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मंगलवार, 13 मार्च 2018

बिन घन परत फुहार—प्रवचन-03



पाँव पड़ै कित कै किती—(प्रवचन—तीसरा)  

प्रातः; 3 अक्टूबर 1975;
श्री ओशो आश्रम, पूना.

सारसूत्र :

प्रेम दिवाने जे भये, पलटि गयो सब रूप।
सहजो दृष्टि न आवई, कहा रंक कह भूप।
प्रेम दिवाने जे भये, जाति वरन गए छुट।
सहजो जग बौरा कहे, लोग गए सब फूट।।
प्रेम दिवाने जे भये, सहजो डिगमिग देह।
पांव पड़ै कित कै किती, हरि संभाल तब लेह।।
मन में तो आनंद रहै, तन बौरा सब अंग।
ना कहू के संग है, सहजो ना कोई संग।।
पावं पड़ै कित कै किती
चेतना की दो दशाएं हैं। एक प्रेम की, एक प्रेम के प्रभाव की। चाहो तो कहो जागने की, सोने की। चाहो तो कहो धर्म की, अधर्म की। शब्दों से भेद नहीं पड़ता।
लेकिन चेतना दो ढंग से हो सकती है। जिसे तुमने संसार कहा है, वह चेतना के अप्रेम की अवस्था है। प्रेमशून्य आंखों से जब अस्तित्व को देखा जाता है तो संसार दिखायी पड़ता है। आंखें जब प्रेम से भर जाती हैं, तो वही जो कल तक संसार दिखायी पड़ता था, अचानक क्षणमात्र में परमात्मा हो जाता है।

संसार कोई यथार्थ नहीं है। और समझने की कोशिश करना। परमात्मा भी कोई यथार्थ नहीं है।
जीवन को देखने के दो ढंग है।
संसार प्रेम रहित आंखों का अनुभव है, परमात्मा प्रेमपूर्ण आंखों का। सवाल दृश्य का नहीं है, सवाल दृष्टि का है। क्या तुम देखते हो, वह मूल्यवान नहीं है। कैसे तुम देखते हो? क्योंकि तुम्हारे देखने का ढंग है अस्तित्व को निर्धारित करता है। तुम्हें अगर परमात्मा नहीं दिखायी पड़ता, तो ऐसा मत सोचना कि परमात्मा नहीं है, इतना ही सोचना कि आंखों में प्रेम नहीं है। तुम्हें अगर संसार ही संसार दिखायी पड़ता है, तो ऐसा मत सोचा कि केवल संसार है, इतना ही सोचना कि आंखें प्रेम रिक्त हैं, प्रेम से सुनी हैं। जब आंख प्रेम से खाली होती है, तो जो अनुभव में आता है स्वप्नवत है, झूठा है। क्योंकि सत्य को जानने का प्रेम के अतिरिक्त कोई उपाय ही नहीं है।
जैसे कोई वीणा बजाती हो और तुम आंखों से सुनने की कोशिश करो। कुछ भी सुनायी न पड़ेगा। आंखें सुनने का उपाय नहीं हैं, आंख से कोई सुन नहीं सकता। वीणा बजती रहेगी, संगीत गूंजता रहेगा, तुम तक नहीं पहुंचेगा। क्योंकि जिस सेतु से जोड़ बन सकता था उसका तुमने उपयोग न किया। संगीत सुना जाता है, देखा नहीं। बहरा आदमी बैठकर देखता रहेगा, संगीतज्ञ की उंगलियां तारों से खेलती हुई दिखायी पड़ेंगी, लेकिन तारों और उंगलियों के बीच जो जादू घट रहा है वह उसे सुनायी नहीं पड़ेगा। आंख से सुनने का कोई उपाय नहीं है। या, जैसे कोई आदमी कान से फूलों को देखने का प्रयास करे। फूल खिलते रहेंगे, झरती रहेगी बास उनकी, तितलियों और मधुमक्खियों को खबर लग जाएगी, भौंरों तक संदेश पहुंच जाएगा, लेकिन जो व्यक्ति कान फूल के करीब किए बैठा है उसे कुछ भी पता न चलेगा। कब  कली खिली, कब फूल बनी, कब गंध के बादल घिरे, कब गंध विसर्जित हुई; कब फूल बनकर अस्तित्व के लिए समर्पित हो गयी; कब अर्चना का यह क्षण आया और गया--कान से कुछ भी पता न चलेगा। आंख चाहिए, नाक चाहिए, सम्यक साधन चाहिए।
जब तुम कहते हो संसार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पड़ता, तो इसका केवल एक ही अर्थ है कि तुमने जिसे ढंग से अब तक देखना सीखा है उस ढंग से संसार के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी नहीं पड़ सकता।
पुरानी बाउल कथा है:
एक फकीर नाच रहा है एक फूलों के बगीचे में--फूलों के साथ, पक्षियों के साथ; और एक पंडित ने आकर उससे पूछा कि हमने सुना है तुम सदा प्रेम की ही प्रेम की रट लगाए रखते हो, प्रेम आखिर है क्या? फकीर नाचता रहा, क्योंकि इससे अतिरिक्त और उत्तर क्या हो सकता था? प्रेम चारों तरफ झर रहा था। वृक्ष भी समझ रहे थे, सरोवर भी समझ रहा था, आकाश में तैरते शुभ्र बादल भी समझ रहे थे; पंडित अंधा था।
फकीर नाचता रहा। पंडित ने कहा, बंद करो, यह उछल-कूद। जो पूछा है उसका ठीक-ठीक उत्तर दो, ऐसे उछल-कूद करने से कोई उतर नहीं मिल जाएगा। मैं पूछता हूं, प्रेम क्या है? फकीर ने कहा कि मैं प्रेम हूं। और, अगर नाचते में न दिखायी पड़ा तो जब मैं रुक जाऊंगा तब बिलकुल दिखायी न पड़ेगा। जब गीत गा रहा हूं तब दिखायी नहीं पड़ता, तो जब चुप हो जाऊंगा तब तुम्हारी समझ के बहुत दूर हो जाऊंगा। उत्तर ही दिया है।
वह पंडित हंसने लगा। उसने कहा कि, वैसा नासमझो को उत्तर देना; मैं शास्त्रों का ज्ञाता हूं--सम्यक उत्तर चाहिए। कोई गैर-पढ़ा लिखा गंवार नहीं हूं--वेद जानता हूं, उपनिषद जानता हूं, गाती पढ़ी है। सोच समझकर उत्तर दो। अन्यथा कहो कि उत्तर पता नहीं है।
उस फकीर ने एक गीत गाया। उस गीत में उसने कहा कि मैंने ऐसा सुना है कि एक बार और ऐसी घटना घटी थी--कि फूल खिले थे बगीचे में और माली नाच रहा था, इस अभूतपूर्व फूलों के सौंदर्य के साथ। और, गांव का सुनार आया और कहने लगा, ऐसे क्या मदमस्त हुए जाते हो! ऐसी कौन सी बड़ी घड़ी घट गयी है। नाचने का क्या कारण आ गया है?
तो उसने कहा, देखो इन फूलों को।
सुनार ने कहा, रुको। बिना किए मैं राजी न होऊंगा।
उसने अपने झोले से सोने को कसने का पत्थर निकाला। निश्चित ही सोने के कसने का पत्थर होता है जिस पर सोना कस जाता है, पता चल जाता है--सही है या झूठ। उसने फूलों को सोने के पत्थर पर रगड़ा, कुछ भी पता न चला--फूल मर गए। फूल भी हंसे होंगे, वृक्ष भी हंसे होंगे। आकाश के बादल भी हंसे होंगे। और वह फकीर भी हंसा, वह माली भी हंसा। और, उस फकीर ने पंडित से कहा, ऐसे ही तुम मुझसे पूछ रहे हो। प्रेम को तुम तर्क की कसौटी पर कसना चाहते हो।
तो जैसे फूल मर जाएंगे पत्थर के ऊपर...। पत्थर सोने को कस लेता है, क्योंकि सोने और पत्थर के बीच कोई तारतम्य है--सोना भी पत्थर है। तुमने कभी सोने को खिलते देखा? वह मृत है। मृत मृत को पहचान लेता है। फूल जीवन है। उसे तुम पत्थर पर कसोगे, मर जाएगा; सिर्फ मौत की खबर छूट जाएगी, सिर्फ फूल का लहू पड़ा रह जाएगा पत्थर पर; लेकिन पत्थर से कोई खबर न आएगी कि फूल सच था या झूठ।
सोने के कसने के पत्थर अलग हैं। तुम्हें अगर संसार में परमात्मा नहीं दिखायी पड़ा तो तुम समझना तुम सुनार हो जो फूलों के बगीचे में सोने को कसने के पत्थर को लेकर घूम रहे हो, तुम्हें फूल मिलेंगे ही नहीं। तुम्हारे हाथ के पत्थर ने ही फूलों से मिलन रोक दिया। तुम्हारे देखने के ढंग ने ही बाधा डाल दी। तुम्हारा होने का जो रूप है, वही परमात्मा को वर्जित कर देता है।
जब तुम मुझसे आकर पूछते हो कि परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता, तब मैं परमात्मा को सिद्ध करने नहीं लग जाता हूं, न मैं तुमसे कहता हूं परमात्मा है। वह तो व्यर्थ की बात होगी, वह तो बहरे के सामने वीणा को छेड़ना होगा, वह तो अंधे के सामने दीए का जलाना होगा, वह तो जिसके नासापुट अवरुद्ध हैं उसके पास सुगंध का छिड़कना होगा। नहीं, वैसी भूल मैं नहीं करता।
जब तुम पूछते हो परमात्मा कहां है, तब मैं जानता हूं, तुम पूछ रहे हो प्रेम कहां है? क्योंकि परमात्मा को पूछने का और क्या अर्थ हो सकता है? तुम परमात्मा के संबंध में कोई वक्तव्य नहीं दे रहे हो, तुम अपने संबंध में सूचन कर रहे हो कि मेरे पास प्रेम की आंख नहीं है।
काश! तुम्हें भी यह समझ हो तो तुम परमात्मा को खोजने न निकलो, क्योंकि वह खोज गलत है; तुम प्रेम को खोजने निकलो।
जिसने प्रेम को पा लिया, उसने परमात्मा को पा लिया। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा कहीं भी नहीं मिला है।
तो, मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम परमात्मा से भी बड़ा है; क्योंकि प्रेम की आंख के बिना उससे कोई संबंध नहीं हो सकता। मैं तुमसे कहता हूं, बड़े-बड़े संगीत से भी बड़े हैं तुम्हारे कान, क्योंकि उसके बिना संगीत शून्य हो जाता है। और मैं तुमसे कहता हूं, सुंदर से सुंदर दीयों से भी बड़ी है तुम्हारी आंख। सूरज छोटा है, तुम्हारी आंख बड़ी है। तुम गणित से मत सोचना अन्यथा तुम्हारी आंख छोटी है, सूरज बहुत बड़ा है। और, मैं फिर दोहराता हूं, तुम्हारी आंख बड़ी है सूरज छोटा है, क्योंकि तुम्हारी आंखों के बिना सूरज कहां होगा? तुम्हारी छोटी सी आंख में करोड़ों सूरज समा सकते हैं। और तुम्हारी छोटे से धड़कते प्रेम में परमातें की अनंतता समाविष्ट हो जाती है।
तुम्हारा प्रेम बड़ा है। इस बात को जितनी सफाई से तुम ध्यान में ले लो उतना उपयोगी है, क्योंकि यात्रा का पहा कदम गलत पड़ जाए तो फिर मंजिल सदा के लिए भटक जाती है। पहला कदम ठीक पड़ जाए, आंधी मंजिल पूरी हो गयी। ठीक दिशा में चल पड़े, आधे पहुंच ही गए--अब पहुंचने में कुछ अड़चन न रही, थोड़े समय की ही बात है। लेकिन अगर गलत कदम पड़ जाए, तो तुम जनम-जनम चलते रहो। कितना ही चलो, कितना ही दौड़ो, कितना ही श्रम उपाय करो, कुछ भी न होगा--शायद उलटी ही घटना घटेगी--जितना तुम श्रम करोगे, उतने ही देर निकलते जाओगे; जितना दौड़ोगे, उतना ही फासला बढ़ जाएगा।
गलत दिशा में दौड़ने से कोई नहीं पहुंचता। ठीक दिशा में धीमे-धीमे चलकर भी लोग पहुंच जाते हैं। और जिन्होंने जाना है, उन्होंने तो कहा है कि अगर बिलकुल दिशा ठीक हो तो एक कदम भी नहीं उठाना पड़ता; तुम जहां बैठे हो वहीं मंजिल आ जाती है।
यही मैं तुमसे कहता हूं।
हिलने की भी जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि मंजिल दूर थोड़े है। मंजिल तो तुम्हारी आंख में है तुम्हारे देखने के ढंग में है।
प्रेम से देखने का एक ढंग है--वह एक जादू है, अल्केमी है। उससे देखती ही कुछ और दिखायी पड़ता है, जो कल तक दिखायी ही न पड़ा था। अप्रेम का भी देखने का एक ढंग है। बड़ी अंधी दृष्टि है अप्रेम की। उससे वह दिखायी पड़ता है, जो प्रेम से कभी दिखायी नहीं पड़ता।
संसार और परमात्मा कभी तुम्हारे अनुभव में साथ-साथ न आएंगे। इसीलिए तो ज्ञानी--शंकर जैसे ज्ञानी--कहते हैं, संसार माया है।
तुम यह मत सोचना कि संसार माया है तो शंकर भिख मांगने नहीं जाते, क्योंकि भिक्षा किसने मांगनी? तुम यह मत सोचना कि संसार माया है तो शंकर को भूख नहीं लगती, क्योंकि भूख कैसे लगेगी जब सभी झूठ है? तुम यह मत सोचना कि शंकर को जब भूख लगती है और वे रोटी खा लेते हैं, तब भूख नहीं मिटती। भूख भी लगती है, भूख भी मिटती है, भिक्षा भी मांग आते हैं; फिर भी कहते हैं, संसार झूठ है।
ऐसी कहानी है।
एक सिरफिरे सम्राट ने शंकर की बातें सुनी। उसे बात जंची नहीं। किसी को नहीं जंचती, तुम्हें भी नहीं जंचती। संसार असत्य है! कैसे माना जा सकता है? जरा दीवाल से निकलने की कोशिश करो, सिर फट जाता है, लहूलुहान हो जाता है। अगर दीवाल असत्य थी, तो तुम निकल गए, होते, कौन रोकता? सपने की दीवारें कहीं रोकती हैं? और दरवाजे से तुम निकल जाते हो। तुम दरवाजे और दीवाल में जरूर कोई बुनियादी, यथार्थगत फर्क है। एक से सिर टकराता है, एक से नहीं टकराता।
सम्राट सिर फिरा था, उसने कहा कि ठहरो! बातचीत में मेरा बहुत भरोसा नहीं है। मैं आदमी यथार्थवादी हूं, आदर्शवादी नहीं हूं। तो तुम रुको, यह निर्णय तर्क से नहीं होगा--तर्क में तुम कुशल हो--यह निर्णय यथार्थ के अनुभव से होगा, रुको; उसने अपने महावत को कहा कि पागल हाथी को ले आओ। सम्राट के पास एक पागल हाथी था, जिसके पैरों में भयंकर जंजीरें डाल रखी थीं  क्योंकि वह बस में न आता था। छूट जाता तो दस-पांच की हत्या कर डालता था, कई बार जंजीरें तोड़कर भी भाग निकला था। वह पागल हाथी लाया गया।
सम्राट महल के ऊपर छत पर खड़ा हो गया, लोग अपने घरों में छिप गए, राजपथ खाली हो गया। शंकर को राजपथ पर छोड़ दिया और पागल हाथ छोड़ दिया। भागे शंकर! चीखे, चिल्लाए, घबड़ाए! तुम शायद सोचोगे, अरे! संसार माया, और शंकर भागने लगे माया के एक हाथी को देखकर--ज्ञानी तो ऐसा नहीं करता। यही सम्राट ने भी सोचा। इसके पहले कि कोई हानि पहुंचायी जा सके, क्योंकि हानि पहुंचाने का तो कोई प्रयोजन न था, सिर्फ जांच करनी थी--संसार माया है? शंकर को बचा लिया गया। पसीने से लथपथ, होश-हवास खोए हुए दरबार में बुलाए गए, सम्राट हंसने लगा। उसने कहा, अब कहो, संसार माया है?
शंकर ने कहा, निश्चित ही महाराज, संसार माया है। सम्राट खिलखिलाकर हंसा, उसने कहा कि पागल हो, अब बिलकुल पागलपन की बात है। फिर भागे क्यों? फिर चीखे-चिल्लाए क्यों? फिर रोए क्यों? ये चेहरे पर पसीने की बूंद क्यों है? ये छाती अभी तक धड़क क्यों रही है? झूठे हाथी को देखकर यह सब हुआ है?
शंकर ने कहा, महाराज! यह भी उतना ही झूठ है जितना हाथी झूठ है। सच्चे हाथी से सच्चे आंसू होते हैं, झूठे हाथी से झूठे आंसू हो जाते हैं। मेरा भागना भी झूठ था, मेरा चीखना-चिल्लाना भी झूठ था। आपका सुनना भी झूठ था। सम्राट ने कहा, बकवास बंद करो, तुम पागल हो, हाथी से भी ज्यादा पागल हो। अब कुछ बात करने का कारण न रहा।
ऊपर से लगेगा कि शंकर ने यह कैसा जवाब दिया, लेकिन यह ठीक है। शंकर जा सकते हैं--संसार माया है--तो इसका यह अर्थ नहीं है कि संसार नहीं है। इसका इतना ही अर्थ है कि जो है, उसे तुमने गलत ढंग से देखा है। इसलिए जो तुम समझ रहे हो कि वह है, वैसा नहीं है। तुम्हारा अनुभव झूठ है।
संसार तुम्हारा अनुभव है, तुम्हारी व्याख्या है सत्य की। सत्य को तुमने देखा नहीं है, तुमने तो सिर्फ व्याख्या की है, और तुम्हारी व्याख्या झूठ है।
संसार ब्रह्म की अज्ञानपूर्ण व्याख्या है।
और जब आंख खुलती है, होश आता है, प्रेम की धारा बहती है, तब तुम इसी संसार को एक दूसरे दृष्टिकोण से, एक दूसरी पृष्ठभूमि में देखते हो। एक दूसरा संदर्भ आविर्भूत होता है, और सब अर्थ बदल जाते हैं। उस समय तुम कहते हो, जो मैंने पहले जाना था वह झूठ था; क्योंकि इस बड़े सत्य के सामने वह एकदम फीका पड़ जाता है। उस क्षण तुम कहते हो कि अब तक जो माना था वह सही था, इस नये अनुभव ने उसे बाधित कर दिया।
तुम्हारी आंख आत्यंतिक मूल्य रखती है। इसलिए तो हमने भारत में तत्व शास्त्र को दर्शन कहा, देखने का ढंग कहा। पश्चिम में तत्वदर्शन को फिलासफी कहते हैं। फिलासफी उतनी कीमती शब्द नहीं है जैसा दर्शन। क्योंकि फिसा सफी का मतलब होता है--सोचना, विचारना; देखना नहीं। फिलासफी का अर्थ होता है--जीवन को सोचना, विचारना, निष्कर्ष लेना। दर्शन का अर्थ होता है--तुम सोचोगे, विचारोगे, निष्कर्ष लोगे, वह सत्य न होगा; क्योंकि तुम्हारे निष्कर्ष में, तुम्हारे सोचने-विचारने में, तुम समाविष्ट हो जाओगे--तुम्हारा ही विस्तार होगी।
शब्द हटाओ। देखो
देखने की पराकाष्ठा कब घटित होती है? क्यों प्रेम को देखने की पराकाष्ठा कहा है, क्यों? इसलिए कि प्रेम के क्षण में दृश्य और दृष्टा एक हो जाते हैं।
प्रेम का अर्थ ही है, जिसे तुम देख रहे हो उससे दूरी नहीं है; जिसे तुम देख रहे हो उसके लिए तम खुले हो, निकट हो, उपलब्ध हो; जिस तुम देख रहे हो उसे तुम अपने की तरह देख रहे हो पराए की तरह नहीं। जिसे तुम देख रहे हो उसे अपना ही विस्तार मान रहे हो--कोई अन्य नहीं; जिसे तुम देख रहे हो उसके साथ तुम एक हो गए हो।
प्रेम का अर्थ, जिसे तुम देख रहे हो उससे तुम जुड़ गए हो-- वह विजातीय नहीं है। तुम्हारा हृदय और उसका हृदय साथ-साथ धड़क रहा है। तुम्हारी श्वास और उसकी श्वास साथ-साथ चल रही है, तुम्हारे होने में और उसके होने में अब बीच में कोई दीवाल नहीं है। प्रेम का इतना ही अर्थ है। सब दीवालें विसर्जित हो गयी हैं। दृष्टा दृश्य बन गया है।
कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं: दि आब्जर्व्ड इज दि आब्जर्वर, दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्व्ड। वह प्रेम की व्याख्या कर रहे हैं--देखनेवाला दृश्य हो गया, दृश्य देखनेवाला हो गया है। दोनों ऐसे मिल गए हैं जैसे दूध पानी मिल जाते हैं। फिर अलग करना मुश्किल हो जाता है। मिलने के बहुत ढंग हैं। पानी और तेल भी मिलाया जा सकता है। लेकिन मिलाओ, फासला बना ही रहता है--पानी तेल मिलते ही नहीं। अप्रेम की दृष्टि पानी और तेल का मिलन है। तुम देखते हो, पर मिलते नहीं। बिना मिले कैसे देखोगे? बिना मिले कैसे उतरोगे अंतरतम में यथार्थ के? बिना मिले कैसे पहुंचोगे गहराई तक? दूध-पानी जैसे मिल जाओ।
फूल को देखने गए हो: वहां फूल रहे, यहां तुम रहो; धीरे-धीरे, धीरे-धीरे दोनों खो जाए, सिर्फ फूल का अनुभव रहे--न तो अनुभव करनेवाला बचे, न फूल बचे--सिर्फ बीच में तैरता एक अनुभव रह जाए। जहां दृष्टा और दृश्य खो जाते हैं, वहां दर्शन फलित होता है।
प्रेम पराकाष्ठा है। प्रेम के अतिरिक्त, जानने का कोई उपाय नहीं। तुमने कभी सोचा; तुमने कभी निरखा, परखा, पहचाना कि जीवन के, ज्ञान के अन्यतम क्षण प्रेम की छाया की तरफ आते हैं। तुम केवल उसी व्यक्ति को जान पाते हो जिसे तुमने प्रेम किया। जिसे तुमने प्रेम नहीं किया, उसके आसपास तुम कितनी ही परिक्रमा करो--जैसे लोग मंदिर में परिक्रमा करते हैं--पर वह परिक्रमा आसपास ही रहेगी, बाहर ही बाहर घूमोगे, भीतर न जा सकोगे। क्योंकि भीतर जाने की तो संभावना तभी है जब तुम अपने को डुबाने और मिटाने को राजी हो जाओ। तब तुम मिटने को राजी होते हो तब दूसरा भी मिटने को राजी हो जाता है--तुम्हारा राजीपन उसमें राजीपन की प्रतिध्वनि पैदा करता है। जैसे दो बूंद करीब आती हैं, करीब आती जाती हैं--राजी हैं मिटने को--फिर पास आ जाती हैं और एक बूंद हो जाती हैं। ऐसा एक बूंद हो जाना प्रेम है।
उस प्रेम से जिसने जाना, परमात्मा जाना। तब उसकी बड़ी अड़चन होती है। तुम पूछते हो परमात्मा कहां है? वह पूछता है संसार कहां है? यही माया का अर्थ है। तुम पूछते हो, परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता। वह पूछता है, उसके अतिरिक्त कुछ दिखायी नहीं पड़ता। शेष सब झूठ हो गया है--वही केवल सत्य बचा है।
प्रेम से जाना गया जगत परमात्मा है। अप्रेम से जाना गया परमात्मा जगत है।
यह तुम्हारे देखने के ढंग हैं।
कुछ और दो-चार बातें समझ लें, तो फिर सहजो के सीधे-सादे वचन बड़ी गरिमा से प्रकट हो जाएंगे। वह वचन बहुत सीधे हैं, सीधे-सादे हैं, कुछ उलझाव नहीं है। लेकिन अगर पृष्ठभूमि तैयार न हो, तो तुम इन्हें दोहरा लोगे समझ कुछ भी न पाओगे। सरलतम चीजें भी कठिनतम हो जाती हैं, अगर समझ की पृष्ठभूमि न हो; कठिनतम चीजें भी सरलतम हो जाती हैं, अगर समझ की पृष्ठभूमि तैयार हो--
पहली बात--
तुमने छोटे बच्चों को कभी पढ़ते देखा है। रवींद्रनाथ की कोई श्रेष्ठतम कविता दे दो, तो भी छोटा बच्चा बड़े-बड़े अक्षर नहीं पढ़ सकता, उसे हिज्जे करने पड़ते हैं। अगर परमात्मा लिखा हो, तो वह प को अलग पढ़ता है, र को अलग पढ़ता है, हलंत त को अलग पढ़ता है, म को अलग पढ़ता है--हिज्जे करता है। श्रेष्ठतम कविता भी छोटे बच्चे को पढ़ते देखो, तुम पाओगे कविता खो गयी, सिर्फ वर्णमाला बची। छोटे बच्चे को सुनकर तुम्हें रवींद्रनाथ की कविता का स्मरण भी न आएगा। शायद तुम उसकी बकवास से ऊब जाओ कि--क्या लगा रहा है, प छोटा प, म बड़ा म? बंद कर!
उस गीत की सारी खूबी खो गयी। क्यों? क्योंकि गीत अखंडता में था, बच्चे ने खंड-खंड कर दिए। जैसे किसी की एक सुंदर मूर्ति हो और तुम हथौड़े से तोड़ दो--खंड-खंड हो जाए। पत्थर अब भी वही है, न तो तुमने कुछ जोड़ा, न तुमने कुछ घटाया--हथौड़ा न तो जोड़ता है, न घटाता है, हथौड़ा सिर्फ तोड़ता है। अगर वजन तौलोगे तराजू पर उतना ही है अब, जितना पहले था। लेकिन कुछ चीज नष्ट हो गयी जो तराजू पर तौल में नहीं आती। इस मूर्ति के दाम लाख रुपए हो सकते थे, अब दो कौड़ी हो गए। संगमरमर उतना ही है--बाजार में बेचने जाओगे, संगमरमर, संगमरमर के दाम आ जाएंगे--मूर्ति खो गयी।
मैंने सुना है, एक गांव में ऐसा हुआ कि एक आदमी अपने घोड़े को लेकर--एक करीब किसान--जंगल से गांव की और लौटता था। एक राहगीर वृक्ष के नीचे खड़ा था। उस राहगीर ने कहा, रुक। यदि मुझे तेरे घोड़े का चित्र बना लेने दे, तो मैं तुझे पांच रुपए दूंगा। वह आदमी तो चकित हुआ। पांच रुपए तो घोड़े पर दिन भर सामान ढोता है तब नहीं मिल पाते, और यह आदमी सिर्फ चित्र बनाने का कह रहा है! उसने कहा, बड़ी खुशी की बात है, मजे से बना लो। वह आदमी एक चित्रकार था। उसने घोड़े का चित्र बनाया, पांच रुपए दिए, जहां से आया था शहर की तरफ चित्रकार वापस लौट गया। कई महीनों बाद ग्रामीण शहर किसी काम से गया था, उसी घोड़े पर बैठकर उसने एक बाजार में बड़ी भीड़ देखी, पांच-पांच रुपए लग रहे थे, अंदर कोई बड़ी अदभुत चित्रकला का नमूना मौजूद था। था तो ग्रामीण, गरीब था, लेकिन वह पांच रुपये उसके पास थे जो चित्रकार ने दिए थे। वह अनायास ही मिल गए थे, उनका कोई खर्च भी उसे सूझा न था, कोई ज्यादा जरूरतें भी न थीं, वह खीसे में थे। उसने कहा, क्यों न हो! अब शहर आ ही गए हैं, और इतनी भीड़ लगी है, लोग क्यू लगाकर खड़े हैं; तो वह भी क्यू लगाकर, पांच रुपये देकर भीतर गया। वह तो चकित हो गया, क्योंकि वह तो उसी के घोड़े का चित्र था!
उसने चित्रकार को पकड़ा, उसने कहा कि लूट की हद हो गयी; तुम तो हजारों रुपए कमा रहे हो! और मेरा जिंदा घोड़ा बाहर खड़ा है, और तुमने केवल चित्र बनाया है, सिर्फ कागज पर कुछ रंग फैला दिए हैं। जिंदा घोड़े को भी देखने कोई पांच रुपए नहीं देता, नहीं तो हम करोड़पति हो गए होते। तुम्हारे इस चित्र के लिए तुम्हें पांच-पांच रुपए देकर लोग देखने आ रहे हैं, और इतनी भीड़ लगी है, और बड़ी प्रशंसा है गांव में। और, ये वे ही पांच रुपए हैं जो तुमने मुझे दिए थे--मैं भी उन्हें देकर आ गया हूं। अगर धंधा ऐसा ही है, तो मैं भी क्यों न अपने घोड़े को तुम्हारे पास ही खड़ा कर लूं, और उसके भी दाम लगवा दो! चित्रकार ने कहा, वह संभव न होगा। वह ग्रामीण पूछने लगा--लेकिन इस कागज में, रंग में, लकीर में, रंग में रखा क्या है? दाम कितना है इसका?
उस चित्रकार ने कहा, अगर कागज और रंग का दाम पूछो तो कुछ भी नहीं है। पांच रुपए से कम ही होगा। लेकिन रंग और कागज के माध्यम से जो प्रगट हुआ है वे मूल्य है, उसके लिए खरीदा नहीं जा सकता। तुम्हारा घोड़ा कितना ही यथार्थ हो, आज नहीं कल मर जाएगा। ये चित्र शाश्वत है, ये सनातन है। ऐसे कोई तुम्हारे जैसे घोड़े आएंगे और चले जाएंगे, यह घोड़ा रहेगा। यह घोड़ा तुम्हारे घोड़े का ही चित्र नहीं है, समस्त घोड़ों का सार है।
ग्रामीण की बुद्धि में तो नहीं आया होगा। परमात्मा भी तुम्हारी बुद्धि में नहीं आता, क्योंकि बुद्धि बहुत ग्रामीण है।
छोटा बच्चा कविता को भी हिज्जे करके पढ़ता है और काव्य का सारा गुण खो जाता है। क्योंकि काव्य का गुण तो समग्रता में है।
तुम जब विचार से देखते हो संसार को, तो तुम हिज्जे करके देख रहे हो परमात्मा को--टुकड़े-टुकड़े में। विचार का अर्थ है विश्लेषण, विचार का अर्थ है अनानिसिस--तोड़ो। विज्ञान यही करता है--तोड़ो और जानो।
अगर तुम पूछो कि फूल बहुत सुंदर है, वैज्ञानिक कहेगा हम लें जाएंगे अपनी प्रयोगशाला में, तोड़ेंगे। सब रासायनिक द्रव्य अगल कर लेंगे--खनिज अलग कर लेंगे, कितनी मिट्टी कितना आकाश, कितना पानी, सब अलग कर देंगे। तुम आ जाना, हम विश्लेषण करके बता देंगे क्या-क्या इसके भीतर है। वैज्ञानिक विश्लेषण कर देगा, बोतलों में लेबल लगाकर रख देगा--इतनी मिट्टी, इतना आकाश, इतना जल, इतना ये, इतना वो। तुम इससे मत पूछना कि वह बोतल कहां है कि जिसमें तुमने सौंदर्य भी रखा है! वह कहेगा सौंदर्य तो पाया ही नहीं; मिट्टी मिली, पानी मिला, और सब जो-जो मिला ये बोतलों में बंद है। हमने कुछ छोड़ा नहीं, पूरा का पूरा फूल इन बोतलों में बंद है, तुम वजन कर ले सकते हो। सौंदर्य तुम्हारी भ्रांति रही होगी, क्योंकि सौंदर्य तो किसी भी फूल में खोजने से मिला नहीं, और हमने कुछ भी घटाया नहीं--वजन बराबर है।
ऐसा ही तो नासमझ, आदमी के संबंध में सोचते हैं। कई प्रयोग किए गए हैं। जब आदमी मरे, तो पहले जिंदा आदमी का वजन तौलो, फिर जब वह मर जाए तो मेरे आदमी का वजन तौलो, अगर आत्मा निकल गयी तो वजन कम हो जाएगा। वजन कम नहीं होता, कई बार तो बढ़ जाता है। तुम चकित होओगे कि बजाय इसके कि आत्मा निकल गयी, बढ़ जाता है उलटा। क्योंकि जैसे ही श्वास छूट जाती है, शरीर का जो संयम है, शरीर की जो अपने-आप को बांध रखने की क्षमता है, वह नष्ट हो जाती है--तो बहुत हवा शरीर के भीतर प्रवेश कर जाती है, उस हवा के कारण कभी-कभी तो वजन बढ़ जाता है। शरीर फूल जाता है, हवा की मात्रा बढ़ जाती है; घटता तो नहीं, बढ़ भले जाए।
तो, जिन्होंने आदमी को तौलकर जानना चाहा कि आत्मा मरते वक्त निकलती है या नहीं, वे हिज्जे कर रहे हैं। आत्मा है समग्रता, वह है काव्य जीवन का। वह विचार के विश्लेषण से नहीं, प्रेम के अनुभव  से उपलब्ध होती है।
तुमने अगर किसी को प्रेम किया है, तो तुम जान ही लोगे कि वह शरीर नहीं है। ये कसौटी है कि तुमने प्रेम किया या नहीं। अगर तुम्हें अपनी प्रेयसी में, या प्रीतम में, या अपने बेटे में, या अपनी पत्नी में, या अपने मित्र में सिर्फ शरीर दिखायी पड़ता है, तो तुमने प्रेम नहीं किया। अगर तुमने प्रेम किया होता तो तुम पाते कि शरीर है, लेकिन तुम्हारा प्रेम यह शरीर मात्र नहीं है। शरीर के भीतर, शरीर से बहुत बड़ा बहुत अनंतगुना है। शरीर क्षणभंगुर है, भीतर जो है वह सनातन है, शाश्वत है। भीतर तो जो है वह समस्त सृष्टि का सार है, वह तो चैतन्य का आखिरी शिखर है। लेकिन, उसे देखने के लिए पूरे के पूरे को देखने की क्षमता चाहिए।
प्रेम पूरे को देखता है। वह विहंगम दृष्टि है। जैसे पक्षी आकाश में उड़ता है और वहां से देखता है नीचे, सब इकट्ठा दिखायी पड़ता है। तुम रास्ते से गुजरते हो, एक झाड़ दिखायी पड़ा, फिर दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा--हिज्जे करते हो। पक्षी उड़ता है आकाश में, सारे झाड़ एक साथ दिखायी पड़ते हैं।
प्रेम ऊंचाई है। विहंग की तरह आकाश में उड़ना है। वहां से जीवन को देखना है। वहां से जीवन की जो परिपूर्णता है, वही परमात्मा है।
जिसने समग्रता को जाना उसने परमात्मा को जाना, जिसने खंड-खंड को जाना वह संसार से आगे न जा सका।
यद्यपि खंड उसी अखंड के हैं, लेकिन वह अखंड खंड नहीं है। इस बात को ठीक से समझ लोग। अब खंड उसी अखंड के हैं, लेकिन वह अखंड सभी खंडों के जोड़ से ज्यादा है। वह खंडों में प्रगट हुआ है, खंडों में समाप्त नहीं है। वह खंडों में उतरा है। खंडों की सीमा है, वह असीम है।
जैसे तुम्हारे आंगन में आकाश उतरा है। निश्चित ही आकाश उतरा है, लेकिन तुम्हारा आंगन सारा आकाश नहीं है। तुम्हारे आंगन में जो है वह भी आकाश है, लेकिन आकाश तुम्हारे आंगन पार भी है। तुम्हारे शरीर में जो उतरा है, वह सारा परमात्मा नहीं है, वह सारा आकाश नहीं है।  यद्यपि वह भी परमात्मा है। इतना ही आत्मा और परमात्मा का फर्क है। आत्मा का अर्थ है, आंगन में घिरा आकाश। परमात्मा का अर्थ है, दीवालें तोड़ दीं, आंगन मिट गया। आंगन को मिटाने के लिए कुछ भी तो नहीं करना पड़ता, सिर्फ उसको बनानेवाली दीवालें तोड़ देनी पड़तीं हैं। दीवालों के कारण भ्रांति पैदा होती थी, दीवालों के विसर्जित हो जाने पर भ्रांति विसर्जित हो जाती है।
भेद अप्रेम है। अभेद प्रेम है। और अखंड को देखने की बात है। अखंड को देखने के लिए तुम्हें ऊंचे जाना पड़े। जमीन पर चल सकोगे, आकाश में उड़ना पड़े! अखंड को जानने के लिए तुम्हें खंड करने की प्रक्रिया को त्यागना पड?
विचार का त्याग प्रेम है, और विचार का त्याग ही ध्यान है। निर्विचार हो जाना ध्यान है, निर्विचार हो जाना प्रेम है। कोई विचार न रह जाए तुम्हारे भीतर। जब तुम प्रेम में पड़ते हो तब विचार कम हो जातेहैं। कभी अपने प्रेम के पास बैठे हो, तब तुम पाओगे कि मौन घेर लेता है, चुपचाप हो जाते हो, कहने को कुछ भी नहीं रह जाता। या, कहने को इतना होता है कि कैसे कहा जा सकता है? बोलने में अड़चन मालूम पड़ती है, क्योंकि लगता है, बोले कि झूठ हो जाएगा; बोले, तो पाप हो जाएगा; बोलने से ही बात की जो गरिमा है, खो जाएगी, नष्ट हो जाएगी। वह जो भीतर अभी उमग रहा है, वह जो भीतर सभी सघन हो रहा है, उसके लिए शब्द बाहर प्रकट न कर पाएंगे--शब्द बड़े असमर्थ हैं, सीमित हैं। उनका उपयोग बाजार में हैं, दूकान है, दफ्तर में है, काम-धाम में है--प्रेम में नहीं
तो, जब भी दो व्यक्ति पास मौन में बैठे हो, जानना गहन प्रेम हैं। या, जब भी दो व्यक्ति प्रेम में हों, तब तुम जानोगे कि गहन मौन में हैं। प्रेमी चुप हो जाते हैं। और अगर तुम चुप होने की कला सीखने जाओ, तो तुम प्रेमी हो जाओगे। फिर तुम जिसके पास भी चुप बैठ जाओगे, उससे तुम्हारे पास के संबंध जड़ जाएंगे। अगर तुम वृक्ष के पास बैठ गए तो वृक्ष से तुम्हारा संवाद हो जाएगा, और तुम सरिता के पास मौन बैठ गए तो सरिता से तुम्हारा तालमेल हो जाएगा, और तुमने अगर मौन से आकाश के तारों को देखा तो तुम अचानक पाओगे, जुड़ गए तारों से, कुछ अदृश्य द्वार खुल गए, कुछ पर्दे हट गए।
प्रेम है अखंड का दर्शन। अखंड के दर्शन के लिए तुम्हें मौन होना जरूरी है, क्योंकि मौन में ही तुम अखंड होते हो, तुम्हारी दीवालें गिर जाती हैं आंगन की--तुम खुद आकाश जैसे हो जाते हो।
मुझे इस भांति कहने दो कि अगर परमात्मा को जानना है तो परमात्मा जैसे होना पड़ेगा।
प्रेम में व्यक्ति परमात्मा हो जाता है। प्रेम में परमात्मा ही रह जाता है--बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे, सभी दिशाओं में। लहरें खो जाती हैं, सागर ही शेष रहता है।
जिनके जीवन में प्रेम नहीं है उनके जीवन में संसार है। फिर जीवन में धन होगा, पद होगा मान-मर्यादा होगी, प्रतिष्ठा होगी, यश होगा, महत्वाकांक्षा होगी--हजार पागलपन होंगे--बस प्रेम नहीं होगा; तो सब पागलपन प्रकट होने शुरू हो जाएंगे। तुमने कभी गौर किया, महत्वाकांक्षी प्रेम नहीं कर सकता। जितनी महत्वाकांक्षा हो उतना ही वह कहता है: कल--प्रेम कल; आज धन, आज पद। वह कहता है--अभी चुनाव करीब आ रहा है, अभी कैसे प्रेम? वह कहता है--अभी दिल्ली जाना है, अभी मंदिर की कैसे सुध-बुध? वह कहता है--अभी गीत गाने का वक्त नहीं, तिजोड़ी भरने का समय है--वह कहता है--अभी तो जवान हूं, अभी प्रेम में व्यर्थ करूंगा जीवन की ऊर्जा को? अभी तो कमा लूं; कल जब कमाने को हाथ कमजोर हो जाएंगे जब लेंगे प्रेम और प्रार्थना, और खोज लेंगे परमात्मा। दिन थोड़े हैं भोगने को, पाने को बहुत है।
इसे थोड़ा समझो--ये दूसरी बात समझने की है कि जिन लोगों के जीवन में प्रेम नहीं है, उनके जीवन में कोई और दौड़ होगी। क्योंकि और दौड़ चाहिए जो कि सब्स्टीयूट--परिपूरक--बन जाए, नहीं तो तुम बिलकुल खाली हो जाओगे। प्रेम है ही नहीं तुम खाली तो हो, अब इस खालीपन को किसी भी कूड़े-करकट से भरना होगा, अन्यथा जी न सकोगे, अन्यथा जीना दूभर हो जाएगा।
मैं एक यहूदी के जीवन संस्मरण पढ़ रहा था। वह हिटलर के कारागृह में बंद था। उसने लिखा का अर्थ खो गया था--जो भी जीवन में उनके अर्थ था कारागृह के बाहर, कारागृह के भीतर नष्ट हो गया। यह खुद व्यक्ति डाक्टर है, ये लोगों का अध्ययन करता था। ये हैरान था कि अचानक..., इन्हीं लोगों को वह जानना था बाहर की दुनिया में भी। बड़ी चहल कदमी थी इनमें, बड़ी गति थी, बड़ी ऊर्जा थी...अचानक जेलखाने के भीतर आते ही सब ऊर्जा खो गयी, सब गति खो गयी, ये खाली मुर्दों की तरफ बैठ गए। लोग पागल होने लगे, या लोगों ने आत्महत्याएं करनी शुरू कर दीं। जिन्होंने न आत्महत्या की, न पागल बने, वे बीमार रहने लगे। और बीमारी ऐसी, जैसे कि उनके मरने की आकांक्षा का सबूत हो, जैसे वे मरना चाहते हैं।
ये डाक्टर था, तो इसको जेल का डाक्टर नियुक्त कर दिया गया था। ये मरीजों पर काम नहीं करतीं! उनके जीवन की लालसा ही खो गयी है, दावा क्या खाक करेगी? तुम जीना चाहते हो, तो दवा से थोड़ा सहारा, थोड़ी बैसाखी मिल जाती है; तुम जीना ही न चाहो, तो दवा तुम्हारे प्राण स्वीकार ही नहीं करते; शरीर में आती है और जाती है, मल-मूत्र बन जाती है, तुम्हारी जीवन-ऊर्जा को गतिमय नहीं दे पाती। बैसाखी थोड़े लंगड़े को चलाती है, लंगड़ा बैसाखी को संभालना है तो चलाती है। लंगड़े को चलना ही नहीं, तुम बैसाखी लगा दो। तो वैसे चाहे देर में गिरता, अब ये बैसाखी की झंझट में और जल्दी गिर जाएगा। दवाएं काम नहीं करतीं लोगों पर।
पर ये चकित हुआ कि इसको खुद के जीवन में फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि इसके जीवन की धारा तो वही रही--बाहर भी मरीजों को देख रहा था, ठीक करने की कोशिश कर रहा था, यहां भी मरीजों को देख रहा है, ठीक करने की कोशिश कर रहा है। वस्तुतः इसके जीवन में और भी ज्यादा अर्थ आ गया। क्योंकि बाहर तो मरीजों को धन के कारण देखता था, यहां तो धन का कोई सवाल न था; बाहर तो मरीजों को ग्राहकों की तरफ देखता था, यहां तो कोई ग्राहक न था। कोई दूकानदार न था।
चिकित्सक भी मरीज की नाड़ी पर हाथ रखता है, तो एक हाथ नाड़ी पर रखता है दूसरा हाथ उसकी जेब में रखता है। अगर मरीज बहुत धनी हो तो चिकित्सक उसे जाने-अनजाने जल्दी ही अच्छा नहीं करना चाहता--चाहता है थोड़ी और बीमार रह जाए। इसलिए धनी होना और बीमार पड़ना, खतरनाक है, बीमारी गरीब को शोभा देती है, वह जल्दी ठीक भी हो जाएगा, धनी के लिए कौन ठीक करेगा? चिकित्सक भी दवा देगा, लेकिन प्राणों के गहन प्राण में सोचना कि थोड़े दूर और मरीज टिक जाए, बीमार रह जाए। शायद उसे खुद भी पता न हो, अचेतन में दबी हो यह बात, लेकिन यह भी काम करेगी, यह भी कारगर हो जाएगी--इसके परिणाम होंगे।
जेल में चिकित्सक को कुछ भी न लेना था। सिर्फ प्रेम था, इस कारण सेवा में लगा था। उसके जीवन से अर्थ न खोया। उसके सब साथी धीरे-धीरे गल गए, मर गए, सड़ गए पागल हो गए; वह जेलखाने के बाहर स्वस्थ का स्वस्थ आ गया।
बाद में उसने अपने संस्मरण में लिखा कि कारण कुल इतना ही है कि वहां भी मैं अपने जीवन के अर्थ को खोज पाया।
सूनापन आ जाए तो जीवन गिरने लगता है।
प्रेम न हो, तो सूनापन होगा। इस सूनेपन को भरना होगा हजार तरकीबों से। जिसे तुम संसार कहते हो, जिसे तुम संसार की तृष्णा कहते हो, वह है क्या? वह रिक्तता को भरने का उपाय है। दूकान से भरो, धन के नोट गिनते रहो, रुपये के सिक्के खनकाते रहो--एकमात्र मधुर-संगीत मालूम होता है, नये ताजे नोटों को छूने में ही स्पर्श का एकमात्र रस आता है--बड़े पदों पर पहुंचते रहो। प्रेम जिसके जीवन में नहीं है, वह वहीं से तो भरेगा, अन्यथा मर जाएगा। अन्यथा आत्मघात हो जाएगा।
संसार है, जो प्रेम से मिलना था, और नहीं मिल पाया, उसको पाने की चेष्टा। इंग्लैंड के बहुत बड़े विचारक लार्ड ऐक्टन का बड़ा प्रसिद्ध वचन है जो मैंने बहुत बार तुमसे कहा। ऐक्टन ने कहा है: पावर करप्टस, एड करप्टस एब्लोल्यूटली: सत्ता भ्रष्ट करती है, बुरी तरह भ्रष्ट करती है, परिपूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है।
लेकिन, मैं तुमसे कहता हूं, लार्ड ऐक्टन का वचन ठीक नहीं है। सत्ता किसी को भ्रष्ट नहीं करती है, भ्रष्टों को आकर्षित को करती है। धन किसी को भ्रष्ट नहीं करता, भ्रष्टों को बुलावा देता है। कुर्सियां थोड़े किसी को भ्रष्ट करती हैं, सिंहासन थोड़े किसी को भ्रष्ट करते हैं, लेकिन भ्रष्ट सिंहासनों की तरफ पागल हो जाते हैं, जैसे पतिंगें भागते हैं, प्रकाश की तरफ। शायद सुना भी हो बड़े-बूढ़ों से, या न भी सुना हो, क्योंकि बड़े बूढ़े और पहले किसी दीए पर मर चुके होंगे। पर शायद सुना हो, लोकोक्ति हो, कहावत हो उनकी दुनिया में कि दीए से सावधान रहना, उन पर जाकर आदमी मरता है। लेकिन पतिंगें सुनते नहीं, भागते हैं।
क्या तुम कहोगे कि दीया पतिंयों को मारता है? नहीं, मरने को उत्सुक पतिंगे दीए की तरफ आकर्षित होते हैं।
तो लोर्ड ऐक्टन की बात ऊपर से ठीक लगती है कि सत्ता में जिसको भी हमने जाते देखा, भ्रष्ट होते देखा, तो बात बिलकुल सीधी है। जिसको भी सत्ता में जाते देखा, उसको भ्रष्ट होते देखा। ये बात इतनी निरपवाद रूप से सही है कि लार्ड ऐक्टन ठीक मालूम होता है। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, वह ठीक नहीं है। सत्ता किसी को भ्रष्ट नहीं करती, भ्रष्टों को निमंत्रित करती है। सत्ता किसी को भ्रष्ट नहीं करती--कर नहीं सकती--सत्ता तो तुम्हारे भीतर जो भ्रष्टाचार है उसे प्रकट करती है।
गरीब भ्रष्ट होने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाता, भ्रष्ट होने के लिए थोड़ा धन चाहिए, वह जरा महंगा काम है, वह विलास है। गरीब भ्रष्ट होगा, फंसेगा, मुश्किल में पड़ेगा। भ्रष्ट होने के पहले सुरक्षा चाहिए, भ्रष्ट होने के पहले शक्ति चाहिए, ताकि भ्रष्ट होने से जो दुष्परिणाम हों उनको संभाला जा सके, उनसे अपने को बचाया जा सके। भ्रष्ट होने के पहले कवच चाहिए--पद, प्रतिष्ठा, धन, वैभव, यश, नाम, कुल, इन सब से कवच मिल जाता है।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि गरीब को तुम भ्रष्ट न पाओगे तो ऐसा मत सोचना कि वह भ्रष्ट नहीं है। जरूरी नहीं है। असलियत का पता तो तब चलेगा जब धन उसके पास होगा। धन परीक्षा है, पद परीक्षा है। वहां केवल वे ही बचेंगे जो वस्तुतः भीतर से खालिस थे, शुद्ध थे, पवित्र थे। करोड़ में कोई एक बचेगा, बाकी लोग तो भ्रष्ट हो जाएंगे; भ्रष्ट हो जाएंगे इसलिए कि भ्रष्ट तो वे थे, अवसर मिलते ही प्रकट हो जाएंगे। जैसे तुम कमरे में बैठे हो, अंधेरा कमरा है, अभी तुमने दीया नहीं जलाया--सब ठीक लगता है। न तो कोनों-कांतरों में लगे मकड़ी के जाले दिखायी पड़ते हैं, न कोनों में छिपे सांप दिखायी पड़ते हैं, न आसपास सरकते बिच्छुओं का कोई पता चलता है--कुछ भी पता नहीं चलता, अंधेरे में तुम निश्चिंत बैठे हो--सब ठीक है। फिर किसी ने दीया जलाया। क्या तुम यह कहोगे कि दीए के कारण सांप, बिच्छू, मकड़ी के जाले और गंदगी कमरे में आ गयी? यह सब तो था ही, दीए ने तो रोशनी ला दी चीजें दिखायी पड़ गयी; जो अंधेरे में दबी थीं, जिन्हें अंधेरे ने छिपाया था, रोशनी ने प्रकट कर दिया।
गरीब बहुत सी बातों को छिपा लेती है, अमीरी जाहिर कर देती है। निर्बलता बहुत सी बातों पर पर्दा बन जाती है, बल पर्दे उघाड़ देता है, आदमी को नग्न कर देता है।
नहीं, पद किसी को भ्रष्ट नहीं करते, भ्रष्टों को आमंत्रित करते हैं, और भ्रष्टों को उजागर करते हैं। जब तक पद पर न पहुंच जाए कोई व्यक्ति, तब तक तुम पक्का नहीं कर सकते कि वह भ्रष्टाचारी है, या नहीं। पद के बाहर तो सभी भ्रष्टाचार के विरोध में होते हैं। पद के बाहर तो सभी सेवक होते हैं। पद पर पहुंचते ही मालिक हो जाते हैं। और ध्यान रखना, कुर्सियां क्या भ्रष्ट करेंगी? कुर्सियां तो बड़ी समदृष्टि हैं--तुम उन पर सम्राटों को बिठाओ तो उन्हें फिकर नहीं, तो वे आनंदित नहीं होतीं। और तुम भिखमंगों को बिठा दो, तो वे परेशान नहीं होतीं। कुर्सियों को क्या लेना-देना है?
आदमी! आदमी की प्रेम की कमी!
जिस आदमी के जीवन में प्रेम नहीं है, उसके जीवन में किसी न किसी तरह का बलात्कार होगा। वह कैसे पूरा करेगा अपने प्रेम की कमी को? वह खाली-खाली है। संगीत नहीं गूंजता हृदय का, तो रुपयों को खनका लेगा; उसी संगीत से अपने कानों को समझा लेगा, सांत्वना कर लेगा। अगर किसी से प्रेम किया होता, तो उसने एक मालकियत जानी होती जिसमें मालकियत का कोई भी भाव नहीं होता। अगर उसने किसी को प्रेम किया होता, तो उसने एक हृदय पर साम्राज्य फैला लिया होता--ऐसा साम्राज्य जिसमें साम्राज्य वादिता बिलकुल नहीं है। उसने एक ऐसी मालकियत पा ली होती, जिसमें मालकियत का सवाल ही नहीं होता है। उसने एक हृदयको अपने करीब पाया होता, एक हृदय उसके साथ नाचा होता, उसके जीवन में एक प्रफुल्लता होती--कोई उसे प्रेम किया, किसीने उसके प्रेम को स्वीकार किया--उसकी आत्मा आनंदित होती, एक अहोभाव होता कि मैं व्यर्थ ही नहीं हूं।
अगर एक व्यक्ति ने भी तुम्हें प्रेम किया है, अगर एक व्यक्ति को भी तुम प्रेम कर सके हो, तो तुम पाओगे तुम्हारे जीवन में एक सार्थकता है, एक सुरभि, एक सुवास--तुम एक तृप्ति पाओगे। जब ऐसी तृप्ति नहीं होती, तब आदमी लोगों पर कब्जा करने की कोशिश करता है--राजनीति के सहारे, धन के सहारे, पद के सहार--हजारों लोगों पर कब्जा कर लेने की कोशिश करता है। मजा यह है कि प्रेम का कब्जा एक आदमी पर भी होता होता तो तृप्ति हो जाती, और घृणा का कब्जा करोड़ों लोगों पर भी हो तो भी तृप्ति नहीं होती।
इसलिए पद पर पहुंचकर आदमी को पता चलता है, शक्ति तो मिल गयी, शांति नहीं मिली। सामर्थ्य तो आ गयी, संतोष नहीं आया। धन तो मिला, निर्धनता नहीं मिटी। भर तो लिया कूड़े-कबार से, पर इससे तो रिक्तता भी पवित्र थी--यह सिर्फ गंदगी हो गयी।
सहजो के वचन पर अब हम आ सकते हैं।
एक-एक शब्द को मंत्र मानना: प्रेम दीवाने जे भये, पलटि गयो सब रूप। सहजो दृष्टि न आवई, कहां रंक कह भूप।।
प्रेम दीवाने जे भये--प्रेम में जो पागल हुए। क्यों पागल? क्योंकि सारी दुनिया उन्हें पागल कहेगी। प्रेम में जो पागल हुआ है, वह अपने तई तो घर आ गया है, सब पागलपन उसका मिट गया, लेकिन सारी दुनिया उसे पागल कहेगी। क्योंकि सारी दुनिया धन के पीछे पागल है, पद के पीछे पागल है; और यह आदमी न तो पद में उत्सुक होगा, न धन में उत्सुक होगा। स्वभावतः तुम इसे पागल कहोगे। पागलों की भीड़ में यह आदमी होश में आ गया, भटकों की भीड़ में इस आदमी को घर मिल गया। ये तुमसे कहेगा भी रोक कर रास्ते पर कि मुझे घर मिल गया, मुझे शांति मिली, संतोष मिला, तुम भरोसा, न करोगे; तुम कहोगे पागल हो गए होगे, कभी किसी को शांति मिली इस संसार में? कभी किसी को संतोष मिला इस संसार में? तुम सम्मोहित हो गये होओगे, तुमने कोई कल्पना कर ली है, या तुम किसी नशे में खो गए हो--जागो! तुम जागे हुए आदमी से कहोगे, जाओ!!
कुछ दो वर्ष पहले मेरे एक मित्र का मुझे पत्र मिला। वे विश्वविद्यालय में मेरे साथ पढ़ते थे। फिर इधर कोई बीस वर्षों में न तो कोई मिलना हुआ, न कोई संबंध रहा। विश्वविद्यालय में वे मेरे निकट थे। मेरे संन्यासी उनके नगर में गए होंगे। अब वे जयपुर में हैं, और जयपुर विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं। मेरे संन्यासियों को देखकर उन्होंने पूछताछ की होगी, फिर मुझे पत्र लिखा।
पत्र में उन्होंने लिखा कि: क्षमा करें, नाराज न हों, एक ही सवाल मुझे पूछना है कि क्या आपको सच में ही शांति मिल गयी? इस पर भरोसा नहीं आता।
फिर लिखा कि : नाराज न होना आप, आप पर शक नहीं कर रहा हूं--ये नहीं कह रहा हूं कि आपको नहीं मिली। इस पर मुझे भरोसा नहीं आता कि किसी को भी मिल सकती है कि बुद्ध को कि महावीर को कि कृष्ण को! क्योंकि मैं इतना परेशान हो रहा हूं, सब तरफ के उपाय करता हूं, कोई शांति नहीं! और जिनको मैं जानता हूं, उनको भी कोई शांति नहीं!
अगर आप शांत हो जाए, तो लोग समझेंगे कुछ गड़बड़ हो गयी। अगर आप आनंदित हो जाएं। तो लोग समझेंगे दिमाग खराब हो गया। दुखी होना सामान्य मालूम होता है, आनंदित होना विक्षिप्तता मालूम होती है। इससे ज्यादा विक्षिप्त और क्या हो सकता है संसार कि वहां स्वस्थ होना बीमारी मालूम पड़े और बीमार होना स्वास्थ्य का ढंग हो जाए?
प्रेम दीवाने जे भये--इसलिए सहजो कहती है कि ठीक है, तुम्हारे ही शब्द का उपयोग कर लेते हैं कि प्रेम में जो पागल हुए--पलटि गयो सब रूप। तुम उन्हें पागल कहते रहो, पर उनके लिए सब रूप लपट गया।
सहजो दृष्टि न आवई, कहा रंक कह भूप--और सब सहजो को कुछ दृष्टि में नहीं पड़ता कि कौन अमीर है, और कौन करीब--कहां रंग कह भूप। धन से हम तौलते हैं आदमियों को, क्योंकि प्रेम हमारे भीतर नहीं है। इसलिए धनी आ जाता है तो तुम उठकर खड़े हो जाते हो, करीब आ जाता है तो तुम अपना अखबार पढ़ते रहते हो, जैसे कोई आया नहीं, जैसे कोई कुत्ता--बिल्ली गुजरती हो, कोई आदमी थोड़े!
उर्दू महाकवि हुए गालिब--बहादुरशाह ने निमंत्रण दिया था। बहादुरशाह की वर्षगांठ थी सिंहासन पर आरूढ़ होने की। तो गालिब के मित्रों ने कहा--ऐसे मत जाओ। इन कपड़ों में तुम्हें वहां कौन पहचानेगा? तुम्हारे काव्य को पहचानने की किसके पास आंख है? तुम्हारे हृदय को मापने का किसके पास तराजू है? तुम्हारे भीतर कौन झांकेगा, किसको फुर्सत है? कपड़े ठीक पहनकर जाओ; यह भिखाराना शेष पसंद नहीं पड़ेगा वहां। और असंभव न होगा कि दरवाजे से वापस लौट दिए जाओ।
फटे-पुराने कपड़े एक गरीब कवि के! जूतों में छेद, टोपी जरा-जीर्ण! पर गालिब ने कहा कि, और तो मेरे पास कोई कपड़े नहीं हैं। मित्रों ने कहा, हम किसके उधार ले आते हैं। गालिब ने कहा, यह तो बात जमेगी नहीं। उधारी में मुझे जरा भी रस नहीं है। जो मेरा नहीं है वह मेरा नहीं है, जो मेरा है वह मेरा है। नहीं, मुझे बड़ी बेचैनी और असुविधा होगी, उन कपड़ों में मैं बंधा-बंधा अनुभव करूंगा--मुक्त न हो पाऊंगा। किसी और के कपड़े पहनकर क्या जाना। जाऊंगा, इसी में, जो होगा होगा।
गालिब गया। द्वारपाल से जाकर जब उन्होंने कहा, दूसरों का तो झुक-झुककर द्वारपाल स्वागत कर रहा था,उनको उसने धक्का देकर किनारे खड़ा कर दिया कि--रुक अभी। जब और लोग चले गए तब वह उस पर एकदम टूट पड़ा द्वारपाल, और कहा--अपनी सामर्थ्य को ध्यान में रखना चाहिए, यह राजदरबार है। यहां किसलिए घुसने की कोशिश कर रहा है?तो उन्होंने कहा, घुसने की मैं कोशिश नहीं कर रहा, मुझे निमंत्रण मिला है। खीसे से निमंत्रण-पत्र निकालकर दिखाया। द्वारपाल ने निमंत्रण-पत्र देखकर कहा कि किसी का चुरा लाया होगा। भाग यहां से, भूलकर इधर मत आना। पागल कहीं का! भिखमंगे का! भिखमंगे हैं, सम्राट होने का खयाल सवार हो गया है।
गालिब उदास घर लौट आए। मित्रों ने कहा--पहले ही कहा था, और हम जानते थे यह यह होगा, हम कपड़े ले आए हैं। फिर गालिब ने इनकार न किया। कपड़ा पहन लिए--उधार जूते, उधार टोपी-पगड़ी सब, शेरवानी। अब जब पहुंचे द्वार पर, तो द्वारपाल ने झुककर नमस्कार किया। आत्माओं को तो कोई पहचानता नहीं, आवरण पहचाने जाते हैं। बड़े हैरान हुए, वही द्वारपाल अभी खिड़की देकर कर दिया था, मारने को उताररू हो गया था, अब उसने यह भी न पूछा कि निमंत्रण पत्र। पर वे थोड़े डरे तो थे ही, पहले अनुभव ने बड़ा दुख दे दिया था; इसलिए निमंत्रण पत्र निकालकर दिखाया। उसने गौर से देखा, और उसने कहा कि ठीक है। एक भिक्षमंगा इसी निमंत्रण पत्र को लेकर आ गया था--यही नाम था उस पर--बमुश्किल उससे छुटकारा किया।
भीतर गए। बहादुरशाह ने अपने पास बिठाया। बहादुरशाह भी कवि था, काव्य का थोड़ा उसे रस था। लेकिन थोड़ा चकित हुआ, जब भोजन शुरू हुआ तो गालिब बगल में बैठे कुछ बेहूदी हरकत करने लगे। हरकत यह थी कि उन्होंने मिठाइयां उठायीं, अपनी पगड़ी से छुलायी, कहा कि ले पगड़ी, खा। मिठाइयां उठायी, अपने कोट से छुलायी, और कहा कि ले कोट खा।
कवि थोड़े झक्की तो होते हैं। सोचा बहादुरशाह ने, होगा, ध्यान नहीं देना चाहिए, शिष्ट संस्कारी आदमी का यह लक्षण है कि दूसरा कुछ ऐसा पागलपन भी करता हो तो इस पर इंगित न करे, घाव न छुए। वह इधर-उधर देखने लगा। लेकिन यह जब लंबी देर तक चलने लगा और गालिब ने भोजन किया ही नहीं, वह यह कपड़ों को ही और जूतों तक को भोजन करवाने लगे, तो फिर बहादुरशाह से न रहा हो गया--शिष्टाचार की भी सीमा है। उसने कहा, क्षमा करें, उचित नहीं है कि दखलंदाजी दूं, उचित नहीं है कि आपकी निजी आदतों में बांधा डालूं। होगा, आपका कोई रिवाज होगा, कोई क्रिया-कांड होगा, मुझे कुछ पता नहीं, आपको कोई धर्म होगा। मगर उत्सुकतावश मैं पूछना चाहता हूं कि आप कर क्या रहे हैं? ये कपड़े-कोट, जूता-पगड़ी इसको भोजन करवा रहे हैं?
गालिब ने कहा कि गालिब तो पहले भी आया था, उसे वापस लौटा दिया गया। वह फिर नहीं आया। अब तो कोट-कपड़े आए हैं--ये भी उधार हैं। इन्हीं को प्रवेश मिला है, इन्हीं को भोजन करवा रहा हूं। मुझे प्रवेश मिला नहीं, इसलिए भोजन करना उचित न होगा। तब गालिब ने पूरी कहानी बहादुरशाह को कहीं, कि क्या हुआ है।
तुम जीवन में दूसरे को भी उसी मापदंड से तौलते हो जिसको पाने की तुमने अपने भीतर आकांक्षा बना ली है। अगर तुम धनी होना चाहते हो, तो तुम धनी का आदर करोगे। धनी सेर् ईष्या भी करोगे, और आदर भी उसी का करोगे। तुम जो होना चाहते हो वह तुम्हारे आदर से पता चल जाएगा, और तुम्हारीर् ईष्या से भी पता चलेगा।र् ईष्या और आदर एक ही चीज के साथ होते हैं। अगर तुम बड़ा मकान बनाना चाहते हो, तो तुम बड़े मकानों से र्ा भी करोगे और बड़े मकानों के लोगों के चरणों में सिर भी झुकाओगे। तुम्हारीर् ईष्या ही तुम्हारे आदर का बिंदु भी होगी। तुम किसको सम्मान देते हो, उससे तुम्हारी तृष्णा की खबर मिल जाती है। तुम धनी आदमी की फिकर करते हो, या तुम आदमी की फिकर करते हो? तुम किस बात की चिंता लेते हो, उससे तुम्हारे भीतर कौन सी चीज की आकांक्षा दबी है उसकी खबर मिलती है।
सहजो दृष्टि न आवई, कहा रंक कह भूप। अब, सहजो कहती है, जब प्रेम का दिवानापन आया, तब पता चलता कि अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कौन धनी, कौन अमीर--यह बात असंगत हो गयी है। अब इससे कोई पहचान नहीं होती है। प्रेम की आंख तुम्हारी आंखों में झांकती है, और तुम्हें देखती है। महत्वाकांक्षा की आंख तुम्हारे पास क्या है उसे देखती है, तुम्हें नहीं। प्रेम तुम्हें देखता है--सीधा। महत्वाकांक्षा, पद, अप्रेम तुम्हारे आसपास के संग्रह को देखता है।
प्रेम दिवाने जे भये, जातिम बरन गयी छूट। यह अकड़ कि मेरा वर्ण क्या है, मेरी जाति क्या है, उन्हीं  की है जिनको अपनी आत्मा का पता नहीं। कौन पागल कहेगा कि मैं ब्राह्मण हूं, जिसने ब्रह्म को जान लिया? ब्राह्मण होने का दावा उसी का है जो ब्रह्म को जानने से वंचित रह गया। जब ब्रह्म को ही जान लिया तो क्या ब्राह्मण, क्या सस्ती बात पर राजी होना! ब्राह्मण होने से क्या होगा जब ब्रह्म ही होने की सुविधा हो!
प्रेम दिवाने जे भये, जाति बरन गयी छूट। अब न कोई जाति का दावा है, क्योंकि जब परमस्रोत का पता चल गया, तो क्या कहना कि हम किसके लिए पैदा हुए? परमात्मा से ही जब पैदा हुए ऐसा पता चला गया, तो जिस बाप से पैदा हुए वह हिंदू है कि मुसलमान, ब्राह्मण है कि शूद्र, क्षत्रिय है कि वैश्य, क्या फर्क पड़ता है? जब मूलस्रोत का पता चल गया, तो मूलस्रोत तो वर्णातीत है। परमात्मा का तो कोई वर्ण नहीं, न वह वैश्य है, न वह क्षत्रिय है, न हिंदू है, न मुसलमान है, न शूद्र है--हरि तो हरिजन भी नहीं। हरि तो बस हरि है--वर्णशून्य, जातिमुक्त!
प्रेम दिवाने जो भये, जाति बरन गयी छूट। जिन्होंने प्रेम को पहचाना उन्होंने अपनी असली जाति पहचान ली। वह जाति तो परमात्मा की जाति है।
सहजो जग बौरा कहे, लोग सब फूट। और सहजो, सारी दुनिया कहने लगी कि पागल हो गयी है तू। सहजो जग बौरा कहे--कि तेरी बुद्धि खो गयी है कि तेरा होश न रहा कि तू क्या अनर्गल संताप में पड़ गया है? सन्निपात में है, क्या कहती है? लोग गए सब फूट--जो पास थे वे दूर हट गए, जो अपने थे वे समझने लगे पराए, राह पर मिल जाते हैं तो पहचानते नहीं कि पागलों के साथ कौन संबंध जोड़े! पागलों के साथ कौन कहे कि अपने आदमी हैं।
तुमने देखा। तुम अगर गरीब हो, तो बहुत लोग दावा नहीं करते कि वे तुम्हारे रिश्तेदार हैं। अगर तुम अमीर हो जाओ, तुम अचानक पाओगे नये-नये रिश्तोर पैदा होते जा रहे हैं, रिश्तेदारों के रिश्तेदार आते जा रहे हैं। सब रिश्तेदार हो जाते हैं। तुमसे किसी का रिश्ता नहीं है,तुम्हारे पास क्या है...अगर तुम पागल हो जाओ, तो राह पर तुम्हें अपने निकटजन भी मिलेंगे बचकर दूसरी गली से निकल जाएंगे--पागल से कौन बीच रास्ते पर मुलाकात करे! क्योंकि पागल से दोस्ती का मतलब है कि तुम भी पागल हो--बाजार में खबर हो जाए तो भारी नुकसान लग सकता है।
प्रेम दिवाने जे भये, जाति बरन गयी छूट। सहजो जग बौरा कहे, लोग गए बस फूट। अब तो अकेले रह गए, कोई साथ नहीं देता। लोग तभी तक साथ देते हैं जब तक उनकी तृष्णा को तुमसे साथ मिलता है। लोग तुम्हारे साथी-संगी नहीं हैं, अपनी-अपनी वासनाओं के साथी-संगी हैं। जब तक तुम खूंटी का काम देते हो जिस पर वह अपनी वासनाएं लटका लें, तब तक वह साथी हैं।
प्रेम दिवाने जे भये, सहजो डिगमिग देह। सहजो कहती है कि वे जो पागल हो गए प्रेम में, दिवाने होगे, उनका शरीर का रोआं-रोआं आनंद से कंपता है। आत्मा तो आनंदित होती ही है, आत्मा के आनंद की झलक उनके शरीर तक उतर आती है।
बुद्ध पुरुषों की देह भी बुद्धत्व की भनक देती है। बुद्ध पुरुषों के रोए-रोएं से भी बुद्धत्व की थोड़ी खबर आने लगती है। स्वाभाविक है। शरीर इतने करीब है आत्मा के। तुम्हारी हालत उलटी है। तुम्हारी आत्मा से भी तुम्हारे शरीर की बू आती है। तुम जब आत्मा की भी बात करते हो तब निन्यानबे प्रतिशत तुम्हारा मतलब शरीर ही होता है। बुद्ध पुरुषों के शरीर से भी उनकी आत्मा की सुगंध आने लगती है। जब वे शरीर की भी बात करते हैं तब भी निन्यानबे प्रतिशत उनका अर्थ आत्मा ही होता है।
प्रेम दिवाने जे भये, सहजो डिगमिग देह--आत्मा तो नाच ही रही है, उसके साथ पदार्थ भी नाचने लगा है।ऐसे ही जैसे कोई नर्तक नाचता हो, उसके पैरों की घूंघर बजती हो, उसके पैर पड़ते हों पृथ्वी पर तो पृथ्वी की धूलकण भी उठने लगे और उसके साथ नाचने लगे: एक बवंडर उसके चारों तरफ खड़ा हो जाए। ऐसा ही सहजो डिगगिम देह।
पांव पड़ै कित कै किती। अब कोई नृत्य, नृत्यशाला का नृत्य नहीं है ये कि पैर, पदचाप, ताल, छंद? ये कोई नर्तकी का नृत्य नहीं है, ये तो प्रेम दिवाने का नृत्य है--पांच पड़ै कित कै किती--अब कोई हिसाब नहीं है। अब किसी की धुन पर थोड़े ही नाच रहे हैं। ठीक तो यही होगा कि अब ये कहना उचित नहीं है कि नाच रहे हैं, नाच हो गए हैं। भीतर कोई बचा नहीं, सिर्फ नाच ही है। एक अहर्निश नृत्य चल रहा। पांव पड़ै कित कै किती--पैर कहीं के कहीं पड़ते हैं। फिकर भी कौन करता है, प्रेम के दिवाने पैरों का हिसाब थोड़े ही रखते हैं! बड़ा संगीत सध गया है, अब इन छोटी मोटी बातों की--तकनीकी बातों की--कौन चिंता करता है।
पांव पड़ै कित कै किती, हरि संभाल तब लेह--पर एक नयी घटना हो रही है कि हम तो अब पैर कहीं के कहीं भी पड़ते हैं तो पड़ने देते हैं। रहा ही कौन भीतर जो सम्हाले, रहा ही नहीं वह अहंकार जो चिंता करे कि छंदबद्ध हो सब, लयबुद्ध हो सब। अब तो जीवन एक स्वच्छंद छंद है, मुक्तछंद है--अब इसमें मात्राओं का कोई हिसाब नहीं। लेकिन एक नया अनुभव हो रहा है: हरि संभाल तब लेह--हमारे पैर कहीं भी पड़ें, हरि संभालता है। पहले हम संभालते थे और संभाल न पाते थे; अब हमने संभालना छोड़ दिया, वह संभालता है।
जिस दिन तुमने सब उस पर छोड़ दिया, उस दिन पैर कहीं भी पड़ें छंद में ही पड़ते हैं। इसे थोड़ा समझो।
अभी तुम चेष्टा कर करके भी, व्यवस्था जमा-जमाकर भी पाते हो, जम नहीं पाती, कुछ न कुछ कभी रह जाती है, क्योंकि जाननेवाला ही बेहोश है। ऐसा समझो कि तुमने शराब पी रखी है, और तुम संभाल-संभालकर पैर तबले की धुन पर डालने की कोशिश कर रहे हो। तुमने शराब पी रखी है, तुम अपनी तरफ से बड़ी कोशिश करते हो, फिर भी कहीं का कहीं पड़ जाता है। शराबी, तुम सोचते हो रास्ते पर जब चलता है संभलकर नहीं चलता। बहुत संभल कर चलता है। असल में शराबी जितना संभलकर चलता है, तुम कभी संभलकर चलते ही नहीं क्योंकि शराबी को डर लगता रहता है--गिरते हैं, डांवाडोल हो रहे हैं। शराबी को लगता है, चले नाली की तरफ फिर; वह रोकता है, रोकने में दूसरी तरफ हटा लेता है अपने को; शराबी चलता ही है एक नाली से दूसरी नाली, वह बीच रास्ते में नहीं चल पाता, चलना असंभव है क्योंकि बीच वह चले कैसे? होश तो है नहीं। बेहोशी में एक तरफ झुक जाता है, उधर से बचने को फिर झुकता है दूसरी तरफ झुक जाता है। एक भूल से बचता है तो दूसरी हो जाती है, कुएं से बचता है तो खाई मिल जाती है--भीतर ही होश न हो तो तुम पैरों को कितना ही संभालकर रखो, तुम संभाल कर न रख पाओगे।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक रात घर। बड़ी देर तक चौराहे पर खड़ा सिपाही देखता रहा कि वह ताले में चाबी डालने की कोशिश कर रहा है, लेकिन चाबी नहीं जाती, हाथ उसके कंप रहे हैं। हाथ इतने कंप गए हैं कि एक हाथ से ताला कंपा रहा है और एक हाथ से चाबी कंपा रहा है, अब दोनों कंपती चीजों का मेल नहीं हो रहा है। आखिर पुलिसवाले को भी दया आ गयी--पुलिसवाले भी अंततः तो आदमी हैं।
आया पास। उसने कहा, नसरुद्दीन, मैं कुछ सहायता करूं? लाओ, चाबी मुझे दो, मैं दरवाजा खोल दूं। नसरुद्दीन ने कहा, दरवाजा तो मैं ही खोल लूंगा, तुम जरा भवन को संभाल कर रखो ताकि कंपन! क्योंकि उसे ऐसा नहीं लग रहा है कि ताला कंप रहा है। पूरा मकान कंप रहा है। तुम जरा इसको संभाल लो, चाबी तो मैं ही डाल लूंगा।
नशे में आदमी संभलकर चलने की कोशिश करता है; सब संभालना व्यर्थ सिद्ध होता है।
पांव पड़ै कित कै किती, हरि संभाल तब लेह। लेकिन एक ऐसी घड़ी आती है, जब भीतर का होश आता है--प्रेम याने होश--जब भीतर का दीया जलता है, अचानक, अब तुम कहीं भी पैर डालो, कैसे भी चले। अब तम नाच सकते हो बेफिक्री से, अब तुम्हें संभालने की जरूरत नहीं, अब परम सत्ता ने तुम्हें संभाल लिया। जिसने अपने को छोड़ा उसे परम सत्ता का सहारा मिल जाता है--जिसने अपने को संभालना भी छोड़ा--क्योंकि वह भी अहंकार है कि मैं अपने को संभालूं, वह भी अस्मिता है। जिसने कहा, जैसे रखो वैसे रहेंगे, जैसे चलाओगे वैसे चलेंगे; गिराओगे गिरेंगे, उसके लिए भी धन्यवाद करेंगे; उठाओगे उठेंगे--अपना कोई चुनाव न रहा। पांव पड़ै कित कै किती, हरि संभाल तब लेह।
मन में तो आनंद रहै, तन बौरा सब अंग। ना काहू के संग है।
मन में तो आनंद रहै। अभी तुम्हारे मन ही मन है, आनंद तो बिलकुल नहीं। जब मन मिटता है, तब आनंद आता है--मन का अभाव आनंद है। और प्रेम में मिटता है मन--प्रेम मन की मृत्यु है--प्रेम में मरता है मन। तुम खो ही जाते हो, कुछ खोज खबर नहीं मिलती--कौन थे, क्या हो, क्या होने जा रहा है? सब रेखाएं मिट जाती हैं।
मन में तो आनंद रहै--अब मन में मन नहीं रहता, अब तो मन में आनंद ही आनंद है। फर्क समझ लेना। तुम जिसे सुख कहते हो उसकी बात नहीं हो रही है। सुख और दुख मन के ही हिस्से हैं। आनंद तब होता है जब न मन में दुख रह जाता है, न सुख। जब सुख-दुख दोनों ही चले जाते हैं। जब तुम्हारे भीतर कोई उत्तेजना नहीं रह जाती, न अच्छी, न बुरी।
मन में तो आनंद रहै, तन बौरा सब अंग--और देखो, भीतर तो आनंद घिरा है, और तन भी बौरा गया है, शरीर का अंग-अंग मत्त है। भीतर होश आया है--होश की शराब में डूबा है तन का टुकड़ा-टुकड़ा।
एक शराब है बेहोशी की और एक शराब है होश की। बेहोशी में आदमी डगमगाता है, लेकिन डगमगाने में नृत्य नहीं होता। होश में भी आदमी डगमगाता है, लेकिन उसमें परम नृत्य होता है। पांव पड़ै कित कै किती, हरि संभाल तब लेह।
मन में तो आनंद है, तन बौरा सब अंग। ना कहू के संग है, सहजो ना कोई संग।
अब तो परम एकांत फलित हुआ है। न तो कोई साथ है, न किसी का साथ है। क्योंकि हाथ भी द्वंद्व की बात है, द्वैत की बात है। भक्त ऐसा ही थोड़े समझता है कि भगवान साथ है। भगवान ही है। भक्त ऐसा थोड़े ही समझता है कि मैं भगवान के साथ हूं। मैं तो हूं ही नहीं, भगवान ही है।
ना काहू के संग है, सहजो ना कोई संग--अब न तो कोई साथ है अपने, न हम किसीके साथ हैं। अब एक ही बचा। वह मिट गया दृष्टा और दृश्य। एक ही बचा--दर्शन हुआ। मिटा गया प्रेमी और प्रेयसी--प्रेम ही बचा। मिट गए किनारे, नदी सागर में खो गयी।
इन पदों को पूरा फिर से दोहरा देता हूं--उसकी गूंज तुम्हारे रोएं-रोएं में रह जाए, तुम्हारे हृदय की धड़कन बन जाए--इस कामना के साथ--
प्रेम दिवाने जे भये, पलटि गयो सब रूप।
सहजो दृष्टि न आवई, कहां रंक कह भूप।।
प्रेम दिवाने जे भये, जाति बरन गयी छूट।
सहजो जग बौरा कहे, लोग गए सब छूट।।
प्रेम दिवाने जे भये, सहजो डिगमिग देह।
पांव पड़ै कित कै किती, हरि संभाल तब लेह।।
मन में तो आनंद रहै, तन बौरा सब अंग।
ना काहू के संग है, सहजो ना कोई संग।।
आज इतना ही।

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