चौदहवां प्रवचन—असहाय हृदय की आह है
प्रार्थना-भक्ति
दिनांक १४ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न-सार
1—भगवान! सामर्थ्य तो कुछ है नहीं और प्यास उठी
अनंत की। मिलन होगा?
2—क्या प्रेम और मृत्यु के बीच कोई आंतरिक संबंध
है?
3—बहुतेरे आपके संन्यासी ध्यान नहीं करते; कहते हैं, समझ काफी है। क्या उनकी यह समझ काफी है?
4—भगवान! मैं आपसे संन्यस्त नहीं हुआ; फिर भी क्या आप मृत्यु के क्षण में मुझे धक्का देने आएंगे?
5—क्यों आप प्रतिदिन प्रवचन के लिए आने पर और फिर
विदा लेते हुए भी हाथ जोड़कर हमें प्रणाम करते हैं?
6—कब किस घड़ी में
संन्यासी शिष्य के भीतर से अपेक्षा का भाव गिर जाता है?
पहला प्रश्न: भगवान! सामर्थ्य तो कुछ है नहीं और
प्यास उठी अनंत की! चल पड़ी हूं डगमगाती, क्या मिलन होगा नहीं?
पूछा है वृद्ध संन्यासिनी सीता ने।
पहली बात: सामर्थ्य से कोई कभी परमात्मा से मिला नहीं। सामर्थ्य तो
अकड़ है। सामर्थ्य ही तो बाधा है। सामर्थ्य यानी अहंकार। सामर्थ्य यानी दावा। दावे
से कभी कोई मिला है? दावे ने कभी प्रेम पाया? दावेदार
तो हार ही गया; पहले ही कदम पर मंजिल चूक गई।
अगर पता है कि सामर्थ्य नहीं है तो मिलन निश्चित है। असहाय अवस्था में
होता है मिलन--जहां तुम्हें लगता है, मेरे किए कुछ भी न
होगा; जहां तुम्हारी हार पूरी-पूरी है; जहां तुम्हें लगता है, मेरे किए होगा कैसे; जहां तुम्हारा अहंकार सब भांति धूल-धूसरित होकर गिर पड़ा है; जहां तुम्हें अपनी तरफ से श्वास लेने की भी सामर्थ्य न रही; यात्रा दूर की बात, जहां उठते भी नहीं बनता; जहां पैर भी उठाना चाहो तो नहीं उठता। जहां ऐसा असहाय भाव तुम्हें घेर
लेता है, वहीं प्रार्थना का जन्म होता है।
प्रार्थना असहाय हृदय की आह है।
परम असामर्थ्य में ही प्रभु को पाने की सामर्थ्य है।
असहाय भाव को गहरा होने दो।
परमात्मा को कोई जीतकर थोड़े ही जीतता है--हारकर जीतता है। वहां हार ही
विजय है। वहां जो अकड़कर गया, उसने अपने ही हाथ अपनी गर्दन काट
ली। वहां जो गर्दन काटकर गया, पहुंच ही गया।
पूछा है: "सामर्थ्य तो कुछ है नहीं और प्यास उठी अनंत की'।
यह भाव शुभ है।
अनंत की प्यास के उठने के लिए अनंत को पाने की सामर्थ्य थोड़े ही
चाहिए। जो सामर्थ्य में आ जाए वह तो अनंत होगा भी नहीं। सामर्थ्य की सीमा में जो
समा जाए, वह शांत ही होगा, अनंत नहीं;
उसकी सीमा होगी, असीम नहीं।
प्यास तुमसे बड़ी है। प्यास इतनी बड़ी है कि तुम उसे अपने भीतर समा न पाओगे, तुम उसमें समा जओगे। तभी प्यास अनंत की प्यास है। अनंत की प्यास भी अनंत
ही है। और परमात्मा को पाने के लिए प्यास काफी है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं चाहिए।
यही भक्ति का सार-सूत्र है।
योग कहता है, प्यास चाहिए, कुछ और भी चाहिए।
भक्ति कहती है, प्यास बस काफी है। बस प्यास चाहिए--इतनी प्यास चाहिए कि तुम प्यास
में खो जाओ; तुम प्यास हो जाओ; तुम्हारे
भीतर कुछ भी न बचे प्यास के अतिरिक्त; बिलखती-रोती प्यास बचे;
शून्य में टकराती, उभरती प्यास बचे; तुम्हें पता ही न चले कि तुम हो। और प्यास ही परमात्मा बन जाती है।
अनंत प्यास अनंत का ही भाग है। और अनंत प्यास को जिसने पा लिया, दूर नहीं है, पहुंच ही गया।
स्वभावतः मन को बड़ा डर लगता है: सामर्थ्य तो बड़ी कम है, न के बराबर है; इतने बड़े को पाना चाहा है, परमात्मा को पाना चाहा है! सिर्फ अहंकारी को इसमें कोई भूल नहीं दिखाई
पड़ती।
मेरे पास दोनों तरह के लोग आ जाते हैं। अहंकारी कहता है,"क्या करूं जिससे
परमात्मा को पा लूं?' जोर उसका करने पर है। जैसे परमात्मा भी
उसके कृत्य का फल होगा! जैसे परमात्मा भी उसकी व्यवस्था में फंसेगा! जाल फेंकना है,
मछली फंसेगी--कैसे जाल फेंकूं। निश्चित ही जाल फेंकने वाला मछली से
बड़ा है। निश्चित ही जाल मछली से बड़ा है। मछली असहाय, फंसेगी।
अगर तुम परमात्मा की तरफ मछुए की तरह गए हो तो भूल हो गई--तुम
परमात्मा की तरफ गए ही नहीं, परमात्मा ने तुम्हें पुकारा ही
नहीं, उसकी प्यास उठी ही नहीं।
एक दूसरे तरह का खोजी है--असली खोजी! वह कहता है कि मेरे किए कुछ भी
नहीं होता! मैं तो हार गया! क्या फिर भी वह मुझे मिलेगा? उसके पैर डगमगाते हैं। जाल फेंकने की बात दूर रही, उसे
अपने अहंकार पर जरा भी भरोसा नहीं होता कि मेरे किए कुछ होगा।
जिस क्षण अहंकार पर भरोसा नहीं होता उसी क्षण अहंकार की मौत होनी शुरू
हो गई।
तुम्हें अपने पर बहुत ज्यादा भरोसा है--वही तुम्हारा अपराध है। वही
पाप है। जिस क्षण तुम्हें अपने पर भरोसा हट जाएगा और तुम देख पाओगे कि मेरे किए
क्या होगा! इतनी छोटी सीमा है मेरी, मेरे जाल क्या हैं?
किसको फांसने चला हूं? जाल में विराट को! अनंत
को! जिस दिन तुम जाल फेंक दोगे, असहाय गिर पड़ोगे पृथ्वी पर,
आंखें आंसुओं से भरी होंगी--मंजिल पूरी हो गई! यह मंजिल कुछ ऐसी
नहीं है कि चलकर जाना पड़ता है; यह मंजिल कुछ ऐसी है कि तुम
गिरो कि पास आ जाती है!
"सामर्थ्य तो कुछ भी नहीं है और प्यास उठी अनंत
की!
चल पड़ी हूं डगमगाती, क्या मिलन होगा नहीं?'
भक्त सदा कंपता रहता है। इसलिए नहीं कि शक है कि परमात्मा है या
नहीं--नहीं वैसा तो कोई संदेह नहीं है--संदेह यह है कि मेरी कोई योग्यता है या
नहीं।
इस भेद को समझना।
अहंकारी चलता है, अगर परमात्मा न फंसे उसके जाल में
तो सोचता है, होगा ही नहीं। अहंकारी यात्रा करता है, व्यवस्था करता है, आयोजन जुटाता है, अगर परमात्मा नहीं पास आता लगता है तो सोचता है, है
ही नहीं, आएगा कहां से! निरहंकारी के पास परमात्मा आता हुआ
नहीं लगता, तो यह सवाल नहीं उठता कि परमात्मा नहीं है--यही
सवाल उठता है कि मैं बहुत छोटा हूं, पात्र नहीं हूं; मैं बहुत सीमित हूं; मैंने जरूरत से ज्यादा की मांग
कर ली है; मैंने ऐसी पुकार को सुन लिया जहां तक उठ पाना मेरे
सामर्थ्य में नहीं है।
लेकिन यहीं समझने की बात है।
तुम्हारे गिरने में ही उसका अवतरण है। तुम्हारे मिटने में ही उसका
होना है। परमात्मा मिला ही हुआ है--तुम गिरो तो! यह मंजिल दूर नहीं है। तुम्हारे
और परमात्मा के बीच फासला नहीं है। अगर कोई फासला है तो वह तुम्हारे दम्भ का है और
अहंकार का है।
बच्चन की कुछ पंक्तियां...बहुत प्यारी हैं:
तुम प्रतीक्षा में हमेशा से खड़े थे
और मैंने ही न देखा
एक सुरभित सांस आती थी कहीं से
धूल से, बनफूल से, नभतारकों से
चांद-सूरज से, गगन-अन्तःकरण से
या कि मेरी ही शिराओं से, रगों से?
इत्र की कुछ शीशियों को खोलते ही
मूंदते ही उम्र मेरी कट गई है।
तुम प्रतीक्षा में हमेशा से खड़े थे
और मैंने ही न देखा!
एक झिलमिल जोत आती थी कहीं से
सरवरों, नद-निर्झरों, सागरों से
बादलों से, बिजलियों की पायलों से
या कि मेरे ही दृगों के दायरों से?
मृतिका के कुछ दियों को जलाते
"ओ' बुझाते उम्र मेरी कट गई
है।
एक हीरक से हृदय में तुम जड़े थे
और मैंने ही न देखा!
तुम प्रतीक्षा में हमेशा से खड़े थे
और मैंने ही न देखा
एक अस्फुट गूंज आती थी कहीं से
मधुकरों से, वनविहंगों के परों से
धन-पवन से, पवसी रिमझिम झरन में
या कि मेरे आंसुओं के सीकरों से?
छंद की बहु श्रृंखलाओं को जोड़ते ही,
तोड़ते ही उम्र मेरी कट गई है
किन्तु ढाई अक्षरों में मुक्ति का गुरू-
मंत्र अभिमत गुनगुनाते तुम पड़े थे
और मैंने ही न देखा!
तुम प्रतीक्षा में हमेशा से खड़े थे
और मैंने ही न देखा!
ढाई अक्षरों में--बस प्रेम के ढाई अक्षरों में सारा शास्त्र है भक्ति
का!
तुम छोड़ो फिक्र परमात्मा की! आए न आए, छोड़ो उत्तरदायित्व
उसी पर! प्यास के अतिरिक्त हमारी सामर्थ्य क्या है? पुकार के
अतिरिक्त हम क्या कर सकेंगे? सुने न सुने, जुम्मेवारी उसकी है। तुम पुकारो भर हृदय से! तुम आंसुओं में कंजूसी मत
करना! तुम रोने में रुकावट मत डालना! तुम्हारी प्रार्थना इधर पूरी हुई कि तुम
अचानक पाओगे: परमात्मा दूर न था, तुममें ही छिपा था। आंसू
आंखों को साफ कर गए--दिखाई पड़ने लगा। प्रार्थना हृदय को झकझोर गई, धूल को उड़ा गई--अनुभव होने लगा।
तुम्हारा होना परमात्मा के होने का हिस्सा है; इसलिए तो प्यास है। अनजान की, अपरिचित की, अज्ञेय की तो प्यास भी कैसे होगी? जिसने कभी
तुम्हारे कंठ को छुआ ही न हो उसकी आकांक्षा भी कैसे जगेगी? कहीं
किसी गहरे तल पर उसने तुम्हारे कंठ को छू ही लिया है। जिसे हमने जाना ही न हो कभी,
जाने-अनजाने, सोये-जागे हमने पहचाना ही न हो
कभी, उसकी पुकार भी कैसे उठेगी? तुम उस
हीरे को खोजने कैसे निकल पड़ोगे, जिस हीरे की झलक ने तुम्हें
आकर्षित न कर लिया हो?
इजिप्त के सूफी कहते हैं, तुम खोजने तभी निकलते
हो जब वह तुमसे पहले तुम्हें खोजने चल पड़ा होता है। तुम उसे पुकारते तभी हो जब
उसने तुम्हें पुकार ही लिया होता है; अन्यथा तुम कैसे
पुकारोगे?
उनका वक्तव्य बिलकुल सही है। वे कहते हैं, परमात्मा तुम्हें जब चुन लेता है, तभी तुम उसे चुनते
हो, उसके पहले तुम चुन ही न सकोगे।
तो मैं सीता को कहूंगा, चली चल--डगमगाते सही!
और चलने का कोई ढंग ही नहीं है, डगमगाते ही चला जा सकता है।
राह बड़ी विराट है! आकाश बहुत बड़ा है, पंख हमारे पास बहुत
छोटे हैं। लेकिन दो छोटे से पंखों से भी तो आकाश पार हुआ जाता है। कोई आकाश जैसे
बड़े पंख थोड़े ही चाहिए; इतने बड़े पंख होते तो उड़ना मुश्किल
हो जाता। आकाश होगा विराट, हमारे पास पंख छोटे सही, हर्ज क्या है!
लाओत्सु ने कहा है, एक-एक कदम से हजारों मील का
रास्ता पार हो जाता है। कदम बड़े छोटे हैं। अगर कोई गणितज्ञ बैठ जाए, हिसाब लगाने लगे--हजारों मील का रास्ता है, एक-एक
कदम उठता है एक बार में--घबड़ा जाएगा, छाती बैठ जाएगी,
हिम्मत ही टूट जाएगी! पर हम जानते हैं, एक-एक
कदम से हजारों मील का रास्त पूरा हो जाता है, और एक-एक बूंद
से सागर भर जाता है। फिर चिन्ता क्या!
भक्त को चिन्ता नहीं है। यही तो भक्ति का चमत्कार है। ज्ञानी चिंतित
है। योगी चिंतित है। क्योंकि इन्तजाम बिठाना है, भार अपना है। भक्त
निश्चिंत है। भक्त कहता है, "हमने पुकार दिया, अब तुम सुन लो! न सुनो, तुम जानो'! आखिर में, भक्त यह कह रहा है कि अगर तुम न मिले तो
तुम्हीं जानो, जिम्मेवारी तुम्हारी है। मिल गए तो तुम्हारी
कृपा, न मिले तो कसूर तुम्हारा है; हम
कर भी क्या सकते थे? पुकार दिया था!
छोटा बच्चा है। पड़ा है अपने झूले में। चिल्ला रहा है। रो रहा है मां
के लिए! क्या करेगा और? आ जाए, मां की अनुकंपा है;
न आए, कठोरता है। लेकिन सारा जिम्मा मां का
है। आए तो भी, उसका प्रसाद! न आए, तो
भी उसकी कठोरता। उस छोटे रोते बच्चे का अपना क्या है, दावा
क्या है?
भक्ति की महिमा है कि सब छोड़ दिया परमात्मा पर। भक्त चुपचाप जिए चला
जाता है, जैसे वह जिलाता है। और भक्त डगमगाते-डगमगाते भी पहुंच
जाता है; और ज्ञानी बड़ी मजबूती से पैर रखते हैं और कहीं नहीं
पहुंच पाते। यह रास्ता मजबूरी से पैर रखने का नहीं है। यहां डगमगाने वाले पहुंचते
हैं।
दूसरा प्रश्न: आप जब भी प्रेम का गीत गाते हैं तब
मृत्यु की महिमा भी बताते हैं, मृत्यु की महिमा
बताने से भी नहीं चूके। क्या प्रेम और मृत्यु के बीच कोई आंतरिक संबंध है?
संबंध ही नहीं, प्रेम और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं,
एक ही घटना के दो नाम हैं; एक ही चीज को देखने
के दो ढेंग हैं, दो दृष्टियां हैं। बहुत मुश्किल होगा
तुम्हें यह समझाना, क्योंकि तुमने तो अकसर उलटा माना है। तुम
तो मृत्यु से बचने को प्रेम की शरण में गए हो। तुमने तो मृत्यु से बचने के लिए
प्रेम की सुरक्षा मांगी है--और प्रेम मृत्यु की गोद में जाने से डरे हो। और मृत्यु
तो प्रेम की ही गोद है। इसलिए तो तुम्हारे जीवन में प्रेम की मांग बहुत है,
प्रेम की वर्षा कभी नहीं होती। चीखते हो, चिल्लाते
हो, रोते हो, बुलाते हो, खोजते हो--लेकिन कहीं तुम्हारे भीतर ऐसा विरोधाभास है कि प्रेम की तुम बात
तो करते हो, लेकिन घटने नहीं देते।
गौर से देखना अपने प्रेम को तो तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाएगी: तुम
प्रेम मांगते भी हो और प्रेम से डरते भी हो। तुमने बहुत गहरे में झांका? प्रेम का बड़ा गहरा भय है! तुम भयभीत हो प्रेम से। ऊपर-ऊपर मांगते भी हो,
भीतर-भीतर डरे भी हो, भागे हुए भी हो। ऊपर-ऊपर
प्रेम की तरफ चलते हो, भीतर-भीतर किसी विपरीत दिशा में कदम
रखते हो। एक कदम प्रेम की तरफ उठाते हो तो एक कदम प्रेम के विपरीत तत्क्षण उठा
लेते हो।
प्रेम में खतरा मालूम होता है, खतरा है। मैं नहीं
कहता कि खतरा नहीं है। बड़ा खतरा है। प्रेम से बड़ा कोई खतरा नहीं है। क्योंकि प्रेम
को अर्थ है: तुम्हें मिटाना होगा। प्रेम का अर्थ है: तुम तुम ही न रह जाओगे: तुम
वही न रह जाओगे जो प्रेम करने के पहले थे; वह तुम्हारी इकाई,
वह अकड़, वह अस्मिता डूबेगी, गलेगी, जलेगी, राख होगी।
तुम्हारे राख हो जाने से ही तो प्रेम का फूल खिलेगा। इसलिए तो भय है।
हम प्रेम की बातें करते हैं, प्रेम के गीत भी गाते
हैं। प्रेम की कहानियां पढ़ते हैं, कहानियां कहते हैं--ये सब
तरकीबें हैं प्रेम से बचने की।
प्रेम का बड़ा प्रगाढ़ भय है। मनस्विदों से पूछो। वे कहते हैं कि प्रेम
का बड़ा प्रगाढ़ भय है। हम प्रेमली से दूर-दूर रहते हैं, फासला बनाकर रहते हैं। इतने करीब नहीं आते कि सीमाएं मिल जाएं और खो जाएं।
इतने पास आने में बड़ा भय लगता है कि फिर लौट सकें न लौट सकें। इसलिए तो हमने बहुत
तरह के इंतजाम कर लिए हैं प्रेम के विपरीत। विवाह भी प्रेम के विपरीत एक इन्तजाम
है, ताकि प्रेम करना न पड़े। तो जाकर विवाह कर लाते हैं एक
स्त्री को या एक पुरुष से विवाह कर लेते हैं। विवाह एक आयोजन है। मां-बाप कर लेते
हैं इन्तजाम। जिनका हो रहा है विवाह, उनसे तो पूछने की जरूरत
ही नहीं होती। ज्योतिषी से पूछते हैं जिसका कोई लेना-देना नहीं है। और सब बातों का
इन्तजाम कर लेते हैं जिनका प्रेम से कोई संबंध नहीं है, कि
कुलीन घर है, कि सम्पन्न घर है, सुसंस्कृ
लोग हैं, जाति-धर्म-कुल क्या है--यह सब पता कर लेते हैं।
इससे प्रेम का कोई भी लेना-देना नहीं है। न तो प्रेम जाति को जानता, न कुल को जानता, न कुलीनता को जानता, न धन को जानता। प्रेम का धन से संबंध क्या है? न रंग
को जानता। हड्डी-मांस-मज्जा से प्रेम का संबंध क्या है? तुम
हिंदू हो कि मुसलमान कि जैन कि ईसाई, प्रेम का लेना-देना
क्या है?
लेकिन विवाह का इन्तजाम किया है--सारी दुनिया में। यह इन्तजाम बड़ी
कुशलता थी। यह इस बात की खबर है कि प्रेम का बड़ा भय है। इसलिए हमने बाल-विवाह किए, क्योंकि इसके पहले कि प्रेम अपना सिर उठाए, विवाह कर
देना जरूरी है। अगर प्रेम एक बार सिर उठा ले तो फिर विवाह कठिन हो जाएगा। और एक
बार प्रेम की धुन पकड़ जाए, दीवानगी आ जाए, तो विवाह बहुत रूखा-सूखा मालूम पड़ेगा। विवाह प्रेम से हो तो समझ में आता
है; हमने उलटी व्यवस्था की: विवाह कर दो और प्रेम करो!
अब प्रेम के साथ एक नियम है कि हो तो हो, न हो तो किया नहीं जा सकता। हां, ढोंग कर सकते हो।
दिखावा कर सकते हो। अपने को समझा लेते हो, दूसरे को समझा
देते हो कि है, सब ठीक है। लेकिन प्रेम हो तो हो, न हो तो न हो।
प्रेम ऐसी घटना है कि परमात्मा की तरफ से है, तुम्हारे हाथ में नहीं है।
तीन घटनाएं परमात्मा के हाथ में हैं--जन्म, प्रेम और मृत्यु। और बाकी घटनाओं का कोई मूल्य नहीं है जो तुम्हारे हाथ
में हैं। तुम किस तरफ की दुकान करते हो, किस दफ्तर में बैठते
हो, किस राजनीतिक पार्टी के सदस्य हो--इन बातों का कोई मूल्य
नहीं है। यह सब बीच का भरावा है। जीवन का सब महत्वपूर्ण परमात्मा के हाथ में है।
परमात्मा यानी समग्र। व्यक्ति के हाथ में नहीं है, समष्टि के
हाथ में है। होता है तो होता है।
प्रेम, इसलिए मैं कहता हूं, जन्म और
मृत्यु का ही हिस्सा है। प्रेम एक मृत्यु है और एक जन्म भी--पुराना मरता है,
नया आविर्भूत होता है; अहंकार गलता है,
आत्मा का आविर्भाव होता है। तो हमने प्रेम के लिए इन्तजाम कर लिए
हैं और धोखे कर दिए हैं। इसलिए दुनिया में इतने लोग प्रेम करते मालूम पड़ते हैं,
लेकिन प्रेम की सुगंध कहां है? जीवन तो
दुर्गंध से भरा है घृणा की, युद्ध और रक्तपात, कलह और वैमनस्य। शत्रुता जीवन का आधार मालूम पड़ती है। तुम जीते ही हो लड़ने
के लिए, जीते ही हो लड़ते हुए। प्रेम के गीत गाते हो--वे गीत
शायद भ्रम हैं। शायद जीवन में जो नहीं मिला, गीत गाकर अपने
को समझा लेते हो। गीतों में भरोसा कर लेते हो।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक अनूठी घटना घट सकती थी, वह घट नहीं पाती। लेकिन इसमें समाज का ही कसूर हो, ऐसा
नहीं है--व्यक्ति डरा है, इसलिए समाज के हाथ में सूत्र दे
दिया है। भय भीतर है। इसलिए मैं जब भी प्रेम की बात करता हूं, मृत्यु की भी बात करता हूं, और जब भी मृत्यु की बात
करता हूं तब प्रेम की भी बात करता हूं। मेरे लिए दोनों एक ही ऊर्जा के ढंग हैं।
तुम समझने की कोशिश करो।
प्रेम में तुम्हारा होना डूबता है, वैसे ही जैसे मृत्यु
में डूबता है। मृत्यु से थोड़ा ज्यादा भी डूबता है, कम नहीं।
क्योंकि मृत्यु में शरीर तो मिट जाता है, मन नहीं मिटता,
अहंकार नहीं मिटता; फिर नया जन्म हो जाता है,
अहंकार का। नयी यात्रा शुरू हो जाती है। सिर्फ वस्त्र बदल लिए जाते
हैं मृत्यु में।
प्रेम बड़ी मृत्यु है मृत्यु से--महामृत्यु है। शरीर तो वही रहता है, मन बदल जाता है, अहंकार गिर जाता है। तुम मिट जाते
हो और किसी नये का जन्म होता है, जो तुमसे अपरिचित है,
जिसे तुमने पहले कभी जाना ही न था। कोई और ही तुम में आविष्ठ हो
जाता है। क्षणभर पहले और क्षणभर बाद में जमीन-आसमान का भेद हो जाता है। तुम्हारी
आंख में किसी और ही ऊर्जा की लहर होती है। तुम्हारे पैर में किसी और ही नृत्य की
गति होती है। तुम्हारे हृदय में किसी और ही गीत की गुनगुन होती है। क्षणभर पहले
जहां रेगिस्तान था, क्षणभर बाद वहां अनंत-अनंत कमल खिल जाते
हैं। यह क्षण में घटता है। यह क्रांति है। यह इतनी बड़ी क्रांति है कि तुम घबड़ाते
हो। यह इतना बड़ा रूपांतरण है कि तुम डरते हो। तुम भी चाहोगे, इसे अगर मात्रा-मात्रा में घटे, अगर कदम-कदम घटे,
थोड़ा-थोड़ा घटे, होमियोपैथी की मात्रा में घटे।
थोड़ा-थोड़ा करके घटे तो तुम भी सोचोगे कि चलो ठीक है। लेकिन यह है आकस्मिक। यह है
क्रांति। इसका कोई क्रमिक हिसाब नहीं है, सीढ़ियां-सीढ़ियां
नहीं घटता, विस्फोट है; इधर पुराना गया,
इधर नये का आविर्भाव हुआ। और दोनों का कहीं मिलन नहीं होता।
जो प्रेम के लिए तैयार है वह परमात्मा के लिए तैयार है।
भक्ति का आधार प्रेम है। भक्ति का संदेश सिर्फ इतना ही है कि अगर
तुम्हारे जीवन में प्रेम घटा; अगर तुमने प्रेम को घटने दिया,
बाधा न डाली; अगर तुमने द्वार दरवाजे बंद न
किए भयभीत होकर; और अगर तुमने प्रेम को आने दिया, तुमने स्वागत किया--तो ज्यादा देर न लगेगी, तुम
प्रेम के पीछे ही परमात्मा की पगध्वनि सुनोगे, उसे आता हुआ
पाओगे। परमात्मा की तुम्हें पूजा करनी पड़ती है, मंदिर-मस्जिद
खोजने पड़ते हैं, क्योंकि तुम प्रेम से चूक गए हो। इसलिए
तुम्हें नकली मंदिर बनाना पड़ता है, नकली मस्जिद बनानी पड़ती
हैं; नहीं तो प्रेम असली मंदिर है; असली
मस्जिद है। प्रेम ही गुरुद्वारा है। बाकी तो सब तरकीबें हैं। असली से चूक गए तो
नकली को बना लेते हो। मन को समझाते हो, बुझाते हो, सांत्वना करते हो।
प्रेम मिटाएगा। प्रेम तुम्हें निखारेगा। प्रेम तुम्हें जलाएगा अग्नि
की तरह। प्रेम की बड़ी पीड़ा है और बड़ा आनंद भी। प्रेम ठीक मृत्यु जैसा है--लेकिन
सिर्फ मृत्यु जैसा नहीं, जीवन जैसा भी है: एक छोर पर मृत्यु घटती है, दूसरे छोर पर जीवन घटता है; इधर पुराना मरा, उधर नया जन्मा; इधर रात गई, सुबह
हुई; इधर तारे ढले, उधर सूरज निकला;
एक द्वार बंद हुआ, दूसरा खुला।
तो तुम प्रेम के लिए सोचते मत रहो--द्वार-दरवाजे खोलो! भयभीत किससे हो? यह शरीर तो जाएगा। तुम इसे बचाकर भी रखो तो भी जाएगा। यह अहंकार
धूल-धूसरित होगा। यह खोपड़ी गिरेगी मिट्टी में। यह तो मरघट बनने ही वाला है। तुम
बचा किसके लिए रहे हो? तुम संभाल किसके लिए रहे हो? यह कृपणता कैसी? इसके पहले कि सब छीन लिया जाए,
बांट दो! फिर तुमसे कोई छीन न सकेगा। इसके पहले कि तुम मिटो,
मिट जाओ! फिर तुम्हें कोई मिटा न सकेगा। इसके पहले कि मौत तुम्हारे
द्वार पर दस्तक दे, तुम प्रेम का आमंत्रण स्वीकार कर लो! फिर
तुम्हारी कोई मौत नहीं है।
अब मैं तुमसे एक विरोधाभासी बात कहूं। मैं कहता हूं, प्रेम मृत्यु है; और मैं तुमसे यह भी कहना चाहूंगा
कि प्रेम में ही पता चलता है अमृत का। प्रेम में ही पता चलता है कि कुछ है
तुम्हारे भीतर जिसकी कोई मृत्यु नहीं। मरकर ही पता चलता है अमृत का। कूड़ा-कर्कट जल
जाता है, सोना बच जाता है। जो मर सकता था, मर जाता है। जो नहीं मर सकता, जो अविनाशी है,
उसका साक्षात्कार हो जाता है।
मनुष्य ने अपने भय के आधार पर प्रतीक चुने हैं। इसलिए आमतौर से
तुम्हें लोग प्रेम के साथ मृत्यु का संबंध जोड़ते हुए नहीं दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि
मृत्यु से तो तुम भयभीत हो और तुम सोचते हो प्रेम को तुम चाहते हो। मैं तुमसे कहता
हूं: जो प्रेम को चाहता है व मृत्यु को भी चाहता है। क्योंकि जिसने प्रेम के जाना
या चाहा, उसने मृत्यु का सुख भी जाना, मृत्यु
का रस भी जाना। क्योंकि मृत्यु में ही अमृत का आविर्भाव है।
तुम मौत से भयभीत हो, इसलिए तुम प्रेम से भी भयभीत हो।
तुम्हारी सारी चिंतन की व्यवस्था तुम्हारे भय को प्रतिबिंबित करती है। जैसे
शास्त्रों में लिखा है, परमात्मा प्रकाश है; क्योंकि आदमी अंधकार से डरा हुआ है। परमात्मा दोनों है, अन्यथा अंधकार होगा कैसे? लेकिन सब शास्त्र कहते
हैं--कुरान, उपनिषद, वेद--परमात्मा
प्रकाश है। फिर अंधकार, फिर रात किसकी? फिर रात का राजा कौन? तब फिर शैतान को गढ़ना पड़ता है,
क्योंकि रात का भी कोई राजा होना चाहिए। फिर अंधेरे का एक मालिक
बनाना पड़ता है, क्योंकि अंधेरे की भी तो व्यवस्था जमानी
होगी। अंधेरे का साम्राज्य किसका है? परमात्मा का ही है।
तुम्हारे भय के कारण उपद्रव खड़ा कर रहे हो।
तुम्हारे भय ने परमात्मा को भी दो में बांट दिया। भय तुम्हें ही नहीं
बांट रहा है, तुम्हारे परमात्मा तक को विभाजित कर देता है। तुम
कहते हो, दिन उसका। रात? रात से तुम
डरे हो! अंधेरा तुम्हें घबड़ाता है। इस घबड़ाहट के कारण तुम जीवन के बहुत से राज न
जान पाओगे, क्योंकि बहुत से राज अंधेरे में छिपे हैं। तुम
शांत न हो सकोगे, क्योंकि शांति का स्वभाव अंधेरे जैसा है,
प्रकाश जैसा नहीं।
अब तुम्हें घबड़ाता है। इस घबड़ाहट के कारण तुम जीवन के बहुत से राज न
जान पाओगे, क्योंकि बहुत से राज अंधेरे में छिपे हैं। तुम शांत न
हो सकोगे, क्योंकि शांति का स्वभाव अंधेरे जैसा है, प्रकाश जैसा नहीं।
अब तुम्हें बड़ी कठिनाई होगी।
शांति अंधकार जैसी है, क्योंकि शांति विराम
है, विश्राम है। समाधि, पतंजलि ने कहा
है, निद्रा जैसी है। तो निश्चित ही शांति अंधकार जैसी होगी,
रात्रि जैसी होगी। प्रकाश में उत्तेजना है, यह
तो तुमने अनुभव किया ही है। इसलिए तो अगर तुम सो रहे हो और बहुत बड़े-बड़े प्रकाश के
बल्ब लगा दिए जाएं तो सो न सकोगे; प्रकाश तुम्हारी आंखों को
उत्तेजित रखेगा, तना हुआ रखेगा, विश्राम
न लेने देगा। इसलिए तो दिन में सोना मुश्किल है। इसलिए तो सारी प्रकृति रात में
सोती है।
विश्राम के लिए अंधकार चाहिए। प्रकाश में एक तनाव है। अगर तुम प्रकाश
ही प्रकाश मग रहा, जल्दी पागल हो जाओगे। जरा सोचो, एक महीने सो न सको--बहुत लंबा कह रहा हूं, तीन दिन
में ही विक्षिप्त होने की हालत आनी शुरू हो जाती है। तीन दिन अगर जरा भी नींद न आ सके, तो बस
सब रुग्ण होना शुरू हो जाता है। अंधेरा रोज-रोज चाहिए। अंधेरा भोजन है।
यह बड़े मजे की बात है कि तीन दिन तुम सो सकते हो, कोई खास नुकसान न होगा; लेकिन तीन दिन अगर जागे तो
नुकसाान हो जाएगा।
मैं एक महिला को देखने गया। वह नौ महीने से बेहोश है। सो रही है! पागल
नहीं हो गई है। चिकित्सक कहते हैं, जग भी सकती है,
न भी जगे। जग सकती है, क्योंकि मैंने एक घटना
सुनी है कि अमरीका में एक महिला बारह साल तक सोयी रही, बारह
साल के बाद जगी। बिलकुल ठीक, ताजी! जैसी सोयी थी उतनी ही
ताजी! वस्तुतः बारह साल में उसके संगी-साथी बूढ़े हो गए, वही
नहीं हुई, क्योंकि ताजी की ताजी रही। बारह साल जैसे आए ही
नहीं उसके लिए। जैसे समय बीता ही नहीं। जैसे घड़ी के कांटे चले ही नहीं, सब ठहरा था। वह गहन निद्रा में रही, विश्राम में
रही। उसके चेहरेपर सलवटें न आईं। लेकिन बारह साल जागे नहीं रह सकते। खुद तो पगल हो
ही जाते, और न मालूम कितनों को पागल कर दिया होता। जिसको
काटते वही पागल हो जाता।
परमात्मा को प्रकाश ही प्रकाश कहा है, अंधकार नहीं! आदमी
अपने भय से अपने शब्द बनाता है। तुम अंधेरे से भयभीत हो तो तुम्हें लगता है कि
परमात्मा अंधकार--नहीं! प्रकाश!
तुमने कभी खयाल किया, प्रकाश तोड़ता है, चीजों को अलग-अलग कर देता है। अभी देखो, सुबह हुई है,
तो हर वृक्ष अलग-अलग हो गया; रात अंधेरा होगा,
सब एक हो गया। फिर भेद न रहे। कौन आम है, कौन
नीम है--फर्क न रहा। नीम और आम भी एक हो गए। सब बराबर हो गया।
अंधकार जोड़ता है, प्रकाश तोड़ता है। प्रकाश भेद खड़े
करता है, अंधकार अभेद है।
सूरज का उगना निश्चित है
एक दिशा में
किन्तु तिमिर के लिए खुली हैं
दसों दिशाएं।
सूरज तो सीमित ही है--एक दिशा से उगता है, पूरब से उगता है तो पूरब से उगता है। अंधकार कहां से उगता है, कभी खयाल किया? सब तरफ से आता है, दसों दिशाओं से आता है। कभी विचार किया? प्रकाश तो
कभी होता है, फिर खो जात है। अंधकार सदा है, सदा-सदा है। दीया जलाते हो, टिमटिमाने लगती है रोशनी;
अंधेरा मिटता नहीं। दीया गया, अंधेरा वापस
अपनी जगह है। कौन दीया अंधेरे के मिटा पाया है! कितनी बार सूरज उगा है, कितनी बार डूबा है। रात पर रेखा भी खिंची? अंधेरे को
कोई जरा सी भी परेशानी हुई?
प्रकाश घटना है; अंधकार शाश्वत है। कुछ करो तो
प्रकाश होगा। ईंधन चाहिऐ। तुमने देखा, तेल चुक जाएगा,
दीया बुझ जाएगा! सूरज का दीया भी बुझेगा--उसका तेल भी, वे कहते हैं, चुक रहा है! चार हजार साल और लगेंगे।
लंबा है समय, लेकिन समय की अनंतता में चार हजार साल क्या हैं?
बुझ जाएगा। ईंधन चाहिए।
दीया बुझता है--तेल के चुक जाने से। अंधकार बिना ईंधन के है, इसलिए बुझ न सकेगा। कभी न बुझेगा। कितने ही सूरज आएंगे और जाएंगे, कितने ही दीए जलेंगे और बुझेंगे--अंधकार रहेगा और रहेगा!
मृत्यु जीवन से बड़ी है, जैसे प्रकाश से
अंधकार बड़ा है। जीवन तो थोड़ी सी चहल-पहल है। जैसे सागर में उठी लहर, नाची, गाई, उमड़ी--खो गई! ऐसा ही
जीवन है।
उठती है लहर, नाचे, कूदे, शोरगुल मचाया--मैं हूं, तू है, न मालूम कितनी चर्चा, वार्ता, संघर्ष,
युद्ध--खो गई लहर!
अगर गौर से देखो तो परमात्मा अंधेरे जैसा ज्यादा है, प्रकाश की बजाय। और प्रेम मृत्यु जैसा ज्यादा है, बजाय
जीवन जैसे। पर हम मृत्यु से भयभीत हैं, तो हम कहते हैं,
प्रेम जीवन है। हम जीवन को पकड़ना चाहते हैं। हम जीवन को ग्रस लेना
चाहते हैं। हम जीवन को सब भांति छाती से चिपटा लेना चाहते हैं। तो हम कहते हैं,
प्रेम जीवन है। लेकिन यह कोई सत्य की प्रतीति नहीं है। जीवन बड़ा
छोटा है; मृत्यु बड़ी विराट है!
आंखो को अपने पक्षपातों से मुक्त करो। सत्यों को देखो--जैसे हैं। पुनः
आज की रात अंधेरे में बैठकर देखना; शायद अंधेरे का
सौंदर्य तुमने देखा ही नहीं अब तक भय के कारण। अंधेरा बड़ा मखमली है। उसका स्पर्श
बड़ा गुदगुदा है। उसके स्पर्श की कोमलता प्रकाश क्या पाएगा! प्रकाश तो उत्तप्त है।
अंधेरा बड़ा शीतल है!
अंधेरे को फिर से विचार करना। विचार नहीं करना--ध्यान करना। आज की रात
आंख खोलकर अंधेरे में बैठ जाना और अंधेरे को जरा अनुभठ करना। अंधेरे की अनुभूति
तुम्हें मृत्यु की अनुभूति को भी सुखद बना देगी।
मृत्यु और अंधेरे को तुम अगर अहोभाव से स्वीकार कर पाओ तो तुम प्रेम
के राज को समझ पाओगे, क्योंकि प्रेम भी अंधेरे की तरह सुखद है, शीतल है।
मगर हमारे सब शब्द हमारे भय से आंदोलित हैं। अगर हम किसी का स्वागत
करते हैं तो हम कहते हैं, गर्म स्वागत! ठंडा स्वागत नहीं। वार्म वैलकम। अब अगर
किसी का ठंडा स्वागत करो तो बात ही खराब हो गई। ठंडक में ऐसी खराबी है? तो फिर तुम्हारा असली स्वागत नरक में ही होगा। वार्म वैलकम!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बीमार थी और उसके चिकित्सक
ने कहा कि इसे गरम स्थान पर भेजना पड़ेगा।
गरम आब-हवा की जरूरत है। तो उसने कहा कि "ठीक है,तो कहां भेज दें? अफ्रीका भेज दें?' चिकित्सक ने कहा कि नहीं, उतनी गरमी से भी काम न
चलेगा। तो मुल्ला ने कहा, "कहां भेज दें फिर?' तब उसे तत्क्षण खयाल आया। उसने कहा कि समझ गए, मगर
गोली आपको ही मारनी पड़ेगी, मैं नही मार सकता। फिर नरक ही जगह
है जहां एकदम उबलती हुई गरमी है।
तुम्हारा भय तुम्हारी भाषा में प्रविष्ट हो गया है, तुम्हारे सोचने के ढंग में प्रविष्ट हो गया है। तुम्हारे प्रतीकों को
ग्रसित कर लिया है उसने।
फिर से विचारो!
मृत्यु से डर! किस बात का डर है? तुम्हारे पास क्या है
जिसके खो जाने से तुम डरे हो? है क्या? कभी ऐसा सोचो कि मेरे पास है क्या, जो मृत्यु छीन
लेगी! तुम्हारे पास कुछ भी तो नहीं है, सिर्फ एक दम्भ है। बस
वही छीन लेगी, और तो क्या छीनने को होगा? और दम्भ भी कितनी कोरी चीज है--हवा का गुब्बारा है! इसलिए तो जरा-जरा कोई
छेड़ दे तो टूट जाता, फूट जाता। जरा-सा कोई कांटा भी चुभा दे
तो प्राण निकल जाते हैं। जरा कोई हंस दे कि पीड़ा हो जाती है, घाव पर चोट लग जाती है।
दम्भ के अतिरिक्त और क्या है तुम्हारे पास जो मौत तुमसे छीन लेगी?
प्रेम कहता है, अगर ऐसा ही है, अगर यही डर है,
तो दम्भ तो प्रेम में ही छोड़ा जा सकता है, यह
अहंकार तो प्रेम में ही डुबाया जा सकता है। फिर तो मौत का कोई डर ही न रह जाएगा।
फिर तो कुछ भी न बचेगा।
जिसने प्रेमे को जाना उसने मृत्यु को जाना--और उसने यह भी जाना कि
मृत्यु के पार कुछ है! यह अहंकार ही तुम्हें जानने नहीं देता, जागने नहीं देता
पथ देख बिता दी रैन
मैं प्रिय पहचानी नहीं
तम ने धोया नभ पथ
सुवासित हिमजल से
सूने आंगन में दीप
जला दिए झिलमिल से
आ प्रात बुझा गया कौन
अपरिचित, जानी नहीं।
मैं प्रिय पहचानी नहीं।
वही है जीवन में भी, मृत्यु मग भी, जलने में भी, बुझने में भी, प्रकाश
में भी, अंधकार में भी!
विभाजन मत करो! अन्यथा रोओगे। कहोगे--मैं प्रिय पहचानी नहीं। उसी के
हाथ हैं--बायां भी, दायां भी! जो तुम्हें उठाता है वही तुम्हें वापस बुला
लेता है। जन्म और मृत्यु के बीच में जो थोड़ा-सा अवसर है, लहर
के उठने और गिरने के बीच में जो थोड़ी-सी सुविधा है, अवकाश है,
उस अवकाश को तुम प्रेम से भर जाने दो! अन्यथा अवसर खो गया! अन्यथा
तुम्हें किसी दिन कहना पड़ेगा आंसू भरी आंखो से--
पथ देख बिता दी रैन
मैं प्रिय पहचानी नहीं।
अपरिचित, जानी नहीं।
आ प्रात बुझा गया कौन
मैं प्रिय पहचानी नहीं!
वही जलाता रात तारों को, वही सुबह बुझाता। हाथ
बस उसी के हैं। जिसने ऐसा देखा--शुभ में, अशुभ में; सुंदर में, असुंदर में; सत्य
में, असत्य में, साधु में, असाधु में, जिसने ऐसा देखा कि हाथ उसी के हैं,
उसी ने बस देखा, उसी ने बस प्रिय को पहचाना।
तीसरा प्रश्न: भगवान, आपके कहे-कहे भी बहुतेरे आपके संन्यासी ध्यान नहीं करते; कहते हैं, समझ काफी है। क्या उनकी समझ काफी है?
अक्ल बारीक हुई जाती है
रूह तारीक हुई जाती है!
सुनते-सुनते मुझे समझ बढ़ती हो, ऐसा तो पक्का नहीं है,
समझदारी बढ़ती है, समझ का खयाल बढ़ता है,
सोचना पैना होता जाता है। "अक्ल बारीक हुई जाती है!'
लेकिन ध्यान रखना, यह अक्ल महंगा सौदा हो जाएगी,
अगर साथ में यह खयाल न रहा कि "रूह तारीक हुई जाती है',
भीतर आत्मा अंधेरे में खोती जाती है, होश मिटा
जाता है, बेहोशी छायी जाती है।
ध्यान रखना, निश्चित ही समझ काफी है। मगर समझ हो तब! ध्यान की कोई
भी जरूरत नहीं है, क्योंकि समझ ध्यान है। उससे बड़ा कोई नहीं।
लेकिन समझ हो तब। अपनी-अपनी परख अपने-अपने भीतर कर लेना। किसी दूसरे का सवाल भी
नहीं कि कोई दूसरा चिंतित हो। अगर किसी की समझ जग गई है, बात
खत्म हो गई। किसी दूसरे को फिक्र भी क्यों हो कि वह ध्यान करता है या नहीं?
यह उसके ही अपने ही भीतर सोचने-समझने की बात है। अगर उसे लगता है,
समझ जग गई, दीया जल गया--बात खत्म हो गई। अब न
उसके जीवन में कोई दुख होगा न उदासी होगी। अब उसके जीवन में न कोई बैचेनी होगी,
न कोई अशांति होगी। अगर बेचैनी अभी भी हो, अशांति
अभी भी हो, दुर्गंध अभी उठती हो, नरक
की लपटें अभी भी पास आती मालूम पड़ती हों, तो फिर धोखा किसको
दे रहे हो? तो फिर जान लेना कि समझ नहीं है। तो फिर ध्यान से
बचने की कोशिश मत करना। क्योंकि ध्यान की चोट से ही समझ पैदा होगी। हो गई हो,
तब कोई जरूरत नहीं है।
अगर स्वर्णकार की आग से तुम गुजर गए हो, सोना निखर गया हो,
तो फिर अब कोई जरूरत नहीं है; लेकिन अगर न
गुजरे होओ तो बचाव मत करना यह कहकर कि मैं गुजर चुका, नहीं
तो कचरा ही बचेगा हाथ में। और कचरा भी रूकता नहीं, बढ़ता है।
हर चीज बढ़ती है। जिसे बचाओगे, वह धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा।
धीरे-धीरे सोने को ढक लेना।
अगर समझ न हो तो इस भ्रांति में मत पड़ना कि समझ है।
कसौटी क्या है? तुम्हारे पास जांचने के लिए उपाय क्या है? जांचने का उपाय है: आनंद, शांति, समस्वरता, संगीत, संतुलन,सम्यकत्व। भीतर तुम देख लेना। अगर भीतर संतुलन है, कोई
चील डंवाती नहीं, डुबाती नहीं; हवा के
झोके आते हैं, निष्कंप तुम बने रहते हो--बात खत्म हो गई। फिर
लाख दुनिया कहे कि ध्यान करो, प्रार्थना करो, पूजा करो--क्यों तुम करोगे! सिर में दर्द हो तो औषधि लेना, बीमारी हो तो औषधि लेना।
ध्यान औषधि है। किसी के कहने से लेने की जरूरत नहीं है। क्योंकि लोग
कह रह हैं, क्योंकि और लोग ले रहे हैं, इसलिए
करने की कोई जरूरत नहीं है। पर यह प्रत्येक का निपटारा उसके ही भीतर होगा।
यह प्रश्न किसी दूसरे ने पूछा है, यह भी बात ठीक नहीं।
दूसरे को पूछने का हक ही नहीं है। तुम्हें दूसरे की समझ पर संदेह करने की भी क्या
जरूरत है? अगर दूसरा कहता है, समझ जग
गई है, इसलिए ध्यान की जरूरत नहीं--जग गई होगी। यह उसकी बात
है। अगर न भी जगी होगी तो भी पछतावा उसे होगा कल, तुम क्यों
परेशान हो?
लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि जो ध्यान करता है वह चाहता है बाकी भी
ध्यान करें। जिसकी पूंछ कटी, वह चाहता है औरों की भी कटे।
स्वभावतः वह यह मान नहीं सकता कि "हमारी हालत भी अभी ऐसी है कि ध्यान करना
पड़े, तुम्हारी ऐसी है कि ध्यान की जरूरत नहीं रही! करवाकर
रहेंगे! जरूर तुम धोखा दे रहे हो। हम नहीं पहुंचे अभी, तुम
पहुंच गए'? यह मानने का मन नहीं होता। इसलिए जो ध्यान करता
है वह दूसरों को भी करवाएगा। मगर वह बात दुष्टता की है। उसमें सज्जनता जरा भी
नहीं।
यह प्रश्न ही दूसरे के पूछने का नहीं है। कोई कहता है, समझ जग गई, इसलिए अब ध्यान की जरूरत नहीं रही--जग गई
होगी। सौभाग्य उसका! तुम प्रार्थना करो भगवान से कि तुम्हारी भी जगे, तुम्हें भी जरूरत न रह जाए। यह तो उसके ही सोचने की बात है कि कहीं धोखा
तो नहीं दे रहा है! धोखा किसको दे रहा है? यह किसी और का
सवाल नहीं है। लेकिन धोखा देने वाले लोग हैं।
भय होता है ध्यान करने से। लगता है, "यह पागलपन और
हम करें! यह नाच-कूद हम करें'! हरेक अपने को समझाता है कि
हमारी बड़ी प्रतिष्ठा है संसार में। हम जैसा प्रतिष्ठित आदमी, और नाचे, गाए, कूदे--यह शोभा
नहीं देता! लेकिन यह भी कहने की हिम्मत नहीं होती कि हम भयभीत हैं, डर लगता है। हम कमजोर हैं। चाहते हैं करें, लेकिन
नहीं कर पाते। इतने लोगों के सामने बेपर्दा होने की हिम्मत नहीं होती। एक झूठ को
सिरताज बनाए हुए हैं। उघड़ने की, तथ्य को प्रगट करने की
हिम्मत नहीं होती। इस तरह कूदकर चीख-पुकारकर हम जाहिर न करना चाहेंगे कि हमारे
भीतर भी चीख-पुकार है। सारे संसार में लोग भीतर में लोग जानते हैं कि हम बड़े शांत
हैं। लोग हमें सज्जन मानते हैं। लोग सोच भी नहीं सकते कि हमारे भीतर भी ऐसा पागलपन
छिपा पड़ा हो सकता है। भय लगता है, कहीं प्रगट न हो जाएं,
उघड़ न जाएं, कहीं नग्नता पता न चल जाए।
वस्त्रों के भीतर नग्न हैं, लेकिन वस्त्रों में ढांका हुआ
है। भय, लोकलाज, प्रतिष्ठा, अहंकार की प्रतिमाएं--वे सब बाधाएं हैं। मगर उनको तो स्वीकार करना ठीक
नहीं; क्योंकि उनको जो स्वीकार कर ले, उसका
तो ध्यान शुरू हो ही गया। जो यह कह दे कि मैं भयभीत हूं। इसने झूठा दम्भ तो न
किया। इसने सत्य को स्वीकृति दी। इसके जीवन में अब प्रामाणिकता प्रारम्भ हुई। यह
ज्यादा दूर नहीं है, यह जल्दी ही आ जाएगा; समझ भी आएगी, ध्यान भी आ जाएगा। लेकिन यह कहता है,
हमें जरूरत ही नहीं है...!
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि दूसरों को करते देखते हैं ध्यान, लगता है कुछ हो रहा है; मगर हम नहीं कर पाते,
संकोच है। एकांत में नहीं कर सकते हैं?
जो मूल बात है कि दूसरों से छिपाना है, उसको ही तोड़ना है।
तुम एकांत में भी न कर सकोगे, क्योंकि वहां भी डर लगा रहेगा:
कर तो रहे हैं, कोई पड़ोसी न सुन ले; कहीं
पत्नी बीच में न आ जाए और कहे, यह तुम क्या कर रहे हो--पति
और परमेश्वर होकर! यह तुम क्या कर रहे हो--हू-हू-हू! दिमाग तो दुरुस्त है कि
डाक्टर को बुलाऊं?
वहां भी डर समाया रहेगा। कहीं बच्चे न आ जाएं--पिताजी! जो सभी कुछ
जानते हैं, अब ऐसे अबोध हो रहे हैं।
डर लगता है। डर के कारण न करते होओ तो कम-से-कम स्वीकार तो करो कि डर
है।
कुछ आते हैं, वे कहते हैं कि हमें तो शांत ध्यान बता दीजिए। शांत
ध्यान तुमसे अभी हो न सकेगा। अशांति बहुत दबी पड़ी है, उसे
निकालना है। वे कहते हैं, ये हमें जंचते नहीं।
"तुमने किए'?
"नहीं, किए भी नहीं हैं'।
"तो जंचता क्यों नहीं है'?
भीतर दावानल है। भीतर ज्वालामुखी है। तुम डरते हो कि फूट जाएगा, निकल जाएगा बाहर। किसी तरह अपने के संहाले रहे। किसी तरह प्रतिष्ठा बनाई
है, प्रतिमा बना ली है।
जैन मुनि मेरे पास आत हैं। कुछ तेरामंथी जैन साधु आए। प्रतिष्ठित साधु
हैं। सारे देश में उनका नाम है। वे कहने लगे कि ध्यान तो करना है, लेकिन किसी को पता न चले--श्रावकों को पता न चले! मैंने उनको कहा कि
"श्रावक से तुम डरते हो! श्रावक तुमसे डरें, समझ में
आता है। तुम श्रावकों से डरते हो'? हंसने लगे। कहने लगे,
आप बात तो ठीक कहते हैं, लेकिन हम उनपर निर्भर
हैं। और वैसे तो वे इस पक्ष में भी नहीं हैं कि हम आपके पस आएं। हम चोरी-छिपे आए
हैं। एक श्रावक आपका भक्त है; वह ले आया है। उसके घर गए थे।
यहां का तो किसी को पता नहीं है; कहीं का और बता कर बीच में
आ गए हैं। लेकिन ध्यान करना है।
उनकी पीड़ा मैं समझता हूं।
मैंने उनको कहा कि कोई बात नहीं, चलो, एकांत कमरे में ध्यान कर लो। जाते वक्त कहने लगे, पर
एक खयाल रखना कि कोई फोटो न ले ले। मैंने कहा, "यह तो
होगा। फोटो तो ली जाएगी। इतना तो करने दो'। उनकी फोटो ले ली
है। बाद में मुझे मिलने आए थे। कहने लगे, आप किसी को बताना
मत! मैंने कहा कि मैं किसी को बताऊं तो भी आप रोक न सकोगे, फोटो
है।
इतना भय है--साधु-संन्यासी जिसको कहते हैं, उसको! गृहस्थ की तो बात ही छोड़ दो।
भय के कारण अगर तुम समझदारी की बातें कर रहे हो तो तुम धोखा अपने को
दे रहे हो। और निश्चित ही तुम समझदारी की बातें करना चाहो तो खूब कर सकोगे। मुझे
सुनते-सुनते समझ तो नहीं आए, समझदारी तो आ ही जाती है।
समझदारी समझ का धोखा है। समझदारी खोटा सिक्का है।
सुहबते-रिंदा से वाइज कुछ न हासिल कर सका
बहका-बहका-सा मगर तर्जेकलाम आ ही गया।
शराबियों के साथ भी रहे--
सुहबते-रिंदा से वाइज कुछ न हासिल कर सका
वह धर्मोपदेशक शराबियों के साथ भी रहा, मस्तों के साथ भी रहा
कुछ हासिल तो न कर सका। क्योंकि मस्ती हासिल करने के लिए तो पहले कुछ खोना पड़ता है;
वह तो महंगा सौदा है। वह तो हिम्मतवरों का काम है। वह तो जुआरियों
का मामला है, दुकानदारों का नहीं।
सुहबते-रिंदा से वाइज कुछ न हासिल कर सका
बहका-बहका-सा मगर तर्जेकलाम आ ही गया।
लेकिन शराबियों की बातें सुनते-सुनते कहने का बहका-बहका ढंग तो आ ही
गया।
बस उतना ही हो रहा है--बहुतों को। इधर शराब की चर्चा चलती है, उधर "तुम्हें बहका-बहका साततर्जेकलाम आ ही गया', उधर तुम ऊंची बातें करने लगते हो। बात में तुमसे कोई जीत न सकेगा, यह बात पक्की है। मगर ध्यान रखना, कहीं बात ही बात
में तुम अपने को मत गंवा बैठना! तो यह बात फिर महंगी हो जाएगी।
चौथा प्रश्न: भगवान, मैं आपका एक साधक हूं, लेकिन संन्यस्त नहीं हुआ। फिर
भी क्या मेरी मृत्यु के क्षण में आप धक्का देने आएंगे? यदि
हां, तो मुझे उस क्षण की तैयारी के लिए क्या करना चाहिए?
संन्यास...!
क्योंकि जो तुम जिंदगी में न पा सकोगे उसे मरकर पा सकोगे, इसकी संभावना कम है। अगर तुम जिंदगी में मेरे साथ न हो सके तो मुझसे तुम
आशा रखो कि मौत में तुम्हारे साथ रहूंगा--जरा जरूरत से ज्यादा आशा कर रहे हो। नहीं
कि मेरी तरफ से कोई बाधा है। मैं कोशिश करूंगा। लेकिन जब जिंदगी में तुम साथ न हो
सक तो मृत्यु में तुम मेरे साथ को ले सकोगे? जब होश में थे
तब मेरे साथ को न ले सके तो जब तुम बेहोशी में खोने लगोगे, तुम
तब सहयोग कर सकोगे? कठिन होगा तुम्हारी तरफ से। मेरी तरफ से
कोई अड़चन नहीं है। मेरी तरफ से आश्वासन है। लेकिन मैं कुछ कर न पाऊंगा। मैं
चिल्लाऊंगा और तुम न सुनोगे। मैं हाथ पकडूा, और तुम हाथ
छुड़ाओगे। मैं तुम्हें धक्का दूंगा और तुम मुझे दुश्मन जानोगे।
जब जिंदगी में तुम हिम्मत न जुटा सके, जब होश था, जब थोड़ी समझ थी, जब थोड़ा प्रकाश था--जब तुम प्रकाश
में मुझे न पहचान सके तो अंधेरे में तुम मुझे पहचान लोगे? कठिन
हो जाएगा।
करेंगे मर के बका-ए-दवाम क्या हासिल
जो जिंदा रह के मुकामे हयात पा न सके।
मरकर, सोच रहे हो कि जीावन का लक्ष्य जब जीवित रहते न मिल
सका...!
नहीं, ऐसी भूल मत करो। अभी समय है। देर हुई, पर बहुत देर
कभी भी नहीं हुई है। अब यहां आ ही गए हो तो रीते मन लौट जाओ।
पनघट तक आ कर भी गागर
रीती लौट रही है!
इसे शीश पर धर कर लायी
पनिहारिन बेचारी
सीचूंगी तुलसी का चौरा
आंगन की फुलवारी
पर माटी की इस काया में
ओझल छेद कहीं है
परघट तक आ कर भी गागर
रीती लौट रही है!
साधक हो, अब संन्यस्त हो कर ही लौटो!
संन्यास का अर्थ क्या है? इतना ही अर्थ है कि
तुम्हें मुझ पर भरोसा है। और क्या अर्थ है? इतना ही अर्थ है
कि तुम अपना हाथ मेरे हाथ में देने को राजी हो--बेहिचक। पागलपन भी करवाऊं तो भी
तुम भरोसा रखोगे कि कुछ मतलब होगा।
भरोसे के अतिरिक्त संन्यास का कोई और अर्थ नहीं है। इस भरोसे में ही
तुम्हारे खो जाने का उपाय होने लगता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम संन्यास के लिए
तैयार हैं, लेकिन दो बातें हम न कर सकेंगे--माला और गेरुआ न
पहनेंगे। तो मैं उनसे पूछता हूं, " तो फिर तैयारी और
क्या है? आपकी माला बनाकर मुझे पहनाएंगे? संन्यास का फिर अब क्या मतलब है? फिर मुझे आपके
हिसाब से चलना पड़ेगा--क्या करना, यह साफ-साफ कर लें, नहीं तो पीछे झंझट हो, अदालत जाना पड़े। सोचा क्या है
तुमने?'
जानता हूं मैं भी कि कपड़ों से क्या होता है, माला से क्या होता है! यह मुझे भी पता है। कुछ कपड़े और माला पहनने से तुम
स्वर्ग पहुंच जाओगे, ऐसा भी नहीं है। लेकिन कपड़ा और माला तो
सिर्फ इंगित है तुम्हारी तरफ से कि पागल होने की तैयारी है, कि
अब हम राजी हैं, कि अगर दीवाना बनाओगे तो उसके लिए भी राजी
हैं।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बैठा था अपने घर के द्वार पर। एक
कार रुकी। आदमी रास्ता भूल गया था और उसने पूछा कि बंबई की तरफ जाने का रास्ता...।
तो मुल्ला ने उसे ठीक-ठीक सूचनाएं दीं, कि पहले बाएं जाओ,
फिर चौरस्ते से दाएं मुड़ना, फिर...। कोई दो
घंटे बाद वह आदमी फिर वापस आया। वहीं मुल्ला बैठा था। उसने पूछा, "हद हो गई! तुम्हारी एक-एक सूचना का ठीक-ठीक पालन किया, वहीं के वहीं आ गए'। मुल्ला ने कहा, "अब तुमको ठीक सूचना दूंगा। यह तो केवल परीक्षा थी कि तुम्हें सूचनाएं पालन
करने की अक्ल भी है या नहीं'।
यह माला और गेरुआ--यह तो तुम घूमकर यहीं आओगे। इससे कहीं तुम परमात्मा
तक नहीं पहुंच जाने वाले। मगर यह तो केवल सूचना थी कि देखें पालन कर सकते हो, फिर कुछ आगे की बात करें। यह ही न संभलती हो तो फिर भैंस से सामने बीन
बजाना ठीक नहीं।
संन्यास का कुल इतना अर्थ है कि तुम कह सको--
यह कौन छा गया है दिलो-दीदा पर कि आज
अपनी नजर में आप हैं नाआशना से हम!
तुम अपनी ही नजर में अपने प्रति ऐसा अनुभव करने लगे कि खुद से अजनबी
हो गए हो। तुम्हें तुमसे दूर करना है। मेरे पास तुम्हें करने के उपाय को कोई और अर्थ
नहीं है, तुम्हें तुमसे दूर करना है। मेरे पास तुम हो जाओ,
यह तो केवल विधि है, ताकि तुम अपने से दूर हो
जाओ।
यह कौन छा गया है दिलो-दीदा पर कि आज--यह कौन हृदय पर और आंखों पर छा
गया है, अपनी नजर में आप हैं नाआशना से हम--कि अपनी ही नजर
में अपने से दूर हुए जाते हैं। बस इतना ही अर्थ है।
पांचवा प्रश्न:
एक पुरानी धारणा है कि महानुभाव और श्रेष्ठजन यदि अपने से छोटों को प्रणाम
करें तो उससे छोटों को पाप लगता है। स्पष्टतः इससे उनके अहंकार को पोषण मिलेगा।
फिर क्यों आप प्रतिदिन प्रवचन के लिए आने पर और फिर विदा लेते हुए भी हाथ जोड़कर
हमें प्रणाम करते हैं?
--ताकि तुम्हें याद बनी रहे कि तुम छोटे नहीं हो;
ताकि तुम्हें याद बनी रहे कि तुम भूल भला गए होओ, तुम्हारा स्वरूप भगवान का है; ताकि तुम्हें याद बनी
रहे कि भगवत्ता तुम्हारी संपदा है। हां, अगर तुम अपना अहंकार
बढ़ा लो तो भूल हो जाएगी। और अगर तुम अपनी भगवत्ता को जगा लो तो पुण्य हो जाएगा।
पाप और पुण्य तो तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर है। मेरे लिए कोई उपाय
नहीं है सिवाय इसके कि तुममें भगवान को देखूं। जैसे ही जो अपने में देखा, वही सब में दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।
सीधी-तिरछी हर रेखाएं
तेरा रूप उभर आता है
चाहा कितनी बार कि कोई
अन्य दूसरा चित्र बनाऊं
तेरी आकृति की कारा से
अपने मन को मुक्त कराऊं
पर हर दर्पन में तेरा
प्रिय प्रतिबिम्ब उतर आता है।
तुम्हें देखता हूं जरूर, पर तुम दिखाई नहीं
पड़ते वहां, जो दिखाई पड़ता है उसी को प्रणाम करता हूं। तुम भी
धीरे-धीरे मेरे प्रणाम के सहारे उसकी खोज करो। इस भूल में मत पड़ना कि तुम्हें
प्रणाम किया है। तो अहंकार बढ़ेगा। तो भूल हो जाएगी। तो तुमने फूलों को भी कांटा
बना लिया।
तुम्हें प्रणाम किया है--तुम्हें नहीं, तुम्हारे स्वभाव को;
तुम्हारी धारणा को नहीं कि तुम कौन हो--तुम्हारे सत्य को कि वस्तुतः
तुम कौन हो। तुम भी उसी की याद करना। उसकी याद उठने लगे तो मेरे प्रणाम से
तुम्हारी खोज को बड़ी गति आ जाएगी।
आखिरी प्रश्न: कब, किस घड़ी में संन्यासी शिष्य के भीतर से अपेक्षा का भाव पूर्णतया गिर जाता
है?
अपेक्षा तब तक रहेगी तब तक तुम्हें अनुभव नहीं हुआ कि जीवन में कुछ भी
मिलने को नहीं है। जीवन केवल आश्वासन देता है, पूरा नहीं करता। जीवन
एक धोखा है। दूर से लगते हैं बड़े मरूद्यान, पास आने पर
मरुस्थल सिद्ध हो जाते हैं। दूर से लगता है बड़ा सौंदर्य। दूर से ढोले बड़े सुहावने!
पास आने पर सब कुरूप हो जाता है।
जितना तुम्हारा यह अनुभव गहरा होने लगेगा कि सब सौंदर्य दूरी का है, और जीवन का सारा रस भविष्य में है, वर्तमान में कभी
भी नहीं है; लगता है मिला, मिला,
मिला, मिलता कभी नहीं; पास
आते मालूम पड़ते हो, पहंचते कभी नहीं। यह मंजिल कुछ ऐसी है कि
दूर हटती चली जाती है। जैसे क्षितिज है, आकाश छूता है पृथ्वी
को, लगता है यह दस-पांच मील के फासले पर छू रहा है; बढ़ो, बढ़ता जाता है--दूरी सदा उतनी ही रहती है। जिस
दिन तुम्हें यह प्रतीति होगी जीवन की सर्वांगीण दिशाओं से कि यहां सब सिर्फ
निमंत्रण है, आशा है, पूरा कुछ भी नहीं
होता, उसी दिन तुम्हारी अपेक्षा गिर जाएगी। अपेक्षा गिरते ही
संसार तिरोहित हो जाता है। क्योंकि अपेक्षा में ही संसार है। आशा में ही संसार है।
और जैसे ही संसार तिरोहित हो जाता है, तुम अचानक पाते हो:
तुम परमात्मा से घिरे हो।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं--यह बड़ा मुश्किल होगा समझना--मैं तुमसे यह कह
रहा हूं कि जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि यह पृथ्वी को छुआ है; यहीं छुआ है, कहीं जाने की जरूरत न रही।
सुधा कल्पना मात्र, गरल का
दावा सोलह आने सच है
सुधा कल्पना मात्र, गरल का
दावा सोलह आने सच है
कभी किसी ने चखा न देखा
केवल नाम चला आता है
पर विष बिकता चौराहे पर
जो खाता है, मर जाता है।
सुधा कल्पना मात्र, गरल का
दावा सोलह आने सच है।
जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ेगा कि संसार में सुधा तो केवल कल्पना
मात्र है, अमृत को केवल बातचीत है, सपना
है; जहर सत्य है--उसी दिन हाथ रुक जाएंगे। जानकर कोई गरल को
पी सका है? जहर को जानकर कोई पी सका है? पीते हो तुम इसी आशा में कि जहर नहीं है, अमृत है।
होगा जहर, मानते हो अमृत, इसलिए पीते
हो।
जहां-जहां तुमने अब तक सुख चाहा था, वहां-वहां सुख मिला?
जब मिलता है तब दुख मिलता है। लेकिन अदभुत हो तुम! फिर-फिर तुम आगे
उसी-उसी में फिर सुख मांगने लगते हो। तुम पाठ लेते ही नहीं।
महाभारत में कथा है कि पांडव वन में भटक रहे हैं, अज्ञातवास के समय। प्यास लगी है। एक भाई झील पर गया है। झुका ही था पानी
भरने को...स्वच्छ स्फटिक जैसी झील, उत्तप्त कंठ, भाई प्यासे मर रहे हैं, कि अचानक एक आवाज आई। यक्ष,
कोई प्रेतात्मा झील की, बोली, "रुक! जब तक मेरे प्रश्नों का उत्तर न देगा तब तक अगर पानी को छुआ तो मर
जाएगा। मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दे, फिर पानी ले जा सकता
है।
पूछा, "क्या प्रश्न हैं?' प्रश्न ऐसे थे कि उत्तर भाई न दे
पाया और पानी ले जाने की कोशिश की, गिर पड़ा। पहला प्रश्न यह
था कि मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार क्या है! ऐसे चार भाई आए और गिर गए,
फिर युधिष्ठिर का आना हुआ। वही सवाल। यक्ष ने कहा, "ये चार मरे पड़े हैं। यही गति तुम्हारी भी होगी। मेरे प्रश्नों का पहले
उत्तर दे दो, क्योंकि मैं यहां उलझन में पड़ा हूं।
मेरी उलझन यह है कि मुझे अभिशापित किया गया है कि जब तक मैं इन पांच
प्रश्नों के उत्तर न लाऊंगा, तब तक मुझे इसी प्रेतात्मा में
आबद्ध रहना पड़ेगा। मैं पूछ-पूछ मरा जा रहा हूं, सदियां बीत
गईं, कोई उत्तर नहीं देता। मेरे छुटकारे का क्षण दूर हटा जा
रहा है। अगर तुम उत्तर दोगे तो ही इस झील का पानी पी सकोगे। यह झील तरकीब है मेरी।
और इस झील के आसपास दूर-दूर तक मैंने सूखा फैला रखा है, कि
जो भी आए, प्यासा हो, जल की तलाश में
झील तक आए, मेरे जाल में फंसे। तुम उत्तर दे दो। मनुष्य के
जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार क्या है?
युधिष्ठिर ने कहा कि मनुष्य अनुभव से भी सीखता नहीं। और कहते हैं कि
यक्ष राजी हो गया। यही उत्तर है। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी बेबूझ घटना यही है कि
रोज तुम सुख मांगते हो, रोज दुख पाते हो, फिर वही सुख
मांगते हो। सोचते हो अमृत पी रहे, कंठ में जाते ही गरल हो
जाता है। रोज-रोज यह होता है, फिर से रोज-रोज वही प्याली भर
लेते हो, रोज-रोज उसी रस से भर लेते हो जिससे कल भी दुख पाया
था, परसों भी दुख पाया था, पिछले
जन्मों में भी दुख पाया था। जिस क्षण तुम्हें यह बोध हो जाएगा, उसी क्षण अपेक्षा गिर जाती है। प्याली हाथ से छूट जाती है। संन्यास इस परम
प्रज्ञा का नाम है।
आज इतना ही।
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