छठवां प्रवचन—प्रसादस्वरूपा है भक्ति
दिनांक १६ जनवरी, १९७६; रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार :
1—विराट का अनुभव किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त होता
ही है। क्या ऐसा नहीं है?
2—आये थे दर पर तेरे सिर झुकाने के लिए, उठता नहीं है सिर अब वापस जाने के लिए...!
3—प्रवचन सुनते समय प्रेम-विभोर हो आंसू बहने लगते हैं
और अचेतन में अहंकार को रस आता है कि अहोभाव के आंसू बहा रहा हूं। क्या इससे
अद्वैत का रूखा-सूखा मार्ग अच्छा नहीं?
4—क्या विधिविहित पूजा-प्रार्थना व्यर्थ है?
5—एक हम हैं कि...प्यासे ही जाते हैं!
6—इश्क पर जोर नहीं ये तो आतिश "गालिब' कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे। फिर देवर्षि नारद ने प्रेम पर यह शास्त्र
क्यों लिखा?
पहला प्रश्न: जब भी किसी को विराट को अनुभव होता
है, वह किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त होता ही है। क्या
आप बुद्धपुरुषों के देखे ऐसा नहीं है?
*अनुभव तो वह ऐसा है कि छिपाए छिपेगा नहीं, प्रगट होगा ही। जहां तक अनुभोक्ता का संबंध है, प्रकट
होगा ही। लेकिन जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम पर निर्भर
है: प्रगट हो या अप्रगट रह जाए।
बुद्ध ने तो कह दिया है जो जाना, तुमने सुना या
नहीं...; बुद्ध की तरफ से प्रगट हो गया, तुम्हारी तरफ से प्रगट हो भी सकता है, प्रगट न भी
हो।
वर्षा तो होती है, झील, सरोवर,
खाई, खड्डे भर जाते हैं, पहाड़ खाली के खाली रह जाते हैं।
तुम्हारा घड़ा उलटा रखा हो, मेघ कितने ही गरजें,
कितने ही बरसें, तुम खाली रह जाओगे; तुम्हारे लिए वर्षा हुई ही नहीं। नहीं कि वर्षा नहीं हुई; वर्षा तो हुई; तुम्हारे लिए नहीं हुई। और जब तक
तुम्हारे लिए न हो तब तक हुई या न हुई, क्या फर्क पड़ता है।
बुद्धपुरुष चुप भी रह जाएं तो उनकी चुप्पी में भी वही प्रगट होता है।
बोलना जरूरी नहीं है--बोलना मजबूरी है। बोला जाता है करुणा के कारण, क्योंकि मौन को तो तुम समझ ही न पाओगे। शब्द ही छूट जाते हैं तो मौन तो
कैसे पकड़ में आएगा? कह-कहकर भी, तुम्हारी
पकड़ नहीं बैठ पाती; अनकहे को तो तुम कैसे पकड़ पाओगे?
बोलना जरूरी नहीं है, मजबूरी है। बुद्धों का बस चले तो
चुप रह जाएं। लेकिन तुम्हें देखकर, तुम्हारे लड़खड़ाते पैरों
को देखकर, अंधेरे में तुम्हें टटोलते देखकर, चिल्लाते हैं, जितने जोर से बोल सकते हैं उतने जोर
से बोलने हैं--फिर भी तुम्हारे बहरेपन में आवाज पहुंचती है, यह
संदिग्ध है।
करोड़ों सुनते हैं, तो कानों पर तरंगें पैदा होती
हैं, लेकिन हृदय अछूता रह जाता है। मस्तिष्क के पास तो दो
कान हैं, आवाज एक से जाती है, दूसरे से
निकल जाती है। हृदय के पास एक ही कान है, आवाज जाती है तो
फिर निकल नहीं पाती, बीज बन जाती है, गर्भस्थ
हो जाता है हृदय। और जब तक सुनी हुई वाणी तुम्हारे गर्भ न बन जाए, जैसे सीप के भीतर मोती निर्मित होता है, ऐसे सुना
हुआ शब्द जब तक तुम्हारे भीतर मोती न बनने लगे, तब तक तुमने
सुना, फिर भी सुना नहीं; देखा, फिर भी देखा नहीं।
जीसस बार-बार अपने शिष्यों को कहते हैं, "आंखें हों तो
देख लो! कान हों तो सुन लो! हृदय हों तो समझो'।
ऐसा नहीं कि जीसस बहरे और अंधे लोगों से बोल रहे थे, तुम्हारे ही जैसे आंखवाले और कान वाले लोग थे। फिर भी बार-बार जीसस
दोहराते हैं। कारण साफ है।
सत्य जब अनुभव में आता है किसी के तो बात कुछ ऐसी है कि छुपाए भी नहीं
छुप सकती, बताने की तो बात ही अलग। साधारण प्रेम नहीं छिपता।
किसी के जीवन में साधारण प्रेम आ जाए तो चाल बदल जाती है; चाल
में एक नृत्य समा जाता है; व्यक्तित्व की गंध बदल जाती है;
हजार-हजार कमल खिल जाते हैं; बोलता है तो एक
माधुर्य आ जाता है; साधारण वाणी में मधु बरसने लगता है!
प्रेम की आंख देखो--
बिना शराब पीये शराबी हो गया होता है!
एक मस्ती घेर लेती है!
जैसे प्रकृति पर जब वसंत उतरता है,
तो हृदय वसंत से भर जाता है!
सब तरफ फूल खिल जाते हैं!
सब तरफ पक्षियों की चहचहाहट शुरू हो जाती है!
भीतर कोई अवरुद्ध झरने मुक्त हो जाते हैं!
पंख लग जाते हैं--अनंत आकाश में उड़ने के!
साधारण प्रेम में ऐसा हो जाता है, तो जब परमात्मा का
प्रेम बरसता है किसी पर, उस असाधारण प्रेम की घटना घटती है;
जब बूंद में सागर उतरता है; आंगन में आकाश आ
जात है; कबीर ने कहा है, जब अंधेरे में
हजार-हजार सूरज का प्रकाश आता है, हजारों सूर्य भी मात हो
जाएं, ऐसे प्रकाश की वर्षा होती है; मृत्यु
में अमृत का आनंद बरसता है--तो कैसे छिपाये छिपेगा?
मुर्दा जिंदा हो जाए, छिपाये छिपेगी यह बात? मृत्यु में अमृत उतर आए, छिपाये छिपेगी यह बात?
कोई उपाय नहीं है छिपने का। छिपाये तो छिपती ही नहीं; मगर मजा यह है, दुर्भाग्य यह है, बताए भी प्रगट नहीं हो पाती। छिपाये छिपती नहीं और बताए प्रगट नहीं हो
पाती। क्योंकि दो हैं। वसंत आ गया, इतना ही थोड़े काफी है,
तुम्हारे भीतर भी तो वसंत हो समझने की कोई समझ होनी चाहिए।
एक बहुत बड़े चित्रकार टरनर के चित्रों की प्रदर्शनी हो रही थी। बड़ा
शोरगुल था। सारा नगर इकट्ठा था चित्रों को देखने के लिए। टरनटर द्वार पर ही खड़ा था, लोगों की प्रतिक्रियाएं सुन रहा था।
एक महिला ने कहा, "बड़ा शोरगुल मचाया हुआ है,
मुझे तो कुछ इसमें दिखाई नहीं पड़ता। कुछ सार नहीं मालूम होता इन
चित्रों में। ये चित्र तो ऐसे लगते हैं जैसे बच्चों ने रंग भरे हों। मुझे इनमें कोई
बड़ी कुशलता नहीं दिखाई पड़ती। इतना शोरगुल क्यों मचाया हुआ था?'
उसके साथ जो महिला ने टरनर से कहा, कि तुम्हारा सूर्योदय
का चित्र मुझे बहुत पसंद आया है; लेकिन ऐसा सूर्योदय मैंने
कभी देखा नहीं। मतलब यह था कि "ऐसा सूर्योदय होता नहीं जैसा तुमने बनाया है।
यह किसी कल्पना की बात है'।
टरनर ने कहा, "माना; लेकिन क्या तुम न
चाहोगी कि मेरी आंखें तुम्हें उपलब्ध हों और ऐसा सूर्योदय तुम्हें दिखाई दे सके?'
सूर्योदय देखना हो तो सूर्योदय देखने वाली आंखें भी तो चाहिए।
कहते हैं, अगर कवियों ने प्रेम का कोई गीत न गाए होते तो लोगों
को प्रेम का पता ही न चलता। यह बात मुझे कुछ समझ में आती है।
तुम थोड़ा सोचो, अगर कभी तुमने प्रेम का कोई गीत न सुना होता और प्रेम
की कोई कहानी न सुनी होती तो क्या तुम्हें तुम्हारी जिंदगी से पता चल सकता था कि
प्रेम है? शादी पता चलती, विवाह पता
चलता, बाल-बच्चे पैदा होते; लेकिन
प्रेम...?
प्रेम का पता चलने के लिए पारखी की आंख चाहिए।
बड़ी मुश्किल से पैदा होती है चमन में कोई आंखवाला, कोई कोई दीदावर, कोई द्रष्टा।!
लेकिन कविताएं सुनकर भी, प्रेम के गीत और
प्रेम की कहानियां सुनकर भी, तुम्हें प्रेम का शब्द ही याद
हो जाता है, तुम दोहराने लगते हो, तुम
वक्त-बेवक्त उसका उपयोग करने लगते हो। लेकिन क्या शब्द सुनकर ही तुम्हें प्रेम का
अनुभव हो सकता है? क्या यह अनुभव ऐसा है कि उधार हो जाए?
नहीं, उधार नहीं हो सकता।
तो तुम्हारे जीवन में जब तक कोई अनुभव का सूत्र न हो, तब तक बुद्ध खड़े रहें, तुम्हें दिखाई न पड़ेंगे।
तुम्हें वही दिखाई पड़ेगा जो तुम्हें दिखाई पड़ सकता है। मीरा नाचती रहे, तुम्हें वही दिखाई पड़ेगा जो तुम्हें दिखाई पड़ सकता है। तुम्हारी आंखें ही
तो तुम्हें खबर देंगी, और तुम्हारे कान ही तो व्याख्या
करेंगे, और तुम्हारी समझ ही तो परिभाषा बनाएगी।
सत्य का अनुभव जब होता है तब तो वाह प्रगट हो ही जात है; लेकिन तुम नहीं बन समझ पाते।
बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं:
"या रब न वह समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जबां और।'
सभी बुद्धों के मन में ऐसा भाव रहा होगा कि हे, भगवान...
"या रब न वह समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जबां और'।
या तो मेरी जबान बदल, ताकि मैं उन्हें समझा सकूं;
और या उन्हें दिल दे, ताकि वे समझ सकें।
हजार ढंग से बुद्धों ने समझाने की कोशिश की है, लेकिन तुम्हारे पास कोई समानांतर अनुभव चाहिए: न सही सूरज का, किरण का ही सही; मिट्टी के छोटे-से दीये का ही
सही--पर कोई समानांतर अनुभव चाहिए।
दीया भी देखा हो तो सूरज का अनुमान किया जा सकता है। दीया भी न देखा
हो तो सूरज शब्द कोरा शब्द रह जाता है--चली हुई कारतूस जैसा, खाली। उसे तुम याद कर ले सकते हो, वक्त-बेवक्त उपयोग
भी कर सकते हो; लेकिन उसकी कोई जड़ें तुम्हारे भीतर न
होंगी--उखड़ा हुआ पौधा होगा, सूखा हुआ पौधा होगा; गुलदस्ते में सजाकर रख सकते हो, उसमें कभी फूल न
आएंगे; तुम धोखे में रह सकते हो, लेकिन
तुम्हारे जीवन में उस धोखे के कारण बाधा ही पड़ेगी, क्रांति
घटित न होगी।
ठीक पूछा है: जब भी किसी को विराट अनुभव में आता है तो अभिव्यक्ति तो
होती ही है।
बहुत बुद्धपुरुष चुप भी रह गए हैं, पर उनकी चुप्पी भी
बड़ी बोलती हुई थी। वह खामोशी भी गीत गाती हुई थी। जिनको थोड़ी भी समझ थी उन्होंने
उन चुप रहनेवाले लोगों को भी खोल लिया है और उनकपदचिह्मों पर यात्रा कर ली है।
कोई नाचा है। किसी ने बांसुरी बजाकर कहा है। कोई बोला है। किसी ने
तर्कनिष्ठ भाषा का उपयोग किया है। जीसस और बुद्धों ने छोटी-छोटी कथाएं कही हैं। जो
जिससे बन सका...।
सत्य को पाने के पहले जिसकी जैसी तैयारी थी, फिर जब सत्य उतरा तो पहले जो-जो तैयारी थी उस सबका उपयोग किया है, हर तरह से उपयोग किया है। लेकिन जरूरी नहीं है कि तुम उन्हें पहचान पाए
होओ।
बुद्ध जिन गांव से गुजरे उनमें हजारों-लाखों लोग थे, जिन्होंने उन्हें नहीं पहचाना; बुद्ध गांव से गुजरे,
जो उनके दर्शन को भी न गए, जो उन्हें सुनने भी
न गए, जो उन्हें सुनने भी गए तो खाली हाथ ही लौटे, सोचते लौटे कि सब बातें हवा की बातें हैं। उनके कहने में भी सचाई है।
जो तुम्हारी पकड़ में न आए, वह हवा की बात है,
पानी का बबूल है!
सत्य तो सत्य तभी होता है जब तुम्हारे भीतर उसे आधार मिल जाए।
लेकिन बुद्धपुरुष कहते हैं, उनकी करुणा से हजारों
उपाय खोजते हैं। कहने में उन्हें कुछ रस नहीं; तुम समझ लो।
इसमें जरूर रस रस है। यही तो फर्क है।
एक दार्शनिक भी लिखता है, बोलता है; लेकिन तुमसे उसे प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन अपने
अहंकार की सजावट ही है।
कवि भी गाता है, लेकिन गाने में मजा भी अपनी ही
आवाज सुनने का है। यही तो कवि और ऋषि गाता है ताकि तुम सुन सको। ऋषि गात है ताकि
तुम्हारे हृदय में कुछ हिलोरें पैदा हो सके, ताकि तुम्हारा
सोया प्राण जग जाए। कवि गाता है, ताकि तुम्हारी तालियों की
आवाज उसके अहंकार में नयी सजावट बने, नया शृंगार हो; मगर तुम्हारी तालियों को सुनने के लिए ही गाता है।
संत भी बोलते हैं--इसलिए नहीं कि तुम्हारी तालियां सुनें। तुम्हारी
प्रशंसा से कोई भी प्रयोजन नहीं है। वस्तुतः जब भी तुम उनकी प्रशंसा करते हो और
ताली बजाते हो, तब वे थोड़ा चौंकते हैं। क्योंकि यह बात ताली सुनने के
लिए या प्रशंसा सुनने के लिए नहीं कही गई थी--यह कही गई थी ताकि तुम बदलो, तुम्हारे जीवन में क्रांति का सूत्रपात हो।
"न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही'।
इसकी भी चिंता नहीं है संतों को कि वे जो कह रहे हैं, वह सार्थक भी हो, क्योंकि सार्थक बनने के लिए तो उसे
तुम्हारे तल पर उतारना पड़ेगा। और जितना ही सत्य तुम्हारे तल पर उतर जाता है उतना
ही मरता जाता है; जब वह ठीक तुम्हारे तल पर आ जाता है,
व्यर्थ हो जाता है।
इसलिए अगर किसी को सार्थक वचन ही बोलने की आकांक्षा हो तो सत्य नहीं
बोला जा सकता। सत्य तो विरोधाभासी है। सत्य को तो बोलने का एक ही ढंग है कि तुम
सार्थक होने की चिंता मत करना।
तर्कातीत है सत्य, तो सार्थक कैसे होगा?
विरोधाभासी है सत्य, तो सार्थक कैसे होगा?
और जो तुम्हारे लिए सार्थक हो सके वह बिलकुल ही व्यर्थ हो गया। जो
तुम्हारी बिलकुल ही समझ में आ जाए, वही सार्थक हो सकता
है। और जो इतना सार्थक हो जाए कि तुम्हारी समझ में बिलकुल आ जाए, वह तुम्हें ऊपर न उठा सकेगा।
तो बुद्धपुरुषों की चेष्टा क्या है?
--कुछ समझ में आए, कुछ समझ के पार
रह जाए।
जो समझ में आए, वह सहारा बने आस्था का, ताकि जो
समझ में नहीं आया है, उसकी तरफ तुम कदम बढ़ाओ; जरा सा समझ में आए और बहुत सा समझ के पार रह जाए; वह
जो थोड़ा सा समझ में आता है, धुंधला सा समझ में आता है,
वह तुम्हारे लिए मार्ग बन जाए, उसके सहारे तुम
और यात्रा करने के लिए उत्सुक हो जाओ।
संत तो प्रगट हो जाते हैं--अपनी तरह से; तुम्हारी तरफ से
अप्रगट रह जाते हैं--इतने अप्रगट रह जाते हैं कि इतिहास में उनका कोई उल्लेख भी
नहीं होता।
जीसस का कोई उल्लेख नहीं है, सिवाय बाइबिल के कहीं
और। बाइबिल तो उनके ही शिष्यों की किताब है, इसलिए भरोसे की
नहीं है। हजारों लोग हैं जो शक करते हैं कि जीसस कभी हुए भी! कृष्ण कभी हुए--शक की
बात है।
इतने विराट पुरुष हुए, इतिहास में इनकी कोई
छाप नहीं छूट जाती, क्योंकि इतिहास तुम लिखते हो; जब तुम पर ही छाप नहीं छूटती तो तुम्हारे लिखे पर कहां से छाप छूटेगी! तुम्हारे
लिखे पर छाप छूटती है चंगेज खां की, तैमूरलंग की, राजनेताओं की, उपद्रवियों की, हत्यारों
की, डाकुओं की, इनकी तुम्हारे लिखे पर
छाप छुटती है। इन पर कोई शक नहीं करता हक चंगेज खां कभी हुआ या नहीं, तैमूरलंग कभी हुआ कि नहीं। कोई शक का सवाल ही नहीं है। करोड़ों प्रमाण हैं
उनके होने के।
कृष्ण? क्राइस्ट?...कोई प्रमाण नहीं
मालूम पड़ता; मान लो, भरोसे की बात है,
न मानो तो कोई मना नहीं सकता।
क्या कारण होगा? इतिहास इतना अछूता कैसे रह जाता
है?
क्योंकि इतिहास तुम लिखते हो। तुम्हारा हृदय ही अछूता रह जाता है। तुम
पर ही निशान नहीं बनते उनके, तो तुम्हारे लिखे पर कैसे बनेंगे?
व्यर्थ की तो छाप बन जाती है, क्योंकि व्यर्थ
तुम्हें सार्थक है। सार्थक की छाप ही नहीं बनती, क्योंकि
सार्थक तुम्हें बिलकुल व्यर्थ है।
बुद्ध का क्या करिएगा? युद्ध में काम आ नहीं
सकते। तलवार बना नहीं सकते उनसे।
बुद्ध की खोजों का क्या करिएगा? अणु-बम तो बन नहीं
सकता उनसे। तुम्हारे किसी काम की नहीं है। खयाली बातें हैं, हवा
की हैं।
स्वप्न द्रष्टा है इस तरह का व्यक्ति। तुम उसे माफ कर देते हो, इतना ही बहुत। तुम अपनी राह चले जाते हो। कभी फुर्सत हुई, उसकी दो बात भी सुन लेते हो; लेकिन उसकी बातों के
कारण तुम अपने को बदलने की तैयारी नहीं करते। सुन लेते हो औपचारिकता से, शिष्टाचार से; लेकिन कहीं भी तुम पर कोई छाप नहीं
पड़ती। किसी पर पड़ जाती है तो तुम उसको पागल समझते हो। किसी पर पड़ जाती है तो तुम
समझते हो कि गया काम से, यह एक और आदमी खराब हुआ।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह तुम्हें सार्थक
दिखाई ही नहीं पड़ता। तुम कितने ही ऊंचे आकाश में उड़ो, तुम्हारी
नजर चील की तरह कचरा-घरों पर पड़े मरे चूहों में लगी रहती है। तुम बुद्धों के पास
भी बैठो तो भी तुम्हारी नजर बुद्धों पर नहीं होती।
एक सज्जन मेरे पास आए। मिल कर गए। महीने भर बाद वे फिर आए। बड़े
प्रसन्न थे। कहने लगे, "आपकी बड़ी कृपा है! चमत्कार हो गया। मुकदमा कई
सालों से उलझा था, आपके दर्शन किए, जीत
गया'।
मेरे दर्शन से इनके मुकदमे का क्या संबंध? लेकिन जब आए होंगे तो वे इसलिए आए होंगे कि मुकदमा जीतना था।
बुद्धपुरुषों के पास भी तुम जाओ तो तुम्हारी नजर तो मरे चूहों पर ही
लगी रहती है। कहीं मुकदमा हार जाते तो फिर कभी दोबारा मेरे पास न आते: "यह
आदमी किसी काम का नहीं, उलटा उपद्रव है'।
तो मैंने उनसे कहा, "भूल हो गई। संयोग को
चमत्कार मत समझ लेना। और अब दोबारा मुकदमा जीतना हो तो यहां मत आना'।
मुकदमे से मेरा क्या संबंध हो सकता है? तुम्हारी पूरी जिंदगी
बेकार है, तुम सब मुकदमे हार जाओ तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता।
तुम्हारी जिंदगी पूरी हारी हुई है। तुम जिसे जिंदगी कहते हो वही व्यर्थ है।
सार्थक तुम्हारी समझ के मापदंड पर कसा जाता है।
ध्यान रखना--
"न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही'।
बुद्धपुरुष सार्थक की चिंता करें तो बोल ही नहीं सकते, क्योंकि तब मरे चूहों की चर्चा करनी पड़ेगी। सत्य की परवाह करते हैं,
सार्थक की नहीं। और सत्य तुम्हें निरर्थक दिखाई पड़ेगा, यह पक्का है।
बड़ी हिम्मत चाहिए सत्य की खोज के लिए, क्योंकि वह अर्थ के
पार जाने की चेष्टा है। जिन-जिन चीजों में तुम्हें उपयोगिता मालूम होती है--धन है,
पद है, प्रतिष्ठा है--सत्य न तो पद बनेगा,न प्रतिष्ठा, न धन; सिंहासन तो
बन ही नहीं सकता, सूली भला बन जाए; धन
तो बनेगा ही नहीं, पद तो बनेगा ही नहीं, विपरीत भला हो जाए। तो सत्य तुम्हें कैसे सार्थक मालूम हो सकता है?
सत्य तो ऐसा है, जैसे वृक्षों पर फूल हैं,
पक्षियों के गीत हैं, झरनों को कलरव है--कोई
अर्थ तो नहीं है।
पश्चिम के एक बड़े महत्वपूर्ण कवि कंम्मिग्स से किसी ने पूछा कि
तुम्हारी कविताओं का मायना ही क्या है, अर्थ ही क्या है?
उसने कहा, "कोई अर्थ नहीं। फूलों से पूछो,
क्या अर्थ है। पक्षियों से पूछो, क्या अर्थ
है। आकाश से पूछो, क्या अर्थ है उसका। और अगर आकाश व्यर्थ
होकर शान से है और फूल व्यर्थ होकर गौरव से खिलते हैं, शरमाते
नहीं, छिपते नहीं, तो मेरी कविताओं का
ही अर्थ बताने की क्या जरूरत है?
जितनी सत्य के करीब कोई बात पहुंचने लगेगी, उतनी ही तुम्हारी सार्थकता के घेरे के बाहर हो जाएगी। अर्थ है कोई,
लेकिन उस अर्थ को जानने के लिए तुम्हारी आत्मा को पूरा रूपांतरित
होना पड़ेगा; तुम्हारे अर्थ की परिभाषा की बदलनी पड़ेगी।
बुद्धपुरुष प्रगट होते हैं--तुम्हारे लिए प्रगट नहीं हो पाते।
तुम इसकी चिंता भी मत करो कि वे प्रगट होते हैं या नहीं--तुम इसकी ही
चिंता करो कि तुम्हारे लिए प्रगट हो पाते हैं या नहीं!
अपने हृदय को खोलो!
बंद द्वार-दरवाजे ताड़ो!
घबड़ाओ मत, खुले में आओ!
छिपो मत अंधकार में!
आदत अंधकार की छोड़ो!
थोड़ी रोशनी में आओ!
आंखें तिलमिलाएं भी प्रारंभ में तो घबड़ाओ मत। पुराने अंधकार की आदत हो
गई है, स्वाभाविक है कि थोड़ी तिलमिलाहट होगी, थोड़ी अड़चन होगी, थोड़ी कठिनाई होगी, थोड़ी तपश्चर्या होगी। मगर यह तपश्चर्या करने जैसी है, क्योंकि जो मिलेगा वह अनंत है, जो मिलेगा वह विराट
है। और जब तक वह न मिल जाए तब तक तुम्हारा जीवन एक कोरा शून्य है, एक रिक्तता है, एक खालीपन है।
दूसरा प्रश्न: आये थे दर पर तेरे सिर झुकाने के
लिए,
उठता नहीं है सिर अब वापस जाने के लिए,
दर्द दिया है तो दवा भी तू ही दे,
ऐसा न हो कि कहानी बन जाए जमाने के लिए।
*ठीक है। घबड़ाने की कोई बात नहीं है।
दर्द ही दवा बन जाता है!
दर्द ही अधूरे होने में पीड़ा है, पूरे हो जाने में दवा
है।।
इसे थोड़ा समझना। । कठिन होगा समझना, क्योंकि हमारे
तर्क की कोई भी कोटियां काम में नहीं
आएंगी।
लेकिन आंतरिक जीवन के बहुमूल्य में एक सत्य है कि अगर तुम्हारा प्रश्न
पूरा हो जाए तो प्रश्न में ही उत्तर निकल आता है।
और तुम्हारी प्यास अगर समग्र
हो जाए तो प्यास में ही झरने फूट पड़ते हैं और तृप्ति आ जाती है। दर्द पूरा हो जाए, दर्द इतना हो जाए कि तुम दर्द के जाननेवाले अलग न रह जाओ, भेद न बचे, दर्द ही बचे, तुम न
बचो तो दवा हो जाती है। इसी को तपश्चर्या कहते हैं।
तपश्चर्या का अर्थ है: जीवन के खालीपन की पीड़ा को उसकी समग्रता में
अनुभव करना; जीवन की अर्थहीनता को उसकी पूरी त्वरा में अनुभव करना। जीवन की ही यह जिसको भाग-दौड़ हम समझ रहे
हैं अभी बड़ी उपयोगी मालूम होती है, एक ख्वाब से ज्यादा न रह
जाए तो अचानक हम पाएंगे: हाथ खाली है। घबड़ाहट पकड़ेगी। रोआं-रोआं कंप जाएगा। लगेगा
यह जो जीये अब तक नाहक ही जीये, यह जो समय गया व्यर्थ ही
गया। पीड़ा उठेगी। गहन पीड़ा उठेगी। इस पीड़ा को झेलने का नाम ही तपश्चर्या है।
और जल्दी दवा मत मांगना, क्योंकि जल्दी दी गई
दवाएं शामक होंगी, वे तुम्हारी पीड़ा को सुला देंगी, तुम फिर वापस दुनिया में लौट जाओगे वैसे के वैसे।
दवा मांगना ही मत। दर्द को भोगने के
लिए तैयार रहना। अगर तुम भोगने की पूरी तत्परता दिखा सको तो दर्द में ही
दवा छिपी है।
"इश्क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया
दर्द की दवा पायी, दर्द बेदवा पाया'।
प्रेम से, भक्ति से--
"तबियत ने जीस्त का मजा पाया...'
पहली दफा जीवन का आनंद आना शुरू हुआ। लेकिन यह आनंद कोरा आनंद नहीं है; इस आनंद की बड़ी गहन पीड़ा भी है। अगर तुमने प्रेम में सिर्फ सुख ही खोजा तो
तुम प्रेम से वंचित रह जाओगे, क्योंकि प्रेम का दुख भी है।
गुलाब की झाड़ी पर फूल ही नहीं हैं, कांटे भी हैं,। फूल ही फूल मांगे तो फिर तुम जाकर फूल बेचने वाले से फूल खरीद लेना,
झाड़ी लगाने की झंझट में मत पड़ता। वहां तुम्हें फूल मिल जाएंगे बिना
कांटे के, मगर वे मरे हुए फूल हैं। जिंदा फूल चाहिए तो कांटे
भी होंगे।
और गुलाब का फूल कांटों में ही शोभा देता है।
रात के घने अंधेरे में जब चैतन्य का दीया जलता है तो उसी विपरीतता में
उसकी प्रतीति की सघनता है।
"इश्क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया
दर्द की दवा पायी,...'।
अब तक जो दर्द थे जिंदगी के--हजार दर्द हैं जिंदगी के वे ही तुम्हें
मेरे पास ले आए। हजार-हजार तकलीफें हैं, चिंताएं हैं, उलझने हैं। हजार दर्द हैं जिंदगी के।
अगर तुम भक्ति और प्रेम के रास्ते पर चले तो दर्द की दवा मिल जाएगी।
इन सभी दर्दों की दवा मिल जाएगी। ये सब दर्द खो जाएंगे। "दर्द की दवा पायी'--और तब एक नया दर्द शुरू होगा--"दर्द बेदवा पाया'। और अब एक ऐसा दर्द शुरू होगा जिसकी कोई दवा नहीं है।
इन सभी दर्दों की तो दवा है। अगर चिंता है तो ध्यान से खो जाएगी। तनाव
है, ध्यान से मिट जाएगा। क्रोध है, लोभ है, मोह है--इन सभी दर्दों की दवा है। सिर्फ एक परमात्मा का दर्द है, जिसकी कोई दवा नहीं । तो तुमसे मैं सारे दर्द छीन लूंगा और एक दर्द दूंगा,
जिसकी फिर कोई दवा नहीं है। सौदा मंहगा है। मंहगा सौदा । जुआरी
चाहिए। दुकानदार इस काम को नहीं कर सकते। वे कहेंगे, "यह
क्या हुआ, छोटे-छोटे दर्द ले लिए और यह बड़ा दर्द दे दिया!
छोटे-छोटे ले लिए, जिनकी तो दवा थी; और
यह दर्द दे दिया, जिसकी कोई दवा नहीं है!'
लेकिन घबड़ाना मत!
"इश्क से
तबियत ने जीस्त का मजा पाया
दर्द की दवा पायी, दर्द बेदवा पाया'।
"इश्रते कतरा है दरिया में फना हो जाना'।
बूंद को गौरव यही है, ऐश्वर्य यही है कि वह सागर में
खो जाए, मिट जाए।
"इश्वते कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना'।
यह जो बेदाव-दर्द है, अगर यह हद से गुजर जाए--हद से
गुजर जाने का अर्थ है, तुम इसमें मिट ही जाओ; तुम ही हद हो, तुम ही सीमा हो; ऐसा कोई भीतर रह ही ना जाए जिसको दर्द हो रहा है, दर्द
ही बस रह जाए--
"दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना'।
परमात्मा की पीड़ा ऐसी है कि उसका कोई इलाज नहीं; पीड़ा में ही इलाज छिपा है। क्योंकि परमात्मा आखिरी पीड़ा है, उसके आगे इलाज हो भी नहीं सकता। वही पीड़ा है, वही
इलाज है। वही रोग है, वही औषधि है। क्योंकि उसके पार फिर कोई
भी नहीं।
तो घबड़ाओ मत! दर्द की तैयारी चाहिए।
जब परमात्मा के आनंद को मांगने चले हो तो यह सौदा करने जैसा है। जितना
दर्द उठाने की तैयारी दिखाओगे, उतना ही परमात्मा का आनंद उपलब्ध
होगा।
तुम्हारे दर्द को झेल लेने की तैयारी, तुम्हारी परीक्षा है,
तुम्हारी कसौटी है, और तुम्हारी भूमिका भी है।
दर्द निखारता है। दर्द साफ करता है।
दर्द ऐसा है जैसे कि कोई सोने को आग में धरता है, तो जो व्यर्थ है जल जाएगा, स्वर्ण बचा रहेगा खालिस!
दर्द में वही जलेगा जो व्यर्थ है, जो जल ही जाना था, कूड़ा-करकट था। तुम्हारे भीतर जो भी सोना है वह बच जाएगा।
यह अग्नि गुजरने जैसी है।
भक्ति अग्नि है।
यह भीतर की आग है।
तीसरा प्रश्न: आपके प्रवचन सुनते हुए कभी-कभी
प्रेम-विभोर होकर मेरी आंखें आंसू बहाने लगती हैं। लेकिन तभी अचेतन में अहंकार को
रस भी आता लगता है कि मैं अहोभाव के आंसू बहा रहा हूं। क्या इससे अद्वैत का
रूखा-सूखा मार्ग अच्छा नहीं है, जहां अश्रु बहाने
वाला बचता ही नहीं?
बारीक है सवाल, थोड़ा समझना पड़े। नाजुक है।
थोड़ा ध्यान करना: जब भक्ति तक में अहंकार बच जाता है तो अद्वैत में तो
मिट ही न सकेगा। जब आंसू भी उसे नहीं बहा सकते तो रूखे-सूखे मार्ग पर तो बड़ा अकड़कर
खड़ा हो जाएगा। जब आंसू भी उसे पिघला नहीं सकते, और आंसुओं से भी वह
अपने को भर लेता है, तो जहां आंसू नहीं हैं वहां तो मिटने का
उपाय ही न रह जाएगा।
समझें।
अहंकार का आंसुओं से विरोध है। इसलिए तो हम पुरुष से कहते हैं, "रो मत। क्या स्त्री जैसा व्यवहार कर रहे हो!' पुरुष
को हम अहंकारी बनाते हैं। छोटा बच्चा भी रोने लगता है तो कहते हैं, "चुप! लड़का है या लड़की?' पुरुषों की दुनिया है। अब तक
पुरुष काबू करते रहे हैं दुनिया पर, तो उन्होंने अपने लिए
अहंकार बचा लिया है। पुरुष होने का अर्थ है: "रोना मत'।
यह अकड़ है। "स्त्रियां रोती हैं। कमजोर रोते हैं, शक्तिशाली
कहीं रोते हैं!'
अहंकार का आंसुओं से कुछ विरोध है।
तुम अगर सिकंदर को रोते देखो
तो तुम उसको बहादुर न कह सकोगे। नेपोलियन को अगर तुम रोते देख लो तो तुम कहोगे:
"अरे, नेपोलियन, और रो रहे हो! यह तो
कायरों की बात है, कमजोरों की बात है। यह तो स्त्रैण चित्त
का लक्षण है'।
अहंकार का आंसुओं से विरोध है। तो जब आंसू भी अहंकार को नहीं मिटा
पाते तो ऐसा मार्ग जहां आंसुओं की कोई जगह नहीं है, वह तो मिटा ही न
पाएगा। वहां तो अहंकार और अकड़ जाएगा।
भक्तों में तो कभी-कभी तुम्हें विनम्रता मिल जाएगी, अद्वैतवादियों में तुम्हें कभी विनम्रता नहीं मिलेगी। मुश्किल है, बहुत मुश्किल है। बड़ी अकड़ मिलेगी। आंसू ही नहीं हैं।
थोड़ा सोचो: हरा वृक्ष होता है तो झुक सकता है; सूखा वृक्ष होता है तो झुक नहीं सकता। विनम्रता तो झुकने की कला है। अगर
आंसुओं ने थोड़ी हरियाली रखी है, तो झुक सकोगे। अगर आंसू
बिलकुल सूख गए और सूखे दरख्त हो गए तुम, तो झुकना असंभव है।
टूट भला जाओ, झुक न सकोगे।
अहंकारी वही तो कहते हैं कि टूट जाएंगे, मगर झुकेंगे नहीं;
मिट जाएंगे, मगर अकड़े रहेंगे।
अद्वैत रूखा-सूखा रास्ता है--तर्क का, बुद्धि का, विचार का। अगर भाव, प्रेम और भक्ति के रास्ते पर भी
तुम पाते हो कि अहंकार इतना कुशल है कि अपने को भर लेता है, तो
फिर अद्वैत के रास्ते पर तो बहुत भर लेगा। क्योंकि भक्ति की तो पहली शर्त ही यही
है: समर्पण। भक्ति तो पहली ही चोट में अहंकार को मिटाने की चेष्टा करती है,
अद्वैत तो अंतिम चोट में मिटाएगा। तुम पूरा रास्ता तय कर सकते हो
अद्वैत का अहंकार के साथ। आखिर में अहंकार गिरेगा। भक्ति तो पहले ही चरण पर कहती
है: अहंकार छोड़ो तो ही प्रवेश है।
वैष्णव भक्तों की एक कथा है कि एक भक्त वृंदावन की यात्रा को
आया--रोता, गीत गाता, अश्रु-विभोर, लेकिन मंदिर पर ही उसे रोक दिया गया। द्वार पर पहरेदार ने कहा,
"रुको! अकेले भीतर जा सकते हो। लेकिन यह गठरी जो साथ ले आए हो,
इसे बाहर छोड़ दो।'
उसने चौंककर चारों तरफ देखा, कोई गठरी भी उसके पास
नहीं है। वह कहने लगा, "कैसी गठरी, कौन सी गठरी? मैं तो बिलकुल खाली हाथ आया हूं।'
उस द्वारपाल ने कहा, "भीतर देखो, बाहर मत। गठरी भीतर है, गांठ भीतर है। जब तक तुम्हें
यह खयाल है कि मैं हूं, तब तक, तब तक
भक्ति के मंदिर में प्रवेश नहीं हो सकता। भक्ति की तो पहली शर्त है: तू है,
मैं नहीं हूं। भक्ति का प्रारंभ है: तू है, मैं
नहीं। और भक्ति का अंत है कि न मैं हूं, न तू है।'
अद्वैत की तो बहुत गहरी खोज यही है कि मैं हूं, तू नहीं; और अंतिम अनुभव है: न मैं हूं, न तू। इसलिए तो अद्वैत कहता है: अहं बह्मास्मि! अनलहक! मैं हूं। मैं
ब्रह्म हूं। मैं सत्य हूं।
अद्वैत के रास्ते पर तो वे ही लोग सफल हो सकते हैं, जो अहंकार के प्रति बहुत सजग हो सकें। क्योंकि वहां आंसू भी साथ देने को न
होंगे, सिर्फ सजगता ही साथ देगी। वहां प्रेम भी झुकाने को न
होगा, वहां तो बोधपूर्वक ही झुकोगे तो ही झुकोगे।
तो, अद्वैत तो बहुत ही समझपूर्वक चलने का मार्ग है। सौ
चलेंगे, एक मुश्किल से पहुंच पाएगा। भक्ति में नासमझ भी चल
सकता है, क्योंकि भक्ति कहती है, सिर्फ
गठरी छोड़ दो। कोई तर्क का जाल नहीं है, कोई विचार का सवाल
नहीं है। प्रेम में डूब जाओ!
अज्ञानी भी चल सकता है भक्ति के मार्ग पर।
तो जिस मित्र ने पूछा है कि "आंसू बहने लगते हैं तो एक अहंकार
पकड़ता है भीतर कि अहो, धन्यभाग, कि मैं कैसे भक्ति के
रस में डूब रहा हूं!'
ठीक पूछा है। ऐसा होगा, स्वाभाविक है। उससे
घबड़ाओ मत। उस अहोभाव को भी परमात्मा के चरणों पर समर्पित कर दो। तत्क्षण कहो कि
खूब, फिर उलझाया, इसे भी सम्हाल!
अहोभाव मेरा क्या, तेरा प्रसाद है! अब मुझे और धोखा न दे! अब
मुझे और खेल न खिला!
जैसे भी यह अहंकार बने, उसे तत्क्षण जैसे ही
याद आ जाए, तत्क्षण परमात्मा के चरणों में रख दो। जल्दी ही
तुम पाओगे: अगर तुम रखते ही गए, अहंकार के बनने का कारण ही
खतम हो गया।
अहंकार संगृहीत हो तो ही निर्मित होता है। पल-पल उसे चढ़ाते जाओ
परमात्मा के चरणों में। और सब फूल चढ़ाए, बेकार; धूप-दीप बाली, बेकार; आरती
उतारी, व्यर्थ--बस अहंकार प्रतिपल बनता है, उसे तुम चढ़ाते जाओ। वही तुम्हारे भीतर उगनेवाला फूल है, उसे चढ़ाते जाओ। जल्दी ही तुम पाओगे, उसका उगना बंद
हो गया। क्यों? उसका संगृहीत होना जरूरी है।
और आंसू बड़े सहयोगी हैं। होश रखना पड़ेगा। थोड़ा जागरूक रहना पड़ेगा।
नहीं तो अहंकार बड़ा सूक्ष्म है और बड़ा कुशल है, बड़ा चालाक है। सावधान
रहना पड़ेगा।
सावधानी तो सभी मार्गों पर जरूरी है; भक्ति के मार्ग पर
सबसे कम जरूरी है, लेकिन जरूरी तो है ही। अद्वैत के मार्ग पर
बहुत ज्यादा जरूरी है। न्यूनतम सावधानी से भी काम चल सकता है भक्ति के मार्ग पर,
लेकिन बिलकुल बिना सावधानी के काम नहीं चल सकता है।
घबड़ाओ मत। जो हो रहा है, बिलकुल स्वाभाविक है,
सभी को होता है। यात्रा के प्रारंभ में यह अड़चन सभी को आती है।
अहंकार की आदत है कि जो भी मिल जाए उसी का सहारा खोजकर अपने को भर
लेता है। धन कमाओ तो कहता है, देखो कितना धन कमा लिया! ज्ञान
इकट्ठा कर लो तो कहता है, कितना ज्ञान पा लिया! त्याग करो तो
कहता है, देखो कितना त्याग कर दिया! ध्यान करो तो कहता है,
देखो कितना ध्यान कर लिया! मेरे जैसा ध्यानी कोई भी नहीं है! आंसू
बहाओ तो गिनती कर लेता है, मैंने कितने आंसू बहाए, दूसरों ने कितने बहाए। मेरा नंबर एक है, बाकी नंबर
दो हैं!
इस अहंकार की तरकीब के प्रति होश रखना भर जरूरी है, कुछ और करने की जरूरत नहीं है। उसे भी चढ़ा दो परमात्मा को।
भक्त को एक सुविधा है, परमात्मा भी है,
उसके चरणों में तुम चढ़ा सकते हो। भक्त को एक सुविधा है कि अहंकार के
विपरीत वह परमात्मा का सहारा ले सकता है। अद्वैतवादी को वह सुविधा भी नहीं है। वह
बिलकुल अकेला है, कोई संगी-साथी नहीं है। भक्त अकेला नहीं
है।
इसलिए अगर भक्ति के मार्ग पर भी तुम्हें अड़चन आ रही है तो यह मत सोचना
कि अद्वैत का मार्ग तुम्हें आसान होगा; और भी कठिन होगा। इस
भूल में मत पड़ना।
अहंकार की एक ही घबड़ाहट है, और वह घबड़ाहट यह है
कि कहीं मर न जाऊं। अहंकार मरेगा ही। वह कोई शाश्वत सत्य नहीं है, वह क्षणभंगुर है। तुम कभी न मरोगे, तुम्हारा अहंकार
तो मरेगा ही। जितनी जल्दी तुम यह बात समझ लो, उतना ही भला
है।
उम्र फानी है तो फिर मौत से डरना कैसा
एक बात तो पक्की है कि मौत निश्चित है और जिंदगी आज है कल नहीं
होगी--हवा की लहर है, आई और गई, सदा टिकनेवाली नहीं
है।
उम्र फानी है तो फिर मौत से डरना कैसा
इक-न-इक रोज यह हंगामा हुआ रखा है
किसी भी दिन यह घटना घटनेवाली है। मौत होगी ही।
इक-न-इक रोज यह हंगामा हुआ रखा है
तो जो होने ही वाला है, उसे स्वीकार कर लो।
लड़ो मत, बहो। यह लड़ाई छोड़ दो कि मैं बचूं। स्वीकार ही कर लो
कि मैं नहीं हूं।
जो मौत करेगी, भक्त उसे आज ही कर लेता है। जो मौत में जबर्दस्ती
किया जाएगा, भक्त उसे स्वेच्छा से कर लेता है। वह कहता है,
"जो मिटना ही है वह मिट ही गया। आज मिटा, कल मिटा--क्या फर्क पड़ता है! मैं खुद ही उसे छोड़ देता हूं।'
अपनी मौत को स्वीकार कर लो तो तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे। इधर तुमने
मौत को स्वीकार किया कि उधर तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर कोई
छिपा है--तुमसे ज्यादा गहरा, तुमसे ज्यादा ऊंचा, तुमसे ज्यादा बड़ा। तुम मिटे कि उस ऊंचाई और गहराई और उस विराट का पता चलना
शुरू हो जाता है।
तुमने तिनके का सहारा ले रखा है। तिनके के सहारे के कारण तुम भी छोटे
हो गए हो। तुमने गलत संग पकड़ लिया है। गलत से तादात्म्य हो गया है।
मौत को स्वीकार कर लो। मौत को स्वीकार करते ही अहंकार नहीं बचता। जैसे
ही तुमने सोचा, समझा कि मौत निश्चित है--होगी ही; आज हो, कल हो, परसों हो--होगी
ही; इससे बचने का कोई उपाय नहीं है; कोई
कभी बच नहीं पाया। भाग-भागकर कहां जाओगे? भाग-भागकर सभी उसी
में पहुंच जाते हैं, मौत के ही मुंह में पहुंच जाते हैं।
अंगीकार कर लो। उस अंगीकार में ही अहंकार मर जाता है।
मुझे अहसास कम था वर्ना दौरे जिंदगानी में
मेरी हर सांस के हमराह मुझमें इंकिलाब आया
मुझे होश कम था, मुझे अहसास कम था। होश कम था,
सावधानी नहीं थी, जागरूकता नहीं थी।
...वर्ना दौरे जिंदगानी में!
वर्ना जिंदगी भर,
मेरी हर सांस के हम राह मुझमें इंकिलाब आया
मेरी हर सांस के साथ क्रांति की संभावना आती थी और मैं चूकता गया। हर
सांस के साथ क्रांति घट सकती थी, अहंकार छूट सकता था और परमात्मा
के जगत में प्रवेश हो सकता था--लेकिन होश कम था।
इस होश को थोड़ा जगाओ। वह इंकलाब, वह क्रांति तुम्हारी
भी हर श्वास के साथ आती है, तुम चूकते चले जाते हो।
अहंकार को जब तक तुम पकड़े हो, चूकते ही चले जाओगे।
जिस दिन छोड़ा अहंकार को, उसी क्षण क्रांति घट जाती है। उसी
क्रांति की तलाश है। उस क्रांति के बिना कोई तृप्ति न होगी। उस क्रांति के बिना
तुम थरथराते ही रहोगे भय में, घबड़ाते ही रहोगे चिंताओं में,
डरते ही रहोगे।
मौत जब तक होने वाली है, तब तक कोई निश्चिंत
हो भी कैसे सकता है! अगर तुमने स्वीकार कर लिया तो मौत हो ही गई, फिर चिंता का कोई कारण नहीं।
इसे थोड़ा करके देखो। यह बात करने की है। यह बात सोचने भर की नहीं है।
इसे करोगे तो ही इसका स्वाद मिलेगा।
चौथा प्रश्न: पृथ्वी पर अभी भी असंख्य मंदिर, मस्जिद, गिरजे और गुरुद्वारे हैं, जहां विधिविहित पूजा-प्रार्थना चलती है। क्या आपके देखे, वे सबके सब व्यर्थ ही हैं?
* अगर व्यर्थ न होते तो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया होता।
अगर व्यर्थ न होते--इतनी पूजा, इतनी प्रार्थना, इतने मंदिर, इतने गिरजे, इतने
मस्जिद--अगर वे सब सच होते, अगर ये प्रार्थनाएं वास्तविक
होतीं, हृदय से आविर्भूत होतीं, तो
पृथ्वी स्वर्ग बन गई होती। लेकिन पृथ्वी नरक है। जरूर कहीं न कहीं चूक हो रही है।
या तो परमात्मा नहीं है, इसलिए प्रार्थनाएं
व्यर्थ जा रही हैं; या प्रार्थनाएं ठीक नहीं हो रही हैं,
और परमात्मा से संबंध नहीं जुड़ पा रहा है। बस दो ही विकल्प हैं। अब
इसमें तुम चुन लो, जो तुम्हें चुनना हो।
एक विकल्प है कि परमात्मा नहीं है, इसलिए प्रार्थनाएं
कितनी ही करो, क्या होनेवाला है! है ही नहीं कोई वहां सुनने
को, आकाश खाली और कोरा है,चिल्लाओ-चीखो--
तुम पागलपन कर रहे हो। यह समय व्यर्थ ही जा रहा है, इसका कुछ
उपयोग कर लेते, कुछ काम में आ जाता।
और या फिर, परमात्मा है, प्रार्थना
करनेवाला प्रार्थना नहीं कर रहा है, धोखा दे रहा है।
मैं दूसरा ही विकल्प स्वीकार करता हूं। मेरे देखे परमात्मा है, प्रार्थना नहीं है--इसलिए संबंध टूट गए हैं, बीच का
सेतु गिर गया है।
कुछ लोगों को तो प्रार्थना भी प्राक्सी से करनी शुरू कर दी है।
पुजारी कर देता है। हिंदुओं ने वह तरकीब खोज ली है। वे खुद नहीं जाते।
गरीब-गुरबे चले जाएं, पर जिनके पास थोड़ी सुविधा है, वे
पुजारी रख लेते हैं। मंदिर में एक व्यवसायी पुजारी है, वह
पूजा कर देता है। यह प्रार्थना प्राक्सी से है।
यह भी खूब धोखा हुआ! किसको धोखा दे रहे हो? उस पुजारी को प्रार्थना से कुछ लेना-देना नहीं है। उसको सौ रुपये महीने
मिलते हैं तनख्वाह, उसको तनख्वाह से मतलब है। वह प्रार्थना
करता है, क्योंकि सौ रुपये लेने है। वह व्यवसाय है। अगर उसे
कोई डेढ़ सौ रुपये देनेवाला मिल जाए तो इसी भगवान के खिलाफ भी प्रार्थना कर सकता है,
कोई अड़चन नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सम्राट
के घर नौकर था, रसोइये का काम करता था। भिंडी बनाई थीं उसने। सम्राट
ने बड़ी प्रशंसा की। उसने कहा कि मालिक, भिंडी तो सम्राट है।
जैसे आप सम्राट हैं, शहंशाह हैं, ऐसे
ही भिंडी भी सभी शाक-सब्जियों में सम्राट है।
दूसरे दिन भी भिंडी बनाई। तीसरे दिन भी भिंडी बनाई। चौथे दिन सम्राट
ने थाली फेंक दी। उसने कहा कि नालायक, रोज भिंडी। तो मुल्ला
ने कहा, "मालिक! यह तो जहर है! यह तो गधों को भी खिलाओ,
तो न खाएं'।
सम्राट ने कहा कि नसरुद्दीन, चार दिन पहले तूने
कहा था, यह शाक-सब्जियों में सम्राट है। और आज जहर है!
उसने कहा, "मालिक! हम आपके नौकर हैं, भिंडी के नहीं। हम तो आपको देखकर कहते हैं। जो आप कहते हैं वही हम कहते
हैं। हम आपके नौकर हैं। भिंडी से हमें कुछ लेना-देना नहीं'।
तो उस पुजारी से तुम जो चाहो करवा लो। वह तुम्हारा नौकर है, परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है।
आदमी बड़ी चालाकियां करता है।
तिब्बती लामा एक चाक बना लिए हैं--प्रेयर-व्हील। उसके आरों पर, स्पोक्स पर मंत्र लिखे हैं। उसको बैठ-बैठे घुमा देते हैं हाथ से। जैसे
चरखे का चाक होता है, हाथ से घुमा दिया, वह कोई पचास-सौ चक्कर लगाकर रुक जाता है। वे सोचते हैं कि इतने मंत्रों का
लाभ हो गया, इतनी बार मंत्र कहने का लाभ हो गया।
एक लामा मुझ से मिलने आया था। मैंने का कि तू बिलकुल पागल है! इसमें
प्लग लगा दे और बिजली में जोड़ दे। यह चलता ही रहेगा, तू सो, बैठ, जो तुझे करना हो, कर। यह
भी झंझट क्यों कि इसको बार-बार हाथ से घुमाना पड़ता है, तू
काम दूसरा करता है। फिर घुमाया, फिर घुमाया। और जब धोखा ही
देना है, तो तूने प्लग लगाया, इसलिए
तुझी को लाभ मिलेगा, जैसे चक्कर लगाने से मिलता है। जो प्लग
लगाएगा उसको मिलेगा।
हम किसको धोखा दे रहे हैं?
लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन प्रार्थनाओं को
कोई संबंध परमात्मा से है?
कोई मांग रहा है कि बेटा नहीं है, मिल जाए। कोई मांग
रहा है कि धन नहीं है, मिल जाए। कोई मांग रहा है, अदालत में मुकदमा है, जीत जाऊं।
तुम परमात्मा की सेवा लेने गए हो, परमात्मा की सेवा
करने नहीं। तुम परमात्मा को भी अपना नौकर-चाकर बना लेना चाहते हो; तुम्हारा मुकदमा जिताए, तुम्हें बच्चा पैदा करे,
तुम्हारे लड़के की शादी करवाए। लेकिन तुम परमात्मा को धन्यवाद देने
नहीं गए हो कि तूने जो दिया है वह अपरंपार है। तुम मांगने गए हो।
जहां मांग है वहां प्रार्थना नहीं है।
इसे तुम कसौटी समझो कि जब भी तुम मांगोगे, तब प्रार्थना झूठी हो गई। क्योंकि जब तुम धन मांगते हो तो धन परमात्मा से
बड़ा हो गया। तुम परमात्मा का उपयोग भी धन पाने के लिए करना चाहते हो।
विवेकानंद के पिता मरे। शाहीदिल आदमी थे। बड़ा कर्ज छोड़कर गए। घर में
तो कुछ भी न था, खाने को भी कुछ छोड़ नहीं गए थे। तो रामकृष्ण ने
विवेकानंद को कहा कि तू परेशान मत हो। तू मां से क्यों नहीं कहता? मंदिर में जा और कह दे, वे सब पूरा कर देंगी!
वे द्वार पर बैठ गए, विवेकानंद को भीतर भेज दिया।
घंटे भर बाद विवेकानंद लौटे, आंख से आंसू बह रहे हैं,
बड़े अहोभाव में! रामकृष्ण ने कहा, "कहा?'
विवेकानंद ने कहा, "अरे! वह तो मैं भूल
ही गया'।
फिर दूसरे दिन भेजा। फिर वही। फिर तीसरे दिन भेजा। विवेकानंद ने कहा, "यह मुझसे न हो सकेगा। मैं जाता हूं और जब खड़ा होता हूं प्रतिमा के समक्ष,
तो मेरे दुख-सुख का कोई सवाल ही नहीं रह जाता। मैं ही नहीं रह जाता
तो दुख-सुख का सवाल कहां! पेट होगा भूखा, लेकिन मेरा शरीर से
ही संबंध टूट जाता है। और उस महिमा के सामने क्या छोटी-छोटी बातें करनी हैं! चार
दिन की जिंदगी है, भूखे भी गुजार देंगे। यह शिकायत भी कोई
परमात्मा से करने की है! आप मुझे, परमहंस देव, अब दोबारा न भेजें। क्षमा करें, मैं न जाऊंगा'।
रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, "यह तेरी
परीक्षा थी। मैं देखता था कि तू मांगता है या नहीं। अगर मांगता तो मेरे लिए तू
व्यर्थ हो गया था। क्योंकि प्रार्थना फिर हो ही नहीं सकती, जहां
मांग है। तूने नहीं मांगा, बार-बार मैंने तुझे भेजा और तू
हारकर लौट आया--यह खबर है इस बात की कि तेरे भीतर प्रार्थना का खुलेगा आकाश। तेरे
भीतर प्रार्थना का बीज टूटेगा, प्रार्थना का वृक्ष बनेगा।
तेरे नीचे हजारों लोग छाया में बैठेंगे'।
मांग रहे हैं लोग--मंदिरों में, मस्जिदों में,
गुरुद्वारों में, शिवालयों में--प्रार्थना
नहीं हो रही है।
मंदिर-मस्जिद में जाता ही गलत आदमी है। जिसे प्रार्थना करनी हो तो वह
कहीं भी कर लेगा। जिसे प्रार्थना करने का ढंग आ गया, सलीका आ गया, वह जहां है वहीं कर लेगा।
यह सारा ही संसार उसका है, उसका ही मंदिर है,
उसकी ही मस्जिद है।
हर चट्टान में उसी का द्वार है!
और हर वृक्ष में उसी की खबर है!
कहां जाना है और?
"तेरे कूचे में रहकर मुझको मर मिटना गवारा है
मगर दैरो-हरम की खाक अब छानी नहीं जाती'।
भक्त तो कहता है, अब क्या मंदिर और मस्जिद की खाक
छानूं, तेरी गली में रहकर मर जाएंगे, बस
पर्याप्त है।
और सभी तो गलियां उसकी हैं।
मैं यह नहीं कहा रहा हूं, मंदिर मत जाना।
क्योंकि मंदिर भी उसका है, चले गए तो कुछ हर्ज नहीं। लेकिन
विशेष रूप से जाने की कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि जहां तुम बैठे हो, वह जगह भी उसी की है। उससे खाली तो कुछ भी नहीं।
यह स्मरण आ जाए तो जब आंख बंद कीं, तभी मंदिर खुल गया;
जब हाथ जोड़े तभी मंदिर खुल गया;
जहां सिर झुकाया वहीं उसकी प्रतिमा स्थापित हो गई!
झेन फकीर इक्यू एक मंदिर में ठहरा था। रात सर्द थी, बड़ी सर्द थी! तो बुद्ध की तीन प्रतिमाएं थीं लकड़ी की, उसने एक उठाकर जला दी। रात में ताप रहा था आंच, मंदिर
का पुजारी जग गया आवाज सुनकर, और आग और धुआं देखकर। वह भागा
हुआ आया। उसने कहा, "यह क्या किया?' देखा तो मूर्ति जला डाली है। तो वह विश्वास ही न कर सका। यह बौद्ध भिक्षु
है और इसी भरोसे इसको ठहर जाने दिया मंदिर में और यह तो बड़ा नासमझ निकला, नास्तिक मालूम होता है। तो बहुत गुस्से में आ गया। उसने कहा,
"तूने बुद्ध की मूर्ति जला डाली है!' भगवान
की मूर्ति जला डाली है!'
तो इक्यू बैठा था, राख तो हो गई थी, मूर्ति तो अब राख थी। उसने बड़ी एक लकड़ी उठाकर कुरेदना शुरू किया राख को।
उस पुजारी ने पूछा, "अब क्या कर रहे हो?' तो उसने कहा कि मैं भगवान की अस्थियां खोजता हूं। वह पुजारी हंसने लगा।
उसने कहा, "तुम बिलकुल ही पागल हो--लकड़ी की मूर्ति में
कहें अस्थियां हैं'!
तो उसने कहा, "फिर ऐसा करो, अभी दो
मूर्तियां और हैं, ले लाओ। रात बहुत बाकी है और रात बड़ी सर्द
है, और भीतर का भगवान बड़ी सर्दी अनुभव कर रहा है'।
पुजारी ने तो उसे निकाल बाहर किया क्योंकि कहीं यह और न जला दे। लेकिन
उस सुबह पुजारी ने देखा कि बाहर वह सड़क के किनारे बैठा है और मील का जो पत्थर लगा
है, उस पर उसने दो फूल चढ़ा दिए हैं और प्रार्थना में लीन है! तो वह गया और
उसने कहा कि पागल हमने बहुत देखे हैं, लेकिन तुम भी गजब के
पागल हो! रात मूर्ति जला दी भगवान की, अब मील के पत्थर की
पूजा कर रहे हो!
उसने कहा, "जहां सिर झुकाया वहीं मूर्ति स्थापित हो जाती
है'।
मूर्ति, मूर्ति में तो नहीं है, तुम्हारे
सिर झुकाने में है। और जिस दिन तुम्हें ठीक-ठीक प्रार्थना की कला आ जाएगी, उस दिन तुम मंदिर-मस्जिद न खोजोगे--उस दिन तुम जहां होओगे, वहीं मंदिर-मस्जिद होगा; तुम्हारा मंदिर, तुम्हारी मस्जिद तुम्हारे चारों तरफ चलेगी; वह
तुम्हारा प्रभामंडल हो जाएगा।
जहां-जहां भक्त पैर रखता है, वहीं-वहीं एक काबा और
निर्मित हो जाता है। जहां भक्त बैठता है, वहां तीर्थ बन जाते
हैं। तीर्थों में थोड़े ही भगवान मिलता है; जिसको भगवान मिल
गया है, उसके चरण जहां पड़ जाते हैं वहीं तीर्थ बन जाते हैं।
ऐसे ही पुराने तीर्थ बने हैं।
काबा के कारण काबा महत्वपूर्ण नहीं है, वह मोहम्मद से सिजदा
के कारण महत्वपूर्ण है, अन्यथा पत्थर था। लेकिन किसी को सिर
झुकाना आ गया, इस कारण महत्वपूर्ण है।
सारे तीर्थ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि कभी वहां कोई भक्त हुआ, कभी कोई वहां मिटा, कभी किसी ने अपने बूंद को वहां
खोया और सौर को निमंत्रण दिया। वे याददाश्त हैं! वहां जाने से तुम्हें कुछ हो
जाएगा, ऐसा नहीं--लेकिन, अगर तुम्हें
कुछ हो जाए, तो तुम जहां हो वहीं तीर्थ बन जाएगा, ऐसा जरूर है।
पांचवां प्रश्न:लोग पीते हैं लड़खड़ाते हैं
तेरी शरण में बहुत कुछ पाते हैं
एक हम हैं कि तेरी महफिल में
प्यासे आते हैं, प्यासे ही जाते हैं!
फिर प्यास ही न होगी। फिर अभी प्यास खयाल है, वास्तविक नहीं। अन्यथा कौन रोकता है तुम्हें पीने से?
अगर सरोवर के पास से तुम प्यासे ही लौट आओ, तो प्यास-प्यास ही न होगी।
जब प्यास पकड़ती है किसी को तो गंदे डबरे से भी आदमी पी लेता है। प्यास
होनी चाहिए। और जब प्यास नहीं होती है तो स्वच्छ मानसरोवर भी सामने हो तो भी क्या
करोगे?
प्यास की तलाश करो। खोजो। प्यास झूठी होगी।
बहुत लोगों को झूठी प्यास लग आती है। प्यास की चर्चा सुन-सुनकर प्यास
तो नहीं जगती; प्यास लगनी चाहिए, ऐसा लोभ भीतर
समा जाता है।
तुमने परमात्मा की बहुत बातें सुनी तो लगता है, परमात्मा मिलना चाहिए। प्यास नहीं है भीतर, लोभ पैदा
हुआ।
तुम लोभ के कारण आते होओगे, तो खाली लौट जाओगे,
क्योंकि यहां मैं किसी का भी लोभ पूरा करने को नहीं हूं। यहां तो
लोभ छोड़ना है, मिटना है, पूरा नहीं
करना है।
तुम्हारी परमात्मा की धारणा झूठी और उधार होगी। तुम्हें जीवन की
परिपक्वता से परमात्मा की धारणा पैदा न हुई होगी। तुम अभी कच्चे फल हो ।
या तो आओ तो प्यास लेकर आओ, अन्यथा आओ ही मत।
थोड़ी देर और रुको। कहीं ऐसा न हो कि मेरे शब्द तुम्हें और एक नया धोखा दे दें।
प्यास का धोखा तो है ही , कहीं तृप्ति का धोखा और न पैदा हो
जाए। वह बड़ा खतरा है। और जिसको प्यास का धोखा है, वह एक न एक
दिन तृप्ति का धोखा भी कर लेता है।
जब तुम झूठी प्यास को मान लेते हो--किसको कहता हूं मैं झूठी प्यास?
मेरे पास लोग आते हैं, इतने लोग आते हैं,
उनमें से सौ में से निन्यानबे झूठी प्यास के होते हैं।
किसी की पत्नी मर गई, परमात्मा की खोज पर निकल जाता है;
जैसे पत्नी के मरने से परमात्मा की खोज का कोई संबंध हो! दूसरी
पत्नी खोजता, समझ में आती थी बात। लेकिन संस्कार, समाज! दूसरी पत्नी नहीं खोजता। खोज रहा है दूसरी की पत्नी। झुठला रहा है।
बिना खोजे नहीं रह सकता, एक खोज पैदा हो रही है भीतर।
कामवासना प्रगाढ़ हो रही है, जग रही--लेकिन संस्कार, समाज, प्रतिष्ठा, बच्चे,
परिवार, नाम...! खोजना तो है पत्नी को,
खोजता है परमात्मा को! अब वह कभी भी परमात्मा को तो पा ही ना सकेगा।
बुनियाद में खोज ही गलत हो गई।
किसी का दिवाला निकल गया, परमात्मा की खोज पर
चले! दिवाले से परमात्मा का क्या लेना-देना है? तुम परमात्मा
को सांत्वना समझ रहे हो? दुख में हो तो परमात्मा को मलहम समझ
रहे हो, तो गलत जा रहे हो।
परमात्मा की खोज तो सच्ची तभी होती है जब जीवन का अनुभव तुम्हें कह दे
कि जीवन व्यर्थ है। जब पूरा जीवन व्यर्थ मालूम हो, जब इस जीवन की सारी
सार्थकता खंडित हो जाए, तुम अचानक जागो जैसे कोई स्वप्न से
जाग गया और पाओ कि अब तक जो किया था, वह सब व्यर्थ हुआ,
नये से शुरुआत करनी है, नया जन्म हो--तो प्यास
पैदा हो होती है।
ऐसा व्यक्ति जब भी आएगा तो तृप्त होकर जाएगा।
प्यास ही न लाए होओ तो कैसे तृप्त होकर जाओगे? तृप्ति की पहली शर्त तो पूरी करो। तुम प्यास पूरी बताओ, तुम प्यास पूरी जगाओ, दूसरा काम मैं कर दूंगा। वह
करना ही नहीं पड़ता, इसलिए तो इतनी सुविधा से जिम्मेदारी ले
रहा हूं। तुम बस पहला पूरा कर दो, वह दूसरा अपने से पूरा हो
जाता है, उसे कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती। तुम्हारी प्यास
में ही तुम्हारी तृप्ति का सागर छिपा है। इसलिए तो निश्चित भाव से कहता हूं कि
दूसरा मैं कर दूंगा। इसकी गारंटी कर देता हूं, क्योंकि उसमें
कुछ करना ही नहीं है। मैं रहूं न रहूं, कोई फर्क नहीं पड़ता;
तुम जब भी प्यासे होओगे, तृप्ति हो जाएगी।
आखिरी प्रश्न: "इश्क पर ज़ोर नहीं ये वो आतिश
"गालिब'
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे!
फिर देवर्षि नारद ने प्रेम पर यह शास्त्र क्यों
लिखा?
निश्चित ही प्रेम ऐसी आग है जो न तो तुम लगा सकते हो, न तुम बुझा सकते हो। न लगाने का कोई उपाय नहीं है। लग जाए तो बुझाने का
कोई उपाय नहीं है।
स्वाभाविक प्रश्न उठता है। अगर प्रेम ऐसी आग है, अगर एक ऐसी घटना है जो अपने से घटती है और तुम्हारे किए कुछ नहीं हो
सकता--तो फिर शास्त्र का प्रयोजन क्या? फिर भी प्रयोजन है।
ऐसा समझो कि तुम खिड़की-द्वार-दरवाजे बंद करके अपने अंधेरे घर में बैठे
हो, द्वार पर खड़ा है सूरज, किरणें थाप दे रही हैं,
लेकिन तुम अपने दरवाजे बंद किए बैठे हो, तो
सूरज भीतर नहीं आ पाएगा। द्वार-दरवाजे खोल दो, सूरज अपने से
ही भीतर आता है, उसे लाना नहीं पड़ता। तुम कोई पोटलियों में
बांधकर सूरज को भीतर नहीं लाओगे। तुम कोई हांक कर सूरज को भीतर नहीं लाओगे। बुलाने
की भी जरूरत न पड़ेगी, आमंत्रण भी न देना पड़ेगा। इधर तुमने
द्वार खोला कि सूरज भीतर आया। और अगर सूरज बाहर न हो तो सिर्फ तुम्हारे द्वार
खुलने से भीतर न आ जाएगा; सूरज होगा तो भीतर आएगा। सूरज न
होगा तो तुम कुछ भी न कर सकोगे कि सूरज भीतर आ जाए। तो एक बात तो पक्की है कि सूरज
होगा तो ही भीतर आएगा; न होगा तो तुम द्वार-दरवाजे कितने ही
खोलो, इससे कुछ न होगा। लेकिन एक बात है, सूरज बाहर खड़ा हो और तुम द्वार न खोलो तो भीतर न आ सकेगा।
शास्त्र का उपयोग है कि तुम्हें द्वार-दरवाजे खोलना सिखा दे।
प्रेम तो जब घटता है घटता है, तुम्हारे घटाए न
घटेगा। और तुम्हारे घटाए घट जाए तो वह प्रेम दो कौड़ी का होगा, वह तुमसे नीचा होगा, तुमसे छोटा होगा। तुम्हारे ही
कृत्य तुम से बड़ा नहीं हो सकता। कोई कृत्य कर्ता से बड़ा नहीं हो सकता। उस प्रेम ही
कोई कीमत नहीं है। वह तो अभिनय होगा ज्यादा से ज्यादा । प्रेम तो अपने से घटेगा।
वह घटना है, हैपनिंग। लेकिन अगर तुम द्वार-दरवाजे बंद किए
बैठे हो तो वह द्वार पर ही खड़ा रहेगा, भीतर किरणें न आ
सकेंगी।
शास्त्र का उपयोग है कि वह तुम्हें इतना ही बताए कि तुम बाधा न डालो।
बाधा हटायी जा सकती है, बस फिर प्रेम तो मौजूद ही है।
भक्ति तो तुम्हें चारों तरफ से घेरे खड़ी है। झरना तो बहने को तत्पर है, एक पत्थर पड़ा है चट्टान की तरफ रुकावट डाल रहा है। चट्टान उठाने से झरना
पैदा नहीं होता--झरना होगा तो चट्टान उठाने से वह उठेगा, जलधार
आ जाएगी। लेकिन झरना भी हो और चट्टान पड़ी हो, तो जलधार
उपलब्ध न होगी।
निषेधात्मक है शास्त्र का उपयोग, निगेटिव है। सभी
शास्त्र निषेधात्मक हैं। वे इतना ही बताते हैं कि किस-किस तरह से इंतजाम करो,
ताकि बाधा न पड़े। जो होना है, वह तो अपने से
होगा।
इसलिए तो भक्त कहते हैं, जब परमात्मा मिलता है
तो प्रसाद से मिलता है, हमारे कि नहीं मिलता; लेकिन जब नहीं मिलता तो हमने
कुछ किया है जिसके कारण नहीं मिलता।
इसको समझ लेना।
परमात्मा को खोते तुम हो; जब वह मिलता है तो
उसके कारण मिलता है। पाप तुम करते हो, पुण्य वह करता है। भूल
तुमसे होती है, सुधार उससे होता है। गलत तुम जाते हो,
और जब तुम ठीक जाने लगते हो तब वह जाता है, तब
तुम नहीं जाते।
यही मतलब है--
"इश्क पर ज़ोर नहीं ये वो आतिश "गालिब'
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे!'
इश्क पर कोई जोर नहीं है, लेकिन चट्टानें-पत्थर
इकट्ठा करना बड़ा आसान है। तुम अपने चारों तरफ अवरोध खड़े कर सकते हो कि प्रेम आ ही
न सके।
यही तुमने किया है। तुमने परमात्मा के लिए रंध्र-रंध्र भी बंद कर दिए
हैं, कहीं से उसकी एक किरण भी तुम्हारे भीतर प्रविष्ट न हो
जाए! तुम सब तरफ से परमात्मा-प्रूफ हो!
उतना ही शास्त्र का प्रयोजन है कि तुम अपने दीवाल-दरवाजे हटा दो।
परमात्मा तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार है, स्वरूप-सिद्ध अधिकार है। गंवाया है तो तुमने अपनी होशियारी से--पाओगे,
इस होशियारी को छोड़ देने से।
इसलिए सारा सूत्र नकारात्मक है।
किसी चिकित्सक से पूछो, "चिकित्सा
शास्त्र क्या है?' तो वह कहेगा, "बीमारी
का इलाज'। उससे तुम पूछो तो हजारों बीमारियों की व्याख्या कर
देगा, लेकिन अगर स्वास्थ्य की व्याख्या पूछो तो न कर पाएगा।
स्वास्थ्य की कोई व्याख्या ही नहीं है। स्वास्थ्य तो जब होता है तब
होता है--अव्याख्य है।
फिर चिकित्सक क्या करता है? वह केवल बीमारी का
अवरोध हटाता है।
तुम्हें टी.बी. पकड़ जाए तो चिकित्सक स्वास्थ्य थोड़े ही लाता है--उसकी
किसी दवा की गोली में स्वास्थ्य नहीं छिपा है-- सिर्फ टी.बी. को अलग करता है।
टी.बी. अलग हो जाए तो स्वास्थ्य तो अपने से घटता है।
स्वास्थ्य तो तुम्हारा स्वभाव है। इसलिए तो उसे "स्वास्थ्य' कहते हैं! वह "स्व' का भाग है। वह तुम्हारी
स्वयं की सत्ता है।
"स्व' में स्थित हो जाना
स्वास्थ्य की परिभाषा है।
बीमारी तुम्हें अपने से बाहर खींच रही है कहीं। चिकित्सक तुम्हें
बीमारी से छुड़ा देता है, बस। स्वास्थ्य कोई चिकित्सक नहीं दे सकता--स्वास्थ्य
तो तुम लेकर ही आए हो।
ठीक शास्त्र का यही उपयोग है कि बीमारी से छुड़ा दे।
प्रेम तो अपने से घटता है।
भक्ति तो अपने से आती है
परमात्मा अपने से उतरता है।
लेकिन कोई अवरोध न रह जाए...।
तुम एक बीज बोते हो बगीचे में...बीज बोओ और उसके ऊपर एक पत्थर रख दो; बीज में संभावना थी, वह संभावना तुम नहीं ला सकते,
वह संभावना थी ही; बीज फूटता अपने से; तुम जल दे सकते थे, सहारा बन सकते थे, तुम पत्थर हटा सकते थे, अवरोध अलग कर सकते थे: बीज
वृक्ष बनता, फूल आते, फल लगते, छाया होती, सौंदर्य का जन्म होता--वह सब अपने से
होता।
तुम कोई बीज से वृक्ष को खींच नहीं सकते। तुम कोई जबरदस्ती फूलों को
खिला नहीं सकते। तुम जबरदस्ती वृक्ष से फलों को निकाल नहीं सकते। लेकिन तुम चाहो
तो रोक सकते हो।
मनुष्य की सामर्थ्य इतनी ही है कि वह जो हो सकता है, उसे रोक सकता है; जो होना चाहिए, उसे कर नहीं सकता।
मनुष्य भटक सकता है--यह उसकी सामर्थ्य है। गलत होने की सामर्थ्य
मनुष्य में है। ठीक: बस वह गलत होने की सामर्थ्य को छोड़ दे कि ठीक अपने से हो जाता
है।
ठीक होना प्रकृतिदत्त है, स्वाभाविक है;
गलत होना चेष्टा से है।
प्रयत्न से हम पाप करते हैं; जो निष्प्रयत्न होता
है, वह पुण्य है।
प्रयास से हम संसार बनाते हैं; जो बिना प्रयास के,
प्रसाद से मिलता है, वही परमात्मा है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें