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मंगलवार, 13 मार्च 2018

बिन घन परत फुहार—प्रवचन-04



हरि संभाल तब लेह—(प्रवचन—चौथा)
 
प्रातः; 4 अक्टूबर, 1975;
श्री ओशो आश्रम, पूना.
प्रश्न-सार :
1—आपकी और सहजोबाई की भाषा की मधुरिमा और लयपूर्णता में साम्य सा क्यों लगता है?
2—आपने कहा कि महत्वाकांक्षी प्रेम नहीं कर सकता। तो क्या हमारा प्रेम झूठा है?
3—आपने कहा कि आदर मेंर् ईष्या सम्मिलित है। क्या श्रद्धा इस विष भरे आदर का अतिक्रमण करती है?
4—प्रेम और करुणा में क्या भेद है?
5—वाणी का मौन भीतर के कौन के लिए किस प्रकार सहायक है?
6—हरि संभाल तब लेह

पहला प्रश्न:

आपकी और सहजोबाई की भाषा की मधुरिमा और लयपूर्णता में साम्य सा क्यों लगता है?

क ही कुएं से पानी पीने के कारण। शब्द या तो अंतर के अनुभव से आते हैं, या मस्तिष्क के संग्रह से। पंडित की भाषा में साम्य होगा। संतों की भाषा में भी साम्य होगा। पंडितों की भाषा में साम्य होगा तर्क का, साम्य होगा शब्द विन्यास का, साम्य होगा बाल की खाल निकालने का। संतों की भाषा में भी साम्य होगा--उस गहराई का जहां से शब्द आते हैं। शास्त्र का साम्य नहीं होगा; शून्य का, स्वाद का साम्य होगा। मधुरिमा होगी। तर्क नहीं है आधार उनके वक्तव्य का, प्रेम आधार है। इसलिए नहीं कुछ कह रहे हैं क्योंकि कुछ कहना है, बल्कि इसलिए कह रहे हैं क्योंकि कहने में एक करुणा है। कुछ देना है। कहने से ज्यादा देना। वक्तव्य से ज्यादा एक भेंट।

संत का वश चले तो चुप रहे। पंडित का वश चले तो चुप कभी न रहे। इसलिए दो संतों की वाणी में उनके मौन का साम्य होगा, उनके शून्य का साम्य होगा। अगर तुम गौर से सुनोगे, तो तुम्हें दोनों में एक ही चुप्पी के स्वर उठते हुए मालूम होंगे। अगर तुम गौर से न सुनोगे, तो साम्य चूक जाएगा। अगर तुमने परम ध्यान से सुना, शून्य होकर सुना, तो जो कहा है वह नहीं, बल्कि जहां से कहा है उस हृदय की धड़कन सुनायी पड़ेगी।
पंडितों की भाषा कठिन होगी। पंडित की भाषा सरल हो नहीं सकती, क्योंकि पंडित को अपनी कठिन भाषा में ही अपने कथ्य की गरीबी को छिपाना है, दीनता को छिपाना है। वह बिना जाने कुछ कह रहा है। अगर भाषा सरल हो, तो तुम्हें दिखायी पड़ जाएगा कि भीतर कुछ भी नहीं है। भाषा अगर सीधी-सादी हो, तो सतह समझ में आ जाएगी; और भीतर तो कोई गहराई नहीं है। तो सतह को इतना जटिल होना चाहिए कि तुम सतह के भीतर कभी प्रवेश ही न कर पाओ। और जितना तुम प्रवेश न कर पाओगे, उतना ही सोचोगे कि भीतर कोई बड़ा रहस्य होना चाहिए।
पंडित की भाषा कठिन अनिवार्यतः होगी। क्योंकि भाषा ही मात्र के कुल, और कुछ भी नहीं है। पंडित की भाषा ऐसे है जैसे किसी कुरूप स्त्री ने गहने पहन रखे हों, बहुमूल्य वस्त्र पहन रखे हों, रंग-रोगन कर रखा हो, और कुरूपता को छिपा लिया हो।
संत की भाषा ऐसे है जैसे कोई सुंदर स्त्री अनसजी खड़ी हो। जैसे वृक्ष नग्न हैं, चांदत्तारे नग्न हैं, ऐसे संत की भाषा नग्न है--उस पर कोई आवरण नहीं है। क्योंकि आवरण उसे कुरूप ही कर देंगे। कोई आवरण संत की भाषा को सुंदर नहीं कर सकता। वह आत्यंतिक रूप से सुंदर है ही। उस पर अब और कोई सजावट नहीं चाहिए।
सौंदर्य अपने आप में काफी है। कुरूपता को बेचैनी होती है; वह ढांकती है, छिपाती है, दबाती है।जो नहीं है दिखलाती है, जो है इसे ढांकती है।
पंडितों की भाषा में भी साम्य होगा, उनकी जटिलता का। और तुम उनसे अगर प्रभावित होते हो, तो उसका कुल कारण इतना ही होता है कि तुम्हारे पास गहरे देखने की आंखें नहीं हैं। अगर गहरे देखने की आंख होगी, तो पंडित के भीतर का अज्ञान तुम्हें स्पष्ट दिखायी पड़ेगा। अगर गहरी आंख होगी, तो सौंदर्य के अवरणों के पीछे छिपी कुरूपता स्पष्ट हो जाएगी। इसलिए पंडित कभी सनातन प्रभाव नहीं छोड़ता।
हीगल ने बहुत अदभुत ग्रंथ लिखे हैं। अदभुत इसी अर्थ में कि वे बहुत जटिल हैं। जब तक हीगल जिंदा रहा, लोग चमत्कृत रहे। क्योंकि उसकी भाषा के जंगल से गुजरना और उसके अंतस्तल तक पहुंचना कठिन था। जैसे ही हीगल मरा और लोगों ने गहरा अध्ययन किया, वैसे-वैसे हीगल का प्रभाव कम होने लगा। सौ साल भी न बीते थे कि हीगल लोगों के चित्त से समाप्त हो गया। क्योंकि जैसे ही लोगों ने समझा वैसे ही पाया कि भीतर तो कुछ भी नहीं है। प्याज के छिलके थे सब। प्याज की परतों को उघाड़ते गए, भीतर तो हाथ कुछ भी न आया--केवल रिक्तता मिली।
पंडित अपने समय में काफी प्रभावी होता है, क्योंकि उसके समझने में देर लगेगी। संत अक्सर अपने समय में प्रभावी नहीं हो पाता, क्योंकि वह बात इनकी सरल कहता है कि अगर तुम्हारे पास ध्यान हो तो ही दिखायी पड?गी। विचार से दिखायी ही न पड़ेगी। अगर तुम भी मौन हो तो ही संत के साथ तुम्हारा हृदय धड़केगा, उसकी श्वास के साथ तुम्हारी श्वास चलेगी; और तब अपरिहार्य रूप से एक मधुरिमा तुम्हें घेर लेगी। तुम्हारे कंठ से एक स्वाद टपकने लगेगा, भीतर अमृत का एक स्पर्श शुरू हो जाएगा।
एक ही कुएं से जब भी तुम पानी पियोगे, तुम्हारे कंठ से एक-सी आवाज, एक से स्वर भी पैदा होंगे। तुम सभी संतों को एक ही बात कहते हुए पाओगे, चाहे उन्होंने कितनी ही अलग-अलग बातें कहीं हों, कितने ही भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया हो। सबके भीतर तुम पाओगे स्वर एक है। अगर स्वर न दिखायी पड़े तो तुम संतों के आसपास संप्रदाय बना लोगे, अगर स्वर दिखायी पड़ जाए तो धर्म में तुम्हारी गति हो जाएगी।
पंडित संप्रदाय बनाता है। संत धर्म को उतार आता है।
एक बहुत आश्चर्य की घटना भारत के इतिहास में घटी है। महावीर में धर्म उतरा। लेकिन महावीर का जिन्होंने शब्द संग्रह किया वे सभी ब्राह्मण थे। महावीर तो क्षत्रिय थे, उनके ग्यारह ही गणधर ब्राह्मण थे, पंडित थे। मेरे देखना है कि महावीर ने जो दिया था वह इन ग्यारह पंडितों ने बुझा दिया। महावीर ने उतारा था इस जगत में, उतर भी न पाया कि इन ग्यारह शास्त्रविदों ने उसे शास्त्रों में ढांक दिया, दबा दिया।
बुद्ध के साथ भी यही हुआ।
इस लिहाज से सहजोबाई, कबीर, दादू सौभाग्यशाली हैं। ये इतने सीधे-साधे लोग थे, और इतने दीन-दरिद्र घरों से आए थे कि बड़े पंडित इन्हें अनुयायियों की तरह नहीं मिल सके। महावीर, बुद्ध को मिल गए, क्योंकि वे राजघरानों के लोग थे, शाही परिवार से आए थे। उनके पास खड़े होने में पंडितों के अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती थी। ये दुर्भाग्य सिद्ध हुआ। क्योंकि पंडितों ने भीड़ कर ली खड़ी चारों तरफ एक वर्तुलकार घेरा डाल दिया। साधारणजन से ज्यादा उत्सुकमता उन्होंने दिखायी, क्योंकि बुद्ध के पास होना ही काफी अहंकार को पुष्ट करता था।
सहजोबाई के पास कौन आकर खड़ा होगा! एक साधारण ग्रामीण स्त्री है। पंडित तो कहेंगे, ये जानती ही क्या है? इससे ज्यादा तो हम जानते हैं। मन में तो शायद उनके यही बात महावीर और बुद्ध के बाबत भी रही होगी कि इनसे ज्यादा हम जानते हैं, लेकिन कह न सके--ये राजपुत्र थे। इनकी महिमा का दूर-दूर तक प्रकाश फैला था। इनके पास खड़े होकर इनकी महिमा का थोड़ा सा हिस्सा वे भी बांट लेना चाहते थे। सहजोबाई की कौन पंडित फिकर करेगा?
कबीर काशी में ही रहे, किसी पंडित ने कभी दाद न दी। कौन दाद देगा? न संस्कृत जानते हो, न प्राकृत जानते हो, न पाली जानते हो; न गीता का कुछ पता, न समय सार की कोई पहचान, न धम्मपद से कोई संबंध है, तुम्हें फिकर कौन करेगा? तुम जो कह रहे हो वह भाषा जुलाहे की है, ज्ञानियों की नहीं। कबीर कहते हैं--झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया। बुद्ध नहीं कह सकते, महावीर नहीं कह सकते--कभी बनी ही नहीं चदरिया। वह जुलाहा ही कह सकता है।--उसके पास दूसरी कोई भाषा नहीं है।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि बुद्ध और महावीर की भाषा भी फीकी पड़ जाती है, राजमहल की भाषा है--जीवित कम। बहुत सुरक्षित रोपे की तरह है। खुले आकाश का रोपा नहीं है, हाट हाउस में रोपा गया रोपा है। खुले जंगल में, सूरज और तूफान में, आंधी और अंधड़ में बड़ा नहीं हुआ है। सुंदर हो सकता है, पर अति कोमल है। सौंदर्य में बल नहीं है।
जब कबीर बोलते हैं तो बात ही और है! जीवन के सीधे अयथार्थ से शब्द आए हैं। इसलिए तुम्हें सरल लगते हैं। सरल लगने के कारण तुम्हें लगता है, इनमें रखा ही क्या है? क्योंकि तुम समझ लेते हो तुम समझते हो, समझने को कुछ है ही नहीं। और यही मेरी चेष्टा है तुमसे; सहजो को, कबीर को, दादू को तुम्हारे सामने खींच रहा हूं, सिर्फ इसीलिए कि तुम्हें यह दिखायी पड़ जाए कि जहां तुम्हें लगता है सब समझ लिया, वहां बहुत समझने को शेष है।
शंकराचार्य ने गीता पर टीका की। उपनिषदों पर टीका की। ब्रह्मसूत्र पर टीका की। इन तीनों पर भारत में सदा टीका होती रही है। किसी ने कभी सहजोबाई, कबीर, दादू इन पर टीका की ही नहीं। टीका करने को कुछ लगता ही नहीं। बात इतनी सरल है कि अब इसे और क्या समझाओ!
और मैं तुमसे कहता हूं, जहां सरल है वहीं समझने को है। रहस्य सरलता में दबा है। जटिलता में तो तुम सिर्फ कोरे शब्द पाओगे, जिनकी छीछालेदर जितनी करनी हो कर लो, आखिर में पाओगे खाली हाथ आए खाली हाथ गए।
इसे स्मरण रखना।
जहां चीजें बिलकुल सरल मालूम पड़ें, वहां रुकना। उनके सरल होना का ही बड़ा रहस्य है। सरल होना इस बात का सबूत है कि कुछ है कहने को। जटिलता इस बात की सबूत है कि कहने को कुछ नहीं है। कथ्य की दरिद्रता को छिपाने के लिए शब्दों का जाल है। जब कथ्य समृद्ध होता है, जो कहना है जब हीरा होता है, तब फिर उसे किसी और चीज से सजाने की जरूरत नहीं होती। कोहनूर अकेला ही रख दिया जा सकता है। वह काफी होगा। उसमें जोड़ने को और क्या है? उसे तुम कुछ जोड़ोगे तो उसका सौंदर्य कम ही होगा।
ये सहजोबाई के शब्द कोहनूर जैसे हैं। अप्रतिम इनका सौंदर्य है; पर सौंदर्य सरलता का है। इसलिए बुद्धि से अगर तुमने देखा तो समझ में न आएगा, क्योंकि बुद्धि को जटिलता में मजा आता है, पहेलियां सुलझाने में मजा आता है। अगर हृदय से देखा, तो तुम इस सरलता में ऐसे रहस्य पाओगे जो कभी हल ही नहीं होते। उतरो, डूबो, तुम्हीं खो जाओगे; लेकिन कभी ऐसी घड़ी न आएगी जिस क्षण तुम कह सको जान लिया।
जो जान लिया जाए उसका परमात्मा से क्या संबंध? जो जान-जानकर भी अनजाना, अपरिचित रह जाए; पहचानते-पहचानते भी पहचान न बने; पकड़ो जितना ही उतना ही छूटता जाए; जितना पीछा करो उतना ही रहस्यपूर्ण होता चला जाए; वह अज्ञात ही परमात्मा है।

दूसरा प्रश्न:

आपने कल कहा, महत्वाकांक्षी प्रेम नहीं कर सकता है। इने-गिने बुद्ध पुरुषों को छोड़कर हम सभी कमोबेश महत्व के आकांक्षी हैं। तब क्या हमारा सब प्रेम मां-बाप के लिए, बेटा-बेटी के लिए, पति-पत्नी के लिए, प्रेमी-प्रेमिका के लिए, जाति-धर्म के लिये कलुषित है, स्वांग है, झूठा है?

जिस मात्रा में महत्वाकांक्षा है, उसी मात्रा में प्रेम झूठा हो जाता है। जिस मात्रा में महत्वाकांक्षा कम है, उसी मात्रा में प्रेम सच्चा हो जाता है।
जब तुम किसी को प्रेम करते हो, तो प्रेम के लिए ही प्रेम करते हो या कोई और भी कारण है। जिस मात्रा में तुम और भी कारण बता सको, उसी मात्रा में प्रेम कम हो जाता है। तुमसे कोई पूछे कि क्यों तुमने प्रेम किया इस व्यक्ति को, तुम अवाक खड़े रह जाओ, तुम कोई कारण न बता पाओ; तुम कहो--अकारण ही समझो, हो गया, खोजता हूं कुछ कारण नहीं पाता, कारण मेरी ही समझ में नहीं आता है। ध्यान रखना, ऐसी घड़ी में ही प्रेम का अवतरण होता है, जहां कारण नहीं है।
जो सकारण है, वह संसार का हिस्सा है। जो अकारण है, वह परमात्मा का।
परमात्मा के होने का कोई कारण है? कहो, थोड़ा सोचो! संसार के होने का कारण हो सकता है। हम कहते हैं संसार को परमात्मा ने बनाया, वह मूल कारण है। लेकिन पूछो परमात्मा को किसने बनाया, बात बेहूदी हो जाती है। उसका कोई भी कारण नहीं है।
संसार किसी कारण से है, परमात्मा अकारण है।
तुम दुकान चलाते हो, कोई कारण है। रोटी-रोजी के लिए जरूरी है, पेट भरना है। तुम नौकरी-चाकरी करते हो, तुम धन कमाते हो, कोई कारण है। क्योंकि धन के बिना कैसे जिओगे? मकान बनाते हो, कारण है। बिना छिप्पर के जीवन मुश्किल हो जाएगा--वर्षा है, धूपत्ताप है।
लेकिन तुम प्रेम करते हो, क्या कारण है? क्या बिना प्रेम के न जी सकोगे? क्या बिना प्रेम के मर जाओगे? बिना रोटी के न जी सकोगे, मर जाओगे; बिना प्रेम के क्या अड़चन है; सच तो यह है कि बिना प्रेम के तुम करोड़ों लोगों को बिलकुल मजे से जीते देखोगे। प्रेम से शायद अड़चन भी आ जाए, प्रेम के अभाव से तो कोई अड़चन नहीं मालूम होती है। धन के बिना न जी सकोगे, प्रेम के बिना तो आदमी जी सकता है--जीता है।
जिनको तुम जीवन में सफल देखते हो, ये वही लोग हैं जो प्रेम के बिना जी रहे हैं। प्रेम और सफलता का जोड़ नहीं बनता, क्योंकि सफलता के लिए जितना कठोर होना पड़ता है प्रेम उतना कठोर होने की सुविधा नहीं देता। प्रेम और धन का जोड़ नहीं बनता, क्योंकि धन के लिए जितनी हिंसा चाहिए उतनी प्रेम बर्दाश्त नहीं कर सकता। प्रेम और पद का संबंध नहीं बनता, क्योंकि पद के लिए जैसी विक्षिप्त दौड़ चाहिए और गलाघोंट प्रतियोगिता चाहिए वैसा प्रेम नहीं कर पाता।
नानक के पिता बहुत परेशान थे, क्योंकि किसी काम धंधे में न लगे। जहां लगाए वहीं अड़चन आ जाए। कुछ पैसे लेकर दूसरे गांव से सामान लेने भेजा। चलते वक्त कहा कि लाभ का ध्यान रखना। धंधे तो लाभ के लिए किए जाते हैं। नानक ने कहा बिलकुल बेफिकर रहें, लाभ का ध्यान रखूंगा। वह दूसरे गांव से सामान खरीदकर आते थे, रास्ते में साधुओं की एक मंडली मिल गयी--वे भूखे थे दिन से। उन्होंने सबको खाना खिला दिया, कंबल बांट लिये--जो भी लाए थे वह सब बांट-बूंट कर बड़े प्रसन्न, नाचते हुए घर आए। बाप ने देखा, नाचते आ रहा है, जरूर कुछ गड़बड़ हो गयी होगी। दूकानदार कहीं नाचते घर आया है। और सामान कुछ भी नहीं है, अकेले ही चला आ रहा है, और इतनी मस्ती में है, कुछ न कुछ गड़बड़ हुई है!
पूछा कि क्या हुआ--लाभ का क्या हुआ?
नानक ने कहा, जैसा कहा था वैसा ही करके आया हूं; बड़ा लाभ अर्जित हुआ है। तीन दिन के भूखे-संन्यासी। उस जंगल में मेरा निकलना। जैसे परमात्मा को ही भेजना होया। उनको कौन खिलाता, कौन उन्हें कंबल देता है? बड़ा लाभ हुआ है। धन्यभागी हैं हम! उनके चेहरों पर आयी तृप्ति...उनके शरीरों पर डालकर कंबल आ गया हूं...और इस सेवा का क्या लाभ होगा--परमलाभ हुआ है।
बाप ने सिर पीट लिया।
नानक का लाभ कुछ और ही मालूम पड़ता है। ये कुछ ऐसा लाभ है जिसे लाभ कहना भी ठीक नहीं। बाप की समझ में नहीं आता कि ये कैसा लाभ है?
कोई रास्ता न देखकर सूबेदार के घर नौकरी लगवा दिया। नौकरी यह थी कि दिनभर तराजू से तौलते रहो सामान लोगों के लिए--बड़ी फौज-फांटा था, सबको सामान देना--भंडार पर बिठा दिया।
पर दो-चार दिन में ही गड़बड़ हो गयी। प्रेम जिसके जीवन में आ गया, संसार उसका गड़बड़ा ही जाता है। पैर डगमगा जाते हैं--पांव पड़ै कित कै किती। शराबी की तरह आदमी हो जाता है--प्रेम की शराब।
नानक चौथे या पांचवें दिन नाप रहे थे, तेरह का आंकड़ा आ गया। पंजाबी में तेरह--तेरा। कहा--ग्यारह, बारह, तेरा। तेरा पर अटक गए। तेरा कहते ही उसकी याद आ गयी--तू तेरा। फिर आगे न बढ़े, फिर चौदह न आया, फिर पंद्रह न आया; फिर वे डालते ही गए, तौलते गए और कहते गए--तेरा। अब तेरा के बाद कहीं को संख्या है? आखिरी संख्या आ गयी, परमात्मा आ गया। अब उसके बाद और क्या आने को बचता है? उसके न आगे कुछ है, न पीछे कुछ है, आखिरी घड़ी आ गयी--तेरा। गांव भर में खबर फैल गयी कि वह पागल हो गया है; लोगों ने कहा वह पागल पहले से हैं।
अब वह तौले जा रहा है, जो भी आ रहा है वह तेरा...दिए जा रहा है। अब वह कुछ पैसे-वैसे भी नहीं लेता, क्योंकि जब तेरा--अब किससे क्या लेना? सूबेदार भागा गया। उसने कहा बरबाद कर देगा, यह क्या लग रखा है--तेरा? तेरा के बाद भी संख्या है, भूल गया? नानक ने तराजू वहीं रख दिया और कहा कि तेरा के बाद कोई संख्या नहीं है। अब मैं जाता हूं, उसकी पुकार आ गयी। उसने ही पुकारा तभी तो मैं समझ पाया, नहीं तो तेरा तो मैं रोज गिनता था, चौदह आ जाता था, पंद्रह आ जाता है; आज उसकी कृपा हो गयी। अब सब उसी का है--यह अनाज, धन, संपत्ति, मैं तुम सब उसके हैं। अब कुछ तौलूंगा न। अब तो उसके हाथ पड़ गया जिसको तौला ही नहीं जा सकता, इसलिए तो तेरा पर रुक गया।
अब यह प्रेम की दुनिया अलग ही दुनिया है, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं!
तो तुम जो प्रेम करते हो, उसमें जिस मात्रा में महत्वाकांक्षा है, लाभ है, लेने का भाव है, कोई कारण है, उसी मात्रा में प्रेम में जहर धुल जाता है। इसलिए तो तुम्हारे प्रेम से सुख नहीं होता, दुख ही होता है। कहां तुम्हारे प्रेम से सुख होता है? पति को क्या सुख होता है पत्नी के प्रेम से? सोचता है, होगा। सोचता था, कहना चाहिए। अब तो सोचता भी नहीं है, सोचता था कि सुख होगा। पत्नी ने भी सोचा था कि होगा, उसी सोच में तो उलझे, उसी लोभ में तो पड़े, उसी मृगमरीचिका के पीछे तो चल पड़े।
 सतत कलह है। अभद्र हो, भद्र हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? सज्जनोचित हो, ग्राम्य हो, सभ्य हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? सुशिक्षित हो कलह कि अशिक्षित हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन कलह है, और, प्रेम ने जितने सपने दिखाए वे कोई पूरे नहीं हुए। अगर तुम छोड़कर नहीं भाग जाते हो इस प्रेम को तो उसका कारण यह नहीं है कि तुम्हें कुछ मिल गया है। छोड़कर तुम भागते हो तो वही कारण है, जो मैंने तुमसे पहले दिन कहा--सौमुअल बैकट की कथा में--कि छोड़कर जाए कहां? छोड़कर नहीं भागते हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें कुछ मिल गया है यहां। नहीं भागते हो इसलिए कि जाए कहा? जहां जाएंगे वहीं यही होगा। तो नये रोग लेने से तो पुराना रोग ही ठीक है। कम से कम परिचय तो है, जाने-माने हैं।
छोटी-छोटी चीज की कलह है।
कल ही मैं एक घटना पढ़ रहा था। किसीने अपने मित्र को भोजन पर बुलाया है। और जैसा किसी को भोजन पर बुला लो और घर में कलह होती है, पत्नी नाराज है। तो जो भोजन ग्यारह बजे बन जाना चाहिए, बारह बजे गए हैं वह बन ही नहीं रहा है। मित्र की वजह से वह कुछ कह भी नहीं सकती। लेकिन भीतर तो पीड़ा है, तो वह लंबा रही है समय, बरतन जोर से गिर रहे हैं, दरवाजे जोर से लगाए जा रहे हैं, करीब-करीब सब बच्चे पीछे जा चुके हैं--बड़ा शोरगुल मचा है। पति भी क्रुद्ध बैठा है, कुछ कह भी नहीं सकता, अब कहे भी क्या? मित्र के सामने कुछ कहना भी ठीक नहीं, प्रतीक्षा ही करना उचित है। भूख लगी है। और मित्र भी बैठा है, और मित्र को भी दिखायी तो पड़ रहा है जो हो रहा है।
आखिर पत्नी ने भीतर से झांका और कहा कि सुनो जी, खीर तो तैयार होने के करीब है, लेकिन शक्कर नहीं है। अब यह एक नया उपद्रव! ग्यारह बजे से नहीं कहा उसने कि शक्कर नहीं है; अब एक बजे हैं! अब ये शक्कर में कहीं जाकर क्यू लगाकर खड़े होओ तो उसने लगा दिया पूरा दिन चौपट कर दिया--और मित्र सामने बैठा है। तो मित्र की तरफ देखकर पति एकदम आगबबूला हो गया, उसने कहा, शक्कर नहीं है तो मेरा भेजा डाल दे। मित्र ने सोचा कि अब झंझट बढ़ेगी, मैं अकारण फंस गया; आ गया, अब जाना भी नहीं बनता। अब जाऊंगा तो भी अभद्र है, और अब ये तो बात बिगड़ गयी। लेकिन पत्नी ने कुछ न कहा, चुपचाप चली गयी, जोकि बड़ी आश्चर्यजनक घटना थी! लेकिन पंद्रह-बीस मिनट बाद वह फिर आयी, उसने कहा कि शक्कर नहीं है, चाय कैसे बनेगी? अब तो पति और भी आगबबूला हो गया, उसने कहा, एक दफा कह दिया कि मेरा भेजा डाल दे। उसकी पत्नी ने कहा कि भेजा तो खीर में डाल दिया, अब चाय में क्या डालूं?
ऊपर सतह पर सब संस्कार रह जाते हैं, भीतर कलह है, भीतर गहन घृणा है। घृणा से भी ज्यादा विषाद है कि तुमने मुझे धोखा दिया कि तुमने प्रेम के जो सपने दिखाये वे पूरे न हुए कि तुमने आश्वासन दिए थे फूल-सजे रास्तों के, सिवाय कांटों के और कुछ भी न मिला।
बाप नाराज हैं बेटों से, बेटा नाराज हैं बाप से। मां नाराज है बच्चों से, बच्चे नाराज हैं मां से। कोई किसी से प्रसन्न नहीं है, क्योंकि प्रेम ही नहीं है। कोई दूसरे कारणों पर अटका है प्रेम; वही कारण कष्ट के आधार बन जाते हैं।
मां सोच रही है, बेटा बड़ा होगा तो उसकी जो-जो महत्वाकांक्षाएं अधूरी रह गई हैं, वह पूरी करेगा। बेटा अपनी वासनाएं लेकर संसार में आया है, तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं पूरी करने नहीं आया है। बाप सोचता है कि मैं नहीं हो पाया बहुत बड़ा अमीर, कोई बिड़ला-टाटा नहीं बन पाया, मेरा बेटा करके दिखा देगा। लेकिन बेटा संगीतज्ञ बनने के धन में पड़ा है। बेटे को धन में रस नहीं है, वह कहता है संगीतज्ञ बनना है। बेटा अपनी वासनाएं लेकर आया है। और बाप ने बेटे को जन्म के पहले पूछा भी नहीं कि तू मेरी महत्वाकांक्षा पूरी कर सकेगा, जो मैं तुझे दुनिया में लाऊं। और बेटे ने भी न पूछा कि मैं अपनी महत्वाकांक्षा, वासना लेकर आता हूं, तुम सहारा बन सकोगे, मैं आऊं?--अन्यथा संबंध तोड़ लें।
संबंध अंधेरे में हुआ, और दोनों अपनी आकांक्षाएं लिए हैं। दोनों की महत्वाकांक्षाएं टकराएंगी, क्योंकि इस संसार में कोई दूसरे की महत्वाकांक्षा पूरा करने को आया नहीं, सबकी अपनी महत्वाकांक्षा है--अपने कर्मों का जाल है। हर आदमी खुद होने को पैदा हुआ है। इसलिए, अगर तुम्हारी जरा सी भी महत्वाकांक्षा है किसी आदमी से तो वही जहर बन जाएगी।
बाप देख रहा है कि बेटा धोखा दे रहा है। मैं चाहता था कि धनपति बन जाऊं, मैंने जिंदगी भर इसके लिए गंवायी इसी आशा में कि मरते वक्त मेरी आशा पूरी होगी, और ये सितार बजा रहा है। ये भीख मांगेगा। अमीर होना तो दूर भिखमंगे हो जाएंगे; बुढ़ापे में पेट भर रोटी भी मिलेगी यह भी संदिग्ध हुई जा रही है बात।
मां सोचती है बेटा बड़ा होगा, एक साम्राज्य कल्पनाओं का उसने बना रखा है जो वह पूरी कर देगा--जो उसका पति न कर पाया पूरी वह बेटा कर देगा। लेकिन बेटे को कोई और औरत मिल जाएगी, वह उसकी आकांक्षाएं पूरी करेगा कि मां की करेगा?
कौन किसकी आकांक्षाएं पूरी कर सकता है? अपनी ही पूरी नहीं होती, दूसरे के पूरे होने का तो कोई उपाय नहीं।
इसलिए जहां तुम्हारे प्रेम में महत्वाकांक्षा का संबंध आया, वहीं तुम जान लेना कि अड़चन शुरू हो गयी। अड़चन बाद में नहीं आती, पहले ही उसका बीज मौजूद होता है।
तुम थोड़ी देर सोचो कि बाप बेटे को प्रेम करता हो, सिर्फ प्रेम करता हो--कि आनंदित हूं, तू जो भी होना चाहे हो; तू अगर सितार बजाएगा तो मेरी खुशी है; तू धन कमाएगा तो मेरी खुशी है; तू भिखमंगा हो जाएगा लेकिन प्रफुल्लित रहेगा अपने भिखमंगेपन में तो मेरी खुशी है; मैं खुश हूं, तू जो होना चाहे उसमें मेरा सहयोग है। तब बाप और बेटे के बीच में एक संबंध होगा, जो प्रेम का है।
जहां भी प्रेम से ज्यादा कुछ तुमने मांगा, वहीं प्रेम तिरोहित हो जाता है। प्रेम बहुत नाजुक है। और जिस व्यक्ति के जीवन में प्रेम का अनुभव हो जाए, वह इतना तृप्तिदायी है अनुभव कि फिर तुम कुछ और न मांगोगे। वह अनुभव ही नहीं हो पाता, इसलिए तुम दूसरी चीजें मांग रहे हो।
एक बार प्रेम का अनुभव हो जाए तो तुम्हारे जीवन में स्वाद आ गया; अब तुम प्रार्थना की तरफ बढ़ोगे। प्रार्थना इस अस्तित्व के साथ आकांक्षा रहित संबंध है। लेकिन तुम तो प्रार्थना करते हो उसमें भी आकांक्षा होती है, उसमें तुम मांगते हो--तुम कहते हो परमात्मा, ऐसा कर। अगर ऐसा करेगा तो प्रसाद चढ़ा देंगे, अगर ऐसा करेगा तो तीर्थयात्रा कर आएंगे। छोटे-छोटे बच्चों को भी तुम यही समझाते हो कि अगर तुमने न मानी बात तो परमात्मा नाराज हो जाएगा, मानी तो प्रसन्न हो जाएगा।
मैंने सुना है कि एक मां अपने बेटे को डांट रही थी--छोटा सा बेटा, पांच छह साल की उमर का होगा--क्योंकि उसने चाकलेट ज्यादा खा ली है, और ज्यादा चाकलेट डाक्टर ने मना लिया है, और रोग का घर है, और वह डांट रही थी। वह कह रही थी, परमात्मा बहुत नाराज होगा, तुम सजा पाओगे। वह लड़का, डरा-धमकाकर मां ने उसको भेज दिया अपने बिस्तर पर। जैसे ही वह बिस्तर पर पहुंचा--बरसात के दिन थे--जोर से बिजली कड़की और बादल गरजे। तो वह लड़का उठा। मां पहुंची देखने कि लड़का कहीं डर तो नहीं गया है, इतने जोर से बिजली चमकी है--घर कांप गया, बादल गरजे--उसने झांक कर देखा तो वह लड़का खिड़की पर खड़ा है, और परमात्मा से कह रहा है--थोड़ी सी चाकलेट के लिए इतना तो मत करो! इसमें ऐसा क्या पाप हो गया, बिलकुल दुनिया ही मिटाने को तैयार हो!
छोटे से छोटे बच्चे के मन में हम जहर भर रहे हैं--दंड का, पुरस्कार का।
नर्क और स्वर्ग तुम्हारे क्या हैं? तुम्हारे दंड और पुरस्कार हैं। अच्छा करोगे तो स्वर्ग, बुरा करोगे तो नर्क। तो जिसको स्वर्ग पाना हो, वह अच्छा करे--वही तुम्हारे साधु-संन्यासी कर रहे हैं। जिसको बुरा न पाना हो, दुख न पाना हो, नर्क से बचना हो, वह अच्छा करे--वही तुम्हारे साधु-संन्यासी कर रहे हैं। तुम्हारे साधु-संन्यासी बड़े बचकाने हैं।
ऐसा मैं उनके बहुत निरीक्षण से कहता हूं।
उनकी बुद्धि इसी छोटे बच्चे जैसी बुद्धि है। बेचारे उपवास कर रहे हैं, वह कर रहे हैं, सामायिक कर रहे हैं, ध्यान कर रहे हैं, पूजा पुत्र में लगे हैं--लेकिन भीतर बच्चे की आकांक्षा है कि ऐसा करेंगे तो भगवान प्रसन्न हो जाएगा--स्वर्ग, मोक्ष! नहीं किया--नर्क में जलाए जाएंगे; कड़ाहे, उबलता हुआ तेल, उसमें फेंकें जाएंगे; मरें भी नहीं जी भी नहीं सकेंगे--बड़ा कष्ट होगा! ऐसे कष्टों से बचने के लिए वे यही अपने को कष्ट दे रहे हैं, ताकि भगवान देख ले कि हम खुद ही अपने को काफी कष्ट दे रहे हज, तुम हमें मत भेजो। देखो हमारी तरफ--हम उपवास किए हैं, भूखे मर रहे हैं, सो नहीं रहे हैं, कांटों पर लेटे हुए हैं, धूप में खड़े हैं, पानी में खड़े हैं, देखो, हम अपने को खुद ही कष्ट दे रहे हैं, हम अपने अपराधों के लिए खुद ही प्रायश्चित किए ले रहे हैं, अब तुम्हें नर्क और भेजने की हमें कोई जरूरत नहीं है, यह आकांक्षा है। इसका धर्म से कोई भी संबंध नहीं।
धर्म आकांक्षा रहित संबंध है।
न स्वर्ग का कोई लोभ है मन में, न नर्क का कोई भय है मन में। स्वर्ग और नर्क पागलों की बकवास है। प्रार्थना न मांगती है, न मांगना जानती है। प्रार्थना तो केवल अहोभाव है! प्रार्थना तो यह कहती है कि जितना तुमने दिया है वह जरूरत से ज्यादा है, उसे मैं भोग पाऊं यही संभव नहीं दिखायी पड़ता। जितना तूने बरसाया है, वह इतना ज्यादा है कि मेरे पात्र में भर जाऊं--कितना भरूंगा--मेरा पात्र बहुत छोटा है! सागर भर जाएंगे, झीलें भर जाएंगी सारी पृथ्वी की, इतना तूने अमृत बरसाया है। धन्यवाद है प्रार्थना! लेकिन धन्यवाद तभी उठता है जब तुम देखो यथार्थ को।
अगर तुम कामवासना को देखते रहो, जो होना चाहिए उस पर नजर लगी रहे--जो है उस पर नहीं--तो तुम मांगते ही चले जाओगे।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे प्रेम के संबंध सब जहरीले हैं--मां का हो, पिता का हो, भाई का हो, बहन का हो, पति-पत्नी का हो, मित्र का हो, राष्ट्र का हो--सब जहरीले हैं।
इसलिए तुम्हारे सभी प्रेम कलह पर ले जाते हैं।
 राष्ट्र-प्रेम युद्धों में ले जाता है। भाई-भाई का प्रेम अदालतों में ले जाता है। तुम्हें पता है, जब दो भाई, लड़ते हैं ऐसा कोई भी नहीं लड़ता। दो दुश्मन भी इस बुरी तरह नहीं लड़ते--जैसा दो भाई लड़ते हैं। पति-पत्नी जिस तरह की सतत कलह में होते हैं, इस तरह की कलह में कोई भी नहीं होता--दुश्मन से भी इतनी झंझट नहीं चलती। झंझट के लिए चौबीस घंटे साथ कोई तो और है ही नहीं, सिवाय पत्नी के।
तुम्हारा प्रेम कैसा प्रेम है कि पृथ्वी नर्क बन गयी है तुम्हारे प्रेम के कारण! तुम मंदिर को प्रेम करते हो मस्जिद जलती है, और कुछ नहीं होता। तुम मस्जिद को प्रेम करते हो मंदिर तोड़ा जाता है, और कुछ नहीं होता। तुम भारत को प्रेम करते हो पाकिस्तान को काटोगे, तुम पाकिस्तान को प्रेम करते हो तुम भारत की हत्या करोगे। तुम्हारे प्रेम से कुछ और होता दिखायी नहीं पड़ता!
तुम्हारा प्रेम जीवन को सजाने के काम तो नहीं आता, मिटाने के काम आता है।
इसे तुम ठीक से समझ लो।
तुम जिसको कहते हो परिवार का प्रेम, अगर तुम गौर से देखोगे तो दूसरे परिवारों की घृणा है वह--परिवार का प्रेम नहीं है, तुम गलत शब्द का उपयोग कर रहे हो। तुम कहते हो परिवार का प्रेम, वह तुम्हारे दूसरे जो पड़ोसी हैं, उनकी घृणा है, बस। उनकी घृणा के कारण तुम सहमत हो गए हो, इसलिए कभी तुमने गौर किया...।
मेरे घर के सामने, मेरे गांव में एक परिवार रहता था, जिसमें अक्सर झगड़ा हो जाता। बचपन से मैं उनको देखता आ रहा हूं, और एक अनूठी बात मैंने उनमें अनुभव की, फिर मैंने सभी परिवारों में पायी। सूत्र मुझे वहीं मिला।
उनमें अक्सर झगड़ा हो जाता, बड़े लठैत किस्म के लोग हैं। बाप बेटे को कराने लगाता, बेटा बाप को मारने लगता। काफी बड़ा परिवार है। काका, भाई, भतीजे सब इकट्ठे हो जाते, सड़क घिर जाती--छोटी सड़क, रास्ता बंद हो जाता, तांगे न निकल सकते--भारी मच जाता उपद्रव! लेकिन कभी भी अगर कोई दूसरा आदमी भीड़ में से बची में आ जाए, और कह दे कि बंद करो, ये क्या झगड़ा है? तो वे सब उस पर टूट पड़ते। उनका झगड़ा खत्म हो जाता है, वे सब मिलकर उसकी पिटाई कर देते कि तुम हमारे बीच बोले क्यों? यह तो हमारे भाई-भाई का झगड़ा है। ये बाप बेटे का झगड़ा है।
तब मैंने गौर से देखा कि सारे परिवार आपस में इकट्ठे हैं वह प्रेम के कारण नहीं, वह दूसरे परिवारों की घृणा के कारण।
तुम इकट्ठे हो, क्योंकि तुम्हारे सबके सामान्य दुश्मन हैं। उनसे बचना है तो तुम्हें इकट्ठा होना पड़ेगा। इसे तुम गौर से अगर अध्ययन करोगे तो राष्ट्रों में भी दिखायी पड़ेगा। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का झगड़ा हो जाए, पूरा हिंदुस्तान इकट्ठा हो जाता है। फिर गुजराती मराठी से नहीं लड़ता, फिर हिंदी गैर हिंदी से नहीं लड़ता; फिर झगड़ा एकदम बंद हो जाता है। क्योंकि अब झगड़ा पड़ोसी से हो रहा है। अब हम सब इकट्ठे हैं। यह हमारे भाई-भाई का झगड़ा था; अब दुश्मन सामने आ गया। हम बिलकुल इकट्ठे हैं। तो जब भी पाकिस्तान से झगड़ा हो, हिंदुस्तान इकट्ठा! तब तमिलनाडु में पंजाब में कोई झंझट नहीं; मैसूर में गुजरात में कोई झंझट नहीं; महाराष्ट्र गुजरात में कोई झंझट नहीं--सब झगड़े बंद। हिंदुस्तानी तब सब भाई-भाई। जैसे ही पाकिस्तान का झगड़ा समाप्त हुआ। तुम्हारे भीतर के झगड़े भीतर शुरू हो जाते हैं। तब छोटी-छोटी बातों पर तुम लड़ोगे--नर्मदा का जल कि कोई जिला कि रेखा कहां खींची जाए। तब तुम भूल जाते हो, तब गुजराती गुजराती है, मराठी मराठी; तब दोनों दुश्मन हैं।
तुम्हारा प्रेम भी तुम्हारी घृणा का आवरण है। तुम अपनी घृणा को प्रेम कहते हो। तुम्हें अच्छे शब्दों का उपयोग करने की लत पड़ गयी है और उसमें तुम बुरी बातों का छिपा लेते हो।
कोई मर जाता है, तो तुम कहते हो स्वर्गवासी हो गए। तुम्हें अच्छे शब्दों की आदत पड़ गयी है। यह जरा कहना अच्छा नहीं लगता कि मर गए। स्वर्गवासी हो गए। जैसे सभी स्वर्गवासी होते हों! तुम्हारे राजनेता मरते हैं, वे भी स्वर्गवासी हो जाते हैं! सब मरते चले जाते हैं, स्वर्ग में पहुंचते जाते हैं, फिर में कौन जा रहा है? जो भी मरता है वह स्वर्गवासी हो जाता है! मरते ही तम उस आदमी की बुराई करना बंद देते हो, मरते ही वह एकदम दिव्य-पुरुष हो जाता है, और उसकी पूर्ति अब कभी भी न हो सकेगी, और श्रद्धांजलि चढ़ाने पहुंच जाते हो!
तुम मृत्यु को छिपा रहे हो अच्छे शब्दों से, तुम मृत्यु के साथ साक्षात्कार नहीं करना चाहते, तुम सीधा नहीं कहना चाहते कि यह आदमी मर गया। क्योंकि यह कहने से तुम्हें भी डर पैदा होता--मैं भी मरूंगा। यह स्वर्गवासी हो गए। इससे तुम्हें बड़ी तृप्ति मिलती है कि हम भी जाल नहीं कल, अगर होंगे, कभी, तो स्वर्गवासी ही होंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन को एक आदमी रास्ते पर मिला और उसने कहा: अरे नसरुद्दीन, तुम जिंदा? नसरुद्दीन ने कहा, क्यों, किसने कहा कि मैं मर गया? उसने कहा: किसी ने कहा नहीं, कल से गांव में तुम्हारी प्रशंसा की बातें सुन रहा था, तो मैंने सोचा मर गए होओगे। क्योंकि जिंदा आदमी की तो कोई प्रशंसा करता ही नहीं। जहां गया वहीं तुम्हारी प्रशंसा सुनी, तो मैंने समझा कि स्वर्गीय हो गए।
यह तुम जानते हो, भलीभांति जानते हो!
एक आदमी मरा एक गांव में। उस गांव का रिवाज था कि जब भी कोई मर जाए, तो इसके पहले कि दफन किया जाए गांव का कोई आदमी उठकर उसकी प्रशंसा में कुछ कहे। पर वह आदमी इतना बुरा था कि उसने पूरे गांव को सता रखा था। वह मर गया, गांव के लोग इकट्ठे भी हो गए दफनाने को, लेकिन कौन उसके संबंध में खड़े होकर दो शब्द कहे? बहुत सोचा, लोगों ने सिर पचाया, गांव में बड़े व्याख्यान करनेवाले भी थे कि जिनसे लोग ऊब जाते थे, उन्होंने भी सिर पचाया, लेकिन कोई ऐसी बात ही न मिले कि इस आदमी के संबंध में कहो कि ये अच्छी थी--थी ही नहीं। अब बड़ी देर होने लगी, क्योंकि वह दफनाया कैसे जाए--रीति-रिवाज पूरा होना जरूरी है। यह हिस्सा है हमारे गीत को छिपाने का कि जब कोई मर जाए, दो अच्छे बातें कहो।
आखिर एक आदमी खड़ा हुआ। लोग बड़े चौंके कि क्या अच्छी बात बात कहेगा! उसने कहा कि ये सज्जन जो चल बसे, स्वर्गवासी हो गए, इनके पांच भाई और हैं, उनके मुकाबले ये देवता तुल्य थे। वे जो पांच भाई अभी जिंदा हैं गांव में, उनके मुकाबले ये देवता तुल्य थे। तब उनको दफना दिया गया। किसीने अच्छी बात कह दी।
तुम मौत को ढांक लेते हो। तुम घृणा को प्रेम से ढांक लेते हो। तुम सब चीजों को अच्छे शब्दों से ढांकने में कुशल हो गए हो। अब इन शब्दों को उघाड़ो और चीजों की असलियत को देखो, क्योंकि असलियत को देखते ही जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है। अगर तुम घृणा को प्रेम से मत ढांको तो तुम ज्यादा दिन तक घृणा न कर सकोगे, क्योंकि घृणा सिर्फ दुख देती है--दूसरे को देती है यह तो ठीक ही है, तुम्हें देती है। इसके पहले कि तुम दूसरे को दुख दो, तुम्हें अपने को दुख देना पड़ता है; इसके पहले कि तुम किसी के जीवन को नष्ट करने में लगो, तुम्हें स्वयं नष्ट होना पड़ता है; इसके पहले कि तुम किसी के रास्ते पर कांटे बोओ, तुम्हारे हाथों में खुद कांटे चुभ जाते हैं।
 तुमसे लोगों ने दूसरी बात कही है।
तुमसे अब तक कहा गया है कि अगर तुम दूसरों के रास्तों पर कांटे बोओगे, तो भविष्य में तुम्हें कांटों भरे रास्तों पर चलना पड़ेगा। मैं तुमसे भिन्न ही बात कहता हूं। मैं तुमसे कहता हूं, मगर तुम दूसरों के रास्ते पर कांटे बोओगे, तुम कांटों से पहले ही छिद चुके होओगे। बाद की बात नहीं करता, क्योंकि बाद में तो शायद बचने का उपाय भी मिल जाए, किसी को रिश्वत खिला दो--भगवान की पूजा कर लो, प्रार्थना कर लो! मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुमने किसी को घृणा की तो तुम्हें भविष्य में फल नहीं मिलेगा, घृणा तुम्हारे दुख का ही फल है, तुमने दुख पहले ही भोग लिया। तुमने किसी को क्रोध किया, तुमने क्रोध में ही अपने को जला लिया, और तुमने क्रोध में ही अपने हृदय में घाव बना लिए, भविष्य की कोई जरूरत नहीं है।
तो पुरानी कहावत है: जैसा तम बोओगे वैसा तुम काटोगे।
मुझे तुम आज्ञा दो कि मैं तुमसे कहूं कि: तुम जैसा बो रहे हो वैसा तुम काट चुके हो। अगर तुम जीवन के सत्यों की सचाई को ठीक से पहचानोगे तो तुम पाओगे, किसी को दुखी करना हो तो दुखी होना जरूरी है। जहर पिलाने के पहले जहर पी लेना जरूरी है। मारनेवाला दूसरे को मारने के पहले ही आत्मघात कर लेता है, वह मर ही जाता है।
तो तुम्हारा प्रेम झूठा तो होना ही चाहिए अन्यथा पृथ्वी स्वर्ग हो गयी हो गयी होती!
वृक्ष उनके फलों से पहचाने जाते हैं। सारी पृथ्वी पर सभी लोग प्रेम कर रहे हैं। कितने लोग हैं पृथ्वी पर? कोई तीन अरब लोग हैं। अगर उन सबके प्रेमों का हम हिसाब लगाए, तो उनके संबंध तो तीन अरब से कई गुना ज्यादा होंगे। कोई किसी का बाप है, वही किसी का बेटा है, वही किसी का पति है, वही किसी का भाई है, किसी का चाचा है, किसी का मामा है, किसी का फूफा है--एक आदमी कम से कम बीस-पच्चीस संबंधों में बंधा है। तीन अरब आदमी हैं दुनिया पर, अगर पच्चीस गुना कर दो तो पचहत्तर अगर प्रेम के संबंध इस पृथ्वी पर हैं। पृथ्वी स्वर्ग बन जाए! जहां पचहत्तर अरब प्रेम के पौधे हों वहां फूल ही फूल खिल जाए, सुगंध ही सुगंध हो जाए। लेकिन हालत उलटी दिखायी पड़ती है--पूरी पृथ्वी नर्क है।
मैंने एक कहानी सुनी है--
एक आदमी मरा, उसे नर्क ले जाया गया। लेकिन शैतान ने उसकी दशा देखी तो वह ऐसी खराब हालत में दिख रहा था कि उसे लगा, अब इसे और क्या सताएंगे? यह तो सताया ही हुआ था।
उसने पूछा--भाई कहां से आते हो?
उसने कहा, पृथ्वी से आते हैं।
तो उसने कहा इसको अब स्वर्ग ले जाओ, नर्क तो यह भोग ही चुका, अब इसको नर्क में डालने से क्या फायदा? मरे को क्या मारना! इसको स्वर्ग ले जाओ--थोड़ी शांति मिले, राहत मिले इसको।
पुराने शास्त्रों में लिखा है पृथ्वी पर जो पाप करते हैं वे नर्क चले जाते हैं। अब नया शास्त्र बनना चाहिए जिसमें लिखा जाना चाहिए--नर्कों में जो पाप करते हैं वे पृथ्वी पर आ जाते हैं।
अब पृथ्वी बहुत दुख से भरी है। लेकिन तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, क्योंकि तुमने आंखों पर बड़े रंगीन चश्मे लगा रखे हैं। घृणा को प्रेम के चश्मे से देखते हो, शत्रुता को राष्ट्र प्रेम के चश्मे से देखते हो--निषेध को तुम विधायक शब्दों की आड़ में छिपा देते हो।
महत्वाकांक्षा को अलग करो, थोड़ा सा भी टुकड़ा अगर प्रेम का बच जाए जो महत्वाकांक्षा शून्य हो, वही तुम्हें उबार लेगा। महत्वाकांक्षा तुम्हें डुबायेगी; वह कितनी ही बड़ी नाव हो, छेद भरी है। प्रेम तुम्हें बचायेगा; वह छोटी सी डोंगी हो भले, पर सुरक्षित है।
प्रेम एकमात्र सुरक्षा है, क्योंकि, प्रेम ही धीरे-धीरे परमात्मा से जोड़ देता है--वही सुरक्षा का मूल है।

तीसरा प्रश्न:

आपने कल कहा, आदर मेंर् ईष्या सम्मिलित है। आपके प्रति मुझे में अपार आदर है, लेकिन उसमें निहितर् ईष्या उसमें जहर घोलती रहती है और मैं ग्लानि और पीड़ा का अनुभव करता हूं। क्या श्रद्धा इस विष भरे आदर का अतिक्रमण करती है?

से थोड़ा समझाना पड़े, थोड़ा नाजुक बिंदु है।
जब भी तुम किसी का आदर करते हो, तो तुम आदर इसीलिए करते हो कि उस व्यक्ति में तुम्हें कुछ दिखायी पड़ता है जो तुममें नहीं है। तुम इसीलिए आदर करते हो, उस व्यक्ति के पास कुछ दिखायी पड़ता है जो तुम भी चाहोगे कि तुम्हारे पास हो।
भिखारी सम्राट का आदर करता है, क्योंकि उसकी भी आकांक्षा है कि सम्राट हो। तो एक तरफ आदर भी करता है, भीतरर् ईष्या भी करता है। क्योंकि सम्राट अभी वह है नहीं, सम्राट होना चाहता है। तुम हो गए तो, तुमने पा वह पा लिया है जो वह पाना चाहता है। इसलिए तुम्हें आदर भी करता है कि तुम कुशल हो, सफल हो, मैं पंक्ति में बहुत पीछे खड़ा हूं, तुम आगे पहुंच गए हो, तुम उस जगह पहुंच गए हो जहां मुझे होना चाहिए था। इसलिए तुम शक्तिशाली  हो, होशियार हो, बुद्धिमान हो, बलशाली हो, तुम्हारा आदर करता हूं। लेकिन एक भीतरर् ईष्या की आग भी जलती है--अगर मुझे मौका मिले तो उस जगह मैं होना चाहूंगा, तुम्हें हटाना चाहूंगा। और जब मौका मिल जाएगा इस भिखारी को तो यह सम्राट को हटाकर धक्का दे देगा, सिंहासन पर बैठ जाएगा।
तो, आदर में छिपीर् ईष्या है। तुमने कभी सोचा न होगा, तुम तो सोचते हो आदर बड़ी ऊंची बात है। आदर ऊंची बात नहीं है, आदरर् ईष्या का ही पहलू है; आदर के पीछे तुमनेर् ईष्या को छिपा रखा है।
इसलिए श्रद्धा और आदर बड़ी अलग बातें हैं। समझो।
आदर ऐसी श्रद्धा है जिसमेंर् ईष्या सम्मिलित है। श्रद्धा ऐसा आदर है जिसमेंर् ईष्या नहीं है। फिर श्रद्धा में क्या होगा? श्रद्धा हम उस व्यक्ति की करते हैं, जिसमें हमने अपने स्वभाव की अनुगूंज सुनी। आदर हम उस व्यक्ति का करते हैं, जिसमें हमने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति देखी।
फिर से दोहरा दूं।
आदर हम उस व्यक्ति का करते हैं, जिसमें हमारी वासना की पूर्ति हमें दिखायी पड़ती है; हमें नहीं हो सकी, पर उसे हो गयी है। और श्रद्धा हम उसकी करते हैं जिसमें हमें वह दिखाया जो हम हैं ही, जिसने हमें हमारे स्वभाव से परिचय कराया।
महत्वाकांक्षा तो भविष्य में पूरी होगी। आदर हम उसका करते हैं जिसमें हमने भविष्य को अभी पूरा होते देखा--हमारा तो नहीं हुआ है, इसलिए पीड़ा भी है--उसका हो गया है।र् ईष्या और आदर सम्मिलित हैं।
बुद्ध पुरुष के पास तुम जाओ, तुम्हारे मन में श्रद्धा का जन्म हो। श्रद्धा का अर्थ है, बुद्धपुरुष ने तुम्हें वह दिखाया जो तुम हो ही। अब इसको पाने का कोई सवाल नहीं, इसलिएर् ईष्या का कोई सवाल नहीं। और, आदर उन चीजों का होता है जो छीनी जा सकती है; श्रद्धा उन चीजों की होती है जो सीखी हैं, छीनी नहीं जा सकती।
मेरे पास धन हो तो तुम्हें आदर हो सकता है, पद हो तो आदर हो सकता है, क्योंकि पद तुम छीन सकते हो। जो मेरे पास है वह कल तुम्हारे पास हो सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि जब तक मेरे पास है तुम्हारे पास न हो सकेगा।इसलिए आदर में गहरी शत्रुता है। तुम भी वही पाना चाह रहे हो, जो मैंने पा लिया है। मैंने पा लिया है, इसका मतलब है कि तुमने मैंने छीना है, या तुम्हें पाने से रोका है। और अगर तुम पाओगे, तो मुझसे छीनोगे, और मुझे पाने से रोकोगे।
राजनैतिक एक-दूसरे का आदर करते हैं--बड़ा आदर करते हैं, भीतरर् ईष्या जलती है। धनपति एक-दूसरे का आदर करते हैं, भीतरर् ईष्या जलती है।
श्रद्धा का क्या अर्थ है?
श्रद्धा का अर्थ है मेरे पास कुछ है जो मैंने तुमसे छीना नहीं--किसी से नहीं छीना है--और तुम लाख उपाय करो तो मुझसे छीन न सकोगे। हां, तुम चाहो तो मुझसे सीख सकते हो। अगर मेरे पास धन है, तो मैंने किसी से छीना है। मेरे पास होने का मतलब ही यह है कि कोई मेरे पास होने के कारण गरीब हो गया है--चाहे मुझे उसका पता न हो, चाहे उसे मेरी पहचान न हो। लेकिन अगर मेरे पास धन है, तो कहीं न कहीं किसी की जेब खाली हो गयी है। अगर मेरा धन छिनेगा, तो किसी न किसी की जेब भर जाएगी।
धन में संघर्ष है। धन न्यून है, थोड़ा है--बहुत महत्वाकांक्षी हैं उसके। जितनों में बंट जाएगा उतना कम हो जाएगा। जिसने कम में बंटेगा उतना ज्यादा होगा। इसलिए जिनके पास है, वे बांटने को तैयार नहीं होते; और जिनके पास नहीं है, वह बांटने के लिए शोरगुल मचाते है। जिनके पास है वे बांटने को तैयार नहीं होते, इसलिए अमरीका में समाजवाद का कोई प्रभाव नहीं होता। होना चाहिए सर्वाधिक वहीं। क्योंकि माक्र्स ने कहा है कि जो सबसे ज्यादा मूंजीपति देश होगा, वहीं क्रांति होगी। होता उलटा है। पूंजीपति देश में कांति नहीं होती, गरीब देश में क्रांति होती है। माक्र्स को बिलकुल गलत कर दिया क्रांति ने। माक्र्स गलत है, क्रांति का गणित ही वह नहीं समझा। अगर अमरीका में क्रांति हो तो माक्र्स सही हो सकता है, लेकिन अमरीका में क्रांति नहीं हो सकती क्योंकि सभी के पास कुछ है, बंटने में डर है--अपना भी बंटेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन, मैंने एक दिन सुना कि कम्युनिस्ट हो गया, तो मैं थोड़ा चकित हुआ कि इस बूढ़े को क्या सूझी! तो मैं गया उसके पास। मैंने कहा, तुम्हें मालूम है कि कम्यूनिजम का क्या मतलब होता है? अगर तुम्हारे पास दो कारें हैं, तो एक तुम्हें उसको देनी पड़ेगी जिसके पास एक भी नहीं। उसने कहा कि बिलकुल सही। अगर तुम्हारे पास दो मकान हैं, तो एक तुम्हें उसे देना पड़ेगा जिसके पास एक भी नहीं। उसने कहा कि बिलकुल सही। मैंने कहा कि तुम्हारे पास अगर दो करोड़ रुपए हैं तो एक करोड़ों उसको देने पड़ेंगे, जिसके पास बिलकुल नहीं है--उसको बांटना पड़ेगा। उसने कहा बिलकुल राजी, यही कम्यूनिजम का...। और मैंने कहा, अगर तुम्हारे पास दो मुर्गियां हैं, तो एक उसको देना पड़ेगी जिसके पास एक भी नहीं है। उसने कहा कि बिलकुल नहीं। यह कभी नहीं हो सकता।
मैंने कहा, तुम बदल गए। उसने कहा कि बदला नहीं हूं, लेकिन मुर्गियां मेरे पास हैं। कार तो मेरे पास है नहीं--कार का जहां तक सवाल हो, मकानों का सवाल हो, बांटो। जो है ही नहीं उससे डर क्यों? मुर्गी मेरे पास दो हैं, ये मैं कभी न बंटने दूंगा।
तुम्हारे पास जब होता है तब तुम बांटने को तैयार नहीं होते। जब तुम्हारे पास नहीं होता, तुम बांटने को बड़े आतुर होते हो। तुम कहते हो, साम्यवाद तो वेदों में लिखा है। यह तो धर्मों का सार है। लेकिन जब तुम्हारे पास होता है तब तुम साम्यवाद की बात नहीं करते। तब तुम कहते हो, व्यक्तिगत स्वतंत्रता ये तो वेदों का सार है। प्रत्येक व्यक्ति को, काने की, गंवाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। संपत्ति का वैयक्तिक अधिकार तो प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। तब तुम्हारा धर्म और भाषा बदल जाती है।
अमरीका में क्रांति नहीं होती, क्योंकि सभी के पास कुछ है। चीन में क्रांति हुई, किसी के पास कुछ नहीं। रूप में क्रांति हुई। कभी न कभी भारत में हो सकती है, क्योंकि बड़ी दीन का वर्ग इकट्ठा होता जा रहा है जिसको यह बात जंचेगी कि बांटो। क्योंकि अपने पास तो कुछ बंटने को है नहीं। जब भी जाएगा दूसरे को जाएगा। हमें अगर कुछ मिलेगा तो ठीक, न मिला तो कोई हर्जा नहीं, हम जैसे थे वैसे रहेंगे। मिलने की संभावना है। मरता क्या न करता!
ध्यान रखना, आदर तुम उसी का करते हो जिससे तुम्हारी कोईर् ईष्या भी है। औरर् ईष्या का अर्थ ही यह है कि तुम्हारे कारण कुछ ऐसे हैं जो बंट सकते थे। लेकिन अगर मेरे ध्यान के कारण तुम मेरा आदर करते हो तो वह श्रद्धा होगी, क्योंकि ध्यान को तो तुम बांट नहीं सकते। ध्यान मैं तुम्हें देना चाहूं तो दे नहीं सकता, तुम चुराना चाहो तो चुरा नहीं सकते, तुम लूटना चाहो लूट नहीं सकते। हो, लेकिन मेरे ध्यान पर तुम जंजीरें नहीं डाल सकते। मेरा ध्यान कारागृह में और जंजीरों में भी उतना ही मुक्त रहेगा जितना मुक्त खुले आकाश में है। कोई फर्क न पड़ेगा।
अगर ध्यान के कारण तुम्हारे मेरे प्रति आदर है तोर् ईष्या नहीं हो सकती।र् ईष्या का कोई कारण नहीं। कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है,र् ईष्या का क्या सवाल है? बल्कि तुम्हारे मन में मेरे प्रति एक प्रेम और श्रद्धा उठेगी कि मेरे निकट तुम्हारे भीतर भी तुम्हें यह संभावना झलकी कि जो मुझे हो सका वह सबका स्वभाव है। और अगर तुमने मुझे ठीक से समझा, और तुम्हारी श्रद्धा सिर्फ थोथी न रही, गहरी बनी और साधना भी बनी, तो तुम पाओगे कि जो मेरे पास है वह तुम्हारे पास है। सिर्फ उघाड़ना है, पाना नहीं है। भविष्य से उसका कोई संबंध नहीं है। वह तुम्हारे भीतर की संपदा है--अभी, यहीं, इसी क्षण पायी जा सकती है।
श्रद्धा अस्तित्व की सूचना है, आदर संपत्ति की।
आदर जो मेरे पास है उसका, और श्रद्धा जो मैं हूं उसकी।
मगर, इन दो शब्दों के बीच तुम बड़ी भ्रांति में होते हो। मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं हमें आपके प्रति बहुत आदर है--शायद उनका मतलब श्रद्धा से है। कई दफा लोग आते हैं, वे कहते हैं हमारी आपके प्रति बड़ी श्रद्धा है--शायद उनका मतलब आदर से है। सौ में निन्यानबे मौके पर तुम श्रद्धा कहो कि आदर, ही होता है, सौ मैं एक मौके पर श्रद्धा होती है।
अगर अदर है, तो तुम संबंध बना रहे हो। उससे तुम कभी भी आनंद को उपलब्ध न हो सकोगे। अगर श्रद्धा है, तो तुमने ठीक कदम उठाया। मंदिर पास ही आ गया, तुम मंदिर में ही विराजमान हो। श्रद्धा इसी क्षण फल देती है, आदर भविष्य की वासना है। आदर से बचना। अनादर तो श्रद्धा के विपरीत है ही, आदर भी विपरीत है। आदर तो मन का ही जाल है, श्रद्धा हृदय का अनुभव है।

चौथा प्रश्न:

प्रेम और करुणा में क्या भेद है?

तीन शब्द समझें: काम, प्रेम, करुणा।
काम प्रेम की सीढ़ी का प्रारंभ है--सीढ़ी का पहला पायदान। करुणा सीढ़ी का आखिरी पायदान है। प्रेम पूरी सीढ़ी का नाम है।
काम प्रेम का सबसे पतित रूप है--निम्नतम।
काम का अर्थ है दूसरे में मुझे कुछ पाना है। दूसरे के बिना मैं अधूरा हूं। दूसरे के बिना मैं खाली-खाली हूं। दूसरे के बिना मेरा प्राण रिक्त है। दूसरे से मुझे अपने को भरना है।
काम शोषण है।
काम का अर्थ है, दूसरे को मुझे साधन की तरह उपयोग करना है। एक पति पत्नी का उपयोग कर रहा है, पत्नी पति का उपयोग कर रही है--वह साधन की तरह उपयोग कर रहे हैं। इसलिए तो इतना क्रोध है। क्योंकि कोई भी मनुष्य साधन नहीं बनना चाहता। प्रत्येक मनुष्य की आत्मा साध्य है।
जर्मनी के एक बहुत बड़े नीतिविद इमनुअल कांट ने नीति की परिभाषा जो की है वह यही है: दूसरे मनुष्य का ऐसा उपयोग जिसमें वह साधन बन जाए, अनीति है। और दूसरे मनुष्य का ऐसा उपयोग जिसमें वह साध्य हो, नीति है।
ये बड़ा बुनियादी आधार बिंदु है।
दूसरे को उपयोग अपने लिए कर लेना काम है। बात तो तुम प्रेम की ही करते हो कि मुझे तुझसे प्रेम है, लेकिन भीतर यह चेष्टा होती है कि मुझसे प्रेम हो। इसलिए मेरे पास लोग आते हैं, हजारों लोग आए हैं, जो मुझसे कहते हैं कि जिसको हम प्रेम करते हैं उससे हमें प्रेम नहीं मिला। मेरे पास ऐसा आदमी आया ही नहीं, जिसने यह कहा हो कि जिसको हम प्रेम करते हैं उसको हमने प्रेम नहीं किया। यह बड़े मजे की बात है। जो आता है वही कहता है, हम जिसको प्रेम करते हैं--हम तो करते ही हैं, इसमें तो वह कभी शक ही नहीं उठाता--दूसरे नहीं मिला। और वह दूसरा भी जब मेरे पास आता है वह भी यही कहता है कि जिसको हम प्रेम करते हैं--हमने तो दिया--लेकिन पाया नहीं। धोखा हुआ, ठगे गए, छले गए। और अक्सर तो दोनों आ जाते हैं--पति आ जाता है, पत्नी आ जाती है; बेटा आ जाता है, बाप आ जाता है; मित्र आ जाते हैं--और वे दोनों यही कहते हैं कि हमने तो किया। असली बात है, किया उनमें किसीने भी नहीं। क्योंकि मैं तुमसे कहता हूं, जब प्रेम किया जाता है तो उत्तर अपरिहार्य है--गूंजता है। तुम जो देते हो वह सदा लौट आता है।
इस संसार में पुरानी कहावत है: देर है, अंधेर नहीं है।
मैं तुमसे कहता हूं: न देर है, न अंधेर है।
क्योंकि देर भी क्यों हों? देर होगी तो वह भी तो अंधेर हो जाएगा। देर बहुत हो सकती है। तुम आज प्रेम करो, करोड़ों-करोड़ों जन्मों के बाद उत्तर मिले; वह भी अंधेर हो जाएगा।
तो मैं कहता हूं: न देर है, न अंधेर है। तुमने प्रेम किया, करते ही पाया, करने में ही पाया। मिलना किसी दूसरे पर निर्भर नहीं है, वह तुम्हारे ही प्रेम की प्रतिध्वनि है, वह गूंज है तुम्हारे ही प्रेम की। वही तुम पर लौट आता है जो तुम देते हो।
तो लोग कहते हैं प्रेम किया लेकिन मिला नहीं। असली बात यह है कि प्रेम किया नहीं, प्रेम करना तो केवल प्रवंचना थी, धोखा था। असली बात प्रेम चाहना था; बिना किए, प्रेम की बातचीत करके, प्रेम पाना था। की तो बातचीत, चाहिए था दूसरे का हृदय, दूसरे का समर्पण, दूसरे का पूरा प्राण! वह नहीं मिला। दूसरा भी इसी कोशिश में लगा था कि प्रेम की बातचीत चले, कविता करें प्रेम की, लेना-देना कुछ न हो, पूरे प्राण पर कब्जा हो जाए। दोनों ही मुफ्त पाना चाहते थे, बिना दिए पाना चाहते थे। इसलिए कलह है।
इसलिए जिनको तुम प्रेम कहते हो वे निरंतर लड़ते रहे हैं। कलह के भीतर कारण यही है, दोनों एक दूसरों को साधन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। और किसी की आत्मा साध्य बनने को पैदा हुई है, साधन बनने को नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपना लक्ष्य है; कोई उसके सिर पर पैर रखकर सीढ़ी बनाए तो उसे पीड़ा होती है, परतंत्रता अनुभव होती है।
तो काम निम्नतम रूप है प्रेम का--जब तुम मांगते तो पूरा हो, देते कुछ भी नहीं।
करुणा श्रेष्ठतम रूप है प्रेम का--जब तुम देते तो सब हो, मांगते बिलकुल नहीं।
वह आखिरी ऊंचाई है प्रेम की। जब तुम दे डालते हो और मांगते नहीं। जब तुम दूसरे को साध्य बना देते हो, खुद साधन बन जाते हो। तुम कहते हो, निछावर कर दूं बस यही मेरा सौभाग्य है! तेरे लिए रहूं या तेरे लिए न रहूं, यही मेरा सौभाग्य है! हर हाल में खुश रहूंगा, मांगना कुछ भी नहीं है; धन्यवाद इसका करूंगा कि तूने मेरे समर्पण को स्वीकार कर लिया। मैंने दिया और तूने इनकार न किया, बस इसका धन्यवाद है!
और मजे की बात यह है, काम में तुम मांगते हो और मिलता नहीं, करुणा में तुम मांगते नहीं और मिलता है। यह जीवन का रहस्य है। यह जीवन का विरोधाभास है।
कामी अमृत मरता है, करुणावान सदा तृप्त, प्रतिपल तृप्त है। क्योंकि जीवन अनुगूंज करता है। तुम जो देते हो वह मिलता ही है। यहां मिलना किसी के देने-लेने पर निर्भर नहीं है, तुम जो देते हो वह मिलता ही है। कल मैं बुद्ध के वचन पढ़ रहा था। उसमें वे बार-बार अनेक वचनों के बाद कहते हैं: एस धम्मो सनंतानों यही सनातन नियम है; जो तुम देते हो वह मिलता ही है। कि वैर से तुम वैर काटोगे, न कटेगा। प्रेम से काटोगे, कटा ही है--एस धम्मो सनंतनो--यही सनातन धर्म है, यह चिरातन, पुरातन नियम है। इससे विपरीत कभी कुछ भी नहीं होता है।
काम है प्रेम की मांग, करुणा है प्रेम का दान।
दोनों के मध्य में प्रेम है जहां लेना-देना बराबर है। काम से कभी कोई तृप्त नहीं होता, करुणा से सदा तृप्त हो जाता है। प्रेम तृप्ति और अतृप्ति के बीच एक लटकाव है--मध्य में। थोड़ी तृप्ति भी होती है, थोड़ी अतृप्ति भी बनी रहती है। क्योंकि हम में आधी करुणा है और आधी वासना है, आधी करुणा, आधी कामना है। प्रेम आधा-आधा है। इसलिए थोड़े सुख के क्षण भी आते हैं, थोड़े दुख के क्षण भी आते हैं।
दुर्भाग्य की बात है कि सौ मैं निन्यानबे प्रतिशत लोग तो प्रेम को ही उपलब्ध नहीं हो पाते, करुणा की तो बात अलग। वह तो सपना दूर का है। वह तो मृगमरीचिका है। सौ मैं निन्यानबे लोग कामना में ही मर जाते हैं। और उनकी भ्रांति कहां है? उनको भ्रांति यह है कि उन्होंने मान ही लिया कि हमने प्रेम दिया उसे फिर से सोचना। इसके पहले कि तुम पूछो, प्रेम मिला या नहीं, बहुत गौर से देखना कि दिया या नहीं। क्योंकि मैं तुमसे कहता हूं अगर तुमने दिया है, प्रेम मिलता ही है--एस धम्मो सनंतनो। अगर नहीं मिला, तुमने दिया नहीं होगा। वहीं खोजना, अपने गिरेबा में--जैसा फरीद कहता है; उसमें ही खोजना। फरीदा जे तू अकल लतीफ--अगर तू बुद्धिमान हो तो अपने ही गिरबों में खोजना, वहीं तू पाएगा।
जो दिया है वह मिलेगा, जो नहीं दिया है वह नहीं मिलेगा। नहीं मिला हो, जानना नहीं दिया है। मिला हो, जानना दिया है।
काम निम्नतम सीढ़ी है, अधिक लोग उसी पर अटके रह जाते हैं। पर ध्यान रखना मैं काम की निंदा नहीं कर रहा हूं। क्योंकि है तो वह सीढ़ी प्रेम की ही। पहली है माना, लेकिन है तो प्रेम की ही। और पहली पर जो न चढ़ेगा वह अंत पर कैसे पहुंचेगा? इसलिए मैं तुमसे कह यह नहीं रहा हूं कि सीढ़ी से उतर जाना। मैं तुमसे यह कह रहा हूं, सीढ़ी पर रुको मत, चलो आगे, और भी पायदान हैं बहुत। ये पहले ही पायदान पर खड़े हो गए हो! वही मंदिर और घर बना लिया! बढ़ो। पहला पायदान अच्छा है, क्योंकि दूसरा उससे आता है। बुरा है, अगर दूसरा उससे न आए।
तो मेरे मन में काम की कोई निंदा नहीं है। इसलिए तो मैंने निरंतर कहा है, संभोग और समाधि जुड़े हैं। संभोग ही समाधि तक ले जाता है। लेकिन संभोग पर अटक गए, तो समाधि कभी न आएगी।
और दूसरी बात भी ध्यान में रखना, क्योंकि वह भूल बहुत से लोगों ने की है--भारत में वह भूल बड़ी प्राचीन हो गयी है। वह भूल यह है कि चूंकि मैं कहता हूं काम की सीढ़ी पर मत रुको, तुम दो काम कर सकते हो। या तो कम की सीढ़ी के ऊपर बढ़ा प्रेम की तरफ, या तुम सीढ़ी से नीचे उतर जाओ--जिसे तम ब्रह्मचर्य कहते हो।
मैं उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहता।
इसलिए तुम जिनको ब्रह्मचारी कहते हो वे तुमसे भी बदतर हैं। वे सीढ़ी से नीचे उतर गए हैं। उनके जीवन में करुणा तो कभी नहीं आ सकती, क्योंकि जहां काम ही नहीं है वहां करुणा कैसे आएगी? न रहा, बांस, न बजेगी बांसुरी।
मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम बांस ही लिए बैठे रहना। बांसुरी बनाना। लेकिन बांस से बांसुरी बनती है। काम से करुणा बनती है। वही साधारण बांस जिसका कोई उपयोग नहीं सूझता था, ज्यादा से ज्यादा किसी के सिर को फोड़ सकते थे, वही बांसुरी बन जाती है और किसी की आत्मा तक में प्रवेश हो जाता है। उससे मधुर स्वर उठने लगता हैं--अलौकिक, अपार्थिव; किसी और लोक की खबर ले आते हैं, किसी और लोक के फूल इस पृथ्वी पर खिलने लगते हैं--बांस से।
कौन भरोसा करेगा?
अगर तुमने जाना ही न होता, देखा ही न होता, अचानक तुमने सिर्फ बांसुरी देखी होती और कोई कहता कि बांस से ही बनती है, तुम न मानते! अगर मैं तुमसे कहूं कि बुद्ध और महावीर की करुणा काम से ही बनती है, तुम नहीं मानते हो। तुम्हें अड़चन होती है, क्योंकि तुमने बांस भी देखा है, बांसुरी भी देखी है, दोनों के बीच के पायदानों का तुम्हें कोई पता नहीं। तुम संबंध नहीं जोड़ पाते। तुम कहते हो, कहां बुद्ध की करुणा, कहां हमारी कामना! नहीं-नहीं, कहां हम नर्क में पड़े, कहां वे आकाश में उठे! नहीं, कोई संबंध नहीं!
पर तुम सोचो थोड़ा; अगर संबंध न हो तो तुम फिर कभी बुद्ध न बन पाओगे। यात्रा कैसे होगी? जाओगे कहां से? कोई सेतु तो होना ही चाहिए तुम्हारे और बुद्ध के बीच। काम और राम के बीच कोई सीढ़ी तो होनी ही चाहिए। उस सीढ़ी को ही मैं प्रेम कहता हूं। उसी सीढ़ी की सहजो बात कर रही है।
काम को शुद्ध करो।
कबीर कहते हैं--हीरा हेराइल कीचड़ में--वह जो हीरा है, कीचड़ में गिरकर खो गया है। इससे तुम कीचड़ से भाग मत खड़े हो जाना, नहीं तो हीरा भी छूट जाएगा पीछे कीचड़ के ही साथ। खोजना कीचड़ में, कीचड़ में कमल छिपे हैं; साफ करना हीरे को--जैसे-जैसे कीचड़ हटती जाएगी हीरा शुद्ध होता जाएगा। हीरा अशुद्ध वस्तुतः तो हुआ ही नहीं है। कीचड़ में भी गिरकर हीरा हीरा ही है। कीचड़ नहीं हो गया है। और कीचड़ में भी जो कमल छिपे हैं, वे छिपे हों कितने ही--चाहे तुम्हें कभी दिखायी न पड़ें--फिर भी कमल है, कीचड़ नहीं है। एक बार उठने का मौका मिल जाए तो कमल खिल जाता है।
काम को छोड़कर मत भाग जाना। नहीं तो तुम्हारा ब्रह्मचर्य ज्यादा से ज्यादा नपुंसकता होगा, उससे ज्यादा नहीं। या दमन होगा, जबरदस्ती होगी। उससे तुम्हारे जीवन का फूल तो क्या खिलेगा जो खिल रही थी थोड़ी सी कली वह भी वापस कीचड़ में गिर जाएगी।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों में मैंने करुणा का कमल खिलते नहीं देखा, करुणा के कमल के खिलने की संभावना का अंत होते देखा है।
वे नीचे गिर गए हैं, सीढ़ी से नीचे। तुम्हें ठीक लगते हैं, क्योंकि तुम कामवासना की सीढ़ी पर खड़े हो वे नहीं हैं कामवासना की सीढ़ी पर। तुम सोचते हो शायद, जो कामवासना की सीढ़ी पर नहीं है वह अनिवार्यतः करुणा की सीढ़ी पर पहुंच जाएगा। जरूरी नहीं है। उतर जाना आसान है, चढ़ना कठिन है। उतरने में क्या लगता है? छोड़ दो घर, भाग जाओ जंगल में, लंगोटी लगाकर खड़े हो जाओ।
 लोग हाथ पैर जोड़ने लगेंगे, पैर पर सिर रखने लगेंगे--कि धन्यभाग कि आप महानता को उपलब्ध हो गए--भीतर चाहे तुम कामवासना से ही भरे हो।
मुझे संन्यासी मिलते हैं--वृद्ध संन्यासी, सत्तर साल की उम्र हो गयी है, तो भी चित्त कामवासना से भरा है। एकांत में पूछते हैं, कैसे कामवासना से छुटकारा हो? और अब तो जान भी गयी, जीवन भी गया, और अभी तक पीछा नहीं छूटा। अब कब छुटेगा, मौत करीब आ रही है? मरने को होने लगे हैं और कामवासना पीछा कर रही है।
सीढ़ी से भूलकर उतरना मत। भगोड़ों के लिए भगवान नहीं है। चढ़ना। जीवन एक यात्रा हो, पलायन नहीं। एक-एक सीढ़ी ऊपर उठना। काम को प्रेम बनाना, थोड़े से स्वर्ग की हवा बहने लगेगी। नर्क भी रहेगा, लेकिन स्वर्ग के टापू भी तुम्हारे नर्क के सागर में उभरने लगेंगे। उन्हीं से तो आशा बंधेगी कि और भी कुछ हो सकता है। जो आज छोटा टापू है कल महाद्वीप बन सकता है।
जरा पानी से और ऊपर उठना, थोड़ा और आगे जाना।
धीरे-धीरे मांगने पर ध्यान हटना और देने पर जोर देना। बांटना; मांगना मत। सम्राट बनना; भिखारी नहीं।
काम भिखारी है, करुणा सम्राट है।
जिस दिन तम दे सकोगे अशेष भावे से, बेशर्त, बिना मांगने का कोई सौदा किए, बिना धन्यवाद मांगने के लिए भी रुके--दिया और बढ़े; दिया और धन्यवाद भी दिया कि ले लिया, स्वीकार किया; अन्यथा कोई जरूरत न थी, इनकार भी हो सकता था--ऐसी जिस दिन तुम्हारी भावदशा होगी, उस दिन तुम करुणा पर पहुंच जाओगे।
ये प्रेम के ही रूप हैं: काम, प्रेम, करुणा।
और प्रेम की ही मात्राएं हैं जीवन। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम परमात्मा से बड़ा है, क्योंकि प्रेम में ही उठकर तुम परमात्मा तक पहुंचोगे। जिस दिन तुम्हारी करुणा ऐसी हो जाएगी कि तुम देने वाले की तरह भी न बचेगी, सिर्फ दान ही रह जाओगे, पीछे कोई रह ही न जाएगा शेष जो दे रहा है, कर्ता का कोई भाव न बचेगा--उसी दिन, उसी दिन तुम परमात्मा हो गए।
जिस दिन तुम्हें अपना भाव मिट गया कि मैं हूं, उसी दिन परमात्मा हो गए। कोई सीमा न रही फिर। फिर तुम असीम में उतर गए, असीम तुममें उतर आया।
पर, परमात्मा की बातों में ज्यादा विचार में मत पड़ना। जीवन की सीढ़ी तो यही है--काम से प्रेम, प्रेम से करुणा, करुणा के बाद छलांग अपने-आप लग जाती है, क्योंकि उसके आगे कोई सोपान नहीं है। ध्यान रखना सीढ़ी दो अर्थों में छूटती है, या तो पहले ही सोपान पर उतर गए और या अंतिम सोपान से छलांग लगी। अगर पहले ही सोपान से उतर गए, तो परमात्मा तो नहीं मिलता संसार भी खो जाता है; और संसार खोता नहीं, क्योंकि संसार परमात्मा का ही अंग है। जब पूरा दर्शन होता है, उसमें संसार भी है। संसार की तरह नहीं है, परमात्मा के सृजन की भांति है।

पांचवां प्रश्न:

अपने मौन को अस्तित्व के संवाद का माध्यम बताया। कृपया समझाए कि ऊपर से वाणी का मौन भीतर मौन के लिए किस प्रकार से सहायक हो सकता है?

बाहर और भीतर में बहुत भेद मत करना। भेद है नहीं। जिसको तुम बाहर कहते हो, वह भी भीतर है बाहर आया हुआ। जिसको तुम भीतर कहते हो, वह भी बाहर है भीतर गया हुआ।
भूख तो भीतर लगती है, भोजन तो तुम बाहर का डालते हो, और कभी नहीं सोचते कि बाहर का भोजन भीतर की भूख कैसे मिटाएगा? मिटाता है, रोज मिटाता है। फिर भी तुम्हें खयाल नहीं आता कि बाहर का भोजन की भूख को मिटाता है।
निश्चित ही कहीं कोई सीमा नहीं है और भीतर में।
कब तुम कहोगे कि बाहर का भोजन भीतर की भूख को मिटाने वाला बन गया--मुंह में रहता है तब, कंठ में जाता है तब, पेट में पचता है तब, खून बनता है तब? कब भीतर हो जाता है? फिर खून की धड़कन मस्तिष्क को चलाती है तब, विचार उठते हैं तब, विचारों की शुद्धि मौन बन जाती है तब, विचारों की परिपूर्ण शून्यता ध्यान बन जाती है तब, ध्यान का आखिरी अनुभव परमात्मा का बोध बन जाता है तब--कब?
ठीक कहा है किसी ने--भूखे भोजन न होइ गोपाला। उसने भूख और गोपाल को जोड़ा है। थोड़ा सोचना। कहीं न कहीं भोजन भगवान बनता होगा, बनना ही चाहिए, नहीं तो भोजन और भगवान का संबंध ही नहीं जुड़ेगा। कोई जगह होगी जहां से भोजन भगवान हो जाता है, भगवान भोजन हो जाता है।
 उपनिषद कहते हैं--अन्न ब्रह्म। अन्न ब्रह्म है।
ये दो छोरों को जोड़ा है। तुम क्यों बाहर भीतर के भेद में पड़े हो बहुत? तुम जब बहुत ज्यादा बातचीत करते हो, तब बहुत ज्यादा मन चलता है। तुम बातचीत मत करो, तो तुम मन का आधा आधार तोड़ दिया। ऐसा ही समझो कि तुम दो साल चलो मत, पैर का उपयोग मत करो, पाल्थी लगाकर बैठे रहो पह्मासन में, तुम्हारे पैर चलने में असमर्थ हो जाएंगे। फिर तुम अचानक चलना भी चाहोगे तो गिर पड़ोगे। क्या हुआ? चलना तो बाहर था, चलने की शक्ति तो भीतर थी? चलते तो भीतर की शक्ति से थे, लेकिन चलते बाहर की शक्ति के सहार थे--वे तुम्हारे दोनों पंख थे।
अगर तुम बोलो न, तो धीरे-धीरे भीतर का बोलना भी कम होने लगेगा। क्यों? क्योंकि भीतर का बोलना सिर्फ बाहर के बोलने का रिहर्सल है। वह तुम बाहर बोलने की तैयारी कर रहे हो भीतर, प्रशिक्षण है वह।
जैसे समझो कि तुम इंटरव्यू देने जाते हो एक दफ्तर में नौकरी के लिए, तो तुम दो दिन पहले से तैयारी करने लगते हो--क्या पूछेगा, क्या जवाब देंगे? कहीं ये जवाब जमेगा कि नहीं जमेगा? किस ढंग से दें, किस ढंग से न दें? तुम दफ्तर के जैसे-जैसे करीब पहुंचते हो, भीतर का ऊहापोह बढ़ता जाता है। दफ्तर पर दस्तक देते हो दरवाजे पर तब तुम्हारे भीतर हजार विचार हैं कि किस विचार से शुरुआत करें? तुम रिहर्सल कर रहे हो, तुम हजार बार इंटरव्यू दे चुके इंटरव्यू देने के पहले--तैयारी कर ली। अगर इंटरव्यू न देना हो तो तब तुम तैयारी करते हो? तब कौन पागल तैयारी करता है! किसको प्रयोजन है!
तुम जो भी भीतर सोचते हो उसका कारण है, उसकी तुम्हें चौबीस घंटे जरूरत है। तुम देखो, सोच को तुम अपना तोड़ना, उसका विभाजन करना--क्योंकि चीजें तो ऐसी होंगी जो तुम्हें भविष्य में काम आनेवाली हैं, इसलिए मन तैयारी कर रहा है; कुछ चीजें ऐसी होंगी जो अतीत में तुमसे अधूरी हुई हैं।
समझो कि तुम दफ्तर में इंटरव्यू देकर लौट आए। पूछी गयी आकाश की बात, बतायी तुमने जमीन की। अब तुम पछता रहे हो। अब तुम वह उत्तर दे रहे हो जो देना चाहिए था, और दे नहीं पाए।
पीछे तो सभी बुद्धिमान हो जाते हैं। चूक गए!
मैंने सुना है, एक मेडिकल कालेज में परीक्षा चल रही थी। परीक्षक ने पूछा एक विद्यार्थी को कि इस-इस तरह का मरीज है, ये-ये दवा देनी है, कितनी यात्रा में दोगे। उसने कुछ मात्रा बतायी। परीक्षक ने कहा--ठीक है तुम जाओ। जैसे ही वह दरवाजे तक आया उसे खयाल आया, यह मात्रा तो थोड़ी ज्यादा हो गयी। लौटकर उसने कहा, क्षमा करिए, मात्रा थोड़ी ज्यादा हो गयी। डाक्टर ने कहा, मरीज मर चुका। दरवाजे के बाहर! ये कोई मरीज को देकर थोड़े तुम जाकर पीछे कहोगे--क्षमा करिए, मात्रा ज्यादा हो गयी। वह तो जहर है, वह तो मरीज को ले गया। अगले साल आना अब, मात्रा ठीक से सोचकर!
तो बहुत सी बातें हैं जो तुमने पीछे कीं, और ठीक नहीं कर पाए। मुश्किल से ही कोई आदमी सब बातें ठीक कर पाता है। सिर्फ वे ही लोग ठीक बातें कर पाते हैं। जो निर्विचार से बोलते हैं। वे पीछे लौटकर नहीं देखते। बात खत्म हो गयी, अब क्या लेना-देना है? लेकिन तुम निर्विचार से तो बोलते नहीं, तो पहले तुम तैयारी करते हो विचार में, फिर उत्तर देते हो, फिर उत्तरों में भूल-चूक हो जाती है, क्योंकि उत्तर तुम्हारे प्रश्न से ठीक-ठीक मेल नहीं खाते। तुमने जिस प्रश्न को सोचकर तैयार किया था, जरूरी कहां है कि वही प्रश्न पूछा जाएगा।
एक पागलखाने में ऐसा हुआ। वहां परीक्षा करते थे वे पागलों की, इसके पहले कि उन्हें छोड़ते कि वे ठीक हो गए या नहीं। परीक्षा में ठीक उतरते तभी छोड़ जाते। परीक्षा चल रही थी, वर्ष का आखिरी दिन आ गया था। एक पागल भीतर गया--नंबर एक का पागल था। सबने उससे कहा कि हमको बता देना क्या पूछते हैं। हो सकता है तुम ठीक जवाब न दे पाओ। वह पागल भीतर गया।
उससे पूछा कि अगर तुम्हारे दोनों कान काट दिये जाए, तो क्या होगा? तो उसने कहा कि मुझे दिखायी नहीं पड़ेगा। तो वह चिकित्सक भी थोड़ा हैरान हुआ, उसने कहा, तुम्हारा मतलब? उसने कहा, मतलब साफ है, चश्मा गिर जाएगा। पागल के भी अपने तर्क होते हैं। बात बिलकुल ठीक है, चश्मा कहां टिकेगा? उसने कहा, अच्छा तुम जाओ, सोचेंगे। गलत भी नहीं कहते, सही भी नहीं कहते, सोचना पड़ेगा। याने एक हिसाब से तो तुम ठीक कह रहे हो।
वह आदमी बाहर आया। उन पागलों ने घेर लिया, क्या पूछा? उसने कहा, तुम फिकर न करो क्या पूछा, कुछ भी पूछे तो यही कहना कि दिखायी न पड़ेगा। मैंने उसको चौंका दिया है!
अब उसने कुछ भी पूछा, दूसरे बिलकुल साफ खड़े होकर कहते रहे कि दिखायी न पड़ेगा। जब दो-चार से भी यही पूछा, और कोई भी प्रश्न पूछो उनसे वे कहे, दिखायी नहीं पड़ेगा। उसने कहा, मामला क्या है? उन्होंने कहा, पहले ने हम लोगों को बता दिया उत्तर। तो उसने कहा, वह पहला भी अभी गलती ही से ठीक उत्तर दे गया है, क्योंकि जो बंधे हुए उत्तर सिखला रहा है वह पागल ही है।
जीवन में कोई न तो बंधे प्रश्न हैं और न कोई बंधे उत्तर हैं। कभी-कभी तुम्हारा बंधा उत्तर भी कारगर हो जाएगा, संयोगवशात। लेकिन सदा नहीं होगा।
तो तुम जो उत्तर दे आए, जो नहीं देना था, पीछे तुम बुद्धिमान बन जाते हो। सोचने लगते हो।
तो, या तो तुम अतीत के ऊहापोह में पड़े रहते हो या भविष्य के, और इन दोनों के मध्य में तुम्हारे वर्तमान का क्षण भरा हुआ गुजर जाता है--वही तुम्हारी भीतर की चर्चा है--इनर टाक। चौबीस घंटे चल रही है। छोटा सा क्षण है; भविष्य बड़ा है, अतीत भी बड़ा है, उन दोनों का घमासान तुम्हारे वर्तमान के क्षण में चले रहा है।
लेकिन, अगर तुम बाहर से बोलने धीरे-धीरे कम करो, तो भीतर का बोलना धीरे-धीरे कम होगा। आज ही हो जाएगा, ऐसा नहीं। वर्षों लगेंगे। लेकिन जब तुमने बाहर का बोलना अगर बिलकुल ही बंद कर दिया हो, या कामचलाऊ बोलते होओगे कि दिन में दो चार-दस शब्दों से काम चला लिया, तो भीतर किसकी तैयारी करोगे? धीरे-धीरे मन भी कहेगा अब तैयारी की कोई जरूरत नहीं, अब कोई परीक्षा ही नहीं होती। तैयारी बंद हो जाएगी। जब तुम परीक्षा ही न दोगे, तैयारी ही न करोगे, तो अतीत में कोई भूल-चूकें न होंगी। तो तुम किसका हिसाब-पश्चात्ताप करोगे? वह भी बंद हो जाएगा।
अगर कोई व्यक्ति तीन वर्ष तक बिलकुल मौन रख ले, तो कुछ और करना न पड़ेगा, भीतर का विचार अपने-आप टूट जाएगा। लेकिन तीन वर्ष बड़ा कठिन होगा। करीब-करीब पागल होने के मौके आ जाएंगे, उनके बार। क्योंकि जब विचार भीतर जोर से चलेगा--बाहर निकालने से थोड़ा निकास मिल जाता है, किसी से बात कर लिया हल्के हो जाते हैं--भीतर ही भीतर चलेगा, तो कई दफे तो विस्फोट के क्षण आ जाएंगे, जब तुम पाओगे अब पागल हो जाएंगे; अब अगर न बोले, तो बस अब पागलपन आ जाएगा।
तीन वर्ष अगर कोई चुपचाप मौन में बिता दे, बाहर का ही मौन सही। लेकिन बाहर के मौन के भी बड़े अनुषंग है। शब्द से ही आदमी नहीं बोलता है। अब मैं बोल रहा हूं तुमसे तो हाथ के इशारे भी कर रहा हूं, तो वह भी बोलता है। आंख से भी आदमी बोलता है। रास्ते पर तुम चले जा रहे हो, आंख से भी तुम इशारा कर देते हो किसी को--कहो कैसे हो? मुस्कुरा देते हो, बोल दिए। बाहर से पूरे मौन का अर्थ है--जैसे तुम अकेले हो संसार में, कोई भी नहीं है।अगर परिपूर्ण मौन रखा जाए आंख का, भाव का, भंगिमा का, ओंठ का, इशारों का, चलने का, उठने-बैठने का--कुछ भी वक्तव्य न दिया जाए--तो तीन महीने भी काफी हैं, तीन साल की जरूरत नहीं है। तीन महीने में ही विचार की वाणी अपने-आप शांत हो जाएगी--उसका कोई प्रयोजन न रहा। और भीतर मौन अगर हो जाए, तो तुम्हारी आंखें निर्मल हो जाएगी, शब्दों की पर्ते हट जाएंगी, तुम देख पाओगे। उसी को मैंने दर्शन कहा है। तुम देखने में समर्थ हो पाओगे।
विचार तुम्हें अंधा किए है। विचार ही तुम्हारा अंधापन है। निर्विचार हो जाओ, आंख खुल जाए। विचार से जो देखा है वह संसार है, निर्विचार से जो दिखायी पड़ेगा वही परमात्मा है।
इसलिए मैं कहता हूं न तो संसार का सवाल है, न परमात्मा का। सवाल तुम्हारी आंख का है। निर्मल, निर्विचार, निराकार आंख निराकार से जुड़ जाती है; विचार से भरी, सीमा, ऊहापोह में दबी आंख संसार के भीड़-भाड़ को देख पाती है।
तुम भीतर निर्विचार हुए, बाहर से संसार विदा। बहार संसार तुम्हारे विचार का प्रक्षेपण है, प्रोजेक्शन है। तुम्हारे भीतर से फिल्म बंद हो गयी, पर्दा सामने शून्य हो जाएगा। फिल्म-गृह में तुमने देखा--तुम देखते पर्दे पर हो, पर्दे पर फिल्म देखते हो, कई बार रोते हो, हंसते हो, खुश होते हो, दुखी होते हो; लेकिन पर्दा तो खाली है--धूप-छाया का खेल है, और वह जो धूप-छाया आ रही है उसका स्रोत है--प्रोजेक्टर है। वह पीछे छिपा है दीवाल के पार। वहां कोई प्रोजेक्टर को बंद कर दे, सामने पर्दा शून्य हो जाता है। तुम उठकर खड़े हो जाते हो, तुम कहते हो फिल्म समाप्त हो गयी।
ऐसा तुम जिस संसार को बाहर देख रहे हो वैसा संसार है नहीं, वह तो तुम्हारा प्रक्षेपण है।
एक स्त्री तुम्हें दिखायी पड़ी। वह स्त्री अपने-आप में कैसी है वह तुम्हें पता नहीं हो सकता, तुम्हें तो अपना भी पता नहीं कि अपने-आप में कैसे हो! तुम्हारे मन और विचार के प्रोजेक्टर ने एक छवि फेंकी, वह उस स्त्री पर फैल गयी, वह स्त्री पर फैल गयी, वह स्त्री सफेद पर्दा थी। कल तक कई बार देखा था, कोई स्वर भीतर न छिड़ा था, कोई घंटी न बजी थी; आज अचानक वह स्त्री तुम्हें दीवाना कर गयी। आज कोई ऐसे मौके पर आ गयी स्त्री सामने जब तुम्हारे भीतर कोई विचार चल रहा था, जो छिटककर स्त्री पर बिखर गया, फैल गया। अब तुम जिस स्त्री को देख रहे हो वह असली स्त्री नहीं, वह तुम्हारे सपने की स्त्री है, वह माया है।
शादी कर लोगे। धीरे-धीरे, रोज-रोज छवि पड़ते-पड़ते पुरानी पड़ जाएगी। बार-बार उसी विचार का उपयोग करते-करते तुम उसके आदी हो जाओगे। एक दिन अचानक फिर तुम देखोगे, जैसे आंख खुल गयी, यह स्त्री तो बड़ी साधारण है! इसके लिए तुमने इतनी कविताएं लिखीं, इतने सपने देखे! यह तो साधारण जैसी साधारण स्त्री है, कुछ भी नहीं है। पर्दा खाली हो गया, भीतर का विचार तंतु टूट गया।
तुम जब तक धन में धन देख रहे हो, तब तक धन तुम्हें दिखायी पड़ता है। जिस दिन तुम्हें समझ आएगी, ठीकरों का ढेर रह जाएगा। हीरे में हीरा दिखायी पड़ता है, धीरे का प्रोजेक्शन कर रहे हो तुम, अन्यथा पत्थर है। जिस दिन प्रोजेक्शन हट जाएगा, उस दिन तुम पाओगे पत्थर है।
धीरे-धीरे जब विचार भीतर बंद हो जाते हैं, तब प्रोजेक्टर काम नहीं करता--प्रक्षेपण बंद हो जाता है, संसार-पर्दा कोरा हो जाता है। उस कोरे पर्दे का नाम परमात्मा है।
सहजो यही कह रही है। कह रही है कि मैं हरि को छोड़ दूंगी, गुरु को न छोड़ सकूंगी; क्योंकि हरि, तुमने तो नाटक में भरमाया, तुमने तो पर्दे पर बड़ी धूप-छाया का खेल निर्मित किया; गुरु ने जगाया। तो तुम्हें छोड़ सकती हूं, तुमने तो इंद्रियों का प्रपंच दिया; संसार दिया, गुरु ने संसार से ऊपर उठाया। तुमने तो दुख दिया, गुरु ने आनंद की झलक दी। तुमने तो स्वयं से दूर ले जाने का मार्ग पर छोड़ दिया, गुरु घर लौटा लाया। तो कहती है, हरि को छोड़ दूं पर गुरु को न छोड़ सकूंगी, क्योंकि गुरु के बिना तुम्हारे होने का कोई उपाय ही न था--मैं तुम्हें जान ही न पाती। यही कह रही हूं कि गुरु ने मौन दिया, शून्य दिया।
उस शून्य से जब तम देखते हो तो सारा संसार हरि की ही हरियाली से भर जाता है।
आज इतना ही।


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