महात्मा गांधी से भेट
ओ.के.। सारी दुनिया स्तब्ध रह गई जब जवाहर लाल नेहरू रेडियो पर महात्मा गांधी की मृत्यु की सूचना देते समय एकाएक रो पेड। यह तैयार किया गया भाषण नहीं था। वे अपने ह्रदय से बोल रहे थे। और अगर अचानक उनके आंसू उमड़ पड़े तो वे क्या करते? और अगर कुछ क्षणों के लिए उन्हें रूकना पडा तो इसमें उनका कोई कसूर नहीं था। यह तो उनकी महानता थी। अन्य कोई मूढ़ राजनीतिज्ञ अगर चाहता भी तो ऐसा नहीं कर सकता था। क्योंकि उनके सैक्रेटरी को अपने तैयार किया गए भाषण में यक भी लिखना पड़ता कि अब रोना शुरू कीजिए और रोते-रोते थोड़ा रुकिए ताकि लोग समझें कि यह रोना सच्चा है। जवाहरलाल ऐसे किसी भाषण को पढ़ नहीं रहे थे। सच तो यह है कि उनके सैक्रेटरी बहुत चिंतित थे। कई बरसों बाद उनका एक सैक्रेटरी संन्यासी बन गया था। उसने यह बताया कि हम लोगों ने एक भाषण तैयार किया था परंतु उन्होंने उसको हमारे मुहँ पर फेंकते हुए कहा: बेवक़ूफ़ों, क्या तुम समझते हो कि मैं तुम्हारा लिखा हुआ भाषण पढ़ूंगा।
मैं तुरंत पहचान गया कि जवाहरलाल उन थोड़े से व्यक्तियों में से एक है जो अति संवेदनशील होते हुए भी दूसरों की सहायता के लिए अपने पद का उपयोग करते है। ये दूसरों की सेवा करते है। ये जनता का शोषण नहीं करते।
मैंने मस्तो से कहा: मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूं और कभी बनूंगा भी नहीं। किंतु मैं जवाहरलाल का आदर करता हूं, इसलिए नहीं कि वह भारत के प्रधानमंत्री है बल्कि इस लिए कि वे मेरी संभावना को जान गए है। अभी तो यह किसी को नहीं मालूम कि मेरी यह संभावना-संभावना ही बनी रहेगी या वास्तविकता का रूप ले लेगी। किंतु उनका तुमसे जोर देकर कहना कि राजनीतिज्ञों से मेरी रक्षा करना, मुझे उनसे दूर रखना प्रमाणित करता है कि वह बहुत सह अदृश्य और अस्पष्ट बातों को भी समझ सकते है।
मस्तो के गायब होने की घटना ने और उसके इस अंतिम वक्तव्य ने बहुत से द्वार खोल दिए हैं। मैं बिना सोचे-समझे किसी में भी प्रवेश करूंगा। मेरा तो यही तरीका है।
पहला द्वार है: महात्मा गांधी। जवाहरलाल ने उनका उल्लेख किया था, क्योंकि वे मेरी तुलना उस व्यक्ति से करना चाहते थे जिसका वे सबसे अधिक आदर करते थे। परंतु ऐसा करने से वे थोड़ा सा झिझके भी गए। क्योंकि मेरे बारे में वे जो थोड़ा बहुत जानते थे उससे उन्होंने अनुमान लगाया कि वह जो कह रहे है उसमें कहीं पर कुछ गड़बड़ है। इसीलिए उन्हें झिझक हुई। परंतु उस समय उनको दूसरा कोई नाम नहीं सुझा। इसलिए उनके मुहँ से ये शब्द निकल पड़े कि ऐ दिन यह दूसरा महात्मा गांधी बनेगा।
मस्तो ने उस पर एतराज किया। क्योंकि वह मुझे जवाहरलाल से कहीं अधिक जानता था। हम दोनों के सैकड़ों बार महात्मा गांधी और उनके जीवन-दर्शन की चर्चा की थी। और मैंने सदा विरोध किया था। मस्तो को भी इस बात पर अचरज होता था कि मैं उस आदमी का इतना विरोध करता हूं। जिसको मैंने अपने जीवन में केवल एक बार देखा है। वह भी उस समय जब मैं बच्चा था। दूसरी मुलाकात की कहानी भी मैं तुम्हें सुनाऊं गा....इसमे अचानक बाधा पड़ गई। और तब यह मालूम ही नहीं होता कि आगे क्या होगा। मुझे क्या मालूम था कि बीच में यह विषय उठ पड़ेगा।
मैं अभी भी उस रेलगाड़ी को देख सकता हूं जिसमें गांधी सफर कर रहे थे। वे सदा तीसरे दर्जे, थर्ड क्लास में सफर करते थे परंतु उनका यह थर्ड क्लास फ़र्स्ट क्लास,प्रथम श्रेणी से भी अधिक अच्छा था। साठ सीटों के डिब्बे में वि, उनकी पत्नी और उनका सैक्रेटरी—केवल यह तीन लोग थे। सारा डिब्बा आरक्षित था। और वह कोई साधारण प्रथम श्रेणी का डिब्बा नहीं था क्योंकि ऐसा डिब्बा तो दुबारा मैंने कभी देखा ही नहीं। वह तो प्रथम श्रेणी का डिब्बा ही रहा होगा। और सिर्फ प्रथम श्रेणी का ही नहीं बल्कि विशेष प्रथम श्रेणी का, सिर्फ उस पर ‘’तृतीय श्रेणी’’ लिख दिया गया था और तृतीय श्रेणी बन गया था। और इस प्रकार महात्मा गांधी के सिद्धांत और उनके दर्शन की रक्षा हो गई थी।
उस समय मैं केवल दस साल का था। मेरी मां यानी मेरी नानी ने मुझे तीन रूपये देते हुए कहा कि स्टेशन बहुत दूर है और तुम भोजन के समय तक शायद वापस घर न पहुच सको। और इन गाड़ियों का कोई भरोसा नहीं है। बारह-तेरह घंटे देर से आना तो इनके लिए आम बात है। इसलिए ये तीन रूपये अपने पास रख लो। भारत में उन दिनों तीन रुपयों को तो एक अच्छा खासा खजाना माना जाता था। तीन रुपयों में तो एक आदमी तीन महीने तक अच्छी तरह से रह सकता था।
नानी ने मेरे लिए एक बहुत सुंदर कुर्ता बनवाया था। उनको मालूम था कि मुझे लंबी पतलून अच्छी नहीं लगती । ज्यादा से ज्यादा मैं कुरता-पायजामा पहन लेता था। कुर्ता मुझे बहुत प्रिय था, और पायजामा तो धीरे-धीरे गायब हो गया केवल लंबा कुर्ता ही बचा। लोगों ने शरीर को दो हिस्सों में बाट रखा है। एक उपर का हिस्सा और दूसरा नीचे का हिस्सा। और इन दोनों के लिए कपड़े भी अलग-अलग तरह के बनाए है। शरीर के ऊपरी हिस्से के लिए तो सुंदर-सुंदर कपडे बनाए है और निचले शरीर को तो ढाँक लेने का प्रयास किया गया है बस।
नानी ने मेरे लिए बहुत सुंदर कुर्ता बनवाया था। उन दिनों बहुत गर्मी थी। मध्य-भारत के उस अंचल में बहुत अधिक गर्मी पड़ती है। दिन-रात लू चलती रहती है, उस के थपेड़ों से मुंह और नाक को बहुत परेशानी होती। बस केवल आधी रात को लोगों के कुछ राहत मिलती। मध्य-भारत में इतनी गर्मी पड़ती है कि हर वक्त ठंडा पानी पीने की इच्छा रहती है। उस समय अगर कहीं से बर्फ मिल जाए तो बड़ी खुशी होती है। उस हिस्से में बर्फ बहुत महंगी होती है। क्योंकि वर्क को सौ किलोमीटर दूर कारखाने से लाते समय आधी बर्फ तो रस्ते में ही घुल जाती है। समाप्त हो जाती है। इसलिए उसे जल्दी से जल्दी लाने की कोशिश की जाती है।
मेरी नानी ने मुझसे कहा कि अगर मैं महात्मा गांधी को देखना चाहता हूं तो मुझे वहां जाना चाहिए। और उन्होंने बहुत पतले मलमल का बड़ा कुर्ता बनवाया। मलमल बहुत ही सुदंर और बहुत पुराना कपड़ा है। उन्होंने बहुत अच्छा मलमल लिया। वह बहुत ही पतला और पारदर्शी था।
उस समय सोने की मोहरें गायब हो गई थीं और चाँदी के रूपयों का प्रचलन था। अब उस मलमल के कुर्ते की जेब के लिए चाँदी के तीन रूपये बहुत भारी थे—जेब लटक रही थी। ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, क्योंकि इसको जाने बिना आप लोग उस बात को समझ नहीं सकोगे जो मैं कहने जा रहा हूं।
गाड़ी हमेशा की तरह तेरह घंटे लेट आई। बाकी सभी लोग चले गए थे। सिवाय मेरे। तूम तो जानते है कि मैं कितना जिद्दी हूं। स्टेशन मास्टर ने भी मुझसे कहा: बेटा तुम्हारा तो कोई जवाब नहीं है। सब लोग चले गए हैं किंतु तुम तो शायद रात को भी यहीं पर ठहरने के लिए तैयार हो। और अभी भी गाड़ी के आने को कुछ पता नहीं है। और तुम सुबह चार बजे से उसका इंतजार कर रहे हो।
स्टेशन पर चार बजे पहुंचने के लिए मुझे अपने घर से आधीरात को ही चलना पडा था। फिर भी मुझे अपने उन तीन रुपयों को खर्च ने की जरूरत नहीं पड़ी थी क्योंकि स्टेशन पर जितने लोग थे सब कुछ न कुछ लाए थे और वे सब इस छोटे लड़के की देखभाल कर रहे थे। वे मुझे फल, मिठाइयों और मेवा खिला रहे थे। सो मुझे भूख लगने का कोई सवाल ही नहीं था। आखिर जब गाड़ी आई तो अकेला मैं ही वहां खड़ा था। बस एक दस बरस का लड़का स्टेशन मास्टर के साथ वहां खड़ा था।
स्टेशन मास्टर ने महात्मा गांधी से मुझे मिलवाते हुए कहा: इसे केवल छोटा सा लड़का ही मत समझिए। दिन भर मैंने इसे देखा है और कई विषयों पर इससे चर्चा की है, क्योंकि और कोई काम तो था नहीं। बहुत लोग आए थे और बहुत पहले चले गए, किंतु यह लड़का कहीं गया नहीं। सुबह से आपकी गाड़ी का इंतजार कर रहा है। मैं इसका आदर करता हूं, क्योंकि मुझे पता है कि अगर गाड़ी न आती तो यह यहां से जानेवाला नहीं था। यह यहीं पर रहता। आस्तित्व के अंत तक यह यहीं रहता। अगर ट्रेन न आती तो यह कभी नहीं जाता।
महात्मा गांधी बूढे आदमी थे। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और मुझे देखा। परंतु वे मेरी और देखने के बजाए मेरी जेब की और देख रहे थे। बस उनकी इसी बात ने मुझे उनसे हमेशा के लिए विरक्त कर दिया। उन्होंने कहा: यह क्या है?
, मैंने कहा: तीन रूपये।
इस पर तुरंत उन्होंने मुझसे कहा, इनको दान कर दो। उनके पास एक दान पेटी होती थी, जिसमें सूराख बना हुआ था। दान में दिए जाने वाले पैसों को उस सूराख से पेटी के भीतर डाल दिया जाता था। चाबी तो उनके पास रहती थी। बाद में वे उसे खोल कर उसमें से पैसे निकाल लेते थे।
मैंने कहा: अगर आप में हिम्मत है तो आप इन्हें ले लीजिए,जेब भी यहां है रूपये भी यहां है, लेकिन क्या मैं आप से पूछ सकता हूं कि ये रूपये आप किस लिए इक्कठा कर रहे है।
उन्होंने कहा: गरीबों के लिए।
मैंने कहा: तब यह बिलकुल ठीक है। तब मैंने स्वयं उन तीन रुपयों को उस पेटी में डाल दिया, लेकिन आश्चर्य तो उन्हें होना था क्योंकि जब मै वहां से चला तो उस पेटी को उठा कर चल पडा।
उन्होंने कहा: अरे, यह तुम क्या कर रहे हो। यह तो गरीबों के लिए हे।
मैंने उत्तर दिया: हां, मैंने सुन लिया है, आपको फिर से कहने की जरूरत नहीं है। मैं भी तो गरीबों के लिए ही ले जा रहा हूं। मेरे गांव में बहुत से गरीब है। अब मेहरबानी करके मुझे इसकी चाबी दे दीजिए, नहीं तो इसको खोलने के लिए मुझे किसी चोर को बुलाना पड़ेगा। क्योंकि चोर ही बंद ताले को खोलने की कला जानते है।
उन्होंने कहा: यह अजीब बात है....उन्होंने अपने सैक्रेटरी की और देखा। वह गूंगा बना था जैसे की सैक्रेटरी होते है। अन्यथा वे सैक्रेटरी ही क्यो बने? उन्होंने कस्तूरबा, अपनी पत्नी की और देखा। कस्तूरबा ने उनसे कहा: अच्छा हुआ, अब आपको अपने बराबरी का व्यक्ति मिला। आप सबको बेवकूफ बनाते हो, अब यह लड़का आपका बक्सा ही उठा कर ले जा रहा है। अच्छा हुआ। बहुत अच्छा हुआ,मैं इस बक्से को देख-देख कर तंग आ गई हूं।
परंतु मुझे उन पर दया आ गई और मैंने उस पेटी को वहीं पर छोड़ते हुए कहा: आप सबसे गरीब मालूम होते है। आपके सैक्रेटरी को तो कोई अक्ल नहीं है। न आपकी पत्नी का आपसे कोई प्रेम दिखाई देता है। मैं यह बक्सा नहीं ले जा सकता,इसे आप अपने पास ही रखिए। परंतु इतना याद रखिए कि मैं तो आया था एक महात्मा से मिलने परंतु मुझे मिला एक बनिया।
उनकी जाति भी वही थी। भारत में बनिया का अर्थ है जो यहूदी या ज्यू का होता है। भारत में अपने ही यहूदी है, वह यहूदी तो नहीं पर बनिया है। उस छोटी सी उम्र में भी महात्मा गांधी मुझे व्यवसायी ही लगे।
मैं महात्मा गांधी के विचारों से बिलकुल सहमत नहीं हूं और मैंने सदा उनकी आलोचना की है। परंतु जब उन्हें गोली मारी गई तो मैं सत्रह साल का था और मेरे पिता ने मुझे रोते हुए देख लिया।
उन्हें बड़ा अचरज हुआ। उन्होंने कहा: तुम और महात्मा गांधी के लिए रो रहे हो? तुमने तो सदा उनकी आलोचना की है।
मेरा सारा परिवार गांधी-भक्त था। वे सब गांधी का अनुसरण करते हुए जेल जा चुके थे। केवल मैं ही अपवाद था। स्वभावत: उन्होंने पूछा: तुम रो क्यों रहे हो?
मैंने कहां: मैं सिर्फ रो ही नहीं रहा हूं,मुझे अभी गाड़ी पकड़नी है क्योंकि मुझे उनकी शव यात्रा में शामिल होना है। मेरा समय खराब मत करो, यही अंतिम ट्रेन है जो समय पर वहां पहुंचाएगी।
वो तो भौचक्के रह गए। उन्होंने कहा: मैं भरोसा नहीं कर सकता। तुम तो पागल हो गए हो।
मैंने कहा: हम उसकी बाद में बात कर लेंगे। चिंता मत करो। मैं वापस आ रहा हूं।
मैं उसी समय दिल्ली के लिए रवाना हो गया और जब दिल्ली स्टेशन पर मेरी गाड़ी रुकी तो प्लेटफार्म पर मस्तो मेरा इंतजार कर रहा था।
उसने कहा: मुझे मालूम था कि तुम आओगे। गांधी की आलोचना करने के बावजूद तुम्हारे भीतर उनके लिए आदर भी है। इसलिए मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। मुझे मालूम था कि केवल यहीं गाड़ी तुम्हारे गांव से होकर यहां आती है। और तुम इसी गाड़ी से आ सकते हो। इसी लिए मैं तुम्हें लेने के लिए आ गया।
मैंने मस्तो से कहा: अगर तुमने गांधी के प्रति मेरे भावों की कभी बात की होती तो मैंने तर्क-वितर्क न किया होता लेकिन तुम सदा कुछ स्वीकार करवाना चाहते थे और तब भावना का फिर कोई सवाल नहीं उठता, फिर तो शुद्ध तर्क-वितर्क की बात है। या तो तुम जीतते हो या दूसरा। अगर एक बार भी तुमने भावना की बात की होती तो मैंने कुछ न कहा होता। क्योंकि तब फिर कोई तर्क-वितर्क न होता।
खासकर यह बात रिकार्ड में आ जाए इसीलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं। जब कि महात्मा गांधी के जीवन संबंधी विचार मुझे नापसंद है। फिर भी उनकी बहुत से विशेषताओं की मैं सराहना भी करता हूं। उनकी बहुत सी बातें है जिनकी मैं तारीफ करता हूं, किंतु जो कहने से रह गई हैं। अब उन्हें रिकार्ड में ले लेते है।
मुझे उनकी सच्चाई बहुत पसंद है। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला। वे चारों और झूठ से घिरे हुए थे फिर भी वे सच पर अडिग रहे। मैं शायद उनके सच से सहमत न होऊं पर मैं यह नहीं कह सकता कि वे सच्चे नहीं थे। उन्होंने जिसको सच माना, फिर उसे नहीं छोड़ा। यह बिलकुल भिन्न बात है कि मैं उनके सच को किसी मूल्य का नहीं मानता पर वह मेरी समस्या है उनकी नहीं। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला।
मैं उनकी इस सच्चाई का अवश्यक आदर करता हूं। जब कि उनको उस सत्य के बारे में कुछ नहीं मालूम था जिसकी चर्चा मैं करता हूं। जिसमें जंप करने के लिए सदा कहता हूं।
वे मुझसे कभी सहमत नहीं हो सकते थे। सोचने से पहले कूदो, नहीं वे तो व्यापारी बुद्धि के आदमी थे। दरवाजे से बाहर कदम उठाने से पहले वे तो सैंकड़ों बार सोचते ,कूदने, जंप की बात कहां।
उनको ध्यान के बारे में कुछ नहीं मालूम था और वे उसे समझ सकते थे। इससे उनका दोष नहीं था। उनको अपने जीवन में कोई गुरु नहीं मिला जो उनको निर्विचार मन या शुन्य मन के बारे में बताता। और उस समय भी ऐसे लोग उपस्थित थे।
मैहर बाबा ने एक बार उन्हें पत्र लिखा था। स्वयं तो नहीं लिखा था, पर उनकी और से किसी ने गांधी को पत्र लिखा था। मैहर बाबा तो सदा मौन रहते थे, कभी कुछ लिखा नहीं, किन्तु इशारों से अपनी बात समझाते थे। कुछ लोग ही समझ पाते थे कि मैहर बाबा क्या कहते है। मैहर बाबा ने अपने पत्र में गांधी से कहां था कि हरे राम, हरे कृष्ण बोलने से कोई लाभ नहीं होगा। अगर तुम सचमुच कुछ जानना चाहते हो तो मुझसे पूछो और मैं तुम्हें बताऊंगा। परंतु गांधी और उनके अनुयायी मैहर बाबा के इस पत्र पर बहुत हंसे क्योंकि उन्होंने इसे मैहर बाबा का अंहकार समझा। यह अहंकार नहीं उनकी करूणा थी। किंतु लोग प्राय: इस करूणा को अंहकार ही समझते है। बहुत अधिक करूणा, शायद बहुत अधिक करूणा है इसलिए अहंकार लगता है।
गांधी ने मैहर बाबा को तार से धन्यवाद देते हुए उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि मैं तो अपने ही रास्ते पर चलूंगा। जैसे कि उन्हें रस्ता मालूम था। उन्हें तो कोई रास्ता मालूम ही नहीं था। फिर चलने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
परंतु गांधी की कूद बातें मुझे बहुत प्रिय थी उनका मैं आदर करता हूं। जैसे उनकी स्वच्छता और सफाई। अब तुम कहोगे कि इतनी छोटी-छोटी बातों के लिए आदर, नहीं ये छोटी बातें नहीं है। खासकर भारत में जहां संत, तथाकथित संत सब प्रकार की गंदगी में रहते थे। गांधी न स्वच्छ, साफ रहने की कोशिश की। वे अत्यधिक साफ अज्ञानी व्यक्ति थे। मुझे उनकी साफ-सफाई, स्वच्छता बहुत पसंद है।
सभी धर्मों के प्रति उनका आदरभाव भी मुझे पंसद है। हालांकि हमारे कारण अलग-अलग है। पर कम से कम उन्हेांने सब धर्मों का आदर किया। निश्चित गलत कारण की वजह से। उन्हें पता ही न था कि सच क्या है, तो वे कैसे तय करते कि क्या सही है या कोई भी धर्म सही है। सब सही है या कोई भी कभी सही हो सकता है। कोई रास्ता नथा। अखीर वे एक व्यापारी थे इसलिए क्यों किसी को दुःखी-परेशान करना, क्यों उपद्रव करना?
कम से कम इतनी बुद्धि तो उनमें थी कि वे समझ सके कि गीता, कुरान, बाईबिल और ताल मुद सब एक ही बात कहते है। याद रखना ‘’कम से कम’’ इतनी बुद्धि तो थी कि समानता खोज सके। यह कोई कठिन बात नहीं है। किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए। इसीलिए मैं कहता हूं, कम से कम, इतनी बुद्धि तो थी पर सच मैं बुद्धिमान नहीं थे। सच में बुद्धिमान तो सदा विद्रोही होते है। और वे कभी विद्रोह न कर सके किसी ट्रैडीशनल का—हिंदू, क्रिश्चियन,या बौद्धों का।
आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि एक बार गांधी भी ईसाई बनने का विचार कर रहे थे। क्योंकि यही एक ऐसा धर्म है जो गरीबों की बहुत सेवा करता है। परंतु जल्दी ही उनकी समझ में यह आ गया कि इनकी सेवा सिर्फ दिखावा है, असली धंधा तो पीछे छिपा है। इनका उद्देश्य है लोगो को ईसाई बनाना—सेवा के बहाने ये धर्मपरिवर्तन करते है। क्यों? क्योंकि इससे शक्ति आती है। जितने ज्यादा लोग तुम्हारे पास हों उतनी ज्यादा शक्ति होती है। अगर तुम सारे जगत को ईसाई,यहूदी या हिंदू बना दो तो तुम्हारे पास सबसे ज्यादा शक्ति होगी, जितनी कभी किसी के पास न थी। इसकी तुलना में सिकंदर भी फिका पड जाएगा। यह सब शक्ति का झगडा है।
जैसे ही गांधी ने यह देखा—और मैं फिर कहता हूं, वे इतना देखने के लिए काफी बुद्धिमान थे—उन्होंने ईसाई बनने का विचार छोड़ दिया। सच तो यह है कि भारत में हिंदू होना ज्यादा फायदेमंद था ईसाई होने के बजाए। भारत में ईसाई केवल एक प्रतिशत है इसलिए वे कोई राजनीतिक शक्ति नहीं बन सकेत थे। हिंदू बने रहना ही अधिक लाभदायक था, मेरा मतलब है उनके महात्मा पन के लिए। किंतु वे काफी होशियार थे कि सी.एफ.एण्ड़ जैसे ईसाइयों को बौद्धों और जैनों को और फ्रंटियर गांधी जैसे मुसलमान को भी प्रभावित कर सके।
सीमांत गांधी पख तून जाति के थे जो भारत के सीमांत प्रदेश में रहती है। पख तून बहुत ही सुदंर ओर खतरनाक भी होते है। ये लोग मुसलमान है, और जब उनका नेता गांधी का अनुयायी बन गया। स्वभावत: वे भी अनुयायी बन गए। भारत मुसलमानों ने कभी सीमांत गांधी को माफ नहीं किया। क्योंकि उन्होंने सोचा कि उसने अपने धर्म के साथ गद्दारी की है, धोखा दिया है।
मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि उसने क्या किया। मैं कह रहा हूं कि गांधी ने स्वयं पहले जैन बनने के बारे में बारे में भी सोचा था। उनका पहला गुरु जैन ही था। जिसका नाम था श्रीमद्राजचंद्र। और हिंदू अभी भी इस बात का बुरा मानते है कि उन्होंने एक जैन के पैर छुए। उनका दूसरा गुरु था, रस्किन। इससे हिंदुओं को और भी ज्यादा तकलीफ हुई। रस्किन की एक पुस्तक था: अन टू दिस लास्ट। इसने गांधी के जीवन को ही परिवर्तित कर दिया था। पुस्तकें चमत्कार कर सकती है। तुमने शायद इस पुस्तक के बारे में सुना भी न हो—अनट दि लास्ट। यह एक छोटी सह पुस्तिका है। जब गांधी एक यात्रा पर जा रहे थे, तो उनके एक मित्र ने उनको यह पुस्तिका दी, क्योंकि उसे यह बहुत पसंद आई थी। गांधी ने उसे रख लिया था। सोचा भी न था कि पड़ेंगे। पर रास्ते में जब समय मिला तो उन्होंने सोचा के क्यों न इसे देख लिया जाए। और इस पुस्तिका ने उनके जीवन को ही बदल दिया। उनकी फिलासफी इसी पुस्तिका पर आधारित है।
मैं उनकी इस फिलासफी के विरूद्ध हूं, किंतु यह पुस्तक महान है। उसका दर्शन किसी योग्य नहीं है—परंतु गांधी तो कचरा इकट्ठा करते थे। वे तो सुंदर जगहों पर भी कचरा खोज लेते थे। ऐसे लोग होते है, तुम जानते हो, जिन्हें तुम सुंदर बग़ीचे में ले जाओ, वे ऐसी जगह खोज लेंगे और तुम्हें दिखाइंगे कि यह नहीं होना चाहिए। उनकी सारी एप्रोच ही नकरात्मक होती है। ये कचरा इक्ट्ठा करने वाले लोग होते है। वे अपने आप को कला को इक्ट्ठा करने वाला कहते है।
अगर मैंने इस पुस्तक को पढ़ा होता, जैसा गांधी ने पढ़ा, तो मैं उस निष्कर्ष पर न पहुंचता जिस पर गांधी पहुंचे है। सवाल पुस्तक का नहीं है। सवाल पढ़ने वाले का है। वही चुनता है ओर इकट्ठा करता हे। हम एक ही जगह पर जाएं तो भी अलग-अलक चीजें इकट्ठी करेंगे। मेरे हिसाब से उनका कलक्शन मूल्य-रहित है। मैं नहीं जानता और कोई नहीं जानता कि उन्होंने मेरे कलक्शन के बारे में क्या सोचा होता। जहां तक मैं जानता हूं वह बहुत ही सिंसियर आदमी थे। इसीलिए मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने ऐसा ही कहा होता जैसा मैं कह रहा है। कह उनका सारा कलेक्शन जंक है, कचरा है। शायद उन्होंने कहा होता,शायद न कहा होता—यही उनमें मुझे पसंद है। वे उसकी भी तारीफ कर सकेत थे जो उनके लिए एलियन, अपरिचित था—और अपनी पूरी कोशिश करते खुले रहने की, उसे एब्जार्ब करने की।
वे मोरार जी देसाई की तरह न थे जो कि पूरी बंद, कलोज्ड है। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि वह श्वास कैसे लेते होंगे क्योंकि उसके लिए कम से कम नाक तो खुला चाहिए। किंतु महात्मा गांधी मोरार जी देसाई जैसे आदमी ने थे। मैं उनसे असहमत हूं किंतु फिर भी मैं स्पष्ट और संक्षिप्त लिखते थे। कोई भी उतना सरल नहीं लिख सकता था। और न ही कोई उतनी कोशिश करता था सरल लिखने की। अपने वाक्य को सरल और संक्षिप्त बनाने में वे घंटों लगाते थे। जितना संभव हो उसे उतना छोटा और सरल बनाते। वे जो भी सच मानते थे उसके अनुसार ही जीते थे। यह अलग बात है कि वह सत्य न था, पर इसके लिए वे क्या सामना करते थे। मैं उनकी इस सच्चाई और ईमानदारी का आदर करता हूं। इस ईमानदारी के कारण ही उन्हें अपने जीवन से हाथ धोने पड़े।
गांधी की हत्या के साथ भारत का समस्त अतीत खो गया क्योंकि इसके पहले भारत में कभी किसी को गोली नहीं मारी गई थी। कभी किसी को सूली नहीं लगाई गई थी। यह कभी इस देश का तरीका न था। ऐसा नहीं कि यह बेड उदार लोग है। बल्कि इतने अहंकारी, दंभी है कि वह किसी को इस योग्य ही नहीं समझते कि उसे सूली दी जाए। उससे अपने को बहुत ऊपर मानते है।
महात्मा गांधी के साथ भारत का एक अध्याय समाप्त होता है और नया अध्याय आरंभ होता है। मैं इसलिए नहीं रोया कि वे मर गए। एक दिन तो सभी को मरना ही है। इसमें रोने की कोई बात नहीं है। अस्पताल में बिस्तर पर मरने के बजाए गांधी की मौत मरना कहीं अच्छा है खासकर, भारत में।
एक तरह से वह साफ और सुंदर मृत्यु थी। और मैं हत्यारे नाथूराम गोडसे का पक्ष नहीं ले रहा हूं। और उसके लिए मैं नहीं कह सकता कि उसे माफ कर देना क्योंकि उसे पता नहीं कि वह क्या कर रहा है। उसे अच्छी तरह से पता था कि वह क्या कर रहा है। उसे माफ नहीं किया जा सकता । नहीं कि मैं उस पर कुछ जोर-जबरदस्ती कर रहा हूं बल्कि सिर्फ तथ्यगत हूं।
बाद में जब मैं वापस आया तो यह सब मुझे अपने पिताजी को समझाना पडा और इसमें कई लग गए। क्योंकि मेरा ओर गांधी का संबंध बहुत ही जटिल है। सामान्यत: या तो तुम किसी की तारीफ करते हो या नहीं करते हो। लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है। और सिर्फ महात्मा गांधी के साथ के साथ ही नहीं।
मैं अजीब ही हूं। हर क्षण मुझे यह महसूस होता है। मुझे कोई खास बात किसी कि अच्छी लग सकती है लेकिन उसी समय साथ ही साथ ऐसा कुछ भी हो सकता है जो मुझे बिलकुल पसंद न हो, और जब फिर तय करना होगा। क्योंकि में उस व्यक्ति को दो में बांट सकता।
मैंने महात्मा गांधी के विरोध में होना तय किया। ऐसा नहीं कि उनमें ऐसा कुछ न था जो पंसद न था—बहुत कुछ था। परंतु बहुत बातें ऐसी थीं जिनके दूरगामी परिणाम पूरे जगत के लिए अच्छे नहीं थे। इन बातों के कारण मुझे उनका विरोध करना पडा। अगर वे विज्ञान, टेकनालॉजी, प्रगति और संपन्नता के विरूद्ध न होते तो शायद मैं उनको बहुत पंसद करता। वे तो उस सब चीजों के विरोध में थे। मैं पक्ष में हूं—और अधिक टेकनालॉजी,और अधिक विज्ञान, और अधिक संपन्नता के।
मैं गरीबी के पक्ष में नहीं हूं, वे थे। मैं पुरानेपन के पक्ष में नहीं हूं वे थे। पर फिर भी, जब भी मुझे थोड़ी सह भी सुंदरता दिखाई देती है। में उसकी तारीफ करता हूं। और उनमें कुछ बातें थीं जो समझने योग्य है।
उनमें लाखों लोगों की एक साथ नब्ज परखने की अद्भुत क्षमता थी। कोई डाक्टर ऐसा नहीं कर सकता एक आदमी की नब्ज परखना भी अति कठिन है। खासकर मेरे जैसे आदमी की। तुम मेरी नब्ज परखने की कोशिश कर सकते हो। तुम अपनी भी नब्ज खो बैठोगे, या अगर पल्स नहीं तो पर्स खो बैठोगे जो कि बेहतर ही हे।
गांधी में जनता कि पल्स, नब्ज पहचानने की क्षमता थी। निश्चित ही मैं उन लोगों में उत्सुकता नहीं रखता हूं। पर वह अलग बात है। मैं हजारों बातों में उत्सुक नहीं हूं,पर इसका यह अर्थ नहीं कि जो लोग सच्चे दिल से काम में लगे हैं, समझदारी पूर्वक किन्हीं गहराइयों को छू रहे है। उनको तारीफ न कि जाए। गांधी में वह क्षमता थी। और मैं उसकी तारीफ करता हूं। मैं अब उनसे मिलना पसंद करता। क्योंकि जब मैं सिर्फ दस वर्ष का बच्चा था। वे मुझसे सिर्फ वे तीन रूपये ले सके। अब मैं उन्हें पूरा स्वर्ग दे सकता था—पर शायद इस जीवन में ऐसा नहीं होना था।
--ओशो
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