एस धम्मो संनतनो-(भाग-05)
प्रवचन-043
परमात्मा अपनी ओर
आने का ही ढंग
पहला प्रश्न:
कल तक आप हमें परमात्मा की ओर जाने को कह रहे थे, आज हमें अपनी ही ओर जाने पर
जोर दे रहे हैं। आपको तो दोनों ओर, दोनों अतियों में बहना सरल है, खेल है, पर हम कैसे इतनी सरलता से
दोनों ओर बहें, आपके साथ-साथ बहें? कृपा कर समझाएं।
जीवन
को अतियों में तोड़कर देखना ही गलत है। जीवन को दो में तोड़कर देखने में ही भ्रांति
है। तुम अगर कभी एक को भी चुनते हो, तो दो के खिलाफ चुनते हो। तुम्हारे एक में
भी दो का भाव बना ही रहता है। तुम एक किनारे को चुनते हो, तो दूसरे किनारे को छोड़कर
चुनते हो। छोड़ने से दूसरा किनारा मिटता नहीं। तुम्हारे छोड़ने से दूसरे किनारे के
मिटने का क्या संबंध है!
वस्तुतः
तुम्हारे इस किनारे को पकड़ने में दूसरा किनारा बना ही रहता है। तुम उसके विपरीत ही
इसे पकड़े हो। अगर दूसरा किनारा खो जाए, तो यह किनारा भी कैसे बचेगा? जाते हैं दोनों साथ जाते हैं, रहते हैं दोनों साथ रहते हैं।
अद्वैत, दो में से एक का चुन लेना
नहीं है। अद्वैत,
दो का
ही चला जाना है। अद्वैत का अर्थ है: जहां दो को देखने की दृष्टि न रही, जहां विभाजन करने का रस न रहा, जहां तुम चीजों को विपरीतता
में देखते ही नहीं।
रात है
और दिन है,
किसने
तुम्हें कहा अलग-अलग हैं? कहां
तुम विभाजन की रेखा खींचते हो? कहां
बनाते हो सीमा?
दिन
कहां समाप्त होता है? किस
घड़ी में,
किस पल? किस पल रात शुरू होती है? दोनों एक हैं। प्रकाश और अंधकार
एक ही ऊर्जा के दो नाम हैं, एक ही
ऊर्जा की अभिव्यक्ति के दो ढंग हैं। परमात्मा और आत्मा भी एक ही बात को कहने की दो
शैलियां हैं। भक्ति और ज्ञान भी, संकल्प
और समर्पण भी।
जहां-जहां
तुम्हें विरोध दिखायी पड़े वहां-वहां चेत जाना। सम्हलना। कहीं कोई भूल हुई जाती है।
कहने के ढंग हैं। फिर तुम्हें जो रुच जाए, तुम्हें जो भला लग जाए, कहने की वही शैली चुन लेना।
लेकिन कहने की शैली को सत्य की अभिव्यंजना मत मानना।
तुम्हारी
मौज, तुम भक्ति के रस में डुबाकर
कहो अपने अनुभव को। तुम अपने अनुभव को भगवान कहो, तुम्हारी मौज। तुम अपने अनुभव
को आत्मा कहो,
भगवान
का शब्द न दो। लेकिन जिस तरफ इशारा हो रहा है, वह एक ही है।
गालिब
का एक बहुत महत्वपूर्ण पद है--
कतरा
अपना भी हकीकत में है दरिया लेकिन
हमको
तकलीदेत्तुनकजरफिए-मंसूर नहीं
सूफी
फकीर मंसूर ने कहा, अनलहक!
मैं ब्रह्म हूं,
मैं
परमात्मा हूं। गालिब ने खूब गहरा मजाक किया है। किसी ने मंसूर पर ऐसा मजाक नहीं
किया। गालिब कहता है--
कतरा
अपना भी हकीकत में है दरिया लेकिन
माना
कि बूंद भी सागर है, यह
मुझे भी पता है।
हमको
तकलीदेत्तुनकजरफिए-मंसूर नहीं
लेकिन
मंसूर का कहने का ढंग जरा ओछा है। यह कहने का ढंग हमें पसंद नहीं। मालूम तो हमें
भी है कि मैं ब्रह्म हूं, लेकिन
यह बात हमें कहनी जंचती नहीं। मंसूर ने जरा जल्दबाजी कर दी। यह कहने की बात नहीं
थी। यह समझ लेने की बात थी। यह चुपचाप पी लेने की बात थी। यह ढंग हमें पसंद नहीं।
यह बड़ी महत्वपूर्ण बात गालिब कह रहा है। गालिब यह कह रहा है कि बात तो बिलकुल सही
है, रत्तीभर भी कुछ भूल-चूक नहीं, लेकिन कहने की यह शैली हमें
जंचती नहीं।
कतरा
अपना भी हकीकत में है दरिया लेकिन
हमको
तकलीदेत्तुनकजरफिए-मंसूर नहीं
गालिब
कहता है,
हमें
इस कहने में थोड़ा ओछापन मालूम पड़ता है। बूंद अपने को सागर कहे, यह बात छोटी हो गयी। सागर को
ही कहने दो। बूंद अपनी घोषणा करे, यह बात
छोटी हो गयी। सागर को ही कहने दो।
लेकिन
अगर तुम मंसूर से पूछोगे तो मंसूर हंसेगा, अगर तुम मंसूर से पूछोगे तो वह कहेगा कि
गालिब पागल है। अभी भी कुछ फासला रहा होगा कहने में। अन्यथा बूंद और सागर में
छोटे-बड़े का फासला क्यों? ओछे की
बात ही क्यों उठती है? अगर
बूंद सागर है,
तो फिर
ओछापन क्या?
कहो या
न कहो। अगर पता चल गया, कहा कि
न कहा,
क्या
भेद पड़ेगा?
फिर
डरना किससे है?
ओछा
किसके सामने होने का भय है? जब
बूंद को पता ही चल गया, तो
क्यों रुके?
क्यों
न नाचे?
क्यों
न गुनगुनाए?
क्यों
न कहे?
अगर
मंसूर से पूछो तो मंसूर कहेगा, यह भी
छुपा हुआ अहंकार है, जो कह
रहा है कि यह बात ओछी हो गयी। अपने ही मुंह से कहें कि हम ब्रह्म हैं, यह बात छोटी हो गयी। लेकिन
मंसूर कहेगा,
ब्रह्म
ही कह रहा है,
हम तो
हैं ही नहीं। अगर ब्रह्म ही कह रहा है कि हम ब्रह्म हैं, तो बात छोटी कैसे हो गयी?
दोनों
ही ठीक हैं। दोनों ही गलत हैं। अगर तुम एक के दृष्टिकोण को पकड़ लो, तो दूसरा गलत मालूम होगा। और
अगर तुम दोनों की दृष्टियों में गहरे झांको, तो दोनों सही मालूम होंगे। और मैं चाहता हूं
कि तुम्हें दोनों सही मालूम पड़ें। क्योंकि मंसूर को ओछा कहने में गालिब ने खुद को
भी ओछा कर लिया। यह मंसूर की आलोचना में भूल हो गयी।
मैं
चाहता हूं कि तुम कहीं भी इतने कुशल हो जाओ, तुम्हारी दृष्टि ऐसी पैनी हो जाए कि द्वैत
तुम्हें धोखा न दे पाए। कोई भक्ति का गुणगान करे, तो तुम ज्ञान का गुणगान सुन
सको। कोई ज्ञान का गुणगान करे, तो
तुम्हें भक्ति की रसधार बहती मालूम पड़े। तुम्हें रूप में भी अरूप दिखायी पड़े।
तुम्हें प्रेम में भी ध्यान का अनुभव हो। तुम्हें मरुस्थल में भी कमल खिलते हुए
दिखायी पड़ने लगें। मेरी सारी चेष्टा यही है कि कैसे तुम द्वंद्व के बाहर आओ।
इसलिए
विपरीत दिखायी पड़ने वाली बातें तुमसे रोज कहे जाता हूं। कब तक अड़े रहोगे? तुम जम भी नहीं पाते, तुम्हें खिसका देता हूं। तुम
सिंहासन लगाकर बैठने की तैयारी ही कर रहे होते हो कि सिंहासन खींच लेता हूं। अभी
तुम भक्त होकर बैठने की तैयारी ही कर रहे थे कि बुद्ध आ गए। अभी तुमने चाहा ही था
कि नारद की पकड़ लें बागडोर कि बुद्ध ने सब झकझोर दिया।
मेरी
सारी चेष्टा यही है कि तुम कहीं जम न पाओ। क्योंकि तुम जमे, वहीं भूल हो जाती है। तुम जमे
यानी तुम्हारा अंधकार जमा। तुम जमे यानी तुम्हारा अहंकार जमा। तुम जमे यानी कोई
दृष्टिकोण बना,
कोई
दृष्टि बनी,
कोई
पक्षपात पैदा हुआ। और मन की सदा यही चेष्टा है कि वह यह मान ले कि मैं ठीक हूं और
दूसरा गलत है। मजा मैं ठीक हूं इसके मानने में है। रस अहंकार का यही है कि मैं ठीक
हूं। कोई भी बहाना हो, इससे
क्या फर्क पड़ता है? भक्ति
ठीक हो कि ज्ञान ठीक हो, एक बात
साफ होनी चाहिए कि मैं ठीक हूं। तो तुम भक्ति के पक्ष में खड़े हो जाते हो। तुम
सोचते हो,
भक्ति
के पक्ष में खड़े हुए। मैं जैसा देखता हूं वह यह कि तुमने भक्ति को अपने पक्ष में
खड़ा कर लिया।
इसलिए
तुम्हें मैं टिकने न दूंगा। जब तक तुम हो, तुम्हें टिकने न दूंगा। जिस दिन पाऊंगा कि
तुम नहीं हो,
टिकने
वाला ही न बचा,
तुम
तरल हो गए,
उस दिन
फिर तुम्हें हिलाने की कोई जरूरत नहीं। तुम स्वयं ही तरल हो। अभी तुम ठोस हो बहुत, बहुत चोटों की जरूरत है।
इसलिए
निरंतर कभी ज्ञान की बात करता हूं, कभी योग की, कभी भक्ति की। और जब तुम मुझे
भक्ति पर बोलते सुनोगे, तो
तुम्हारा मन भक्ति से राजी होने लगेगा, बात जंचेगी। मगर मैं तुम्हें ज्यादा जंचने न
दूंगा। इसके पहले कि ज्यादा जंच जाए और तुम कोई पक्षपात बना लो, तुम्हारी जड़ों को उखाड़ ही देना
पड़ेगा।
मैं
चाहता हूं,
तुम
जमीन में गड़े नहीं, आकाश
में उड़े हुए रहो। मैं चाहता हूं, तुम्हें
विपरीत और अतियां दिखायी ही न पड़ें। तुम इतनी सरलता से अतियों में डोलने लगो कि
तुम्हारे डोलने में अतियां समाहित हो जाएं।
एक पंख
के साथ,
कहो कब
विहग
भला उड़ सका गगन में?
मैं
तुम्हें आकाश की यात्रा पर ले चल रहा हूं। तुम्हारी जिद है एक पंख से उड़ने की, और मैं कहता हूं--
एक पंख
के साथ,
कहो कब
विहग
भला उड़ सका गगन में?
कौन
पक्षी उड़ सका है एक पंख के साथ? पक्षियों
को पंखों के साथ पक्षपात नहीं है, अन्यथा
कभी का उड़ना भूल गए होते। कभी के जमीन में गिर पड़े होते। धूल-धूसरित हो गए होते।
कभी का आकाश से संबंध टूट गया होता। दोनों पंखों को लिए उड़ते हैं। और कभी उनके मन
में दुविधा भी नहीं आती कि यह कैसा विरोधाभास? दो पंख! दोनों विपरीत दिशाओं में फैले हुए!
लेकिन उन्हीं दोनों विपरीत दिशाओं में फैले पंखों पर पक्षी आकाश में अपने को
सम्हाल लेता है,
तौल
लेता है। तुम्हें भी मैं चाहूंगा कि जहां-जहां विपरीत हो, वहां-वहां विरोध न दिखे, पंख दिखायी पड़ें।
इसे
थोड़ा समझना। दो पैर हैं, तो तुम
चल पाते हो। दो हाथ हैं, तो तुम
कुछ कर पाते हो। तुम्हें शायद भीतर का पता न हो, तुम्हारे पास दो मस्तिष्क हैं, इसलिए तुम सोच पाते हो। एक
मस्तिष्क हो तो तुम सोच न पाओगे। तुम्हारे भीतर तुम्हारा सिर भी दो हिस्सों में
बंटा है,
दो
पंखों की तरह। तुम्हारा बायां और दायां मस्तिष्क अलग-अलग हैं; दोनों बीच में बड़े पतले सेतु
से जुड़े हैं। इसलिए तुम सोच पाते हो। और उन्हीं दो मस्तिष्कों के कारण स्त्री और
पुरुष में भेद है। क्योंकि स्त्री दाएं मस्तिष्क से सोचती है, पुरुष बाएं मस्तिष्क से सोचता
है। इसलिए तालमेल नहीं बैठता। जोर है स्त्री का दाएं मस्तिष्क पर, ज्यादा वजन दाएं पर पड़ रहा
है। पुरुष का जोर है बाएं पर, ज्यादा
वजन बाएं पर पड़ रहा है। बाएं मस्तिष्क में है तर्क, चिंतन, दर्शन, राजनीति। दाएं मस्तिष्क में
है प्रेम,
भक्ति, भाव, रस, नृत्य, गीत, गायन, वादन, नर्तन। अलग-अलग हैं।
और परम
मुक्त वही है जिसने दोनों का रस पूरा-पूरा पीया। जिसके भीतर दाएं और बाएं का फासला
न रहा। जिसने दोनों पंख एक साथ तौल लिए। जिसके दोनों पंख एक साथ तुल गए। जिसने
दोनों पंखों पर एक सा बल डाल दिया और दोनों पंखों को अपना लिया। जिसका अपना कोई
पंख न रहा--दोनों ही अपने हो गए।
इसलिए
तुम मेरे साथ अड़चन पाओगे। नारद के साथ सुविधा है। वह दायां मस्तिष्क है उनका
जोर--भक्ति,
भाव, रस, गीत, भजन, कीर्तन, आंसू, रुदन, रोमांच--वह सब
स्त्रैण-मस्तिष्क के लक्षण हैं। इसलिए भक्त में स्त्रैण-गुण प्रगट होने लगते हैं।
भक्त स्त्रैण होने लगता है। उसमें से पुरुष-गुण खो जाते हैं। पुरुष का पौरुष-भाव
खो जाता है,
कोमल
हो जाता है। छोटे बच्चों जैसा हो जाता है, या स्त्रियों जैसा हो जाता है। उसके रंग-ढंग
में, उठने-बैठने में भी स्त्रैणता
आ जाती है। एक कौमल्य का प्रादुर्भाव होता है। सौंदर्य आ जाता है।
फिर
चिंतक है,
ज्ञानी
है, योगी है, उसका पौरुष-भाव और भी गहरा
होकर प्रगट होता है। उसके चेहरे पर कोमलता खो जाती है। तर्क की सुस्पष्ट रेखाएं आ
जाती हैं। रोमांच की बात ही बेहूदी मालूम पड़ेगी चिंतक को, यह क्या बचकानी बात हुई!
सोचने का रोमांच से क्या संबंध है? क्या रोओं के कंपित हो जाने से चिंतन करोगे? यह तो चिंतन में बाधा हो जाएगी।
रोमांच करके कौन सोच पाया? आंसू!
बात ही बड़ी दूर की मालूम पड़ती है। चिंतन से आंसुओं का क्या लेना-देना है? सोचना है, तो आंखें सूखी और साफ चाहिए।
गीली आंखें सोच न पाएंगी। सोचना कमजोर हो जाएगा। भाव प्रविष्ट हो जाएगा। भाव डगमगा
देगा। जो सोचना था, तर्र्कयुक्त
होना था,
वहां
अगर भावयुक्त हो गए तो करुणा, प्रेम, दया और हजार चीजें प्रवेश कर
जाएंगी। न्याय पूरा न हो पाएगा।
चिंतक
कोमल नहीं हो पाता, कठोर
हो जाता है। वैज्ञानिक के चेहरे पर तर्कसरणी लिख जाती है। योगी पानी की तरह तरल
नहीं हो जाता,
पत्थर
की तरह सुदृढ़ हो जाता है। डांवाडोल करना उसे मुश्किल है। ज्ञानी एक गहरी उदासीनता, उपेक्षा से भर जाता है।
कहां
रोमांच! रोमांच का अर्थ है, उपेक्षा
बिलकुल नहीं। जरा सी घटना घटती है और रोमांच हो जाता है। एक पक्षी भी गिर पड़े, तो भक्त रोने लगेगा। एक फूल
टूट जाए,
तो
भक्त की आंखें गीली हो जाएंगी। ज्ञानी, सारा संसार भी विचलित हो जाए, तो अडिग, अकंप, तटस्थ, शून्य बैठा रहेगा। जैसे कुछ
भी न हुआ।
तो अगर
तुम महावीर को समझो, तो तुम
ज्ञानी को समझ रहे हो; पतंजलि
को समझो,
तो
ज्ञानी को समझ रहे हो। वह मस्तिष्क का आधा हिस्सा है। उसकी बड़ी खूबियां हैं। अगर
तुम नारद को समझते हो, चैतन्य
को समझते हो,
तो
मस्तिष्क के दूसरे हिस्से को समझ रहे हो; उसकी भी बड़ी खूबियां हैं।
अगर
तुम मेरे साथ खड़े होने को राजी हुए हो, तो मेरा कोई पक्षपात नहीं है। इसलिए मैं
तुम्हें बड़ी मुश्किल में डालूंगा, जब तक
कि तुम मिट ही न जाओ। तुम हो तो मुश्किल रहेगी। क्योंकि तुम फिर-फिरकर घर बना लोगे
और मैं फिर-फिरकर घर उजाड़ दूंगा। तुम मुझसे कई दफा नाराज भी हो जाओगे कि यह मामला
क्या है?
हम
किसी तरह भरोसा ला पाते हैं, हमें
बात जंचने के करीब होती है, इधर हम
बैठने-बैठने को ही हो रहे थे कि चलो अब जगह मिल गयी, कि फिर उखाड़ दिया। घर बनने
दोगे या नहीं! या आयोजन ही चलता रहेगा, घर बनने ही न दिया जाएगा!
नहीं, मैं घर बनने न दूंगा। मैं तुम
से यह कह रहा हूं,
सभी
सरायें हैं। रुको सब जगह, मगर
रुक ही मत जाना। ठहरो सब जगह, बस ठहर
ही मत जाना। तुम्हारी धारा सतत बहती रहे। दोनों किनारों को छूती, अतियों को जोड़ती, द्वंद्व के अतिक्रमण करती।
तुम अद्वैत होते रहो। तुम्हें न भक्ति, न ज्ञान। द्वंद्व की भाषा ही भ्रांत है।
लेकिन, एक पर ही एकबारगी बोला जा
सकता है। तब इतनी उलझन हो जाती है। अगर मैं दोनों पर एक साथ बोलूं, तब तो तुम्हारे पल्ले भी कुछ
न पड़ेगा। इसलिए कभी भक्ति पर बोलता हूं, कभी ज्ञान पर बोलता हूं, तुम इससे यह मत सोचना कि मैं
तुम्हें अतियों में उलझा रहा हूं।
पूछा
है, 'कल तक आप हमें परमात्मा की ओर
जाने को कह रहे थे, आज
अपनी ओर आने को कह रहे हैं।'
भाषा
का ही भेद है। अपनी ओर जो गया, वह
परमात्मा कि ओर पहुंच गया। और तुमने कभी सुना, परमात्मा की ओर जो गया हो, वह अपनी ओर न पहुंचा हो? परमात्मा की ओर अगर गए, तो अपनी ही ओर पहुंचोगे।
परमात्मा अपनी ही ओर आने का ढंग है। अपनी ओर अगर गए, तो परमात्मा की ही तरफ
पहुंचोगे। अपनी ओर आना भी परमात्मा की तरफ ही जाने का ढंग है। क्योंकि तुम
परमात्मा हो। इस आत्यंतिक निचोड़ को गहरे से गहरा अपने भीतर समा जाने दो: तुम
परमात्मा हो।
अपनी
ओर आओ तो परमात्मा पर पहुंचोगे, परमात्मा
की ओर जाओ तो अपनी ओर पहुंच जाओगे। तुम्हारे होने में और परमात्मा के होने में रत्तीभर
का भी भेद नहीं है।
यह
दर्पण का महल कि इसमें
सब
प्रतिबिंब तुम्हारे हैं
भ्रम
के इस परदे में तुमने
कितने
रहस संवारे हैं
तुम्हीं
हो। किसी भी दर्पण में देखोगे, अपनी
ही छाया पाओगे। जहां भी तुमने जो भी पाया है, देखा है, वह तुम्हारा ही फैलाव है। समझ न होगी उतनी
फैली हुई। समझ सिकुड़ी-सिकुड़ी है, अस्तित्व
बहुत फैला है। यही तो चेष्टा है सारी कि तुम्हारी समझ भी उतनी बड़ी हो जाए जितना
बड़ा अस्तित्व है। तुम्हारी समझ पूरे अस्तित्व पर फैल जाए। फिर तुम कोई फर्क न
पाओगे।
अभी
तुम बहुत सिकुड़े-सिकुड़े, अस्तित्व
बहुत बड़ा है। इसलिए तुम अस्तित्व से अलग मालूम पड़ते हो, अपने सिकुड़ेपन के कारण। फैलो, बिखरो, तरल बनो, बहो। पत्थर की, बरफ की तरह न रहो। पिघल जाओ, पानी बन जाओ, सभी दिशाओं में बह जाओ। तुम
अचानक पाओगे तुम पहुंच गए। धीरे-धीरे तुमने उस अनंत को छू लिया। वह था ही तुम्हारा, तुम अपने ही हाथ से छोड़े बैठे
थे।
द्वार
के आगे
और
द्वार
हर बार
मिलेगा आलोक
झरेगी
रस धार
खोले
चलो द्वार के आगे और द्वार। खोले चलो द्वार के आगे और द्वार।
हर बार
मिलेगा आलोक
झरेगी
रस धार
इसलिए
द्वार पर द्वार खोले चलता हूं। कभी भक्ति के द्वार के बहाने, कभी ज्ञान के द्वार के बहाने, कभी योग, कभी तंत्र, ये सभी उसी के द्वार हैं।
क्योंकि यह सारा अस्तित्व उसी का मंदिर है। कहीं से पहुंचो उसी में पहुंच जाते हो।
ज्ञान,
भक्ति, योग, तंत्र को तो छोड़ दो, मैंने उन अतियों को भी एक
करने की चेष्टा की है जिनको सोचकर भी तुम्हारा मन घबड़ा जाता है--समाधि और संभोग तक
को। उनसे भी,
तुम
पहुंचोगे तो उसी में, क्योंकि
और कहीं जाने का कोई उपाय नहीं है। तुम कहीं जाकर जा नहीं सकते। भरमा लो भला, समझा लो भला कि कहीं और पहुंच
गए, पहुंचोगे तुम परमात्मा में
ही। नाम तुम कुछ भी रखो, वही
है।
धन से
भी तुमने उसी की खोज की है, पद से
भी उसी की खोज की है। भ्रांत होगी खोज, भूल भरी होगी, पर तुमने चाहा उसे ही है।
उसके सिवाय कभी कोई चाहा ही नहीं गया। वही प्रीतम है। तुमने कहीं भी प्यारे को
देखा हो--किसी सुंदर देह में, किसी
सुंदर फूल में,
किसी
सुंदर चांदत्तारे में--तुमने कहीं भी प्यारे की छवि पायी हो, प्यारा वही है। तुमने प्यारे
को कहीं से भी पाती लिखी हो, पता
उसी का है। उसके अतिरिक्त किसी का पता हो नहीं सकता। तुम चाहे अपने ही नाम पर
चिट्ठी लिखकर डाल लेना, तो भी
उसी को मिलेगी।
तुम्हारी
कठिनाई भी मैं समझता हूं, क्योंकि
तुम इन बातों को अति मान लेते हो। तुम शुरू से ही स्वीकार कर लेते हो कि इनमें कुछ
विरोध है। भक्ति और ज्ञान में कुछ विरोध है। तंत्र, योग में कुछ विरोध है। हिंदू, मुसलमान में कुछ विरोध है।
ईसाई, यहूदी में कुछ विरोध है। तुम
विरोध की मान्यता को लेकर ही चलते हो। तुमने कभी विरोध की मान्यता पर पुनर्विचार
नहीं किया। तुमने सोचा ही नहीं कि विरोध हो कैसे सकता है!
अस्तित्व
अगर एक है,
तो
विरोध दिखता हो--देखने की भूल होगी--हो नहीं सकता। अपनी देखने की भूल सुधार लेना।
विरोध कहीं है नहीं। शरीर और आत्मा में भी विरोध नहीं है, पदार्थ और परमात्मा में भी
विरोध नहीं है,
संसार
और निर्वाण में भी विरोध नहीं है। और जिस दिन तुम्हें यह झलक दिखायी पड़ने लगेगी, उस दिन तुम जहां हो वहीं
परमानंद को उपलब्ध हो जाओगे।
जब तक
तुम्हें विरोध दिखेगा, तब तक
तुम बेचैनी में रहोगे। क्योंकि दुकान पर बैठोगे तो मंदिर की याद आएगी--क्योंकि
मंदिर और दुकान में विरोध है। तुम्हारा मन तड़फेगा कि जीवन गंवा रहा हूं दुकान पर
बैठा-बैठा। ये क्षण तो थे पूजा के थाल संवार लेने के; ये क्षण तो थे अर्चना के, प्रार्थना के; यह घड़ी तो ध्यान में लगाने की
थी, मैं कहां धन में गंवा रहा हूं!
तुम अपनी ही निंदा करोगे। तुम अपने को ही पापी, अपराधी समझोगे। तुम अपने ही अपराध में
सिकुड़ोगे।
फिर
अगर तुम मंदिर में जाओगे, तो
दुकान पीछा करेगी। लगेगा कि इतनी देर में तो कुछ कमायी हो जाती; पता नहीं किस मंदिर में बैठकर
मैं क्या कर रहा हूं! यह मूर्ति सच भी है कि सिर्फ मान्यता है? ये जिन्होंने पूजा की, की भी है कि सिर्फ धोखा दिया
है? यह धर्म कहीं अफीम का नशा तो
नहीं? यह कहीं पुजारियों, पंडितों का पाखंड-जाल तो नहीं? हजार प्रश्न मंदिर में उठेंगे, हजार प्रश्न दुकान में
उठेंगे।
लेकिन, न तो तुम दुकान पर बैठकर मंदिर
के प्रश्न हल कर पाओगे, न
मंदिर में बैठकर दुकान के प्रश्न हल कर पाओगे। क्योंकि प्रश्नों की जड़ तुम्हारे
भीतर एक बुनियादी धारणा में है। बुनियादी धारणा है कि तुमने विरोध स्वीकार कर लिया
कि मंदिर अलग,
दुकान
अलग; संसार अलग, निर्वाण अलग। अलग वे नहीं
हैं। ऐसे जीओ कि उनका अलगपन गिर जाए। इसी जीने को मैं संन्यास कहता हूं।
इसलिए
मेरे संन्यास को पुराना संन्यासी समझ भी नहीं सकता। उसकी तो कल्पना ही संसार के
विरोध में संन्यास की थी। वह तो धारणा ही यही थी कि संसार को छोड़ देना संन्यास है।
और मेरी धारणा यही है कि द्वैत को छोड़ देना संन्यास है। द्वंद्व को छोड़ देना
संन्यास है। अतियों में अति न देखना संन्यास है। मंदिर में, मस्जिद में, बाजार में, पूजागृह में, पदार्थ में, परमात्मा में एक को ही देख
लेना। माया और ब्रह्म में एक को ही देख लेना।
मैं
तुमसे जिस संन्यास की बात कर रहा हूं वह शंकराचार्य के संन्यास से भी ऊंचे अद्वैत
तक जाता है। क्योंकि शंकराचार्य का संन्यास तो फिर भी माया में, ब्रह्म में विरोध मानता है।
कहता है,
माया
छोड़ो, तो ब्रह्म मिलेगा। जिस माया
को छोड़ने से ब्रह्म मिलता हो, वह
ब्रह्म कुछ बहुत कीमती नहीं हो सकता। माया से ज्यादा कीमती नहीं हो सकता। कीमत ही
माया चुकायी है। उससे ज्यादा कीमती हो भी कैसे सकता है! माया चुकाकर ही पाया है; तो माया के ही मूल्य का होगा।
शंकर
को भी अड़चन है,
माया
को कहां रखें?
है तो
नहीं, फिर भी है। इसे समझाएं कैसे? इतना साहस नहीं जुटा सके कि
कह सकें,
यह
परमात्मा की अभिव्यक्ति है। क्योंकि तब डर लगा, अगर परमात्मा की अभिव्यक्ति है तो फिर
दुकानों से उठाकर लोगों को मंदिरों में कैसे पहुंचाओगे? वे कहेंगे, यह परमात्मा प्रगट हो रहा है
दुकान में। फिर लोगों को पत्नियों से छुड़ाकर ब्रह्मचर्य में कैसे लगाओगे? क्योंकि वे कहेंगे कि अगर
परमात्मा की अभिव्यक्ति है माया, तो
पत्नी भी उसी की,
बच्चे
भी उसी के,
परिवार
भी उसी का। अगर परमात्मा भी बिना माया के नहीं, तो हम कैसे बिना माया के हो सकते हैं!
तो
शंकर को अड़चन हो गयी है। वे तर्कनिष्ठ आदमी हैं। आधा मस्तिष्क! विचार, तर्क, गणित वाला मस्तिष्क है। बड़ा
कुशल तार्किक मस्तिष्क है। इसलिए बड़ी अड़चन है। आधे मस्तिष्क को क्या करोगे? तो तर्क, विचार, गणित से जो ठीक बैठता है, वह ब्रह्म। जो गणित, तर्क से ठीक नहीं बैठता, वह माया।
इसलिए
तुम चकित होओगे,
भक्त
जिसको भगवान कहते हैं, शंकर
ने उनको भी माया के अंतर्गत रखा है। भक्तों का भगवान तो माया है। रो रहे हो! भजन-
कीर्तन कर रहे हो! यह तो तुम्हारे ही राग का फैलाव है। शंकर का ब्रह्म भक्त के
भगवान के ऊपर है। पार, जहां
भगवान भी छूट गया।
यह
शंकर का ब्रह्म पुरुष के मस्तिष्क की ईजाद है।
यह
नारद का भगवान स्त्री-मस्तिष्क की ईजाद है।
मैं
तुमसे एक बड़ी अनहोनी, अनघट
घटना की अपेक्षा कर रहा हूं कि तुम स्त्री-पुरुष से मुक्त हो जाओ। या तुम दोनों एक
साथ हो जाओ। दोनों बातें एक ही हैं। तुम इस तरह से देखो कि प्रेम और ध्यान में
फासला न मालूम हो। प्रेम-पगा हो तुम्हारा ध्यान। तुम्हारा प्रेम ध्यान से ही
आविर्भूत हो। तुम्हारा विचार भी तुम्हारे भाव के आंसुओं से भरा हो। तुम्हारे हृदय
और मस्तिष्क की दूरी कम होती जाए, कम
होती जाए,
और एक
ऐसी घड़ी आ जाए कि उन दोनों का एक ही केंद्र हो जाए। उसी क्षण अखंड, उसी क्षण अद्वैत का आविर्भाव
होता है।
इसलिए
मेरा संन्यास सेतु है। संसार को तोड़ना नहीं, मोक्ष को चुनना नहीं, जहां-जहां विरोध हो वहां-वहां
एक को खोजना। जहां-जहां दिखायी पड़े कि कुछ विरोध है, वहां-वहां अपनी भूल मानना और
अपनी भूल के ऊपर उठने की चेष्टा करना, ताकि एक के दर्शन हो सकें।
इसलिए
तुम्हें मैं बहुत बार एक किनारे से दूसरे किनारे, दूसरे से इस किनारे हटाऊंगा; तुम्हारी नाव को कभी उस तरफ
कभी इस तरफ लाऊंगा, ताकि
दोनों किनारों को तुम पहचानने लगो और तुम समझ लो कि दोनों किनारे एक ही गंगा के
किनारे हैं। यह तभी संभव है जब तुम दोनों किनारों को ठीक-ठीक परिचय कर लो, पहचान लो, संबंध हो जाए और दोनों
किनारों से तुम्हारा नाता बन जाए। एक किनारे पर बस गए, तो दूसरा अजनबी मालूम होने
लगता है। फिर दूसरा पराया मालूम होने लगता है। दूसरा दुश्मन मालूम होने लगता है।
इसलिए
तुम्हें एक किनारे पर जमने नहीं देता। मेरा बोलना तुम्हें एक किनारे पर बसाने के
लिए नहीं है;
मेरा
बोलना ऐसा है जैसे कोई मांझी तुम्हें एक किनारे से दूसरे किनारे ले चलता हो।
तुम्हें उतरने भी नहीं देता। तुम्हें दर्शन हो गया दूसरे किनारे का, नाव मोड़ देता हूं। चलो फिर!
धीरे-धीरे...कितनी देर तक तुम देर करोगे? कितना विलंब करोगे? कभी तो तुम्हें दिखायी
पड़ेगा--गंगा एक है, किनारे
दो हैं। दोनों किनारे जरूरी हैं। गंगा बह न सकेगी एक किनारे के सहारे। दोनों
किनारे जरूरी हैं और दोनों किनारे गंगा के नीचे मिले हैं। एक ही भूमि के हिस्से
हैं। दोनों ने गंगा को सम्हाला है।
एक पंख
के साथ,
कहो कब
विहग
उड़ सका भला गगन में?
दूसरा प्रश्न:
जिंदगी के रोज-रोज के अनुभव सभी को क्षणभर के लिए बुद्ध बना देते
हैं। पर फिर भी बुद्धत्व जन्मों-जन्मों तक क्यों रुकता चला जाता है, कृपा कर समझाएं।
क्षण
का अनुभव क्षण का ही अनुभव है, तुम्हारा
नहीं। क्रोध होता है, क्षणभर
को तुम्हें भी उसकी तिक्तता, कड़वापन
मालूम होता है,
क्षणभर
को तुम भी विषाद से, संताप
से भर जाते हो। क्षणभर को ऐसा लगता है, बस हो गया, आखिरी। अब कभी नहीं, अब कभी नहीं। प्रतिज्ञा उठती
है, व्रत का जन्म होता है।
लेकिन
ऐसा तुम बहुत बार कर चुके हो। यह बुद्धि बहुत बार आयी है और छिन गयी है। इस बुद्धि
पर भरोसा मत करो। यह तो केवल क्षण का आघात है, समझ नहीं। यह तो क्षण की पीड़ा है, बोध नहीं। यह तो क्रोध के
कारण उठा हुआ जो तुम्हारे मन में पीड़ा-पश्चात्ताप का धुआं है, उसके कारण तुम कह रहे हो। क्रोध
को जानकर तुमने नहीं कहा है, क्रोध
को पहचान कर नहीं कहा है। यह क्रोध अभी भी उतना ही अपरिचित है जितना पहले था। आ
गया है,
तुमने
दुख भोग लिया;
कांटा
चुभ गया,
कांटा
चुभ जाने से तुमने कांटे को पहचान लिया ऐसा नहीं है। कांटा चुभ गया, तुम तय करते हो कि अब कभी कांटे
से न चुभेंगे। लेकिन तुम्हें याद है, कांटे से तुम पहले भी तय कर चुके थे न चुभने
की बात।
कांटे
को खोजता तो कोई भी नहीं। लोग फूलों को खोजते हैं और कांटा चुभता है। क्या अब तुम
फूल न खोजोगे?
तुम
कहते हो,
अब हम
क्रोध न करेंगे,
लेकिन
क्या अब तुम सम्मान न चाहोगे? तुम
कहते हो,
अब कसम
खाली कि अब क्रोध कभी भी न करेंगे, लेकिन क्या तुमने अहंकार को आज उतारकर रख
दिया? क्या इस क्षण ने तुम्हें ऐसा
बोध दिया कि तुम्हारा अहंकार जल गया? अगर अहंकार रहेगा, तो क्रोध होगा ही। अहंकार
रहेगा तो क्रोध से कैसे बचोगे? अहंकार
रहेगा तो उसके घाव में पीड़ा होगी ही। जरा कोई छू देगा, हवा का झोंका आ जाएगा, किसी से घर्षण हो जाएगा, मवाद निकल आएगी। घाव तुम्हारे
भीतर है।
तो ऐसे
तो बहुत क्षण तुम्हारे जीवन में आएंगे। कामवासना के बाद तुम्हें लगेगा कि बस
ब्रह्मचर्य ही जीवन है। किसको नहीं लगता! कामी से कामी आदमी को भी ब्रह्मचर्य का
सुख अनुभव होता है। कामी से कामी आदमी भी तय करता है कि बस अब बहुत हो गया, अब जागने का समय आ गया, सुबह हो गयी। क्रोधी से
क्रोधी आदमी भी निर्णय लेता है कि बस अब जाकर कसम ले लेना है मंदिर में। बहुत बार
ले भी लेता है। कसमें आती हैं, चली
जाती हैं,
कोई
रेखा भी नहीं छूटती।
इसे
तुम बुद्धत्व मत समझ लेना कि क्षणभर को बुद्ध हो गए। क्योंकि क्षणभर को जो बुद्ध
हो गया,
वह सदा
को बुद्ध हो गया। बुद्धत्व का शाश्वत से कोई संबंध थोड़े ही है। क्षण ही शाश्वत है।
एक क्षण को भी जो जाग गया, फिर सो
न सकेगा। यह जागरण नहीं है, जागरण
का धोखा है;
इसी
धोखे के कारण तुम अपनी नींद को और सुगम बनाए चले जाते हो। इसे जागरण तो समझना ही
मत, यह नींद की दवा भला हो।
इसे
समझने की कोशिश करो।
क्रोध
हुआ, क्रोध होते से ही तुम्हारे
भीतर क्या घटना घटती है, उसे
थोड़ा विश्लेषण करो। तुम सदा से मानते थे कि तुम क्रोधी व्यक्ति नहीं हो। तुम बड़े
सज्जन,
सरलचित्त।
कभी क्रोध भी करते हो तो दूसरों के हित में। अगर क्रोध करना भी पड़ता है, तो इसीलिए कि लोगों को
सुधारना है। ऐसे तुम क्रोधी नहीं हो। प्रसंगवशात, आवश्यक मानकर, औषधि की तरह, लोगों को तुम क्रोध देते हो।
बाकी क्रोधी तुम हो नहीं, क्रोधी
तुम्हारा स्वभाव नहीं है। परिस्थितिवश! मजबूरी होती है। चाहते नहीं करना, तो भी करते हो। क्योंकि न
करोगे तो संसार चलेगा कैसे? बच्चा
कुछ गलती कर आया है, तो
नाराज होना पड़ता है। नौकर ने कुछ भूल की है, नाराज न होओगे, सब काम-धाम रुक जाएगा। संसार
चलाने के लिए क्रोध करते हो, क्रोधी
तुम नहीं हो,
यह
तुम्हारी मान्यता है। यह तुम्हारी अपनी प्रतिमा है।
फिर
तुम अपने को क्रोध करते पकड़ते हो रंगे-हाथ, आग-बबूला हो गए थे, भीतर आग जल गयी थी, उसमें तुमने कुछ उलटा-सीधा कर
दिया, सामान तोड़ दिया, कि किसी को जरूरत से ज्यादा
चोट पहुंचा दी,
अनुपात
से ज्यादा चोट पहुंचा दी, जितना
कि कसूर न था--तुम्हारी प्रतिमा खंडित होती है। तुम्हारा अहंकार तड़फता है। अब तो
तुम दुनिया से यह न कह सकोगे कि तुम क्रोधी नहीं हो। अब तो तुमने खुद ही अपने को
पकड़ लिया! किस मुंह से कहोगे? किस
मुंह से दिखाओगे?
अब तुम
पछताते हो। यह पछतावा प्रतिमा को फिर से रंग-रोगन करने की तरकीब है। पछताकर तुम
कहते हो,
देखो!
क्रोध हो गया तो भी मैं आदमी बुरा नहीं हूं, पछताता हूं। क्षमा मांगते हो कि क्षमा कर
दो। इस तरह तुम यह कह रहे हो कि मेरा सिंहासन से जो गिर गया अहंकार, उसे पुनः प्रतिष्ठित हो जाने
दो।
क्षमा
मांग कर,
पछता
कर, दुखी होकर, मंदिर में जाकर, पूजा-प्रार्थना करके, उपवास करके, तुम फिर विराजमान हो जाते हो।
तुम फिर कहते हो,
मैं
भला आदमी हो गया;
धार्मिक, साधु। अब तुम फिर तैयार हो गए
वहीं, जहां तुम पहले थे क्रोध के।
अब तुम फिर क्रोध करोगे। अब तुम उसी जगह आ गए जहां से क्रोध पैदा हुआ था। तुम्हारा
पश्चात्ताप तुम्हारे क्रोध को बचाने की तरकीब है। तुम्हारा दुख, तुम्हारी क्षमायाचना, वास्तविक नहीं है; तुम्हारे अहंकार का आभूषण है।
इसीलिए तो काम नहीं पड़ता, हजार
बार करते हो और व्यर्थ हो जाता है।
नहीं, इसको तुम बुद्धत्व का क्षण मत
समझ लेना। बुद्धत्व के क्षण का अर्थ है--जो भी घड़ी घटी हो, उसको उसकी सर्वांगीणता में
देखना। क्रोध को देखना, क्यों
उठा? दूसरे पर जिम्मेवारी मत देना।
क्योंकि क्रोध से दूसरे का कोई भी संबंध नहीं है। दूसरा निमित्त हो सकता है, कारण नहीं। खूंटी हो सकता है, कोट नहीं। कोट तो तुम्हारा ही
तुम्हें टांगना पड़ता है। दूसरे ने अवसर दिया हो, यह हो सकता है। लेकिन उस अवसर
में जो प्रगट होता है, वह
तुम्हारा ही अंतस्तल है।
ऐसा ही
समझो कि कोई एक सूखे कुएं में बाल्टी डालता है, खड़खड़ाकर लौट आएगी, पानी लेकर नहीं आएगी। सूखा
कुआं है,
पानी
आएगा कहां से?
कोई
बाल्टी थोड़े ही पानी ला सकती है। किसी ने तुम्हें गाली दी, अगर तुम्हारे भीतर क्रोध का
कुआं सूखा है,
खड़खड़ाकर
गाली वापस लौट आएगी; क्रोध
लेकर नहीं आएगी। पछताएगा गाली देने वाला। पीड़ित होगा, सोचेगा, क्या हुआ? चकित होगा, विश्वास न कर सकेगा। तुम उसे
भी एक मौका दोगे पुनर्विचार का। वह फिर से ध्यान करे अपनी स्थिति पर, क्या कर गुजरा। तुम जैसे के
तैसे रहोगे।
हां, बाल्टी भीतर जाए, जल भरा हो, तो भरकर ले आती है। जल तो
तुम्हारा है,
बाल्टी
किसी और की हो सकती है, यह
खयाल रखना। जो क्रोध करता है, उसे
गौर से देखना चाहिए कि जल सदा मेरा है, कारण मेरे भीतर है, दूसरा निमित्त है। एक। दूसरी
बात, उसे देखना चाहिए कि अगर आज यह
निमित्त न मिलता,
तो मैं
क्रोध करता या न करता? तुम
चकित होओगे,
अगर यह
आदमी आज न मिलता तो कोई दूसरे पर तुम्हें क्रोध करना ही पड़ता। क्रोध तो तुम्हें
करना पड़ता। वह तो निकास था। तुम कोई न कोई बहाना खोज लेते।
मनोवैज्ञानिकों
ने बहुत से प्रयोग किए हैं। एकांत में रख देते हैं व्यक्ति को बीस दिन के लिए, सारी सुविधा जुटा देते हैं।
जब भोजन चाहिए,
थाली आ
जाती है। स्नान चाहिए, स्नान
हो जाता है। बिस्तर पर जाना है, बिस्तर
हो जाता है। कोई तकलीफ नहीं। लेकिन बीस दिन में...खोपड़ी से तार जुड़े रहते हैं, जो खबरें देते रहते हैं कि कब
आदमी क्रोधित हो रहा है, कब
नहीं हो रहा है। वह क्रोधित होता है फिर भी। अब तो कोई कारण नहीं है, न कोई बिगाड़ कर रहा है, न किसी का पता है उसे, लेकिन फिर भी क्रोध की घड़ी
आती है। उत्तप्त हो जाता है, भीतर
आग जलने लगती है,
बेतहाशा
क्रोध होने की आकांक्षा पैदा होती है।
ऐसा
समझो, कामवासना तुममें है, उसी तरह क्रोध की वासना भी
तुममें है। लोभ की वासना भी तुममें है। जो व्यक्ति गौर से चिंतन करेगा, ध्यान करेगा, वह पाएगा कि सब भीतर है, बाहर तो बहाने हैं।
इसलिए
बहानों पर जिम्मेवारी मत डालो। अपने ही भीतर चलो, विश्लेषण करो, गहरे उतरो--और जब क्रोध हो
तभी उतरो। क्रोध जा चुका, फिर
उतरने का कोई सार नहीं। आग बुझ गयी, फिर राख को टटोलने से कुछ भी न होगा।
अक्सर
हम राख को टटोलते हैं। क्रोध तो जा चुका, फिर बैठे पछता रहे हैं। राख को रखे बैठे
हैं। जब क्रोध जलता हो, भभकता
हो, तब द्वार-दरवाजे बंद कर लो, यह अवसर मत छोड़ो। यह ध्यान का
बड़ा बहुमूल्य क्षण है। इस क्रोध को ठीक से देखो। इसे पूरा उभारो। तकिए रख लो चारों
तरफ, मारो, पीटो, चीखो, चिल्लाओ; सब तरह से अपने को उद्विग्न
कर लो। जितनी विक्षिप्तता तुममें भरी हो, बाहर ले आओ, ताकि पूरा-पूरा दर्शन हो सके।
आईना सामने रख लो,
उसमें
अपने चेहरे को भी बीच-बीच में देखते जाओ, क्या हो रहा है? आंखें कैसी लाल हो गयी हैं? चेहरा कैसा वीभत्स हो गया है? तुम कैसे क्रोधित हो गए हो? राक्षसों की तुमने कल्पना
सुनी थी,
कहानी
पढ़ी थी,
वह
सामने खड़ा है। उसे पूरा का पूरा देख लो।
और जरा
भी भीतर दबाओ मत। क्योंकि दबाना ही रोग है। दबाने के कारण ही हम परिचित नहीं हो
पाते। प्रगट करो। किसी पर प्रगट कर भी नहीं रहे हो, तकियों को मार रहे हो। तकिया
तो बुद्धपुरुष है,
उनको
कोई...वे तुम पर नाराज भी न होंगे, बदला भी न लेंगे। तुम उनसे क्षमा भी न
मांगोगे,
तो भी
कोई चिंता न करेंगे। लेकिन घड़ीभर को तुम अपने को जितना जला सको जला लो। अपने जलते
हुए रूप को देखो। अपने को बिलकुल चिता पर चढ़ा दो क्रोध की। रत्तीभर दबाओ मत।
क्योंकि जितना दबा रह जाता है, उतना
ही अपरिचित रह जाता है। और एक बार भी अगर तुमने क्रोध की पूरी भभक देख ली, तो पश्चात्ताप न करना पड़ेगा
और न व्रत लेना पड़ेगा कि अब क्रोध न करूंगा। तुम क्रोध कर ही न सकोगे।
तो
क्षण बुद्धत्व का हो गया। तो यह क्षण में जो संपदा तुम्हारे पास आएगी, सदा तुम्हारे पास रहेगी। इसे
पकड़ना न पड़ेगा। खयाल रखो--रेचन, दमन
नहीं। प्रगट करो। किसी पर प्रगट करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उससे तो जाल बढ़ता है, शृंखला बनती है। पत्नी पर
प्रगट किया,
पति पर
प्रगट किया,
बेटे
पर प्रगट किया,
उससे
कोई हल नहीं होता। क्योंकि दूसरा जवाब देगा। आज नहीं देगा, कल देगा, परसों देगा। बच्चा अभी छोटा
है, तुम जब बूढ़े हो जाओगे तब
देगा। लेकिन शृंखला जारी रहेगी। पत्नी आज कुछ न बोलेगी, कल ठीक अवसर की तलाश में
रहेगी,
तब
देगी। यह तो अंत न होगा।
इसे
तुम अकेले में ही करो, शून्य
में करो,
ताकि
इसका अंत हो जाए। और तुम अपने क्रोध को इतनी प्रगाढ़ता से देख लो कि उसका कोई
कोना-कांतर भी तुम्हारे भीतर दबा न रह जाए।
तुम
चकित हो जाओगे,
उसे
देखते-देखते ही क्रोध विलीन हो जाएगा। और एक गहन शांति भीतर उतर आएगी, जैसे तूफान के बाद सब शांत हो
जाता है। उस शांति के क्षण को, उसके
स्वाद को बुद्धत्व कहो। वह धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा।
ऐसा
तुम प्रत्येक घटना के साथ करो। क्रोध के साथ, लोभ के साथ, काम के साथ। जीवन में
जिन-जिनको तुमने अपना बंधन पाया है, जहां-जहां कारागृह अनुभव किया है, वहां-वहां प्रयोग करो। बहुत
ज्यादा कारागृह नहीं हैं, बड़े
थोड़े हैं,
उंगलियों
पर गिने जा सकते हैं। फिर प्रत्येक व्यक्ति का एक बंधन सबसे ज्यादा मजबूत होता है।
किसी का क्रोध,
किसी
का काम,
किसी
का लोभ। तुम अपने मूल बंधन को ठीक से पहचान लो, उसी पर तुम ठीक से प्रयोग करते जाओ। देर न
लगेगी। जल्दी ही,
बिना
पछताए,
तुम
पार हो जाओगे। लेकिन पार होने का रास्ता इन रोगों का पूर्ण अनुभव है। पूर्ण अनुभव
में तुम जागते हो। संबोधि घटित होती है। सम्यक-ज्ञान होता है।
तो यह
मत कहो कि तुम्हारे जो छोटे-छोटे रोज अनुभव होते हैं और उनमें तुम जो सोए-सोए से
कुछ निर्णय ले लेते हो कि ठीक है, अब लोभ
न करेंगे,
क्या
सार है! इस तरह की सस्ती बातों से कुछ होगा न।
लबालब
जाम फिर साकी ने वापस ले लिया मुझसे
न जाने
क्या कहा मैंने न जाने क्या हुआ मुझसे
बहुत
बार तुम्हारे सामने प्याली आ जाती है जीवन-रस की, लेकिन लौट जाती है।
लबालब
जाम फिर साकी ने वापस ले लिया मुझसे
न जाने
क्या कहा मैंने न जाने क्या हुआ मुझसे
होश
में रहोगे तो ही यह प्याली पी सकोगे। यह ज्ञान की, बुद्धत्व की, अमृत की प्याली बहुत बार आती
है तुम्हारे सामने, यह सच
है। लेकिन हर बार हट जाती है। पास आ भी नहीं पाती, बस झलक मिलती है और हट जाती
है। अब झलकों से ही राजी मत रहो। अब झलक को यथार्थ बनाओ। धीरे-धीरे प्रयोग करो।
बुद्धत्व
का अर्थ है: परिस्थिति से नहीं पैदा होता, मनःस्थिति से पैदा होता है। परिस्थिति तो
बहुत बार आती है,
लेकिन
मनःस्थिति नहीं है। चूक-चूक जाते हो। अवसर तो बहुत मिलता है, खो-खो देते हो। मौसम तो बहुत
बार आता है,
लेकिन
तुम बीज बोते ही नहीं; फिर
फसल काटने का वक्त आता है तब तुम रोते बैठे रहते हो। अब जब अवसर आए, चूकना मत। बुरे से बुरा अवसर
भी परमात्मा को पाने का ही अवसर है। अशुभ से अशुभ घड़ी भी उसी की तरफ जाने की सीढ़ी
है। अंधकार से अंधकार क्षण भी प्रकाश की ही खोज पर एक पड़ाव है।
और जरा
गौर से देखो,
तुमने
अब तक कमाया क्या है? गंवाया
हो भला,
कमाया
तो कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता। कुछ थोथे शब्द इकट्ठे कर लिए होंगे, जिनका कोई भी मूल्य नहीं है।
जिनको तुम कचराघर में भी फेंकने जाओगे तो कचराघर भी प्रसन्न न होगा। क्या है
तुम्हारे पास संपदा के नाम पर? क्योंकि
संपदा तो सिर्फ एक है, संबोधि।
संपदा तो एक है,
जागरण।
कितनी गंदगी तुमने इकट्ठी कर ली है! और तुम किए ही चले जाते हो। शायद तुम आदी हो
गए हो। आदत का खयाल करो।
मैंने
सुना है,
एक
आदमी एक तोपखाने पर रात पहरा देता था। और रात हर घंटे तोप, एक तोप छूटती थी। तीस साल तक
उसने पहरा दिया। वह मजे से रातभर सोया रहता था। हर घंटे तोप छूटती, और वह सोया रहता। लेकिन तीस
साल बीतने के बाद इकतीसवें साल एक दिन तोप खराब हो गयी और दो बजे रात तोप न छूटी।
वह एकदम चौंककर उठ बैठा। उसने कहा, क्या मामला है?
तीस
साल तक तोप न जगा सकी उसे, एक दिन
तोप न चली तो नींद टूट गयी। आदत! तुम्हारी दुर्गंध भी तुम्हें पता नहीं चलती।
दूसरों को पता चले तो शिष्टाचारवश वे तुमसे कह नहीं सकते। कहें तो तुम नाराज होते
हो, झगड़ा-झांसा खड़ा करते हो। और
वे भी कहें कैसे,
क्योंकि
उनकी भी दुर्गंध है। उन्हें भी छिपानी है। तो सब एक-दूसरे की छिपाए रहते हैं।
शिष्टाचार
का अर्थ है,
एक-दूसरे
की दुर्गंध को छिपाए चलो। न हम तुम्हारी कहें, न तुम हमारी कहो। एक पारस्परिक समझौता है।
हम तुम्हारे सौंदर्य का गुणगान करें, तुम हमारे सौंदर्य का गुणगान करो। हम
तुम्हारी महिमा के गीत गाएं, तुम
हमारी महिमा के गीत गाओ। फिर सब भला ही भला है।
जरा
खयाल करना,
इस
धोखे में मत पड़े रहना! अपने पर तुम्हें ध्यान करना होगा। अपनी दुर्गंधें खोजनी
होंगी। कहां-कहां तुमने घाव और मवाद पैदा कर लिए हैं, उनका ठीक-ठीक स्मरण करना
होगा। तो ही इलाज हो सकता है, तो ही
औषधि खोजी जा सकती है, तो ही
चिकित्सा का कोई उपाय है।
अब तो
इस तालाब का पानी बदल दो
ये
कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
तुम
कुम्हलाए जा रहे हो।
अब तो
इस तालाब का पानी बदल दो
ये
कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
कहीं
ये बिलकुल ही न कुम्हला जाएं। कहीं ऐसा न हो कि इनके पुनरुज्जीवन की संभावना ही
शून्य हो जाए।
क्रोध
भी एक जल है,
अक्रोध
भी। कामवासना भी जल है, प्रेम
भी। बेहोशी भी जल है, होश
भी। लेकिन बेहोशी सड़ा हुआ जल है। होश शुद्ध, स्फटिक मणि जैसा स्वच्छ जल है। अभी-अभी
हिमालय से उतरा हो!
बदलो
अपने आसपास के जल को। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान करना चाहते हैं। वे यह
कह रहे हैं कि कमल खिलाना चाहते हैं। लेकिन जल बदलने की तैयारी नहीं। कमल खिलाना
चाहते हो,
तो
तालाब की थोड़ी स्वच्छता करनी होगी। कमल खिलाना चाहते हो, तो यह सड़ा हुआ जल थोड़ा हटाना
पड़ेगा। कमल अगर खिलाने की आकांक्षा जगी है, तो कमल के योग्य अवसर भी जुटाना पड़ेगा। वे
चाहते हैं,
कोई
ऊपर से कमल डाल दे। वे कोई नकली कमल की तलाश में हैं। ऐसा धोखा नहीं हो सकता। कम
से कम जीवन...अभी भी कागजी कमलों से धोखा नहीं दिया जा सकता जीवन को। अस्तित्व अभी
भी असली को ही मानता है।
तो तुम, अगर दिखायी पड़ता है तुम्हें
कि तुम्हारे जीवन में कमल नहीं खिल रहा है, जल को बदलो। और जल को बदलने का ढंग है, जल को गौर से देखो, छिपाओ मत; पहचानो कहां गंदगी है, उसका निदान करो। निदान आधी
चिकित्सा है। ठीक से जान लेना आधा मुक्त हो जाना है।
तीसरा प्रश्न:
कई दिनों से मुझे यही लग रहा है कि मेरा जीवन एक दुर्घटना है। कुछ
भी करने में अपने को असमर्थ पाती हूं। इस कारण बहुत पीड़ा भी भोग रही हूं। कृपया
मुझे राह दिखाएं।
प्रश्न
के उत्तर के पहले--मैं जब भी तुम्हें कुछ कहता हूं, मेरा प्रयोजन कुछ और होता है, तुम कुछ और अर्थ ले लेते हो।
मैं
कहता हूं फूल चाहिए, ताकि
तुम फूलों की खोज पर निकलो और तुम्हारे जीवन में सुवास की वर्षा हो। लेकिन तुम
फूलों की खोज पर तो नहीं निकलते, कांटों
की पीड़ा से भर जाते हो। मैं तुमसे कहता हूं कमल खिलना चाहिए, इसलिए जल को, सरोवर को साफ करो, स्वच्छ करो; तुम कमल की तो फिकर छोड़ देते
हो, तुम इस सड़े जल के किनारे
बैठकर छाती पीटकर रोने लगते हो कि सड़ा जल है, अब क्या करें? मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि
मेरा प्रयोजन कुछ और होता है, तुम
कुछ और अर्थ ले लेते हो।
जैसे
मैंने कल कहा कि जीवन एक दुर्घटना नहीं होनी चाहिए। जीवन में एक दिशा हो। जीवन में
एक तारतम्य हो। जीवन में एक शृंखला हो। तुम ऐसे ही हवा के थपेड़ों पर यहां-वहां न
चलते रहो--कुछ हो गया, हो गया; नहीं हुआ, नहीं हुआ--भीड़ के धक्के
तुम्हें कहीं न ले जाएं। तुमसे कोई पूछे तो तुम कह सको कि तुम जा रहे हो। कभी
तुमने भीड़ में देखा, बड़ी
भीड़ जा रही हो तो तुम चलने लगते हो। फिर ऐसी हालत हो जाती है कि रुकना मुश्किल हो
जाता है,
क्योंकि
भीड़ इतनी तेजी से चल रही है, तुमको
भी चलना पड़ता है,
नहीं
तो गिर पड़ोगे। कुंभ के मेले में अनेक लोग मरे। वे भीड़ के साथ घसिट गए। रुक न सके।
कभी
बड़ी भीड़ में चलकर देखो तो तुमको पता चलेगा कि फिर तुम नहीं चलते, भीड़ चलती है। तुम भीड़ के
द्वारा चलाए जाते हो। भीड़ अगर पूरब जा रही है, तो तुम पश्चिम नहीं जा सकते, क्योंकि झंझट खड़ी होगी। भीड़
से टकरा जाओगे,
मौत बन
जाएगी। मरोगे,
दब
जाओगे। भीड़ के साथ ही जाना पड़ता है।
दुर्घटना
से मेरा अर्थ है कि तुम्हारा जीवन ऐसा न हो कि तुमसे कोई पूछे कहां जा रहे हो, और तुम उत्तर न दे पाओ।
तुम्हारा जीवन ऐसा न हो कि कोई तुमसे पूछे तुम कौन हो, और तुम निरुत्तर खड़े रह जाओ।
कोई तुमसे पूछे कि क्या तुम्हारी नियति है, क्या पाना चाहा था, कौन से फूल खिलाने चाहे थे, कौन से तारे जलाना चाहे थे, और तुम कुछ भी जवाब न दे सको, तुम्हारी आंखें सूनी पथरीली
रह जाएं। दुर्घटना का अर्थ यह है कि तुम निरुत्तर हो।
उत्तर
खोजो। उत्तर खोजने का अर्थ है, थोड़ा
अपने भीतर चलो। थोड़ा भीड़ की तरफ आंख कम करो, थोड़े अपने भीतर जाओ। क्योंकि भीतर कोई है
तुम्हारे,
जहां
सब उत्तर है। जहां तुम्हारी नियति छिपी है। जहां बीज है, जो कमल बनेगा। जहां संभावना
है, जो सत्य बनेगी। भीतर चलो।
दुर्घटना
का अर्थ है,
तुम
बाहर ही बाहर देखकर अब तक जीए हो। दूसरों को देखकर जीए हो, इसलिए भटक गए हो। अब अपने को
देखकर जीओ।
मैं यह
नहीं कह रहा हूं कि तुम्हें कुछ करने में समर्थ होना चाहिए।
प्रश्न
पूछा है,
'कई
दिनों से मुझे यही लग रहा है कि मेरा जीवन एक दुर्घटना है। कुछ भी करने में अपने
को असमर्थ पाती हूं।'
करने
का कोई सवाल नहीं है। क्या करना है? क्या करके तुम्हें लगेगा कि समर्थ हो गयी? धन कमाओ, पद कमाओ, प्रतिष्ठा पा लो, राष्ट्रपति हो जाओ, प्रधानमंत्री हो जाओ--क्या
करके लगेगा कि समर्थ हो गयी? करने
का कोई सवाल ही नहीं है, सब
करना दुर्घटना में ले जाएगा। तुम कुछ भी करो, राष्ट्रपति हो जाओ कि घर में भोजन बनाओ, दोनों हालत में दुर्घटना
रहेगी।
राष्ट्रपतियों
को तुम यह मत समझना कि भीड़ के बाहर हो गए हैं। भीड़ के आगे हो गए होंगे। वहां और
बड़ी हुड़दंग है,
क्योंकि
पूरी भीड़ धक्का देती है। बीच में तो आदमी फिर भी खिसक जाए कहीं। पीछे हो--तुम अगर
रसोइए का काम कर रहे हो--तो कोई ज्यादा चिंता नहीं है, पीछे के पीछे निकल भी गए तो
कोई भीड़ तुम्हारे लिए शोरगुल न मचाएगी। राष्ट्रपतियों को तो निकलने भी नहीं देती।
पहले तो पहुंचने नहीं देती, फिर
निकलने नहीं देती। गरीब तो निकल भी जाए भीड़ के बाहर, कौन फिक्र करता है? लोग खुश ही होते हैं कि चलो, एक झंझट मिटी। गरीब तो राह के
किनारे खड़ा भी हो जाए, तो कौन
उसे निमंत्रण देता है?
लेकिन
पहले लोग आगे पहुंचने की जद्दोजहद करते हैं, तब लोग पहुंचने नहीं देते, क्योंकि उनको भी आगे जाना है।
सभी तो आगे नहीं हो सकते। पंक्ति में आगे सभी को खड़े होना है, तो बड़ा संघर्ष है। फिर किसी
तरह आगे पहुंच गए,
तो फिर
पीछे लौटना बहुत मुश्किल हो जाता है। खुद भी नहीं लौटना चाहते, लोग भी न लौटने देंगे।
करने
का सवाल नहीं है। करना मात्र दुर्घटना में ले जाएगा। होना। होने पर जोर दो। इस
आयाम को ठीक से समझ लो।
करने
का मतलब ही यह होता है, जो
दूसरों को दिखायी पड़ सके। तुमने एक चित्र बनाया, दूसरे देख सकते हैं। तुमने एक
मूर्ति बनायी,
दूसरे
देख सकते हैं। तुमने एक भवन बनाया, दूसरे देख सकते हैं। तुमने धन कमाया, पद कमाया, दूसरे देख सकते हैं। लेकिन
तुमने शांति पायी,
कौन
देखेगा?
अशांत
आंखें पहचान ही न सकेंगी। तुम्हारे भीतर एक भाव का फूल खिला, कौन देखेगा? भाव का फूल देखने के लिए भक्त
चाहिए। तुम्हारे भीतर ज्ञान की सुरभि उठी, कौन देखेगा? ज्ञानी पहचान पाएंगे।
तुम्हारे भीतर चैन की बांसुरी बजी, कौन सुनेगा? सुनने के लिए बड़े निष्णात कान
चाहिए।
होना।
होने की फिक्र करो। फिर तुम बाहर रसोइया हो कि राष्ट्रपति हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। भीतर की
बांसुरी बजे,
तो
दुर्घटना से मुक्त होओगे। फिर बाहर कुछ भी करो--कुछ तो करना ही होगा। बाहर के करने
को इतना मूल्य ही मत दो। उसका कोई मूल्य भी नहीं है। अ करो, कि ब करो, कि स करो, अंततः बराबर है, मौत सब छीन लेगी।
हां, भीतर कुछ है जो मौत न छीन
पाएगी। कुछ भीतर का बनाओ। बाहर का दूसरे भी मिटा सकते हैं। बाहर का दूसरे नष्ट कर
सकते हैं। भीतर की ही मालकियत पूरी है।
इसलिए
तो हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। वही एकमात्र मालिक है। क्योंकि वह कुछ भीतर
कमा रहा है,
जिसे
कोई छीन न सकेगा,
जिसे
कोई मिटा न सकेगा। वह एक ऐसा चित्र बना रहा है, सदियां बीत जाएंगी जिसके रंग फीके न होंगे।
क्योंकि रंगों का उसने उपयोग ही नहीं किया, जो फीके हो जाएं। उसने एक ऐसा गीत गाया है, जो कभी बासा न होगा। क्योंकि
उसने उन शब्दों का उपयोग ही नहीं किया जो बासे पड़ जाएं। उसने शून्य से गाया है।
उसने अरूप में रंग भरा है। उसने निराकार को पकड़ा है।
भीतर
चलो। दुर्घटना से बचना है तो भीतर चलो। दुर्घटना से बचने का यह अर्थ नहीं है कि
तुम बाहर बदलाहट करो, कि चलो
अब दुकान करते थे तेल की, अब तेल
की न करेंगे कपड़े की करेंगे, कि
सोने-चांदी की करेंगे। दुकानें सब दुकानें हैं। कपड़े की हों, तेल की हों, सोने-चांदी की हों--सब कचरा
है।
बाहर
जो है,
उसका
कोई आत्यंतिक मूल्य नहीं है। तुम भीतर उतरो। तुम भीतर का मार्ग पकड़ो। बाहर के
उलझाव से थोड़ा समय निकालकर भीतर डूबो। और मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारे पास जितनी साधारण
जिंदगी हो उतनी ही सुविधा है भीतर जाने की। तुम उसका लाभ उठा लेना। ज्यादा धन हो, भीतर जाना मुश्किल! ज्यादा पद
हो, भीतर जाना मुश्किल! हजार
उपद्रव हैं,
जाल-जंजाल
हैं। बाहर कुछ ज्यादा उपद्रव न हो, थोड़ा-बहुत काम-धाम हो, भीतर जाने की सुविधा, अवकाश बहुत। गरीब अगर थोड़ा सा
समझदार हो,
तो
अमीर से ज्यादा अमीर हो सकता है।
लेकिन
हालतें उलटी हैं। यहां अमीर भी नासमझ हैं। वे गरीब से भी ज्यादा गरीब हो जाते हैं।
तुम अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य बना सकते हो। कीमिया तुम्हारे हाथ में है, उपयोग करो। लेकिन तुम अपने
दुर्भाग्य को सौभाग्य नहीं बनाते। तुम अपने सौभाग्य को भी दुर्भाग्य की तरह देखते
हो।
अब
स्त्रियां हैं सारी दुनिया में--यह प्रश्न स्त्री का है--सारी दुनिया में
स्त्रियां कोशिश कर रही हैं कि पुरुषों के साथ दौड़ में कैसे उतर जाएं। क्योंकि
पुरुष अधिकारी हैं, पदों
पर हैं,
धन कमा
रहे हैं,
प्रतिष्ठा
है, यह है, वह है, स्त्रियों को भी दौड़ पड़ी है।
उस दौड़ में वे और भी दुर्घटनाग्रस्त हो जाएंगी। उनको एक मौका था, घर की एक छाया थी, चुप्पी के साधन थे--बच्चे
स्कूल जा चुके,
पति
दुकान जा चुका,
संसार
समाप्त हुआ--थोड़ी देर अपने में डूबने का उपाय था। उसको खोने को स्त्रियां बड़ी आतुर
हैं। उनको भी दफ्तर जाना है, उनको
भी कशमकश करनी है,
बाजार
में खड़े होकर धक्का-मुक्की देने हैं। जब तक वे भी पुरुष की तरह ही पसीने से तर न
हो जाएंगी और पुरुष की तरह ही बेचैन और परेशान और विक्षिप्त न होने लगेंगी, तब तक उन्हें चैन नहीं।
क्योंकि स्त्री को भी समान होना है!
हम
सौभाग्य को भी दुर्भाग्य में बदल लेते हैं। चाहिए तो यह कि हम दुर्भाग्य को भी
सौभाग्य में बदल लें।
चीन
में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ। वह अपने गुरु के पास गया तो गुरु ने उससे पूछा कि तू सच
में संन्यासी हो जाना चाहता है कि संन्यासी दिखना चाहता है? उसने कहा कि जब संन्यासी ही
होने आया तो दिखने का क्या करूंगा? होना चाहता हूं। तो गुरु ने कहा, फिर ऐसा कर, यह अपनी आखिरी मुलाकात हुई।
पांच सौ संन्यासी हैं इस आश्रम में, तू उनका चावल कूटने का काम कर। अब दुबारा
यहां मत आना। जरूरत जब होगी, मैं आ
जाऊंगा।
कहते
हैं, बारह साल बीत गए। वह संन्यासी
चौके के पीछे,
अंधेरे
गृह में चावल कूटता रहा। पांच सौ संन्यासी थे। सुबह से उठता, चावल कूटता रहता। सुबह से
उठता, चावल कूटता रहता। रात थक जाता, सो जाता। बारह साल बीत गए। वह
कभी गुरु के पास दुबारा नहीं गया। क्योंकि जब गुरु ने कह दिया, तो बात खतम हो गयी। जब जरूरत
होगी वे आ जाएंगे,
भरोसा
कर लिया।
कुछ
दिनों तक तो पुराने खयाल चलते रहे, लेकिन अब चावल ही कूटना हो दिन-रात तो
पुराने खयालों को चलाने से फायदा भी क्या? धीरे-धीरे पुराने खयाल विदा हो गए। उनकी
पुनरुक्ति में कोई अर्थ न रहा। खाली हो गए, जीर्ण-शीर्ण हो गए। बारह साल बीतते-बीतते तो
उसके सारे विदा ही हो गए विचार। चावल ही कूटता रहता। शांत रात सो जाता, सुबह उठ आता, चावल कूटता रहता। न कोई अड़चन, न कोई उलझन। सीधा-सादा काम, विश्राम।
बारह
साल बीतने पर गुरु ने घोषणा की कि मेरे जाने का वक्त आ गया और जो व्यक्ति भी
उत्तराधिकारी होना चाहता हो मेरा, रात
मेरे दरवाजे पर चार पंक्तियां लिख जाए जिनसे उसके सत्य का अनुभव हो। लोग बहुत डरे, क्योंकि गुरु को धोखा देना
आसान न था। शास्त्र तो बहुतों ने पढ़े थे। फिर जो सब से बड़ा पंडित था, वही रात लिख गया आकर। उसने
लिखा कि मन एक दर्पण की तरह है, जिस पर
धूल जम जाती है। धूल को साफ कर दो, धर्म उपलब्ध हो जाता है। धूल को साफ कर दो, सत्य अनुभव में आ जाता है।
सुबह गुरु उठा,
उसने
कहा, यह किस नासमझ ने मेरी दीवाल
खराब की?
उसे
पकड़ो।
वह
पंडित तो रात ही भाग गया था, क्योंकि
वह भी खुद डरा था कि धोखा दें! यह बात तो बढ़िया कही थी उसने, पर शास्त्र से निकाली थी। यह
कुछ अपनी न थी। यह कोई अपना अनुभव न था। अस्तित्वगत न था। प्राणों में इसकी कोई
गूंज न थी। वह रात ही भाग गया था कि कहीं अगर सुबह गुरु ने कहा, ठीक! तो मित्रों को कह गया था, खबर कर देना; अगर गुरु कहे कि पकड़ो, तो मेरी खबर मत देना।
सारा
आश्रम चिंतित हुआ। इतने सुंदर वचन थे। वचनों में क्या कमी है? मन दर्पण की तरह है, शब्दों की, विचारों की, अनुभवों की धूल जम जाती है।
बस इतनी ही तो बात है। साफ कर दो दर्पण, सत्य का प्रतिबिंब फिर बन जाता है। लोगों ने
कहा, यह तो बात बिलकुल ठीक है, गुरु जरा जरूरत से ज्यादा
कठोर है। पर अब देखें, इससे
ऊंची बात कहां से गुरु ले आएंगे। ऐसी बात चलती थी, चार संन्यासी बात करते उस
चावल कूटने वाले आदमी के पास से निकले। वह भी सुनने लगा उनकी बात। सारा आश्रम
गर्म! इसी एक बात से गर्म था।
सुनी
उनकी बात,
वह
हंसने लगा। उनमें से एक ने कहा, तुम
हंसते हो! बात क्या है? उसने
कहा, गुरु ठीक ही कहते हैं। यह किस
नासमझ ने लिखा?
वे
चारों चौंके। उन्होंने कहा, तू
बारह साल से चावल ही कूटता रहा, तू भी
ज्ञानी हो गया! हम शास्त्रों से सिर ठोंक-ठोंककर मर गए। तो तू लिख सकता है इससे
बेहतर कोई वचन?
उसने
कहा, लिखना तो मैं भूल गया, बोल सकता हूं, कोई लिख दे जाकर। लेकिन एक
बात खयाल रहे,
उत्तराधिकारी
होने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं। यह शर्त बता देना कि वचन तो मैं बोल देता हूं, कोई लिख भी दे जाकर--मैं तो लिखूंगा
नहीं, क्योंकि मैं भूल गया, बारह साल हो गए कुछ लिखा
नहीं--उत्तराधिकारी मुझे होना नहीं है। अगर इस लिखने की वजह से उत्तराधिकारी होना
पड़े, तो मैंने कान पकड़े, मुझे लिखवाना भी नहीं। पर
उन्होंने कहा,
बोल!
हम लिख देते हैं जाकर। उसने लिखवाया कि लिख दो जाकर--कैसा दर्पण? कैसी धूल? न कोई दर्पण है, न कोई धूल है, जो इसे जान लेता है, धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
आधी
रात गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये पांच सौ
तुझे मार डालेंगे। यह मेरा चोगा ले, तू मेरा उत्तराधिकारी बनना चाहे या न बनना
चाहे, इससे कोई सवाल नहीं, तू मेरा उत्तराधिकारी है। मगर
अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये बर्दाश्त न करेंगे कि चावल कूटने वाला और सत्य को
उपलब्ध हो गया,
और ये
सिर कूट-कूटकर मर गए।
जीवन
में कुछ होने की चेष्टा तुम्हें और भी दुर्घटना में ले जाएगी। तुम चावल ही कूटते
रहना, कोई हर्जा नहीं है। कोई भी
सरल सी क्रिया,
काफी
है। असली सवाल भीतर जाने का है। अपने जीवन को ऐसा जमा लो कि बाहर ज्यादा उलझाव न
रहे। थोड़ा-बहुत काम है जरूरी है, कर
दिया, फिर भीतर सरक गए। भीतर सरकना
तुम्हारे लिए ज्यादा से ज्यादा रस भरा हो जाए। बस, जल्दी ही तुम पाओगे दुर्घटना
समाप्त हो गयी,
अपने
को पहचानना शुरू हो गया। अपने से मुलाकात होने लगी। अपने आमने-सामने पड़ने लगे।
अपनी झलक मिलने लगी। कमल खिलने लगेंगे। बीज अंकुरित होगा। तुम्हारी नियति, तुम्हारा भाग्य, करीब आ जाएगा।
लेकिन
मेरी बात को गलत मत समझ लेना। मैंने यह नहीं कहा है कि तुम कुछ करने में समर्थ हो
जाओ; मैंने कहा है, तुम कुछ होने में समर्थ हो
जाओ। होना। करना नहीं। करना तो बाहर की भाषा है, होना भीतर की भाषा है। और अगर
ऐसी तुम्हारी समझ में बात बैठ जाए तो हर घड़ी का उपयोग है।
यह
मेरा सौभाग्य कि अब तक
मैं
जीवन में लक्ष्यहीन हूं
मेरा
भूत-भविष्य न कोई
वर्तमान
में चिर नवीन हूं
कोई
निश्चित दिशा नहीं है
मेरी
चंचल गति का बंधन
कहीं
पहुंचने की न त्वरा में
आकुल-व्याकुल
है मेरा मन
खड़ा
विश्व के चौराहे पर
अपने
में ही सहज लीन हूं
मुक्त-दृष्टि
निरुपाधि निरंजन
मैं
विमुग्ध भी उदासीन हूं
तुम
फिक्र छोड़ो बाहर की। बाहर की दिशाएं, गंतव्य, लक्ष्य, उनकी मैंने बात ही नहीं की है। मैं चाहता
हूं कि तुम--
खड़ा
विश्व के चौराहे पर
अपने
में ही सहज लीन हूं
तब अगर
बाहर के जीवन में बहुत आपाधापी न हो, तो सौभाग्य!
यह
मेरा सौभाग्य कि अब तक
मैं
जीवन में लक्ष्यहीन हूं
क्योंकि
जिनके जीवन में बाहर लक्ष्य हैं, वे
भीतर जाने में बड़ी मुश्किल पाते हैं। बाहर के लक्ष्य पूरे नहीं होते। जीवन छोटा
होता है,
बाहर
के लक्ष्य पूरे नहीं होते। भीतर जाएं कैसे! महल बनाना था, नहीं बन पाया अभी। भीतर जाएं
कैसे! तिजोड़ियां भरनी थीं, अभी
खाली हैं,
भीतर
जाएं कैसे! पहले सब बाहर तो पूरा कर लें। बाहर का कभी कोई पूरा कर पाया है? कोई सिकंदर भी कभी बाहर का
पूरा नहीं कर पाता। साम्राज्य बाहर का अधूरा ही रहता है। बाहर के साम्राज्य का
स्वभाव अधूरा होना है। वह पूरा होता ही नहीं, पूरा होना उसका स्वभाव नहीं।
यह
मेरा सौभाग्य कि अब तक
मैं
जीवन में लक्ष्यहीन हूं
बाहर
कोई लक्ष्य ही नहीं है, तो
भीतर जाने की बड़ी स्वतंत्रता है।
मेरा
भूत-भविष्य न कोई
वर्तमान
में चिर नवीन हूं
न कोई
भूत है,
न अतीत
की कोई संपदा है हाथ में, जिसको
सम्हालूं। न कोई भविष्य की बड़ी योजना है, जिसके पीछे चिंतित, व्यथित, परेशान रहूं।
कोई
निश्चित दिशा नहीं है
मेरी
चंचल गति का बंधन
और कोई
ऐसी दिशा भी नहीं है, जो
मुझे पकड़े हो।
तो
भीतर जाना संभव है। ग्यारह दिशाएं हैं। दस दिशाएं बाहर हैं, ग्यारहवीं दिशा भीतर है। जब
दस दिशाओं में तुम्हारा कोई बंधन नहीं होता, तब तुम्हारी ऊर्जा ग्यारहवीं दिशा में अपने
आप समाविष्ट होने लगती है।
कहीं
पहुंचने की न त्वरा में
आकुल-व्याकुल
है मेरा मन
न कहीं
पहुंचना है,
न कोई
जल्दी है। इसलिए न कोई आकुलता, न कोई
व्याकुलता,
कोई
आपाधापी नहीं।
खड़ा
विश्व के चौराहे पर
अपने
में ही सहज लीन हूं
तब तुम
विश्व के चौराहे पर खड़े-खड़े भी निर्वाण में लीन हो जाते हो। तब बाजार में खड़े-खड़े
मोक्ष पास आ जाता है।
मुक्त-दृष्टि
निरुपाधि निरंजन
मैं
विमुग्ध भी उदासीन हूं
तब तुम
विमुग्ध भी दिखायी पड़ते हो, उदासीन
भी। तुम्हारे भीतर अतियां मिल जाती हैं। तुम बाहर भी होते हो, भीतर भी। तुम्हारे भीतर
अतियां मिल जाती हैं।
तो
मेरी बात को ठीक से समझना। अन्यथा तुम सोचो कि कोई लक्ष्य बनाना है, कुछ होकर रहना है, कुछ दुनिया को करके दिखलाना
है, नाम छोड़ जाना है इतिहास
में--ये पागलपन की बातें मैं नहीं कर रहा हूं। तुम जिसे इतिहास कहते हो, वह पागलों की कथा है। जिसने
भीतर की कोई बात खोज ली, उसने
ही कुछ खोजा है। बाहर की दौड़-धूप बच्चों के खेल-खिलौने हैं।
आखिरी प्रश्न:
कभी आप कहते हैं, व्यक्ति नहीं समष्टि ही है।
कभी कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति अनूठा, अद्वितीय है; और यह कि प्रत्येक की नियति
अलग है। कृपा कर इस विरोधाभास को दूर करें।
विरोधाभास
हो तो दूर करें। विरोधाभास नहीं है। तुम्हें दिखायी पड़ता है। तुम अपनी दृष्टि को
थोड़ा प्रखर करो,
पैना
करो।
तेरा
तो तब एतबार कीजे
जब
होवे कुछ एतबार अपना
परमात्मा
पर भरोसा तुम करोगे कैसे, अगर
अपने पर ही भरोसा न हो? करेगा
कौन भरोसा?
तुम्हें
अपने पर भरोसा नहीं है, तुम
परमात्मा पर कैसे भरोसा करोगे? तुम्हें
अपने पर भरोसा नहीं है, तो
तुम्हें अपने भरोसे पर कैसे भरोसा होगा?
तेरा
तो तब एतबार कीजे
जब
होवे कुछ एतबार अपना
सब
जुड़ा है। जो व्यक्ति होने में समर्थ है, वही समष्टि के प्रति समर्पित होने में समर्थ
है। जो अभी स्वयं ही नहीं है, उसका
समर्पण क्या?
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे
कहते हैं,
हम सब
समर्पण करते हैं। मैं कहता हूं, मुझे
पता भी तो चले,
सब है
क्या जो तुम समर्र्पण करते हो। नहीं, वे कहते हैं, अपना ही समर्पण करते हैं। मैं
पूछता हूं,
तुम हो
कहां? क्या लाए हो? खाली हाथ! तुम किस भ्रम में
पड़े हो?
समर्पण
के पहले कुछ होना तो चाहिए। और अगर कुछ भी नहीं है, तो समर्पण कौन करेगा? यह समर्पण तो फिर नपुंसक आवाज
है। इसका कोई मूल्य नहीं है। संकल्पवान ही समर्पण कर सकता है।
तुम्हें
विरोधाभास लगते हैं। तुम कहते हो, संकल्पवान!
संकल्पवान ही समर्पण कर सकता है। जिसके पास कुछ है, वही निवेदन कर सकता है। जिसके
पास है,
वही
चढ़ा सकता है।
व्यक्ति
को जगाना होगा। व्यक्ति को उठाना होगा। व्यक्ति को उसकी परम गरिमा तक पहुंचाना
होगा। तभी वह इस योग्य बनता है कि परमात्मा के चरणों में समर्पित हो सके। समष्टि
में अपने को खो सके। बूंद को महिमा दो, बूंद को निखारो, ताकि बूंद सागर हो, सागर हो सके। बूंद को इतनी
महिमा दो कि बूंद अपने सिकुड़ेपन को छोड़ने को राजी हो जाए, सागर बनने को राजी हो जाए। और
हर चीज चाहे व्यक्ति हो, चाहे
समष्टि हो;
चाहे
आत्मा हो,
चाहे
परमात्मा हो;
सब
अपनी- अपनी जगह बड़े सुंदर हैं। क्योंकि एक का ही खेल है। ऐसा समझो--
फैला
तो बदर और घटा तो हिलाल था
जो
नक्श था अपनी जगह बेमिसाल था
पहले
दिन का चांद और पूर्णिमा का चांद, कौन सुंदर
है? पहले दिन का चांद कि पूर्णिमा
का चांद?
फैला
तो बदर
बड़ा
होता गया तो पूर्णिमा का चांद बन जाता है।
और घटा
तो हिलाल था
और
छोटा होता गया तो फिर पहले दिन का चांद बन जाता है।
जो
नक्श था अपनी जगह बेमिसाल था
लेकिन
तुलना का कोई अर्थ नहीं है। पहले दिन का चांद भी बेमिसाल है, पूर्णिमा का चांद भी बेमिसाल
है।
सुना
है, ईरान के बादशाह ने अपने एक
वजीर को भारत भेजा। ईरान और भारत में बड़ा विरोध था। वजीर को भेजा था कि कुछ सुलझाव
हो जाए। वजीर आया,
उसने
भारत के सम्राट को कहा कि आप पूर्णिमा के चांद हैं। सम्राट बहुत प्रसन्न हुआ।
उन्होंने कहा कि और तुम अपने बादशाह को क्या कहते हो? उसने कहा, वे दूज के चांद हैं। आप
पूर्णिमा के चांद हैं। बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ। उसके वजीर भी बहुत प्रसन्न हुए।
इस वजीर को उन्होंने बहुत धन-दौलत दी, इसे विदा किया, बड़ी मैत्री का संबंध हो गया।
अपने सम्राट को कहता है दूज का चांद, भारत के सम्राट को कहता है पूर्णिमा का
चांद!
जब यह
वापस लौटा तो इसके दुश्मनों ने खबर पहुंचा दी ईरान। ईरान का बादशाह नाराज हुआ।
दरबार की राजनीति। लोगों ने उलझा रखा है उसको कि इसने अपमान किया है, यह जालसाजी करके आ रहा है।
आपको दूज का चांद बताया, यह तो
हार की बात हो गयी, यह तो
अपमान हो गया। और भारत के सम्राट को पूर्णिमा का चांद बताया।
जब
वजीर पहुंचा,
तो
नंगी तलवारों में घेर लिया गया। वहां फांसी तैयार थी। वजीर ने कहा, इसके पहले कि मैं मरूं, क्या मैं पूछ सकता हूं कि
कारण क्या है?
सम्राट
ने कहा,
अपमान
हुआ है। तुम्हें हमने भेजा था समझौता करने, पराजित होने नहीं। खुशामद करने नहीं। अगर इस
कीमत पर हल होना था मामला, तो लड़
ही लेना बेहतर था। तुमने पूर्णिमा का चांद कहा सम्राट को, मुझे दूज का चांद बताया! वह
वजीर हंसने लगा। उसने कहा, निश्चित
ही। क्योंकि दूज के चांद की बढ़ने की संभावना है। पूर्णिमा का चांद तो अब मरने के
करीब है। दूज का चांद बढ़ेगा, बड़ा
होगा, फैलेगा; पूर्णिमा का चांद तो अब
सिकुड़ेगा,
ढलेगा।
मैंने तुम्हारे सम्मान में ही बात कही है।
कौन
बड़ा है?
दूज का
चांद? पूर्णिमा का चांद? बात ही गलत है। यह सवाल ही
गलत है बड़े-छोटे का। क्योंकि पूर्णिमा का चांद और दूज का चांद, दो चांद नहीं हैं। तुलना
व्यर्र्थ है। दूज का चांद ही पूर्णिमा का चांद हो जाता है। पूर्णिमा का चांद ही
दूज का चांद बन जाता है। एक ही वर्तुल की यात्राएं हैं।
व्यक्ति
ही समष्टि हो जाता है। समष्टि ही व्यक्ति बनती रहती है। आत्मा में परमात्मा डूबता
रहता है,
आत्मा
परमात्मा में डूबती रहती है।
तुम
दूज के चांद हो,
बढ़ते
हो परमात्मा की तरफ। और परमात्मा छितर-छितर कर फिर दूज का चांद बनता जाता है।
इसलिए विरोधाभास मत देखो। विरोधाभास है भी नहीं।
फैला
तो बदर और घटा तो हिलाल था
जो
नक्श था अपनी जगह बेमिसाल था
आज इतना ही।
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