तेरहवां प्रवचन—शून्य का संगीत है प्रेमा-भक्ति
दिनांक १३ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र :
अनिर्वचनीशं प्रेमस्वरूपम्
मूकास्वादमवत्
प्रकाशते क्वापि पात्रे
गुणरहितं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्
तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति
भाषयति तदेव चिन्तयति
गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा
उत्तरस्मांदुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति
अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम!
प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है--जो कहा न जा सके--जीया जा सके, भोगा जा सके, अनुभव किया जा सके--पर कहा न जा सके।
लहर सागर में है सागर भी लहर में है। लेकिन लहर पूरी की पूरी सागर में
है; पूरा का पूरा सागर लहर में नहीं है।
अनुभव सागर जैस है; अभिव्यक्त्ति लहर जैसी
है।...थोड़ी सी खबर लाती है, पर बहुत, अनंतगुना
पीछे छूट जाता है; जरा सी झलक लाती है, लेकिन बहुत शेष रह जाता है।
शब्द शून्य को बांध नहीं पाते--बांध नहीं सकते। शब्द तो छोटे-छोटे
आंगनों जैसे हैं। अनुभव का, शून्य का, प्रेम का, परमात्मा का आकाश असीम है। यद्यपि आंगन में भी वही आकाश झांकता है,
लेकिन आंगन को आकाश मत समझ लेना, अन्यथा
कारागृह में पड़ जाओगे। जिसने आंगन को आकाश समझा, उसका
दुर्भाग्य, क्योंकि फिर आंगन में ही जीने लगेगा। आंगन से
आकाश बहुत बड़ा है। आंगन से स्वाद ले लेना, लेकिन तृप्त मत हो
जाना।
शब्द से अनुभव का आकाश बहुत बड़ा है। शब्द से यात्रा शुरू हो, लेकिन शब्द पर यात्रा पूरी न हो जाए। कहीं शब्द को ही सब मत समझ लेना।
शब्द में इंगित हैं, इशारे हैं; जैसे
राह के किनारे मील के पत्थर हैं, तीर लगे हैं--आगे की तरफ
सूचना है। मील के पत्थर को मंजिल मत समझ लेना। सभी शब्द चाहे वेद के हों, चाहे कुरान के, चाहे बाइबिल के--शब्द मात्र सीमित
हैं, और प्रेम का अनुभव विराट है।
इसलिए पहला सूत्र है आज का, बहुत अनूठा:
"अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्'!
"उस प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है!'
उसकी व्याख्या हो सके, अभिव्यक्ति न हा सके।
ऐसा नहीं कि जिन्होंने जाना, नहीं कहा है; खूब कहा है, बार-बार कहा है, हजार
बार कहा है; फिर भी अनुभव किया है, जो
कहना चाहते थे, वही नहीं कहा जा पाया है। जो कहा है, बहुत छोटा है; जो कहना चाहते थे, बहुत बड़ा है।
रवींद्रनाथ मरणशैया पर थे। एक मित्र ने कहा, "तुम धन्यभागी हो, तुम्हें जो गाना था गा लिया,
कहना था कह लिया। तुमने छह हजार गीत रचे हैं। तुम महाकवि हो! तुम तो
शांति से, तृप्ति से मृत्यु में विदा हो सकते हो'! रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा, "तृप्ति!
तृप्ति कैसी? जो कहना चाहता था, अभी भी
अनकहा रह गया है; जो गाना चाहता था अभी गा कहां पाया! यही
परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि यह तूने क्या किया! कैसे असमय में उठा रहा है
मुझे! अभी तो वाद्य बिठा पाया था, साज जमा पाया था। अभी तो
गीत जो गाना था, अनगाया रह गया है। अभी फूल खिले नहीं,
अभी तो सिर्फ भूमि तैयार हुई थी। बाहर के लोगों ने तो यही समझ लिया
कि वाद्य का बिठाना, तबले की ठोंक-पीट, सितार के तारों का जमाना, यही संगीत है'।
अगर कोई कवि कहता हो कि जो गाना था गा लिया है तो समझना कवि छोटा है; गाने को बहुत कुछ होगी ही न, इसलिए गा लिया। अगर कोई
चित्रकार कहे कि जो चित्रित करना था कर
लिया है, तो समझना कि चित्रित करने को कुछ बहुत ज्यादा न रहा
होगा; आंगन ही बनाना था, आकाश नहीं।
सिर्फ छोटे क्षुद्र अनुभव की प्रगट होते हैं। जितना विराट अनुभठ हो, उतना ही अप्रगट रह जाता है; जितना हो विराट, उतना ही अनिर्वचनीय हो जाता है। अनिर्वचनीयता विरटता के अनुपात में होती
है।
इसलिए बुद्ध ने कहा है कि "तुम सोचते हो, मैं बोला? बोलने की कोशिश की--बोला कहां'! बुद्ध के भक्त--जापान में कहते हैं झेन फकीर--कि बुद्ध बोले ही नहीं। और
बुद्ध बोले ही नहीं। और बुद्ध चालिस साल निरंतर बोले!
यही मैं तुमसे कहता हूं, "रोज तुम मुझे
सुनते हो, मैं बोला नहीं। जो बोलना है, बोला नहीं जा सकता। अनिर्वचतीय है। जो बोल रहा हूं, वह
वही है जो बोला जा सकता है; वह वही नहीं है जो मैं बोलना
चाहता हूं। मेरे बोलने को तुम मेरी आकांक्षा, अभीप्सा,
अभिलाषा मत समझ लेना। मेरा बोलना शब्द की सीमा में है--होगा ही;
कोई उपाय नहीं है'।
शून्य का संगीत बजाना हो तो वीणा के तार कैसे उठाओगे? तार को ध्वनि करेगा। शून्य तो ध्वनि में खो जाएगा। शून्य का संगीत उठाना
हो तो वीणा तोड़ देनी पड़ेगी। शून्य का संगीत उठाना हो तो वीणा को अनुपस्थित हो जाना
पड़ेगा। वीणा की मौजूदगी भी बाधा होगी। मौन से ही कहा जा सकता है जो कहना है। लेकिन
मौन तुम न समझ सकोगे।
प्रेम अनिर्वचनीय है। लेकिन प्रेम को जो समझना चाहते हैं, शब्द के अतिरिक्त उनके पास कोई और समझ नहीं; इसलिए
प्रेम पर भी बोलना होता है।
शून्य नहीं होता परिभाषित
रहता मात्र नयन में
मन्वंतर संवत्सर वत्सर
कब बंधते लघु क्षण में?
रहते सभी अनाम, न कोई
कभी पुकारा जाता
रहा जाती अभिव्यक्ति अधूरी
जीवन-शिशु तुतलाता!
सब बोलना तुतलाने जैसा है। बुद्धों के वचन भी तोतले हैं, तुतलाने जैसे हैं। जैसे छोटा बच्चा कुछ कहना चाहता है, बड़े भाव से भरा है, पर शब्द नहीं है। शब्दों की भी
कुछ खोज-बीन कर ले थोड़ी-बहुत, तो बड़े थोड़े से शब्द हैं। कहना
चाहता है बड़ी बातें, लेकिन एक ही शब्द जानता है: "मां'!
"मां'! उसी से सब कहना है। भूख लगे तो
मां-मां, प्यास लगे तो मां-मां; धूप
लगे तो मां-मां, शीत लगे तो मां-मां। एक ही शब्द है, उसी से सब कहना है।
शब्द बड़े थोड़े हैं; कहने को बड़ा विराट है। और प्रेम
विराट से भी विराटतर है। प्रेम महाशून्य है। प्रेम का अर्थ ही है, जहां तुम मिट जाओ, जहां तुम्हारी खबर न मिले;
ऐसी जगह आ जाओ जहां अपने को भी खोजने से खोज न सको।
प्रेम का अर्थ है, जहां तुम मिट जाओ। प्रेम
महामृत्यु है। तुम जहां शून्य हो जाते हो वहीं परमात्मा प्रगट होता है, अपने अनंत रूपों में। जहां तुम खो जाते हो, वहीं उसकी
वीणा बज उठती है; अनंत स्वर-संगीत तुम्हें घेर लेते हैं।
लेकिन तुम बचते नहीं, कहनेवाला नहीं बचता। पहली बात: भाषा
छोटी है, संकुचित--थोड़े से शब्द, बच्चे
के तुतलाने जैसे। फिर दूसरी बात: प्रेम को जानने वाला, जानने
में खो जाता है, पिघल जाता है, बह जाता
है; बोलनेवाला बचता नहीं। जब बोलने योग्य कुछ होता है जीवन
में तो बोलनेवाला नहीं बचता। जब तक बोलने वाला होता है जीवन में तो कुछ बोलने
योग्य नहीं होता।
तुम कितना बोलते हो! कभी सोचा? सुबह से सांझ तक
बोलते ही रहते हो। कभी विचारा, बोलने को क्या है? रात नींद में भी बड़बड़ाते हो, बोले ही चले जाते हो।
कभी ठहरो! क्षणभर को ठिठको! कभी रुककर सोचो! लौटकर देखो, बोलने
को क्या है? बोलने को कुछ भी नहीं। मगर बोल-बोलकर ऐसा आभास
कर लेते हो कि जैसे बोलने को बहुत कुछ था। कहानी कह-कहकर आभास कर लेते हो कि कहने
का कहानी थी। ऐसे झूठी संपदा का भ्रम पैदा होता है। गा-गाकर समझा लेते हो कि गीत
पैदा हुआ था, गायक का जन्म हुआ था। बिना जाने, स्वरत्ताल का कोई अनुभव नहीं; लेकिन ठोंकते-पीटते
रहते हो वीणा को, शोरगुल होता है। निश्चित ही; उसी शोरगुल को संगीत समझ लेते हो। जब संगीत पैदा होता है तो हाथ रुकने लगते
हैं, वीणा छेड़ने में भी डरते हैं।
जितनी होती है गहरी समझ, उतना ही मौन प्रगाढ़
होने लगता है। फिर अगर तुम बोलते भी हो, जानकर बोलते हो,
मजबूरी है; दूसरा समझ न सकेगा मौन को, इसलिए मुखर होते हो। लेकिन एक क्षण को भी यह बात विस्मरण नहीं होती कि जो
पाया है वह कहा न जा सकेगा। क्योंकि कहनेवाला भी शेष नहीं रहा उसी पाने में;
उसे भी, उसी पाने में उसे दे डाला है। उसे
देकर ही पाया है ।
"शून्य नहीं होता परिभाषित!
और प्रेम शून्य है, महाशून्य है'।
दो तरह के शून्य हैं। एक तो गणित का शून्य है; वह किताबों में, कागजों पर, स्लेट-पट्टियों
पर होता है। आदमी न हो तो गणित का शून्य मिट जाएगा, क्योंकि
आदमी न हो तो गणित न होगा। गणित का शून्य भी बड़ा बहुमूल्य है। एक के ऊपर रख दो,
दस बन जाते हैं। दस के ऊपर रख दो, सौ बन जाते
हैं। उस शून्य से सारा गणित निकलता है। सारा गणित शून्य का ही फैलाव है। लेकिन वह
शून्य खो जाएगा; वह मनुष्य निर्मित शून्य है। गणित का शून्य
असली शून्य नहीं है; आदमी न होगा, खो
जाएगा। लेकिन एक और शून्य भी है--असली शून्य--प्रेम का; आदमी
हो या न हो, रहेगा।
जब दो पक्षी भी प्रेम में पड़ते हैं, तो उसी शून्य में उतर
जाते हैं। जब धरती-आकाश प्रेम में डूबते हैं तो उसी शून्य में उतर जात हैं। जब दो
पौधे लहराते हैं प्रेम की तरंग, तो उसी शून्य में उतर जाते
हैं।
प्रेम का शून्य जीवन का शून्य है। गणित का शून्य तो नकारात्मक भाव
रखता है। गणित के शून्य का अर्थ होता है, जहां कुछ भी नहीं,
खाली; यद्यपि उस खाली से सारे गणित का खेल
चलता है। तुम शून्य को हटा लो गणित से, आंकड़े रह जाएंगे,
लेकिन गणित खो जाएगा। सारा विस्तार उसी ना-कुछ का है। लेकिन प्रेम
का शून्य तो विधायक शून्य है। जैसे गणित का सारा विस्तार गणित के शून्य का है,
ऐसे ही जीवन का सारा विस्तार प्रेम के शून्य का है।
तुम पैदा हुए हो--प्रेम की किसी ऊर्जा से। सारे जगत का खेल चलता
है--प्रेम की ऊर्जा से। अब तो वैज्ञानिकों को भी शक होने लगा है कि शायद जिसे वे
गुरुत्वाकर्षण कहते हैं पृथ्वी का, वह पृथ्वी का प्रेम
हो! और जिसे वे ऋण और धन विद्युत का आकर्षण कहते हैं, वह
शायद विद्युतीय प्रेम हो! शायद जिसे वे तारों के बीच का संबंध और जोड़ कहते हैं,
वह भी चुंबकीय प्रेम हो! शायद अणु-परमाणु जिससे गुंथे हैं--टूटकर
छितर नहीं जाते, वह भी प्रेम की ही गांठ हो, वह भी प्रेम का ही गठबंधन हो! होना भी चाहिए, क्योंकि
आदमी कुछ अलग-थलग तो नहीं। आया है इसी विराट से, जाएगा,
इसी विराट में। जहां से आदमी आता है, वहीं से
पौधे आते हैं, वहीं से पत्थर आते हैं। जरूर कोई चीज तो समान
होनी ही चाहिए। स्रोत समान है तो कुछ चीज तो समान होनी ही चाहिए। तभी तो तुम पत्थर
के पास बैठकर भी अजनबी अनुभव नहीं करते। वृक्ष के पास बैठकर भी अपनापन अनुभव करते
हो। सागर भी बुलाता है। हिमालय से भी बात हो जाती है। आकाश को देखते हो तो भी
संबंध बनता है, परिवार मालूम होता है।
अस्तित्व परिवार है। और अगर परिवार को तुम समझो, तो परिवार को जोड़नेवाला सेतु और धागे का नाम ही प्रेम है।
इसलिए जीसस का वचन अनूठा है, जब जीसस ने कहा:
परमात्मा प्रेम है। जीसस ने यह कहा कि परमात्मा को छोड़ दो तो भी चलेगा, प्रेम को मत छोड़ देना। परमात्मा को भूल जाओ, कुछ
हर्जा न होगा; प्रेम को मत भूल जाना। प्रेम है तो परमात्मा
हो ही जाएगा। और अगर प्रेम नहीं है तो परमात्मा पत्थर की तरह मंदिरों में पड़ा रह
जाएगा, मुर्दा, लाश होगी उसकी, उससे जीवन खो जाएगा।
भक्ति का सारा सूत्र प्रेम है। और प्रेम से सब निकला है--पदार्थ ही
नहीं, परमात्मा भी। परमात्मा प्रेम की आत्यंतिक नियति
है--अंतिम खिलावट! आखिरी ऊंचाई! संगीत की आखिरी छलांग! परमात्मा प्रेम का ही सघन
रूप है। प्रेम को समझा तो परमात्मा को समझा। प्रेम को न समझ पाए तो परमात्मा से
चूक हो जाएगी।
इसलिए भक्ति का शास्त्र बड़ा अनूठा है। भक्ति का शास्त्र संसार के
विरोध में नहीं है। भक्त्ति का शास्त्र कहता है, संसार में प्रेम को
खोजना, क्योंकि उन्हीं चरणचिह्नों के सहारे तुम परमात्मा तक
पहंच पाओगे।
हां, एक दृष्टि का रूपांतरण चाहिए। अपने बेटे को प्रेम
करना, अपने बेटे की तरह नहीं। वहीं भूल हो जाती है। अपने
बेटे को भी प्रेम करना--परमात्मा के एक रूप की तरह। वहीं भूल मिट जाती है। वहीं
उलझन छूट जाती है। प्रेम जिसको भी करना, उसमें परमात्मा
देखना। और प्रेम से शुरुआत होती है। प्रेम के अभाव में, परमात्मा
कोरी लफ्फाजी है, शाब्दिक जाल है, तर्क
का ऊहापोह है, वाद-विवाद है--सार कुछ भी नहीं।
इसलिए तुम पाओगे बहुतों को, पंडितों को, परमात्मा की चर्चा करते; लेकिन अगर उनकी आंख में
तुम्हें प्रेम की किरण न मिले तो समझ लेना, सब धोखा है,
सब पाखंड है। प्रेम की किरण हो आंख में तो चर्चा कोई भी चलती हो,
परमात्मा की ही चर्चा है। चाहे कोई यह भी कहता हो कि परमात्मा नहीं
है--जैसे बुद्ध ने कहा, "कोई परमात्मा नहीं'--लेकिन बुद्ध धोखा थोड़े दे पाएंगे। किसको धोखा देने का सोचा है बुद्ध ने।
बुद्ध पड़ जाएं धोखे में, पड़ जाएं; बाकी,
कोई जाननेवाला क्या धोखे में पड़ेगा! बुद्ध की आंख कहती है जो बुद्ध
के वचन इनकार करते हों। और बुद्ध शायद इसीलिए इनकार कर रहे हैं कि मुंह से कहने से
क्या होगा, अगर आंख में तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता! और आंख में
दिखाई पड़ता हो तो मुंह कुछ भी कहता हो, तुम देख ही लोगे।
वह शायद कसौटी थी। वह शायद, जो उनके पास आते थे,
उनकी परीक्षा थी। जो परीक्षा में पर उतर गए, उन्होंने
बुद्ध के द्वार से--उस गुरुद्वारे में--सब कुछ पा लिया। स्वभावतः बुद्ध कहते रहे
कि भगवान नहीं है, और जिन्होंने बुद्ध को जाना, उन्होंने कहा, "तुम भगवान हो'! धोखा किसे दे सकते हो?
शून्य नहीं होता परिभाषित
रहता मात्र नयन में मन्वंतर संवत्सर, वत्सर
कब बंधते लघु क्षण में?
रहते सभी अनाम, न कोई
कभी पुकारा जाता
रह जाती अभिव्यक्ति अधूरी
जीवन-शिशु तुतलाता!
हमारे श्रेष्ठतम व्याख्याकार भी तुतला रहे हैं। हमारे श्रेष्ठतम
दार्शनिक और मनीषि भी तुतला रहे हैं। मगर उनकी करुणा है कि उसे कहने की कोशिश करते
हैं, जो नहीं कहा जा सकता। और तुम्हारी भूल होगी कि उन्होंने
जो कहा है, तुम उसे वही समझ लो कि वही सत्य है। उनकी करुणा
है, इसलिए कहते हैं; तुम्हारा अज्ञान
होगा अगर तुम उसे पकड़ लो।
जिन्होंने वेद की ऋचाएं गाईं, उनकी महाकरुणा है;
वे न गाते तो मनुष्यता वंचित रह जाती; वे न
गाते तो मनुष्य दरिद्र होता, वे न गाते तो मनुष्य की चेतना
इतनी समृद्ध न होती जितनी आज है। लेकिन तुम्हारी भूल होगी कि तुम उन ऋचाओं को
पकड़कर बैठ जाओ और तुम समझो कि ऋचाओं में सत्य है या कि ऋचाएं सत्य हैं।
इसलिए तो नारद ने कहा: भक्त सर्वथा वेद का त्याग कर देता है। वेद से
मतलब सिर्फ चार वेदों से नहीं है। वेद से मतलब उन सभी शास्त्रों का है जिनमें
महाकरुणावान पुरुषों ने अपने अनुभव को परिभाषित करने की असफल चेष्टा की है। असफल
इसलिए भी हो जाती है चेष्टा कि जब तुम परमात्मा से के पास पहुंचते हो--तुमने जो
मांगा था उससे अनंतगुना मिलना शुरू होता है; तुम्हारी झोली छोटी
पड़ जाती है।
एक रूप मांगा था, तुमने
यह सारा संसार दे दिया!
छोटी-सी पुतली के पट पर
किस-किस का प्रतिबिंब उतारूं
भीड़ खड़ी है सन्मुख मेरे
किसे छोड़ दूं, किसे पुकारूं
एक कली मांगी थी, तुमने
अपना हार उतार दे दिया!
एक राग मांगा था, तुमने
अपना उठा सितार दे दिया!
एक रंग मांगा था, तुमने
सुरधनु का उपहार दे दिया!
झोली छोटी पड़ जाती है। मांगनेवाले का हृदय छोटा पड़ जाता है। जैसे बूंद
में सागर उतर आए, तो जो दशा बूंद की हो जाए, वही
भक्त की हो जाती है।
"अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्!'
प्रेम का स्वरूप व्याख्या के, वर्चन के बाहर है।
"प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है'।
अनिर्वचनीयता बहुरंगी है, बहुमुखी है, बहुआयामी है। परमात्मा का जब उदघोष होता है तो तुम सुनते हो, परमात्मा बोलता नहीं। तुम भर जाते हो संगीत से, और
उसकी वीणा मौन रही आती है। रहस्यपूर्ण है अनुभव।
कभी-कभी तुम्हें अनुभव होगा किसी "महानुभाव' की छाया में: सदगुरु चुप होगा और अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम भरने लगे;
उसने कुछ दिया नहीं प्रगट, अप्रगट में कुछ
उंडल आया; उसने कुछ तुम्हारे हाथों में दिया नहीं--सीधा-साफ,
रूपरेखा में आबद्ध--और तुम्हारे हाथ अचानक भर गए।
परमात्मा प्रसाद देता नहीं--तुम्हें मिलता है। दे, तो प्रगट करना आसान हो जाए। बिना दिए मिलता है। बोले, सुना हो, तो दूसरे को भी सुनाना आसान हो जाए।
शून्य से आती है--प्रतीति, अहसास, लहर! मस्ती की तरह तुम्हें घेर लेता है! शब्दों की तरह नहीं, शास्त्रों की तरह नहीं--शराब की तरह तुम्हें भर देता है। तुम तुम नहीं रह
जाते, सब कुछ बदल जाता है;लेकिन कोई
हाथ देते हुए मालूम नहीं पड़ते; कोईवीणा बोलती हुई मालूम नहीं
पड़ती। सुना जाता है; इलहाम होता है; उदघोषणा
होती है। स्रोत का पता नहीं चलता।
तुम चकित, अवाक, रहस्यपूरित रह जाते हो।
उस घड़ी में, हृदय भी रुक जाता है; मन
की तो बात ही न करो। विचार ठिठक जाते हैं। सोच-विचार की सारी क्षमता खो जाती है।
तुम पहली दफा निर्बोध शिशु की भांति हो जाते हो! कोरे कागज!
गोशे-मुश्ताक की क्या बात है अल्लाह अल्लाह
सुन रहा हूं में वो नग्मा जो अभी साज में हैं।
उत्कंठित कानों की क्या बात कहें! वह गीत जो अभी गाय नहीं गया, जो फूल अभी फूला नहीं, जो बीज अभी टूटा नहीं...।
"सुन रहा हूं मैं वो नग्मा जो अभी साज में है'!
अभी साज के बाहर नहीं आया, अभी रूप नहीं
लिया--अरूप, मौन! देख रहा हूं उसे जिसने अभी आकार नहीं लिया!
मिलन हो रहा है उससे जो अभी जन्मा नहीं। फिर कैसे अभिव्यक्ति होगी, फिर कैसे अभिव्यंजना होगी?
"अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्!'
"गूंगे के स्वाद की तरह!'
"मूकास्वादमवत्'।
नारद के इस सूत्र को फिर भक्त हजारों तरह से गाते रहे हैं। कबीर कहते
हैं: गूंगे केरी सरकरा! "गंगे का गुड़' तो लोकाक्ति बन गया।
मगर जन्म हुआ है इसी सूत्र से।
"मूकास्वादमवत्! गूंगे के स्वाद की तरह'!
गूंगे के स्वाद को समझें।
गूंगे को कोई अड़चन स्वाद लेने में नहीं है--स्वाद की पूछना मत। स्वाद
लेने में गूंगा उतना ही समर्थ है, जितना कोई और; क्योंकि स्वाद की इंद्रिय गूंगे के पास उतनी ही है जितनी तुम्हारे पास!
इंद्रिय एक ही है स्वाद की और वाणी की--जिह्वा। इसलिए यह सूत्र पैदा हुआ।
जीभ ही स्वाद लेती है, जीभ ही बोलती है। अब
सवाल यह है: जब जीभ ही स्वाद लेती है तो बोलने में दिक्कत क्या? जीभ ने ही स्वाद लिया है, बोल दे! किसी और ने लिया
होता और हम जीभ से पूछते तो अड़चन हो सकती थी। अब जब तुमने ही स्वाद लिया है तो बोल
दो। इसलिए यह सूत्र पैदा हुआ, कि माना, जीभ स्वाद लेती है; लेकिन जीभ के पास दो क्षमताएं
अलग-अलग हैं। इसलिए गूंगा बोल तो नहीं सकता, स्वाद तो ले
सकता है। इसलिए बोलने की क्षमता और स्वाद की क्षमता को एक मत मानना; वे अलग-अलग हैं। गूंगा बोल नहीं सकता, स्वाद ले
सकताहै। तुम बोल भी सकते हो, स्वाद भी ले सकते हो; एक ही जीभ से दोनों काम होते हैं, लेकिन दोनों का
कहीं मिलन नहीं होता। नहीं तो गूंगा भी स्वाद न ले सकता। अगर बोलने के कारण गूंगे
की जीभ खराब हो गई है, बोल नहीं सकता, तो
स्वाद कैसे होगा? पर स्वाद तो बड़े मजे से लेता है। संभावना
इस बात की है कि गूंगा तुमसे ज्यादा बेहतर स्वाद लेता हो, क्योंकि
बोलने की भी अड़चन वहां नहीं है; वहां उसकी जीभ पूरी की पूरी
मुक्त है।
"गूंगे के स्वाद की भांति'।
भक्त अनुभव तो करता है, बोल नहीं पाता।
तार्किक पूछते हैं, जब तुम्हें ही अनुभव हुआ है तो बोल क्यों
नहब देते हो?
पश्चिम के एक वर्तमान विचारक हैं: आर्थर कोएस्लर। सदियों से जो तर्क
दोहराया गया है, वही वे आज भी दोहराते हैं। वे यही कहते हैं बार-बार
कि जो अनुभव किया जा सकता है, वह बोला क्यों नहीं जा सकता?
जब तुमने जान लिया तो जना दो! आखिर अड़चन क्या है?
उनका कहने का अर्थ यह है, समस्त तार्किकों के
कहने का अर्थ यह है कि संतों को कुछ हुआ नहीं, व्यर्थ ही
बकवास है; चूंकि हुआ नहीं है, इसलिए कह
नहीं सकते। मगर कहतेयह हैं कि हुआ बहुत बड़ा है और कह नहीं पा रहे हैं। हुआ ही नहीं
है कुछ।
तार्किक यह कहता है: जो हुआ है, उसे कहोगे क्यों न?
सिर में दर्द होता है, पता चलता है तो तुम कह
देते हो कि कांटे की पीड़ाा है। खुशी होती है, हृदय उत्फुल्ल
होता है तो तुम कह देते हो, प्रसन्न हैं, खुश हैं, बहुत आनंदित हैं। तुम सभी बातें कह देते हो
जो तुम जान पाते हो; यह परमात्मा की बात के संबंध में गूंगे
क्यों हो जाते हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि धोखा दे रहे हो?
जब सभी और ज्ञान अभिव्यक्त हो जाते हैं, तो
यही ज्ञान अनभिव्यक्त क्यों रह जाता है? यह ज्ञान ही न होगा;
या तो तुम धोखा दे रहे हो या खुद धोखे में पड़े हो।
तार्किक का यह प्रश्न है।
नारद का उत्तर है: मूकास्वादमवत्। वे यह कहते हैं, क्या तुम यह कहोगे कि गूंगा बोल नहीं सकता, इसलिए
मिठाई खाए तो मिठास नहीं जानता। यह तो मानना पड़ेगा कि मिठास तो जानता है। तुम
गूंगे के चेहरे को देखकर कह सकते हो जब वह मिठाई खा रहा है। फिर मिर्च खिलाकर देख
लो! बिना बोले गालियां देगा। आंख में पढ़ी जा सकेंगी। बड़बड़ाएगा, बोल न सकेगा। मगर सब तरह से कह देगा कि दोस्ती खत्म!
बोल तो नहीं सकता गूंगा, यह साफ है, लेकिन समझ लेता है। मिर्च का धोखा न दे पाओगे। मिठाई दोगे तो मिठास होगी;
मिर्च दोगे तो तिक्त...उत्तेजना होगी, पीड़ा
होगी! पर गूंगा बोल नहीं सकता। इशारे करेगा। प्यास लगती है तो गूंगा अंजलि बढ़ा
देगा दोनों हाथों की। प्यास का तो अनुभव हो रहा है, लेकिन
प्यास को वह कह नहीं पाता है। हाथ बढ़ाता है, अंजलि भरता है।
फिर जब तुम पानी दे दोगे तो तुम तृप्ति भी लिखी हुई उसके चेहरे पर देखोगे--धन्यवाद
भी!
तो जब गूंगे के जीवन में ऐसा हो जाता है, तो जिस बात की सुविधा तुम गूंगे को देते हो, कम से
कम उतनी सुविधा तो संतों को दे दो--इतनी ही नारद कहते हैं। इतना तो तुम गूंगे को
भी क्षमा कर देते हो, भक्तों को इतनी तो क्षमा कर दो । इतना
तो संदेह मत करो कि इनको हुआ ही न होगा, इसलिए कह नहीं पाते
हैं।
फिर एकाध भक्त की बात होती कि धोखा दे रहा था तो भी ठीक था, अनंत काल में अनंत भक्त हुए हैं, सभी धोखा दे रहे थे?
तुम्हारी गांलियां खाने को? सूली चढ़ाई जाए,
जहर पिलाया जाए, पत्थर मारे जाएं--इसलिए?
तुमसे मिला क्या है? धोखा आदमी देता है वहां
जहां कुछ मिलता हो। जीसस सको मिला क्या?
सूली मिली। सूली पाने को तुम्हें धोखा दे रहे थे? सुकरात को मिला क्या? जहर मिला। जहर पीने के लिए तुम्हें
धोखा दे रहे थे? मंसूर को मिला क्या? फांसी
मिली। फांसी पाने के लिए तुम्हें धोखा दे रहे थे? आत्महत्या
ही कर ली होती, तुम्हें इतना कष्ट देने की क्या जरूरत थी?
तुमने दिया क्या है भक्तों को जो तुम्हें धोखा दे? धोखा तो बाजार में चलता है जहां कुछ मिलने की आशा हो।
परमात्मा...उस परम का गुह्य अनुभव! पीड़ा भला लाता हो, संसारी की नजरों में यह खयाल भला लाता हो कि तुम पागल हुए, उन्मत्त हुए, तुमने होश गंवाया, समझ खोई, लोक-लाज खोई--और तो क्या मिलता है? निंदा मिलती हो, उपेक्षा मिलती हो, लोगों की हंसी मिलती हो, मसखरे मिलते हों--और क्या
मिलता है? धोखा किसलिए? फिर एकाध कोई
धोखा देता...। निरपवाद रूप से असंख्य काल में, असंख्य लोगों
ने धोखा दिया है? फिर से सोचो। फिर ऐसा करो...कोएस्लर को
उसके ही अनुभव से समझाना उचित है।
किसी से प्रेम हो जाता है, तब तुम ठीक-ठीक बता
पाओगे किसलिए हो गया? क्या तुम ठीक-ठीक बता पाओगे, प्रेम क्या है? छोड़ो परमात्मा को, प्रेम तो सभी को होता है। हर मां को प्रेम होता है अपने बच्चे से; कौन मां अब तक व्याख्या कर सकी कि प्रेम क्या है! पूछो प्रेम की बात,
गूंगी हो जाती है। इतने प्रेमी हुए--मजनूं हो कि फरिहाद हो, हीर-रांझा हो--पूछो प्रेमियों से, "क्या है
प्रेम?' ठिठककर खड़े रह जाते हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते
हैं। कोई उत्तर नहीं आता। पर शायद प्रेमी भी पागल होंगे।
फिर अपने जीवन में कुछ ऐसे अनुभव खोजो जो तुम्हें होते हैं और तुम्हीं
नहीं कह पाते। रात पूर्णिमा का चांद निकला है; गद गद अहोभाव से
तुमने कहा है, "सुंदर है!' और
पड़ोसी कहता है, "कहां, क्या है
सौंदर्य, बताओ? इसमें क्या सुंदर है'?
अचानक तुम हारे, असफल हो जाते हो। अचानक लगता
है, सीमा आ गई। तर्क से समझा न सकोगे। कैसे सिद्ध करोगे कि
चांद सुंदर है? है तो है; और अगर किसी
को नहीं है तो नहीं है। अचानक विवश हो गए। अचानक अभिव्यक्ति सार्थक न रही। अब तुम
लाख समझाने का उपाय करो, तुम जानते हो कि समझा न सकोगे।
सौंदर्य एक प्रतीति है--गूंगे का गुड़ है। हो अनुभव तो ठीक, दूसरा राजी हो जाए तो ठीक; बिना झंझट किए; अगर उसे भी स्वाद आ जाए तो ठीक। अगर वह भी सिर हिला दे गूंगे की तरह कि
ठीक! लेकिन अगर खड़ा हो जाए तर्क करने कि क्या सौंदर्य, तो
तुम सुंदरतम स्त्री में भी सिद्ध न कर सकोगे कि सुंदर है। क्या सिद्ध करोगे?
नाक की लंबाई से सौंदर्य का कोई लेना-देना है? कैसे सिद्ध करोगे, आंखें मछलियों की तरह हैं?
इससे क्या सिद्ध होता है? होंगी मछलियों की
तरह, सौंदर्य का क्या लेना-देना है? किसने
कहा पहले कि मछलियां सुंदर हैं? कि होंगे बाल काली घटाओं की
तरह; पर काली घटाएं सुंदर हैं, यह
तुमसे किसने कहा? जिनको कड़वे अनुभव हुए हैं, वे कहेंगे: कभी नागिन की भांति! कहां की काली घटाएं? सपनों में खोए हो। जमीन पर आओ! अनुभव की बात करो! ये सब कविताएं हैं।
सिद्ध न कर सकोगे। कोई उपाय नहीं है सिद्ध करने का।
मजनूं को उसके गांव के राजा ने बुला भेजा था और कहा था, "तू पागलपन बंद कर। यह लैला, जिसके पीछे तू दिवाना है;
तेरी दीवानगी सुनकर हमको भी खयाल हुआ था कि देख लें; देखी हमने, काली-कलूटी साधारण-सी स्त्री। तुझ पर दया
आती है--दौड़ता रहता है गांव की सड़कों पर, लैला-लैला पुकारता
रहता है'।
दया सभी को आने लगी होगी। सम्राट ने अपने महल से दस-बारह सुंदर
स्त्रियां लाकर खड़ी कर दीं कि इनमें से तू चुन ले कोई भी। लेकिन मजनूं ने उस तरफ
देखा और कहने लगा, "लेकिन लैला कहां है? इनमें
कोई लैला नहीं है'। सम्राट ने कहा, "मैंने लैला देखी है। तू दीवाना है, पागल है'। मजनूं हंसने लगा। उसने कहा कि "मजनूं की आंख के बिना तुम लैला देख
कैसे सकोगे? मजनूं की आंख चाहिए लैला देखने को'।
भक्त की आंख चाहिए भगवान को देखने को। सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं
है। भक्त ही नहीं हार जाते, मजनूं भी हार जाता है। वह क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है कि मेरी आंख से देखोगे तो ही...। वह सौंदर्य कुछ ऐसा है
कि उसके लिए खास आंख चाहिए--एक दृष्टि चाहिए!
तुम अपने जीवन में ऐसे अनुभव खोज सकोगे निश्चित ही। कई बार तुम्हें
प्रतीति हुई होगी कि दूसरा राजी नहीं हुआ और तुम हार गए, कुछ उपाय न रहा कहने का, अचानक तुमने बात वापस ले ली,
विवाद में कोई सार न था। क्या थी अड़चन?...गूंगे
का गुड़! तुम्हारा अनुभव था, दूसरे का अनुभव नहीं था; तालमेल न हो सका।
कोएस्लर को भी ऐसे अनुभव निश्चित हुए होंगे, क्योंकि इतना दीन-हीन मनुष्य खोजना मुश्किल है जिसे ऐसा एक भी अनुभव न हुआ
हो, जहां शब्द सार्थक नहीं होते। कोएस्लर तो बड़ा विचारशील
व्यक्ति है, बहुत अनुभव हुए होंगे--प्रेम के, सौंदर्य के, सत्य के, शुभ के,
शिवम के--जहां भाषा एकदम टूट जाती है। और अगर तुम दूसरों को इतनी
सुविधा देते हो तो नारद को भी इतनी सुविधा दो।
..."गूंगे के स्वाद की तरह है'।
मश्वरे होते हैं शेखों-बिरहमन में "जिगर',
रिन्द सुन लेते हैं बैठे हुए मैखाने में।
वे जो पंडितों में चर्चाएं चल रही हैं, उनके लिए शराबियों को
सुनने आने की जरूरत नहीं है। रिन्द सुन लेते हैं बैठे हुए मैखाने में! वे जो
परमात्मा के संबंध में मश्वरे हो रहे हैं, विवाद हो रहे हैं,
इस सबको सुनने उनको मंदिरों और मस्जिदों में आने की जरूरत नहीं
है--अपनी मस्ती में डूबे हुए वहीं सुन लेते हैं। खुद परमात्मा को ही सुन लेते हैं,
पंडितों और मौलवियों के मश्वरों की किसको फिक्र।
भक्त यानी रिंद। भक्त यानी पियक्कड़। भक्त यानी जिसे शब्द से लेना-देना
नहीं है, जो मधुशाला में बैठा है। भक्त यानी अनुभव की प्याली
को जो उतार गया, अनुभव को पी गया।
लागी कैसी लगन
मीरा हो के मगन
गली-गली हरि-गीत गाने लगी
जो भी महलों पली
जोगनी बनी, जोगन चली
आज रानी दीवानी कहाने लगी,
...पागल हो गई दूसरों की नजरों में। कुछ पी बैठी! कोई
नशा छा गया! कोई मस्ती इतनी बड़ी कि लोक-लाज की चिंता न रही। कुछ ऐसा बड़ा अनुभव कि
सारा संसार स्वप्नवत मालूम हुआ।
"प्रकाशते क्वापि पात्रे'।
"किसी विरले पात्र में ऐसे प्रेम प्रगट भी होता है'।
...अनिर्वचनीय है। कहा नहीं जा सकता। गूंगे के स्वाद की
भांति है। फिर भी नारद कहते हैं, किसी विरले पात्र में,
प्रेमी भक्त्त में ऐसा प्रगट भी होता है। अभिव्यक्त तो नहीं होता,
प्रगट होता है। उसके रोएं-रोएं में पुलक होती है। उसके उठने-बैठने
में प्रार्थना होती है। उसकी आंखों की पलकों के झपने में, उसके
होने के ढंग में, उसके बोलने में या न बोलने में, उसके चुप रहने में--परमात्मा की भनक आती है।
"प्रकाशते क्वापि पात्रे'।
लेकिन कभी-कभी कोई ऐसा महापात्र होता है सौभाग्यशाली कि उसमें
परमात्मा प्रकाशित होता है। इस भेद को समझ लेना--अभिव्यक्त नहीं, प्रकाशित। प्रगट होता है। कोई मीरा, कोई चैतन्य बह
उठते हैं; उनके पात्र के ऊपर से बहने लगता परमात्मा।
वही तो हमने नाच की तरह देखा। वही हमने गीत की तरह सुना। लेकिन उसके
लिए भी तुम्हारे पास हृदय का खुला हुआ द्वार चाहिए, अन्यथा मीरा पागल
मालूम हागी। जहां परमात्मा पैदा होता है, अगर तुम्हारे पास
देखने की सम्यक दृष्टि न हो तो पागलपन मालूम होगा।
स्वभावतः पागलपन का इतना ही अर्थ होता है कि तुम जिन्हें जीवन के नियम
मानते हो, उसके विपरीत कुछ हो रहा है; तुम
जिसे मर्यादा मानते हो उससे अन्यथा कुछ हो रहा है; तुमने
जिसे ढांचा बना रखा था अपनी व्यवस्था का, उसके पार कोई चला
गया, सीमा के बाहर जा रहा है। तुम पागल तभी कहते हो किसी को
जब तुम्हारी जीवन-व्यवस्था उसकी मौजूदगी से डगमगाने लगती है--या तो वह सही है या
तुम सही हो। स्वभावतः तुम्हारी भीड़ है। इसलिए तुम अपने को ही सही मानने के लिए
सुविधा जुटा लेते हो। वह अकेला है। मीरा अकेली है। चैतन्य अकेला है। तुम उसे पागल
कहोगे तो भी मीरा के पास कोई उपाय नहीं है सिद्ध करने का कि वह पागल नहीं है।
लेकिन ध्यान रखना, उसे पागल कहकर तुम चूके जा रहे हो। उसका
कुछ बिगड़ता नहीं, तुम चूके जो रहे हो। तुम एक अवसर खोये दे
रहे हो।
परमात्मा प्रकाशित हुआ है! आंखों से अपने पक्षपात हटाओ! आंखों से अपनी
क्षुद्र विचारधारा को अलग करो! धुंधलके को हटाओ, व्यर्थ का; क्योंकि उससे कुछ मिला तो नहीं, उसे पकड़े क्यों बैठे
हो? तुम्हारा तर्कजाल, तुम्हारा
शब्दजाल, तुम्हारा विचारजाल--पाया क्या है तुमने उससे?
हाथ तो कुछीी नहीं आया। एक मछली भी तो फांसी नहीं। कोरे के कोरे रह
गए हो। प्यासे के प्यासे रह गए हो। छोड़ो सब उसे!
आंख को पक्षपात-मुक्त करके देखो, तो तुम्हें मीरा में
या चैतन्य में परमात्मा प्रकाशित दिखाई मालूम पड़ेगा।
अभिव्यक्ति तो संभव नहीं है, लेकिन फिर भी उसकी
अभिव्यंजना होती है।
"किसी विरले पात्र में, प्रेमी-भक्त
में, प्रेम प्रगट भी होता है'।
"यह प्रेम गुण-रहित है, कामना-रहित
है, प्रतिक्षण बढ़ता है, विच्छेद-रहित
है, सूक्ष्म से सूक्ष्म है और अनुभवस्वरूप है'।
प्रेम की तैयारी हो, प्रेम के लिए तुम निरंतर
धीरे-धीरे अपने को तैयार करते रहो, तो एक न एक दिन परमात्मा
से मिलन हो जाएगा, क्योंकि प्रेम ही उसकी सीढ़ी है। लेकिन तुम
जिस ढंग का जीवन जीते हो वह प्रेम से विपरीत है। उसमें तुम धन तो इकट्ठा करते हो,
प्रेम नहीं। और अगर विकल्प हो कि धन चुनूं कि प्रेम, तो तुम प्रेम के मुकाबले धन चुन लेते हो; तुम प्रेम
बेच देते हो, धन चुन लेते हो। तुम कहते हो, "प्रेम फिर देख लेंगे, धन तो अभी ले लें'।
तुम्हारे सामने जब भी कोई विकल्प होता है, तुम प्रेम को तो हमेशा बलिदान करते रहते हो; फिर तुम
पूछते हो, "परमात्मा कहां है?' उसकी
सीढ़ी को तो तुम काट-काटकर बाजार में बेचते रहते हो; फिर एक
दिन सीढ़ी टूट जाती है, तुम्हारे और आकाश के बीच कोई संबंध
नहीं रह जाता, तब तुम चिल्लाते हो कि परमात्मा कहां है! तब
तुम्हें डर लगता है। तब उस भय में तुम यह भी कहते हो कि कोई परमात्मा नहीं है,
ताकि यह भरोसा आ जाए कि न कोई परमात्मा है, न
किसी सीढ़ी की जरूरत है, न मुझे कहीं जाना है, मैं जैसा हूं ठीक हूं। ऐसी सांत्वना खोजने के लिए तुम परमात्मा को इनकार
भी करते हो।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने घोषणा की है कि परमात्मा मर गया है। किसी ने पूछा, "यह घोषणा क्यों?' तो नीत्शे ने कहा, "अगर वह जीवित है तो चैन से बैठना संभव न होगा'।
अगर परमात्मा है तो फिर तुम चैन से कैसे बैठोगे? उसे बिना पाए चैन कहां! तो एक ही उपाय है, कह दो कि
है ही नहीं । नास्तिक यही उपाय करता है; वह कहता है, परमात्मा है ही नहीं। वह यह कह रहा है कि कहीं जाने की अब हिम्मत नहीं है,
पैर थक गए हैं, यात्रा करने का और अब उपाय
नहीं है; अगर यह मान लूं कि मंजिल है तो बेचैनी होगी;
यही उचित है, समझा लेता हूं अपने को कि मंजिल
है ही नहीं।
नास्तिक का एक उपाय है परमात्मा से बचने का। और जिसको तुम आस्तिक कहते
हो, उसका भी एक उपाय है परमात्मा से बचने का--वह कहता है, "तुम हो, खोजने का सवाल कहां? मंदिर
में पूजा कर आते हैं, मस्जिद में तुम्हारी प्रार्थना कर लेते
हैं, अब और क्या चाहिए? इतने से राजी
हो जाओ। हर रविवार को चर्च में हो आते हैं। इतना उपकार कुछ तुम पर कम है? राजी हो जाओ। फंदा छोड़ो! हमारा गला छोड़ो'!
तो आस्तिक सस्ते उपाय खोजता है--खिलौने; धर्म के नाम पर
खिलौने! वह जैसे परमात्मा कोई बच्चा हो, असली कार न लाए,
खिलौने की कार ले आए; उसे कहा, "देख, यह कार है, रेलगाड़ी है,
हवाई जहाज है'। परमात्मा जैसे कोई बच्चा हो,
तुम अपने मंदिरों-मस्जिदों से उसे भुलाना चाहते हो। तुम कहते हो,
"देखो, तुम्हारे लिए मंदिर बना दिया,
अब और क्या चाहते हो? तुम्हारी सोने की मूर्ति
बना दी, अब और ज्यादा मांग न करो। अब हमें चैन से जीने दो हम
जहां हैं। अब और न पुकारो। अब और न आह्वान दो। अब और चुनौती न भेजो। हम थक गए हैं'।
मेरे देखे, आस्तिक और नास्तिक में बहुत फर्क नहीं दिखाई पड़ता।
आस्तिक की एक तरकीब है उसी परमात्मा से बचने की, नास्तिक की
भी उसी परमात्मा से बचने की दूसरी तरकीब है। दोनों बच रहे हैं।
धार्मिक आदमी वह है जो कहता है, "तब तक चैन न
लेंगे, जब तक तुम्हें पा न लें। अगर तुम्हें बनाने की,
तुम्हारी सीढ़ी बनाने को सारा जीवन निछावर करना होगा तो करेंगे।
प्रेम के ऊपर सब कुछ गंवा देंगे, लेकिन प्रेम को न गंवाएंगे।
"यह प्रेम गुण-रहित है, कामना-रहित
है, प्रतिक्षण बढ़ता है'।
यह प्रेम की परिभाषा है, लक्षण है। प्रेम
गुण-रहित ही होता है। प्रेम न तो राजसिक होता है, न सात्त्वि
होता है, न तामसिक होता है। प्रेम गुणातीत है। प्रेम संसार
के पार है। प्रेम ऐसे ही संसार के पार है जैसे कमल सागर के पार, सरोवर के पार होता है, दूर खड़ा! उठता है सरोवर से,
उसी कीचड़ से, फिर भी पार होता है--सरोवर-अतीत।
प्रेम ऐसे ही संसार के तीनों गुणों से अतीत है।
...कामना-रहित है। प्रेम की कोई और कामना नहीं है।
प्रेम यह नहीं कहता कि मुझे कुछ दो। प्रेम कहता है, बस प्रेम
काफी है; इसके पार और कोई मांग नहीं है। प्रेम बस प्रेम से
ही तृप्त है। अगर प्रेम ने कुछ और मांगा तो वह प्रेम नहीं, कुछ
और होगा--कामना होगी, वासना होगी, लोभ-मोह
होगा। प्रेम तो बस प्रेम से तृप्त है। प्रेम के पार कोई गंतव्य नहीं है।
...प्रतिक्षण बढ़ता है। जो प्रेम घटने लगे वह काम रहा
होगा। काम प्रतिक्षण घटता है। काम का स्वरूप है: जब तब तक तुम्हें अपना काम-पात्र
न मिले, बढ़ता हुआ माालूम होता है। तुम एक स्त्री को चाहते हो,
वह न मिले तो कामवासना बढ़ती जाती है, उबलने
लगती है, सौ डिग्री पर ज्वर चढ़ जाता है, भाप बनने लगते हो, सारा जीवन दांव पर लगा मालूम पड़ता
है; मिल जाए, उसी दिन से घटना शुरू हो
जाती है।
काम का लक्षण यह है: जब तक न मिले तब तक बढ़ता है; मिल जाए, घटता है। प्रेम का लक्षण यह है: जब तक न
मिले तब तक तुम्हें पता ही नहीं कि बढ़ता क्या है; जब मिलता
है तब बढ़ता है। प्रेमी पात्र जैसे ही मिलता है वैसे ही बढ़ता ही जाता है। प्रेम सदा
दूज का चांद है, पूर्णिमा का चांद कभी होता ही नहीं; बढ़ता ही रहता है; ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जब घटे। इसका
अर्थ यह हुआ कि प्रेम सतत वर्द्धमान, सतत विकासमान है,
सतत गतिमान है, कहीं ठहरता नहीं, प्रवाहरूप है।
..."प्रतिक्षण बढ़ता है, विच्छेद-रहित
है'। डाइवोर्स, विच्छेद कभी होता ही
नहीं। मिलन हुआ--सदा को हुआ। मिलन हुआ--शाश्वत हुआ। जब तक मिलन नहीं हुआ तब तक
विच्छेद है। मिलन होते से फिर कोई विच्छेद नहीं है।
..."सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है'। प्रेम से ज्यादा सूक्ष्म और कुछ भी नहीं।
वैज्ञानिक कहते हैं: परमाणु परम सूक्ष्म है।
एक बड़ी अनूठी घटना इस सदी में घटी, इतिहास में आगे कभी
उसका ठीक-ठीक मूल्यांकन होगा। एक जर्मन विचारक था--विल्हेम रेक, वैज्ञानिक चिंतक, अनूठा चिंतक। जब अणु-ऊर्जा की खोज
चल रही थी, तभी वह प्रेम-ऊर्जा की खोज में लगा था। उस ऊर्जा
को उसने नाम दे रखा था--आर्गन, प्रेम-ऊर्जा। उसका कहना था कि
अणु-ऊर्जा की खोज से भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रेम की ऊर्जा की खोज है; क्योंकि अणु तो पदार्थ का टुकड़ा है, प्रेम हमारी
आत्मा का परम अंश है। स्वभावतः उसने खतरा मोल लिया। जगह-जगह से उसे हटाया गया,
जर्मनी से भगाया गया। जिस मुल्क में गया वहीं से हटाया गया। क्योंकि
प्रेम के खाजी कहीं भी स्वीकृत नहीं हैं। सारा समाज घृणापर जी रहा है, हिंसा पर जी रहा है। लोगों ने समझा, पागल है। अंततः
उसे पागल करार देकर अमरीका में उसे पागलखाने में बंद भी रखा। वह पागलखाने में ही
मरा। यद्यपि अल्बर्ट आइंस्टीन ने उससे मुलाकात की थी, और जब
आइंस्टीन को उसने अपना एक छोटा सा आविष्कार बताया तो आइंस्टीन चकित हो गया था। वह
आविष्कार था, वह कहता था कि इस तरह के यंत्र बनाए जा सकते
हैं जिनमें प्रेम-ऊर्जा संग्रहीत हो सके। और उसका कहना था कि विश्व में अणु की
ऊर्जा से इतना विध्वंस होने के करीब है कि अगर हमने इसके समतुल प्रेम की ऊर्जा न
बनाई तो पृथ्वी नष्ट हो जाएगी।
तो उसने इस तरह के यंत्र बनाए थे। यंत्र कुछ विशेष न थे, कुछ विशिष्ट न थे, कुछ विशिष्ट धातुओं से बनाई हुई
पेटियां थी। उन पेटियों के भीतर मनुष्य को अंधेरे में बिठा दिया जाता है, सब तरफ से बंद। कोई पंद्रह-बीस मिनट शांत बैठने के बाद अचानक ऊर्जा का
प्रवाह शुरू होता है, रोएं-रोएं में एक पुलक छा जाती है,
एक लालिमा आ जाती है; बैठा हुआ साधक भीतर
अनुभव करता है, कुछ घट रहा है; सारे
शरीर में लहरें होने लगती हैं, जिसको योगियों ने कुंडलिनी
कहा है, जिसको तांत्रिकों ने परम संभोग कहा है, वह घड़ी आ जाती है।
जो उसने यंत्र बनाया है वह बड़ा सीधा-सरल है। उसमें ऐसी धातुओं का
उपयोग किया है जिनसे ऊर्जा भीतर की तरफ तो आ जाती है, लेकिन बाहर की तरफ नहीं जा सकती। तो वह पेटी चारों तरफ से ऊर्जा को भीतर
खींचती है और भीतर बैठे व्यक्ति के ऊपर बरसाने लगती है।
वस्तुतः तीस-चालीस मिनट तक अंधेरे में बैठना ध्यान का एक प्रयोग है।
और ध्यान की अवस्था में पेटी की भी कोई जरूरत नहीं, संसार की जीवन-ऊर्जा
तुम पर बरसने लगती है। यह तो भक्तों का बहुत प्राचीन अनुभव है। कहीं कोई जरूरत
नहीं है। कहीं भी तुम बैठ जाओ शांत होकर। प्रेम के लिए द्वार खुला हो, प्रतीक्षा हो--तुम अचानक पाओगे थोड़ी देर के बाद: जैसे-जैसे तुम्हारा मन
शांत होने लगता है, वैसे ही वैसे तरंगें उठने लगती हैं
अलौकिक की, तुम पुलकित होने लगते हो--किसी लहर पर सवार हो गए,
चले किसी दूर की यात्रा पर! यह तो ध्यान का पुराना प्रयोग है।
लेकिन विल्हेम रेक को पागल करार दे दिया। उसकी पेटियों को जालसाजी
करार दे दिया। जालसाजी करार देना आसान हुआ, क्योंकि कोई प्रमाण
क्या है कि इनके भीतर ऐसा होता है? यह प्रेम की ऊर्जा को
तौलने का थर्मामीटर कहां है? इनके भीतर बैठे हुए व्यक्ति
कहते हैं, लेकिन क्या पक्का सबूत है कि उन्होंने भ्रम नहीं
कर लिया खुद ही खड़ा, तीस मिनट चुपचाप बैठे रहकर कोई भ्रम बड़ा
नहीं कर लिया, आत्मसम्मोहन नहीं कर लिया? इनकी बात का भरोसा क्या है? वैज्ञानिक बुद्धि तो
कहती है, प्रमाण चाहिए ठोस। व्यक्ति क्या कहते हैं, यह कोई प्रमाण थोड़े ही है। ठोस प्रमाण चाहिए यंत्र के द्वारा।
अनेक लोगों ने उसकी पेटियों में बैठकर अनुभव किया, लेकिन वह प्रमाण नहीं। उसने अनेक बीमारों को ठीक किया उन पेटियों के भीतर,
क्योंकि वह कहता है, प्रेम की ऊर्जा रोग से
मुक्त करवा देती है, स्वास्थ्य लाती है। पर उसकी कोई सुन न
सका। वह भक्ति का और प्रेम का बड़ा अनूठा प्रयोग कर रहा था।
भक्त सदा से ही इस प्रयोग को करते रहे हैं। वे कहते हैं, तुम्हें चारों तरफ से प्रेम ने घेरा हुआ है। वही परमात्मा है। तुम जरा
शांत होकर बैठो। तुम जरा मगन होकर बैठो। तुम जरा चिंता-रहित होकर बैठो। तुम जरा
द्वार खोलकर, ग्राहक होकर बैठो। स्वीकार करने की तैयारी से
बैठो, और वह बरसने लगेगा। इसी ग्राहकता और स्वीकृति का
पुराना नाम प्रार्थना है। प्रार्थना का कुछ और अर्थ नहीं होता। उसका यह मतलब नहीं
कि तुम बड़ा शोरगुल मचाओ, चिल्लाओ परमात्मा को। उस सबसे कोई
अर्थ नहीं है। हृदय खुला हो, तुमने पात्र उसके सामने कर दिया
है, तुम प्रतीक्षारत, धैर्य, शांति से बैठे हो--आएगा! इस आस्था, श्रद्धा से
उतरेगा। उतरता है। उतरा ही हुआ है, तुम्हारा संबंध भर जोड़ने
की बात है।
..."विच्छेद-रहित है, सूक्ष्म
से भी सूक्ष्म है, अनुभवस्वरूप है'।
लेकिन जीवन को तुमने जिस ढांचे में ढाला है, वह प्रेम के विपरीत है। और तुम्हारे तथाकथित धार्मिक तुम्हें प्रेम के
विपरीत ही शिक्षण देते रहते हैं।
सुनो--
जिन नयनों का प्रेम-निमंत्रण
तुमने था ठुकराया
उन नयनों में, सजल स्नेहमय
एक नयन था मेरा।
किसी दिन परमात्मा तुमसे कहेगा--
जिन नयनों का प्रेम-निमंत्रण
तुमने था ठुकराया
उन नयनों में, सजल स्नेहमय
एक नयन था मेरा।
तुम समाधि के भ्रम में खोए
मुडे नहीं पहचाना
यह असंग यदि ताना है तो
संग उसी का बाना
जिन सुमनों में मदिर सुरभिमय
एक सुमन था मेरा।
दिव्य गंध को मात्र वासना
कह कर तुमने टाला
बना सहज को सूली
ऋत का पथ विकृत कर डाला
जिन सपनों का सुरधनु जीवन
तुम्हें लगा छल छाया
उन सपनों में रुचिर रंगमय
एक सपन था मेरा।
तुम अभंग के पीछे भूले
भंगुर की गुरु गरिमा
रटा-रटाया ज्ञान बन गया
चेतन की जड़ सीमा
जिन रत्नों का मंगल कंकण
फेंका कह कर माया
उन रत्नों में ज्योतित चिन्मय
एक रत्न था मेरा।
इस संसार में, परमात्मा सभी जगह समाविष्ट है। फूल से भी उसी ने
पुकारा है, ठुकराकर पीठ फेरकर चले मत जाना, अन्यथा किसी दिन पछताओगे। जहां से भी तुम्हें आकर्षण मिला है, उस आकर्षण में उसका ही आकर्षण छिपा है। तुमने व्याख्या गलत कर ली होगी।
तुम्हारे पंडितों ने तुम्हें कुछ और समझा दिया होगा, भरमा
दिया होगा। तुमने माया, छाया, छल,
भ्रम कहकर पीठ फेर ली होगी। लेकिन वही है। माया भी अगर है तो उसी की
है और अगर छाया भी है तो उसी की है और अगर भ्रम है तो उसने ही दिया है, स्वीकार योग्य है।
भक्त का अर्थ है: जिसने उसे उसकी सर्वांगीणता में स्वीकार किया; जो कहता है, "हम चुनाव न करेंगे। हम कौन?
हम कैसे जानेंगे कि तू कौन है और तू कौन नहीं है? हम कहां रेखा खींचें?'
जड़ और चेतन की रेखा सब आदमी की खींची हुई है। ऐसा कोई जड़ नहीं है
जिसमें चेतन न छिपा हो और ऐसा कोई चेतन नहीं है जो जड़ में आविष्ठ न हो, जड़ में जिसने घर न बनाया हो। चट्टान से चट्टान में भी वही सोया है। चैतन्य
से चैतन्य में भी वही जागा है।
ऐसा अगर तुम्हारे जीवन का दृष्टिकोण हो तो तुम प्रेम के लिए तैयार
बनोगे, पात्र बनोगे।
"इस प्रेम को पाकर प्रेमी प्रेमी को ही देखता है,
प्रेम को ही सुनता है, प्रेम का ही वर्णन करता
है, प्रेम का ही चिंतन करता है, प्रेम
ही प्रेम, प्रेममय हो जाता है'।
फिर वृक्ष नहीं दिखाई पड़ते--वही वृक्षों की हरियाली में दिखाई पड़ता
है! फिर पक्षी नहीं गीत गाते--वही गाता है; पक्षियों के कंठ उधार
लेता है। उसके पास बहुत गीत हैं--बहुत कंण्ठों की जरूरत है! उसके पास बहुत रंग
हैं--इंद्रधनुषों की जरूरत है। उसके पास बहुत रूप हैं, बहुत
आकृतियां बनती हैं, तो भी चुकता नहीं है।
उपनिषद कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण भी निकाल लो तो
पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। इतना विराट अस्तित्व बनता है, बिखरता है; सृष्टि होती है, प्रलय
होती है--लेकिन उसकी क्षमता में कोई कमी नहीं आती।
"इस प्रेम को पाकर प्रेमी प्रेमी को ही देखता है,
प्रेम को ही सुनता है, प्रेम का ही वर्णन करता
है, प्रेम का ही चिंतन करता है'।
सबको हम भूल गए जोशो-जुनूं में लेकिन
इक तिरी याद थी ऐसी जो भुलायी न गई।
प्रेमी पागल हो जाती है, जुनून में आ जाता है,
सब भूल जाता है--"इक तेरी याद थी ऐसी जो भुलाई न गई'! बस एक बात नहीं भूलती। स्वयं को भी भूल जाता है। सब एक बात भुलायी नहीं
भूलती--उस प्रेमी की याद भुलाए नहीं भूलती।
"भक्ति गुण-भेद से तीन प्रकार की होती है, उनमें उत्तर-उत्तर क्रम से पूर्व-पूर्व क्रम की भक्ति कल्याण्कारिणी होती
है'।
ऐसे तो भक्ति एक है। भक्ति यानी प्रेम; ऊर्ध्वमुखी प्रेम।
भक्ति यानी दो व्यक्तियों के बीच का प्रेम नहीं, व्यक्ति और
समष्टि के बीच का प्रेम। भक्ति यानी सर्व के साथ में प्रेम में गिर जाना। भक्ति
यानी सर्व को आलिगंन करने की चेष्टा। और भक्ति यानी सर्व को आमंत्रण, कि मुझे आलिंगन कर ले!
भक्ति तो मूलतः एक है, लेकिन व्यक्तियों के
भेद से तीन प्रकार की हो जाती है, उनकी हम आगे के सूत्रों में
व्याख्या करेंगे।
आज इतना ही।
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