसलिए तो महापुरुष का इतना आडंबर किया था। इतना शोर-शराबा किया, इतना प्रचार किया, इतनी व्यवस्था की थी। लेकिन मन
बड़ा अदभुत है। खुद को भी धोखा दे लेता है। जानते तो तुम रहोगे गहन में कि बात गड़बड़
है, लेकिन मानने लगोगे कि ठीक ही होगी, इतने लोग थोड़े ही धोखे में हो सकते हैं। कोई एकाध हो तो धोखा दे ले,
सारी दुनिया को कैसे धोखा दोगे?
प्रभुताई कूं चहत है, प्रभु को चहै न कोइ।
अभिमानी घट नीच है--वह जो अभिमानी है, वह भीतर गहरे में तो बहुत निम्न है, हीन है। सहजो
ऊंच न होइ। और ये ऊंचा होने का रास्ता नहीं है। ऊंचे होने के दो रास्ते दिखायी
पड़ते हैं: एक भ्रामक है, एक सही है। ऊंचे होने का एक रास्ता
तो यह है कि तुम भीतर की नीचता को तो नीचे पड़े रहने दो, बाहर
की ऊंचाई खड़ी कर लो। भीतर की नीचता दब जाएगी। दब जाएगी, किसी
को पता न चलेगा; खुद तक को भूल जाएगी, झूठ
बार-बार दोहराने से सच जैसा मालूम होने लगेगा। और जब हजारों कंठ उसकी प्रतिध्वनि
करेंगे, तुम्हें भी भरोसा आ जाएगा। ये एक रास्ता है, जो हजार में से नौ सौ निन्यानबे लोग करते हैं। धन, पद,
प्रतिष्ठा, यश, नाम इन
माध्यम से। पर ये रास्ता व्यर्थ है। मरोगे तुम वैसे जैसे आए थे। तुम्हारे भीतर की
नीचता, निम्नता नष्ट न होगी। तुम्हारी हीनता दब जाएगी,
समाप्त न होगी।
एक दूसरा रास्ता है कि तुम अंतर की
नीचता को ही विदा कर दो। उसे बाहर से ऊंचा करने की चेष्टा मत करो, उसे भीतर से ही विदा कर दो। जड़ से ही उखाड़ डालो। और जिस दिन ये भीतर जड़ से
उखड़ जाती है, दुनिया में कोई जाने या न जाने कि तुम महान हो
या नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। इसके जड़ से उखड़ते ही
तुम्हारे भीतर एक नये प्रकाश का जन्म हो जाता है। भीतर तुम जानते हो। किसी और को
इस प्रकाश का पता चल जाए तो ठीक, न चले तो ठीक, उससे कोई प्रयोजन न रहा। दूसरे के मंतव्य का कोई अर्थ नहीं है फिर।
अभिमानी घट नीच है, सहजो ऊंच न होइ।
सदा रहै चितभंग ही, हिरदे थिरता नाहिं--कितना ही तुम प्रभुताई खड़ी कर लो; पद, धन इकट्ठा कर लो--सदा रहे चित्तभंग ही--चित्त तो
सदा खंड-खंड ही रहेगा। बड़ा प्यारा शब्द उपयोग किया है--चित्तभंग। जैसे दर्पण टूटा
हो कोई टुकड़ों में। जैसे चांद का प्रतिबिंब बनता हो झील में और कोई कंकड़ फेंक दें,
और चांद टुकड़े-टुकड़े हो जाए, पूरी झील पर फैल
जाए, खंड-खंड हो जाए।
सदारहेचितभंगही कितना ही छिपाओ बाहर
से, जो भीतर है जब तक मिटेगा न, नहीं मिटेगा।
हिरदे थिरता नाहिं--और हृदय कंपता ही
रहेगा। भीतर भय बना ही रहेगा। प्रभु के आए बिना भय जाता नहीं। प्रभुता नहीं जाता।
प्रभु से भय जाता है; अभय उत्पन्न होता है। हिरदे थिरता नाहिं।
राम नाम के फल जिते, काम लहर बहि जाहिं। दो ही उपाय हैं। या तो तुम रामनाम में डूबो, और या, काम की लहर ले जाएगी। या तो वासना की लहर
तुम्हें ले जाएगी, और या फिर राम का तूफान तुम्हें ले जाएगा।
राम और काम, ये दो दिशाएं हैं। होने के दो ढंग है। सदा रहै
चित्तभंग ही, हिरदे थिरता नाहिं: अगर तुम कामवासना की लहर के
साथ चलोगे तो यही होगा। राम नाम के फल जिते काम लहर, बहि
जाहिं:या तो उस फल को जीत लो जो राम-नाम के स्मरण का है, और
या फिर डूबो-उतराओ कामवासना की गर्त में, भटके। या तो उस
चांद को पा लो जो झील का नहीं है, आकाश का है, वास्तविक है। झील के चांद के साथ तो गड़बड़ रहेगी। सदा रहै चितभंग ही। जरा
सा हवा का झोंका आ जाता है, चांद खंडित हो जाता है। एक बच्चा
कंकड़ फेंक देता है, एक नाव गुजर जाती है, वृक्ष से पत्ता गिर जाता है, झील कंप जाती है। आकाश
में बादल घिर जाते हैं, चांद खो जाता है। कामवासना के द्वारा
पाया गया जो सुख है, वह झील में बने चांद की तरह है। वह लगता
है कि मिला, मिलता कभी नहीं। हमेशा कंपता ही रहता है--गया,
गया।
पारस नाम अमोल है, धनवंते घर होय।
परख नहीं कंगाल हूं, सहजो डारे खोय।।
प्रभुताई तो सोने जैसी है, प्रभु पारस जैसा। अगर तुम्हारे सामने पारस पत्थर रखा हो और सोने का ढेर
रखा हो, तुम सोना चुन लोगे; क्योंकि
तुम्हें पता ही नहीं कि यह जो पत्थर है पत्थर नहीं है। ये तो जितने लोहों को छू
देगा वे सभी सोना हो जाएंगे। और जो तुम चुन रहे हो वह भले ही सोने जैसा दिखायी
पड़ता है, लेकिन इसके छूने से सोना नहीं होगा।
पारस नाम अमोल है--वह परमात्मा जो है, प्रभु जो है, वह पारस नाम अमोल है। धनवंते घर
होय--वह केवल सौभाग्यशालियों को मिलता है। उन सौभाग्यशालियों को मिलता है, जो कार्य-करता की शृंखला के बाहर छिटकने में सफल हो जाते हैं। वे ही धनवंत
हैं, जिनके पास पारस है। हालांकि बाजार में तुम पारस बेचने
जाओगे तो शायद कोई दो पैसे देने को तैयार न हो; या शायद कोई
पुराने गांव में जहां अभी भी शाक-सब्जी पत्थर से तौली जाती है, वहां कोई राजी हो जाए कि चलो, दो पैसे में दे जाओ,
बटखरे के काम आ जाएगा। अन्यथा कौन पारस को खरीदेगा? पारस पत्थर ही है आखिर! उसमें छिपा है कुछ, पर उसका
तो पता जिसको हो उसी को पता होता है। सोना प्रकट दिखायी पड़ता है। पारस का कोई
मूल्य नहीं आंक सकता, सोने का मूल्य आंका जा सकता है।
पारस नाम अमोल है, धनवंते घर होय--परमात्मा जिनके पास है उनके पास पारस है। वे जो छूते हैं
वही सोना हो जाता है। उनके शब्द-शब्द में, आचरण-आचरण में,
सोना ही सोना बिखर जाता है। जहां चलते हैं वहां धूल सोना हो जाती
है। जहां तुम्हें नर्क मालूम पड़ता है, वहां भी जिसके पास
पारस नाम अमोल है वह आ जाए, तो स्वर्ग हो जाता है।
मैंने एक सूफी कहानी सुनी है। एक
पंडित रात सोया। स्वप्न देखा, स्वर्ग में पहुंच गया है। थोड़ा
चकित हुआ, क्योंकि उसने ऐसा नहीं सोचा था। देखा कि स्वर्ग
में कोई प्रार्थना कर रहा है, कोई कुरान की आयतें पढ़ रहा है।
लोग बड़े तल्लीन हैं। लेकिन उसने कहा, हम तो सोचते थे कि ये
प्रार्थना, और ये कुरान, ये सब संसार
से मुक्त होने के उपाय हैं। अगर स्वर्ग में भी आकर इन्हीं को पढ़ना है तो सार ही
क्या हुआ?
तुम्हारे साधु-संन्यासी, पंडित भी यही सोचते हैं कि थोड़े दिन की तकलीफ है, झेल
लो। उपवास करना है, थोड़े दिन का है। स्वर्ग में तो कल्पवृक्ष
मिलेगा, फिर क्या उपवास। असल में मन ही मन में वे सोचते हैं
कि जो नहीं उपवास कर रहे हैं, भटकेंगे नर्क में तब उनको पता
चलेगा! यह हम थोड़ी-सी तकलीफ झेल रहे हैं, सदा के लिए इंतजाम
हो जाएगा। होशियार आदमी थोड़े-सी तकलीफ से सदा का सुख कमाता है। नासमझ थोड़े से सुख
के लिए सदा का दुख कमा लेते हैं। तुम्हारे साधु-संन्यासी जानते हैं कि तुम नर्क
में जाओगे। वे जानते हैं कि तुम मूढ़ हो। बुद्धिमानी हो वे कर रहे हैं। वे तुमसे
ज्यादा कुशल दुकानदार हैं। वे यह कह रहे हैं कि जरा सी तकलीफ है आज की, फिर कल स्वर्ग है। देर ही कितनी है, निकल जाएगी ऐसे
राम-भजन कर-कर के। दो-चार दस, पचास साल की बात है, फिर कल्पवृक्ष।
मगर यह पंडित हैरान हुआ कि यह क्या हो
रहा है? यह तो हम जिंदगी में वहां कर रहे हैं, और यहां भी यही हो रहा है। स्वर्ग का सार क्या है, कहां
है कल्पवृक्ष? कहां हैं शराब के झरने? कहां
हैं अप्सराएं? कोई दिखायी ही नहीं पड़ती। ये क्या चल रहा है!
लोग तो कुरान की आयत यहां भी पढ़ रहे हैं। तो फिर फर्क क्या है।
तो उसने किसी से पूछा, एक देवदूत से कि ये मामला क्या है, मेरी समझ में
नहीं आता। इससे मेरी बुद्धि बड़ी भ्रमित हो रही है। मैं तो इसलिए कुरान पढ़ रहा हूं
कि थोड़े दिन की बात और है, पहुंच गए एक दफा भीतर, झंझट मिटी, कुरान-वुरान सब बाहर ही छोड़ जाएंगे। ये
सब यहां कुरान चल रहा है! यहां भी क्या उपवास करने पड़ते हैं? रोजा, रमजान यहां भी रखना पड़ता है? तो फिर पृथ्वी में और इसमें फर्क क्या है? और
अप्सराएं कहां हैं? शराब के झरने कहां बह रहे हैं? कल्पवृक्ष कहां है? ये संत यहां स्वर्ग में ये क्या
कर रहे हैं?
उस देवदूत ने कहा, क्षमा करें, आपके स्वर्ग की परिभाषा में कहीं भूल हो
गयी। आप सोचते हैं संत स्वर्ग जाते हैं, तो आप गलत सोचते हैं।
संत जहां होते हैं, वहां स्वर्ग हैं, वहां
स्वर्ग है। इसलिए संतत्व से कोई छुट्टी नहीं मिलती, कभी भी,
ये ध्यान रखना। ऐसा मत सोचना कि थोड़े दिन की तकलीफ है, झेल ली, फिर संतत्व से छुट्टी लेकर मजा-मौज करेंगे।
फिर स्वर्ग में जो एक दफे प्रवेश पा गए, तो फिर दिल खोलकर
भोग लेंगे, यहां थोड़ा-थोड़ा बंधन रख लेना है--ऐसा मत सोचना।
संतत्व से कोई छुट्टी नहीं है। और जिस संतत्व से छुट्टी लेने का मन हो, जानना कि वह तुम्हारे ऊपर-ऊपर है, भीतर नहीं। भीतर
के संतत्व से कोई छुट्टी लेना चाहेगा? वही तो स्वर्ग है। संत
स्वर्ग में जाते हैं ऐसा नहीं, संत स्वर्ग हैं। कुरान की आयत
पढ़कर कोई स्वर्ग में जाता है ऐसा नहीं, कुरान की आयत में
स्वर्ग है। जिसको दिखायी पड़ गया, वह फिर पढ़ता ही रहेगा,
उसको छोड़ना क्या है? उसका सुख तो रोज बढ़ता ही
चला जाता है। प्रार्थना स्वर्ग जाने के लिए नहीं है, प्रार्थना
स्वर्ग है। जिसने जान ली, वह सदा-सदा के लिए प्रार्थना में
डूब गया। वह ऐसा थोड़े ही चाहेगा कि कोई ऐसा दिन आए, छुट्टी
मिल जाए, जिस दिन प्रार्थना न करनी पड़े। तब तो तुम प्रार्थना
को पहचाने ही न! वह तो काम, संसार की ही बात रही, वह तुम्हारा प्रेम न बना। प्रेम से कभी कोई छुटकारा चाहता है? प्रार्थना से कभी कोई मुक्ति चाहता है? परमात्मा को
कभी कोई भूलना चाहता है? जान लिया वो कभी नहीं।
पारस नाम अमोल है, धनवंत घर होय--परमात्मा का नाम उसी की समझ में आता है जो परम सौभाग्यशाली
है। या परमात्मा का नाम समझ में आ जाए, वो परम सौभाग्यशाली
है। उससे बड़ा फिर कोई सौभाग्य नहीं। वह धनवंत है। किसी और धन में मत समझ जाना।
रामनाम के धन के बिना सब धन गरीबी है। रामनाम का धन न मिले तब तक तुम नंगे हो,
नाहक तलवार लिए खड़े रक्षा कर रहे हो कि कोई चोरी न कर ले जाए।
तुम्हारे पास कुछ है नहीं।
परख नहीं कंगाल हूं--वह जो अभागा है
उसे परख नहीं है। पारस रखा है, वह सोना चुनता है। परख नहीं
कंगाल हूं, सहजो डारे खोय--सहज ही खो देता है उसको जो सदा
उपलब्ध है, और उसके पीछे पड़ जाता है--जो कितना ही पीछे पड़े
रहा--कभी मिलेगा नहीं। राम सदा उपलब्ध है। काम कभी उपलब्ध नहीं है। राम अभी मिला
है--आंख खोलने की बात है। काम तुम जन्मों-जन्मों तक भटकते रहो कभी न मिलेगा,
क्योंकि काम का स्वभाव यही है कि वह नहीं मिलता। वह उसके स्वभाव का
अंग है। काम कभी तृप्त नहीं होता--तृष्णा दुष्पूर है, वह
उसका स्वभाव है। राम सदा उपलब्ध है, वह उसका स्वभाव है। एक
के पीछे दौड़ना होता है, सिर्फ दौड़ना। उपलब्धि कभी नहीं। और
एक सदा उपलब्ध है। रुके, ठहरे कि जाना।
परख नहीं कंगाल हूं, सहजो डारे खोय।
सहजो सुमिरन कीजिए, हिरदे माहिं दुराय। लेकिन सहजो कहती है परमात्मा का स्मरण इस भ्रांति करना
है--हृदय में दोहरना, किसी और को बताना मत; क्योंकि बताने की आकांक्षा तो हीनग्रंथि से पैदा होती है। वह तो आकांक्षा
है कि दूसरों को पता चल जाए कि मैं धार्मिक हूं--देखो, मंदिर
जा रहा, मस्जिद जा रहा; गुरुद्वारा
जाता हूं; देखो, रविवार कभी चूकता नहीं
चर्च जाने से--दुनिया को पता चल जाए कि मैं धार्मिक हूं, ये
तो दुनिया का ही हिस्सा हुआ।
परमात्मा को दिखाने की कोई भी जरूरत
नहीं है। और अंधों को दिखाओगे भी कैसे? जो काम में दौड़ रहे
हैं, तुम्हारे राम को देख भी कैसे सकेंगे? तुम दिखाओगे, वे कहेंगे कि रखो ये अपना सामान अपने
पास, अभी हमें ये खरीदना नहीं। हमारे किस काम का, ये पत्थर ले आए! पारस कहानियों में होता है, असलियत
में थोड़े ही; हटो, अभी हम सोने की दौड़
में लगे हैं। तुम दिखाना मत। क्योंकि दिखाने से कोई संबंध ही नहीं है, उसे पाना है।
परमात्मा कोई प्रदर्शन नहीं है; वह कोई एक्जिबिशन नहीं है। संसार प्रदर्शन है। अगर तुम्हारे पास धन है और
तुम न दिखाओ, तो होने का सार ही क्या? तुम्हारे
पास हीरे-जवाहरात हैं, तुम जमीन में गाड़े रखे रहो, क्या फायदा? उनको दिखाना पड़ेगा। मौके-बेमौके उनको,
निकालना पड़ेगा--शादी-विवाह में, मंदिर में,
क्लब में, कहीं न कहीं उनको दिखाना पड़ेगा।
नहीं तो सार ही क्या है? तुम जमीन में रखे रहो हीरे-जवाहरात
करोड़ों के, और किसी को पता न चले, तो
हीरे-जवाहरात हैं कि कंकड़-पत्थर हैं, क्या फर्क पड़ता है।
मैंने सुना है कि एक बूढ़ा आदमी अपनी
तिजोरी में पांच सोने की ईंटें रखे था। उसका बेटा जरा फक्कड़ तबियत का
था--मस्ती-मौज...। उसने धीरे-धीरे वो पांचों ईंटें खिसका लीं। मजा कर लिया। और हर
ईंट की जगह उसने एक लोहे की ईंट उसी वजन की रख दी। बाप को बुढ़ापे में दिखायी भी कम
पड़ता था, और अंधेरे में तिजोरी थी। वह उसको ऐसा खोल के,
हाथ फेर के देख लेता था। ईंट भी, बात खतम थी।
दरवाजा लगा कर प्रसन्न था।
वह तो मारने के पहले अड़चन हो गयी।
मरने के पहले उसने आंख खोली और उसने कहा कि मेरी ईंटें ले आओ, कोई गड़बड़ तो नहीं हुई। तो ईंटें लायी गयी। पत्नी ईंटें निकाल कर लायी तो
हैरान हुई, क्योंकि वह तो लोहे की थीं। समझ गयी कि बेटे की
करतूत है। मरते आदमी ने जब ईंटें देखीं, वे लोहे की थीं। एक
क्षण को तो धक्का लगा। एक क्षण को तो लगा कि ये तो लुट गया! लेकिन अब मौत करीब आ
रही थी, तब लुटने से भी क्या फर्क पड़ता था? फिर एक हंसी भी आ गयी। और हंसी ये आयी कि ये भी बड़ा मजा रहा। जिंदगी इसी
मजे में गुजार दी कि सोने की ईंटें हैं। ईंटें तो लोहे की थी।
तुम्हारे घर में तुमने अगर धन गड़ा के
रखा है, क्या सार? धन दिखावा है। उसका
मजा ही दिखाने में है। इसलिए तो लोग जितना उनके पास नहीं उससे ज्यादा दिखलाते हैं।
सिर्फ इनकम-टैक्स आफिस वालों को नहीं दिखलाते। बाकी सबको दिखलाते हैं। जो नहीं है
वह भी दिखलाते हैं। टेबल पर फोन रखे रहते हैं, उसका कहीं
कनेक्शन ही नहीं है।
मैंने तो एक बार ऐसा सुना कि
नसरुद्दीन ने ऐसा फोन रख लिया। दफ्तर जमाया था, तो बिना फोन के दफ्तर
तो जंचता भी नहीं। एक आदमी भीतर आया। उस पर प्रभाव बांधने के लिए उसने कहा,
जरा एक मिनट रुकें। फोन उठा कर उसने बातचीत की, फिर उसने पूछा--उस आदमी को प्रभावित करने के लिए, फोन
तो कहीं जुड़ा ही न था। पर बातचीत की, दो-चार शब्द कहे-सुने,
फोन रखा, उससे पूछा, कहिए,
कैसे आए? उसने कहा, मैं
फोन कंपनी से आया हूं, जोड़ने के लिए। उसको पता नहीं कि ये
फोन कंपनी से आए हुए हैं!
धन का तो मजा दिखावे में है। जो नहीं
है वह भी आदम दिखाता है। दूसरों से उधार चीजें लोग मांग लेते हैं। उनको भी दिखाते
हैं कि उनकी हैं--अपनी हैं।
संसार दिखावा है। परमात्मा दिखावा
नहीं है; उसे तुम संभालना भीतर।
सहजो कहती है, सहजो सुमिरन कीजिए, हिरदै माहिं दुराय--हृदय में ही
दोहराना। होठ होठ सूं ना हिलै--होंठ-होंठ को भी पता न हो पाए कि तुम हृदय में क्या
दोहराते हो। सकै नहीं कोई पाय--और किसी को पता न चल सके। कोई लाख खोजे, तो तुम्हारे भीतर क्या छिपा है उसका पता न चल सके, छिपाना।
क्योंकि जितना तुम छिपाओगे, उतना ही गहरा चला जाएगा। दिखाना,
तुम जितना दिखाओगे उतना बाहर-बाहर फैल जाएगा। दिखावा परिधि का होता
है, केंद्र को तो छिपाना होता है। जो गहनतम है वो तो गहनतम
में छिपाना चाहिए। छिपाये चले जाना, और भीतर...और भीतर...और
भीतर...। जितनी जगह मिले, भीतर लेते जाना। एक दिन आएगा कि
तुम्हारे आत्यंतिक केंद्र पर परमात्मा का नाम होगा; स्मरण
होगा, शब्द नहीं। ऐसा नहीं कि तुम भीतर राम-राम दोहराओगे।
राम-राम दोहराओगे तब तो ओठों को खबर हो जाएगी। तभी तुम चुपचाप भी दोहराओ तो तुम पाओगे
धीरे-धीरे ओंठ भीतर हिल रहे हैं। कंपन चलेगा। जीभ को पता चल जाएगा, कंठ को पता चल जाएगा।
सहजो का मतलब ये है कि ये कोई शब्द का
दोहराना नहीं है परमात्मा का स्मरण, ये हृदय की प्रतीति
है। सहजो सुमिरन कीजिए, हिरदै माहिं दुराय। होठ होठ सूं ना
हिलै, सकै नहीं कोइ पाय। किसी को पता न चले। क्योंकि मन,
अहंकार, बड़ा चालबाज है। अगर उसको ये भी मजा
आने लगे कि लोगों को पता चल जाए कि मैं राम-स्मरण करता हूं, तो
वह जरा जोर से करने लगेगा। जब कोई निकलेगा तो जरा जोर से करेगा। कोई नहीं होगा तो
धीरे कर लेगा। कोई सुननेवाला नहीं होगा तो पोथी रख कर बैठ जाएगा, दूकान की बात सोच लेगा। फिर कोई आ जाएगा, फिर पोथी
उठा लेगा, हिर किताब पढ़ने लगेगा। मन बड़ा धोखेबाज है। इस मन
के धोखे से सजग रहना। इसीलिए जीवन की जो परम साधना है वह आंतरिक है, गुह्य है।
तुम तो उपवास भी करते हो तो इसलिए कि
जुलूस निकलेगा अब। दस-दस दिन के लोग उपवास कर लेते है, सिर्फ इसी आशा में कि अब जुलूस निकलने को ही है, एकाध
दो दिन की देर और है। उपवास को भी शादी विवाह जैसा उत्सव बना लेते हैं--बैंड-बाजा
बजने लगता है, भीड़ चलने लगती है, प्रासेसन
निकलता है, शोभा-यात्रा बनती है। तुमने उपवास खराब ही कर
दिया। और उस आदमी के मन में उपवास भी दिखावा हो गया। ये किसी से कहने की बात है?
और, अगर तुमने संसार से कह दी, तो समझ लेना परमात्मा से अब कहने की कोई जरूरत न रही। बात खतम हो गयी।
चुकतारा हो गया। तुम्हें जो मिलना था तुम्हारे उपवास से, मिल
गया। बाजार में प्रासेसन निकल गया, बैंड-बाजे हो गए, अखबार में खबर छप गयी, खतम। लोग अहोगामन कर गए आकर
कि तुम महातपस्वी हो! चुकतारा हो गया। जो मिलना था मल गया, उपवास
उसे। अब कोई आगे बात मत उठाना और कुछ पाने को।
धर्म से तुम इस संसार में कुछ भी मत
लेना। तो ही तुम परमात्मा को उससे पा सकोगे। तुम यहां कोई पुरस्कार स्वीकार मत
करना। तो ही तुम्हें उसका पुरस्कार मिल सकेगा। सहजो सुमिरन कीजिए, हिरदै, माहिं पुराय। होठ होठ सूं ना हिलै, सकै नहीं कोइ पाय।।
राम नाम यूं लीजिये, जानै सुमिरनहार। सिवाय परमात्मा के और किसको सुनाना है? उसने सुन लिया बात हो गयी। और वह कोई बहरा थोड़े ही है कि तुम मस्जिद के
ऊपर खड़े होकर चिल्लाओ जब सुनेगा। कबीर कहते हैं, क्या बहरा
हुआ खुदाय? इतनी जोर से क्यों चिल्ला रहे हो? क्या खुदा को तुमने बहरा समझा है? वह सुन ही लेगा।
तुम क्या कहते हो, वह थोड़े ही सुनता है। तुम क्या हो उसे
सुनता है। तुम जो शब्द दोहरा रहे हो, उन्होंने थोड़ी ही सुनता
है। तुम्हारे भाव सुनता है। तुम्हारे ऊपर-ऊपर जो तुम आवरण बनाते हो, वह थोड़े ही सुनता है। तुम्हारे हृदय में जो छिपा है, उसे सुनता है।
राम नाम यूं लिजिये, जानै सुमिरनहार। सहजो कै करता ही, जानै ना संसार।
संसार को कोई पता न चले। बस। उसे पता चल गया, काफी है। बात
खतम हो गयी। वो लेन-देन दो के बीच का है। साधारण जीवन में भी तुम इस सूत्र को याद
रखते हो। प्रेमी अकेले में मिलना चाहते हैं, बाजार में नहीं।
और अगर प्रेमी बाजार में भी मिलें, तो बाजार को भूल जाते हैं,
अकेले हो जाते हैं। इसलिए तो दो प्रेमी जहां मिल जाए वहां उनके लिए
एकांत हो जाता है। और प्रेमी एकांत में मिलना चाहते हैं, क्योंकि
प्रेम बड़ी निजता चाहता है। ये कोई दुखाने की बात थोड़े ही है। ये कोई नाटक थोड़े ही
है कि तुम घुटने टेक कर अपनी प्रेयसी के सामने खड़े हो और मजनूं की भाषा दोहरा रहे
हो। नाटक में ठीक है। क्योंकि वह दिखावा है कि तुम जंगल-जंगल--जैसा राम घूमते हैं
रामलीला में, वृक्षों से पूछते, मेरी
सीता कहां है--ऐसे घूम रहे हो, और ध्यान रखे हुए हो कि फोटो
ग्राफर आया है कि नहीं अब तक, अखबारवालों को खबर हुई कि नहीं?
और चिल्ला रहे हो: मेरी सीता कहां है? नाटक
में ठीक है।
राम ने जरूर वृक्ष-वृक्ष से पूछा
होगा। लेकिन चिल्ला के? वृक्ष कहीं आदमी की भाषा समझते हैं? हृदय की समझते हैं। राम रोएं होंगे शायद किसी वृक्ष पर सिर टेक कर।
प्राणों से एक हूक उठी होगी--हूक कहता हूं, आवाज नहीं--एक आह
उठी होगी: कि मेरी सीता कहां है? लेकिन क्या ऐसे शब्द बने
होंगे कि--मेरी सीता कहां है? आकाश ने सुना होगा, वृक्षों ने सुना होगा कि राम रोते हैं, तड़पते हैं।
परमात्मा ने सुना होगा। लेकिन ये कोई चिल्लाना थोड़े ही था? ये
कोई बाजार में फेरी थोड़े ही लगानी थी।
सहजो कै करता ही, जानै ना संसार। जैसे प्रेम में प्रेमी एकांत चाहते हैं। नहीं चाहते
भीड़-भाड़ खड़ी हो। दो प्रेमी बैठे हों और तीसरा आदमी आ जाए, तो
प्रेम की धारा टूट जाती है। तीसरे की मौजूदगी बाधा बन जाती है। तीसरे की मौजूदगी उथला
कर देती है चीजों को। दो चाहिए, और दो भी जब बहुत गहरे होते
हैं तो एक ही बचता है। कहां दो बचते हैं? उस एकता में ही,
बिना कहे प्रेम निवेदन हो जाता है। भीड़-भाड़ में, चिल्ला-चिल्ला कर रहो तो भी प्रेम निवेदन नहीं होता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग
निरंतर कहते हैं कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं...मैं तुम्हें बहुत प्रेम करता
हूं...उनसे जरा सावधान रहना। वे धोखा दे रहे हैं। प्रेम कहा जाता है? होता है, तो पता चल जाता है। नहीं होता तो आदमी
दोहराता है। पति पत्नी से कहता है, तुझे प्रेम करता हूं,
तेरे बिना एक क्षण न रह सकूंगा। ठीक उलटा सोच रहा है भीतर कि कब
छुटकारा मिले इस देवी से! मैं तेरे बिना रह ही न सकूंगा। हालांकि पत्नी नहीं होती
तब तुम उसे प्रसन्न पाओगे। जैसे ही पत्नी आयी कि सब गड़बड़ हो जाता है। पत्नियां कहे
जा रही हैं कि तुम पर श्रद्धा है, समर्पण है।
मुल्ला नसरुद्दीन को मैंने एक दिन
बाजार में देखा। एक आदमी उसे चाकू-छुरे बेचने की कोशिश कर रहा था। उस आदमी ने कहा, कुछ भी जरूरत न हो नसरुद्दीन, तो भी लिफाफा, चिट्ठी-पत्री काटने के काम आ जाता है। उसने कहा, हमें
जरूरत ही नहीं। हमें चिट्ठी कटी-फटी ही मिलती है। हम विवाहित हैं।
किसी पत्नी को भरोसा थोड़े ही है पति
पर कि चिट्ठी उसके बिना खुली मिल जो। काट के पहले पढ़ती है। कहती है। कहती है, श्रद्धा। तुम भगवान हो। पति परमात्मा है। लेकिन इतना भी भरोसा नहीं है।
श्रद्धा, भरोसा, प्रेम बातचीत हो गये
हैं। दिखावा हो गए हैं। कहते हैं कुछ और, करते हैं कुछ और।
यही हमने परमात्मा के साथ भी कर लिया
है। हमारी प्रार्थना-पूजा भी दिखावा हो गयी है। मंदिर में ज्यादा लोग आ जाते हैं
तो देखो, प्रार्थना करने वाला कैसा मस्ती में आ जाता है!
ज्यादा उछल-कूद करने लगता है। एकांत हो, कोई न हो; इधर-उधर देखता है--कोई भी नहीं, भगवान को कहता है,
जयराम जी। अपने घर जाए। कोई सार क्या है? देखने
वाले नहीं आए हैं आज। प्रार्थना तो अत्यंत निजी घटना है। उससे ज्यादा निजी कुछ भी
नहीं। वह तो प्रेम का भी गहनतम प्रेम है। प्रेम की भी हृदय है, प्राण है।
इसलिए सहजो ठीक कहती है, रामनाम यूं लीजिए, जानै सुमिरनहार। सहजो कै करता
ही...। या तो सहजो को पता चले, और इससे भी इच्छा होगा कि
सिर्फ करता को ही पता चले। ये बड़ी गजब की बात है। सहजो कै करता ही। ज्यादा सहजो के
पता चले, ये भी मजबूरी है। क्योंकि जब प्रेम आल्हादित होगा,
तो सहजो को पता चलेगा। लेकिन इससे भी अच्छा होगा कि सहजो को भी पता
न चले; कै करता--कि बस, करता को ही पता
चले। उसे ही पता चले, बात खतम हो गयी। क्योंकि सहजो भी संसार
का ही अंग है। वह तुम जो हो, तुम्हारा मन है, तुम्हारा अहंकार जो है, वह भी संसार का ही अंग है।
उसको भी दिखाने की जरूरत नहीं। ये बात आखिरी हो गयी। इससे आगे जाना अब असंभव है।
बस उसको पता चल जाए। किसी और से निवेदन नहीं करना है। और उसे पता चल गया, तो वह तो पारस उपलब्ध है उसे छिपा रखना है। उसे ऐसे छिपा रखना है कि किसी
को भी पता ही न चले। यद्यपि लोगों को उसका पता चलेगा। अब ये अंतिम बात तुमसे कह
दूं--
जो लोगों को दिखाना चाहते हैं वे आखिर
में पाएंगे, उनका दिखावा लोगों को पता चल गया कि दिखावा था। तुम
अंधे हो, और तुम लोगों का दिखाना चाहो तुम्हारे पास आंख है,
कितनी देर तुम दिखा पाओगे?
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम
में पड़ा। और तो सब ठीक था, आंख उसकी कमजोर थी। तो अपने आंख के डाक्टर को उसने
कहा कि, क्या करूं, कहीं ये आंखों की
वजह से, और ये चश्मा भारी नंबर का--कहीं तो स्त्री इसी वजह
से गड़बड़ा न जाए। क्योंकि मैं तो उसको भी ठीक से देख नहीं पाता। ऐसा टटोलता हूं,
तब पता चलता है कहां सिर, कहां हाथ। ये तो
बड़ी...अगर बिना चश्मा के देखूं तो कुछ समझ में नहीं आता कि कौन कौन है। और चश्मे
की वजह से कहीं बाधा न आ जाए? कहीं वह स्त्री ये न सोचे कि
तुम बिलकुल नीम अंधे, आधे अंधे हो, तुमसे
क्या शादी करनी! कुछ उपाय है? तो डाक्टर ने कहा,तू एक काम कर। दिखावा कर कि तुझे दिखायी पड़ता है। कोई भी ऐसा काम कर,
जिससे उसको समझ आ जाए कि तुझे दूर का दिखायी पड़ता है।
तो जैसी कहावत है--अंधे को बड़ी दूर की
सूझीं। नसरुद्दीन ने सोचा। सांझ बैठा है, उसने क्या किया,
एक सुई--कपड़ा सीने की सुई--एक वृक्ष में खोंस आया, बड़े से बड़े आंखों वाले को भी न दिखाई पड़े। कोई सौ कदम दूर बैठे, रात चांदनी। और उसने कहा कि अरे! ये वृक्ष में एक सुई मालूम पड़ती है। जरा,
लड़की भी हैरान हुई। शक तो इसकी आंख पर उसे था। लेकिन इसको, और सुई दिखायी पड़ती है! और उसको दिखायी ही नहीं पड़ रही--वृक्ष मुश्किल से
दिखायी पड़ रहा है। और उसमें उसको--एक सुई खुपी है, कोई सुई
लगा गया है--वो दिखायी पड़ रही है। तो उसने कहा, मुझे तो
दिखायी नहीं पड़ती, नसरुद्दीन! नसरुद्दीन ने कहा, मैं अभी निकाल लाता हूं। वो उठे, और धड़ाम से गिरे,
क्योंकि सामने एक भैंस खड़ी थी। भैंस उन्हें दिखायी न पड़ी।
दिखावा ज्यादा देर नहीं चल सकता।
कितनी देर चलेगा? दिखावा जल्दी ही पकड़ में आ जाता है। यद्यपि लोग चाहे
न कहें, क्योंकि वो भी अभद्र मालूम पड़ता है कि कोई तुमसे कहे
कि ये दिखावा है। और अभद्र इसलिए भी पड़ता है कि वे भी तो यही कर रहे हैं। इसलिए
सांठ-सांठ है, एक षडयंत्र है सामूहिक, पारस्परिक
लेन-देन है। हमारा दिखावा तुम नहीं मिटाने, तुम्हारा दिखावा
हम नहीं मिटाते, ऐसे संसार चलता है। तुम दिखाने की कोशिश कर
रहे हो कि बड़े ज्ञानी हैं, और हम दिखाने की कोशिश कर रहे हैं
कि बड़े त्यागी हैं। दोनों को एक-दूसरे का खयाल रखना पड़ता है। अगर तुमने गड़बड़ की,
तो हम भी गड़बड़ कर सकते हैं। इसलिए संसार में ऐसा चलता है। लेकिन सभी
को पता है कि दिखावा दिखावा है। दिखा-दिखा कर तुम किसी को धोखा नहीं दे पाते। और
दूसरी बात जो तुम समझ लो, वह यह कि जो अपने भीतर छिपा लेता
है, वह छिपाए छिपती नहीं। अपनी तरफ से छिपाता है, लेकिन बात प्रकट हो जाती है। वह ऐसे ही जैसे कोई स्त्री गर्भवती हो जाए।
छिपाओगे? चाल बदल जाती है, चेहरे का
ढंग बदल जाता है, आंखों का भाव बदल जाता है। साधारण स्त्री
है। मां, गर्भवती, बात और! एक क्रांति
घट गयी। एक नये जीवन का आविर्भाव हुआ है भीतर। वो गरिमा संभाले नहीं संभलती। इसलिए
गर्भवती स्त्री में जैसा सौंदर्य प्रकट होता है, वैसा किसी
स्त्री में कभी प्रकट नहीं होता। क्योंकि अब एक आत्मा नहीं, दो
आत्माएं एक ही शरीर से झलकती हैं। एक घर में जैसे दो दीए जलते हैं तो प्रकाश सघन
हो जाता है। छिपा न सकोगे। जब तुम्हारे भीतर पारस होगा और परमात्मा को तुम अपने
गर्भ में लेकर चलोगे--कहां छिपाओगे? साधारण सा बच्चा नहीं
छिपता।
सहजो तो ये कह रही है कि तुम छिपाना।
तुम छिपा न सकोगे, ये मैं तुमसे कहता हूं। कोई कभी नहीं छिपा पाया।
अंधों को दिखायी पड़ने लगेगा, बहरों को सुनायी पड़ने लगेगा
तुम्हारे भीतर का परमात्मा। जिन्हें किसी तरह की गंध नहीं आती, उनके नासापुट तुम्हारे भीतर के परमात्मा की गंध से भर जाएंगे। परमात्मा
बड़ी उजागर घटना है। हां, जो छिपाता है उसका उजागर हो जाता
है। और जो उसे उजागर करना चाहता है, उसके पास तो वह है ही
हनीं। इसलिए जल्दी ही पता चल जाता है कि दिखावा था। तुम इसे परमात्मा पर ही छोड़
देना। तुम अपनी तरफ से छिपाना, वह ही प्रकट हो तो तुम क्या
करोगे? वह प्रकट होता है। नहीं तो बुद्ध कैसे प्रकट हों?
नहीं तो सहजो कैसे आए? नहीं तो फरीद कैसे
पहचान जाए? असंभव है।
इस जगत में जब परमात्मा की घटना घटी
है, तो जिनको घटी है उन्होंने लाख उपाय किए छिपाने के, और
उनके सब उपाय असफल हुए। वो परमात्मा तो पता चला ही है। और जिनको नहीं मिला,
उन्होंने लाख उपाय किए बतलाने के, कभी कुछ हुआ
नहीं। उनके बताने से सिर्फ उनकी मूढ़ता ही पता चली। उनके बताने से सिर्फ उनका धोखा
ही प्रकट हुआ है। उनके बताने से केवल उनके भीतर की रिक्तता का ही लोगों को अनुभव
हुआ है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें