आज सुबह मैंने कार्ल गुस्ताव जुंग के शब्द सिन्क्रॉनिसिटी का उल्लेख किया था। मुझे वह आदमी अच्छा नहीं लगता, लेकिन उसने जिस नए शब्द को चालू किया वह मुझे बहुत पसंद है। उसके लिए तो उसकेा हर संभव श्रेय मिलना चाहिए। और किसी भी भाषा में सिन्क्रॉनिसिटी जैसे शब्द नहीं है। सब शब्द न किसी के द्वारा तो बराए ही गए है। इसलिए किसी शब्द के गढ़ने में कोई बुराई तो नहीं है। विशेषत: तब वह शब्द किसी ऐसे अनुभव को अभिव्यक्त करता हो जिसको सदियों से कोई नाम न दिया गया हो। केवल इस एक शब्द, सिन्क्रॉनिसिटी के लिए जुंग को नोबल पुरस्कार मिलना चाहिए था। हालांकि था तो एक दम अति साधारण। परंतु जब इतने सारे साधारण लोगों को नोबल पुरस्कार मिला है तो एक को और मिल जाता तो इसमें क्या गलत था। और वे नोबल पुरस्कार तो मरणोपरांत भी देते है तो कृपया इस बेचारे कार्ल गुस्ताव जुग को भी नोबल पुरस्कार दे दो। मैं मजाक नहीं कर रहा। इस शबद के लिए मैं सचमुच आभारी हूं, क्योंकि मनुष्य की बुद्धि इसको कभी ठीक से नहीं पकड़ पाई, यह सदा उसकी समझ के बाहर रहा है।
मैं तुम लोगों से शंभु बाबू के साथ अपनी अजीब दोस्ती के बारे में चर्चा कर रहा था। वह कर्इ अर्थों में अजीब थी। पहली तो बात कि वे मेरे पिता से भी बड़े थे या शायद उसी उम्र के थे, लेकिन जहां तक मुझे याद है वे अधिक बूढे लगते थे और मैं था केवल नौ साल का। अब बताओ कि यह कैसी दोस्ती था। वह कानून के सफल विशेष्ज्ञ थे, सिर्फ उस गांव में ही नहीं वरन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी वकालत करते थे। वे कानून के उच्चतम अधिकारियों में से एक थे। और वे एक अशिक्षित, अनुशासनहीन, जंगली और ग्रामीण बच्चे के मित्र थे। मैं पहली मुलाकात में जब उन्होंने मुझसे कह कि बैठिए, तो मैं तो बस हैरान रह गया। मैं सोच भी नहीं सकता था कि उप सभापति स्वयं उठ कर मेरा स्वागतक करेंगे और कहेंगे कि बैठिए।
मैंने उनसे कहा: ‘पहले आप बैठिए, आप बुजुर्ग है, शायद आप मेरे पिता से भी बड़े है। आपसे पहले बैठने में मुझे संकोच होता है।’
उनहोंने कहा: ‘इसकी फ़िकर मत करो। मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूं। आराम से बैठ कर मुझे बताओ कि तुम यहां क्यों आए हो।’
मैंने कहा: ‘यह तो मैं आपको बाद में बताऊंगा कि मैं यहां क्यों आया हूं, लेकिन पहले ..’ उन्होंने मेरी और देखा और मैंने उनकी और देखा, हम दोनों की आंखें मिलीं और उस क्षण में जो घटा वही मेरा पहला प्रश्न बन गया। मैंने उनसे पूछा: ‘पहले मुझे यह बताइए कि अभी-अभी हमारी आंखों के बीच क्या घटा?’
उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं और शायद दस मिनट बीत गए फिर उनहोंने आंखें खोली। उन्होंने कहा: ‘माफ करन। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या हुआ, लेकिन कुछ घटा अवश्य है।’
उस समय से हम मित्र बन गए। यह उन्नीस सौ चालीस की बात है। उन्नीस सौ साठ में उनकी मृत्यु हुई। उनके मरने के एक साल पहले—हमारी मित्रता के बीस बरस बाद—अजीब मित्रता थी—मैं उन्हें वह शब्द बता सका जिसे वे बरसों से खोज रहे थे। और यह शब्द कार्ल गुस्ताव जुंग द्वारा गढ़ा गया अंग्रेजी का शब्द सिन्क्रॉनिसिटी था। हम दोनों में यही हुआ था। उनको भी मालूम था कि क्या हुआ और मुझे भी मालूम था कि क्या हुआ, पर इसे अभिव्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहा था।
सिन्क्रॉनिसिटी शब्द के एक साथ कई अर्थ है। यह बहुआयामी शब्द है। इसका अर्थ हो सकता है: एक खास लयबद्ध भाव। इसका अर्थ हो सकता है: जिसको लोग सदा से प्रेम कहते है। इसका अर्थ हो सकता है: मित्रता, इसका अर्थ हो सकता है दो ह्रदय का अकरण एक हो जाना, एक साथ धड़कना...यह एक रहस्य है। संयोगवशात कभी ऐसा कोई व्यक्ति मिल जाता है जिसके साथ पटरी ठीक बैठ जाती है; सारी जिग्सा पज़ल हल हो जाती है। पज़ल के हिस्से जो ठीक नहीं बैठ रहे थे, सब अपने आप सही बैठ जाते है।
तब मैंने अपनी नानी को बताया कि इस गांव के उप सभापति से मेरी दोस्ती हो गई है, तो उन्होंने पूछा, ‘क्या तुम्हारा मतलब शंभु रत्न दुबे के साथ ?’
मैंने कहा: ‘हां, लेकिन नानी आपको क्या हो गया है’? आपको इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है।‘
उनकी आंखों से आंसू गिरने लगे। उन्होंने कहा: ‘तब तुम्हें इस दुनिया में बहुत मित्र न मिलेंगे। मुझे चिंता इसी बात कह है। अगर शंभु बाबू तुम्हारे दोस्त बन गए है तो इस दुनिया में तुम्हें बहुत मित्र न मिलेंगे। और सिर्फ यही नहीं, तुम्हें तो शायद मित्र मिल भी जाएं क्योंकि तुम बहुत छोटे हो, लेकिन शंभु बाबू को इस संसार में निश्चित ही कोई मित्र नहीं मिलेगा क्योंकि वे उम्र में बहुत बड़े है।’
मेरी कहानी में नानी का उल्लेख उनकी अनोखी अंतर्दृष्टि के साथ बार-बार आएगा। जब मेरी समझ में आता है कि उन्होंने क्या देखा और वे क्यों रोई। अब मैं यह अच्छी तरह से जानता हूं शंभु बाबू के, सिवाय मेरे, कोर्इ मित्र नहीं था।
मैं अपने गांव साल में एक दो बार ही जाता था। और जैसे-जैसे मैं अपने काम मैं—जिसे तुम निष्क्रियता भी कह सकते हो—संन्यास आंदोलन और ध्यान शिविरों में व्यस्त होता गया, वैसे-वैसे मेरा गांव जाना और भी कम होता गया। सच तो यह है कि उनके मरने के कुछ साल पहले मैं तब तक ही गांव में रुकता था तक स्टेशन पर मेरी गाड़ी रुकती थी। स्टेशन मास्टर मेरा संन्यासी था। इसलिए जब तक मैं चाहता तब तक मैं गाड़ी को वहां रोक सकता था। क्योंकि दुसरी गाड़ी स्टेशन के बहार इंतजार करती खड़ी रहती थी। वहीं मेरी उनसे मुलाकात हाथी थी। दस, बीस, अधिक से अधिक तीस मिनट इससे अधिक मेरी गाड़ी को रोक सकना संभव नहीं था। वे सब लोग अर्थात मेरे माता-पिता, शंभु बाबू तथा बहुत से अन्य मित्र, जो मुझसे प्रेम करते थे, मुझसे मिलने स्टेशन पर आ जाते थे।
मैं उनके एकाकीपन को समझ सकता हूं। उनका और कोई मित्र नहीं था। प्राय: हर रोज वे मुझे ऐ पत्र लिखते थे—ऐसा बहुत कम होता है—और लिखने को कुछ था नहीं कभी-कभी तो वे लिफाफे में कोरा कागज रख कर भेज देते थे। में वह भी समझ जाता था। वे बहुत ही अकेला महसूस करते थे और उन्हें मेरे साथ होने की इच्छा थी। मैं वहां जाने की यथासंभव कोशिश करता था। उनके कारण ही मैं वहां जाने की तकलीफ उठाता था। उनकी मृत्यु के बाद तो मैं वहां बहुत कम गया हूं। मैं यह बहाना बना देता था कि मुझे शुभ बाबू की याद आती है। इस लिए मैं वहां नहीं जाता। पर सच बात तो यही थी कि अब वहां जाने का कोई अर्थ नहीं था। जब वे वहां नहीं थे तो मेरा वहां जाने का कोई मतलब ही नहीं था। वे रेगिस्तान में हरियाली के समान थे।
मेरे कारण शंभु बाबू की जो निंदा और आलोचना हो रही थी उससे वे बिलकुल नहीं डरते थे। उन दिनों में भी मुझसे संबंधित होना कोई अच्छी बात नहीं थी। यह खतरनाक था। लोग उनको यही समझाते थे कि इस लड़के की दोस्ती के कारण कोई आपका आदर नहीं करेगा। उन लोगों ने आपको उप सभापति से सभापति बनाया है। अंतत: मैंने उनसे कहा: ‘शंभु बाबू आपकी मेरी दोस्ती और इस बेवकूफ गांव के सभापति होने में चुनाव करना होगा।’
उन्होंने सभापति के पद से त्याग पत्र दे दिया। उन्होंने मुझसे एक शब्द भी न कहा। मेरे सामने ही उन्होंने त्यागपत्र लिख दिया। मुझसे उन्होंने मुझसे कहा: ‘तुम्हारे भीतर जो अपरिभाषित है मुझे उससे प्रेम है। इस गांव के सभापति होने का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है। में तो तुम्हारे लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हूं। हां, सब कुछ।’
लोगों ने कोशिश की कि वे त्यागपत्र वापस ले लें, लेकिन उन्होंने उसकेा वापस नहीं लिया। मैंने उनसे कहा: ‘शंभु बाबू आपको मालूम है कि मुझे इन सभापति और उप सभापति आदि पदों से बहुत धृणा है—चाहे वे म्यूनिसिपैलिटी के हो और चाहे वे राष्ट्र के हों। मैं आपसे नहीं कह सकता कि आप अपना त्यागपत्र वापस ले लीजिए। मैं तो यह अपराध नहीं कर सकता। लेकिन अगर आप इसे वापस लेना चाहें तो आप स्वतंत्र है।’
उनहोंने कहा: ‘अब मैं वापस नहीं ले सकता। जो होना था सो हो गया। तुमने अच्छा किया जो इसके लिए मुझ पर कोई दबाव नहीं डाला।’
वे एकाकी ही रहे। उनके पास आराम से रहने के काफी पैसा था। उन्होंने सभापति के पद से तो त्यागपत्र दिया ही साथ ही वकालत भी छोड़ दी। उन्होंने कहा: ‘मेरे पास काफी पैसा है, फिर मैं क्यों परेशान होता रहूँ और वकालत तथा सच के नाम पर क्यों निरंतर झूठ बोलता रहूँ।
उनकी इस विशेषताओं से ही मुझे प्रेम था। बिना कुछ सोचे-विचारे उन्होंने एक क्षण में त्याग पत्र लिख दिया और दूसरे दिन से उन्होंने वकालत भी छोड़ दी। उनके कारण ही मुझे कभी-कभी गांव जाना पड़ता था। उनको अपने साथ कुछ दिन रहने के लिए बीच-बीच में अपने पास भी बुला लेता था। कभी कभार वे आ जाते थे।
वे बहुत प्रामाणिक व्यक्ति थे। किसी प्रकार के नतीजे से वे डरते नहीं थे। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा, ‘तुम क्या करोगे? मेरा खयाल नहीं है कि तुम युनिवर्सिटी में प्रोफेसर का काम अधिक समय तक करोगे?’
मैंने कहा: ‘शंभु बाबू, मैं कभी योजना नहीं बनाता। अगर मैंने यह काम छोड़ दिया तो मुझे विश्वास है कि मेरे लिए कोई दूसरा काम तैयार होगा। अगर परमात्मा...’और इस ‘अगर’ को याद रखना, क्योंकि वे आस्तिक नहीं थे। उनकी यह विशेषता भी मुझे बहुत प्रिय थी। वे कहा करते थे जब तक मैं स्वयं न जान लू तब तक मैं कैसे विश्वास कर सकता हूं।
मैने उनसे कहा: ‘अगर परमात्मा सब प्रकार के लोगों के लिए काम खोज सकता है—पशुओं के लिए और वृक्षों के लिए—तो वह मेरे लिए भी अवश्यक कोई न कोई काम खोज लेगा। और अगर वह न खोज सका तो यह उसकी समस्या है, मेरी नहीं।‘
उन्होंने हंस कर कहां: ‘हां, यह बात बिलकुल ठीक है, अगर वह कहीं है तो यह उसकी समस्या है। लेकिन सवाल यह है कि अगर वह नहीं है तब क्या होगा?’
मैंने कहा: ‘तब भी मेरे लिए कोई समस्या नहीं होगी। अगर मेरे लिए कोई काम नहीं है तो में एक गहरी सांस लेकर अस्तित्व से विदा ले लुंगा। यही इस बात का प्रमाण बन जाएगा की मेरी आवश्यकता नहीं है। अगर मेरी आवश्यकता नहीं है तो मैं जबरन अपने आपको अस्तित्व पर नहीं थोपूगां।’
अगर हमारी बातचीत और हमारे तर्कों को दुबारा उसी प्रकार प्रस्तुत किया जाए तो वे प्लेटों के वार्तालापों से कहीं अच्छे सिद्ध होंगे। शंभु बाबू बहुत ही तर्कयुक्त व्यक्ति थे। मैं जितना तर्कहीन हूं उतने ही वे तर्कसंगत थे। और यही सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक बात है कि उस गांव में हम दोनों ही एक-दूसरे के मित्र थे। सब लोग मुझसे यही पूछते थे कि वे तो तार्किक है और तुम बिलकुल तर्कहीन, तुम दोनों के बीच पुल क्या है? संबंध-सूत्र क्या है?
मैने कहा: ‘आप लोगों के लिए यह समझना मुश्किल होगा। क्योंकि आप दोनों में से एक भी नहीं हो। उनका तर्क उनको तर्क उनको अंतिम छोर तक पहुंचा देता है। मैं तर्कहीन हूं। मैं जन्म से ही तर्क हीन नहीं हूं। कोई भी जन्म से तर्क हीन नहीं होता। मैं इस लिए तर्क हीन हूं क्योंकि मैने तर्क की व्यर्थता को देख लिया है। क्योंकि मैंने देख लिया है कि तर्क कितना अर्थहीन है। मैं उनके तर्क के अनुसार उनके साथ काफी दूर तक जाता हुं। और फिर एक बिंदु पर पहुंच कर उससे आगे बढ़ जाता हूं। तब वे डर कर रूक जाते है और यही बात हमारी मित्रता को बनाए रखती है। क्योंकि वे जानते है कि उनको उस बिंदु के पार जाना है और वे ऐसे किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं जानते जो इसमें उनकी सहायता कर सके। आप सब....मेरा मतलब गांव के लोगों से था...सोचते है कि वे मेरी सहायता करते है। आप गलत है। आप उनसे पूछ सकते है। मैं उनकी सहायता करता हूं।
तुम्हें आश्चर्य होगा कि एक दिन तो कुछ लोग यह पूछने के लिए उनके घर पहुंच गए, ‘क्या यह सच है कि यह छोटा सा लड़का आपका पथ-प्रदर्शक है या किसी प्रकार से सहायता करता है।’
उन्होंने कहा: ‘निश्चित ही। इसमें कोई संदेह नहीं है। आप मुझसे पूछने क्यों आए है। आप उसी से क्यों नहीं पूछ लेते, आपके नजदीक ही तो वह रहता है।’
उनकी अंतर्दृष्टि बहुत स्पष्ट थी। तुमको यह जान कर बहुत आश्चर्य होगा कि अपने सारे जीवन में मुझे कोई मित्र नहीं मिला सिवाय शंभु बाबू के। अगर वे न होते तो मुझे यह कभी मालूम ही न होता कि मित्र का क्या अर्थ होता है। परिचित तो बहुत लोग थे—स्कूल, कालेज और युनिवर्सिटी में सैकड़ों लोगों से मेरा परिचय हुआ। तुमने और उन लोगों ने भी शायद समझा होगा कि वे मेरे मित्र है। लेकिन सिवाय शंभु बाबू के और मैंने किसी को मित्र के रूप में नहीं पाया। किसी से परिचित होना तो बहुत आसान है, परिचय तो बहुत साधारण है। लेकिन मित्रता साधारण जगत की बात नहीं है। तुमको यह जान कर आश्चर्य होगा कि जब भी मैं बीमार पड़ता—और उस गांव से मैं अस्सी मील दूर रहता था—तो तुरंत ही शंभु बाबू का फोन आ जाता और वे अत्यंत चिंतित हो कर मेरा हाल-चाल पूछते। वे परेशान होकर पूछते, ‘तुम ठीक तो हो।’
मैं कहता: ‘आप इतने चिंतित क्यों हो रहे है, आपकी आवज से लगता है कि आप बीमार है।’
वे कहते: ‘नहीं मैं बीमार नहीं हूं, मुझे ऐसा लगता है कि तुम बीमार हो। तुम मुझसे छीपा नहीं सकते। अब मुझे मालूम तो हो गया है कि तुम ठीक तो नहीं हो।’
ऐसा कई बार हुआ। तुमको विश्वास नहीं होगा कि केवल उनके कारण मैंने कारण मैंने टेलीफोन का प्राइवेट नंबर लिया। एक टेली फोन तो मेरे सैक्रेटरी के लिए था। जो देश भर में मेरे काम की व्यवस्था करता। लेकिन मेरा एक गुप्त निजी टेलीफोन भी था, जो केवल शंभु बाबू के लिए था। ताकि वे जब चाहें मुझे फोन कर सकते थे। जो केवल शंभु बाबू के लिए था। ताकि वे जब चाहे मुझे फोन कर सकते थे—आधी रात को भी। देश भर में सफर करते समय अगर मैं बीमार हो जाता तो मैं स्वयं ही उनको सूचित कर देता कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है लेकिन आप चिंता मत करना। इसको कहते है: सिन्क्रॉनिसिटी।
कहीं अंतर की गहराई में हम दोनों एक-दूसरे से जुड़ हुऐ थे। जिस दिन उनकी मृत्यु होने वाली थी उस दिन मैं बिना पूछताछ किए ही उनके पास गया। मैं कार लेकर गांव के लिए रवाना हो गया। मुझे वह सड़क कभी पसंद न थी और कार चलाना अच्छा लगता है, लेकिन जबलपुर से गाडर वारा जाने वाली वह सड़क बहुत ही खराब थी। उससे खराब सड़क तो तुम्हें कहीं न मिलेगी। उसकी तुलना में तो एंटी लोप से रैंच को जोड़ने बाली हमारी सड़क सुपर हाईवे है। जर्मनी में इसे क्या कहते है, ‘ऑटो बान’
हां, ओशो’
युनिवर्सिटी से शंभु बाबू के घर तक की सड़क की तुलना में हमारी यह सड़क ऑटो बान है। मैं तेजी से गया...गहरे में मुझे आशंका हो रही थी। मैं हमेशा ही गाड़ी तेज चलाता हूं। तेज गति से मुझे चलना बहुत अच्छा लगता है। लेकिन उस सड़क पर तो एक घंटे में बीस मील की गति से अधिक नहीं चलाया जा सकता। इससे अधिक संभव नहीं है। अब तुम अनुमान लगा सकते हो कि वह सड़क कैसी होगी। जब तक तुम कहीं पहुँचों तब तक अगर तूम मरे नहीं तो अधमरे तो हो ही जाओगे। लेकिन एक बात बहुत अच्छी है कि शहर के भीतर प्रवेश करते ही नदी मिलती है। वहां नहा सकते हो, अपने को ताजा करने के लिए आधा घंटा तैर सकते हो और अपनी कार को भी अच्छी तरह से नहला सकते हो। इसके बाद जब शहर पहुँचेंगे तो तुम भूत जैसे दिखाई नहीं दोगे।
मैं भागा। अपने जीवन में इतनी जल्दी मैंने कभी नहीं की—अभी भी नहीं जब कि अब मुझे जल्दी करनी चाहिए क्योंकि समय तेजी से बीत रहा है और वह दिन दुर नहीं है ज मुझे तुम लोगों से विदा लेनी होगी—हालांकि शायद मैं कुछ दिन और रूकना चाहता । मेरे हाथ में तो कुछ भी नहीं है सिवाय इस कुर्सी के दोनों हाथों के और तुम देख सकते हो कि मैं उनको कैसे पकड़े हुए हूं—उनको महसूस करना चाहता हूं ताकि मुझे मालूम हो कि मैं अभी भी शरीर में हूं— चिंता मत करो—अभी भी थोड़ा समय है।
उस दिन तो मुझे जल्दी करनी पड़ी—मेरी आशंका सच थी—अगर मुझे कुछ मिनटों की भी देरी हो जाती तो मैं शंभु बाबू की आंखों को फिर कभी न देख पता—मेरा मतलब है जीवित—वैसे ही मेरी तरफ देखते हुए जैसे उन्होंने मुझे पहली बार देखा था। मैं उनकी उस प्रथम दृष्टि को अंतिम बार देखना चाहता था। उस सिन्क्रॉनिसिटी को देखना चाहता था। और उनकी मृत्यु से पहले उस आधे घंटे में हम दोनों में शुद्ध कम्यूनियन, संवाद हुआ। मैंने उनसे कहा कि वे जो भी कहना चाहते है अवश्य कह दें।
उन्होंने सबके बाहर भेज दिया। निश्चित ही उनको बुरा लगा। उनके भाइयों, बेटों और पत्नी को बुरा लगा। लेकिन उनहोंने स्पष्ट कह दिया, ‘तुम लोगों को अच्छा लगे या न लगे, मैं चाहता हूं कि तुम सब जल्दी बहार चले जाओ, क्योंकि मेरे पास खराब करने के लिए अधिक समय नहीं है।’
स्वभावत: वे सब डर कर बहार चले गए। हम दोनों हंस पड़े। मैने कहा: ‘आप मुझसे जो भी कहना चाहते है कह दें।’
उन्होंने कहा: ‘मेरे पास कुछ नहीं है तुमसे कहने के लिए। बस तुम मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लो। मैं तुम्हें महसूस करना चाहता हूं। कृपा करके मुझे अपनी उपस्थिति से भर दो। वे कहते गए, ‘मैं घुटनों के बल बैठ कर तुम्हारे पैर नहीं छू सकता। ऐसा नहीं कि मैं वैसा करना न चाहूंगा, लेकिन मेरा शरीर बिस्तरे से उठने की स्थिति में नहीं है। मैं हिल भी नहीं सकता। अब मेरे पास कुछ ही मिनट बचे है।’
मुझे दिखाई दे रहा था कि मृत्यु द्वार तक पहुंच गई है। मैंने उनके हाथों को अपने हाथों में लिया और कुछ बातें कहीं जो उन्होंने बड़े ध्यान से सुनी।
अपने बचपन में मैंने केबल दो ही ऐसे व्यक्तियों को जाना है जिनसे मुझे मालूम हुआ कि सच में एकाग्रता क्या है। पहली तो मेरी नानी थी। शंभु बाबू के साथ उनकी गिनती करते हुए मुझे अफसोस होता है। जब कि उनकी एकाग्रता शंभु बाबू जैसी थी, फिर भी उनमें कई और आयाम भी थे। सच तो यह है कि मुझे यह नहीं कहना चाहिए था कि दो लोग थे। लेकिन मैं यह कह ही चुका हूं। अब मुझे इसको जितनी अच्छी तक रसक हो सके उतनी अच्छी तरह से समझाने दो।
रोज रात को मेरी नानी के लिए यह एक धार्मिक कृत्य के समान था—ठीक उस तरह जिस तरह तुम लोग रात को और सुबह इंतजार करते हो...
--ओशो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें